मुंबई जैसे शहर में एक साथ एक ही मंच पर फिल्म, टीवी, थिएटर, कला और संस्कृति जगत के लोगों के बीच गर एक साथ गाय, गाँव और गांजे की खासियतों पर एक साथ चर्चा हो और वह भी लगातार चार घंटे तक चले तो ये चौपाल में ही संभव है। चौपाल मुंबई के कलाप्रेमियों का एक ऐसा मंच बन गया है जहाँ साहित्य, संस्कृति, कला, रंगमंच, फिल्म, शास्त्रीय संगीत, नृत्य, अध्यात्म से लेकर जीवन के उन तमाम आयामों पर चर्चा होती है जो एक आम आदमी के जीवन से गहरे में जुड़े होते हैं। चौपाल के मंच पर अपने अपने विषय के दिग्गज जानकार होते हैं तो श्रोताओं में भी एक से एक उस्ताद होते हैं। श्रीमती कविता गुप्ता, श्री दिनेश गुप्ता श्री राजेन गुप्ता, श्री अशोक बिंदल, श्री शेखर सेन और श्री अतुल तिवारी जैसे साहित्य व कला प्रेमियों ने मुंबई की इस चौपाल को एक ऐसी ऊँचाई दी है कि हर क्षेत्र का कलाकार यहाँ आकर अपनी प्रस्तुति देने या यहाँ अपनी बात कहने में गर्व महसूस करता है।
इस बार की चौपाल गाय, गाँव और गांजे पर थी। इस अटपटे विषय को जब श्री शेखर सेन प्रस्तुत कर रहे थे तो श्रोताओँ में भी हैरानी थी। चौपाल का विषय भी मजेदार था- आधुनिक सबकुछ सही नहीं, पुरातन सब ग़लत नहीं।
चौपाल की शुरुआत करते हुए शेखर जी ने बताया कि किस तरह विदेशी शक्तियों ने हमारी अपनी गाय के दूध को जो दुनिया का बेहतरीन दूध है उसे ए2 श्रेणी में डाल दिया और जिस जर्सी गाय का दूध जो गुणवत्ता में भारतीय देसी गायों के दूध से बहुत कम है उसे ए1 दूध का दर्जा दे दिया गया। शेखरजी ने कहा कि हमारी भारतीय परंपरा में गाय पशु नहीं बल्कि परिवार का एक हिस्सा होता है। हमने नदियों, धरती, और गाय को माँ का दर्जा दिया, ये कोई मामूली बात नहीं थी, हम अपने परिवार में मौसी, बुआ, दादी और नानी के साथ ही माँ ही लगाते हैं। हम अपने देश को भी भारत माता कहते हैं।
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उन्होंने बताया कि मैंने खुद तीन गायें पाल रखी है और मैं ये महसूस करता हूँ कि गायों के बीच रहना ऐसा है जैसे हम अपने परिवार के किसी बुज़ुर्ग के साथ रह रहे हैं। उन्होंने कहा कि विदेशी शक्तियों ने हमारे देश में जर्सी गायों और भैंस का दूध प्रचलन में लाकर हमारी पूरी अर्थव्यवस्था, पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक तानेबाने से लेकर हमारी खेती बाड़ी सबको नष्ट कर दिया। जर्सी गाय ज्यादा दूध देती है तो उसे उन्होंने उसके दूध को ए1 दूध का दर्जा दे दिया और भारतीय गाय औसत दूध देती है तो उसके दूध को ए2 का दर्जा दे दिया। इस तरह हमारी मानसिकता में ये बात बिठा दी कि देसी गाय के मुकाबले जर्सी गाय का दूध श्रेष्ठ होता है। जबकि जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। देसी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए लाभदायाक तो होता ही है, गाय के गोबर से लेकर उसका मूत्र तक हमारे काम में आता है। अगर किसी के पास गाय हो तो उसे कुछ भी खरीदना नहीं पड़ता है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि गोबर से गोबर गैस बनाकर ईंधन बनाया जा सकता है। गौमूत्र से कीटनाशनक बनाकर फसलों पर छिड़काव किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि गाँव के एक बुजुर्ग ने उन्हें बताया कि चावल के पौधे में जब फूलों में दूध आता है तो उसमें कीड़ा लग जाता है और वह उसको नष्ट कर देता है। इस कीड़े से बचने के लिए अगर गाय के दूध का दही जमाकर उसमें पानी मिलाकर दो चार दिन रखकर एक लीटर में 50 मिलीलीटर छाछ मिलाकर छिड़काव कर दें तो उस पर कीड़ा नहीं लगता। उस पर मोम की परत बन जाएगी और कीड़ा उसमें छेद नहीं कर पाएगा।
शेखरजी ने कहा कि आपको पता ही नहीं कि आप क्या खा रहे हैं। हमारे खानपान पर बाजार का कब्जा हो गया है। जबकि पहले खान-पान पर माँ, नानी और दादी का कब्जा था। उन्होंने बताया कि देश में 48 प्रकार की गायें थी, और अब मात्र 40 प्रकार की बची हैं, इनमें भी मात्र 5-6 प्रजाति की गायें बहुलता में हैं। पुराणों में गाय की जो व्याख्या की गई है उसमें कहा गया है कि जिसकी कूबड़ निकली हो वही गाय है और उसका ही दूध शुध्द होता है। गाय के कूबड़ में सूर्य नाड़ी होती है जो सीधे सूर्य की किरणों से प्रभावित होती है और इसीलिए गाय का दूध गर्म करने पर केसरिया हो जाता है।
(अगर किसी को मुंबई में देसी गाय का शुध्द दूध चाहिए तो वे यतीनजी से 9594900723 पर संपर्क कर सकते हैं। इस दूध की खासियत ये है कि गरम करते ही इस पर केसर की परत चढ़ जाती है। )
उन्होंने कहा कि जो तिल, सरसों, खोपरे का तेल हमारे खाने का प्रमुख हिस्सा था उसकी जगह रिफाईंड ऑईल ने ले ली, जिसकी वजह से हमारा शरीर कमजोर हो रहा है।
उन्होंने बताया कि चीन से आई मूंगफली हमारे जीवन में घुलमिल गई। मिश्र (इजिप्ट) से शकर की डली आई तो हमने उसका नाम मिश्री रखकर उस देश के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। चीन से बारीक दाने की शकर आई तो हमने इसको चीनी नाम देकर चीन का सम्मान रखा।
उन्होंने कहा कि आप गाय अगर नहीं पाल सकते हैं तो कम से कम प्रतिदिन या प्रतिदिन न सही तो हर सप्ताह गाय का दूध खरीदें, जर्सी गाय का नहीं शुध्द देसी गाय का और उस दूध के स्वाद और गुणवत्ता को महसूस करें।
इसके बाद चर्चा शुरु हुई गाँव की और गाँव में मकान बनने की। मुंबई के पास दहाणु से आए युवा, जोशीले और धुन के पक्के आर्किटेक्ट प्रतीक धानमेर ने जब गाँव में अपने मकान बनाने के अनुभवों को बाँटना शुरु किया तो भुवंस अंधेरी के सभागृह में बैठे सभी श्रोता गाँव की मनोहरी दुनिया में खो गए।
अपनी प्रस्तुति और चर्चा शुरु करते हुए उन्होंने कहा कि गाँधीजी के सहयोगी रहे श्री लवलीकर ने गाँदीजी को बताया था कि गाँव में घर उसी सामग्री से बनना चाहिए। मेरी दादी माँ का घर आदिवासी क्षेत्र में था, मैने यही सोचकर ऐसे घर की कल्पना की कि गाँवों में ऐसे घर बनना चाहिए जो वहाँ की संस्कृति को भी बचाए, उनकी लागत भी कम हो और पर्यावरण के अनुकुल भी हो। उन्होंने कहा कि हमारे देश में काँच की बड़ी बड़ी बिल्डिंगें बनाई जा रही है, जो धूप से गर्म हो जाती है और उनको ढंडा करने के लिए लाखों-करोड़ों यूनिट बिजली बर्बाद की जाती है।
उन्होंने अपने पॉवर प्वाईंट प्रज़ेंटेशन में बताया किस तरह उन्होंने मुंबई के पास के आदिवासी गाँवों में पिरामिड नुमा छत के घर बनाए। इनकी दीवारें पतली रखी गई ताकि गर्मी में उनको ढंडी हवा मिल सके। पूरा घर गाँव में मिलने वाले बाँस से बनाया गया और इस पर गोबर का लेप किया गया चावल की घास से छत बनाई गई। गाँव में पुराने घरों में घर के बीच में एक लकड़ी का खंभा लगाया जाता है, इसे घर का देवता कहा जाता है और इसकी खासियत ये होती है कि इसे कई फीट जमीन में गाड़ देते हैं। इसमें दीमक लग जाती है और 20 साल बाद इस खंभे को निकालकर खेत में गाड़ देते हैं। गाँव के आदिवासी लोग हर 20 साल में अपना घर तोड़कर नया बनाते हैं। लकड़ी में जो दीमक लगती है वो खेती के लिए पयोगी होती है। इस घर की खासियत ये होती है कि ये भूकंप रोधी भी होता है।
उन्होंने बताया कि गाँव में घर बनाने से लेकर खेती और जीवन यापन तक किस तरह प्रकृति के चक्र से जुड़ा है। धानु गाँव के नागोरीपाड़ा में गाँव तालाब के पास बसा था। जब गाँव के लोग घर तोड़ते थे तो उस सामग्री को तालाब में डाल देते थे। इससे तालाब में खेती के लिए खाद तैयार हो जाती थी और गाँव की भैंसे इसमें बैठती थी। तालाब सूखने पर सब इसकी मिट्टी निकालकर खेतों में डाल लेते थे इससे तालाब की खुदाई हो जाती थी। जब बारिश में तालाब भर जाता था तो इसमें मछलीपालन और कमल के फूल की खेती कर अपना रोजगार भी कर लेते थे।
गाँव के लोग वर्ली पेंटिंग से अपने घरों को सजाते हैं।
उन्होंने बताया कि जब से गाँवों में सीमेंट के घर बनने लगे हैं गाँव वाले कर्ज में डूबने लगे हैं। उन्हें गाँव में एक आदमी मिला सने कहा कि मैं घर बनाना चाहता हूँ, और अगर सीमेंट का घर बनाउंगा तो सब पैसा खर्च हो जाएगा और शादी नहीं कर पाउँगा। सके गाँव तक जाने के लिए तीन बार बसें बदलना पड़ती है। लेकिन हमने उसके लिए गाँव के ही संसाधनों से घर बनाने का फैसला लिया। वैतरणा झील जहाँ से मुंबई को पानी मिलता है, उसके आसपास के 16 गाँवों को इसका पानी नहीं मिलता है। हमने गाँव के जगन्नाथ नामक व्यक्ति को बहुत कम लागत में गाँव में उपलब्ध संसाधनों से ही मकान बनाकर दिया। गाँवों में एक शानदार परंपरा है कि जब कोई मकान बनाता है तो गाँव के सभी लोग उसके मकान बनाने के लिए मुफ्त में मजदूरी करते हैं और इसका सभी लोग बकायदा हिसाब लिखकर रखते हैं कि किस आदमी ने किसका घर बनाने में कितने दिन काम किया। इस तरह जब भी किसी का मकान बनता है तो मजदूरी का खर्च नाममात्र का ही होता है। छत बनाने का काम पुरुष करते हैं, महिलाएँ नहीं। अगर मजदूर लगाने भी पड़ते हैं तो मजदूरों को नकद पैसे की जगह अनाज दिया जाता है।
हमने गाँव के लोगों को स्थानीय संसाधनों से मकान बनाने के लिए प्रेरित करने के लिए सेल्फ हेप ग्रुप बनाया। गाँव का मॉडल बनाकर गाँव के बीच में रख दिया ताकि लोग उसे देखें और समझ सकें कि हम क्या करना चाहते हैं। लोगों को समझाने के लिए रंगोली से नक्षे बनाए। गाँव के लोगों को हमारा ये आईडिया ठीक लगा और सभी लोग हमारे हिसाब से गाँव में मकान बनाने को राजी भी हो गए। हुडको ने हमारे इस मॉडल को राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया।
उन्होंने कहा कि हमने ये सोचा कि गाँव में बाँस के पेड़ों से मकान बनाने शुरु कर दिए तो बाँस का संकट हो जाएगा। इसके लिय हमने गाँव के लोगों को बाँस लगाने के लिए प्रेरित किया। एक घर बनाने में बाँस के 35 पेड़ लगते हैं। इस घर के बदले में बाँस के 35 पेड़ लगा दिए।
इन लकड़ियों की कीमत 700 रु. क्यूबिक फीट की आई जबकि अगर इसकी जगह सागी की लकड़ी काम में लेते तो उसकी लागत 4 हजार रुपये प्रति क्यूबिक फीट की आती।
उन्होंने कहा कि गाँव की महिलाएँ बाँस से कई तरह की चीजें बनाती है, हमने उनसे आर्किटेक्ट को काम में आने वाला पाउच बनवाया ऐसे 500 पाउच 400 रुपये प्रति पाउच दिल्ली में बिक भी गए तो गाँव के लोगों की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। वो सोच भी नहीं सकते थे कि गाँव में बैठे बैठे उनको इतने रूपये मिल जाएंगे।
उन्होंने बताया कि हमने गाँव के बुजुर्गों से मिलकर चाँवल की 56 किस्मों के बीच भी बचाए। इसमें कई रंगों के चावल हैं। एक बीज तो ऐसा है जिसका चावल का पौधा 9 फीट ऊँचा होता है।
उन्होंने बताया कि हमने गाँव वालों की सुविधा के हिसाब से नाममात्र की लागत मे शौचालय और बाथरूम भी तैयार किये।
चौपाल की तीसरी वक्ता थी प्रिया मिश्रा, जो देश भर में गाँजे की खेती के लिए अभियान चला रही है। जिस गाँजो को हम नशे का विकल्प मानते हैं प्रिया जी ने जब उस गाँजे की खासियतें बतानी शुरु की तो सुनने वाले हैरान रह गए। उन्होंने बताया कि टीबी से लेकर कैंसर और पर्किंसन से लेकर तमाम घातक बीमारियोँ का ईलाज गांजे से हो सकता है। गांजा समुद्र मंथन से निकला है और इसकी 45 किस्में हैं। उन्होंने कहा कि हमारे ऋषि –मुनियों ने शोध करके गाँजे की जिन खूबियों का वर्णन हजारों साल पहले किया है उसका फायदा विदेशी मल्टी नेशनल कंपनियाँ ले रही है, मगर हमारी सरकार और हमारे देश के लोग गाँजे के चिकित्सकीय गुणों से अनजान हैं।
उन्होंने बताया कि जब बच्चा पैदा होता है और पहली बार माँ का दूध पीता है तो उसे दूध में साईकोएक्टिव तत्व ही मिलता है। प्रिया मिश्रा ने बताया कि वे अब तक 5 हजार मरीजों का इलाज गांजे के उपयोग से अलग-लग डॉक्टरों से करवा चुकी हैं, इसका कोई साईटड इफेक्ट भी नहीं है।
उन्होंने कहा कि मुझे खुद ऐसी बीमारी थी कि मेरी गर्दन एक ओर झुकी रहती थी, कोई डॉक्टर इसका ईलाज नहीं कर पा रहा था मगर मैने गाँजे की मदद से इसका ईलाज कर लिया और आज में पूर्णतः स्वस्थ हूँ।
उन्होंने कहा कि दुनिया के 50 डॉक्टरों ने अपने अलग अलग शोधों में ये तथ्य दिया है कि गांजा हिंदुस्तान की देन है और इसमें चमत्कारिक औषधीय गुण हैं। उन्होंने बताया कि 1895 में गाँजे को लेकर एक अंग्रेज शोधकर्ता ने शोध लिखा था कि गाँजे से 30 तरह के कैंसर का ईलाज किया जा सकता है। गाँजा बीमारी की जड़ पर काम करता है। गाँजा शरीर में ट्रांसफार्मर की तरह काम करते हुए शरीर को बिजली सप्लाय करने की तरह बीमारी से मुक्ति दिलाता है। दुनिया के 25 देशों में आज वैध रुप से गाँजे की खेती हो रही है। 1903 में अंग्रेज हमारे देश में अंग्रेजी दवाई और शराब लेकर आए और हमारी जो परंपरागत औषधियाँ थी उनको लेकर षड़यंत्रपूर्वक दुष्प्रचार किया।
प्रिया मिश्रा ने बताया कि गाँजे को लेकर किए गए कई शोधों के अद्भुत परिणाम सामने आए। जो लोग भूखे पेट गाँजा लेकर सो जाते थे उन्होंने बताया कि गरीबी की वजह से खाना नहीं खा पाने पर भी वे भरपूर नींद लेते थे। गाँजे में 554 ऐसे औषधीय तत्व हैं जो व्यक्ति को ही नहीं बल्कि पर्यावरण को भी स्वस्थ रखते हैं।
उन्होंने बताया कि मेरे लगातार प्रयासों से देश के 6 राज्यों में गाँजे की खेती वैध हो गई है। गाँजे की मदद से 100 बीमारियों का इलाज संभव है जिसमें एड्स जैसी घातक बीमारी भी शामिल है। इसकी मदद से त्वचा संबंधी बीमारियो का भी इलाज संभव है।
उन्होंने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि कनाडा की कंपनी ने गाँजे का पेटेंट करा लिया है।
प्रिया मिश्रा ने बताया कि वैज्ञानकों ने गाँजे के उद्गम पर शोध किया तो पाया कि इसकी उत्पत्ति लाल सागर क्षेत्र में हुई। यही वह क्षेत्र है जहाँ समुद्र मंथन हुआ था। समुद्र मंथन से निकले विष को जब शिवजी ने पी लिया तो उनके गलं पर गाँजे का ही लेप लगाया गया था ताकि वो विष के दुष्प्रभाव से बच सके, इसीलिए हमारी भारतीय परंपरा में गाँजे को शिवजी के साथ जोड़ा गया है।
उन्होंने बताया कि गाँजा मात्र दवाई के लिए ही नहीं बल्कि कई जगह काम में आता है। सैकड़ों सालों से समुद्र में लंगर डालने के लिए जो मोटा रस्सा काम में लाया जा रहा है वो गांजे के पौधे का ही बनता है। किसी भी तरह की चोट लगने पर गाँजे की पत्तियाँ और हल्दी लगाने से तत्काल राहत मिलती है। हिमाचल में जो गायें गांजे की घास खाती हैं वे 50 प्रतिशत ज्यादा दूध देती है। पुराने जमाने में खेतों में गाँजे की बाड़ लगाई जाती थी ताकि खेत में आने वाले पशु गाँजा खाकर वापस लौट जाते थे।
उन्होंने रोचक जानकारी देते हुए कहा कि 2019 में पोर्श ने गांजे से बनी गाड़ी लाँच कर ये सिध्द कर दिया कि गाँजा जीवन के हर क्षेत्र में कितना उपयोगी है। 1940 में अल्फ्रैड फोर्ड ने गांजे से कार और ईंधन बनाया था। अमरीका ने 25 साल पहले गांजे और गौमूत्र का पेटेंट करा लिया।
उन्होंने बताया कि गंगा का पानी गांजे की वजह से ही शुध्द और अमृततुल्य रहता था। जब तक गंगा के किनारे गांजे की खेती होती रही गंगा का पानी शुध्द रहा।
आज हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु विकिरण को खत्म करने के लिए गाँजे का सहारा लिया जा रहा है।
प्रिया मिश्रा ने कहा कि केदारनाथ मंदिर तनी बड़ी तबाही से इसलिए बच गया क्योंकि उस पर गांजे की परत चढ़ी हुई है। इसी तरह अजंता और एलोरा की गुफाओं पर भी गांजे की परत चढ़ी हुई है। मिस्तर के पिरामिडों पर भी गाँजी की परच चढ़ी हुई है। पिरामिडों में शवों के साथ गाँजा रखा जाता था।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में विदेशी कंपनियों ने गाँजे की खेती के लिए 1100 करोड़ का निवेश कर रखा है।
प्रिया मिश्रा ने कहा कि गाँजे में गजब की रोग प्रतिरोधक क्षमता है, इसलिए बच्चों को मिड डे मील में गाँजे के बीज दिए जाने चाहिए।
इसके साथ ही अतुल तिवारी जी ने काशी की लोकप्रिय कहावत गंग भंग दो बहनें रहती शिव के संग, मुर्दा तारे गंग, जीवित रखे भंग सुनाकर गाँजे और भंग की इस चर्चा को भंग की तरंग से नहला दिया।
गाँजे की इस चर्चा के साथ ही चौपाल में हर बार की तरह सुर और संगीत की भी गूँज रही।
जाने माने गायक सुरोजीत ने अपने खास अंदाज़ में कुछ ऐसे गीतों की प्रस्तुति की जो इतिहास में अमर हो चुके हैं। उन्होंने 1952 में आई फिल्म यात्रिक का गीत प्रस्तुत कर श्रोताओं का तार-तार झंकृत कर दिया।
तू ढूंढता है जिसको, बस्ती में और बन में,
वो सांवला-सलोना, रहता है तेरे मन में,
मस्जिद में मन्दिरों में, पर्वत के कन्दरों में,
नदियों के पानियों में, गहरे समन्दरों में,
लहरा रहा है वो भी, कुछ अपने बांकपन में
वो सांवला-सलोना …
हर ज़र्रे में रमा है, हर फूल में बसा है,
हर चीज़ में उसी का, जल्वा झलक रहा है
हरकत वो कर रहा है, हर इक के तन बदन में,
वो सांवला-सलोना …
क्या खोया, क्या था पाया, क्या भाया, क्या न भाया,
क्यों सोचे जा रहा है, क्या पाया, क्या न पाया,
अब छोड़ दे उसी पर, बस्ती में रह कि बन में,
वो सांवला-सलोना रहता है तेरे मन में
तू ढूंढता है जिसको …
इसके संगीत निर्देशक थे पंकज मलिक और गीतकार थे पं. मधुर। इस गीत को गाया था धनंजय भट्टाचार्य ने।
यह गीत अपने दौर का इतना लोकप्रिय गीत था कि मध्यप्रदेश के अनेक स्कूलों की प्रार्थना बन गया । यही नहीं, 1957 से जब बच्चों के लिए सरकारी पुस्तक ‘बाल भारती’ का प्रकाशन शुरू हुआ, तो चौथी कक्षा की पुस्तक में इसे पहले पाठ में प्रकाशित किया गया था।
चौपाल का समापन सुश्री स्वरलिपि ने राग भैरवी में गौहर जान की ठुमरी ‘रस के भरे तौरे नैन’ की शास्त्रीय प्रस्तुति से किया।
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