बारह चौदह साल पुरानी एक बात याद आ रही है। मैं नया नया कॉलेज का उपाचार्य बना था।प्राचार्यजी सामान्य प्रशासन और फाइनेंस देखते थे और मैं टाइम टेबल और शिक्षण व्यवस्था देखता था।सब कुछ बढ़िया चल रहा था।बस भूगोल वाले प्राध्यापक से छात्र संतुष्ट नहीं थे।एक तो वे क्लासरूम में देर से जाते थे या फिर जाने के बाद 20 मिनट तक हाज़िरी लेते और बाकी समय में पढ़ाने के नाम पर गप्पे हांकते थे ।छात्र आये दिन उनकी शिकायत लेकर मेरे और प्राचार्य के पास आते थे। हम दोनों ने उन प्रोफेसर साहब को खूब समझाया कि वे छात्रों के हित की सोचें और समय पर क्लास लिया करें।वे कहाँ समझने वाले थे भला?बात बिगड़ती चली गयी।कहा सुनी भी हुयी।जांच समिति बिठाई गयी और जब उनको लगा कि उनका केस कमज़ोर पड़ रहा है तो उन्होंने बड़ी चालाकी से अल्पसंख्यक का कार्ड खेला।"मुझे जानबूझकर परेशान किया जा रहा है।"
भला हो निदेशक महोदय का!वे उन प्रोफेसर साहब की कारिस्तानियों से पहले से परिचित थे और फटाक से उनका दूरदराज़ जगह पर तबादला कर दिया अन्यथा कानूनी तंत्र में फंसकर आफत हम पर आने वाली थी! कहने का आशय यह है कि क़ानून से मिली रियायत का अनुचित लाभ उठाने वालों पर भी कोई कानून बनना चाहिए।
शिबन कृष्ण रैणा
अलवर