इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ एंड सीरिया अर्थात् आईएसआईएस का आतंक तथा इस्लाम के नाम पर इनके द्वारा लिखा जाने वाला क्रूरता का अब तक का सबसे काला अध्याय एक बार फिर करबला की दस मोहर्रम इकसठ हिजरी अर्थात् 680 ईसवी की उस घटना की याद को ताज़ा कर रहा है जिसमें हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के 72 सदस्यों व सहयोगियों को बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया था। एक बार फिर धर्म के नाम पर आतंक फैलाने की वही यज़ीदी सोच आईएस द्वारा पुन: दोहराई जा रही है।
कई मुगल व मुसलमान आक्रमणकारी शासकों का अनुसरण करते हुए इस्लाम के नाम पर अपना साम्राज्य स्थापित करने जैसे राजनैतिक उद्देश्य पर चलते हुए आईएस के लड़ाके इस्लाम,मुसलमान,इस्लामी कलमा,कुरान शरीफ तथा शरीयत जैसे इस्लामी अस्त्रों के नाम का सहारा ले रहे हैं। परंतु इनके अत्याचार,इनकी क्रूरता,इनके फरमान,इनके इरादे तथा इनके द्वारा जारी किए जाने वाले फतवे व आदेश ऐसे हैं जिनमें इस्लामी शिक्षा व सिद्धांतों की कोई जगह दिखाई नहीं देती। बजाए इसके इनके क्रूरतापूर्ण कारनामे यज़ीदी शिक्षाओं से मेल खाते हैं। इस्लाम के सभी पैगंबरों,खलीफाओं अथवा इमामों के दौर में क्या कभी ऐसा सुना गया है कि रमज़ान में क़ुरान शरीफ़ पढऩे की प्रतियोगिता में जीतने वालों को कोई युवती संभोग करने हेतु पुरस्कार स्वरूप दी गई हो? परंतु आईएस ने पिछले रमज़ान के दिनों में अपने इसी प्रकार के आयोजन में ऐसे ही इनामों की घोषणा की। क्या इस्लामी इतिहास में कभी औरतों की नीलामी की बात सुनी गई है? क्या निहत्थे औरतों व बच्चों के सिर कलम करने की बातें कभी किसी नबी,ख़लीफ़ा या इमाम के दौर में सुनने को मिली हैं?
हां यदि सुनने को मिली भी हैं तो वह दौर केवल सीरिया के शासक यज़ीद का दौर था और यज़ीदी हुकूमत के दौर में ही ज़ुल्म,अत्याचार,क्रूरता,वहशीपन,बर्बरता तथा अमानवीयता का प्रदर्शन देखने को मिला था। सन् 680 ईसवी में करबला के मैदान में 6 महीने के तीन दिन के प्यासे हज़रत इमाम हुसैन के बच्चे अली असगर को यज़ीद के लश्कर ने पानी मांगने के जवाब में उसके गले को तीर से छेद दिया था। करबला में हक और इंसाफ की बात करने वाले तथा यज़ीदी सोच का विरोध करने वाले हज़रत इमाम हुसैन,उनके भाई हज़रत अब्बास,बेटे अली अकबर सहित उनके कई परिजनों व सहयोगियों को कत्ल कर उनकी लाशों पर घोड़े दौडा़ए गए थे। उनके सिरों को काटकर उन्हें भाले में लगाकर बुलंद किया गया था तथा महिलाओं के बाज़ुओं में रस्सियां बांधकर उन कटे हुए सिरों के साथ जुलूस की शक्ल में करबला(इराक) से शाम (सीरिया) तक नंगे पांव पैदल ले जाया गया था। और इन्हीं कटे हुए सिरों को सामने रखकर तथा हज़रत मोहम्मद के घराने की महिलाओं व बच्चों को इसी दयनीय अवस्था में सामने बिठाकर यज़ीद ने अपने दरबार में जीत का जश्र मनाया था। और शराब व अय्याशी की महिफल अपनी कथित जीत की खुशी में सजाई थी।
यहां यह भी गौरतलब है कि करबला के इन शहीदों को यज़ीद की सेना ने शहादत के तीन दिन पहले से इनपर पानी भी बंद कर दिया था। इन्हें प्यासा रखने के मकसद से ही करबला में स्थित फुरात नदी के किनारे से हज़रत हुसैन व इनके साथियों के खेमों (तंबुओं)को हटा दिया गया था।
आज इस घटना को 1335 वर्ष बीत चुके हैं। परंतु आज दुनिया में यज़ीदियत के नाम पर धिक्कार भेजी जाती है। और हुसैनियत के नाम पर दुनिया के हर धर्म के मानने वाले आदर से अपना सिर झुकाते हैं। हालांकि करबला की घटना के बाद भी अनेक ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने ज़ुल्म व अत्याचार के आगे तथा अधर्म व असत्य के समक्ष अपना सिर झुकाना गवारा नहीं किया। चाहे उन्हें इसके बदले अपनी व अपने परिवार की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़ी हो। हज़रत इमाम हुसैन की शिक्षाएं केवल मुसलमानों या उनके नाम पर अज़ादारी करने वाले शिया समुदाय के लोगों तक के लिए ही सीमित नहीं हैं बल्कि उन्होंने अपने त्याग के द्वारा पूरी मानवता को यह संदेश दिया है कि ज़ालिम चाहे कितना ही ताकतवर,कू्रर व अत्याचारी क्यों न हो परंतु यदि वह अधर्म के साथ है, वह क्रूरता व हिंसा की राह पर चल रहा है, वह ज़ालिम,व्याभिचारी,अहंकारी व दुश्चरित्र है तो उसका विरोध करना अनिवार्य है।
इतिहास इस बात का साक्षी बन चुका है कि यदि हज़रत इमाम हुसैन ने अपनी व अपने परिवार के लोगों की कुर्बानी करबला के मैदान में न दी होती और यज़ीद की ताकत से भयभीत होकर उसकी ज़ालिम सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया होता तो निश्चित रूप से हज़रत मोहम्मद द्वारा प्रसारित किया गया इस्लाम धर्म यज़ीदियत की सोच का पर्याय बन जाता और आज आईएस द्वारा किया जा रहा ज़ुल्म-ो-सितम ही सच्चा इस्लाम समझा जाता। परंतु निश्चित रूप से आज न केवल इस्लाम बल्कि पूरी मानवता भी हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन की एहसानमंद है जिन्होंने करबला में अज़ीम कुर्बानी देकर इस्लाम धर्म को कलंकित होने से बचा लिया।
हुसैनियत की विचारधारा से केवल दुनिया के मुसलमान ही प्रभावित नहीं हैं बल्कि विश्व के अनेक महापुरुषों ने ख़ासतौर पर हमारे देश की तमाम प्रतिष्ठित हस्तियों ने भी हज़रत इमाम हुसैन के बलिदान की सराहना की है तथा उन्हें एक आदर्श बलिदानी पुरुष के रूप में स्वीकार किया है। उदाहरण के तौर पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने फरमाया कि-‘मैंने अहिंसा का पाठ करबला की लड़ाई का अध्ययन कर सीखा। मैंने हज़रत इमाम हुसैन से सीखा कि उस समय कैसे विजय हासिल की जाए जब आपके ऊपर अत्याचार किया जा रहा हो। यह मेरा विश्वास है कि इस्लाम का विस्तार उसके मानने वालों के द्वारा तलवार के प्रयोग का परिणाम नहीं है बल्कि यह हज़रत इमाम हुसैन की अज़ीम कुर्बानी का नतीजा है’। महात्मा गांधी ने आगे कहा कि अगर भारत एक सफल देश बनना चाहता है तो उसे हज़रत इमाम हुसैन के पदचिन्हों पर चलना चाहिए। उन्होंने यहां तक कहा कि यदि उनके पास करबला के 72 शहीदों जैसी बलिदानी सेना होती तो वे भारत को मात्र 24 घंटों में आज़ादी दिला देते। इसी प्रकार नोबल पुरस्कार विजेता रविंद्र नाथ टैगोर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि-‘न्याय व सत्य को जीवित रखने के लिए सेना और हथियार के बजाए बलिदान से ही सफलता प्राप्त होगी। ठीक उसी प्रकार से जैसे इमाम हुसैन ने किया’। इमाम हुसैन मानवता के मार्गदर्शक हैं।
उनका बलिदान किसी भी संगदिल (पत्थर जैसा हृदय रखने वाले) को पिघला सकता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के अनुसार हज़रत इमाम हुसैन की कुर्बानी प्रत्येक समूह व संप्रदाय के लिए थी। यह सच्चाई और ईमानदारी की राह का प्रतीक है। इसी प्रकार भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अनुसार-‘हज़रत इमाम हुसैन का बलिदान किसी एक देश या राष्ट्र तक सीमित नहीं बलिक यह मानवता व भाईचारे को दी जाने वाली एक दिशा ह’ै। डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा कि ’हज़रत इमाम हुसैन ने हालांकि 1300 वर्ष पूर्व अपना बलिदान दिया था परंतु उनका न मिटने वाला व्यक्तित्व आज भी लोगों के दिलों पर राज करता है’। सरोजिनी नायडू के शब्दों में-‘मैं मुसलमानों को बधाई देती हूं क्योंकि उनके समुदाय में हज़रत इमाम हुसैन जैसे महान व्यक्ति पैदा हुए जिनका सभी संप्रदाय आदर करते हैं’।
गोया हज़रत इमाम हुसैन ने अपनी कुर्बानी से हुसैनियत का वह संदेश पूरी दुनिया में फैलाया है जो रहती दुनिया तक कायम रहेगा। आज यज़ीदियत का कोई नामलेवा नहीं है। जबकि हुसैनियत की विचारधारा सिर चढक़र बोल रही है। परंतु बड़े दु:ख का विषय है कि आईएस की वर्तमान गतिविधियां तथा इनको सहयोग व समर्थन देने वाले लोग, देश अथवा ऐसे शासक एक बार फिर यज़ीदियत की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए देखे जा रहे हैं।
जहां आईएस के लोग ज़ुल्म और बर्बरता का इतिहास रचकर यज़ीदियत को पुन: जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं वहीं इनके विचारों का विरोध करने वाले लोग तथा वास्तविक इसलाम के पैरोकार हुसैनियत की राह पर अमल करते हुए इनके ज़ुल्म और बर्बरता का शिकार हो रहे हैं। जिस प्रकार इतिहास आज हज़रत इमाम हुसैन पर ज़ुल्म करने वाले सीरियाई शासक यज़ीद पर लानतें भेज रहा है तथा उसे एक अहंकारी व राक्षसी प्रवृति के शासक के रूप में याद कर रहा है उसी प्रकार भविष्य में आईएस के ज़ालिम लड़ाके भी इतिहास का काला अध्याय बनकर रह जाएंगे। दुनिया में आईएस ही नहीं बल्कि किसी भी देश अथवा धर्म या समुदाय में जहां भी यज़ीदियत का अनुसरण किया जा रहा हो अर्थात् ज़ुल्म और अत्याचार की इबारत लिखी जा रही हो उसका एकमात्र जवाब हज़रत इमाम हुसैन द्वारा करबला के मैदान में दी गई कुर्बानी अर्थात् हुसैनियत की राह पर चलना ही है।
Tanveer Jafri ( columnist),
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