Saturday, November 23, 2024
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विश्व बाज़ार में भारत की प्रतिनिधि ‘हिन्दी’

मानक बदल रहे हैं, इमारतों का क़द बढ़ रहा है, सीमाएँ विस्तारित हो रही हैं, आदमी चाँद पर जा रहा है, भारत चाँद के दक्षिण ध्रुव पर पहुँच रहा है, विश्व की प्रगति इतरा रही है, जनसंख्या बढ़ रही है, भाषाओं का फ़लक बदल रहा है, इन सबके बावजूद किसी भाषा के विस्तारित होते दायरे के कारण राष्ट्र के सम्बन्ध मज़बूत और सँवर रहे हैं तो वह भाषा हिन्दी है। क्रिकेट के मैदान से लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कमान संभाल रहे भारतीय मूल के रहने वाले अथवा नौकरी के लिए उस देश पहुँचे भारतीय भी हर स्थान पर भारत को मज़बूत कर रहे हैं। और वे तिरंगे ध्वज और बहुसंख्यकों की मातृभाषा हिन्दी का ही दामन थाम कर चल रहे हैं।

यह भी सत्य है कि जो अमृतकाल का भारत बनने जा रहा है उसके सौष्ठव और आधारभूत ताना-बाना गढ़ने में हिन्दी का अहम योगदान है। आज माँ, मातृभूमि और मातृभाषा का कर्ज़दार राष्ट्र का प्रत्येक निवासी है, और इसी कारण ही राष्ट्रवासी अपने सेवा के भाव को जीवित रखते हैं। हिन्दी न केवल एक भाषा मात्र है बल्कि भारत की सांस्कृतिक अखंडता के परिचय का दूसरा नाम है। ‘एक राष्ट्र-एक राष्ट्रभाषा’ के सिद्धांत में ही भारत की समस्त सांस्कृतिक अखंडता मूलक समस्याओं का समाधान है। जैसे कि देश में क्षेत्रवाद का हल हिन्दी है, नव त्रिभाषा के सूत्र में एक राष्ट्रभाषा के माध्यम से क्षेत्रवाद की समस्या हल हो सकती है। जातिवाद पर चोट एक राष्ट्रभाषा होने से की जा सकती है, तर्क अनुसार तो जब राष्ट्र की भाषा एक है तो फिर भेद कैसा? एक भाषा-एक राष्ट्र की परिकल्पना का साकार रूप ही समस्या का समाधान है। जब जातिवाद और क्षेत्रवाद समाप्त हो गया, तब तो राष्ट्रीय एकता को अन्यत्र कहीं खतरा नज़र ही नहीं आएगा।

इसी तरह हमारे राष्ट्र में संस्कार सिंचन की प्राथमिक पाठशाला बच्चे का घर और परिवार होते हैं। जिस तरह बच्चे की माँ नौ माह अपनी कोख में उस बच्चे को पालती है, अपना दूध पिलाती है, उसका ख़्याल रख कर बड़ा करती है, तब बच्चा माँ और पिता का कर्ज़दार हो जाता है। इसी तरह हमारे यहाँ संस्कारों का ककहरा जिस भाषा में सिखाया जाता है वो है मातृभाषा। और 80 प्रतिशत हिंदुस्तान की मातृभाषा हिन्दी है, इसी के आधार पर हिन्दी का कर्ज़दार भी पूरा देश है क्योंकि यदि संस्कार नहीं होते तो शिक्षित नहीं होते, शिक्षित नहीं होते तो जीवनयापन करने में कठिनाइयाँ आतीं। मतलब साफ़ है कि आपके वर्तमान जीवन के लिए आपके चिंतन के मूल में संस्कार हैं और वे संस्कार आपकी मातृभाषा हिन्दी में ही दिए गए हैं, क्योंकि अंग्रेज़ी नस्ल तो हमारे यहाँ पैदा नहीं होती।

जब हम कर्ज़दार हैं हिन्दी भाषा के तो हमारा भी दायित्व उसके प्रति बनता है। वर्तमान में भारत के ही विभिन्न प्रांतों में हिन्दी का महत्त्व नहीं स्वीकारा जा रहा है और उसके गौरव की स्थापना अभी भी अधूरी है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक कर्ज़दार को हिन्दी के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाहन करना चाहिए। हिन्दी भारत में संवाद की प्रथम कारक है। भाषा का अपना एक महत्त्व है जिसके कारण संवाद का प्रारम्भ होता है और संवाद का पहला कायदा है कि जिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद होना है उनकी भाषा का एक होना भी आवश्यक है। जैसे यदि आदमी और कौवे की भाषा अलग–अलग नहीं होती तो शायद भारत के कौवे भी गीता और क़ुरान पढ़ रहे होते। इसलिए संवाद स्थापित करने की पहली शर्त दोनों की भाषा का एक होना है। भाषा से संस्कार ज़िंदा होते हैं, संस्कारों का परिष्कृत स्वरूप ही संस्कृति का परिचय है, रहन-सहन के अतिरिक्त संवाद आवश्यक तत्व है। देश में एक भाषा की आवश्यकता क्यों है?

इसका महत्त्वपूर्ण तर्क इस बात से साबित होता है कि जैसे यदि आप पंजाबी भाषी हैं और आप भारत के एक हिस्से दक्षिण में जाते हैं, और वहाँ की भाषा तमिल, तेलुगु, मलयाली या कन्नड़ है, और आप न तो द्रविड़ भाषाओं को जानते हैं, न ही वे पंजाबी। ऐसी स्थिति में न आप संवाद कर पाएँगे, न ही वो। और संवाद न होने की दशा में समय और कार्य व्यर्थ हो जाएगा। अब ऐसी ही स्थिति में देश के आंतरिक भू भागों पर भी अलग-अलग भाषाओं के होने से समरूपता दृष्टिगोचर नहीं होती। इसलिए कम से कम भारत की एक प्रतिनिधित्व भाषा होनी चाहिए, जिसका देश की अन्य भाषाओं के साथ समन्वय भी हो और वो सम्पूर्ण राष्ट्र में अनिवार्य हो। अब दूसरी महत्त्वपूर्ण बात कि अब इस एक भाषा का चुनाव कैसे हो? इसके लिए इस तर्क को समझना होगा कि किस भाषा का प्रभुत्व जनसंख्याबल के अनुसार अधिक है।

हिन्दी भाषा के विकास में संतों, महात्माओं तथा उपदेशकों का योगदान भी कम नहीं आँका जा सकता है क्योंकि वे आम जनता के अत्यंत निकट होते हैं। इनका जनता पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। उत्तर भारत के भक्तिकाल के प्रमुख भक्त कवि सूरदास, तुलसीदास तथा मीराबाई के भजन सामान्य जनता द्वारा रस के साथ गाए जाते हैं। इसकी सरलता के कारण ही कई लोगों को कंठस्थ हैं। इसका प्रमुख कारण हिन्दी भाषा की सरलता, सुगमता तथा स्पष्टता है। संतों-महात्माओं द्वारा प्रवचन भी हिन्दी में ही दिए जाते हैं। क्योंकि अधिक से अधिक लोग इसे समझ पाते हैं। उदाहरण के रूप में दक्षिण-भारत के प्रमुख संत वल्लभाचार्य, विट्ठेल रामानुज तथा रामानंद आदि ने हिन्दी का प्रयोग किया है। उसी प्रकार महाराष्ट्र के संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर आदि, गुजरात प्रांत के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू दयाल तथा पंजाब के गुरु नानक आदि संतों ने अपने धर्म तथा संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए एकमात्र सशक्त माध्यम हिन्दी को बनाया। हमारा फ़िल्म उद्योग तथा संगीत हिन्दी भाषा के आधार पर ही टिका हुआ है।

भारत पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से 200 से 250 वर्षों तक अंग्रेज़ो का शासन रहा, अल्पावधि तक फ़्रांसीसियों एवं डच आक्रान्ताओं का प्रभाव भी रहा। भारत के कुछ भू-भागों जैसे केरल, गोवा (मालाबार का इलाका आदि) पर तो पुर्तगालियों का 400–450 वर्षों तक शासन रहा। भारत पर 7–8 शताब्दी से आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, तैमूर लंग, अहमद शाह अफदाली, बाबर एवं उसके कई वंशज आक्रांताओं का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड भी सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से भारत के लिए कोई बहुत अच्छा समय नहीं रहा। भिन्न–भिन्न आक्रांताओ के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से ज़रूर कुछ परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तन तो तात्कालिक थे जो समय के साथ ठीक हो गए, लेकिन कुछ स्थाई हो गए।

जब तक भारत पर आक्रांताओं का शासन था तब तक हम पर परतंत्रता थी। सन् 1947 की तथाकथित सत्ता के हस्तांतरण के उपरांत शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गई किंतु मानसिक परतंत्रता से अब भी हम जूझ रहे हैं। यह अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जुझारूपन हमारे रक्त में है, जो कभी समाप्त नहीं हो सकता। इसी के कारण हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है “न पूरी ताक़त से विदेशी हो पाए, न पूरी ताक़त से भारतीय हो पाए, हम बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए”। एक सबसे बड़ा विकार स्थानीय भाषा एवं बोली के पतन के रूप में आया। हम आसाम में, बंगाल में, गुजरात में, महाराष्ट्र में रहते हैं, वहीं की बोली बोलते हैं, लिखते हैं, समझते हैं परंतु सब सरकारी कार्य हेतु अंग्रेज़ी ओढ़नी पड़ती है। यह विदेशीपन, अंग्रेज़ीपन के कारण और भी भयावह स्थिति का तब निर्माण होता है जब नन्हे–नन्हे बालकों को कान उमेठ-उमेठ कर अंग्रेज़ी रटाई जाती है।

सरकार के आँकड़ों के अनुसार जब प्राथमिक स्तर पर 18 करोड़ भारतीय छात्र विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश लेते हैं तो अंतिम कक्षा जैसे उच्च शिक्षा जैसे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), चिकित्सा (मेडिकल), संचालन (मैनेजमेंट) आदि तक पहुँचते-पहुँचते तो 17 करोड़ छात्र/छात्राएँ अनुतीर्ण हो जाते हैं, केवल एक करोड़ उत्तीर्ण हो पाते हैं। भारत सरकार ने समय–समय पर शिक्षा पर शोध एवं अनुसंधान के लिए मुख्यतः तीन आयोग बनाए, दौ. सि. कोठारी (दौलत सिंह कोठारी), आचार्य राममूर्ति एवं एक और… सभी का यही मत था की यदि भारत में अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा व्यवस्था न हो अपितु शिक्षा स्थानीय एवं मातृभाषा में हो तो यह जो 18 करोड़ छात्र हैं, सब के सब उत्तीर्ण हो सकते हैं, उच्चतम स्तर तक।

भारत की संस्कृति प्रशांत महासागर के समान गहरे हृदय वाली है। इसकी सांस्कृतिक अखंडता को बचाने और संस्कृति के संरक्षण हेतु भी जनभाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनना चाहिए। भारतीय भाषाएँ अभी भी विदेशी भाषाओं के वर्चस्व के कारण दम तोड़ रही रही हैं। एक समय आएगा जब देश की एक भाषा हिन्दी तो दूर बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी हत्या हो चुकी होगी, इसलिए राष्ट्र के तमाम भाषा हितैषियों को भारतीय भाषाओं में समन्वय बना कर हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना होगा और अंतर्राज्यीय कार्यों को स्थानीय भाषाओं में करना होगा। हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी स्वीकार्यता जनभाषा के रूप में हो। यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नहीं आने वाली है। इसके लिए हिन्दी को रोज़गारपरक भाषा के रूप में विकसित करना होगा क्योंकि भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है और बाज़ार मूलक भाषा की स्वीकार्यता सभी जगह आसानी से हो सकती है। साथ ही, अनुवादों और मानकीकरण के ज़रिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा।

भारतीय राज्यों में समन्वय होने के साथ-साथ प्रत्येक भाषा को बोलने वाले लोगों के मन में दूसरी भाषा के प्रति भरे हुए गुस्से को समाप्त करना होगा। जैसे द्रविड़ भाषाओं का आर्यभाषा, नाग और कोल भाषाओं से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया, उसका कारण भी राजनीति की कलुषित चाल रही, अपने वोटबैंक को सहेजने के चक्कर में नेताओं ने भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ लोगों को भी आपस में मिलने नहीं दिया। इतना बैर दिमाग़ में भर दिया कि एक भाषाई दूसरे भाषाई को अपना निजी शत्रु मानने लग गया, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। राष्ट्र की सांस्कृतिक विखण्डताओं को जब एक ही बात से हल किया जा सकता है, तब भारत के राजनैतिक आकाओं का ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या राजनीति भी अर्जुन गाण्डीव धर्म से ही समझते हैं ? क्योंकि भारत है तो अहिंसा प्रधान राष्ट्र पर वे ये क्यों भूल जाते हैं कि जब-जब राष्ट्र की अखंडता पर विपत्ति आई है तब-तब इसी राष्ट्र में कृष्ण सुदर्शन उठाते हैं और महाराणा प्रताप और शिवाजी भी पैदा होते हैं।

आज विपत्ति का पहाड़ तो राष्ट्रभाषा हिन्दी पर भी आ गया है। नेता भाषा के नाम पर केवल अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेक रहे हैं, परन्तु वे शायद भूल गए कि इसी भाषा की स्थापना में राष्ट्र की समस्त सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान पल रहा है। इसी दिशा में भारत के हृदय मध्यप्रदेश के इंदौर से मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम के माध्यम से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में हिन्दी में हस्ताक्षर करने के भाव प्रेरित करना व हिन्दी को रोज़गारमूलक भाषा बनाने का महाअभियान चलाया जा रहा है। इसी तारतम्य में राष्ट्रभाषा और राजभाषा के भ्रम को हटाने और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के साथ ही हिन्दी के गौरव की स्थापना हो सकेगी और इसी के साथ भारत की सांस्कृतिक अखंडता अक्षुण्ण रहेगी। आओ हिंद के गौरव की पुनर्स्थापना की जाए, मिलकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाएँ। चूंकि वैश्विक आलोक में भारत की प्रतिनिधि भाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकार्यता है, इसी दृष्टिकोण से हमें अपने देश में भी हिन्दी को अधिकाधिक महत्त्व देना चाहिए। यह नए दौर का भारत है, जो पुनः विश्व गुरु बनने की राह पर है।

[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं।]

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
पत्रकार एवं स्तंभकार, इंदौर
204, अनु अपार्टमेंट, 21-22 शंकर नगर, इंदौर
सम्पर्क- (+91-9893877455) | (+91-9406653005)
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