Saturday, November 23, 2024
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केरला स्टोरी ने तो दिल और दिमाग हिला दिया !

पुराने दौर में कभी एक गीत चलता था : बाबू जी धीरे चलना / प्यार में जरा सँभलना / बड़े धोके हैं इस राह में। तो बाबूजी के लिए तो वह चेतावनी दे दी गई थी, बेबीजी के लिए नहीं। उसके पीछे शायद वही मनोविज्ञान रहा होगा जो स्त्री को enchantress मानकर चलता है। लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज में प्यार में ज्यादा बड़े धोके तो लड़की को खाने पड़ते हैं। उसके लिए सावधानी का कोई नैरेटिव नहीं बुना गया।

स्त्री यदि मोहिनी है तो भस्मासुरों के लिए है पर तब क्या हो जब स्त्री स्त्री के विरुद्ध पुरुषों की यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए जाल बुने।माया अब पुरुषों पर नहीं डाली जाती लड़कियों पर डाली जाती है। यह कुट्टनी का कार्य भी नहीं है, कुट्टनी वैश्याओं को उनके व्यवसाय की शिक्षा देती थी और उन्हें उन हथकंडों का ज्ञान कराती थी जिनके जरिए वे कामी जनों से प्रचुर धन का अपहरण कर सकें। कश्मीर नरेश जयापीड के प्रधान मंत्री दामोदर गुप्त ने कुट्टनी मतम नामक महाकाव्य की रचना की थी।

लेकिन क्या आधुनिक युग में कुट्टनी की भूमिका बदल गई या यह कोई दूसरा ही phenomenon है ? यह अमेरिका में जो bottom bitches कहलाती हैं, यह वह भी नहीं हैं, कुट्टनी तो वृद्धा या अनुभवी हुआ करती थी। यह आपकी सहेली भी हो सकती है, आपकी समवयस्का भी। यह जो फिल्म में दिखाई गई है, यह सिर्फ अपने हृदय के पत्थर हो जाने में ही कुट्टनी के बराबर हो सकती है बाकी सब मामलों में उसका न कोई जोड़ है और न तोड़।

क्षेमेन्द्र ने समयमातृका नामक ग्रंथ में इसकी हृदय हीनता का वर्णन करते हुए लिखा था कि वह खून पीने तथा मांस खाने वाली बाघिन है जिसके न रहने पर कामुक जन गीदड़ों के समान उछल कूद मचाया करते हैं –

व्याघ्रीव कुट्टनी यत्र रक्तपानानिषैषिणी
नास्ते तत्र प्रगल्भन्ते जम्बूका इव कामुका:

ये कामुक जन अब आईएसआईएस में हैं, अफ़गानिस्तान में हैं और उनकी यह go-between हमारे आपके बीच में है।ये भी शिक्षा दे रही है इम्प्रेशनेबल यंग माइंड्स को।इसे शिक्षा कहना एक euphemism है।इसके लिए सही शब्द ब्रेन- वाशिंग है।और इस कार्य को करने से पहले यह स्वयं भी ब्रेनवाश्ड है। यह उसे दीन का काम समझकर करती है। यह “तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मेरे लिए मेरा दीन” की जो बात पवित्र पुस्तक में है, उस पर ही उसका भरोसा नहीं। देखा जाए तो इस पवित्र बात पर मध्यकाल से ही किसी भी आक्रमणकारी भरोसा नहीं किया। तलवार से लेकर तर्क तक सब कुछ इस पवित्र सिद्धान्त के ठीक उलटा चलने में खर्च किये गये।

यदि इसे माना जाता तो धर्मान्तरण को इस फिल्म में दिखाए गए छल कपट से क्या प्रेम से भी करने की क्या ज़रूरत है।विश्वास की स्वतंत्रता विश्वास बदलवाने की लफंगई में कैसे बदल सकती है?

कुट्टनी तो फिर भी अकेले कार्य करती थी, यह उसका जो आधुनिक संस्करण है।यह एक गैंग का हिस्सा है। एक ग्रुप की सदस्यता से इसे किसी व्यक्तिगत किस्म के अपराध-बोध से भी मुक्ति मिल जाती है। यह स्वयं भी सिखाई गई है कि इसे कैसे ऑपरेट करना है। यह किसी जल्दबाज़ी में किया जाने वाला काम नहीं है।पूरे धीरज से किया जाने वाला काम है। इसे ग्रूमिंग कहते हैं। उसके सिर्फ़ एक अर्थ में नहीं। बल्कि यों भी कि लड़की ग्रूम के बारे में सोचती रहती है, और लड़का अपने तरह से अपने एजेंडे की सेवा में।अच्छा ट्रेप वही है जो फँसाते समय ट्रेप- सा लगे ही नहीं। मध्यकाल में तो सीधे तलवार आपके कंठ पर होती थी पर अब आधुनिक काल को इतनी homage पेश करना तो बनता ही है।

वह युद्ध अब भी है पर यह रनभूमि उस कच्ची अदीक्षित असंस्कारित मनोभूमि की है जिनमें उस उमर के infatuations और proclivities का भी अच्छा मनोवैज्ञानिक इस्तेमाल है।स्वतंत्रता से स्लेवरी तक की यात्रा कुछ इस तरह से करवानी है कि उसमें खुद की ओर से ज़हमत भी नहीं जुटानी पड़े। यहां किसी के धर्म पर प्रश्न करने की स्वतंत्रता का लाभ उठाकर उसे उस देश में पहुंचाना है जहाँ मज़हब पर प्रश्न करने पर मृत्युदंड की सजा है। और सिर्फ़ वह सजा कई ऐसी ऐसी चीजों पर भी है जिसका कोई इल्म उस मनोभूमि को नहीं है।

तर्क के कांशस के पीछे infatuation का एक unconscious है।युवावस्था का अपनी परंपरा से विद्रोह का एक टिपिकल भारतीय रोमांस है। एक पैरेन्टल कमांड थियरी है जहां परिवार से बग़ावत करना ही अपने होने को प्रमाणित करना है। नई पीढ़ी को यों ही पितृ ऋण उतारना है। जब प्रेम की डिवाइन कमांड आ गई है तो कहाँ लगती है पैरेन्टल कमांड।तो यात्रा इस कमांड से लेकर ISIS के कमांडर तक पहुँचकर ही रुकती है।

आप कह सकते हैं कि हर यात्रा ऐसे खत्म नहीं होती पर यह कहानी तो उनकी है जो ऐसे ही मरहलों पर पहुँचीं।जिन भिन्न यात्राओं की बात की जाती है, उनमें कुट्टनियाँ नहीं होतीं, जिन भिन्न यात्राओं की बात होती है, उस में एक दूसरे की आस्थाओं का सम्मान होता है, उन्हें बदलवाने की कोशिश नहीं होती। जिन भिन्न यात्राओं की बात होती है, वे दो हृदयों का स्वतःस्फूर्त उच्छलन होती हैं, किन्हीं गैंग्स का गणित नहीं होतीं। उन यात्राओं की सुखांतिकाएं इस नायिका और उसकी उन दो सहेलियों की दुखांतिका के लिए किसी तरह की सान्त्वना नहीं हैं। इसलिए यदि फिल्म उन सुखांतिकाओं का उल्लेख नहीं करती तो उसमें दिखाई गई वेदना अवैध नहीं हो जाती।

फिल्म का नाम ‘द केरला स्टोरी ‘रखना शायद इसलिए हुआ है कि ऐसी प्रवृत्ति वहां अधिक देखने को मिली है और लव जेहाद शब्द वहीं से पैदा भी हुआ। पर यह आधुनिक आतंकवाद द्वारा यौन दासियों का रिक्रूटमेंट है, यह लव जेहाद वगैरह कुछ नहीं है, और यह सिर्फ केरल तक सीमित नहीं है।

इस फ़िल्म की नायिका को इस देश के रूपक की तरह लीजिए। इसकी भी इसी तरह ग्रूमिंग की गई है। आज जो इस फ़िल्म पर केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु में लगते हुए बैन हैं, इसके विरोध में बैन की माँग करते हुए या जे एन यू में फ़िल्म के प्रदर्शन करते हुए लोग वे ही हैं जिन्हें उस तरह की सोच में ग्रूम किया जाता रहा है।

और जितने दिनों से यह अपराध चलता आया है, जैसे जैसे इसने एक विकेन्द्रित तरह से पैठ बना ली है, जैसी निर्लज्जता के साथ यह किया जा रहा है, हमारे कुछ प्राधिकारी और कुछ सरकारें जैसे जैसे इसे ढाँपने की कोशिश करती आईं हैं, अपने ही देश की बेटियों को जैसे इन अंतर्राष्ट्रीय भेड़ियों के सामने easy meat बनाकर रख दिया गया है और उनकी पीड़ा और त्रासदी से इनमें से कोई उद्विग्न नहीं है- लगता ही नहीं यहाँ वे राम हुए जिन्होंने सीता के लिए समुद्र लांघ दिया था, लगता ही नहीं यह उन पांडवों का देश है जिन्होंने द्रौपदी के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए महाभारत लड़ लिया था। इसे लेकर किसी आंतरिक राजनीति की जगह मूल पर प्रहार होना चाहिए। ISIS के hideouts पर। इनकी sanctuaries पर। और यदि ये ग्रूमिंग गैंग्स अन्य देशों में भी सक्रिय हैं, तो यह एक संयुक्त अंतर्राष्ट्रीय अभियान होना चाहिए।

क्या ये ‘रोमियो पिंप’ आज यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, स्वीडन आदि देशों की भी वास्तविकता नहीं हैं। क्या बर्लिन की लवरब्वाय रिंग से इस फ़िल्म में दिखाये गये युवक भिन्न हैं? क्या अभी बर्लिन में 2019 में Bremerhaven case हुआ था, उसमें भी लड़की पर ड्रग्स का ऐसा ही इस्तेमाल न था? उसी वर्ष फ्रीबर्ग में ऐसी ही ग्रूमिंग और ऐसी ही ड्रग्स का शिकार लड़की को न बनाया गया था? स्वीडन के स्टॉकहोम, गोथेनबर्ग, माल्मो जैसे कई शहरों में यह ग्रूमिंग नहीं देखी गई? 2020 में फ़िनलैंड में oulu शहर में एक ग्रूमिंग गैंग गिरफ़्तार न हुई? क्या 2018 में डच पुलिस ने रोटरडम की एक ग्रूमिंग गैंग को धर न दबोचा था।

सबसे ज़्यादा दुष्प्रभावित तो यूनाइटेड किंगडम है। पर वहाँ भी अभी ऋषि सुनक के आने के पहले तक पुलिस की हालत किसी शुतुर्मुर्ग से बेहतर कहाँ थी? वह भी इस फ़िल्म में दिखाये गये पुलिस अधिकारी की तरह निष्क्रिय थी। यह आर्गेनाइज्ड रेप का एक नया प्रकार है। इसे इंटरकम्युनल रेप भी कहा गया जो एक अपराध से ज़्यादा एक अस्त्र की तरह काम करता है।उस देश के विरूद्ध वह आतंकवाद का हमला है।

इसलिए जिन लोगों की उन लड़कियों के प्रति कोई संवेदना ही नहीं उमड़ती, वे अपनी सुरक्षा के बारे में ही चिंता कर लें क्योंकि आतंकवाद अब बम नहीं फोड़ता पर एक देश के रूप में आपको भी उतना ही वल्नरेबल बनाता है जितना वह नायिका है। और वह हमारे देश का रूपक है। न केवल अपनी ग्रूमिंग में बल्कि अपनी वल्नरेबिलिटी में।

यह धर्मांतरण का मामला नहीं है क्योंकि धर्म बदलने पर स्त्री का किसी नवागंतुक की तरह स्वागत नहीं है। इसे कराने वाले लोगों के लिए वह एक लौंडी का इंतज़ाम है।उन्हें कोई संभ्रम नहीं है और ये लोकतांत्रिक देश पॉलिटिकली करेक्ट होने की चिन्ता में हैं।

नहीं ये बढ़ा चढ़ाकर बताया गया। नहीं ये इतना नहीं है। लोकतंत्र संख्या का इंतज़ार करता है। यह एक सीता और एक द्रौपदी को ही अपनी अस्मिता और देशाभिमान की परीक्षा के लिए पर्याप्त चुनौती नहीं मानता।

ग्रूमिंग गैंग के शिकारों की संख्या यू के में पचास हज़ार से लेकर पाँच लाख तक बताई जाती है। यहाँ बत्तीस हज़ार को लेकर झगड़ रहे। वहाँ पाकी कहे जाने वाले समुदाय की आबादी है पाँच प्रतिशत पर ग्रूमिंग गैंग अपराधियों में उनका हिस्सा 89% है। एक भी केस ऐसा नहीं वहाँ जहां किसी पाकी लड़की को विक्टिम होना पड़ा हो या paedophile ग़ैर-पाकी हो।वहाँ पाकी से आशय सिर्फ़ पाकिस्तान से नहीं है। उसके विश्वासों को शेयर करने वालों से है। पर वहाँ भी burking- पुलिस द्वारा FiR न दर्ज करना- बहुत चला।

सवाल उन लड़कियों के एक पराये देश में बंदी हो जाने का नहीं है। सवाल अपने देश में उन रोमियो पिंपों के छुट्टे सांड की तरह खुले में घूमने का भी है। फ़िल्म अंत में बताती है कि वह कुट्टनी फिर अपने नये मिशन पर है और वे लवरब्वाय अपना बढ़िया बिज़नेस चला रहे हैं।

NIA की टीमें उन तक क्यों नहीं पहुँचना चाहिए। स्ट्राइक व्हेन द आयरन इज़ हॉट।

(लेखक मध्य प्रदेश के सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी हैं और भोपाल से प्रकाशित हिंदी पत्रिका अक्षरा के संपादक हैं)

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