27 सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों में मतदाताओं को नोटा यानी सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प दिया था।
17वीं लोक सभा चुनाव में करीब छह महीने का वक्त बाकी है लेकिन, इसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष ने अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि अगर 2019 में अगर एक बार फिर उनकी सरकार बनी तो फिर 50 वर्षों तक देश पर भाजपा का ही राज होगा. वहीं, विपक्षी दल मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए एकजुट होने की कोशिश में हैं. माना जा रहा है कि अगले चुनाव में यदि विपक्ष एक साथ आने में सफल हो जाता है तो इससे पार पाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी.
इस बीच, भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती खुद उसके सवर्ण समर्थकों ने पैदा कर दी है. उनके एक वर्ग का कहना है कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून यानी एससी-एसटी एक्ट पर मोदी सरकार के रुख के खिलाफ वे 2019 के चुनाव में नोटा (किसी उम्मीदवार को वोट नहीं) बटन दबाएंगे. यानी वे विपक्षी दलों के उम्मीदवार का तो समर्थन नहीं करेंगे लेकिन, भाजपा को भी वोट नहीं देंगे. इसके अलावा सोशल मीडिया पर यह अपील भी वायरल हो रही है कि सवर्ण संसदीय चुनाव में एससी और एसटी के लिए आरक्षित कुल 131 सीटों पर भी इस विकल्प के जरिए अपनी नाराजगी दर्ज करवाएं. मोदी सरकार ने एक विधेयक के जरिये सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला पलट दिया था जिसमें एससी-एसटी एक्ट के तहत फौरन गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी.
माना जा रहा है कि सवर्ण समर्थकों के इस रुख ने भाजपा के माथे पर बल डाल दिए हैं. वहीं, दूसरी ओर, विपक्ष के लिए भी यह मुश्किल में डालने वाली बात साबित हो सकती है. यानी जो सत्ता विरोधी वोट इस विकल्प के न रहने पर विपक्ष के खाते में दर्ज होते, अब वे नोटा के खाते में दर्ज होंगे.
मतदाताओं को चुनावों में सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार 27 सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद मिला था. इसके तहत शीर्ष अदालत ने मतदाताओं को ईवीएम और बैलेट पर नोटा का विकल्प देने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि यह राजनीतिक व्यवस्था को साफ करने की दिशा में अहम फैसला होगा. इससे पहले चुनाव से संबंधित नियमों की संहिता-1961 के तहत मतदाताओं को अलग से फॉर्म भरकर सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार दिया गया था. इसके बाद भी इस बारे में जानकारी के अभाव और मतदाता की पहचान उजागर होने की वजह से इसका न के बराबर इस्तेमाल किया जाता था.
नोटा का अब तक क्या असर रहा है?
साल 2013 में जब मतदाताओं को नोटा का अधिकार मिला था तो यह माना गया कि इसका इस्तेमाल शहरों में शिक्षित मतदाताओं द्वारा अधिक किया जाएगा. यह भी कि वे आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के खिलाफ इस विकल्प जमकर इस्तेमाल करेंगे. इन बातों के साथ यह भी माना गया कि इससे मतदाता पहले की तुलना में अधिक संख्या में पोलिंग बूथ पर पहुंचेंगे.
लेकिन, द इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली की एक शोध रिपोर्ट की मानें तो नोटा से ऐसा होता हुआ नहीं दिखता. साथ ही, यह रिपोर्ट इससे जुड़ी एक बड़ी धारणा को भी तोड़ती हुई दिखती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर, 2013 से लेकर मई, 2016 तक हुए एक लोकसभा और 20 विधानसभा चुनावों में नोटा का इस्तेमाल आदिवासी बहुल और नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में अधिक हुआ है. उदाहरण के लिए, 2014 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र के नक्सलवाद प्रभावित गढ़चिरौली सीट पर 24,248 मतदाताओं (2.38 फीसदी) ने नोटा का इस्तेमाल किया. वहीं, करीब पांच महीने बाद अक्टूबर, 2014 में गढ़चिरौली विधानसभा सीट पर 17,510 (10 फीसदी) मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज कर दिया. गढ़चिरौली के साथ छत्तीसगढ़ के बस्तर में बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे में नोटा तीसरे पायदान पर था. इस सीट पर वोट देने वाले मतदाताओं में से 38,772 (पांच फीसदी) ने नोटा का बटन दबाया.
बीते लोक सभा चुनाव में नोटा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल तमिलनाडु की नीलगिरी और ओडिशा की नबरंगपुर संसदीय सीट पर हुआ. यहां के 46,559 मतदाताओं (पांच फीसदी) और 44,408 (4.3 फीसदी) मतदाताओं ने इस विकल्प का चयन किया. वहीं विधानसभा चुनावों की बात करें तो छत्तीसगढ़ (2013) चुनाव में नोटा का वोट शेयर सबसे अधिक यानी तीन फीसदी रहा है. दूसरी ओर, दिल्ली (2015) में यह आंकड़ा सबसे कम 0.4 फीसदी रहा. यानी अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक शिक्षित और शहरी दिल्ली की जनता ने सबसे कम उम्मीदवारों को खारिज किया है.
पिछड़े क्षेत्रों में नोटा के अधिक इस्तेमाल के पीछे दो बड़ी वजहें बताई जा रही हैं. पहली, नक्सलवादियों द्वारा चुनाव के बहिष्कार की जगह लोगों से नोटा के इस्तेमाल के लिए कहना. इससे पहले नोटा के अभाव में लोकतंत्र के खिलाफ अपनी बात रखने के लिए लोग बड़े पैमाने पर चुनावों का बहिष्कार करते थे. यह बात भी सामने आई है कि ऐसी सीटें जो आदिवासियों (एसटी) के लिए आरक्षित हैं, उन पर भी बड़ी संख्या में नोटा का बटन दबाया गया है. इसके पीछे की वजह गैर-आदिवासियों का विरोध मानी गई है. इस धारणा को इस बात से वजन मिलता दिखता है कि एससी-एसटी एक्ट के विरोध में सामने आने वाले सवर्णों ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों पर नोटा के इस्तेमाल की चेतावनी दी है. यानी साफ है कि संविधान में इन तबकों को मुख्यधारा में लाने के लिए जो प्रावधान किए गए थे, उन्हें नोटा के जरिए खोखला करने की कोशिश की जा रही है.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन सीटों पर जहां आदिवासियों की आबादी 50 फीसदी से अधिक है, कुल मतों में 2.4 फीसदी हिस्सेदारी नोटा की रही है. वहीं, इनकी आबादी 10 फीसदी से कम होने पर यह आंकड़ा घटकर एक फीसदी रह गया. इन बातों से साफ दिखता है कि अपने हितों को ध्यान में रखकर नोटा के जरिए लोकतंत्र को मजबूत करने की जगह कमजोर करने की कोशिश की जा रही है.
वहीं, इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो सुप्रीम कोर्ट की उम्मीदों से भी मेल खाता हुआ दिखता है. माना जाता है कि मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग जो सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष से भी नाराज है, उसे नोटा के जरिये इसे जाहिर करने और साथ ही इस बात को राजनीतिक दलों तक पहुंचाने का मौका मिला है. इस बात की अधिक संभावना है कि 2019 में यदि बड़ी संख्या में मतदाता ईवीएम पर नोटा का बटन दबाते हैं तो यह लोकतांत्रिक प्रणाली में इसकी उपयोगिता पर एक बड़ी बहस को जन्म दे सकता है. साथ ही, इसे इस प्रणाली को और बेहतर बनाने की दिशा में शुभ संकेत भी माना जा सकता है. यानी इस लिहाज से नोटा एक खरा विकल्प साबित हो सकता है.
हालांकि, नोटा को लेकर अभी जो प्रावधान है उसके मुताबिक मतदाता इसके जरिए अपनी नाराजगी तो दर्ज कर देता है लेकिन, इसका चुनावी नतीजों पर अधिक असर पड़ता हुआ नहीं दिखता. माना जाता है कि इस वजह से अधिकांश मतदाता उम्मीदवारों के खिलाफ होने के बाद भी उनमें से किसी एक का चुनाव करने के लिए मजबूर दिखते हैं. बीते लोक सभा चुनाव में करीब 60 लाख (1.08 फीसदी) मतदाताओं ने नोटा का चुनाव किया था. मतों की यह संख्या 21 पार्टियों को अलग-अलग मिले वोटों से अधिक थी. इन पार्टियों में जदयू, सीपीआई, जेडीएस और शिरोमणि अकाली दल भी शामिल हैं.
नोटा से संबंधित आंकड़ों का अध्ययन करने यह बात सामने आती है कि इस विकल्प का उन सीटों पर अधिक इस्तेमाल किया गया जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी. यानी माना जा सकता है कि अधिकांश मामलों में इन सीटों पर मजबूत विकल्प के रूप में किसी तीसरी पार्टी की कमी ने मतदाताओं को इसका इस्तेमाल करने को मजबूर किया. इस लिहाज से यदि 2019 के चुनाव में मतदाता नोटा का इस्तेमाल 2014 की तुलना में अधिक करते हैं तो इससे भाजपा को अधिक नुकसान होता हुआ दिखता है. बीते लोक सभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेसनीत यूपीए-2 सरकार से नाराज मतदाताओं से भाजपा ने अच्छे दिनों का वादा किया था. साथ ही, देश के अधिकांश हिस्सों खासकर हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा को भारी समर्थन मिला था. इस चुनौती को भांपते हुए ही पार्टी ने नोटा के इस्तेमाल से बचने की सलाह देनी शुरू कर दी है. इसके लिए सोशल मीडिया पर अभियान भी चलाया जा रहा है.
वहीं, यदि मतदाता नोटा के जरिये मोदी सरकार से नाराजगी जताते हैं तो इससे कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को भी नुकसान उठाना पड़ सकता है. माना जाता है कि चुनाव में यदि सत्ता विरोधी लहर पैदा होती है तो इससे विपक्ष को फायदा होता है. लेकिन, नोटा विपक्ष की इस उम्मीद को ढहाने का काम करता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती होगी कि वह सत्ता विरोधी लहर को नोटा की तरफ न जाने देकर अपनी ओर खीचे.
बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं कि नोटा की संख्या बढ़ने के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. उत्तर प्रदेश में 80 में से 19 सीटों पर नोटा को 10,000 से अधिक वोट मिले थे. वहीं, गुजरात की 26 में से 23, राजस्थान की 25 में से 16, बिहार की 40 में से 15 और मध्य प्रदेश की 29 में से 19 सीटों पर 10,000 से अधिक मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज किया था. 2014 में नोटा वोट हासिल करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार शीर्ष पर थे.
इस आधार पर कहा जा सकता है कि 2019 में अगर इस तरह की सीटों पर नोटा का आंकड़ा बढ़ता है तो यह राजनीतिक दलों के लिए परेशानी की बात हो सकती है. वहीं, यह लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता के विरोध की आवाज को और बुलंद करने एक जरिया भी बन सकता है. हालांकि, इसके लिए नोटा को और अधिक सशक्त बनाने की जरुरत दिखाई देती है. इसके बिना नाराजगी की यह अभिव्यक्ति वोट की बर्बादी ही मानी जाएगी.
साभार- https://satyagrah.scroll.in से