Friday, May 17, 2024
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भारत सहित एशियाई देश वर्ष 2024 में विश्व की अर्थव्यवस्था में देंगे 60 प्रतिशत का योगदान

वैश्विक स्तर पर आर्थिक क्षेत्र का परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। अभी तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में विकसित देशों का दबदबा बना रहता आया है। परंतु, अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2024 में भारत सहित एशियाई देशों के वैश्विक अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत का योगदान होने की प्रबल सम्भावना है। एशियाई देशों में चीन एवं भारत मुख्य भूमिकाएं निभाते नजर आ रहे हैं। प्राचीन काल में वैश्विक अर्थव्यस्था में भारत का योगदान लगभग 32 प्रतिशत से भी अधिक रहता आया है।

वर्ष 1947 में जब भारत ने राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी उस समय वैश्विक अर्थव्यस्था में भारत का योगदान लगभग 3 प्रतिशत तक नीचे पहुंच गया था क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को पहिले अरब से आए आक्राताओं एवं बाद में अंग्रेजों ने बहुत नुक्सान पहुंचाया था एवं भारत को जमकर लूटा था। वर्ष 1947 के बाद के लगभग 70 वर्षों में भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारतीय अर्थव्यवस्था के योगदान में कुछ बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आ पाया था। परंतु, पिछले 10 वर्षों के दौरान देश में लगातार मजबूत होते लोकतंत्र के चलते एवं आर्थिक क्षेत्र में लिए गए कई पारदर्शी निर्णयों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को तो जैसे पंख लग गए हैं। आज भारत इस स्थिति में पहुंच गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में वर्ष 2024 में अपने योगदान को लगभग 18 प्रतिशत के आसपास एवं एशिया के अन्य देशों यथा चीन, जापान एवं अन्य देशों के साथ मिलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था में एशियाई देशों के योगदान को 60 प्रतिशत तक ले जाने में सफल होता दिखाई दे रहा है।

भारत आज अमेरिका, चीन, जर्मनी एवं जापान के बाद विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। साथ ही, भारत आज पूरे विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में तो भारत की आर्थिक विकास दर 8 प्रतिशत से अधिक रहने की प्रबल सम्भावना बन रही है क्योंकि वित्तीय वर्ष 2023-24 की पहली तीन तिमाहियों में भारत की आर्थिक विकास दर 8 प्रतिशत से अधिक रही है, अक्टोबर-दिसम्बर 2023 को समाप्त तिमाही में तो आर्थिक विकास दर 8.4 प्रतिशत की रही है। इस विकास दर के साथ भारत के वर्ष 2025 तक जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने की प्रबल सम्भावना बनती दिखाई दे रही है। केवल 10 वर्ष पूर्व ही भारत विश्व की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था और वर्ष 2013 में मोर्गन स्टैनली द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार भारत विश्व के उन 5 बड़े देशों (दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इंडोनेशिया, टर्की एवं भारत) में शामिल था जिनकी अर्थव्यवस्थाएं नाजुक हालत में मानी जाती थीं।

आज भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.7 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। साथ ही, वस्तु एवं सेवा कर के संग्रहण में लगातार तेज वृद्धि आंकी जा रही है, जिससे भारत के वित्तीय संसाधनों पर दबाव कम हो रहा है और भारत पूंजीगत खर्चों के साथ ही गरीब वर्ग के लिए चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं के

 

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उज्जैन पर प्रकाशित होगा दो हजार पन्नों का ग्रंथ, शहर का नाम भी बदलेगा

उज्जैन के नाम पर दुर्लभ उज्जयिनी अभिनंदन ग्रंथ तैयार हो रहा है, जो शोध के लिए महत्वपूर्ण आधार बनेगा। यह दो हजार पन्नों का होगा, जिसमें देश के बड़े विद्वानों के लेख होंगे। सरकार उज्जैन का नाम बदलकर प्राचीन नाम उज्जयिनी करने की भी कवायद कर रही है। यह ग्रंथ इसी की कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। खास बात यह कि ग्रंथ जैन धर्म और वैदिक धर्म पर आधारित होगा।

जैन संत प्रज्ञासागर जी महाराज की पहल पर उज्जयिनी अभिनंदन ग्रंथ बनाने की तैयारी शुरू हो गई है, जिसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद भी रुचि ले रही है। मध्यप्रदेश सरकार भी इस ग्रंथ के सृजन में रुचि ले रही है। दरअसल, पुराने जमाने में उज्जैन का नाम उज्जयिनी था, लेकिन बाद में यह उज्जैन हो गया।

प्रदेश की डॉ. मोहन यादव सरकार के पास उज्जैन के कई विद्वानों के प्रस्ताव पहुंचे है, जिसमें नाम उज्जयिनी करने का सुझाव दिया गया है। देश के कुछ नगरों के नाम बदले जा चुके हैं, इसलिए प्रदेश सरकार उज्जैन का नाम भी बदलने पर विचार कर रही है। उज्जैन जिले के अंतर्गत महिदपुर स्थित अश्विनी शोध संस्थान ने उज्जैन का प्रतीक चिह्न जारी करने का प्रस्ताव भेजा है।

फिलहाल, उज्जयिनी अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करने की तैयारी जोरशोर से चल रही है। इसके लिए संघ में सह सर कार्यवाह रहे अभा कार्यकारिणी सदस्य सुरेश सोनी और विहिप के प्रांतीय सलाहकार तथा तपोभूमि के ट्रस्टी अनिल कासलीवाल, विक्रम विवि के कुलगुरु प्रो. अखिलेश पांडे, पुरावेत्ता डॉ. रमण सोलंकी, महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के निदेशक श्रीराम तिवारी, पूर्व एडीएम डॉ. आरपी तिवारी आदि की उपस्थिति में देश के 15 विद्वानों की महत्वपूर्ण मीटिंग में अहम फैसले लिए जा चुके हैं।

उज्जयिनी वैदिक ग्रंथ करीब दो हजार पन्नों का होगा, जिसके दो खंड होंगे। एक जैन परम्परा का और दूसरा वैदिक परंपरा पर आधारित होगा। इसमें उज्जैन का प्राचीन इतिहास नए कलेवर और आकर्षण के साथ संग्रहित होगा। संपादक मंडल में इंदौर, वाराणसी, नागपुर, जयपुर, भोपाल के विद्वान शामिल किए गए हैं। गत 4 और 5 मई को इस
सिलसिले में महत्वपूर्ण बैठक भी हो चुकी है।

ग्रंथ के प्रधान संपादक इंदौर निवासी प्रो. अनुपम जैन ने बैठक में बताया, यह ग्रंथ उज्जैन का इतिहास, पुरावैभव और महत्ता बताएगा। इसका उपयोग दुनिया के शोधार्थी और अध्येता कर सकेंगे। डॉ. तिवारी के अनुसार वैदिक परंपरा के साथ पौराणिक परंपरा को भी जोड़ा जाए क्योंकि स्कंदपुराण के सातवें अवंतिखंड में उज्जयिनी का वर्णन है। ग्रंथ में उत्खनन से।प्राप्त सामग्रियों का दस्तावेजीकरण भी किया जाएगा।

जैन समाज की कथा है कि अपनी  बेटी  मैना सुंदरी  से पूछे बिना ही राजा पहुपाल ने  उसका विवाह श्रीपाल नाम के एक ऐसे व्यक्ति से तय की जिसे कोढ़ की बीमारी थी। मैना सुंदरी की माता निर्गुनमति व राज्य के कई लोगों के लाख मना करने के बाद भी बेटी ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए श्रीपाल से ब्याह रचाया। मैनासुंदरी ने अपने सुश्रावक पतिदेव महाराजा श्रीपाल के कोढ़ रोग निवारण हेतु उज्जैन नगरी में सिद्धचक्रजी की आराधना करके उस भयंकर रोग से मुक्ति दिलायी थी।

अश्विनी शोध संस्थान महिदपुर ने उज्जैन नगर का प्रतीक चिह्न जारी करने का प्रस्ताव मध्यप्रदेश सरकार को भेजा है। जिसमें बताया है कि चार रेखाओं से जुड़े चार वृत्त प्रतीक चिह्न बनाया जाए।उज्जयिनी शब्द को पढ़कर ही एक क्रॉस से जुड़े चार वृत्तों की कल्पना की जा सकती है। उज्जयिनी प्रतीक का यह नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि यह उज्जयिनी से प्राप्त सिक्कों पर प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है। उज्जयिनी चिह्न अयोध्या, कन्नौज, कोशांबी, मथुरा आदि के सिक्कों पर पाया जाता है जो इसकी सार्वभौमिकता बताता है।

उज्जैन और इतिहास
यह महान सम्राट विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी।
उज्जैन को कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है।
उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयिनी, कनकश्रन्गा आदि हैं।

जैन धर्म के आराध्य भगवान श्री 1008 महावीर स्वामीजी का समोशरण यहां आया था।
जैन समाज की सती महासुंदरी मैना देवी का भी उज्जैन से संबंध रहा है।
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हिंदी साहित्य के लिए एक विशाल खजाना छोड गई मालती जोशी

प्रसिध्द हिंदी कहानी लेखिका मालती जोशी का 90 वर्ष की आयु में दिल्ली में निधन हो गया। मालती जोशी पिछले कुछ समय से कैंसर से पीड़ित थीं। उनका निधन बुधवार को दिल्ली में उनके पुत्र सच्चिदानंद जोशी के आवास पर हुआ। सच्चिदानंद जोशी प्रसिद्ध साहित्यकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) के सदस्य सचिव हैं। उनके अंतिम समय में उनके दोनों पुत्र ऋषिकेश और सच्चिदानंद जोशी तथा पुत्र वधू अर्चना और मालविका उनके साथ ही थी। उनका जन्म औरंगाबाद में 4 जून, सन् 1934 ईस्वी की महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनको पिता श्री कृष्ण राव और माता श्रीमती सरला से अच्छे संस्कार मिले ।

इंदौर में रहने वाले दिघे परिवार में जन्मी मालती जोशी यहां करीब ढाई दशक तक इन्दौर में रहीं। इंदौर से ही उनकी साहित्यिक यात्रा भी शुरू हुई। शहर के मालव कन्या विद्यालय में स्कूली शिक्षा हुई और फिर आर्ट्स विषय लेकर उन्होंने होलकर कालेज में प्रवेश लिया। होलकर कॉलेज से बीए और हिंदी में एमए करते वक्त ही उन्होंने लेखन कर्म आरंभ कर दिया था।
उन्होंने हिंदी में एम.ए. की परीक्षा पास की । उनके पति श्री सोमनाथ जोशी भोपाल में इंजीनियर थे।

लेखन के शुरुआती दौर में मालती जोशी कविताएं लिखा करती थीं। उनकी कविताओं से प्रभावित होकर उन्हें मालवा की मीरा नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्हें इंदौर से खास लगाव था। इतना कि वे अक्सर कहा करती थीं कि इंदौर जाकर मुझे सुकून मिलता है, क्योंकि वहां मेरा बचपन बीता, लेखन की शुरुआत वहीं से हुई और रिश्तेदारों के साथ ही उनके सहपाठी भी वहीं हैं। यह शहर उनकी रग-रग में बसा था। खुद अपनी आत्म कथा में मालती जोशी ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है, ‘मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे. कॉलेज के जमाने में इतने गीत लिखे कि लोगों ने मुझे ‘मालव की मीरा’ की उपाधि दे डाली।’

मालती जोशी अपने आप में एक उपमा थी। उन्हें अपनी लिखी सैकड़ों कहानियाँ मुँहजबानी याद थी। मुंबई की चौपाल में वे जब भी आती ओर बगैर पढ़े कहानियाँ सुनाती तो ऐसा लगता था जैसे कोई फिल्म चल रही है। उनकी कहानियों के किरदार हमारे घर परिवार के सदस्य जैसे ही लगते हैं। उनकी कहानी में आने वाले कोई नकारात्मक किरदार भी सकार्त्मक किरदारों से ज्यादा अनुशासनप्रिय, मूल्यों को जीने वाले और भारतीय संस्कृति को संपन्न करने वाले होते थे। वो नकारात्मक किरदारों को भी ऐसे प्रस्तुत करती थी जैसे घर परिवार में पीढ़िय़ों के अंतराल और सोच के बीच पारिवारिक संस्कृति और मूल्यों के लिए परिवार का कोई सदस्य संघर्ष कर रहा है।

उनके पात्रों में अड़ोस पड़ोस की फुरसती महिलाएँ भी होती थी तो घर का काम करने वाली बाई भी। उनका हर किरदार पाठकों से सीधा तादात्म्य बना लेता है। पाठक को लगता है कि जो कहानी वह पढ़ रहा है उसके सब किरदार तो उसके घर, ऑफिस और गाँव की चौपाल में उसे रोज ही दिखाई देते हैं। उनकी कहानियों में संस्कृति की मिठास, सामाजिक समरसता का और पारिवारिक जीवन मूल्यों को बचाए रखने का संदेश छुपा होता है। उनका हर पात्र पाठक को बांध लेता है, कोई भी पात्र या कहानी का कोई भी हिस्सा पाठक के मन में किसी तरह का तनाव पैदा नहीं करता है।

पचास से अधिक हिन्दी और मराठी कथा संग्रहों की लेखिका मालती जोशी शिवानी के बाद हिन्दी की सबसे लोकप्रिय कथाकार मानी जाती हैं। मालती जोशी की अनूठी कहानी कहने की शैली साहित्यिक दुनिया में एक विशेष स्थान रखती है। उनके काम पूरे भारत के कई विश्वविद्यालयों में शोध का विषय रहे। उनके साहित्यिक योगदान ने पाठकों और विद्वानों पर समान रूप से अमिट छाप छोड़ी है।

कविसम्मेलनों में गीतों से उनकी पहली पहचान बनी। १९६९ में बच्चों के लिये लिखना प्रारंभ किया और खूब लोकप्रियता प्राप्त की। १९७१ में ‘धर्मयुग’ में पहली कहानी प्रकाशित हुयी और मालती जोशी भारतीय परिवारों की चहेती लेखिका बन गयीं।

उनकी अब तक अनगिनत कहानियां, बाल कथायें व उपन्यास प्रकाशित कर चुकी हैं। इनमें से अनेक रचनाओं का विभिन्न भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया जा चुका है। कई कहानियों का रंगमंचन रेडियो व दूर दर्शन पर नाट्य रूपान्तर भी प्रस्तुत किया जा चुका है। कुछ पर जया बच्चन द्वारा दूरदर्शन धारावाहिक सात फेरे का निर्माण किया गया है तथा कुछ कहानियां गुलज़ार के दूरदर्शन धारावाहिक किरदार में तथा भावना धारावाहिक में शामिल की जा चुकी हैं। इन्हें हिन्दी व मराठी की विभिन्न व साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत किया जा चुका है। ममराठी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मलयालम, कन्नड भाषा के साथ अँग्रेजी, रूसी तथा जापानी भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। गुलजार ने उसकी कहानियों पर ‘किरदार’ नाम से तथा जया बच्चन ने ‘सात फेरे’ नाम से धारावाहिक बनाए हैं। उन्होंने अपनी कहानियाँ आकाशवाणी से भी प्रसारित की हैं। इसके अतिरिक्त मराठी में उनकी ग्यारह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

२०१८ में उन्हें साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदानों के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।

उन्होंने देश की स्वतंत्रता के बाद की अग्रणी कहानीकार के रूप में पहचान बनाई। । मालती जोशी ने केवल कविताएं या कहानियां ही नहीं बल्कि उपन्यास और आत्म संस्मरण भी लिखे हैं। उपन्यासों में पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग विराग आदि प्रमुख हैं। वहीं उन्होंने एक गीत संग्रह भी लिखा, जिसका नाम है, मेरा छोटा सा अपनापन। उन्होंने ‘इस प्यार को क्या नाम दूं? नाम से एक संस्मरणात्मक आत्मकथ्य भी लिखा। उनकी एक और खूबी रही कि उन्होंने कभी भी अपनी कहानियों का पाठ कागज देखकर नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपनी सारी कहानियां, कविताएं जबानी याद रहतीं थीं।

मालती जी सुप्रसिद्ध लेखिका होने के साथ-साथ एक सफल गृहिणी भी थी। इनके साहित्य में जवान होती बेटी की पिता महंगाई दहेज समस्या आदि का प्रायः उल्लेख दिखाई देता है। उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘‘मैं किशोर वयस् से गीत लिखा करती थी पर बाद में लगा अपनी भावनाओं को सही अभिव्यक्ति देने के लिए कविता का कैनवास बहुत छोटा है। कविता की धारा सूख गई और कहानी का जन्म हुआ है। इनकी पहली कहानी सन् 1971 ईस्वी में ‘धर्म युग’ में प्रकाशित हुई।

उनका कहना था कि जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को, स्मरणीय क्षणों को मैं अपनी कहानियों में पिरोती रही हूं। ये अनुभूतियां कभी मेरी अपनी होती हैं कभी मेरे अपनों की। और इन मेरे अपनों की संख्या और परिधि बहुत विस्तृत है। वैसे भी लेखक के लिए आप पर भाव तो रहता ही नहीं है। अपने आसपास बिखरे जगत का सुख-दु:ख उसी का सुख-दु:ख हो जाता है। और शायद इसीलिये मेरी अधिकांश कहानियां “मैं” के साथ शुरू होती हैं।

‘प्रमुख कृतियाँ
कहानी संग्रह- पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, मालती जोशी की कहानियाँ, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखीरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डालर नोट।
बालकथा संग्रह- दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार
उपन्यास- पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग विराग
व्यंग्य- हार्ले स्ट्रीट
गीत संग्रह- मेरा छोटा सा अपनापन
अन्य संकलन- मालती जोशी की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, आनंदी, परख, ये तेरा घर ये मेरा घर, दर्द का रिश्ता, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, अपने आँगन के छींटे, रहिमन धागा प्रेम का।

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अंजली पाटिल, शारिब हाशमी की फ़िल्म “मल्हार” हिंदी व मराठी में 31 मई को प्रदर्शित होगी

मुंबई।  पिछले कुछ वर्षों में एक ही सिनेमा में एंथॉलॉजी फिल्मों का चलन बढ़ा है। 31 मई को सिनेमाघरों में रिलीज़ होने जा रही फिल्म “मल्हार” श्रीनिवास पोकळे, शारिब हाशमी, अंजलि पाटिल जैसे मंझे हुए कलाकारों से सजी यह अपकमिंग फिल्म तीन कहानियों का खूबसूरत मिश्रण है जो आपस में जुड़ी हुई हैं और एक ही गांव की हैं। निर्माता प्रफुल पसाड की फ़िल्म मल्हार का पोस्टर लॉन्च मुम्बई के रेड बल्ब स्टूडियो में किया गया जहाँ प्रोड्यूसर डायरेक्टर और सभी ऐक्टर्स के साथ फ़िल्म से जुड़ी पूरी टीम उपस्थित थी। पोस्टर में अंजली पाटिल का लुक एकदम अलग दिख रहा है जो उनके अनोखे किरदार की झलक प्रस्तुत कर रहा है वहीं शारिब हाशमी भी घनी मूंछों में प्रभावित कर रहे हैं।

निर्माता प्रफुल्ल पसाड का कहना है कि मल्हार गांव कच्छ में घटित हो रही तीन स्टोरीज का अद्भुत संगम है। हमने फ़िल्म को रोचक अंदाज में पिरोया है ताकि दर्शकों के लिए पूरा मनोरंजन मिले। यह फिल्म दो सबसे अच्छे दोस्तों की कहानी कहती है। सुनने के यंत्र की मरम्मत के लिए उनके संघर्ष के इर्द-गिर्द यह स्टोरी घूमती है।

चक्रव्यूह और न्यूटन सहित कई हिंदी, मराठी और साउथ फिल्मों में अपनी अदाकारी के जौहर दिखा चुकी अभिनेत्री अंजली पाटिल भी मल्हार की इंगेजिंग कहानी को लेकर काफी उत्साहित हैं। वह कहती हैं कि फ़िल्म की तीन कहानियों में से एक कहानी केसर की है जिसकी शादी लक्ष्मण से हाल ही में हुई है जो उस गांव के सरपंच का बेटा है। शादी के कुछ दिनों बाद भी वह गर्भवती नहीं हो रही है इसलिए उसके ससुराल वाले उसे लगातार कोस रहे हैं और वह इससे कैसे बाहर निकलती है।

अभिनेता शारिब हाशमी मल्हार का हिस्सा बनकर खुश हैं। वह कहते हैं कि फ़िल्म की 3 स्टोरीज में से एक स्टोरी जावेद और उसकी बड़ी बहन जैस्मीन की है। जैस्मीन को हिंदू लड़के जतिन से प्यार हो जाता है। कहानी उनके मिलने और एक साथ रहने के संघर्ष को दिखाती है कैसे वे इस प्यार और इसके परिणाम का सामना करते हैं, कहानी इसी बारे में है।

फ़िल्म में श्रीनिवास पोकळे, शारिब हाशमी, अंजली पाटिल, ऋषि सक्सेना, मोहम्मद समद और अक्षता आचार्य ने अभिनय किया है फ़िल्म के निर्माता प्रफुल्ल पसाडऔर निर्देशक विशाल  कुंभार द्वारा निर्देशित है। फिल्म के संवाद सिद्धार्थ साळवी, स्वप्नील सीताराम और पटकथा विशाल कुंभार, अपूर्वा पाटील ने लिखे हैं। छायांकन गणेश कांबळे का, संकलन अक्षय कुमार , संगीत टी. सतीश और सारंग कुलकर्णी ने दिया है। फ़िल्म हिन्दी और मराठी भाषा में एक साथ ३१ मई को सिनेमागृहों में रिलीज़ होगी ।

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हमारी महान सांस्कृतिक विरासत पर हमें गर्व होना चाहिए

विश्व के इतिहास में भारत वह महत्वपूर्ण देश है जो सभ्यता और संस्कृतियों का प्रथम ज्ञात था! जिसने गणित के जीरो से लेकर हिंदी की वर्णमाला तक , ध्वनियों से लेकर अक्षरों तक ,सुर से लेकर ताल तक, ज्ञान की हर क्षेत्र में अपना परचम लहराया था! आज वही भारत देश डिजिटल इंडिया बन रहा है या बनने में लगा हुआ है !यह कार्य जितनी तेज गति से हो रही है उतनी ही तेज गति से मनुष्य का प्रतिस्थापन भी हो रहा है! धीरे-धीरे मशीन हमारे सारे कार्यों को आसान करते जा रहे हैं और हम उसके ऊपर निर्भर होते जा रहे हैं! यहां तक की एक अकेला व्यक्ति मशीनीकरण के द्वारा संपूर्ण कार्य करने में सक्षम होने से अहंकार का भी शिकार होते जा रहा है! परिवार तथा समाज सबसे कटता जा रहा है कि हमको किसी की आवश्यकता ही नहीं है, हम किसी के आश्रित नहीं है! हम तो स्वयं सब कुछ कर सकते हैं  फिर किसी और की क्यों सुने? किसी के लिए अपना नुकसान क्यों करें? हम किसी के सहारे नहीं!
हमारी इस आत्मनिर्भरता में हमारा स्मार्टफोन(मोबाइल फोन) हमारा हथियार या सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी साधन सिद्ध हो रहा है ! मोबाइल या कंप्यूटर या लैपटॉप के द्वारा सोशल मीडिया( इंटरनेट ,यु-ट्यूब, फेसबुक ,इंस्टाग्राम ,व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम  इत्यादि प्लेटफार्म जो हमें सोशल मीडिया से तो जोड़ रहा है लेकिन अपने समीप रहने वाले मनुष्यों से सारे रिश्ते तोड़ते जा रहा है ! हमें सबसे ज्यादा सीखने में सोशल मीडिया मददगार हो रहा है! लेकिन बात यहीं तक खत्म नहीं होती बल्कि पूरी शिक्षण -व्यवस्था  उनके कंधों पर ही आ पड़ी है! आज सबसे बड़े गुरु गूगल बाबा है !सबसे बड़े पंडित यू-ट्यूब है और फेसबुक है !कला- कौशल, गीत- संगीत सब कुछ इन्हीं के द्वारा सिखाया और सीखा जाता है !परंतु दुख की बात यह है कि हम इनके द्वारा चाहे जितनी भी पढ़ाई कर ले, जितनी भी कलाएं सीख ले, ज्ञान अर्जित कर ले, परंतु संस्कार से वंचित रह जाते हैं! अपनी रीति -रिवाजों, परंपराओं को अपने संस्कारों में नहीं ला पाते हैं और संस्कृतियां हमसे इस तरह गायब होती जा रही है जैसे गधे के सर से सिंग!
हमें अपने दैनिक दिनचर्या के साथ वह संस्कार जो माता-पिता और गुरुओं के साथ बैठकर सीखने में प्राप्त होता था वह आज पूर्णतया दुर्लभ होता जा रहा है! हमारी कमियां जो हमारे परिवार रूपी पाठशाला में अपने बड़ों के साथ रहकर अपने आप दूर हो जाती थी आज वह तमाम बीमारियों का रूप लेती जा रही है!  प्राय लोग डिप्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं जबकि पहले पाठशाला में गुरुओं के द्वारा  मिलने वाले शिक्षा में डिप्रेशन को कोई स्थान नहीं था! विद्यालयों में जो सीख मिलती थी उसमें हमारा आत्म सम्मान हमारे व्यवहार में  पूर्ण रूपेण दिखाई देता था ! हमारे मन और मस्तिष्क का यथोचित विकास दिखाई देता था!
हमारी आत्मा में विवेक तत्व विकसित होते थे ,जिससे सही – गलत, उचित और अनुचित का भेद हम व्यवहारतन करने में सक्षम होते थे ! आज इस विवेक से व्यक्ति वंचित होने लगा है! जिसके परिणाम स्वरुप बच्चे अपने बड़ों के साथ बदत्मीजी करते देखे जा रहे हैं! बड़ों के पास बैठना और बात करना पसंद नहीं करते वल्कि केवल फोन में डूबे रहते हैं! और विडंबना तो यह है कि सिर्फ बच्चे ही नहीं युवा पीढ़ी भी इसी राह का अनुकरण कर रही है! हम यह नहीं कह रहे हैं कि सोशल मीडिया पर केवल बुराई है, अच्छी बातें भी बहुत हैं पर बुरी बातें बहुत तेजी से फैलती  हैं!  यही वजह है कि सभ्यता के नाम पर नग्नता और अश्लीलता ही दिखाई देने लगी है! बेशर्मी और उद्दंडता सोशल मीडिया पर इस तरह बढ़ती जा रही हैं जिसका कोई आर-पार नहीं है!
अब भारतीय संस्कृति जो शिक्षकों की अटूट श्रृंखला के माध्यम से अमर रूप से संरक्षित है, जहाँ प्राचीन भारत का प्रत्येक साहित्यकार स्वयं एक जीवंत पुस्तकालय था ,अनगिनत गुरुओं और आचार्यों ने इस शैक्षिक विरासत को आज भी अक्षुण्ण बनाए रखने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ,जो सभ्यता और संस्कृति का प्रथम ज्ञाता कहा जाता है वही भारतवर्ष  अपने आने वाली नई पीढ़ियों को , नौनिहालों को सही शिक्षा नहीं दे पा रहा ,सभ्यता का पाठ नहीं पढ़ा पा रहा! आज भारतीयों को भी अपने धर्म, संस्कृति , वेद- पुराणों का ज्ञान गूगल पर ढूंढना पड़ रहा है! जबकि प्राचीन गुरु अपने अंदर निहित  संपूर्ण ज्ञान  शिष्यों को एक बालक की भांति प्रदान कर उनके सर्वांगीण विकास करने के लिए मार्गदर्शन करता था!
गुरु और शिष्य के बीच प्रेम को देखकर ही निर्विवाद रूप से यह स्वीकार किया गया  कि ” गुरु के बिना ज्ञान संभव नहीं है और गुरु ही मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है!” ईश्वर तक जाने का रास्ता  गुरु ही बताता है! अब प्रश्न यह है कि क्या गूगल बाबा, फेसबुक और यु-टुब इस जिम्मेदारी को पूर्ण कर सकेंगे? हमारे देश में हर शुभ कार्य को करने से पहले गुरु की वंदना और आराधना करके उनकी आज्ञा ली जाती है, उनका आशीर्वाद लेकर कार्य करने की यह संस्कृति हमारी धरोहर है जो आज विलुप्त हो रही है!
हमारी भारतीय संस्कृति में जिस तरह व्यक्ति का महत्व है, उसी प्रकार प्रथाओं, परंपराओं और  रीति- रिवाजों का भी  महत्व है ,तो क्या हमारे भारतीय नव-युवक संस्कृतियों का वह ज्ञान अपने संस्कार में पूर्णतया ला सकेंगे? मानवीय आकांक्षाओं की पूर्णता के द्योतक ये गुरू(सोशल मीडिया)भारतीय  प्राचीन शिक्षकों का स्थान ले  सकेंगे?
हमारे  धर्म ग्रंथो में बताया जाता है कि दुनिया भर में प्रसिद्ध”महाभारत”ग्रंथ  का लेखन स्वयं गणेश जी ने महर्षि वेदव्यास के बताने पर उनके समीप बैठकर किया था इसीलिए महर्षि वेदव्यास को संपूर्ण मानव जाति का “आदिगुरु” कहा जाता है यानि कि जिस भारत वर्ष में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर रखा गया है ,जीवन के किसी भी क्षेत्र में मार्ग बताने  वाले गुरु के लिए आदर प्रदान करने की प्रथा है,   जहाँ “विद्या ददाति विनयम्….!”का पाठ पढाया जाता है,माँ सरस्वती और गणेशजी के साथ गुरु की ही स्तुति की जाती है, गुरु सदैव विद्या और ज्ञान का संवाहक होता है , ऐसे भारत में हम  गुरु द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलना ही अपना कर्तव्य और धर्म समझते हैं ऐसे दायित्वबोध कार्य को क्या यह सोशल मीडिया कर सकेगा?  यह एक ध्रुव प्रश्न बना हुआ है! वर्तमान समय में भारत विश्व गुरु बनने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है और भारत का बच्चा-बच्चा इस कार्य में अपना पूर्ण योगदान दे रहा है !तब क्या गूगल बाबा अथवा सोशल मीडिया के द्वारा इस  कार्य के दिशा को मंजिल प्राप्त हो सकेगी? चिंतनीय है……!
डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’
(अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ ,नई दिल्ली)
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सच्ची कहानी पर आधारित है निर्देशक अविनाश ध्यानी फिल्म फूली

मुंबई : अभिनेता और निर्देशक अविनाश ध्यानी की फ़िल्म फूली का पोस्टर और रिलीज़ डेट जारी कर दिया गया हैं  सिनेमा घरों में अभिनेता और  निर्देशक अविनाश ध्यानी की आने वाली फिल्म “फूली” किसी एक बच्ची की कहानी मात्र नहीं है | फिल्म में फूली के किरदार में अविनाश ध्यानी ने, पहाड़ में रहने वाली हर महिला की जिंदगी को दर्शाया है, इस फिल्म के दौरान वो करीब 8 महीनों तक तिमली गांव,( पौड़ी जिला)  में रहे, और बिना किसी जल्दबाजी के इस फिल्म को बनाते रहे| अविनाश  से की गयी बातचीत में उन्होंने बताया कि उनकी बनाई सारी फिल्मों से फूली फिल्म उनके सबसे करीब है क्योंकि फूली यथार्थ के बहुत नजदीक है | फूली फिल्म में उन्होंने पहाड़ की कई महिलाओं के जीवन से प्रेरणा ली है, जिसमें की उनकी  माँ भी शामिल हैं, पहाड़ को करीब से जानने और समझने के चलते उन्हें लगा कि ये एक ऐसी कहानी है जो सिर्फ पहाड़ों तक सीमित रहने के लिए नहीं है, इसे देशभर में लोगों तक पहुँचना चाहिए |

फिल्म की कहानी फूली के किरदार के आस पास घुमती है, जो की एक 14 साल की होनहार बच्ची है, जो पढ़ना चाहती है, लिखना चाहती है, आगे बढ़ना चाहती है, मगर हालत और परिस्थितियाँ उसके विपरीत हैं, उसके पिता अपनी शराब की लत के आगे लाचार हैं |  फूली अपने पिता कि हर बात मानने के साथ हर वो कोशिश करती है जिससे की वो किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी करे, जब उसका मनोबल कम होता है तो तभी उसकी जिंदगी में एक जादूगर आता है जो उसे समझाता है कि कैसे उसकी जिंदगी बदलना उसके अपने हाथों में है और बताता है कि “कोई नहीं आता आपकी जिंदगी में जादू करने, वो जादू आपको ख़ुद करना होता है अपनी जिंदगी में |”  कैसे फूली जादूगर की कही बातों को समझती है और अपने जीवन में उतारती है, इसी पर पूरी फिल्म आधारित है |

फूली, ऐसा सिनेमा है जो कई सालों में एक बार बनता है जहाँ आप जब उसे देखते हैं तो आप अपना समय देकर कुछ सीख कर जाते हैं, फूली भले ही एक बच्ची की कहानी है पर वो जीवन के कई ऐसे पड़ावों पर प्रकाश डालती है जिनसे हर इंसान, कभी न कभी, किसी ना किसी उम्र में गुजरता है|

ये फिल्म सभी के लिए है और सभी तक पहुँचनी चाहिए, फिल्म 7 जून  को सिनेमा घरों में आ रही है।

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शिवाजी महाराज के शासनकाल की आर्थिक नीतियां

इतिहास के किसी भी खंडकाल में भारतीय सनातन संस्कृति का अनुपालन करते हुए किए गए समस्त प्रकार के कार्यों में सफलता निश्चित मिलती आई है। ध्यान में आता है कि भारतीय आर्थिक दर्शन भी सनातन संस्कृति के अनुरूप ही रहा है। छत्रपति शिवाजी महाराज भी हमारे वेदों एवं पुराणों में वर्णित नियमों के अनुसार ही अपने राज्य में आर्थिक नीतियों का निर्धारण करते थे। अपनी रियासत के नागरिकों को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हो और वे परिवार सहित अपने लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था आसानी से कर सकेंइसका विशेष ध्यान आपके शासनकाल में रखा जाता था। उस खंडकाल में नागरिकों के लिए रोजगार हेतु कृषि क्षेत्र ही मुख्य आधार था। कृषि गतिविधियों के साथ साथ पशुपालन कर ग्रामों में निवासरत नागरिक अपने एवं अपने परिवार का भरण पोषण सहज रूप से कर पाते थे एवं अति प्रसन्नचित तथा संतुष्ट रहते थेहालांकि कालांतर में व्यापार एवं उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाने लगा था।

विश्व के कई भागों में सभ्यता के उदय से कई सहस्त्राब्दी पूर्वभारत में उन्नत व्यवसायउत्पादनवाणिज्यसमुद्र पार विदेश व्यापारजलथल एवं वायुमार्ग से बिक्री हेतु वस्तुओं के परिवहन एवं तत्संबंधी आज जैसी उन्नत नियमावलियांव्यवसाय के नियमन एवं करारोपण के सिद्धांतों का अत्यंत विस्तृत विवेचन भारत के प्राचीन वेद ग्रंथों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। प्राचीन भारत में उन्नत व्यावसायिक प्रशासन व प्रबंधन युक्त अर्थतंत्र के होने के भी प्रमाण मिलते हैं। हमारे प्राचीन वेदों में कर प्रणाली के सम्बंध में यह बताया गया है कि राजा को अत्यधिक कराधान रूपी अत्याचार से विरत रहना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार करों की अधिकता से प्रजा में दरिद्रतालोभअसंतोषविराग आदि भाव उपजते हैं। राजा द्वारास्मृतियों द्वारा निर्धारितकर के अतिरिक्त अन्य कर लगाया जाना निछिद्ध था। कर की मात्रा वस्तुओं के मूल्य एवं समय पर निर्भर होती थी।

 राजा सामान्यतया उपज का छठा भाग ले सकता था। हां आपत्ति के समय अतिरिक्त कर लगाने की केवल एक बार की छूट रहती थी। अनुर्वर भूमि पर भारी कर नहीं लगाया जाता था। कर सदैव करदाता को हल्का लगेजिसे वह बिना किसी कठिनाई व कर चोरी के चुका सके। जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्पों से बिना कष्ट दिए मधु लेती हैउसी प्रकार राजा को प्रजा से बिना कष्ट दिए कर लेना चाहिए। कर प्रणाली के माध्यम से आर्थिक असमानता एवं घाटे की वित्त व्यवस्था पर अंकुश लगाया जाता था। चुंगी को भी कर की श्रेणी में शामिल किया जाता थाजो क्रेताओं एवं विक्रेताओं द्वारा राज्य के बाहर या भीतर ले जाने या लाए जाने वाले सामानों पर लगती थी। राजा के पास राजकोष के लिए तीन साधन थे – उपज पर राजा का भागचुंगी एवं दंड। इस प्रकार राजकोष पर प्राचीन ग्रंथों में अत्यंत विस्तृत व व्यावहारिक विमर्श पाया जाता है।

शिवाजी महाराज के राज्य में प्रारम्भिक काल में व्यापार बहुत कम मात्रा में होता था और राज्य की अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इस राज्य में उस समय चौथ एवं सरदेशमुखीयह दो प्रकार के कर प्रचलन में थे। नागरिकों को राज्य में सुरक्षा प्रदान करने के एवज में चौथ नामक कर लगाया जाता था। इस प्रकार का कर अन्य रियासतों द्वारा भी अपने नागरिकों से वसूला जाता थाउस खंडकाल में यह एक सामान्य कर थाजिसके अंतर्गत किसानों एवं श्रमिकों को यह आश्वासन दिया जाता था कि राज्य पर किसी भी बाहरी आक्रमण के समय इन नागरिकों को प्रशासन द्वारा सुरक्षा प्रदान की जावेगी।

दूसरी ओरसरदेशमुखी नामक कर प्रचलन में था। इस कर प्रणाली के अन्तर्गतराज्य द्वारा जमीन पर अर्जित की गई आय का 10 प्रतिशत हिस्सा कर के रूप में किसानों से वसूल किया जाता था। शिवाजी महाराज ने 1660 के दशक के शुरुआती वर्षों में ही उक्त वर्णित दोनों प्रकार के कर अपने नागरिकों से लेना शुरू कर दिए था। सरदेशमुखी कर वसूल करते समय प्रशासन द्वारा इस बात का ध्यान जरूर रखा जाता था कि जिन किसानों की जमीन कम उपजाऊ हैउनसे कर की वसूली कम दर पर की जाय ताकि इस श्रेणी के किसानों को अपने एवं परिवार के जीवन यापन में किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हो। कौन सी जमीन अधिक उपजाऊ एवं कौन सी जमीन कम उपजाऊ हैयह जानने के लिए समय समय पर सर्वेक्षण भी कराए जाते थे और इस सर्वेक्षण के परिणामों के आधार पर ही विभिन्न किसानों के लिए कर की दर निर्धारित की जाती थी। साथ ही कर की अधिकतम राशि भी निर्धारित की जाती थी एवं यह कुल उपज के एक तिहाई से अधिक नहीं रखी जाती थी। सरदेशमुखी मानक कर केवल उपज पर ही लगाया जाता था।

शिवाजी महाराज के राज्य में खेतीबाड़ी ही राजस्व का मुख्य और लगभग इकलौता जरिया थाअतः शिवाजी महाराज का प्रशासन परती जमीन पर खेती करने वालों को उचित रियायतें भी प्रदान करता था। इन किसानों से कम दर पर कर लिया जाता था। कई बार तो पहले चार वर्षों के लिए प्रशासन द्वारा पट्टे पर दी गई जमीन  पर किसानों से कोई किराया ही नहीं वसूला जाता थापांचवें साल में आधा किराया वसूला जाता था और फिर उसके बाद पूरा किराया वसूला जाता था।

शिवाजी महाराज के प्रशासन द्वारा उस खंडकाल में जारी एक सर्कुलर से यह पता चलता है कि शिवाजी महाराज द्वारा किसानों को आवश्यकता पड़ने पर ब्याज मुक्त ऋण भी प्रदान किया जाता थाताकि किसान अपने कृषि कार्य को सुचारू रूप से जारी रख सकें। प्रशासन के नियमों के अनुसार किसानों से केवल मूलधन की राशि ही वापिस ली जाती थी और वह भी किश्तों में।

शिवाजी महाराज के शासनकाल में कृषि क्षेत्र पर दबाव कम करने के उद्देश्य से नमक उद्योग को भी बढ़ावा दिया गया था एवं नमक उद्योग में राज्य ने भी अपना निवेश किया था। इससे किसानों के लिए यह आय का एक अतिरिक्त स्त्रोत बनकर उभरा था। शिवाजी महाराज के राज्य में प्रशासन द्वारा नमक उद्योग को बढ़ावा दिए जाने के पूर्व नमक का आयात पुर्तगाली व्यवसाईयों के माध्यम से होता था। राज्य में नमक के आयात को कम करने एवं अपने राज्य में उत्पादित नमक के उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पुर्तगाल से आयात किए जाने वाले नमक पर प्रशासन ने आयात कर को बढ़ा दिया था ताकि आयातित नमक की कीमत बाजार में  अधिक हो जाए एवं राज्य के व्यापारी नमक आयात करने के लिए निरुत्साहित हों तथा स्थानीय नमक उत्पादनकर्ताओं के हित सुरक्षित हो सकें। इस प्रकारआयात कर का चलन शिवाजी महाराज के शासन काल में ही प्रारम्भ हुआ था।

शिवाजी महाराज के प्रशासन द्वारा नमक उद्योग को प्रदान की गई विशेष सुविधाओं के चलते कुछ समय पश्चात तो राज्य से नमक का निर्यात भी होने लगा था जिससे धीरे धीरे पानी के जहाज बनाने का उद्योग भी राज्य में फलने फूलने लगा था। कालांतर में पानी के जहाजों का इस्तेमाल राज्य में नौ सेना के लिए भी किया जाने लगा था। विशेष रूप से अरब सागर को नियंत्रित करने और अपने साम्राज्य के तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से शिवाजी महाराज ने एक दुर्जेय नौसैनिक बेड़ा बनाया था। इस प्रकार शिवाजी महाराज ने समुद्री सुरक्षा के सामरिक महत्व को बहुत पहिले ही समझ लिया था। आपकी नौसेना ने न केवल कोंकण तट को समुद्री खतरों से बचाया थाबल्कि हिंद महासागर के व्यापार मार्गों में यूरोपीय शक्तियों के प्रभुत्व को भी चुनौती दी थी। 

इतिहासकार श्री जदुनाथ सरकार अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि शिवाजी महाराज के राज्य में विभिन्न आकार के लगभग 400 पानी के जहाज थे। हालांकि उस समय के एक अन्य प्रतिवेदन में यह संख्या 160 की बताई गई है। शिवाजी महाराज की नौ सेना ने पुर्तगालियोंडच एवं अंग्रेजों की नौ सेना को निशाना बनाने में सफलता पाई थी। शिवाजी महाराज ने अपने राज्य एवं आज के महाराष्ट्र के पेनपनवेल और कल्याण क्षेत्रों में पानी के जहाज बनाने के उद्योग प्रारम्भ किये थे। इन क्षेत्रों में पानी के जहाज बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में लकड़ी उपलब्ध थी। यहां पर निर्मित किए गए पानी के जहाज वजन में हलके होते थे एवं तेज गति से चलते थे। कुछ जहाज तो आकार में बहुत बड़े भी रहते थेजिन पर आठ तोपें तक लादी जाती थीं। वर्ष 1663 आते आते शिवाजी महाराज के जहाज आज के यमन के शहरों तक जाने लगे थे। बाद के वर्षों में तो व्यापारिक जहाज आज के ईरान एवं ईराक के बसरा शहर तक भी गए थे।

छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में सरल कर प्रणाली के चलते नागरिकों की आर्थिक स्थिति समय के साथ साथ काफी सुदृद्ध होती चली गई क्योंकि नागरिकों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का भी अच्छा उपयोग किया जाने लगा था। अधिकतम नागरिक ग्रामों में ही निवास करते थे एवं कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर थे। विभिन्न प्रकार की फसलें उगाकर गाय एवं भेड़ें पालते थेजानवरों का शिकार करते एवं भेड़ों की ऊन से कपड़े बनते थे। इस खंडकाल में लगभग समस्त ग्रामों में नागरिकों की यही जीवन शैली थी। शिवाजी महाराज के शासनकाल में व्यापार के भी बढ़ावा दिया जा रहा था। मुख्य रूप से कपासचमड़े से निर्मित उत्पाद एवं मसालों का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। भारत के पश्चिमी तट पर सूरत के बंदरगाह के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय व्यापार किया जाता था। जबकिसूती एवं रेशमी कपड़ों का घरेलू व्यापार भी किया जाता था।

आज भी यह माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ थाजिससे संप्रभु और शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य की नींव पड़ी थी। यह साम्राज्य गुप्तमौर्यचोलअहोम एवं विजयनगर साम्राज्य की ही तरह शक्तिशालीसुसंगठित और सुशासित था। शिवाजी महाराज ने एक महान हिंदवी साम्राज्य की स्थापना कर न केवल हिंदुओं की सुप्त चेतना को जागृत किया थाबल्कि उन्हें संगठित करते हुए विभाजनकारी और दमनकारी इस्लामी शासन को खुली चुनौती भी दी। उन्होंने भारतीय अस्मितासनातन संस्कृति को पुनर्जीवित करने और मंदिरों के संरक्षण और निर्माण कार्य पर सर्वाधिक बल दिया। आज शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में पूरे देश में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाने के प्रयास हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भी इसे एक पर्व के रूप में मनाए जाने का आह्वान किया है तथा संघ की देश भर में फैली शाखाओं द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाने की योजना है।

 

प्रहलाद सबनानी

सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,

भारतीय स्टेट बैंक

के-8, चेतकपुरी कालोनी,

झांसी रोडलश्कर,

ग्वालियर – 474 009

मोबाइल क्रमांक – 9987949940

मेल – [email protected]

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मोदी दशक भारत की राजनीति का नया अध्याय: डॉ. सुधांशु त्रिवेदी

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं सांसद डॉ. सुधांशु त्रिवेदी के कर कमलों से लोकनीति विश्लेषक, लेखक एवं स्तंभकार शिवेश प्रताप की पुस्तक मोदी दशक का लोकार्पण संपन्न हुआ। यह कार्यक्रम प्रभात प्रकाशन के बैनर तले कॉन्स्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में आज दिनांक 14 मई को राजधानी दिल्ली के जाने-माने बौद्धिक चिंतकों की उपस्थिति में हुआ।

सुधांशु त्रिवेदी ने कहा की मोदी दशक, भारत के राजनीतिक परित्राण का दौर है तथा देश में विकास आधारित राजनीति का एक नया विमर्श स्थापित हुआ है। मोदी दशक पुस्तक में लेखक शिवेश प्रताप ने मोदी सरकार के कार्यकाल में हुए विकास को समझाते हुए जो समाजोन्मुख दृष्टि दिया है इसके लिए प्रशंसा के पात्र हैं और यही बात इस पुस्तक को महत्वपूर्ण और पठनीय बनाती है।

मुख्य अतिथि शहजाद पूनावाला ने कहा कि मोदी दशक ने बिना किसी पंथ, मजहब या क्षेत्र देखे सबका साथ और सबका विकास को सुनिश्चित करते हुए देश के विकास के जो आधारशिला रखी है इस पर विकसित भारत का निर्माण होगा।

लेखक शिवेश प्रताप ने कहा कि कांग्रेस की विफलताओं ने तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व के द्वारा 4 दशकों में देश में धर्म, जाति एवं क्षेत्र आधारित वैमनस्यपूर्ण माहौल बना दिया था। मोदी सरकार ने 2014 में आने के बाद देश के संपूर्ण विमर्श को भारत माता, विकास और आत्मनिर्भरता पर केंद्रित कर दिया। मोदी दशक, विकसित भारत की आधारशिला बन रहा है और पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। मोदी सरकार ने देश को मात्र एक जमीन का टुकड़ा मानकर शासन नहीं किया है अपितु भावनात्मक स्तर पर जाकर भारत को सत्य स्वरूप भारत माता मानकर उसकी देहात्मा के रक्षण, पोषण और संवर्धन का कार्य किया है। जिसकी चर्चा इस पुस्तक में विस्तार से की गई है। मोदी दशक में हुई भारत की प्रगति इस दशक में हुए सुधारों, प्रदर्शनों एवं बदलावों की एक स्पष्ट और कार्योन्मुख रूपरेखा का परिणाम है। भविष्य का विकसित भारत इन्हीं विकास कार्यों का सह-उत्पाद होगा।

इस पुस्तक की भूमिका देश के जाने-माने विद्वान, भाजपा सांसद एवं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे बलबीर पुंज के द्वारा लिखी गई है। राजनीतिक चर्चाओं से तटस्थ होकर यह पुस्तक मोदी सरकार के 10 वर्षों के कार्यकाल में लागू हुई जनकल्याणकारी नीतियों एवं उनसे हुए सकारात्मक परिवर्तनों पर एक सार्थक चर्चा करती है। इस पुस्तक में कुल 34 अध्यायों के द्वारा विकास के लगभग सभी आयामों पर चर्चा की गई है। मोदी सरकार में हुए विकास को समग्रता से समझने के लिए यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण पाथेय है।

पुस्तक का नाम- मोदी दशक
भूमिका लेखन: श्री बलबीर पुंज
लेखक – शिवेश प्रताप
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

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ताज होटल का रोमांचक इतिहास

मुंबई में ताज होटल को बनने में करीब 14 साल लगे थे और साल 1903 में अतिथियों के लिए खोला गया था। ताज होटल साल 1903 में खुला था। इसकी नींव जमशेदजी टाटा ने डाली थी। साल 1889 में टाटा ग्रुप के संस्थापक जमशेदजी टाटा ने अचानक ऐलान किया कि वे बॉम्बे (अब मुंबई) में एक भव्य होटल बनाने जा रहे हैं
ताज होटल का रोमांचक इतिहास
जमशेदजी टाटा ने जब ताज होटल बनाने का ऐलान किया तो उनके परिवार में ही फूट पड़ गई। टाटा की बहनें उनका विरोध करने लगीं। लेखक हरीश भट पेंगुइन (हिंद पॉकेट बुक्स) से प्रकाशित अपनी किताब ‘टाटा स्टोरीज’ में लिखते हैं कि जमशेदजी टाटा की एक बहन ने गुजराती में कहा, ‘आप बैंगलोर में साइंस इंस्टिट्यूट बना रहे हैं, लोहे का कारखाना लगा रहे हैं और अब कह रहे हैं कि भतारखाना (होटल) खोलने जा रहे हैं’?
हरीश भट लिखते हैं कि जमशेदजी टाटा के दिमाग में बॉम्बे में भव्य होटल बनाने का आइडिया यूं ही नहीं आया था, बल्कि इसके पीछे एक कहानी और बदले की आग थी। उन दिनों में बॉम्बे के काला घोड़ा इलाके में स्थित वाटसन्स होटल सबसे नामी हुआ करता था, लेकिन वहां सिर्फ यूरोप के लोगों को प्रवेश मिलता था। एक बार जमशेदजी टाटा वहां पहुंचे तो उन्हें यूरोपियन न होने के चलते एंट्री नहीं मिली। यह बात उनके दिल में बैठ गई थी।
इसके अलावा उन दिनों बॉम्बे में एक भी ऐसा होटल नहीं था जो यूरोप या पश्चिमी देशों का मुकाबला कर सके। भट लिखते हैं कि जमशेदजी टाटा अक्सर अमेरिका, यूरोप और पश्चिमी देशों की यात्रा किया करते थे और वहां होटल और दूसरी सुविधाओं को देखा था। साल 1865 में ‘सैटरडे रिव्यू’ में एक लेख छपा, जिसमें लिखा गया था कि बॉम्बे को अपने नाम के अनुरूप अच्छा होटल कब मिलेगा? यह बात भी टाटा के दिल को लग गई थी।
जमशेदजी टाटा, ताज होटल के लिए सामान खरीदने दुनिया के कोने-कोने तक गए। लंदन से लेकर बर्लिन तक के बाजार खंगाल डाले। ताज होटल भारत का ऐसा पहला होटल था जहां कमरों को ठंडा रखने के कार्बन डाइऑक्साइड बर्फ निर्माण संयंत्र लगाया गया था। होटल के लिए लिफ्ट जर्मनी से मंगवाई गई थी, तो पंखे अमेरिका से आए थे। हॉल के बाल रूम में लगाने के लिए खंभे पेरिस से आए थे।
उन दिनों ताज होटल की कुल लागत 26 लाख रुपये तक पहुंच गई थी। आखिरकार साल 1903 में जब ताज होटल खोला गया तब इसके कमरों का किराया 6 रुपये प्रति दिन रखा गया। यह लगभग और होटलों के बराबर ही था। लेकिन पहले दिन होटल में महज 17 गेस्ट पहुंचे। आने वाले कुछ दिनों तक स्थिति लगभग ऐसी ही रही। ताज होटल के खर्चों ने जमशेदजी के सामने आर्थिक संकट खड़ा कर दिया। कुछ लोग इसे जमशेदजी का ”सफेद हाथी” तक कहने लगे।
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लाला लाजपतराय की शिमला में स्थापित प्रतिमा” एवं “आर्य स्वराज्य सभा” का इतिहास

आप सभी शिमला रिज की सैर करने जाते है, तो आपको लाला लाजपतराय की प्रतिमा के दर्शन होते है। लाला जी की प्रतिमा के नीचे लिखे पट्ट पर आपको आर्य स्वराज्य सभा द्वारा स्थापित लिखा मिलता हैं। यह आर्य स्वराज्य सभा क्या थी? इसकी स्थापना किसने की थी?
“आर्य स्वराज्य सभा” की स्थापना – क्यों और कार्य”
1947 से पहले लाहौर आर्यसमाज का गढ़ था। आर्यसमाज के अनेक मंदिर, DAV संस्थाएं, पंडित गुरुदत्त भवन, विरजानन्द आश्रम, दयानन्द ब्रह्म विद्यालय, हज़ारों कार्यकर्ता आदि लाहौर में थे। आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ताओं में एक थे पंडित रामगोपाल जी शास्त्री वैद्य। आप पहले डीएवी में शिक्षक, शोध विभाग आदि में कार्यरत थे। आपने भगत सिंह को कभी नेशनल कॉलेज में पढ़ाया भी था।  कुशल और सफल चिकित्सक होने के अतिरिक्त श्री पं० रामगोपालजी शास्त्री वैद्य एक आस्थाशील दृढ़ आर्यसमाजी, ऋषि दयानन्द के अटूट भक्त और रक्त की अन्तिम बूंद तक हिन्दुत्व के सजग प्रहरी तथा अडिग राष्ट्रसेवक थे।
देश में जब गांधीजी और कांग्रेस के नेतृत्व में इस सदी के दूसरे दशक में- जलियांवाला बाग, अमृतसर हत्याकाण्ड के बाद स्वराज्य का तीव्र आन्दोलन चल रहा था, उस समय गांधीजी ने स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य के साथ मुसलमानों को खुश करने के लिए खिलाफत का मसला भी जोड़ दिया था, यद्यपि विश्व के समस्त मुसलमानों का -केवल भारत के मुसलमानों का नहीं- खलीफा टर्की में रहता था और उसे पदच्युत टर्की के राष्ट्रपति कमाल पाशा ने ही किया था।
भारत की स्वतन्त्रता का इस प्रश्न के साथ दूर का भी सरोकार नहीं था। गांधीजी की इस अदूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस हर कीमत पर मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनाकर भारत की बहुसंख्यक हिन्दु-जाति को पद दलित करने लगी। फलतः मुसलमानों में मजहबी जोश इतना भड़क गया कि उनके द्वारा कोहाट, सहारनपुर, मुलतान, बरेली, शाहजहांपुर इत्यादि उत्तर भारत के नगरों में भयंकर दङ्गे हुए, सैकड़ों हिन्दु मारे गये, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुई, हिन्दु अबलाओं पर नृशंस और रोमांचकारी अत्याचार, बलात् धर्मपरिवर्तन, नारी-अपहरण, स्वामी श्रद्धानन्दजी सहित दर्जनों आर्य हिन्दु नेताओं की हत्या इत्यादि अनेक अमानुषिक अत्याचार हुए। मलाबार का मोपला काण्ड तो औरंगजेब के अत्याचारों को भी मात कर गया था। मुसलमान स्वराज्य का अभिप्राय इस्लामी सल्तनत समझने लग गये थे।
1922  में “आर्य स्वराज्य सभा” की स्थापना वैद्य पं. रामगोपालजी शास्त्री तथा उनके अन्य  सहयोगियों ने की थी। आप यद्यपि कट्टर देशभक्त, राष्ट्रप्रेमी स्वराज्य प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक त्याग करने में अग्रगण्य थे पर उनका यह कथन था कि मुसलमानों के विपरीत हिन्दू ही एक ऐसा सुदृढ़ वर्ग है जो बहुसंख्यक होता हुआ इस भारत भूमि को ही लाखों-करोड़ों वर्षों से अपनी मातृभूमि और पितृभूमि समझता रहा है और अब भी समझता है। उसे दूसरे स्तर का नागरिक बना, उसके अधिकारों को कुचल कर अल्पसंख्यक बना देना सर्वथा असह्य, अमान्य और सतत संघर्ष के बीज का वपन करना है।
 “आर्य स्वराज्य सभा” ने शुद्धि, नारी-रक्षा, हरिजन-सेवा, अस्पृश्यता-निवारण सर्वजातीय प्रीति-भोज, कूंओं पर से हरिजनों को जल लेने देना इत्यादि उपायों द्वारा लाहौर और पंजाब में प्रशंसनीय कार्य किया। आर्य स्वराज्य सभा की ओर से एक केन्द्रीय आश्रम (रामकृष्ण सेवा आश्रम) लाहौर में रावी मार्ग पर स्थित था, जहां प्रतिदिन यज्ञ, सत्संग, शिक्षण इत्यादि कार्यों के अतिरिक्त हिन्दुत्वरक्षक और हिन्दुत्वप्रवर्धक विविध प्रवृत्तियां निरन्तर चलती रहती थीं।
सभा की ओर से लाला लाजपतराय की प्रतिमा का अनावरण
1929 दिसम्बर में पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर कई कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बावजूद आर्य स्वराज्य सभा की ओर से लाहौर के गोल बाग में स्थापित ला० लाजपतराय की प्रतिमा का अनावरण केन्द्रीय धारा सभा के अध्यक्ष श्री विट्ठल भाई पटेल (सरदार पटेल के बड़े भाई) द्वारा कराया गया। यह समारोह अत्यन्त सफल और प्रभावी था। विभाजन के बाद यह प्रतिमा लाहौर से शिमला में स्थानांतरित कर दी गई।  इसी प्रतिमा के आपको रिज पर दर्शन होते है।
रामगोपाल शास्त्री जी विभाजन के उपरांत लाहौर से करोलबाग दिल्ली में बस गए। आपकी स्मृति में आर्यसमाज करोलबाग में प्रतिवर्ष वैदिक स्मृति व्याख्यान होता हैं।
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