मालवा की लोक-कलाओं यथा लोक-साहित्य, लोक-नृत्य, लोक-संगीत और लोक मंच के क्षेत्र में उज्जैन की स्थिति अनूठी है। उज्जैन मालवी बोली और मालवी लोक-संस्कृति का केन्द्र-स्थल है। शहरों और गाँवों का भेद जैसे यहाँ तिरोहित है। यहाँ के मंदिरों, क्षिप्रा-तट और विभिन्न मोहल्लों में ऋतुपर्वों, धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर आयोजित मेलों-त्यौहारों और पारम्परिक लोकोत्सवों में मालव जनपद के अंतर्मन की झलक दिखायी देती है। उत्सवधर्मी लोकमानस की विभिन्न प्रवृत्तियाँ मालवी लोक-कलाओं को निरंतर विकसित और समृद्ध बनाती रही है।
उज्जैन लोक-कलाकारों का केन्द्र-स्थल रहा है। चितेराबाखल (चित्रकारों के मोहल्ले) में सिद्धहस्त चितेरे रहा करते थे। ये कलाकार भित्ति-चित्रों, मांडनों, वस्त्र-चित्रों, आनुष्ठानिक आकृतियों और गुदानाकृतियों का रूपांकन सदियों से वंश-परम्परानुसार किया करते हैं। उज्जैन के अतिरिक्त सम्पूर्ण मानव अंचल इनका कार्य-क्षेत्र था। भैरोगढ़ (उज्जैन) के छीपों की वंशानुगत कला रंग-बिरंगी चटकीले रंगों वाली मालवी वेशभूषा में आज भी देखी जा सकती है। होली, सावन, गणगौर, संजा पर्व जैसे- ऋतुपर्वों पर आयोजित मालवी लोक-नृत्यों की एकल और सामूहिक नृत्य-गतियाँ, लय और ताल, मन को बाँध लेती है।
नवरात्रि के दिनों में गरबा-उत्सवों की धूम मची रहती है। गरबा-पर्व के इन गीतों नृत्यों में जन-मन की उमंग-उल्लास प्रतिबिम्बित है। लोक-जीवन का आशु-कवित्व भक्ति और श्रंगारपरक नई-नई गर्बियाँ (गरबा-गीत) रचना रहा है। गुजराती लोक पर्व ‘गरबा’ में जहाँ महिला वर्ग की प्रधानता है, वहाँ उज्जयिनी में आयोजित इन उत्सवों में पुरुष वर्ग की प्रधानता देखने को मिलती है। इन गर्बी गीतों की रचना करने में कई माचकारों को प्रसिद्धि मिली है। गुरु गोपालजी, चंचल पुरीजी और रामचन्द्र गुरु द्वारा रचित सैकड़ों गर्बियाँ हस्तलिखित रूप में आज भी उपलब्ध हैं।
उज्जैन और मालवा के विभिन्न क्षेत्र में समय-समय पर लोकोत्सवों में तरह-तरह के स्वांग रचाये जाते रहे हैं। उज्जयिनी के वैष्णव मंदिरों में होने वाले ‘ढाराढारी’ के खेलों की एक सुदीर्घ परम्परा है। राजस्थान और मालवा में ढारी जाति के लोक कृष्ण के जीवन चरित की अभिनयात्मक प्रस्तुति कर अपनी आजीविका का निर्वाह करते रहे हैं। उज्जैन के बहादुरगंज, अब्दालपुरा, नयापुरा, सिंहपुरी और कार्तिक चौक क्षेत्र में स्थापित विभिन्न वैष्णव मंदिरों में ‘ढाराढारी’ के खेल विशाल पैमाने पर आयोजित होते थे। ये खेल अपने जमाने में सारे मालवा में प्रसिद्ध थे। अब्दालपुरे की माच परम्परा के गुरु फकीरचन्दजी और माचकार हीरालाल विप्र द्वारा माच के खेलों की रचना के पूर्व ‘ढाराढारी’ के खेलों का प्रदर्शन किया जाता था। ऊँचे ओटले (चबूतरे) पर दरी बिछाकर ‘ढाराढारी’ का खेल किया जाता था। कोई नंद बनता था और कोई यशोदाजी/कृष्णजी की बाल-लीला के बीच, स्वरूप धारण करके पूतना आती थी। विषमय स्तनपान कराने वाली पूतना का स्तनपान कृष्णजी ऐसे करते कि वह निष्प्राण होकर धराशायी हो जाती और जन-मन आनंदित हो उठता। ‘ढाराढारी’ गाते, नाचते और अपनी अभिनय कला के लिये खूब इनाम पाते।
स्वांग और नकल की प्रवृत्तियाँ मालवा के जन-जीवन में रंग रस का संचार करती रही हैं। अभिनय कला में पटु नकल-स्वांग, करने वाले ग्रामीण कलाकारों के बारे में ‘मेमायर्स ऑफ सेन्ट्रल इण्डिया’ पुस्तक में सर जान मालकम ने विशद् वर्णन किया है। दूंदाले गणपति (लम्बी तोंद वाले गणेशजी) के स्वांग रचने वाले बलूवा नामक ब्राह्मण कलाकार की उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
तुर्राकलंगी नामक लोकानुरंग की एक और प्रवृत्ति उज्जैन और समग्र मालव-प्रदेश में प्रचलित रही है। तुर्राकलंगी अध्यात्म विषयक काव्य-गायन की प्रतिस्पर्धामूलक शैली है। तुर्रा वाले अपने को शिवजी का अनुयायी मानते हैं और कलंगी वाले शक्ति के उपासक। इन दोनों दलों (अखाड़ों) के बीच होने वाले पद्यबद्ध संवादों के काव्य-गायन रात-रात भर हुआ करते थे, जिनमें देवी-देवताओं की स्तुति, गुरु और खलीफाओं का गुणगान और चंग-ढोलक पर ‘सवाल-जवाब’ चलते थे। हजारों की संख्या में जनता जुटती थी। इन प्रदर्शनों के लिये तुर्राकलंगी के अखाड़े अपनी तैयारियाँ करते थे। बैठक के आयोजन ‘गम्मत’ कहलाते थे और इन गम्मतों में काव्य-रचना संगीत, प्रस्तुति और ‘टेक झेलने’ की कला में दल के कलाकार दक्षता प्राप्त करते थे।
मालवा की इन विभिन्न लोकानुरंग प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन ‘माच’ में मिलता है। माच के उदभव और विकास में इन सभी लोकरूपों का योगदान रहा है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, मंच पर खेले जाने वाले (अभिनीत किये जाने वाले) खेलों (नाट्यों) की मालवी रंग-शैली का नाम माच है। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में इस लोक-मंच का स्पष्ट स्वरूप सामने आया। उज्जैन के भागसीपुरे मोहल्ले में गुरु गोपालजी ने काव्य-गायन, गीत-संगीत की बैठक वाली प्रवृत्तियों को मंचाभिमुखी बनाया। राजस्थानी ख्याल और तुर्रा कलंगी से प्रभावित खेलों (नाट्य-प्रदर्शनी) का आयोजन शुरू किया, जो लोकप्रिय बने। इन्हीं आयोजन में एक बार उज्जैन के जयसिंहपुरा निवासी गुरु बालमुकुन्दजी मंच की एक सीढ़ी पर बैठकर खेल देख रहे थे कि किसी ने उन्हें सीढ़ी से उतर जाने को कहा। वाद-विवाद में उन्हें अपमानित होना पड़ा और सुनना पड़ा कि ऐसा ही शोक है तो अपने मोहल्ले में माच क्यों नहीं खड़ा कर लेते? अपमान का कड़ुवा घूँट पीकर बालमुकुन्दजी का कलाकार मन वहाँ से लौट आया। उन्होंने कड़ी साधना और लगन से (जिनकी कई रोचक किवदंतियाँ हैं) जयसिंहपुरेवाली ‘माच’ परम्परा की शुरूआत की। उन्होंने 16 खेल की रचना की, जिनमें कृष्ण-लीला, सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, भरतरी-पिंगला, ढोला-मारू, देवर-भौजाई, सुदबुद-सालंगा, सेठ-सेठानी और गेंदा परी का खेल प्रमुख है; इनमें से 10 खेल प्रकाशित हैं। संवत् 1901 में उन्होंने माच की रचना शुरू की और संवत् 1932 में उनका स्वर्गवास हुआ। उनकी अदभुत प्रतिभा और साधना के परिणामस्वरूप माच की कस्तूरी गंध सर्वत्र फैल गयी। जयसिंहपुरे के निकट बेगमपुरे में गुरु, राधाकिशनजी ने माच-मंडली बनायी। उन्होंने माच खेल रचे-मधुमालती, पुष्पसेन, कुँवर रिसालू, ठाकुर-ठकुरानी और बादशाहजादी। दोनों मोहल्लों में माच के खेलों को लेकर खूब प्रतिस्पर्धाएँ हुआ करती थीं।
नयापुरा में गुरु भैरवलालजी की माच मण्डली भी बनी। आपने गोपीचन्द, विक्रमादित्य, भक्त पूरनमल, सिंहासन बत्तीसी, सीता-हरण, हीर-रांझा, छैलबेटा-मोयना, चंदनाकुँवर, लालसेठ और कुँवर केशरी नाम से 10 माच कृतियाँ रचीं, जिनमें ‘हीर-रांझा’ खेल बहुत मशहूर हुआ। पंजाब की प्रणय कथा हीर-रांझा मालवी लोकमंच पर खूब लोकप्रिय हुई।
बिलोटीपुरे के गुरु राधाकिशनजी ने भी हीर-रांझा का खेल लिखा, जो सर्वाधिक रूप से पसंद किया गया। कहते हैं कि इस खेल में हीर सवा लाख के गहने पहना करती थी, जिसे उज्जैन और इंदौर के सेठ-साहूकारों से जुटाया जाता था। संवत् 1960 में भैरवलालजी की मृत्यु हुई। इस परम्परा में दौलतगंज के उस्ताद कालूरामजी की भूमिका भी उल्लेखनीय है। उन्होंने संवत् 1933 में प्रथम खेल की रचना की। इनके 20 खेलों में राजा चित्रमुकुट, मधु-मालती, प्रह्लाद-लीला, छबीली भटियारिन, निहालदे सुल्तान, राजा छोगारतन और रानी सिगारदे माच प्रमुख है। इन्होंने पहली बार लहरगौरजी गुंसाई नाम की महिला को माच में स्त्री-पात्र के रूप में मंच पर प्रस्तुत किया। यह एक प्रयोग था, अन्यथा माच में स्त्री पात्रों का अभिनय पुरुष ही करते हैं। कालूरामजी कृत तीन माच कृतियाँ प्रकाशित हैं।
अब्दालपुर में गुरु फकीरचन्दजी, बड़नगर (जिला उज्जैन) में गुरु शिवजीराम, मंगरोला ग्राम के गुरु चुन्नीलाल ने माच के अनेक खेल की रचना की। आधुनिक समय में बड़नगर के श्री श्यामदास चक्रधारी और उज्जैन के श्री सिद्धेश्वर सेन माचकार के रूप में उल्लेखनीय हैं। चक्रधारीजी ने पूरी रामकथा को मालवी लोक रंग और माच की रंग शैली में प्रस्तुत किया, जो एक अनूठी उपलब्धि है। श्री सिद्धेश्वर सेन की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण है, जितनी बिहार के भिखारी ठाकुर की, जिन्होंने ‘विदेशिया’ लोक-नाट्य शैली को लोकप्रियता के उच्च शिखर तक पहुँचाया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री सेन ने 15 खेलों की रचना की है, जिनमें प्रणवीर तेजाजी, राजा भरथरी, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, नल-दमयन्ती, डाकू दयाराम गूजर, पनिहारिन, ऊगतो सूरज और भगवान की देन खेल प्रमुख हैं।
मंच-विधान की रंग प्रस्तुति
लोक नाट्य ‘माच’ भारत की पारम्परिक लोक मंच शैलियों में प्रमुख है। खुले रंगमंच की इस शैली का अपना मंच-विधान, मंच-रूढ़ियाँ और रंग-प्रस्तुति वैशिष्टय है। ‘माच’ प्रदर्शन के लिए लकड़ी के तख्तों और बल्लियों से आठ-दस फुट ऊँचा मंच बनाया जाता है। चारों कोनों पर बल्लियों पर सफेद चादर से छत तान दी जाती है और उस पर रंग-बिरंगे कागज के फूलों, पत्तियों और बहुरंगी लिग्गियों को लगाकर सजाया जाता है। मंच के पृष्ठ भाग में लकड़ी के दो पाट होते हैं, जिन पर ‘टेकिए’ यानी टेक झेलने वाले कलाकार बैठते हैं। मंच के एक कोने में ढोलक, सारंगी और हारमोनियम वादक बैठते हैं। रंगसथल के बीच में लकड़ी की एक कुर्सी रखी रहती है, जिस पर सिर्फ खेल का नायक बैठता है। नायक की भूमिका प्राय: माच मण्डली का गुरू अथवा मुखिया निभाता है। उसके हाथों में मोतियों की ‘मुंदड़ी’ और तलवार होती है। नायक का सहयोगी पात्र शेरमारखाँ कहलाता है। यह पात्र सहनायक और विदूषक की भूमिका सम्पादित करता है और आद्योपान्त मंच पर विद्यमान रहता है। इन दो प्रमुख पुरूष पात्र के अलावा स्त्री-पात्रों का अभिनय अन्य पुरूष कलाकार इतनी खूबी के साथ करते हैं कि नये प्रेक्षक को इसका पता ही नहीं चलता। सभी कलाकार पात्रोचित वेशभूषा मंच के पीछे किसी कमरे अथवा पर्दे की ओट लगाकर बनाये गये ग्रीन रूम में धारण करते हैं और अपनी बारी आने पर रंग-स्थली में प्रवेश करते हैं।
माच का प्रदर्शन खुले मौसम में विशेषकर गर्मी के दिनों में किया जाता है। रात के प्रथम प्रहर से शुरू होकर ये खेल रात-रात भर चलते हैं। पूर्व में रंग के रूप में भिश्ती और फर्रासिन का स्वांग भरकर दो कलाकार आते हैं। भिश्ती पानी का छिड़काव करने और फर्रासिन आकर ‘जाजम’ बिछाने का अभिनच करती है। नाकसांई के पंडे आकर अपना गीति कथन प्रस्तुत करते हैं। फिर एक बालक को लाल-चोला (वस्त्र) में लम्बी सूँडवाले बाल गणेशजी का स्वांग रचाकर बैठा देते हैं। माच मण्डली का मुखिया गणेशजी की वन्दना का गीति कथन प्रस्तुत करता है और सभी कलाकार दुहराते हैं। प्रस्तुत किये वाले खेल के कलाकार एक-एक करके मंच पर आते हैं और मुजरा करके चले जाते हैं। पात्र-परिचय का यह अपना एक विशिष्ट ढंग है। इसके बाद खेल का नायक और शेरमारखाँ के पद्यपद्ध संवादों के माध्यम से कथानक खुलता है और कथा प्रवाह आगे बढ़ता है। मालवी वेशभूषा और आभूषणों से अलंकृत कलाकार अपनी निर्धारित भूमिका निभाते हैं। मंच पर प्रकाश के लिये पहले मशालें जलती थीं, बाद में पेट्रोमेक्स बत्तियाँ और आजकल जहाँ बिजली उपलब्ध है, वहाँ मरकरी ट्यूब्स। इनके प्रकाश में ढोलक की गत पर थिरकते कलाकारों की नृत्य-गतियाँ दर्शकों का मन मोह लेती हैं। विभिन्न रंगतों और तालों में बँधे माच के मीठे ‘बोल’ वातावरण में मिश्री घोल देते हैं। जब पात्र कोई गीति-कथन कहता है, तो ‘टेकिये’ उस कथन को दुहराते हैं। इस बीच कलाकार नर्तन करते हैं और दूर बैठे हुए प्रेक्षकों की गीति कथन स्पष्ट हो जाता है। यूनानी नाटकों के कोरस की तरह माच के बोल भी सामूहिक रूप से दोहराये जाते हैं।
माच की अपनी मंच-रूढ़ियाँ है। जैसे मुख्य पात्र को रंग-स्थली से कुछ समय के लिए जाना हो तो वह अपनी मुंदरी और तलवार जिस कलाकर को सौंप देता है, वह मुख्य पात्र की भूमिका निर्वाह करने लगता है। इसी तरह ढोलक की एक विशेष गत पर कलाकार मंच पर तीन-चार चक्कर लगाकर मीलों लम्बी यात्रा तय कर लेता है। द्दश्य-बंध और द्दश्य-परिवर्तन के लिए किसी खास तैयारी या साज-सज्जा की जरूरत नहीं होती। माच के दर्शन की कल्पना शक्ति प्रबल और अनूठी है। स्त्री-पात्र का अभिनय करते हुए घूंघट सरक जाने पर यदि पुरूष कलाकार की भरी-भरी मूँछें भी दिख जायें तो माच के दर्शन को रसाघात नहीं होता। कलाकार और प्रेक्षकों के बीच सीधे संवाद और सम्पर्क के कारण कोई दूरी नहीं रहती। यथार्थवादी और जनवादी नाटकों के तत्व ‘माच’ के प्रदर्शनों में दिखाई देते हैं। समय के साथ कथानकों और रंग-प्रस्तुति में अनेक परिवर्तन इस रंग शैली में हुए हैं। धार्मिक और श्रंगारिक कथानकों के साथ नव-निर्माण और विकास जैसे विषयों पर भी माच के खेल रचे गये हैं। आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों और शहरों-ग्रामों में माच प्रदर्शनों के प्रति जन-मानस की भारी रूझान आज भी बनी हुई है। न केवल मध्यप्रदेश वरन् देश के विभिन्न हिन्दी भाषी राज्यों में माच के प्रदर्शनों का प्रसार हो चुका है।