हिंदी साहित्य के मशहूर व्यंग्यकार और लेखक हरिशंकर परसाई से आज कौन परिचित नहीं है और जो परिचित नहीं है उन्हें परिचित होने की जरूरत है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के जमानी गाँव में 22 अगस्त 1924 में पैदा हुए परसाई ने लोगों के दिलों पर जो अपनी अमिट छाप छोड़ी है. उसका एक ही कारण है उनकी रचनाओं का प्रासंगिक होना. फिर वो रचना चाहे ‘भोला राम का जीव’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘दो नाक वाले लोग’ या ‘जैसे उनके दिन फिरे’ हो जो समाज की विसंगतियों पर गहरी चोट करती हैं. उनकी रचनाएँ आजाद भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति का आइना हैं. उनकी रचनाओं में व्यंग्य का होना लाजिमी है और हो भी क्यों ना एक लेखक होने के नाते उन्होंने अपना फर्ज निभाया और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर गहरी चोट की. उनकी कलम से कोई विषय अछूता नहीं रहा. सामाजिक , राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक सभी पहलुओं पर अपनी कलम चलाई. शुरूआती पढाई अपने गाँव से ही करने के बाद नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया.
अट्ठारह वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी की. बाद में अध्यापन किया और सरकारी नौकरी होने के कुछ वर्षों के बाद लेखन के प्रति पूरा समर्पण होने की वजह से नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से लेखन शुरू किया और विषम परिस्थितियों के बावजूद मरते दम तक लेखन ही किया.
उनकी पहली रचना धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ थी. जबलपुर से साहित्य की मासिक पत्रिका ‘वसुधा’ निकाली जो बाद में घाटे की वजह से बंद हो गयी.देशबंधु अखबार में ‘पूछिए परसाई से ‘ में पाठकों के सवालों के जवाब दिया करते थे जिसका दायरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भी पहुंचा.
परसाई की रचनाएँ आमबोलचाल की भाषा में थी, चुटीले व्यंग्य करने में उनका कहना ही क्या. परसाई मूलतः व्यंग्य लेखक थे.उनके व्यंग्य मनोरंजन के लिए नहीं थे बल्कि अपने व्यंग्यों के जरिये समाज में व्याप्त विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया और व्यक्ति को उन चीजों पर सोचने के लिए मजबूर किया जो समय की मांग थी. उन्होंने अपनी लेखनी का भरपूर इस्तेमाल किया और समाज की उन बिन्दुओं को उठाया जिन्हें शायद किसी ने ना उठाया हो.
साहित्य में व्यंग्य लेखन को प्रतिष्ठा दिलाने में हरिशंकर परसाई का योगदान अमूल्य है. परसाई की रचनाओं से साफ़ झलकता है कि उनकी पक्षधरता आम आदमी की तरफ थी.व्यंग्य के जरिये शासक वर्ग के खिलाफ उन्होंने शोषित वर्ग की आवाज उठाई.व्यंग्य का इस्तेमाल एक हथियार की तरह किया . वो जीवन भर लेखन से समाज की खोखली होती जा रही मूल्य मान्यताओं के विरुद्ध लिखा. उनका लेखन तब भी प्रासंगिक था और आज भी प्रासंगिक है. यानि समाज में जो समस्या तब थी और भी विकृत रूप में आज भी है. जरूरत है हर लेखनी में परसाई, प्रेमचन्द को लाने की और शोषित, उत्पीड़ित अवाम की आवाज को उठाने की, ताकि एक बेहतर समाज की निर्माण किया जा सके. एक उनका लेखन वर्तमान व्यंग्य लेखकों के लिए कसौटी भी है. बुद्धिजीवियों के लिए उनका उद्धरण -‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे शियारों की बारात में बैंड बजाते हैं.’