उर्दू शायरी में नौहागीरी यानि विलाप को अत्यधिक प्रधानता दी जाती है । विशेषकर मुस्सिम शायर लोगों की भावनाओं को उकसाने के लिए एक से बढ़कर एक भावनात्मक शेर कहते रहते हैं । ऐसी ही कुछ बातों पर टिप्पणी स्वरूप है यह ग़ज़ल ।
जहाँ रहो हो वहाँ रौशनी लुटाओ तो ।
चिराग़ बन के किसी तौर जगमगाओ तो ।।
जो क़र्ज़ सर पै उठाए भटक रहे हो तुम ।
भले ही किस्त में लेकिन उसे चुकाओ तो ।।
जो ये जहान तुम्हारे लिये मुफ़ीद नहीं ।
सुकूँ कहाँ है ज़रा हमको भी बताओ तो ।।
चलो क़बूल किया सिर्फ़ तुम ही हो सच्चे ।
मगर ख़ुदा की डगर पै क़दम बढाओ तो ।।
सुधार अब तो फ़क़त बेटियों के बस में है ।
भरोसा करके कभी इनको आज़माओ तो ।।
मज़ा न आवै तो बेशक उतार लेना फिर ।
पर एक बार तुम अपनी पतंग उड़ाओ तो ।।
हुनर-नवाज़ नहीं छूते पोरुओं से थन ।
सहर भी होगी मगर रात को बिताओ तो ।।
तुम्हें पसंद नहीं थे जो दूसरों के रंग ।
उन्हीं में डूबे पड़े हो स्वयं, बताओ तो ।।
मुकुट, मुँडासे, विजयमाल सब तुम्हारे हैं ।
हुज़ूरे-वाला मगर अपना सर झुकाओ तो ।।
नवीन सी. चतुर्वेदी
मुम्बई
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वाह नवीन भाई वाह… बेहतरीन ग़ज़ल हुई है…हर शेर कमाल का तराशा है आपने… जिंदाबाद…
Nice