हिंदी का देश की मातृभाषा के स्थान पर आरूढ़ होना कोई एकाएक नहीं हुआ था. स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही समस्त देशभक्तों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व सामान्य समाज ने औपनिवेशिक आचरण से मुक्ति पानें हेतु अंग्रेजी से मुक्ति और हिंदी को भारतीय भाषाओं की माँ का स्थान देनें के भाव को भारतीय भाषा विधान का स्थायी भाव मान लिया था और लाख विरोध पर भी इस बात पर अटल भी रहे थे. किन्तु अब हिंदी को लेकर बड़ा ही तदर्थवादी आचरण होनें लगा है. इस क्रम में देखें तो भारतीय गणतंत्र में तमिलनाडु की फिल्मी प्रकार की राजनीति जो देश को विभिन्न मोर्चों पर विचित्रता की सीमा तक जाकर छकाती और सताती रही है वह तमिल जनता के भाव को समझें बिना ही सदा हिंदी विरोध को अपना हथियार बनाएं रहती है.
बहुत से राष्ट्रीय विषयों में तमिल या अन्य राज्यों की दक्षिणी राजनीति के विभिन्न नौटंकी रूप हम देखते चलें आयें हैं और यहाँ तक कि एक समय में वैदेशिक मामलों में भी श्रीलंका को लेकर तमिल के स्थानीय वोटों की राजनीति के कारण हम वैश्विक मचों पर दायें बाएं देखनें को मजबूर होतें रहें हैं. तमिल में हिंदी को लेकर दशकों पूर्व से एक प्रकार का पूर्वाग्रह और वितंडा खड़ा किया जाता रहा है. यहाँ हिंदी विरोध के आधार पर कई राजनेताओं ने छदम स्थानीयवाद खड़ा किया और भोली भाली तमिल जनता को भाषा के नाम भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकी हैं. हिंदी को लेकर इस प्रकार के प्रपंची आचरण की दोषी तमिल की दोनों प्रमुख पार्टियां रहीं है.
कटु सत्य है कि तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों ने हिंदी विरोध को मात्र इसलिए अपना हथियार बनाया कि कहीं दुसरा दल भाषावाद के इस हथियार से अपनी लाइन लम्बी न खींच दे!! एक अवसर पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र जी मोदी ने गृह मंत्रालय में हिंदी में कामकाज बढ़ानें का आदेश दिया तो मात्र कुछ तमिल नेताओं ने इसका विरोध किया था, और अलगाव के बेसुरे गीत गानें में सिद्धहस्त हो चुकें उमर अब्दुल्ला ने भी इस सुर में अपना सुर मिला दिया था. एक समय में तो तमिल मुख्यमंत्री जयललिता कह बैठी थी – सोशल मीडिया पर आधिकारिक संवाद की भाषा हिंदी की बजाय अंग्रेजी ही होनी चाहिए. फिर सदा की तरह भेड़ चाल चलते हुए पीएमके के रामदास ने भी गृह मंत्रालय के इस आदेश के विरोध में अपना व्यक्तव्य जारी कर दिया था.
दक्षिण भारत के केरल में मलयालम, कर्नाटक में कन्नड, आंध्र में तेलुगु और तमिलनाडु तथा पुदुच्चेरी में तमिल अधिक प्रचलित भाषाएँ हैं. ये चारों हमारें द्रविड परिवार की भाषाएँ मानी जाती हैं. स्वतंत्रता के पश्चात इन राज्यों में हिंदी बोले सुनें जानें का अभाव ही होता था तब इन राज्यों के नेता हिंदी के विरोध में जन आन्दोलन करनें और जनता को भड़काने में सफल हो जाते थे किन्तु वर्तमान में जिस प्रकार दक्षिण में हिंदी को रोजगारमूलक भाषा मानकर इसके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. अब दक्षिण के वे नेता जो भाषाई राजनीति करते थे वे अब इस तथ्य को समझ रहें है कि यदि उनकें राज्यों की जनता हिंदी सीख कर या मात्र बोलनें सुननें भर की क्षमता विकसित करके यदि अपनी व्यावसायिक निपुणता या पेशेवर दक्षता बढ़ा पाती है तो इसमें दोष क्या है?
अब भी दक्षिणी राज्यों में कहीं कहीं और कभी कभी वोटों की खातिर क्षुद्र राजनीति करनें वाले नेतागण इस प्रकार के भाषाई मतभेद बढ़ाने वाली राजनीति करते ही रहते हैं. इन हिंदी विरोधी नेताओं को समझना चाहिए कि दक्षिण भारत का शेष भारत की संस्कृति और भाषा के प्रति अपना आदरभाव का और विनम्र अनुगामी भाव का अपना गरिमामय और आदरणीय इतिहास रहा है. उत्तर भारत के तीर्थों के प्रति अपनें पूज्य भाव के कारण यहाँ का सनातनी और हिन्दू समाज हिंदी भाषा सीखनें और माता पिता के गंगा स्नान करा लेनें को सदा उत्सुक रहा है!! हिंदी सीख लेनें की रूचि के आधार पर ही 1918 में मद्रास में ‘हिंदी प्रचार आंदोलन’ को प्रारम्भ हुआ था और इसी वर्ष में स्थापित हिंदी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ. बाद में तमिल और अन्य दक्षिणी राज्यों की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए ही इस संस्था को राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया गया. वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान है, और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय इस संस्थान से हिंदी में दक्षता प्राप्त कर हिंदी की प्राणपण से सेवा कर रहें हैं.
हिंदी के प्रसार और प्रतिष्ठा में संलिप्त हजारों दक्षिण भारतीय बंधु न मात्र हिंदी से अपनें रोजगार के अवसरों को स्वर्णिम बना रहें हैं अपितु दक्षिण में हिंदी प्रचार के क्रम में ऐसी कई प्रतिष्ठित संस्थाओं को भी स्थापित करते रहें हैं. इसी क्रम में केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति, 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की स्थापना हुई. इन संस्थानों में लाखों छात्र हिंदी की परीक्षाओं में सम्मिलित व उत्तीर्ण होतें हैं. तमिलनाडु में तथाकथित और पूर्वाग्रही विरोध के कारण भले ही शासकीय शिक्षण संस्थानों में हिंदी की उपेक्षा हो रही हो, किंतु कई निजी संस्थानों में हिंदी की पढ़ाई जारी है, और इनकी परीक्षाओं में छात्रों की संख्या लाखों में रहती है.
आज तमिलनाडु में हिंदी को रोजगार का स्वर्णिम सोपान माननें के कारण ही गली गली में ‘हिंदी स्पीकिंग कोर्स’ के बोर्ड दिखतें हैं. जनसामान्य में असंतोष है कि निजी विद्यालयों में पढ़नें वाले बच्चे तो हिंदी पढ़कर अपनी रोजगार की संभावनाएं प्रबल कर लेतें हैं किन्तु शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थी हिंदी में पीछे रह जातें हैं. दक्षिणी राज्यों में हिंदी को आजीविका का साधन विकसित करनें का एक प्रबल माध्यम माननें का ही परिणाम है कि यहाँ कई सेवाभावी संस्थाएं निःशुल्क हिंदी कक्षाओं का संचालन, लेखन, प्रकाशन, पत्रकारिता, गोष्ठियों का आयोजन निरंतर कराती रहतीं हैं. मुम्बईया हिंदी फिल्मों और हिंदी गीतों की लोकप्रियता के कारण भी हिंदी अब दक्षिणी राज्यों में एक सहज सामान्य रूप से बोली सुनी जानें लगी है. आज हैदराबाद, बैंगलूर तथा चेन्नई नगरों से दसियों बड़े और कई छोटे हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित हो रहें हैं.
यहाँ यह कतई न समझा जाए कि दक्षिण भारत में हिंदी का चलन कुछ दशकों की देन है! दक्षिण के सभी राज्यों में हिंदी का अपना दीर्घ और समृद्ध इतिहास रहा है, दो सौ वर्ष पूर्व भी केरल में ‘स्वाति तिरुनाल’ के नाम से सुविख्यात तिरुवितांकूर राजवंश के राजा राम वर्मा (1813-1846) ने हिंदी की कालजयी कृतियाँ रचीं थी जो वहां के जनजीवन में अब भी परम्परागत रूप से आदर पूर्वक बोली सुनी जाती हैं. दशकों पूर्व से कोचीन से मलयालम मनोरमा की ओर से ‘युग प्रभात’ नाम के अत्यंत लोकप्रिय साप्ताहिक हिंदी पत्र और हिंदी विद्यापीठ (केरल) से ‘संग्रथन’ मासिक पत्रिका और कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की ओर से “हिंदी प्रचार वाणी” का प्रकाशन हो रहा है. हिंदी समर्थक पहल को वापिस लेनें के स्थान पर आज अधिक आवश्यक हो गया है कि दक्षिण के जनसामान्य की भावनाओं को न समझनें वालें और अनावश्यक हिंदी विरोध की राजनीति करनें वालों के प्रति कठोर रूख रखा जाए और ऐसे असंतोष उपजा रहे दक्षिणी नेताओं पर कठोरता से अंकुश भी लगाया जाए.
(लेखक विदेश मंत्रालय में राजभाषा सलाहकार हैं)
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