Sunday, November 24, 2024
spot_img
Homeअध्यात्म गंगाकृष्ण के दीवाने थे नजीर, रसखान और रहीम

कृष्ण के दीवाने थे नजीर, रसखान और रहीम

कृष्ण का व्यक्तित्व हमारे सभी अवतारों में अनूठा है। कृष्ण रणछोड़ भी हैं जो जरासंध से होने वाले युध्द में बार बार मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। भागवत कथाकार इसक व्याख्या इस तरह करते हैं कि कृष्ण इसी बहाने जरासंध को उकसाते थे कि वो बार बार अपने दुष्ट साथी राजाओं को लेकर युध्द करने आता था और कृष्ण उन दुष्टों को मारकर जरासंध को जीवित छोड़ देते थे ताकि उसके बहाने सभी दुष्ठों का सफाया कर सके। कृष्ण को भारतीय परंपरा में पूर्ण अवतार माना गया है। कृष्ण के व्यक्तित्व में कई आयाम हैं। वे माखन चोर भी हैं तो रास रचैया भी। कृष्ण के साथ राधा का नाम भी आता है मगर पौराणिक साहित्य में राधा का कहीं उल्लेख नहीं है। राधा का उल्लेख 12 वीं शताब्दी में जय देव कृत गीत गोविंद में आया है।

एक मजेदार किस्सा भी है। एक मुस्लिम राजा ने अपने दरबार में शेरो शायरी का एक मुकाबला रखा और काफ़िर हैं वो लोग जो सिज़दा न करे इस्लाम को मिसरा यानी शेर की पहली लाईन देकर इस पर शेर लिखने की चुनौती रखी। इसमें हिंदू शायर भी मौजूद थे। यानी हिन्दू शायरों को अपने शेर के माध्यम से इस मिसरे में अपनी लाईन जोड़कर ये सिध्द करना था कि जो इस्लाम को नहीं मानता है वह काफिर है ।वहाँ मौजूद एक हिंदू शायर ने इस चुनौती को स्वीकार किया और शेर पढ़ा-

लाम के मानिंद हैं गेसू मेरे घनसाम को,
काफ़िर हैं वे लोग जो सिज़दा न करे इस लाम को।

अब ये रोचक तथ्य भी जान लीजिये कि उर्दू में लाम ل के आकार का होता है और कृष्ण के बालों की लट भी इसी तरह घुंघराली होती है। इस हिंदू शायर ने कृष्ण की घुंघराली लट को उर्दू शब्द लाम ل का प्रतीक बनाकर पूरी बाजी पलट दी। यानी काफ़िर वो है जो कृष्ण के बालों की लट को सिजदा यानी प्रणाम नहीं करता है।

मुस्लिम शायरों ने भी कृष्ण भक्ति में खूब कलम चलाई है। नज़ीर अकबराबादी से लेकर रसखान और अकबर के महामंत्री रहीम तक सबने कृष्ण के जादुई व्यक्तित्व पर जमकर लिखा है।

नज़ीर ने कृष्ण पर क्या खूब लिखा है ..
सिफ्तो सना ( विशेषता-स्तुति ) में सृष्टि रचैया की क्या लिखूं।
औसाफी (विशेषता) खूबी ब्रज के बसैया की क्या लिखूं।
पदायश अब में कुल के करैया की क्या लिखूं।
कुछ मदह (प्रशंसा) में उस सुध के लिवैया की क्या लिखूं।
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥
श्री वेद व्यास जी ने बनाये कई पुरान।
लिखने में तो भी आया नहीं कृष्ण का बयान।
लिख-लिख के थक रहे हैं हर एक कर नविश्त ख्वान (लेखक – कहानीकार)।
कहती है जो कलम मेरी वह है जली ज़बान॥ तारी.

आ द्वारका से द्रोपदी काा चीर बढ़ाया।
बैकुंठ से आ ग्राह से गजराज छुड़ाया।
प्रहलाद को जलने से अगन के बीच बचाया।
मेवा को त्याग साग विदुर के यहाँ खाया॥ तारी.

परबत रखा है उँगली पै जों रुई का गाला।
संग ग्वाल बाल लेके खड़े नन्द के लाला।
बंसी बजाते नृत्य करते भार को टाला।
दिन सात में इन्दर का सभी गर्व निकाला॥ तारी.

गायें चराके ओवं थे संग ग्वाल बाल से।
हर तरफ आग देख कहैं सब गुपाल से॥
अब के हमें बचाओ यहाँ किसी चाल से।
आँखें मिचा बचाया उन्हें अग्नि जाल से॥ तारी.
अब क्या कहूँ मैं तुमसे उनकी लतीफ (मस्ती) बात।
पीतम्बर ओढ़ लेट रहे वे छुपा के गात।
भृगुजी ने वों ही आन के छाती पै मारी लात।
जब पाँव दबाने लगे श्री कृष्ण अपने हाथ॥ तारी.

क्या क्या बयान हो सकें जो जो किये हैं काम।
दो पेड़ थे वहाँ खड़े जो नंद जी के धाम।
और दही डाल हाथ बँधाए उन्हों के काम।
ऊखल से बाँध हाथ उन्हें नाक भेजा शाम॥
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥
.

फरजंद (पुत्र) गुरू के सबी एक आन में लाए।
फिर तीनों लोक मुँह में जसोदा को दिखाए।
छोनी अठारह रंग में जो भारत के जुझाए।
तहाँ अंडे भारथी के घंटा से बचाए॥
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

सुरजन सा दुष्ट जान के जुन्नार (जनेऊ) से छोड़ा।
एक आन में जिन मार लिया केसरी घोड़ा।
आंधी में जो तिनावर्त को तिनका सा तोड़ा।
और नाम धराया है जो फिर आप भगोड़ा॥
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

एक दम में किये दूर सुदामा के दरिद्दर।
कंचन के सभी कर दिये एक आन में मंदर।
जो चाहे कोई करता हरी आप विसंभर।
फिर आप गए दान को बलि राजा के दर पर॥
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

सोलह हजार कैद से छुटवाई हैं रानी।
दिन रात कहा करतीं थीं वे कृष्ण कहानी।
रथवान हो अर्जुन के कही गोष्ठ पुरानी।
फिर अपने बचन सेती भए दधि के जो दानी॥
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

कहता नज़ीर तेरे जो दासों का दास है।
दिन रात उसको तेरे ही चरनों की आस है।
ना समुझे एक तेरे ही से नित विलास है।
गुन गाए से तेरा हिये हरदम हुलास है।
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूँ
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

कृष्ण है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला !
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इसरारे हक़ीक़त यों खोले ।
तौहीद के वह मोती रोले ।
सब कहने लगे ऐ सल्ले अला ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

सरसब्ज़ हुए वीरानए दिल ।
इस में हुआ जब तू दाखिल ।
गुलज़ार खिला सहरा-सहरा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

फिर तुझसे तजल्ली ज़ार हुई ।
दुनिया कहती तीरो तार हुई ।
ऐ जल्वा फ़रोज़े बज़्मे-हुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मुट्ठी भर चावल के बदले ।
दुख दर्द सुदामा के दूर किए ।
पल भर में बना क़तरा दरिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

जब तुझसे मिला ख़ुद को भूला ।
हैरान हूँ मैं इंसा कि ख़ुदा ।
मैं यह भी हुआ, मैं वह भी हुआ ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी ।
हर गुल में तेरे रुख़सार की बू ।
घूँघट जो खुला सखियों ने कहा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

दिलदार ग्वालों, बालों का ।
और सारे दुनियादारों का ।
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इस हुस्ने अमल के सालिक ने ।
इस दस्तो जबलए के मालिक ने ।
कोहसार लिया उँगली पे उठा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मन मोहिनी सूरत वाला था ।
न गोरा था न काला था ।
जिस रंग में चाहा देख लिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

तालिब है तेरी रहमत का ।
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा ।
तू बहरे करम है नंद लला ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था । ये सम्राट अकबर के संरक्षक मुगल सरदार बैरमखाँ के पुत्र थे । अरबी और फारसी के अतिरिक्त रहीम संस्कृत के विद्वान थे। अकबर के नवरत्नों में इनकी गिनती होती थी । अकबर के समय में ये प्रधान सेनापति तथा मंत्री के पद पर आसीन थे । गंग कवि को उसके दो पदों छंदों पर प्रसन्न होकर रहीम ने एक बार छत्तीस लाख रुपए दे दिए थे ।

छबि आवन मोहनलाल की।
काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की॥
बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते चितवनि नयन विसाल की॥
नीकी हँसनि अधर सुधरन की छबि छीनी सुमन गुलाल की।
जल सों डारि दियो पुरैन पर डोलनि मुकता माल की॥
आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की।
यह सरूप निरखै सोइ जानै इस ’रहीम’ के हाल की॥

रसखान का असली नाम सैयद इब्राहीम था । वे कृष्ण प्रेम में ऐसे डूबे कि उनका नाम ही रसखान हो गया। उनके मुक्तक सवैया,कवित्त और दोहे छंद में हैं, जो चार संग्रहों में मिलते हैं :1. सुजान रसखान 2. प्रेमवाटिका 3. बाललीला और 4. अष्टायाम । ‘सुजान रसखान’ में 139 सवैये और कवित्त है। ‘प्रेमवाटिका’ में 52 दोहे हैं, जिनमें प्रेम का बड़ा अनूठा निरूपण किया गया है।

रसखान कृष्ण की महानता का वर्णन करते हुए कहते हैं जिस कृष्ण के गुण गंधर्व, नारद और देवता भी गाते हैं, जिसकी थाह स्वयं ब्रह्मा जी भी नहीं पा सकते उस कृष्ण को गोकुल की गोपियाँ छाछ पिलाने का लालच देकर अपनी अंगुलियों पर नचाती है।

गावैं गुनि गनिका गंधरव औ नारद सेस सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिध्द निरन्तर जाहि समाधि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।

गोकुल का वर्णन रसखान के शब्दों में
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वालन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।।

कृष्ण के होली खेलने पर रसखान लिखते हैं
आवत लाल गुलाल लियो,मग सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।

रसखान कहते हैं, कृष्ण गोपियों को भिगो देते हैं। गोपियाँ फाल्गुन के साथ कृष्ण के अवगुणों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जागृत कर दी हैं। पिचकारी तथा घमार से हमें भिगो दिया है। इस तरह हमारा हार भी टूट गया है।

खेलत फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहिं दीजै।
दैखति बनि आवै भलै रसखान कहा है जौ बार न कीजै।।
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छबि छाक सौं हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै।।

कृष्ण के बचपन की नटखट अदाओं का वर्णन रसखान से बेहतर कोई नहीं कर सका है
धूरि भरै अति सोभित स्याम जु तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना पग पैंजनी बाजती पीरी कछौटी।
वा छवि को रसखान विलोकत बारत काम कला निज कोठी।
काग के भाग बडे सजनी हरि हाथ सौं ले गयो रोटी।।

रसखान के सवैया का आनंद भी लीजिये
मोर के चंदन मौर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्री वृषभानुसुता दुलही दिन जोरि बनी बिधना सुखकंदन।
आवै कह्यौ न कछू रसखानि हो दोऊ बंधे छबि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत ये ब्रजजीवन है दुखदंदन।।

मोहिनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
जेठ की घाम भई सुखघाम आनंद हौ अंग ही अंग समाहीं।
जीवन को फल पायौ भटू रस-बातन केलि सों तोरत नाहीं।
कान्ह को हाथ कंधा पर है मुख ऊपर मोर किरीट की छाहीं।।

लाड़ली लाल लसैं लखि वै अलि कुंजनि पुंजनि मैं छबि गाढ़ी।
उजरी ज्यों बिजुरी सी जुरी चहुं गुजरी केलि-कला सम बाढ़ी।
त्यौ रसखानि न जानि परै सुखिया तिहुं लौकन की अति बाढ़ी।
बालक लाल लिए बिहर छहरैं बर मोरमुखी सिर ठाड़ी।

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार