जब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति के जुमले उछालकर जेएनयू को बदनाम किया जा रहा था, तब वहाँ छात्रों और अध्यापकों द्वारा राष्ट्रवाद को लेकर बहस शुरू की गई। खुले में होने वाली ये बहस राष्ट्रवाद पर कक्षाओं में तब्दील होती गई, जिनमें जेएनयू के प्राध्यापकों के अलावा अनेक रचनाकारों और जन-आन्दोलनकारियों ने राष्ट्रवाद पर व्याख्यान दिए। इन सारे व्याख्यानों को रविकान्त के सम्पादन में संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ ‘आज के आईने में राष्ट्रवाद’ नाम से। इसमें जेएनयू में हुए तेरह व्याख्यानों सहित योगेन्द्र यादव द्वारा पुणे और अनिल सद्गोपाल द्वारा भोपाल में दिए गए व्याख्यान भी शामिल हैं।
इस किताब पर परिचर्चा का आयोजन राजकमल प्रकाशन द्वारा दिल्ली में ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में किया गया। इस परिचर्चा में प्रोफ़ेसर सतीश देशपाण्डे, प्रोफेसर रमेश दीक्षित, प्रोफेसर अपूर्वानन्द, और पुस्तक के संपादक रविकान्त वक्ता के रूप में शामिल थे। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार प्रकाश के रे ने किया। इस बातचीत में वक्ताओं ने मौजूदा समय के राष्ट्रवाद, किताब की महत्वता और क्यों इन व्याख्यानों को किताब के रूप में लाने की जरूरत पड़ी, पर खुलकर चर्चा हुई।
संपादक रविकांत ने व्याख्यानों को किताब के रूप में लाने के विचार पर कहा कि जेएनयु पर 2016 में जिस तरह से देश विरोधी नारे लगाने के आरोप लगे उसी के जवाब में जेएनयू के बौद्धिक माहौल ने यह निश्चय किया कि हम लोग राष्ट्रवाद पर खुले में कक्षाएं चलाएंगे। उन कक्षाओं में जेएनयू के प्रोफेस्सरों के अलावा अन्य विश्वविद्यालाओं से भी लोगों ने हिस्सा लिया और राष्ट्रवाद पर अपने विचार रखे। उन व्याख्यानों को सोशल मीडिया पर भी काफी लोगों ने सुना। लोगों की इन व्याख्यानों में इतनी उत्सकता को देख कर पुस्तक के रूप में लाने विचार आया।
प्रोफेसर सतीश देशपांडे ने अपने विचार रखते हुए कहा कि ये वही लोग तय कर रहे हैं जो आज सत्ता में हैं। आज के समय में ही राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, आजादी और समानता के अधिकार पर बहस क्यों होनी चाहिए ये तो बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी। मगर अच्छा ही हुआ कि आज के हुक्मरानों ने हमें यह यह याद दिलाया कि यह लडाई अभी ख़त्म नहीं हुई है, जिसके लिए भगत सिंह ने फांसी का फंदा चुना और तमाम लोगों ने कुर्बानी दी जहाँ राष्ट्रवाद के नाम पर अराजकता और हत्याएं होती हैं वहां यह जरूरी है की इस विचारधारा पर नए सिरे से बात हो।
प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने कहा कि इस पुस्तक का विषय और जिस सन्दर्भ में इसे प्रकाशित किया है वह सन्दर्भ बहुत ही महत्वपूर्ण है। राष्ट्रवाद वह विचारधारा है जो सबसे सहज और सामान्य प्राप्त होती है। मगर इस ज़माने में जब हमें यह बताया जाता है कि यह सोचने-विचारने की चीज नहीं है, यह नारे लगाने की चीज है और हमला करने का हथियार है। और जब भी विचारधारा में ऐसी उदंडता आती है तो बुद्धिजीवियों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे उस पर अपनी आवाज़ उठायें और लोगों का सही मार्गदर्शन करें। इस लिहाज से व्याख्यानों की यह श्रंखला अपने आप बड़ा महत्त्व रखती है।
प्रोफेसर अपूर्वानन्द ने कहा कि यह पुस्तक एक खास क्षण की उपज थी और वह क्षण विश्वविद्यालय का चुना हुआ नहीं था, उसकी बाध्यता थी उस क्षण की चुनौती को स्वीकार करना। भारत के हिंदी पट्टी राज्यों में राष्ट्रवाद की विचारधारा काफी आक्रामक है। वहीं यही राष्ट्रवाद गोवा, पूर्वोतर और भारत के दक्षिणी राज्यों में जाते-जाते राहत देने लगता है। उन्होंने कहा कि अभी राष्ट्रवाद की विचारधारा पूरे विश्व में चरम पर है, दुनिया में राष्ट्रवाद पर नये सिरे से बातचीत चल रही है।
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संतोष कुमार
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