मानव विनाशक वृतियों का दास बन जाता है किन्तु मन्त्र इन वृतियों से बचने की प्रार्थना का उपदेश करते हुए परमपिता से प्रर्थना करता है कि हम एसी प्रवृतियों का नाश कर स्वयं को सुरक्षित करें। हमारे हृदय में दैवीय वृतियां आवें तथा हे प्रभु! आप के समीप निवास कर हम पवित्र बनें। इस बात को ही यह मन्त्र उपदेश कर रहा है:-
धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान् धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वाम:।
देवानामसि वह्नितमं सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम्॥8॥
इस मन्त्र में पाँच प्रकार के उपदेश दिए गए हैं-
१. हमारी आदान वृति का नाश हो :-
हे परमपूज्य प्रभो! आप हमारे अन्दर की राक्षसी प्रवृतियों को, जो हमारा नाश करने वाली आदतें हैं, इन सब प्रकार की दुष्ट वृतियों का आप ही नाश करने वाले हैं। इन बुरी आदतों से आप ही हमें बचाने वाले हैं। आप के सहयोग के परिणाम स्वरूप हम इन बुराईयों से बच पाते हैं। इसलिए आप हमें इन राक्षसी प्रवृतियों से इन अदान की वृतियों से, दूसरों का सहयोग करने से रहित हमारी आदतों का सुधार कर इन बुराईयों से हमें बचाते हुए इन्हें हम से दूर कर दीजिए, इन का नाश कर दीजिए, इनका संहार कर दीजिए।
जब हमारे अन्दर अदान की वृतियां आती हैं तो हम विभिन्न प्रकार के भोगों में आसक्त हो जाते हैं, इस कारण हम अनेक बार हिंसक भी हो जाते हैं। आप हम पर कृपा करें तथा इन अदान की वृतियों को हम से दूर कीजिए, हमें दानशील बना दीजिए। जिस अदान व राक्षसी वृति से हम हिंसक हो जाते हैं, प्रभु! आप उस पर हिंसा कीजिए अर्थात् इन बुरी वृतियों का नाश कर हमारी रक्षा कीजिए। ये सब बुरी वृतियां हमारा नाश करने को कटिबद्ध हैं, हर हालत में, हर अवस्था में हमारा नाश करना चाहती हैं। आप की जब हमारे पर कृपा होगी, दया होगी, तब ही हम इन का विनाश करने में सक्षम हो पावेंगे। आप की दया होगी तब ही हम इन बुरी वृतियों को नष्ट कर स्वयं को रक्षित कर सकेंगे, अपनी रक्षा कर सकेंगे। हम दिव्य जीवन का आरम्भ करना चाहते हैं किन्तु यह भोगवाद हमें दिव्य जीवन की ओर जाने ही नहीं देते| आप कृपा कर हमें इस भोगवाद से बचावें तथा हमें दिव्य जीवन आरम्भ करने का मार्ग बतावें , हमारे लिए दिव्य जीवन पाने का मार्ग प्रशस्त करें।
२. प्रभु कृपा से दिव्यगुण मिलते हैं :-
जीव को दिव्यगुण देने वाले वह परमपिता परमात्मा ही हैं। वह प्रभु ही हमें अत्यधिक व भारी संख्या में दिव्य गुण देने वाले हैं। यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हमें जिन दिव्य गुणों की आवश्यकता है, यथा हमने स्वयं को सुबुद्धि-युक्त करना है। यह सुबुद्धि तब ही आती है, जब हम उग्र हो जाते हैं, अत्याचारों का मुकाबला करने की, प्रतिरोध करने की शक्ति के स्वामी हो जाते हैं। हम दिव्य तब बनते हैं जब हमारे में उदात्त भावनाएं आ जाती हैं। हम स्वयं को उत्तम बना कर दूसरों को भी उत्तम बनाने का यत्न करते हैं, प्रयास करते हैं। जब हम ज्ञानी बन कर अतुल ज्ञान का भण्डार अपने अन्दर संकलित कर लेते हैं तथा दूसरों में यह ज्ञान बांट कर उन्हें भी ज्ञानी बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार हम सब प्रकार के तत्वों के स्वामी बन कर तत्वद्रष्टा हो कर ऋषि के आसन पर आसीन हो जाते हैं, सब प्रकार की सद्बुद्धियों के स्वामी हो जाते हैं।
३. प्रभु चरणों में सब मलिनताएं मर जाती है
हे प्रभो! एक आप ही हैं, जो हमारे जीवनों को शुद्ध व पवित्र बनाते हो । हमारे जीवनों में जितनी भी शुद्धता व पवित्रता है, वह आप के ही आशीर्वाद के कारण है, आप की ही दया के कारण है, आप की ही कृपा के कारण है। आप ही हमें अधिकाधिक शुद्ध व पवित्र बनाते हो। जब हम आपके चरणों में आते हैं तो हमारी सब मलिनताएं दग्ध हो जाती हैं, नष्ट हो जाती हैं, जल कर दूर हो जाती हैं । जब हम आप की उपासना करते हैं, आप के समीप आसन लगाकर बैठते हैं, आप की निकटता को पाने में सफ़ल होते हैं तो हमारा जीवन आप की निकटता रुपि जल से एक प्रकार से धुल जाता है तथा हम शुद्ध ओर पवित्र हो जाते हैं ।
४. आप हमें देवीय शस्य से भर देते हो :-
प्रभो! जब आप हमारे जीवन को शुद्ध कर देते हो, हमारे जीवन को पवित्र कर देते हो, तो बुराइयाँ निकलने से हमारे अन्दर बहुत सा स्थान रिक्त हो जाता है। आप जानते हो कि रिक्त स्थान तो कहीं रह ही नहीं सकता, जहां भी कुछ रिक्तता आती है तो आप कुछ न कुछ उस स्थान पर रख कर उसे भरने का कार्य भी करते हो। जब आप ने हमारे जीवन की सब बुराईयों को निकाल बाहर कर दिया तो इस रिक्तता को पूरित करने के लिए आप उस शुद्ध हुए शरीर में, दिव्य गुणों के बीज डाल देते हो। दिव्य गुणों की खेती कर देते हो। इन बीजों से हमारे अन्दर दिव्य गुणों के अंकुर फ़ूटते हैं, नन्हें-नन्हें पौधे निकलते हैं। यह अंकुर दैवीय सम्पदा की ओर इंगित करने वाले होते हैं, हमें इंगित करते हैं कि हम किसी दैवीय सम्पदा के भण्डारी बनने वाले हैं। इस प्रकार हम सद्गुण रूपी देवीय सम्पदा के स्वामी बन इस सम्पदा से परिपूर्ण हो जाते हैं।
५. प्रभु ज्ञान का दीपक पा कर देव बनते हैं :-
हे पिता! इस जगत् में जितने भी समझदार व सूझवान लोग हैं, आप उन से प्रीति-पूर्वक सेवन किये जाते हो। एसे लोग प्रतिक्षण आप की ही प्रार्थना करते हैं, आप की ही सेवा करते हैं। इस प्रकार के ज्ञान से भरपूर लोग ही देवता कहलाते हैं| अत: आप इन देवाताओं के द्वारा बार-बार पुकारे जाते हो, इन देवताओं के द्वारा बार-बार याद किये जाते हो, यह लोग बार-बार आप के समीप आते है और आप की समीपता से देव बन जाते हैं।
देव कैसे बनते हैं? मानव को देव की श्रेणी प्राप्त करने का साधन है आप की निकटता। आपकी समीपता पाए बिना कोई देव नहीं बन सकता। अत: आप का उपसन, आप के निकट आसन लगा कर हम देव बन जाते हैं। जब हम आप के समीप आसन लगा कर बैठ जाते हैं तो हमारे अन्दर के काम आदि दुष्ट विचारों का दहन हो जाता है, हनन हो जाता है, नाश हो जाता है, यह सब बुराईयां जल कर नष्ट हो जाती हैं, राख बन जाती हैं। यह काम रूप व्रत्र अर्थात् यह हमारी आंखों पर पर्दा डालने वाले जितने भी दोष हैं, इन सब का आप विनाश कर देते हो तथा इस दोषों के विनाश के पश्चात् हम उपासकों का ह्रदय ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है, जगमगाने लगता है, आलोकित हो जाता है। इस ज्ञान के प्रकाश को पा कर ही हम देव तुल्य बन जाते हैं।
डॉ. अशोक आर्य
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