पिछले साल अगस्त में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विशेष प्रावधानों को खत्म किए जाने के बाद अब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में परिसीमन प्रक्रिया को मंजूरी देते हुए परिसीमन आयोग का गठन कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता में एक परिसीमन आयोग का गठन किया गया है
परिसीमन में जम्मू क्षेत्र की करीब सात सीटें बढ़ेंगी जिससे इस क्षेत्र का केंद्र शासित प्रदेश में राजनीतिक दबदबा बढ़ जाएगा। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार, राज्य विधानसभा की मौजूदा 85 सीटों में सात सीटें और जुड़ेंगी।
केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में परिसीमन प्रक्रिया को एक साल के अंदर पूरा करने का फैसला किया है। परिसीमन के बाद विधानसभा में जम्मू क्षेत्र की करीब सात सीटें बढ़ेंगी, जिससे इस क्षेत्र का केंद्र शासित प्रदेश में राजनीतिक दबदबा बढ़ जाएगा। केंद्र ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता में एक परिसीमन आयोग का गठन किया है। परिसीमन आयोग जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के तहत राज्य में नए सिरे से विधानसभा और लोकसभा सीटों को तय करेगा।
क्यों जरूरी है परिसीमन
जम्मू कश्मीर का क्षेत्रफल : जम्मू और कश्मीर के वर्तमान नक्शे को देखें तो यहां का 58 प्रतिशत भू-भाग लद्दाख है, जहां आतंकवाद जीरो है। यह क्षेत्र बौद्ध बहुल है। राज्य में 26 प्रतिशत भू-भाग जम्मू का है, जो कि हिन्दू बहुल है। यहां पर भी कोई आतंकवाद नहीं है। अब बच जाती है कश्मीर घाटी जहां का क्षेत्रफल सिर्फ 16 प्रतिशत है और यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। जम्मू और लद्दाख को मिला दें तो 84 प्रतिशत क्षेत्र हिन्दू और बौद्ध बहुल है, जबकि 16 प्रतिशत क्षेत्र मुस्लिम बहुल है। संपूर्ण राज्य की राजनीति पर अब तक 16 प्रतिशत क्षेत्र के राजनीतिज्ञों का ही कब्जा रहा है।
कश्मीर घाटी में 10 जिले हैं जिनमें से 4 जिले ऐसे हैं जहां अलगाववादी और आतंकवादी सक्रिय हैं। ये जिले हैं सोपियां, पुलवामा, कुलगांव और अनंतनाग। इन चार जिलों को छोड़ दें तो संपूर्ण घाटी और जम्मू आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्त है। लेकिन, संपूर्ण देश में यह भ्रम फैला है कि संपूर्ण जम्मू कश्मीर जल रहा है।
कब हुआ था विधानसभा की सीटों का गठन
वर्ष 1947 में जन्मू और कश्मीर का भारत में कानूनी रूप से विलय हुआ था। उस समय जम्मू और कश्मीर में महाराजा हरिसिंह का शासन था। दूसरी ओर कश्मीर घाटी में मुस्लिमों के बीच उस वक्त शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता थी। जबकि महाराजा हरिसिंह की जम्मू और लद्दाख में लोकप्रियता थी। लेकिन शेख अब्दुल्ला पर जवाहरलाल नेहरू का वरदहस्त था इसीलिए नेहरू ने राजा हरिसिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री बना दिया।
वर्ष 1948 में शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद राजा हरिसिंह की शक्तियों को समाप्त कर दिया गया। इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी मनमानी शुरू कर दी। 1951 में जब जम्मू और कश्मीर की विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरु हुई तो शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर घाटी को 43 विधानसभा सीटें दी, जम्मू को 30 विधानसभा सीटें दी और लद्दाख को सिर्फ 2 विधानसभा सीटें दी गईं। मतलब कश्मीर को जम्मू से 13 विधानसभा सीटें ज्यादा मिली। वर्ष 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही।
1993 में जम्मू और कश्मीर के परिसीमन के लिए एक आयोग गठित किया गया। 1995 में परिसीमन की रिपोर्ट को लागू किया गया। पहले जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें हुआ करती थीं, लेकिन परिसीमन के बाद 12 सीटें और बढ़ा दी गईं।
अब विधानसभा में कुल मिलकर 87 सीटें हो गई थीं। इनमें कश्मीर के खाते में 46, जम्मू के खाते में 37 और लद्दाख के खाते में 4 सीटें आईं। इसका मतलब यह कि तब भी कश्मीर घाटी को जम्मू से ज्यादा सीटें मिली। जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही दबदबा रहा है। क्योंकि विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि सरकार कश्मीर से और कश्मीर की ही बनती है जम्मू से या जम्मू की नहीं।
कश्मीर में दो परिवार हैं एक शेेख अब्दुल्ला का परिवार और दूसरा मुफ्ती मोहम्मद सईद (महबूबा मुफ्ती) का परिवार। ये दोनों ही परिवार बारी-बारी जम्मू और कश्मीर पर विधानसभा के इसी गणित के आधार पर राज करते रहे हैं। इस राज को आगे भी जारी रखने के लिए ये दोनों ही परिवार नहीं चाहते थे कि कभी परिसीमन हो। इसीलिए उन्होंने हर दस वर्ष में राज्य में परिसीमन कराने को टाला।
कश्मीर घाटी में मुसलमानों की जनसंख्या करीब 98 प्रतिशत है। 1989 से 1990 के बीच घाटी से हिन्दुओं को मारकर भगा दिया है जिनका अब वोट डालना लगभग मुश्किल होता है। यही कारण है कि राज्य में बीते 30 वर्षों में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के बगैर किसी की भी सरकार कभी नहीं बन पाई।