आज सुबह से उनका मन भारी है । नाश्ता खाना सब पूर्ववत् चलता रहा । वो भूखी थीं यह तो नहीं कह सकते क्योंकि बेमन से ही दाने तो पेट में गए ही । मन के भारीपन के अलावा ऐसा आज कुछ नहीं हो रहा था जो पहले कभी नहीं हुआ हो । कुछ अजीब सी हुड़क उठ रही थी सीने में । असुरक्षा का एहसास था या बुरी खबरों का असर पता नहीं । वह बच्चों को कहना चाही कि तुमलोग आज नीचे ही रहो , मत आराम करो एक दिन , कुछ बतियाने का मन कर रहा है । पर कह नहीं पाईं । बच्चों की दिनचर्या में बाधा भी नहीं बनना चाह रही थीं । तबियत कुछ ख़राब हो तो बोले भी लेकिन ऐसा कुछ था ही नहीं । पतिदेव को ही उठा देतीं परंतु आज उनकी भी तबियत कुछ सुस्त है । सुनने सुनाने के लिए वे तो हैं ही सदा । अकसर यह बोलकर आश्वस्त करते रहते हैं कि “मैं हूँ न तुम्हारे साथ तुम फ़िक्र क्यों करती हो ।” पर आज उन्हें भी डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगा । वह शाम के पाँच बजने का इंतज़ार करने लगीं जब नौकर चाय लेकर आया । “आवाज़ देदो साहब को।” उन्होंने नौकर को कहा ।
‘इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती है,‘ सुना था कभी , आज देख रही हैं । “चाय ठंढी हो रही है ।” वह स्वयं से बड़बड़ाईं और उठकर खुद ही कमरे में चली गईं । “अभी तक सो रहे हैं , इतना भी क्या सोना भई, कभी खुद भी उठ जाया करें ।” झल्लाती हुईं उन्होंने पतिदेव का पैर हिलाया । “कैसा लग रहा है अब , उठिए न , चलिए चाय पीते हैं , ठंढी हो रही है।” आवाज़ में तल्ख़ी का स्थान मिन्नत ने ले लिया । परंतु ये क्या.. छूते ही शरीर एक ओर लुढ़क गया और पैर दूसरी ओर । अवाक् हो गईं वह , सीने की हुड़क ख़त्म हो गई और निस्तब्ध सी वह देखती रहीं ।
डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’
संपादक पुष्पक साहित्यिकी