मलेशिया में रहने वाले उथया शंकर का जन्म हिंदू परिवार में हुआ लेकिन बचपन में वे अकसर चर्च जाते थे और कभी-कभी मस्जिद में भी खेलते भी थे। वे कहते हैं कि अलग अलग धर्मों के लोगों से मिलने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन 90 का दशक आते आते चीज़ें बदलने लगीं। संबंधित समाचार ईसाई ईश्वर को कह सकते हैं अल्लाह: मलेशियाई पीएम मलेशिया: मुसलमानों के अलावा कोई ना कहे अल्लाह संकट के बीच ओबामा नहीं जाएंगे मलेशिया और फिलीपींस अब 41 साल के हो चुके उथया बताते हैं, “लोगों ने एक दूसरे के धार्मिक स्थानों पर जाना बंद कर दिया। राजनीतिक फ़ायदे के लिए मलेशिया की राजनीतिक पार्टियों ने समानताओं की जगह धार्मिक भेदों पर ज़ोर देना शुरु कर दिया।” इसलिए 2010 में उन्होंने एक ऐसा मंच बनाने की सोची, जिसमें मलेशिया के सभी लोग धर्म और नस्ल की बात खुलकर कर सकें। वे टूर का आयोजन करते हैं जिसमें युवाओं को अलग अलग धार्मिक स्थलों पर ले जाया जाता है- मस्जिद, मंदिर, चर्च सभी जगह।
कुछ दिन पहले ही उथया कुछ युवाओं और छात्रों को कुआला लंपुर के हिंदू मंदिर में लेकर गए थे, जहाँ उन्होंने हर मूर्ति के बारे में लोगों को बताया। परज़ूएस जेम्स भारतीय मूल के ईसाई हैं और इस टूर का हिस्सा बने। वे इससे पहले कभी किसी मस्जिद में नहीं गए थे। वे कहते हैं, “मुझे शर्म महसूस हुई कि दूसरे धर्मों के बारे में इतनी कम जानकारी है। मैं पहले सोचता था कि सिर्फ़ मुसलमान ही मस्जिद में जा सकते हैं।”
इस टूर का हिस्सा रहे 27 साल के रेनर के पिता चीनी बौद्ध हैं और माँ ईसाई। रेनर कहते हैं, “दूसरों के धर्मों के बारे में मुझे कुछ पता नहीं था। मुझे नहीं लगता कि हमें अपने दोस्तों से इसके बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।” 28 साल की नोर आर्लीन मुसलमान हैं और उनका परिवार मलेशिया, चीनी और पुर्तगाली मूल का है। वे इस टूर के तहत चीनी बौद्ध मंदिर गई और हिंदू और मुसलमान लोगों के साथ मिलकर वहाँ अगरबत्ती जलाई। वहीं 21 साल के अज़्ज़ाम सयाफ़िक सिख गुरुद्वारा देखकर काफ़ी हैरान हुए- खास़कर वहाँ खुली जगह और कमरे के बीचों बीच रखे गुरु ग्रंथ साहब को देखकर। वे कहते हैं, “ये काफ़ी कुछ मस्जिद जैसा था। मैं हमेशा से ही मुस्लिम स्कूल में पढ़ा हूँ। यूनिवर्सिटी में जाकर पहली बार मैने दूसरी नस्ल और धर्म से दोस्त बनाए।” उथया शंकर तुरंत ही ये सारी तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अपना संदेश फैलाने का ये बढ़िया माध्यम है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि नस्लीय और धार्मिक मतभेद बढ़ रहे हैं, ऐसे समय में उथया शंकर का अभियान काबीले तारीफ़ है। सात फ़ीसदी भारतीय दो तिहाई मलेशियाई लोग भूमिपुत्र कहलाते हैं जो मूलत वहीं के हैं, एक चौथाई चीनी मूल के लोग हैं और सात फ़ीसदी भारतीय मूल के। सबसे ज़्यादा मुसलमान हैं जिसके बाद हिंदू, ईसाई और बौद्ध समुदाय के लोग। लेकिन मलेशिया में धार्मिक आज़ादी की क्या सीमा है, इसका नमूना भी मिल जाता है। मिसाल के तौर पर मस्जिद के पास धार्मिक मामलों के विभाग के एक पोस्टर लगा है कि मलेशिया में सिर्फ़ सुन्नी इस्लाम का पालन किया जा सकता है और शिया इस्लाम के खिलाफ़ 1996 से ही फ़तवा है।
हालांकि प्रधानमंत्री नजीब रज़ाक ने वन मलेशिया नाम का अभियान चलाया था जिसे भारतीय हिंदू, ईसाई , बौद्ध और चीनी वोट जुटाने का एक असफल अभियान माना जाता है। आयोजकों को उम्मीद है कि ज़्यादा से ज़्यादा युवा ये संदेश फैलाएँगे कि मलेशियाई लोगों में बहुत सी आपसी समानताएँ हैं।
साभारः बीबीसी हिन्दी से