Sunday, November 24, 2024
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काउंटरपॉईंट सर्वेः ऑप्प इंडिया 62% ग्राहक ‘अत्यधिक संतुष्ट’ रहे

नई दिल्ली, दिल्ली, भारत

ऑप्प इंडिया  रिपेयर की क्वालिटी, लागत, समस्या के तुरंत समाधान, पारदर्शिता, कई भाषाओं में बातचीत, और स्टाफ की विशेषज्ञता के मामले में अग्रणी रहा।

हर 10 में से 9 ग्राहकों ने फेस-टू-फेस फोन रिपेयर को महत्वपूर्ण बताया; OPPO India इस मामले में अग्रणी है क्योंकि 78 % ग्राहकों के फोन उनके सामने रिपेयर किए गए।

OPPO India के ग्राहक इसे ‘विश्वसनीय’ और ‘पारदर्शी’ मानते हैं।

OPPO India अतुलनीय सेवा प्रदान करने की अपनी प्रतिबद्धता के साथ आफ्टर-सेल्स और कस्टमर सर्विस में पहले स्थान पर आया है। इसके 62% ग्राहकों को उनकी इन-स्टोर आफ्टर-सेल्स सर्विस बहुत ‘संतोषजनक’ महसूस हुई। अगस्त, 2024 में काउंटरपॉईंट रिसर्च में भारत के सर्वोच्च पाँच मोबाईल ब्रांड्स के 2000 से ज्यादा ग्राहकों का सर्वे करके उनके आफ्टर-सेल्स सर्विस अनुभव के बारे में जाना गया। इस सर्वे में अपने नए जनरेशन के सेंटर्स द्वारा सर्विस अनुभव में सुधार लाने के लिए OPPO India का ग्राहक-केंद्रित दृष्टिकोण सामने आया।

यह सर्वे OPPO India , realme, Samsung, vivo, और Xiaomi के ग्राहकों के बीच 13 टियर 1 और टियर 2 शहरों में किया गया था। इस सर्वे में रिपेयर क्वालिटी, लागत, समस्या समाधान की गति, पारदर्शिता, स्टाफ की विशेषज्ञता, और कई भाषाओं में संचार के मामले में OPPO India अपने ‘बहुत संतुष्ट’ ग्राहकों के साथ अग्रणी रहा।

आफ्टर-सेल्स अनुभवः OPPO India के 62% ग्राहक आफ्टर-सेल्स सर्विस अनुभव के मामले में ‘बहुत संतुष्ट’ थे, जिसके बाद क्रमशः 58% और 57% ग्राहकों के साथ वीवो और सैमसंग रहे।

पारदर्शिताः OPPO India पारदर्शिता के मामले में सबसे आगे रहा, जिसके 78% स्मार्टफोन ग्राहकों के सामने रिपेयर किए गए, जिसके बाद 77% के साथ शाओमी का स्थान रहा।

समस्या समाधान की गतिः OPPO India के 35% ग्राहकों के स्मार्टफोन एक घंटे के अंदर ठीक करके दिए गए, जिसके बाद 34% के साथ सैमसंग रहा।

रिपेयर की क्वालिटीः OPPO India के 57% ग्राहक रिपेयर की क्वालिटी से बहुत संतुष्ट थे, जिसके बाद 52% के साथ वीवो का स्थान रहा।

रिपेयरिंग की लागतः OPPO India के 51% ग्राहक अपने स्मार्टफोन को रिपेयर कराने की लागत से संतुष्ट थे, जिसके बाद 45% ग्राहकों के साथ क्रमशः वीवो और शाओमी का स्थान रहा।

कई भाषाओं में सपोर्टः OPPO India के 48% ग्राहकों ने सर्विस रिप्रेज़ेंटेटिव्स के साथ इंग्लिश और हिंदी के मुकाबले दूसरी भाषा में बात की, जो सभी ब्रांड्स में सबसे ज्यादा था।

स्टाफ का ज्ञानः OPPO India के 56 % ग्राहक समस्या को लेकर स्टाफ के ज्ञान से काफी संतुष्ट थे, जिसके बाद 49% ग्राहकों के साथ क्रमशः सैमसंग और वीवो का स्थान रहा।

विश्वसनीयताः OPPO India के ग्राहक इसे ‘विश्वसनीय’ और ‘पारदर्शी’ मानते हैं।

सर्विस सेंटर का स्थानः OPPO India के ग्राहक (51 प्रतिशत) सबसे ज्यादा संख्या में अपने सर्विस सेंटर के स्थान से बहुत संतुष्ट हैं, जिसके बाद 46% के साथ वीवो का स्थान आता है।

OPPO India में Head – Product Communication, Savio D Souza ने कहा, ‘‘OPPO India में हमने सर्विस सेंटर 3.0 और OPPO सेल्फ-हेल्प असिस्टैंट जैसे उपायों द्वारा अपने ग्राहकों को सेवा प्रदान करने के लिए अपने आफ्टर-सेल्स सर्विस मॉडल में परिवर्तन लाया है।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘आफ्टर-सेल्स सर्विस के लिए ग्राहक संतुष्टि में भारत के नं. 1 ब्रांड बनने के गौरव से अपने ग्राहकों को तुरंत, पारदर्शी, भरोसेमंद और किफायती सेवा प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।’’

OPPO India के पास देश के 500 से ज्यादा शहरों में 25,000 से ज्यादा पिनकोड्स पर 560 से अधिक एक्सक्लुसिव सर्विस सेंटर्स का आफ्टर-सेल्स सपोर्ट नेटवर्क है। इसके साथ भारत सरकार के ‘राईट टू रिपेयर’ फ्रेमवर्क के अंतर्गत एक डिजिटल सेल्फ हैल्प असिस्टैंट ग्राहकों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहता है।

OPPO India ने OPPO सेल्फ-हैल्प असिस्टैंट का लॉन्च मार्च, 2024 में किया था। इस डिजिटल सेवा की मदद से ग्राहक सर्विस सेंटर जाए बिना ही अपने स्मार्टफोन की समस्या हल कर सकते हैं। यह अपनी तरह का एक अलग अभियान है, जिसके अंतर्गत पिछले पाँच सालों में लॉन्च हुई A, F, K, Reno, और Find सीरीज़ के लिए सेवा मिलती है।

OPPO India ने 2022 में अपने नई जनरेशन 3.0 सर्विस सेंटर पेश किए हैं, जो पारदर्शी आफ्टर-सेल्स सर्विस अनुभव प्रदान करने पर केंद्रित हैं। इन सर्विस सेंटर्स पर आने वाले ग्राहकों को उत्पादों का प्रदर्शन और संपूर्ण पारदर्शिता के लिए फेस-टू-फेस रिपेयर की सुविधा मिलती है।

Neha Bisht

स्वामीनारायण छपिया की कुछ अन्य बाल लीलाएं

स्वामीनारायण संप्रदाय के अनुयायी कृष्णावतार को सर्वोच्च भगवान मानते हैं। ये वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी हैं। ये समाज के सभी वर्गों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते और अपने निजी सेवक के रूप में नियुक्त करते हैं तथा साथ साथ भोजन करते हैं।

घनश्याम स्वामी नारायण अपना घर त्यागकर, पूरे भारत में जंगलों और तीर्थयात्राओं में लगभग 1200 किमी की पैदल यात्रा की और 28 अक्टूबर 1800 ई को कार्तक रामानंद स्वामी से पीपलाना मुकाम प्राप्त किया।श्री स्वामीनारायण ने लड़कियों को दूध देने की प्रथा के खिलाफ लाल बत्ती उठाई और कई लोगों को समाज से इस प्रथा को खत्म करने के लिए एक आंदोलन शुरू करने के लिए राजी किया। उन्होंने सती प्रथा, पशु बलि, तांत्रिक अनुष्ठान, छुआछूत और व्यसनों का भी विरोध किया। धरती पर रहते हुए उन्होंने एकांतिक धर्म की स्थापना की, जो कई साल पहले नष्ट हो चुका था, और उन्होंने अधर्म का नाश किया।

उन्होंने 2000 से ज़्यादा साधुओं को दीक्षा दी, जिनमें से 500 को परमहंस के रूप में दीक्षा दी गई। वे इन साधुओं के माध्यम से पृथ्वी पर रहते हैं। वे भक्तों के लिए मंदिर बनवाए और मूर्तियां स्थापित कीं ताकि वे हमेशा भगवान की मूर्ति के दर्शन कर सकें। धर्म के प्रति श्रद्धाभाव जगाते हुए भगवान स्वामीनारायण ने संप्रदाय के संचालन के लिए अपने दोनो भतीजों को आचार्य बनाया, और अपना आध्यात्मिक ज्ञान गोपालानंद स्वामी तथा गुणतितानंद स्वामी को प्रदान करके उन्होंने 1जून 1830 के दिन अपने भौतिक देह का त्याग किया। आज भी उनके अनुयायी विश्व भर में फैले हैं। उनके कुछ अनुयायी मानते हैं कि वे कृष्ण के अवतार थे ।  उनकी और कृष्ण की छवियाँ और कहानियाँ संप्रदाय की पूजा पद्धति में एक दूसरे से मिलती-जुलती हैं। उनके जन्म की कहानी भागवत पुराण में कृष्ण के जन्म की कहानी के समान है।

उनके अधिकांश अनुयायी मानते हैं कि स्वामीनारायण नारायण या पुरुषोत्तम नारायण की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं – सर्वोच्च सत्ता और अन्य अवतारों से श्रेष्ठ हैं। उनके जीवनीकार रेमंड विलियम्स के अनुसार, जब स्वामीनारायण की मृत्यु हुई, तब उनके अनुयायियों की संख्या 1.8 मिलियन थी। 2001 में, स्वामी नारायण केंद्र चार महाद्वीपों पर मौजूद थे, और मण्डली की संख्या पाँच मिलियन दर्ज की गई थी, जिसमें से अधिकांश गुजरात की मातृभूमि में थी। समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस ने अनुमान लगाया कि 2007 में दुनिया भर में हिंदू धर्म के स्वामीनारायण संप्रदाय के सदस्यों की संख्या 20 मिलियन अर्थात  2 करोड़) से अधिक थी।

49 वर्ष की आयु तक भगवान स्वामी नारायण ने पृथ्वी पर अपना मिशन पूरा कर लिया और अपने दिव्य निवास पर लौट आए। 2 मिलियन से अधिक भक्तों ने उनकी दिव्यता का अनुभव किया और उनकी पवित्रता की प्रशंसा की। छह भव्य मंदिरों में उनकी आध्यात्मिकता स्थापित है और कई शास्त्रों में उनके ज्ञान का सार है।

 बाल प्रभु घनश्याम स्वामी नारायण अपने 49 साल के अल्प जीवन में हजारों से अधिक मानवीय और दैवी लीलाओं का संवरण किया है। हम केवल उनके बचपन के कुछ प्रमुख लीलाओं को,जो उनके जन्म भूमि छपिया और अयोध्या के आस पास घटित हुई हैं, को ही अपने लेखन में समलित करने का प्रयास कर रहे हैं।

1.आलसी पुजारी

धर्मदेव कई बार छप्पैया से अयोध्यापुरी में आकर रहते रहे । बालक घनश्याम ने अनेक अद्भुत लीलाएँ की हैं। अयोध्यापुरी का अर्थ है भगवान राम का जन्म स्थान। यहाँ राम-जन्म-भूमि का मंदिर मुख्य रहा है। बालक घनश्याम जब अयोध्यापुरी में रहते थे, तो प्रतिदिन इस मंदिर में दर्शन के लिए जाते थे। इसके आसपास और भी कई मंदिर थे। वहाँ कनक-भवन नाम का एक मंदिर है। जब कोई इस मंदिर में दर्शन करने जाता था, तो मंदिर का पुजारी उसे भगवान के चरणों का  [जिस मिश्री, दूध, दही, घी और शहद से भगवान को स्नान कराया जाता है] चरणामृत पिलाता था।

 उस मंदिर के पुजारी का नाम शीतलदास था। वे नाम से शीतल (ठंडे) थे, पर स्वभाव से गुस्सैल थे। इसके अलावा, वे बहुत आलसी भी थे। शीतल दास कभी भी ताज़ा पानी का उपयोग नहीं करते थे। एक बार मंदिर के पुजारी ने सभी को चरणामृत पिलाया। अब घन श्याम की चरणामृत लेने की बारी थी। घनश्याम ने भी उसे ग्रहण किया। यह भगवान का प्रसाद था, इसलिए घनश्याम ने उसे अपनी हथेली में लिया, लेकिन दूर जाकर फेंक दिया।

 मंदिर के पुजारी ने यह देखा। वह बहुत क्रोधित हुआ और बोला, “अरे बेटे, तुमने भगवान का चरणामृत क्यों फेंक दिया? क्या तुम्हें कोई समझ है?”

 घनश्याम ने पुजारी से ही पूछ लाया,”मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हें कोई समझ है?क्या तुम जानते हो कि भगवान का चरणामृत कितना शुद्ध होना चाहिए? कृपया बर्तन देखो। यह कितना गंदा है! और इसका पानी! अशुद्ध और पिछले चार दिनों का! बर्तन खोलो और जाँच करो।

मंदिर के पुजारी ने बर्तन खोला और उसमें एक मरा हुआ तिलचट्टा देखा। मंदिर का पुजारी, जो थोड़ी देर पहले गुस्से में था,  अब अपनी गलतियों को खुले तौर पर सिद्ध होते देखकर शांत हो गया। “अब तुम सच्चे शीतलदास हो,” घनश्याम ने कहा।

घनश्याम के इस कहानी से सीख मिलती है कि भगवान की पूजा और सेवा में हमें पूरी तरह से साफ-सफाई का ध्यान रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की अनियमितता नहीं की जानी चाहिए।

2. सन्यासी द्वारा जुआ खेलना

अयोध्या में हनुमानगढ़ी  एक प्रसिद्ध मंदिर है। युवा घनश्याम अक्सर वहाँ दर्शन के लिए जाते थे। वहाँ वे कथाएँ और भक्ति गीत सुनते थे। एक बार उन्होंने देखा कि एक कोने में चार सुगंधित द्रव्य लगाए शरीर वाले साधु जुआ खेल रहे थे। उनके शरीर पर केवल पतली लंगोटी के अलावा और कोई वस्त्र नहीं था, लेकिन पूरा शरीर कीमती सोने के आभूषणों से ढका हुआ था। उन्होंने इन आभूषणों को जुए में दांव पर लगा दिया था।

युवा घनश्याम ने यह देखा और दुखी हुए। उन्होंने उनसे कहा, “अरे भाई! तुम साधु होकर भी क्या कर रहे हो? जुआ खेलना बहुत बड़ा पाप है।” “हम एक महान गुरु के शिष्य हैं,” चारों साधुओं ने कहा, “आप हमें सलाह देने वाले कौन हैं?”

इसी बीच उन साधुओं के गुरु वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने भी घनश्याम को डाँटा,

 “हम तपस्वी हैं। तुम गृहस्थ हो। गृहस्थ को कभी भी तपस्वियों को सलाह नहीं देनी चाहिए। बाहर निकलो।”

घनश्याम ने कहा, “क्या जुआ खेलना तपस्वी का गुण है? क्या यह तपस्वी का लक्षण है कि वह वस्त्र न पहनकर केवल दिखाने के लिए आभूषण पहने? क्या यह तपस्वी का लक्षण है कि वह दूसरों को भगवान की पूजा करने की सलाह दे और स्वयं सोना-चाँदी इकट्ठा करे? क्या काम, क्रोध,धन, लोभ, मोह और अहंकार ही तपस्वी के लक्षण हैं?”

गुरु और साधुओं के सिर झुक गए। कोई भी एक शब्द भी नहीं बोल सका। वहाँ एकत्रित लोगों ने कहा, “बच्चा- घनश्याम सच कहता है। वह उम्र में छोटा है, लेकिन ईश्वरत्व में सबसे बड़ा है।”इस कहानी से सीख मिलती है कि सन्यासी को सादगी जीवन यापन करना चाहिए। व्यसन से दूर ही रहना चाहिए।

3. पहलवानों की हार

वैराम, माधवराम, प्राग, सुखनंदन,बंसीधर, शिवनारायण, केसरीसंग, श्यामलाल, राधे चरण और कई अन्य लोग घनश्याम के मित्रमंडली के सदस्य थे। वे सभी नहाने के लिए तालाब पर जाते थे और पेड़ों पर खेलते थे। वे वहां आम, इमली, जामुन और अमरूद खाते थे। वे खूब मौज-मस्ती करते थे। वे कई अलग- अलग पेड़ों और शाखाओं पर चढ़कर उनके साथ खेलते थे जैसे कि वे घोड़े हों। वे पेड़ों को ऐसे मारते थे जैसे कि वे घोड़े हों।

वे अपने मुंह से घोड़ों की आवाज भी निकालते थे। यह उनके लिए एक शौक की तरह था। घनश्याम और उनके दोस्त माहिर पहलवान थे। वे नियमित रूप से अभ्यास करते थे और कुश्ती के नए-नए दांव-पेंच सीखते थे।

 एक दिन कुछ पहलवानों ने सोचा, ये बच्चे कुश्ती को क्या समझते हैं? प्रतिद्वदी

को हराकर अपना नाम लोकप्रिय बनाने में उन्हें क्या दिखता है? उन्होंने घनश्याम को चुनौती दी।

 उन्होंने कहा, “हम तुम्हारी परीक्षा लेते हैं, आओ यहाँ आओ।” चुनौती देखने के लिए पूरा गाँव इकट्ठा हो गया था। गाँव का राजा भी वहाँ पहुँच गया। एक पहलवान ने उसके पैर में लगभग 240 किलोग्राम (480 पाउंड) की लोहे की जंजीर डाल दी। जंजीर बांधने के बाद उसने कहा अब मुझे खींचो। कई लोगों ने जंजीर खींचकर उसे हिलाने की कोशिश की। सैकड़ों लोगों ने मिलकर कोशिश की, लेकिन वह हिला ही नहीं। तब बड़े गर्व के साथ उसने घनश्याम से कहा कोशिश करो।

यह सबने सोचा और आपस में कहा, “यह क्या है, कहां एक पहलवान और कहां एक छोटा बच्चा?”

इस बीच घनश्याम धीरे से आगे आया और उसने थोड़ा झुककर बाएं हाथ से जंजीर खींची। फिर उसने धीरे से धक्का दिया। लोहे की जंजीर ग्यारह टुकड़ों में टूट गई और पहलवान लोहे की जंजीर के साथ चार फीट दूर जा गिर पड़े।

 इस पहलवान के साथ दो पहलवान और भी थे। उनके पास भी वही लोहे की जंजीर थी। उन्होंने कहा, अब हम यह लोहे की जंजीर घनश्याम के पैर में डालकर उसे गिरा देंगे।

घनश्याम ने खुद जंजीर ली और अपने पैरों में डाल ली। फिर वह उनके बीच खड़ा हो गया और बोला, “अब जंजीर खींचो और मुझे हराने की कोशिश करो।”

दोनों पहलवानों ने अपनी जांघें पटक- पटक कर कहा, “हम इस बच्चे को लोहे की जंजीर समेत नदी में फेंक देंगे।”

दोनों ने लोहे की जंजीर को जोर से पकड़ कर खींचा, लेकिन वे घनश्याम को एक इंच भी हिला नहीं सके। दोनों ने बार-बार कोशिश की, लेकिन लोहे की जंजीर दो टुकड़ों में टूट गई।

जंजीर का एक टुकड़ा पहलवानों के हाथ में रह गया। दोनों पहलवान जंजीर समेत दस फुट दूर जा गिरे। वे एक पेड़ से टकराए और मिट्टी में गिर गए। सभी एकत्रित लोगों ने ताली बजाकर और जयकारे लगाकर अपनी खुशी जाहिर की। राजा ने भी अपनी खुशी जाहिर की।

इस कहानी से सीख मिलती है, ईश्वर से कभी प्रतिस्पर्धा मत करो। ईश्वर की क्षमता पर संदेह मत करो, और हमेशा ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही व्यवहार करो।

4. अंधों पर कृपा

एक जगह एक तांत्रिक धन उगाहने के लिए तन्त्र मंत्र और फूक से लोगों को नेत्र ठीक कर रहा था। वह अक्सर कहता,

“एक फूंक मारकर आपको दृष्टि दूंगा।”

इस समूह में कुछ भिक्षुक भी थे।

भिक्षुक ने कहा,”हे भले आदमी, हम आपको पैसे कैसे दे सकते हैं? हमारे पास पैसे नहीं हैं। हम भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं। फिर भी हमें एक दिन में एक बार खाना मिलता है और चार बार भूखे रहते हैं। हम पैसे कहां से लाएँ?” भिक्षुक ने कहा।

तांत्रिक ने कहा,”तो फिर चले जाओ।”

घनश्याम ने यह देखा। उसे यह बहुत बुरा लगा। उसने उन अंधों को रोका जो निराश होकर जा रहे थे। उसने उनसे कहा, “हे भक्तों, निराश मत हो। भगवान दयालु हैं।”

अंधे ने कहा, “जब आप ऐसा कहते हैं, तो हमें लगता है कि भगवान सचमुच दयालु हैं। हम उनकी एक झलक पाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

घनश्याम ने उनकी आँखों को अपने कोमल हाथ से सहलाया और कहा, “क्या आप कुछ देख सकते हैं?”

 अंधे ने खुशी से चिल्लाया, “हाँ, हम देख सकते हैं, हाँ, हम इसे टिमटिमाते हुए देख रहे हैं। हम युवा कन्हैया को देखते हैं। वह अपने पैरों को मोड़कर खड़ा है, और वह बांसुरी बजा रहा है। ओह, क्या अद्भुत बांसुरी बजा रहा है!”

“आज से आप हमेशा कन्हैया को देख सकेंगे और उसकी बांसुरी सुन सकेंगे।

मुझे बताओ, क्या आप कुछ और देखना चाहते हैं?” घनश्याम ने कहा।

  “नहीं,” अंधे ने कहा, “सब कुछ इसी में मिल गया है।”

 इस कहानी से सीख मिलती है कि भगवान में दृढ़ विश्वास (भरोसा) सभी परेशानियों का इलाज है।

5. जामुन के पेड़ पर गुलाब के सेव

एक बार घनश्याम अपने मित्रों वेणी और माधव के साथ जामुन के पेड़ पर गुलाब के सेब चखने गया था। ज्येष्ठ (जून) का महीना था। जामुन के पेड़ पर बहुत सारे गुलाब के सेब थे। सभी ने यथाशक्ति खा लिए। वे पेड़ से नीचे उतर आए, पर घनश्याम अभी भी पेड़ पर ही था।

इसी बीच पेड़ का चौकीदार आ गया। उसकी आवाज सुनकर अन्य लोग अपने घर भाग गए, पर घनश्याम अभी भी पेड़ पर ही था। चौकीदार क्रोधित हो गया। बोला, “अरे चोर, मेरे गुलाब के सेब क्यों खाए?”

 “मैं चोर नहीं हूँ,” घनश्याम ने कहा, “क्योंकि जंगल में उगने वाले फल सभी को खाने की स्वतंत्रता है!” यह कहकर वह पेड़ से नीचे कूद गया।

चौकीदार घनश्याम को पीटने के लिए उसके पीछे दौड़ा। घनश्याम ने बहुत ही तत्परता से चौकीदार का हाथ पकड़कर ऐसा झटका दिया कि चौकीदार का हाथ टूट गया और वह मुँह ऊपर करके जमीन पर गिर पड़ा। इससे पहले कि चौकीदार उठकर अपना धूल भरा शरीर साफ कर पाता, घनश्याम गायब हो गया।

घनश्याम की लीला जामुन के पेड़ के गुलाब की तरह मधुर है। यह पाठ बताता है कि सब कुछ भगवान का है और उन्हीं के लिए है। यदि हम विपरीत आचरण करेंगे तो भगवान नाराज होंगे। जामुन के पेड़ का मालिक बनने का प्रयास करने वाले चौकीदार ने घनश्याम को उसके फल खाने से मना कर दिया और उसे पीटा गया।

6. अंगूठी से मिठाई खरीदने की लीला

एक दिन बाल प्रभु की सुवाशिनी भाभी रसोई में खाना बना रही थीं। उन्होंने अपनी अंगूठी उतार कर पास की शेल्फ पर रख दी थी। घनश्याम बहुत भूखा महसूस करते हुए रसोई में गया और अपनी भाभी से कुछ खाने के लिए कहा।

भाभी ने कहा, “कृपया थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, भोजन में अधिक समय नहीं लगेगा।”

 घनश्याम इंतजार नहीं कर सका उसने शेल्फ पर अंगूठी देखी और कुछ खाने के लिए इसे बदलने के बारे में सोचा। अपनी भाभी को बताए बिना उसने अंगूठी उठाई और घर से निकट मिठाई बनाने वालों की दुकान पर चला गया।

उसने मिठाई बनाने वाले से ‘मिठाई के बदले अंगूठी’ का सौदा किया। एक चालाक व्यक्ति होने के नाते, मिठाई बनाने वाले ने महंगी अंगूठी को देखा और सोचा, “यह बच्चा कितना खा सकता है”।

मिठाई बनाने वाला सहमत हो गया कि घनश्याम अंगूठी के बदले जितना चाहे खा सकता है।

घनश्याम खाने के लिए बैठ गया और मिठाई बनाने वाला मिठाई लेकर आया। घनश्याम ने पहली प्लेट बहुत जल्दी पूरी खा ली और मिठाई बनाने वाले से दूसरी प्लेट लाने को कहा। घनश्याम ने एक के बाद एक कई प्लेट खा लीं, जिससे मिठाई बनाने वाला दुकान से इधर-उधर भागने लगा।

मिठाई बनाने वाला यह देखकर हैरान था कि यह छोटा लड़का कितना कुछ खा सकता है। जल्द ही दुकान खाली हो गई, लेकिन घनश्याम अभी भी भूखा था और उसने मिठाई बनाने वाले से कुछ और बनाने को कहा।

घनश्याम मिठाई बनाने वाले को लालच का और अपने फायदे के लिए दूसरों का फायदा नहीं उठाने का महत्वपूर्ण सबक सिखाना चाहता था।

घनश्याम को जल्द ही एहसास हो गया कि अब और कोई मिठाई या बनाने की सामग्री नहीं बची है।

जैसे ही वह घर के अंदर गया, अंगूठी की खोज में बहुत व्यस्तता थी। “आप सब क्या ढूँढ रहे हैं?” उसने पूछा।

भाभी ने पूछा, “क्या तुमने वह अंगूठी देखी है जो मैंने इस शेल्फ पर रखी है?”

“नहीं” उसने उत्तर दिया, “मैंने नहीं देखी।” हालाँकि इच्छाराम ने धर्मदेव से कहा कि उसने घनश्याम को अंगूठी लेते हुए देखा था।

घनश्याम पकड़ा गया था। घनश्याम ने फिर यह बताना शुरू किया कि उसने अंगूठी क्यों ली? उसने कहा कि वह मिठाई बनाने वाले के पास थी। वे सब मिठाई बनाने वाले की दुकान पर उससे अंगूठी माँगने गए। मिठाई बनाने वाले ने उत्तर दिया “मैंने अंगूठी नहीं ली है; मैंने बदले में उसे मिठाई दी है।”

सभी ने घनश्याम की ओर देखा और कहा, “मैंने कोई मिठाई नहीं खाई।”मिठाई बनाने वाले ने घनश्याम को झूठा कहा, “देखो! मेरी दुकान खाली है।”

 जब वह मुड़ा तो उसने दुकान की ओर इशारा किया, उसने पाया कि अलमारियाँ स्वादिष्ट मिठाइयों से भरी हुई थीं। वह आश्चर्य से देखता रहा और उसने जो देखा उस पर विश्वास नहीं कर सका।

वह वास्तव में शर्मिंदा महसूस कर रहा था; उसने धर्मदेव और भक्तिमाता से माफ़ी मांगी और अंगूठी लौटा दी। वे मिठाई बनाने वाले को यह सोचते हुए छोड़कर घर लौट आए, ‘वह कोई साधारण बच्चा नहीं था।’

7.चेचक से भगवान भी प्रभावित

एक सामान्य बच्चे की तरह, घनश्याम महाराज को एक दिन तेज बुखार हो गया।  भक्तिमाता चिंतित हो गईं क्योंकि घनश्याम अपना खाना नहीं खा रहे थे।

एक छोटा सा गाँव होने के कारण, घनश्याम महाराज की बीमारी की खबर जल्द ही छप्पैया में फैल गई। यह सुनकर चंदमासी भक्तिमाता के घर दौड़ी और पाया कि घनश्याम महाराज चेचक से पीड़ित हैं। उसने घनश्याम महाराज को बिस्तर पर लिटा दिया और निर्देश दिया कि कोई भी बच्चे उनके पास न आएँ क्योंकि चेचक बच्चों में आसानी से फैलती है। लक्ष्मी मामी भी उनका हाल देखने आईं। उन्हें चेचक होने का पता चलने पर उन्होंने कहा कि घनश्याम महाराज को बीस दिनों तक स्नान नहीं करना चाहिए।

घनश्याम महाराज ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि एक ब्राह्मण को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।

घनश्याम महाराज ने भक्तिमाता को आश्वासन दिया कि अब ठंडे पानी से नहाने से उनकी चेचक ठीक हो जाएगी उनके वचन सत्य सिद्ध हुए और चेचक ठीक हो गया।

इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि, जब तक बहुत कठिन परिस्थितियां न हों, सत्संगियों को ऐसे धार्मिक कर्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए।

8.मौसी की नथनी की खोज

एक बार युवा घनश्याम की मौसी चंदाबाई कुएँ से पानी भरने गईं। जब वे कुएँ से घड़ा निकाल रही थीं, तो उनकी नाक की नथ अचानक कुएँ में गिर गई। उन्होंने घर आकर इसकी सूचना दी। उनके कई रिश्तेदार अच्छे तैराक और गोताखोर थे।
उनमें से एक ने कहा, “मैं कुएँ से नथ ढूँढ़ कर लाता हूँ।” वह कुएँ में कूद पड़ा। उसने गोता लगाया और नथ ढूँढ़ने लगा। लेकिन वह नहीं मिली। उसने बहुत कोशिश की, लेकिन व्यर्थ। उसे नथ नहीं मिली। फिर उसने कहा, “यह कुएँ में नहीं है, आपकी नथ कहीं और गिर गई है।”

 “नहीं, यह इसी कुएँ में गिरी है,” मौसी ने कहा। गोताखोर ने कहा, “नहीं, यह ग़लत है। नाक की नथ कुएँ में नहीं है।”
उसे झूठा करार दिए जाने पर बहुत दुख हुआ। उसकी आँखों में आँसू थे। यह देखकर युवा घनश्याम ने कहा, “मौसी, रोओ मत। मैं आपकी नथ ढूँढ़ कर लाऊँगा।”

 यह कहकर घनश्याम कुएँ में कूद पड़ा और गहरे गोते लगाने लगा। सब उत्सुकता से देख रहे थे। बहुत समय बीत गया, पर घनश्याम ऊपर नहीं आया।

आखिर सबने मौसी को डाँटना शुरू किया, “यह तुमने नथ क्यों बनाई?” मौसी की हालत अजीब हो गई। वह न तो विरोध कर सकी, न ही जवाब दे सकी।

अचानक पानी की सतह पर हलचल हुई और घनश्याम का सिर और हाथ दिखाई देने लगे। उसके ऊपर उठे हाथ में नथ थी। घनश्याम ने वह कर दिखाया, जो गोताखोर नहीं कर सके।

यह देखकर सब हैरान रह गए। निश्चय ही यह कोई चमत्कारी बालक है! इसकी दिव्यता की कोई सीमा नहीं है।

यह युवा घनश्याम के दिव्य प्रदर्शन का एक प्रसंग है। भगवान जब जन्म लेते हैं तो मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं, वे मनुष्य की तरह दिखते हैं, फिर भी उनकी दिव्यता अनजाने में ही सार्वजनिक हो जाती है।

9. भगवान द्वारा इन्सानी लीला

भगवान जब धरती पर जन्म लेते हैं, तो मनुष्य की तरह प्रकट होते हैं। वे किसी विशेष अवसर पर अपनी ईश्वरीयता दिखाते हैं, पर हमेशा नहीं। वे हमेशा एक साधारण मनुष्य की तरह ही प्रकट होते हैं।

बालक घनश्याम अन्य बालकों की तरह ही दिखाई देते थे। वे अपने सभी गाँव के साथियों को इकट्ठा करते और तरह-तरह के खेल खेलते। वे आम के पेड़ से आम तोड़ते, इमली के पेड़ से फल तोड़ते, जामुन के पेड़ से गुलाब-सेब खाते। वे पेड़ पर चढ़ जाते और तरह-तरह के खेल खेलते, जैसे आइस पाईस (लुका- छिपी) और घोड़ों के खेल। वे नदी में तैरने जाते, डुबकी-कूद की दौड़ खेलते। वे गाय- बछड़ों के साथ खेलते, बंदरों के साथ भी खेलते हैं ।

जब उनकी माँ भक्तिमाता मिट्टी से भूमि को लिपतीं, तो घनश्याम मिट्टी लेकर भाग जाते। पूछने पर वे माँ को बताते कि मैं मिट्टी को लिप रहा हूँ और अगर घनश्याम गीली जमीन पर चलता, तो माँ उसे डाँटतीं, पर वे केवल हँसते। वह इस तरह हँसता था कि माँ का प्यार झलकता था और वह अपनी माँ को कीचड़ से सने हाथों से गाता था।

जब घनश्याम क्रोधित होता था, तो उसकी मस्ती देखिए। वह नदी में गोता लगाकर छिप जाता था, या फिर किसी भूतिया कुएँ के अँधेरे कोने में छिप जाता था। घनश्याम में कभी डर नहीं लगता था। बड़ी-बड़ी मूंछों वाले बहादुर भी वहाँ जाने की हिम्मत नहीं करते थे, घनश्याम ऐसी जगह जाकर सो जाता था। ऐसी बाल- लीलाओं के कारण घनश्याम सभी का प्रिय था।

यह पाठ इस रहस्य को दर्शाता है कि लोग क्यों नहीं जानते कि भगवान धरती पर कब जन्म लेते हैं। भगवान अपने भक्तों को छोड़कर लोगों की नज़र में एक साधारण इंसान की तरह लगते हैं।

10. होंठ पर चोट

एक बार सभी बच्चे तालाब के किनारे एक मौरा के पेड़ पर चढ़ गए और उस पर उछल-कूद कर रहे थे। जब वे डाल से दूसरी डाल पर कलाबाजियाँ कर रहे थे, तभी घनश्याम गिर पड़ा। उसका होंठ जख्मी हो गया था। उसके होंठ पर चोट लगी थी और खून बह रहा था।

बच्चे भागकर घर आए और उसके माता-पिता को बताया कि घनश्याम जख्मी हो गया है। रामप्रतापभाई जल्दी ही आ गए। उन्होंने घनश्याम को डांटा, “खेलना-कूदना तो तुम्हें मंजूर है, लेकिन अपना भी ख्याल रखना चाहिए।”

 “मेरे बड़े भाई, मुझे शरीर का ख्याल रखना सिखाओ?”

घनश्याम ने कहा, “यह शरीर है। यह गिर सकता है, घायल हो सकता है या कट सकता है, हाथ-पैर टूट सकते हैं। यह बीमार हो सकता है और मर भी सकता है।”

रामप्रतापभाई मुस्कुराए। वे घनश्याम को कंधे पर उठाकर घर ले आए। भक्तिमाता ने शुद्ध घी से लपसी/हलुवा (गेहूँ के आटे, घी और चीनी से बना एक प्रकार का मीठा पकवान) तैयार किया और घनश्याम को खाने के लिए दिया।

11.शरारती घनश्याम द्वारा खेत से घास के बजाय मक्का खीरा निकलना

एक बार बड़े भाई रामप्रताप अपने खेत में घास काटने गए थे। उनके साथ उनका छोटा भाई घनश्याम भी था। खेत में मक्का और खीरा साथ-साथ उगे थे। और इन दोनों के बीच उगी घास को निकालना था।

बड़े भाई को काम करते देख घनश्याम के मन में भी काम करने का विचार आया। इसलिए वह भी काम करने लगा। लेकिन घास निकालने की बजाय घनश्याम मक्का और खीरा उखाड़ रहा था।

यह देखकर बड़े भाई ने उसे डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई ने उसे फिर से डांटा, लेकिन घनश्याम को इसकी परवाह नहीं थी। बड़े भाई को गुस्सा आ गया। उसने गुस्से में घनश्याम को मारने के लिए हाथ उठाया

घनश्याम को बुरा लगा। वह भागकर घर में गया, छिपकर चरनी में घास के ढेर में छिप गया ताकि कोई उसे न पा सके। जब बड़ा भाई दोपहर को घर लौटा, तो भक्तिमाता ने उसे अकेला देखकर घनश्याम के बारे में पूछा।

 उसने कहा, “घनश्याम पहले ही घर आ चुका है।” “नहीं, अभी तक नहीं आया,” माँ ने कहा। बड़े भाई को अब आश्चर्य हुआ। उसने कहा, “मैंने जब उसे पीटना चाहा तो वह नाराज होकर कहीं भाग गया होगा।”

घनश्याम की खोज शुरू हुई। उसके सभी गाँव के मित्रों से घनश्याम के बारे में पूछा गया। परन्तु किसी ने घनश्याम को नहीं देखा था।  नदी, तालाब, मंदिर, इमली का पेड़ और आम का पेड़ जहाँ- जहाँ घनश्याम जाता था, वहाँ-वहाँ खोजा गया, परन्तु वह कहीं नहीं मिला। आस- पास के गाँवों में दूत भेजे गए। अन्त में वे निराश और असहाय हो गए।

भक्तिमाता की दुर्दशा की कोई सीमा नहीं थी। वह रोने लगी: “अरे प्यारे घनश्याम, मेरे बेटे घनश्याम, तुम कहाँ हो?”   माँ का विलाप घनश्याम सहन नहीं कर सका। उसने घास के ढेर से चिल्लाकर कहा, “मैं आ गया माँ।”

शीघ्र ही मौसी सुन्दरीबाई दौड़कर चरनी के पास गई और घनश्याम का हाथ पकड़कर उसे वापस ले आई। भक्तिमाता घनश्याम से लिपट गई।

घनश्याम ने माँ की गोद में मुँह छिपाते हुए कहा, “माँ, मेरा बड़ा भाई मुझे खोज रहा था, मैं उसे देख रहा था।”

  “कितना शरारती है मेरा बेटा घनश्याम!” माँ ने कहा।

12. सभी के प्रति समान भाव

धर्मदेव के पास गोमती नाम की एक गाय थी। बालक घनश्याम उससे बहुत प्रेम करता था। वह भी घनश्याम से प्रेम करती थी। गोमती प्रतिदिन चार सेर दूध देती थी। घर के सब लोग उसे खाते थे। घनश्याम जी भरकर पीता था। तब उसकी जेठानी सुवाशिनी भाभी ने दूध से भरा कटोरा घनश्याम की थाली में रख दिया।

एक बार सुवाशिनी भाभी ने सोचाः “घनश्याम अभी बहुत छोटा है। मैं एक बच्चे को इतनी मात्रा में दूध क्यों पिलाऊँ?” तब उन्होंने दूसरों को तो बड़े कटोरे में दूध दिया, परन्तु घनश्याम को छोटा कटोरा दिया। घनश्याम ने किसी से कुछ नहीं कहा।

 जब शाम को सुवाशिनी भाभी गाय दुहने गईं, तो गाय ने पहले से आधा ही दूध दिया। भाभी को इसका कारण समझ में नहीं आया।

शाम हो गई और सब लोग भोजन करने बैठे। जेठानी ने सबको सुबह जितना दूध दिया था, उसका आधा दिया। घनश्याम को दूध तो मिला, पर आधा कप! घनश्याम ने कुछ नहीं कहा। उसने चुपचाप भोजन समाप्त कर लिया।

अगली सुबह भाभी ने फिर गाय दुहनी शुरू की। इस बार उसे सामान्य मात्रा का केवल एक चौथाई ही मिला। उसने गाय को बहुत दुलारा, पर गाय ने कभी अधिक दूध नहीं दिया।

वह भक्तिमाता के पास गई और बोली, “माता, ऐसा कैसे? गाय अब उतना दूध क्यों नहीं देती, जितना पहले देती थी?”

भक्तिमाता पहले से ही स्थिति देख रही थी। उसने मुस्कुराकर कहा, “आप तो घर के सदस्यों को दूध देने में पक्षपात करते हैं, गाय भी तो दूध देने में पक्षपात कर सकती है। आप घनश्याम को कम दूध क्यों देते हैं? जितना दूसरों को देते हैं, उतना ही उसे भी दीजिए।” “मैं वैसा ही करूँगी,” भाभी ने कहा। उस शाम गाय ने पूरा चार सेर दूध दिया! इस लीला-प्रसंग से भगवान ने बताया कि घर के प्रत्येक सदस्य, अतिथि, नौकर आदि तथा भोजन पर आमंत्रित अन्य लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। किसी को भी अपना करीबी या प्रिय नहीं समझना चाहिए।

13.भगवान को अर्पित कड़वा खीरा मीठा हुआ

वासाराम तरवाड़ी बालक घनश्याम के मामा थे। उन्होंने अपने खेत में खीरा लगाया था। खीरा पकते ही उन्हें उसे चखने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने एक अच्छा खीरा चुनकर खाया। लेकिन जैसे ही उन्होंने पहला टुकड़ा मुंह में डाला, उन्हें थूकना पड़ा। खीरा बहुत कड़वा था।    वासाराम भक्तिमाता के घर गए और कहा,

“बहन, खीरा कड़वा होता है। अगर मीठा होता, तो मैं घनश्याम को खेत में ले जाकर खिलाता। उसे खीरा बहुत पसंद है न? “घनश्याम के लिए खीरा कभी कड़वा नहीं हो सकता,” भक्तिमाता ने कहा। “लेकिन वे वास्तव में कड़वे हैं,” वासा राम ने कहा। घनश्याम सरपट दौड़ता हुआ आया और बोला, “खीरे का फल कितना मीठा है!”वासाराम ने पूछा, “कौन सा?” “वही जो मैं आपके खेत से लाया हूँ,” घनश्याम ने कहा, “इसे चखो।” वसाराम ने उसे चखा और पाया कि वह बहुत मीठा है। “क्या यह मेरे खेत का है?” वसाराम ने पूछा, “लेकिन मेरे खेत में तो सभी ककड़ी के फल कड़वे होते हैं।”

 “नहीं, वे कड़वे नहीं हैं, वे बहुत मीठे हैं,” घनश्याम ने कहा, “चलो वहाँ चलते हैं और मैं तुम्हें दिखाता हूँ।” वे खेत में गए। वसाराम ने ककड़ी के दो से पाँच फल तोड़े और वे मीठे निकले, शहद की तरह मीठे। वह बहुत हैरान हुआ: “यह कैसे? कुछ ही समय में वे मीठे हो गए?”

 घनश्याम ने कहा, “चाचा, यदि आप पहले भगवान का हिस्सा निकाल देते, तो सभी फल मीठे होते।”

 इसलिए, ध्यान रखें, हर चीज में सबसे पहले भगवान का हिस्सा निकालना चाहिए। जहां भगवान का हिस्सा होगा, वह मीठा होगा और अगर भगवान का हिस्सा नहीं निकाला जाता है, तो वह चीज कड़वी होगी।

लेखक परिचय

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास   करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर+ 91 9412300183)

वेदों के अनुसार कहाँ है पितृलोक और इसका अर्थ क्या है

अनेक सज्जनों को यह भ्रान्ति है कि “पितर”  का अर्थ हमारे उन पूर्वज, माता पिता आदि  सगे सम्बन्धियों से है जो अब मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं ;  और इसी प्रकार
“पितृलोक”  का अर्थ यह समझते हैं कि जहाँ मरने के बाद जहाँ हमारे सगे सम्बन्धी चले जाते हैं।
वास्तव में इस मिथ्या धारणा का कारण है -वेदादि ऋषि कृत ग्रन्थों को न पढ़ना।
स्वामी ब्रह्ममुनि जी परिव्राजक जी द्वारा लिखित पुस्तक
“यम पितृ परिचय ”  से  “पितर” और “पितरलोक”  शब्दों के वास्तविक वैदिक अर्थ प्रस्तुत हैं ।
सुधिजन  देखें और विचार करें कि  इन अर्थों में कहीँ भी मृत्यु को प्राप्त हो चुके सगे सम्बन्धियों के लिए  न तो  पितर  कहा है और न ही उन मृत्यु प्राप्त लोगों के लिए पितरलोक  ।
इससे सिद्ध है कि पितरों के नाम पर श्राद्ध आदि की परम्परा वेदविरुद्ध है।
#पितरः-
(१) पिता = सूर्य
 (शतपथ ब्राह्मण- १४ । १।४।१२)
(२) पिता = संवत्सर
(ऋग्वेद –  १। १६४ । १२)
 (निरुक्त – ४। २७)
(प्रश्नोपनिषद् -१/११)
(३) पिता = प्राण
“प्राणो वै पिता”
(ऐतरेय ब्राह्मण -२। ३८)
‘बहुवचने पितरः प्राणाः’ इति च विज्ञेयम ।
(४) पिता = पर्जन्य या पर्जन्ययुक्त द्युस्थान
 ( अथर्ववेद – १२।१।१२)
(ऋग्वेद -१।१६४।३३)
(निरुक्त – ४।२१)
(५) पिता = जनक-  प्रसिद्ध है
 (६) पितरौ = माता पिता
“पिता मात्रा”
(अष्टाध्यायी – १।२।७०)
 दोनों एक विभक्ति में मिलकर ‘माता च पिता च पितरौ’ द्विवचन में होता है।
(७) पितरौ = द्यावा पृथिवी
 (ऋग्वेद – १।१६४/३३)
(८) पितरः = जनक-उपनयनकर्ता-गुरु-अन्नदाता-भयत्राता
 (चाणक्य नीति ६।२२)
(९) पितरः- पालक जन
“पिता पाता वा पालयिता वा” बहुवचने “पितरः पातारो वा पालायितारो वा”
(निरुक्त – ४।२१)
(१०) पितरः = ज्ञानी जन
(ऋग्वेद – १० । ८८ । १८)
(११) पितरः  = सैनिक जन
(ऋग्वेद -६।७५।६)
प्रकरणवश इस मन्त्र में आया पितर शब्द सेनानायक जनों का अर्थ रखता है
(१२) पितरः = पूर्वज कुटुम्बी जन प्रसिद्ध हैं।
(१३) पितरः = सूर्य रश्मियां
 ( ऋग्वेद – ९/८३/३)
यहां सायण ने भी पितर का अर्थ सूर्य किरण किया है   देखें – “पितरः पालका देवाः पितरो जगद्र‌क्षका रश्मयः”
 (ऋग्वेद ९। ८३।३)
(१४) पितरः = ऋतुएं
“ऋतवः पितरः” (कौ० २७1) “ऋतयो वै पितरः” (श० २।६।१।३२) “षद् वा ऋतवः पितरः”
(श० ६१४।३।८)
(१५) पितरः = चन्द्र लोक निवासी   (आर्यभट्ट ज्योतिष् ग्रन्थ)
गीतिका पाद (श्लोक १७)
(१६) पितरः  = उत्पत्ति के निमित्त वा दुःख से बचाने वाले पदार्थ
विशेषण रूप में ही धातुज अर्थ आयुर्वेदिक प्रकरण में ।
(१७) पितरः = वसु
“वसून् वदन्ति तु पितॄन् रुद्रांश्चैव पितामहान् ।
प्रपितामहाँ- स्तथादित्यान्छ तिरेषा संनातनी ॥” (मनुः ३ । २८४)
#पितृलोक-
(१) पितृलोक = द्युलोक (सूर्य लोक) तृतीये वा इतो लोके पितरः”
(तैत्तिरीय ब्राह्मण- १।३।१०।५)
पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौः इनमें तृतीय संख्या द्युलोक की होने से द्युलोक तृतीय लोक है ।
(२) पितृलोक = सोम
“पितृलोकः सोमः”
(कौषीतकि  ब्राह्मण -१६।५)
३) पितृलोक = सूर्य
“संवत्सर का नाम पिता देखो
(पितर सं० २) अतः संवत्सर का लोक सूर्य होने से पितृलोक सूर्य है।” “पितर सूर्य रश्मियो का नाम है
(सं० १३) अतः रश्मियों का लोक सूर्य होने से पितृलोक सूर्य है।”
(४) पितृलोक = चन्द्र लोक
“चन्द्र लोक निवासी पितर कहलाते हैं (देखो सं० १५) अतः उनका लोक चन्द्र लोक पितृलोक हुआ ।
(५) पितृलोक = स्वपितृकुल
“माता, पिता तथा अन्य वृद्ध कुटुम्बी जन पितर हैं (सं० १२) उनका कुल या निवास पितृलोक है।
” यथा “उशतीः कम्पला इमाः पितृलोकान् पतिं यतीः ।
अवदीक्षामसृक्षत स्वाहा”
(अथर्ववेद -१४ । २ । ५२)

मौलिक और श्रेष्ठ लेखन को मिलते हैं पाठक

पुराने समय से ही साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है। यह सत्य भी है , समाज जैसा होगा उसका प्रतिबिंब भी वैसा ही होगा। एक समय था जब लिपि का प्रचलन नहीं था तब भावों और अंतरात्मा की आवाज़ को मौखिक गा कर या सुना कर बताया जाता था। लिपि का चलन हुआ तो मुद्रण का आविष्कार नहीं होने से रचनाएं कलम दवात से कागज, ताड़ पत्र, भोज पत्र,कपड़े आदि पर लिखी जाती थी। आज भी उस समय के हज़ारों हस्तलिखित ग्रंथ हमारी अमूल्य धरोहर हैं। अनेक प्राचीन कालजई साहित्यकारों की रचनाएं उनके कई सालों बाद प्रकाशित हुई, जब मुद्रण प्रेस का आविष्कार हुआ।
कालजई अनेक साहित्यकारों का सृजन सदियों से रचनाकारों के लिए प्रेरणा श्रोत बना हुआ है। इसी प्रमुख वजह उनका मौलिक और श्रेष्ठ लेखन ही है। उस समय के साहित्यकारों ने लेखन को ही प्रधानता दी। उन्हें कोई सराहेगा या कोई पुरस्कार मिलेगा ऐसी कोई कल्पना भी उनके दिमाग में नहीं होती थी। समय रहते जब उनका साहित्य पढ़ा गया तो उसकी महत्ता प्रतिपादित हुई। अनेक कहानियां और उपन्यास फिल्मों का विषय बने और उन पर फिल्में बनाई गई। उनके साहित्य पर हज़ारों लोगों ने शोध कर अपने प्रबंध लिखे।
जिन स्थितियों में उनका साहित्य लिखा गया वे आज से सर्वथा भिन्न थी। आज की तरह लिखने की सुविधाएं नहीं थी, प्रचार – प्रसार के साधन नहीं थे, न्यूंतन सुविधाओं में सब कुछ हाथ से लिखना कितना कठिन रहा होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। फिर भी वे पीछे नहीं हटे, डटे रहे और अंतरात्मा की आवाज़ से लिखते रहे। उस समय जब की दरबारी साहित्य ज्यादा लिखा गया तो भी सामान्य जन के लिए भी लिखा जाता था। समय के साथ  – साथ लेखन का स्वरूप और दिशा बदलती रही। मध्यकाल का अधिकांश साहित्य भक्ति धारा से प्रभावित रहा। अष्ठछाप कवियों का साहित्य आज तक प्रसिद्ध है। देश की आज़ादी की लड़ाई में देश भक्ति को जगाने वाले साहित्य का सृजन हुआ।देशभक्ति और शोर्यपूर्ण रचनाओं ने आजादी के आंदोलन में चिंगारी का काम किया। लोगों को उद्वेलित कर आजादी के आंदोलन से जोड़ा।
 एक अर्थ यह भी सामने आता है कि  सृजन अगर अर्थपूर्ण न हो ऐसे लिखने का कोई मतलब नहीं रह जाता। जो भी लिखा जाए उसका उद्देश्य अवश्य होना चाहिए और वह पाठकों  को मनोरंजन के साथ शिक्षित और जागरूक करने की क्षमता रखता हो। ऐसा वही सृजन कर सकता है जो मौलिक , श्रेष्ठ और उद्देश्य परक होगा।
 साहित्य आज भी खूब लिखा जा रहा है, पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं , साहित्यकारों की कृतियों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है। बावजूद इसके साहित्य का क्षेत्र अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती तो लिखे गए साहित्य के लिए पाठकों की कमी होना है। इंटरनेट के युग में  पुस्तक को पढ़ने वाले पाठक बहुत कम रह गए हैं। आज तकनीक के युग में कंप्यूटर या मोबाइल पर ई – पुस्तकें और कई ऐप्स पर पुस्तकों के सार संक्षेप की ऑडियो उपलब्ध हैं। पुस्तक पढ़ने में काफी समय लगने के झंझट से मुक्ति और बहुत कम समय में पढ़ने की सुविधा। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी पुस्तक का सार ओडियो से 15 – 20 मिनिट में सुना और समझा जा सकता है। विद्वान भी आज इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि स्मार्ट राइडिंग बेहतर विकल्प है। यह कहना पूरी तरह उचित नहीं की पुस्तकें पढ़ी नहीं जाती हैं, उनको पढ़ने का माध्यम बदल गया है। हां, इसका असर पुस्तकों की बिक्री पर जरूर हुआ है।
एक समस्या मौलिक लेखन को लेकर है। रातों रात प्रसिद्धि पाने की चाह में मौलिक लेखन पर नकल की परत चढ़ती जा रही है। एक रचना के भावों पर दूसरी रचना बना ली जाती है। लिखने का उद्देश्य तिरोहित हो कर प्रसिद्धि पाना हो गया है। ऐसा लोग भूल जाते हैं कि  जो कालजई लेखक हुए हैं वे अपने लेखन के बूते पर ही हुए हैं। बुलंदियों पर वही पहुंचेगा जिसका लेखन मौलिक होगा। ऐसा नहीं करने वाले स्वयं अपने आप में संतुष्टि महसूस कर सकते हैं, अपनी कोई पहचान नहीं बना सकते हैं।
पुरस्कार और सम्मान की बढ़ती चाह भी साहित्य के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। आज कुछ रचना लिखने वाला भी अपने को साहित्यकार कहलाने का दंभ भरता नजर आता है और मन में पुरस्कार और सम्मान पाने की लालसा बलवती हो जाती है। जेबी संस्थाओं की भरमार है। आकर्षक  पुरस्कार देने वाली संस्थाएं कुकुर मुक्ता की तरह सोशल मीडिया पर जोरदार कारोबार कर रही हैं। साहित्यकारों की पुरस्कार पाने की लालसा से उनका आर्थिक हित खूब रहा है। मर्म को टटोल ने लिए एक बार ऐसी एक संस्था के कार्यकर्ता से फोन पर बात बात की तो कहने लगा आपको हमारी संस्था को कुछ डोनेशन देना होगा जिसे हम समाज सेवा में लगाते हैं। पूछा कितना डोनेशन होगा तो उत्तर मिला यही कोई 40 हजार। ऐसे पुरस्कार किस तरह के लेखन को बढ़ावा देंगे सोच सकते हैं। इस पुरस्कार की होड़ में मौलिक लेखन कहीं  पीछे छूट जाता है। ऐसे  साहित्यकार अपनी पहचान भी खड़ी नहीं कर पाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में कई जगह लॉबिंग एक अलग समस्या है। असली साहित्यकार तो पंक्ति में पीछे खड़ा नजर आता है, जब की चापलूस किस्म के लोग येन केन प्रकार जुगाड कर कुछ ही समय में उनसे कहीं आगे निकलते नज़र आते हैं।
लेखक और प्रकाशक की अलग समस्या है।  असमर्थवान लेखक तो अपनी पुस्तक का प्रकाशन ही नहीं करवा सकता। हालांकि कुछ अकादमियों की सहायता योजना में चयनित हो कर अपनी कृति का प्रकाशन करने में सफता प्राप्त कर लेते हैं । इनकी संख्या भी सीमित होती हैं। प्रकाशक का दृष्टिकोण पूर्ण व्यवसायिक होने से आज स्वतंत्र रूप से पुस्तक प्रकाशित कराना भी टेडी खीर है। प्रकाशक  अपनी मजबूर बताता है, किताब छाप भी दें तो खरीददार नहीं मिलते। पुस्तक मेलों के आयोजन से कुछ पुस्तकें बिका जाए तो भी गनीमत है।
 ऐसे माहौल में राजस्थान सरकार ने प्रदेश में मौलिक लेखन को बढ़ावा देने के लिए इस वर्ष हिंदी दिवस से दस क्षेत्रों में हिंदी लेखन के किए 50 – 50 हजार रुपए के 10 पुरस्कार शुरू कर स्वागत योग्य पहल की है। इस कदम से निश्चित ही साहित्यकार मौलिक लेखन के लिए प्रेरित होंगे। इस निर्णय की विशेता यह भी है की हिंदी साहित्य के साथ – साथ हिंदी भाषा में लिखे गए अन्य साहित्य की धराओं को भी जोड़ा गया है। सरकार की ओर से अन्य क्षेत्रों के लेखकों को पहली बार मौका मिला है। यह विचार अन्य साहित्यिक संस्थाओं तक भी पहुंचे तो नए रास्ते खुलेंगे।
राजस्थान सहित सभी प्रांतीय सरकारों को पुस्तक क्रय नीति में भी संशोधन करने पर विचार करना होगा और पुस्तक क्रय करने के लिए संभाग और जिला स्तर के पुस्तकालयों को बजट आवंटित किया जा कर, केंद्रीय क्रय नीति को बदलना होगा। कई उदहारण हैं जब केंद्रीय स्तर पर किसी को उपकृत करने के लिए उसकी एक ही पुस्तक को बड़े पैमाने पर क्रय कर लिया जाता है, और सारा बजट इसी में खपा दिया जाता है। इन पुस्तकों को रखने की न तो पुस्तकालयों में जगह होती है और न ही इनके पाठक। पुस्तकालय प्रभारी भी अपना माथा पकड़ कर रह जाता है यह क्या हो रहा है। किसको जाहिर करे अपनी विवशता, मन मसोस कर रह जाता है।  इस नीति से स्तरीय लेखकों की पुस्तकें पाठकों को पढ़ने को उपलब्ध नहीं हो पाती तो वे भी कोसते नज़र आते हैं कैसा पुस्तकालय है, पुरानी पुस्तकों की भरमार है, नई पुस्तक उपलब्ध ही नहीं होती कभी भी।
आज साहित्य का क्षेत्र केवल हिंदी तक ही सीमित नहीं है वरन खगोल, अंतरिक्ष,  विज्ञान, मीडिया, पर्यटन, कला – संस्कृति, पर्यावरण, चिकित्सा – शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में साहित्य लिखा जा रहा है। जो उन पाठकों की पहुंच से बाहर है जो पुस्तकें पढ़ते हैं। सरकारों को इस दिशा में भी गंभीरता से विचार करना होगा। साहित्य को बढ़ावा देने में कुछ समाचार पत्र अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं जब की कई समाचार पत्रों से साहित्य एक दम नदारद आता है। आवश्यकता है फिल्म,खेल , स्वास्थ्य आदि विषयों की तर्ज पर साहित्य के लिए भी सप्ताह में एक पेज सुरक्षित रखा जाए, जिस से ज्यादा से ज्यादा साहित्यकारों को अपनी रचनाओं के प्रकाशन का अवसर प्राप्त हो सकें। स्व रचित रचना होने का प्रमाण पत्र प्राप्त किया जा सकता है।
साहित्य के क्षेत्र में चुनौतियां होने के बावजूद भी मौलिक और श्रेष्ठ लेखन को पाठक भी नज़र अंदाज नहीं करते हैं। देखा गया है कि गंभीर पाठकों का एक नया वर्ग सेवा निवृत कार्मिकों का पैदा हो गया है, जो अपने समय को पुस्तकालयों से अच्छा साहित्य ला कर पढ़ने में  बिताते हैं। वे अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें उपलब्ध नहीं होता।ईमानदारी से किए गए लेखन की प्रतिष्ठा आज भी जिंदा है। इस दिशा में काम होगा तो पाठक भी मिलेंगे और लेखक की पहचान भी अपने आप खड़ी होगी।
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( लेखक पिछले 44 वर्षों से विभिन्न विषयों के  लेखक और पत्रकार हैं । )

मृत्युञ्जय वीर भगतसिंह के जीवन के कुछ यादगार किस्से

भारतवर्ष के राष्ट्रीय इतिहास में वीरवर भगतसिंह का जीवन और बलिदान युग – युगान्तरों तक तथा कोटि – कोटि पुरुषों को सत्प्रेरणा देता रहेगा ।
आप किशोर अवस्था से ही क्रांतिकारी आन्दोलन के अत्यन्त सम्पर्क में थे । इसका कारण आपके परिवार की क्रांतिकारी परम्परायें थी । आपके पितामह सरदार अर्जुनसिंह जी जन्म से सिख होते हुए भी आर्यसमाज के सक्रिय कार्यकर्ता और प्रचारक थे । यह उस युग के लिए एक असाधारण बात थी । क्योंकि उस समय आर्यसमाज और सिक्खों में बड़ा विरोध था । अत : ऐसे समय जबकि प्रतिपक्षी के प्रति तीव्र घृणा और द्वेष की लहर बह रही हो , केवल इसलिए कि प्रतिपक्षी के समाज में राष्ट्रोद्धार की भावनायें दिखाई दे रही हैं । अपने ग्राम परिवार और प्रात्मीयों का विरोध सहन करते हुए भी उसका समर्थक बन जाना कैसे उत्कट साहस का कार्य था । इसका अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है ।
  श्री अर्जुनसिंह जी कोई भी इस प्रकार का अवसर खाली न जाने देते थे जबकि सिख जनता पर आर्यसमाज के वैदिक सिद्धान्तों की सच्चाई का प्रभाव डाला जा सकता हो । इस विषय में आपका उत्साह किस प्रकार का था और आप में कहां तक वैदिक धर्म में श्रद्धा थी , उसका अनुमान निम्न घटना से लगाया जा सकता है ।
 एक बार विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आपको अपने ग्राम से लगभग ६० मील दूरी पर जाना पड़ा । संयोगवश जब आप उत्सव में पहुंचे , ठीक उसी समय कोई पुरोहित सिख – आर्य समाज के सिद्धान्तों की , विशेषत : अमर ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश की कटुलोचना कर रहा था । आपने तुरन्त ही उस पुरोहित को चुनोती दी कि वह जो सत्यार्थप्रकाश के उदाहरण उपस्थित कर रहा है , वे सत्यार्थप्रकाश में नहीं हैं और पुरोहित सत्यार्थप्रकाश को बदनाम करने के लिए कल्पित उदाहरण उपस्थित कर रहा है ।
उस पंजाबी ग्राम में और जाट सिख के मध्य में इस प्रकार की चुनौती देना साधारण काम नहीं था । पुरोहित ने अपनी पूरी शक्ति के साथ आपके कथन का विरोध किया और यह घोषणा की कि यदि सत्यार्थप्रकाश सामने लाया जाये तो सिद्ध कर दूंगा कि जो मैंने उदाहरण दिये हैं वे सत्यार्थ के हैं या नहीं ।
  इसमें कुछ सन्देह नहीं कि पुरोहित ने बहुत ही सुरक्षित मार्ग अपनाया था । क्योंकि उस पिछड़े हुए युग में पंजाब के इन ग्रामों में सत्यार्थप्रकाश तो दूर ही रहा , कोई भी पुस्तक नहीं मिलती थी । इस कारण सत्यार्थप्रकाश उपलब्ध नहीं हो सका और पुरोहित उसी भावना से विवाह कार्य सम्पन्न कराता रहा । अकस्मात् कुछ अन्य व्यक्तियों ने अनुभव किया कि अर्जुनसिंह जी दिखाई नहीं दे रहे । परन्तु इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । क्योंकि यदि कोई व्यक्ति विवाद में हार जाता है तो उसका लोगों की आंखों से छिपना उसके लिए एक स्वाभाविक सी बात है । अत : उन लोगों ने कल्पना की कि यहीं किसी कोठरी में विश्राम कर रहे होंगे ।
 परन्तु दूसरे दिन प्रातः ही पुरोहित जी विपत्ति में पड़ गये । क्योंकि अर्जुनसिह जी रातों – रात साठ मील जाकर साठ मील वापिस लौटकर अपनी सत्यार्थप्रकाश की प्रति ले आये । साथ ही यह भी स्मरण रहे कि आप पहले दिन साठ मील यात्रा कर चुके थे । इतना होते हुए भी आप यह सहन न कर सके कि कोई आर्यसमाज के विरुद्ध मिथ्या प्रचार आपके सामने करे और फिर बच निकले । अन्त में पुरोहित ने क्षमा मांगी और अपना पिण्ड छुड़ाना चाहा । आप नित्य हवन किया करते थे । जहां जाते वहां पोटली में हवनकुण्ड और हवन सामग्री बांध ले जाते थे।
आपके तीन पुत्र हुए उनके नाम इस प्रकार हैं श्री किशनसिंह , श्री अजीतसिंह और श्री स्वर्ण सिंह । इन तीनों में ही अपने पिता जी की भांति क्रांति की भावनायें देदीप्यमान थीं । बीसवीं सदी के आरम्भ में इन तीनों भाइयों ने गर्म राजनीतिक दल का बीज वपन किया था । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य प्रान्तों की अपेक्षा पञ्जाब में यह कार्य अत्यन्त दुष्कर था । क्योंकि एक तो पञ्जाब भारतीय फौजों में वीर भेजने का मुख्य केन्द्र था । अतः अंग्रेज सरकार यह किञ्चित् मात्र भी नहीं सहन कर सकती थी इतना होते हुए भी श्री किशनसिंह जी ने अपने दोनों भाइयों के साथ इस कठिन कार्य का बीड़ा उठाया और अन्य प्रान्तों की भांति इस प्रान्त में भी स्वराज्य की ज्वालाये उठने लगीं । ये ज्वालायें किसान वर्ग तक जा पहुंची । सारे पंजाब में यह स्थिति पैदा कर दी कि श्री अर्जुनसिंह जी के तीनों वीर पुत्रों को पंजाब सरकार ने पकड़ना आवश्यक समझा , इसके पश्चात् इन वीरों का जीवन कभी कारावास में , कभी गुप्तावस्था में व्यतीत होने लगा ।
 इन तीनों भाइयों में से श्री स्वर्णसिंह जी जेल की यातनामों के पश्चात् पूर्ण युवावस्था में ही इस संसार से चल बसे । उसके पश्चात् श्री अजीत सिंह जी सन् १९०८ में भारत से अचानक विदेश चले गये और वहां ३८ वर्ष तक घोर कठिनाइयों का सामना कर भारत माता की मुक्ति का काय करते रहे । अन्त में १९४६ में जबकि ब्रिटिस सरकार अपना बिस्तर गोल कर रही थी उसी समय बड़ी कठिनाइयों से आप भारत आ गये । किन्तु कुछ दिन पश्चात् १४ अगस्त १९४७ को जबकि अगले दिन भारत अपना स्वतन्त्रता दिवस मनाने का उपक्रम कर रहा था उस समय आप दूसरे लोक में चल दिए । इस प्रकार अब श्री किशनसिंह ही रह गये । आपका भी स्वर्गवास अभी कुछ दिन पूर्व ही हुआ है । आप में स्वदेश भक्ति कूट – कूटकर भरी हुई थी । आप मरते समय तक अपनी मातृभूमि के लिए चिन्तित थे ।
वीरवर भगतसिंह जी का जन्म आश्विन शुक्ला त्रयोदशी शनिवार सम्वत् १९०७ में लायलपुर जिले के बंगा नामक ग्राम में हुआ था जो पंजाब राज्य में स्थित है । आपके जन्म से पूर्व आपके पिता जी तथा चाचा दोनों माण्डले जेल के द्वीपान्तर वास में थे । जिस दिन आपका जन्म हुआ उसी दिन आपके पिता जी तथा चाचा भी बन्धन से मुक्त होकर आये । इसी कारण आपको ” भाग्य वाला ” कहते थे । आगे चलके आपका भगतसिंह नाम पड़ा । आपकी बाल्यावस्था दादी तथा माता जी की देखरेख में व्यतीत हुई । ये दोनों महिलायें धार्मिक थीं । अतः आप पर धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । आपकी मेधा शक्ति बहुत अच्छी थी ।
आपने तीन वर्ष की अवस्था में गायत्री मन्त्र याद किया था । ५ वर्ष की अवस्था में आप स्कूल में पढ़ने चले गये । आपका यज्ञोपवीत संस्कार शास्त्रार्थ महारथी पं० लोकनाथ जी तर्कवाचस्पति द्वारा हुआ था । एक बार आपको अपने घर वालों के साथ लाहौर जाने का अवसर मिला । लाहौर में आपके पिता जी के परम मित्र लाला आनन्द किशोर जी यहां आये थे । लाला जी ने आपको बड़े प्रम से उठाकर अपने कन्धे पर रखा और थपकियां देते हुए पूछा- ” क्या करते हो ? ‘ आपने अपनी तोतली जबान में उत्तर दिया- ” मैं खेती करता हूं । ” लाला ने पूछा- “ तुम बेचते क्या हो ? ” आपने उत्तर दिया- “ मैं बन्दूक बेचता हूं । ” यह बातचीत इतनी प्यारी थी कि इनका स्मरण बड़े होने पर भी हुआ करता था । बचपन में आप बड़े खिलाड़ी थे । बचपन में ही आप क्रांति दल बनाकर अपने साथियों के साथ युद्ध करते थे ।
आपको वीरतापूर्ण खेलों में अधिक रुचि थी , बालकपन से आपको तलवार बन्दूकादि से बड़ा प्रेम था । एक बार अपने पिता के साथ खेत में चले गये । बालक भगतसिंह ने पिता से पूछा कि “ पिता जी ये लोग क्या कर रहे हैं ? ” पिता ने उत्तर दिया कि अन्न बो रहे हैं । इस पर आपने कहा कि अनाज तो बहुत उत्पन्न होता है , परन्तु तलवार , बन्दूकादि सब जगह नहीं होतीं । अतः ये तलवार आदि क्यों नहीं बोते ?
आगे शिक्षा पाने के लिए आपको पिता जी ने दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालय ( डी० ए० वी० स्कूल ) में प्रवेश कराया । वैसे तो सिख परिवार के बालक प्रायः खालसा स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते हैं क्योंकि उनका यह शिक्षणालय जातीय था । परन्तु सिख होते हुए भी आपका परिवार आर्यसमाज की ओर था अतः आपने अपने पुत्र को डी० ए० वी० स्कूल में ही भर्ती कराया । दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालय में आपने नवीं कक्षा पास की ।
 इसी समय १९२१ में महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया । सारे देश में सरकारी तथा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों का बहिष्कार प्रारम्भ हुआ । इसलिए आप भी डी० ए० वी० कालेज छोड़ भारतीय विद्यालय में चले गए । उस समय उसके प्रबन्धकर्ता स्व० भाई परमानन्द जी थे । आपने भगतसिंह की परीक्षा लेकर एफ० ए० में प्रवेश कराया । सन् १९२२ में एफ० ए० की परीक्षा पास की , उसी समय आपका श्री सुखदेव तथा अन्यान्य क्रांतिकारियों से परिचय हुआ । उधर घरवालों ने आपके विवाह का आडम्बर रचा । जब इसकी सूचना आपको मिली तब आप अपना बिस्तर – बोरिया उठाकर लाहौर से अन्यत्र चले गये और पर्याप्त दिन के पश्चात् अपने आप पिता को पत्र लिखा जिसमें लिखा था कि ” मैं विवाह करना नहीं चाहता , इसी कारण मैंने घर छोड़ दिया है आप मेरी कोई चिन्ता न करें । मैं बहुत अच्छी अवस्था में हूं । “
लाहौर से श्री जयचन्द्र विद्यालंकार से पत्र लेकर आप गणेशङ्कर विद्यार्थी के पास कानपुर गये । वहां प्रताप प्रेस में कार्य करने लगे । वहां अपना नाम बलवान् रखा था । इसी नाम से आप लेखादि लिखा करते थे । उधर आपके घरवालों ने घर में हाहाकार मचा रखा था । आपकी दादी जी को बेहोशी के दौरे आने लगे थे । उधर आपका क्रांतिकारियों से पर्याप्त परिचय हो गया था । आप पंजाबी प्रान्त में पैदा होने पर भी हिन्दी से बहुत प्रेम करते थे । आप किशोर अवस्था से ही हिन्दी की पुस्तक पढ़ लिख लेते थे । इस प्रकार धीरे – धीरे अभ्यास करके साहित्यकार भी बन गये थे।
 एक बार हिन्दी – साहित्य सम्मेलन ने किसी एक विषय पर सर्वोत्तम निबन्ध लिखने के लिए ५० रु ० पुरस्कार की घोषणा की । उसमें तीन व्यक्तियों का नम्बर पहला आया , क्योंकि तीनों के निबन्ध एक ही कोटि के माने गये । उस में श्री भगतसिंह और यशःपाल एवं अन्य कोई था । इससे आपको हिन्दी साहित्य पर कितना अधिकार था , यह मालूम होता है ।
  इसी साल गङ्गा और यमुना में भयङ्कर बाढ़ आई थी । संयुक्त प्रान्त के कई स्थानों में गांव के गांव इस भयङ्कर बाढ़ में नष्ट – भ्रष्ट हो गये । श्री बटुकेश्वरदत्त उन दिनों कानपुर में ही रहते थे । बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए श्री दत्त जी ने एक समिति स्थापित की , जिसके सरदार भगसिंह भी सदस्य थे । बड़े उत्साह और लगन से उनकी सेवा की । भगतसिंह और दत्त जी के एक साथ अधिक दिन काम करने से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया । दोनों के कार्य का कानपुर जिले पर अमिट प्रभाव पड़ा और आपको बड़ी श्रद्धाभवित से देखने लगे । भगतसिंह को एक स्कूल का प्राध्यापक नियुक्त किया । इस समय आपका पता आपके पिता जी को मिला । आपके मित्र को तार देकर कहा कि भगतसिंह को कह दो कि माता जी अत्यन्त बीमार हैं । माता जी का समाचार सुनते ही आप पंजाब की ओर चल दिये और चलते समय तार कर दिया कि मैं आ रहा हूं ।
लायलपुर में आपने एक भाषण दिया । जिसमें अंग्रेज को मारने वाले गोपीनाथ की सराहना की । इस पर पुलिस ने आप पर अभियोग चलाया । आपके पिता को भी यही इच्छा थी कि भगतसिह जेल का कुछ अनुभव करे । वह भी इच्छा पूर्ण न हो सकी । फिर आप लाहौर चले गये और लाहौर से अमृतसर । आपने लाहौर में ‘ अकाली ” नामक समाचार पत्र के कार्यालय में कार्य प्रारम्भ किया । वहां पर पर्याप्त समय तक सम्पादक का काम करते रहे । परन्तु किसी कारणवश लाहौर जाना पड़ा । वहां पर पुलिस आपकी ताक में थी ही अतः वहां प्रापको पकड़ लिया और छः हजार की जमानत पर छोड़ दिया गया ।
सन् १९२७ में आपने अपने पिता की आज्ञा से लाहौर में विशुद्ध दूध पहुंचाने के लिए एक कारखाना खोला । यह कारखाना कुछ दिन तो अच्छा चला परन्तु आपके जीवन का उद्देश्य दूध बेचना न था । अतः आप लापता हो गये । जब आप घर आये तो पिता जी ने दो सोटी मार दी । इसका फल यह हुआ कि वह दूध का कारखाना समाप्त हो गया ।
  लाहौर षड्यन्त्र वाले मुकद्दमे में एक दिन सरकारी वकील के किसी कथन पर भगतसिंह को हंसी आगई । इस सरकारी वकील ने अदालत से शिकायत की कि भगतसिंह हंसकर अदालत की तौहीन कर रहा है । वीरवर ने हंसकर उत्तर दिया- ” मुझे तो ईश्वर ने हंसने के लिए ही पदा किया है । मैं तमाम जिन्दगी हंसता रहूंगा , हंसता रहूंगा । आज अदालत में हंस रहा हूं और कल ईश्वर ने चाहा तो फांसी के तख्ते पर भी हंसूगा । वकील साहब ! इस समय तो मेरे हंसने की शिकायत कर रहे हैं , परन्तु जब मैं फांसी के तख्ते पर हंसूगा तब किस अदालत से शिकायत करेंगे ?
३० अक्टूबर १९२८ को लाहौर में साईमन कमीशन आने वाला था । भारत के अपमान का जीवन्त प्रतीक साईमन कमीशन आज सरदार कर्तारसिंह को लाश पर पांव रखकर पंजाब के निवासियों से यह पूछने आया था कि क्या सचमुच स्वराज्य चाहते हैं ? और क्या स्वराज्य के योग्य भी हैं । इस पर लाहौर की जनता ने यह निश्चय किया था कि जिस प्रकार देश के अन्य भागों ने बहिष्कार किया है उसी प्रकार यहां किया जायेगा ।
इस पर अत्याचारी सरकार ने इसको कुचलने के लिए धारा १४४ की घोषणा कर दी । यह समाचार प्रत्येक मनुष्य में फैल गया कि वह भी ” जलियांवाला बाग बन जावेगा । बड़े बच्चों को धमका रहे थे कि आज बाहर न निकलना । परन्तु युवकों का हृदय उछल रहा था कि कब जलूस निकले और हम उसमें सम्मिलित होवें । शहर के चारों ओर पुलिस ही पुलिस दिखाई दे रही थी । कायर देखते है तो कहते हैं कि यह पुलिस हमारे शरीर को मार देगी , मनुष्य परन्तु क्या वह हृदय के भावों को भी मार देगी ? ठीक समय पर जलूस निकला । चारों ओर ही मनुष्य दिखाई देने लगे । साथ ही पंजाब के सबसे अधिक सम्माननीय लाला लाजपतराय जी इस जलूस का नेतृत्व कर रहे थे और सबसे अगलो पंक्ति में थे ।
इस वयोवृद्ध मूर्ति को देखकर सभी श्रद्धा से सिर झुका लेते थे ।आपको ‘ स्वाधीनता ” शब्द पर जेल जाना पड़ा था तभी आपने सरकार से वीरतापूर्वक लोहा लिया था । जलूस स्टेशन पर पहुंचा । पंजाब की राजधानी उनके आगमन को किस दृष्टि से देखती है ? ” साईमन गो बैक ” और ” वन्दे मातरम् ‘ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा । सामने पुलिस का मोर्चा था , परन्तु पुलिस को कोई परवाह न करते हुए आगे चलते ही रहे ।
अकस्मात् पुलिस ने आगे बढ़कर लाठी चार्ज कर दिया । उस में एक गोरी कौम वाले अधिकारी ने आकर लाला लाजपत राय जी पर डण्डे बरसाने प्रारम्भ कर दिए । अन्य दर्शक चकित हुए । लाठी पड़ता रही परन्तु पीछे नहीं हटे , छाती तानकर वहीं खड़े । इस पर नवयुवकों ने आगे बढ़कर यह वार अपने ऊपर लिया । कुछ देर पश्चात् यह अधिकारी वहां से चल दिया । चलते समय लाला जी ने पूछा – आपका क्या नाम है ? उसने मुंह को पिचकाया और घृणा पैदा कर कुछ न कहा । उसी समय एक नवयुवक ने मन ही मन में यह सोचा कि ‘ मत बता तू नाम अपना ? लेकिन एक दिन तेरा नाम गली गली में मारा मारा फिरेगा । उस नवयुवक की आंखें अङ्गारे जैसी लाल हो रही थीं । उसका सारा शरीर भावावेश में कांप रहा था । उसी दिन सायंकाल एक विराट् सभा में भाषण देते हुए लाला जी ने कहा था कि ‘ मेरे ऊपर की गई चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन के लिए कील सिद्ध होगी ।
” वह युवक भी उसी सभा में विद्यमान था और यह विचार रहा था कि क्या सचमुच ही इस देवता का शाप अवश्य ही सफल होगा ? इस काण्ड के केवल १० दिन बाद ही १७ नवम्बर १९२८ को लाला जी उन घातक चोटों के कारण चल बसे ।
इधर लाला जी की मृत्यु पर शोकसभायें होने लगीं । एक सभा में चितरञ्जनदास जी की धर्म पत्नी माता वसन्ती देवी ने कहा ‘ मैं जब यह सोचती हूं कि किसके हिंसक हाथों ने स्पर्श करने का साहस किया था एक ऐसे व्यक्ति के शरीर को , जो इतना वृद्ध , इतना आदरणीय , भारत माता के तीस कोटि नर – नारियों को इतना प्यारा था तब मैं आत्मापमान के भावों से उत्तेजित होकर कांपने लगती हूं । क्या देश का यौवन और मनुष्यत्व आज जीवित है ? क्या वह यौवन और मनुष्यत्व का भाव इस कुत्सा को उसकी लज्जा और ग्लानि अनुभव नहीं करता है ? मैं भारतभूमि की एक अबला हूं । इस प्रश्न का उत्तर चाहती हूं । अतः युवक समाज आगे आकर उत्तर दे । “
भारत युवक – समाज ने सचमुच ही इसका उत्तर दिया । इस भीषण काण्ड के ठीक तीन मास पश्चात् १७ दिसम्बर , सन् १९२८ को उक्त अंग्रेज अधिकारी मि० साण्डर्स संध्या के लगभग ४ बजे ज्यों ही अपने दफ्तर से मोटर साइकल पर चला त्यों ही सामने से किसी के रिवाल्वर की गोली उसके सीने में आकर लगी । वह नीच घायल होकर गिर पड़ा । पड़ते ही दो गोली और आकर लगीं । काम समाप्त हो गया । ये तीनों वीर मारकर वापिस आ गए । इन तीनों वीरों के नाम यह थे श्री वीरवर भगतसिंह जी , श्री राजगुरु जी , श्री चन्द्रशेखर आजाद । तीनों साण्डर्स को यमलोक पहुंचाकर वहां से डी० ए० वी० कालेज के भोजनालय में गये । वहां पर्याप्त समय रहकर वहां से चल दि
दूसरे दिन लाहौर में सभी प्रमुख स्थानों पर लाल रङ्ग के छपे हुए इस्तिहार लगे हुए जिनमें लिखा हुआ था ” साण्डर्स मारा गया । लाला जी की मृत्यु का बदला ले लिया गया । “
राष्ट्रीय अपमान के इस बदले से राष्ट्र के हृदय में एक गौरव उत्पन्न हुआ । साण्डर्स के मारे जाने पर सरकारी अधिकारियों में बड़ी हल – चल मच गई । अपराधियों की शीघ्रातिशीघ्र खोज करने का कठिन आदेश दिया । पुलिस ने तत्काल ही लाहौर से बाहर जाने वाली सभी सड़कों पर अपना राज्य जमा लिया और स्टेशन पर भी विशेष गुप्तचर नियुक्त कर दिये ।
लाहौर के बड़े स्टेशन पर एक नौजवान सरकारी अधिकारी एक युवती के साथ दीख पड़ा । उसके साथ में टिफिन कैरियर लिए एक खानसामा भी था । उसकी चपरास पर उक्त अफसर का नाम लिखा हुआ था । थोड़ी देर में ट्रेन आई और वह अफसर कुलियों को इनाम देता हुआ प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उस युवती के साथ जा बैठा । खानसामा भी सर्वेष्ट क्लास में बैठ गया । ट्रेन देहली की ओर चल पड़ी । वहां पचासों खुफिया आदमी विद्यमान थे और अनेक तो ऐसे थे जो भगतसिंह जी के कार्यों पर दृष्टि रखते आपके साथ रहे थे । फिर भी वे यह न जान सके कि यह अफसर और कोई नहीं वही वीरवर भगतसिंह है जिसकी खोज में हम मारे – मारे फिरते हैं और यह युवती वही क्रांतिकारिणी समिति की सदस्या थी जिसका शुभ नाम दुर्गावती था और जो खानसामा था वह राजगुरु था ।
इस प्रकार ये बचकर निकल आये । इधर आकर आपने पर्याप्त क्रांति के कार्य किये । कई जगह अपनी विचारधारा के केन्द्र बनाये । आपने कलकत्ता के कार्नवालिस स्ट्रीट आर्यसमाज में कुछ समय निवास किया । वहां क्रांति का कार्य करते थे । जब आप वहां से आये तब तुलसीराम चपड़ासी को अपनी थाली , कटोरी देकर आये और कहा कि कोई देशभक्त आवे तो उसको इनमें भोजन करा देना । इस प्रकार कार्य चल रहा था । इधर केन्द्रीय विधान सभा में ” ट्रेड डिस्ट्रिव्यूट ” का बिल पास हो रहा था । यह जनता के लिए अच्छा न था । इससे जनता अत्यधिक असन्तुष्ट थी । अतः आपने इसका विरोध करने की ठानी , विरोध इस प्रकार का कि जब यह बिल पास हो तब सभा भवन में बम्ब फेंका जाये । इस कार्य के लिए आप और अपने अनन्य मित्र बटुकेश्वरदत्त को चुना ।
९ अप्रैल १९२९ को इस बिल पर मत पड़ने वाले थे । उसी दिन ये दोनों वहां जा धमके । ठीक ग्यारह बजे अध्यक्ष ने घण्टी बजाकर दो विभागों में बांटने को कहा , यह स्मरण रहे कि यह बिल अध्यक्ष महोदय ने पूर्व भी ठुकराया था । परन्तु कौंसिल आफ स्टेट ने इसे फिर विचारार्थ भेजा था । श्रीयुत पटेल ने बड़ी मर्म वेदना के साथ यह देखकर कि विरोधियों की संख्या अधिक है अत: अपने सधे हुए कण्ठ से कहा “ यह बिल पास ” इतने में एक बम का धमाका हुआ । सभास्थ जनता घबरा उठी । इतने में दूसरा बम भी आ गया , सभा भवन धुएं से भर गया । इस आवाज के होते ही सदस्य वर्ग में भगदड़ मच गई । अध्यक्ष के पास बैठे हुए सर जान साईमन पल भर में छिप गये । होम मेम्बर सर जेम्स केसर कुर्सियों के नीचे छिपे । केवल दो सदस्य अपने स्थान पर स्थित थे । पं० मोतीलाल नेहरू और पं० मदन मोहन मालवीय ।
 जब धुआं कुछ साफ हुआ तो लोगों ने देखा कि महिलाओं की गैलरी के पास यूरोपियन वेशभूषा से सुसज्जित दो युवक खड़े हुए मुस्करा रहे थे । जब सभा में कुछ शान्ति हुई तब दोनों ही युवकों ने लाल पर्चे वितरित करने प्रारम्भ कर दिए । जिसका प्रथम वाक्य था ” बहरों को सुनाने के लिए जोर से बोलना पड़ता है ” और इसके नीचे “ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ” के अध्यक्ष के हस्ता क्षर थे । पर्चे वितरण के पश्चात् यदि आप भागना चाहते तो अवश्य भाग सकते थे । परन्तु इन दोनों का कार्यक्रम और ही था । अतः वहीं खड़े रहे । कुछ देर बाद विधान सभा को घेर लिया गया परन्तु इन दो युवकों के पास कौन जावे । देखा कि ये हम से डरते हैं , इन दोनों ने भरे हुये रिवाल्वर अपने पास में से निकाल कर फैंक दिए । फिर क्या था ? पुलिस वाले इन वीर युवकों को वश में कर ले गये । इन युवकों ने चलते समय ‘ इन्कलाब जिन्दाबाद ” ” साईमन का नाश हो ” इन नारों से आकाश को गुञ्जा दिया । इस समय इन युवकों के मुख पर कोई भय न था । एक स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ अपने कार्य को सुचारु रूप से कर सकने पर सन्तोष प्रकट कर रहे थे ।
 इसके पश्चात् आप दोनों को देहली पुलिस चौकी में ले जाया गया । वहां आप दोनों को अलग अलग ही रखा गया । कुछ देर बाद सी० आई० डी० विभाग का एक अधिकारी आया और कहा ” तुम्हारे जैसे लड़कों को तो मैं मिनटों में ठीक कर देता है । अपने आपको तुम क्या समझते हो ? तुम्हारे साथियों ने सब कुछ स्वीकार कर लिया । यदि भला चाहते हो तो तुम भी बतायो नहीं तो इतना कहकर आपको वश में करना चाहा , परन्तु दाल न गली ।
नौकरशाही इन वीरों को अपने मार्ग से विचलित न कर सकी । इन पर मुकदमा चलाया गया । ७ मई से मुकदमा चला , जो १२ जून सन् १९२९ को सेशन में जाकर समाप्त होगया । वीरवर भगत सिंह और बटुकेश्वरदत्त ने एक संयुक्त वक्तव्य दिया — ” कांतिकारी दल का उद्देश्य देश में मजदूरों तथा किसानों का समाजवादी राज्य स्थापित करना है । क्रांतिकारी समिति जनता की भलाई के लिए लड़ रही है । ” वीरवर भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त ने जो वक्तव्य अदालत में दिया वह बहुत ही विद्वत्ता पूर्ण था । इससे पूर्व किसी भी क्रांतिकारी ने अदालत में खड़े होकर ऐसा वक्तव्य नहीं दिया ।
२३ अक्तुबर सन् १९२८ को जो बम दशहरे के मेले पर फटा था , उससे दस तो यमलोक पहुंच गये और ३० घायल हो गये । नौकरशाही ने इस मामले की छानबीन करनी शुरू की । जिसके फल स्वरूप पता लगा कि मि० साण्डर्स की हत्या करने में वीरवर भगतसिंह का भी हाथ था । इस सम्बन्ध में १६ व्यक्तियों पर केस चला । बाकी ने अनशन किया । अनशन में यतीन्द्रनाथ शहीद हो गये । इससे मुकदमे में काफी समय लग गया । इधर जनता में प्रचार हो गया । और भी जागृति हो गई । सरकार ने एक अडिनेन्स गजट में प्रकाशित किया । मुकदमा मैजिस्ट्रेट से हटकर तीन जजों के एक ट्रिब्यूनल के सामने आया । इन तीन जजों की अदालत को यह अधिकार दिया गया कि अभियुक्तों की अनुपस्थिति में भी उन पर मुकदमा चलाया जाये ।
ट्रिब्यूनल ने इस मुकदमे का फैसला ७ अक्तू बर सन् १९३० को इस प्रकार सुनाया- “ वीरवर भगतसिंह , शिवराम राजगुरु और सुखदेव को फांसी । विजयकुमारसिंह , किशोरीलाल , शिव वर्मा , गयाप्रसाद , जयदेव और और कमलनाथ त्रिवेदी को आजन्म कालापानी की सजा । कुन्दनलाल को ७ साल और प्रेमदत्त को ३ साल की कैद । “
वीरवर भगतसिंह की फांसी के समाचारों पर देश के कोने – कोने से रोष प्रकट किया गया । हड़तालें हुई । बम्बई में तो ट्रामें तक रुक गईं । ११ फरवरी सन् १९३१ को प्रीवी कौंसिल में इस मुकदमे की अपील की , किन्तु वह रद कर दी गई । वीरवर भगतसिंह , शिवराम राजगुरु तथा सुखदेव फांसी घर में बन्द थे । नौकरशाही सरकार के जज महोदयों ने इन लोगों को फांसी की सजा देना ही ठीक समझा , लेकिन सारा देश इस सजा के विपरीत था । यहां तक कि कांग्रेस वाले भी जनता की सद्भावनाओं को साथ लेकर देश के इन पुजारियों को फन्दे से छुड़ाने का प्रयत्न करने लगे । महात्मा गांधी को वायसराय ने कहा कि मैं सरकार को इस सम्बन्ध में लिखुंगा और कराची कांग्रेस अधिवेशन हो लेने तक फांसी रुकवा दूंगा । इस पर महात्मा गांधी ने कहा- यदि नौजवानों को फांसी पर लटकाना ही है तो कांग्रेस अधिवेशन के बाद ऐसा करने की बजाय पहले ऐसा करना ठीक होगा । इससे लोगों को पता चल जायेगा कि वस्तुतः उनको स्थिति क्या है और लोगों के दिलों में झूठी आशाएं न बन्धेगी । पं . नेहरू ने अपनी आत्म – कथा में लिखा है
 ” तारीख २३ मार्च सन् १९३१ को सायंकाल इन तीनों को फांसी दे दी गई । यों तो कायदा है सवेरे फांसी देने का किन्तु इनके लिए इस नियम को भङ्ग किया गया । उनकी लाशें सम्बन्धियों को नहीं दी गई तथा उनको बड़ी बेपरवाही से मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया । उनके फूल अनाथों के फूल की भांति सतलुज में डलवा दिए गये । सारा देश आंखों की पंखुड़ियां बिछाकर जिनका स्वागत करने को तैयार था तथा जिनके ” जिन्दाबाद ‘ के नारे लगाते – लगाते मुल्क का गला बैठ गया था , उन पुरुषसिंहों को साम्राज्यवाद ने इस प्रकार हत्या कर डाली । कितनी बड़ी गुस्ताखी और कितना बड़ा अपराध था ? सरकार जनमत की कितनी परवाह करती है ? यह इसी बात से कांग्रेस के नेताओं पर जाहिर हो जानी चाहिए थी , किन्तु …. ? ?
पाठकों को आश्चर्य होगा कि महीनों फांसीधर में रहने के बाद भी वीरवर भगतसिंह का दिमाग और हृदय कितना स्वच्छ और साफ था । उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतारसिंह के नाम अन्तिम पत्र लिखा था
” अजीज कुलतार !
आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत रंज हुआ । आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था । तुम्हारे आंसू तो बर्दास्त नहीं होते ।
 खबरदार ! परिश्रम से काम लेना , शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ध्यान रखना । हौसला रखना । और क्या कहूं —-
      उसे फिक्र है हरदम नया तजें जफर क्या हैं
      हमें यह शौक देखें सितम की इन्तहा क्या है
      घर से क्यों खपा रहे , खर्च का क्यों गिला करें ।
      सारा जहां अदू साथी आओ मुकाबला करें ।
      कोई दम का महमां हूँ , ऐ अटले महफिल ,
      चिरागे सेहर हूं , बुझा चाहता हूं ।
      मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली ,
      यह मुश्ते खाक है , फानी रहे या न रहे ।
अच्छा आज्ञा ? खुश रहो अहले वतन ! हम तो सफर करते हैं । ” हौंसले से रहना । नमस्ते ।
                                         तुम्हारा भाई ।
आपके फांसी के समय जवाहरलाल नेहरू ने  कहा था———-
मैं भगतसिंह तथा उनके साथियों के बारे में अन्तिम दिनों में मौन धारण किये रहा , क्योंकि मैं डरता था कि कहीं मेरे किसी शब्द से फांसी की सजा रद्द होने की सम्भावना जाती न रहे । मैं चुप रहा , यद्यपि मेरी इच्छा होती थी कि मैं उबल पडूं । हम सब मिलकर उन्हें बचा न सके । वे हमारे बहुत प्रिय थे , उनका महान् त्याग और साहस भारत के नौजवानों के लिए एक प्रेरणा की चीज थी और है । हमारी इस असहायता पर देश में दुःख प्रकट किया जायेगा । किन्तु साथ ही हमारे देश को स्वर्गीय आत्मा पर गर्व है और “ जब इङ्गलैंड हमसे समझौते की बात करे तो हम भगतसिह की लाश को भूल न जायेंगे ।
   अन्य कुछ विशेष घटनाएं 
 पंजाब में घी अधिक मात्रा में खाने का प्रचलन है । भगतसिंह को पंजाब निवासी होने के कारण घी , दूध का शौक किसी से कम नहीं था । लाहौर के अनारकली बाजार में काल्लू दूध , दही वाले के यहां किशनसिंह का उधार हिसाब चलता था । इस कारण भगतसिंह जी वहां जाकर दूध , घी खाते थे और साथियों को भी खिलाते थे । इसी प्रकार आप भोजन में भी किसी से कम न थे । यदि राजाराम शास्त्री होटल में दिखाई दे तो आप अत्यावश्यक कार्य को छोड़कर भी भूख न होने पर भी उनके कटोरे में से समस्त घी निकालकर पी जाते थे । शास्त्री जी हाथ फैलाये ” देखो रे ! देखो रे ! क्या कर रहा है , अरे ! देखो इस जाट को । ” सहायता के लिए दुहाई देते रह जाते ।
आपके पिता जी आपका विवाह करना चाहते थे । आपका विचार विवाह न करने के कारण एक दिन आपने कहा कि मुझे पढ़ने लिखने का शौक है । इसलिए लड़की भी पढ़ी लिखी होनी चाहिए । इस पर आपके पिता जी उबल पड़े – पढ़ी लिखी लड़की में कुछ और बढ़ जाता है क्या ? पढ़ी लिखी औरत से पैदा बच्चे को क्या पढ़ाना नहीं पड़ता ? भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त के आत्मसमर्पण कर देने पर सशस्त्र पुलिस ने आपको बड़े साज वाज से पकड़कर और बहुत सावधानी से उन्हें मोटर में बिठाकर नई दिल्ली के थाने की ओर ले गई ।
आपकी मोटर सड़क पर एक तांगे के पास गई । इस तांगे में क्रांतिकारी भगवतीचरण , भाभी दुर्गा देवी और सुशीलादेवी जी विद्यमान थीं और सुखदेव जी तांगे का सहारा लिए साईकल पर चल रहे थे । तांगे के पास से भरी मोटरें गुजरने पर इन लोगों ने एक दूसरे को पहचाना परन्तु व्यवहार न पहचानने का किया । यह मन का कितना बड़ा संयम था । भगतसिंह को उस समय मृत्यु के हाथों से लौटा लेने के लिए अपने प्राण दे देना अधिक सरल था । संयम और अनुशासन का ऐसा उदाहरण मिलना कठिन । परन्तु श्रीमती दुर्गादेवी की गोद में बैठा हुआ “ सची ” भगतसिंह को देखकर उस तरफ हाथ करके चिल्ला उठा- ” लम्बे चाचा जी । ” इस पर दुर्गादेवी ने तुरन्त उसका मुंह गोद में दबाकर शान्त कर दिया । इस प्रकार से उन्होंने अपने प्राण बचाये ।
लेखक :-  ब्र० महादेव
पुस्तक :- देश भक्तों के बलिदान
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

बाल सुलभ ज्ञान कृति का लोकार्पण

कोटा 28 सितंबर/अखिल भारतीय साहित्य परिषद कोटा शाखा द्वारा साहित्यकार राम मोहन कौशिक की पुस्तक ” बाल सुलभ ज्ञान ” (बाल विकास एवं शिक्षा आघारित)  पुस्तक का लोकार्पण शनिवार को एक होटल में समारोह पूर्वक किया गया। समारोह अध्यक्ष  विष्णु शर्मा ” हरिहर ” मुख्य अतिथि  भगवती प्रसाद गौतम, विशिष्ट अतिथि महेश विजय , रामेश्वर शर्मा रामू भैया, तथा डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने अपने विचार व्यक्त किए। लेखक राम मोहन कौशिक ने बताया कि पुस्तक बालकों को भारत , भारतीय संस्कृति ,भारतीय धर्म , विज्ञान , गणित , भाषा, आजादी का ज्ञान प्रदान करने में सहायक होगी। इस अवसर पर डा. रमेश चन्द्र शर्मा एवं श्री अर्जुन दास छाबड़ा जी का विशिष्ट नागरिक के रूप में सम्मान किया गया ।
समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार रहे । संचालन  दीपक शर्मा ने किया । डी. के. शर्मा, खुशी राम चौधरी , श्री मती रेखा पंचोली , श्री मती अपणी पाण्डेय का वरिष्ठ साहित्यकार होने हेतु सम्मान किया गया।

वन नेशन वन इलेक्शन आज के भारत की आवश्यकता

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में लोकसभा एवं विभिन्न प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे हैं। परंतु केंद्र सरकार द्वारा कुछ विधानसभाओं को 1950 एवं 1960 के दशक में इनकी अवधि समाप्त होने के पूर्व ही भंग करने के चलते कुछ विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा से अलग कराने की आवश्यकता पड़ी थी, उसके बाद से लोकसभा, विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं एवं स्थानीय स्तर पर नगर निगमों, निकायों एवं पंचायतों के चुनाव अलग अलग समय पर कराए जाने लगे। आज स्थिति यह निर्मित हो गई है कि लगभग प्रत्येक सप्ताह अथवा प्रत्येक माह भारत के किसी न किसी भाग में चुनाव हो रहे होते हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि पिछले पांच वर्षों के दौरान प्रत्येक वर्ष केवल 65 दिन ऐसे रहे हैं जब भारत के किसी स्थान पर चुनाव नहीं हुए हैं।

किसी भी देश में चुनाव कराए जाने पर न केवल धन खर्च होता है बल्कि जनबल का उपयोग भी करना पड़ता है। जनबल का यह उपयोग एक तरह से अनुत्पादक श्रम की श्रेणी में गिना जाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के श्रम से किसी प्रकार का उत्पादन तो होता नहीं है परंतु एक तरह से श्रमदान जरूर करना होता है। यह श्रम यदि बचाकर किसी उत्पादक कार्य में लगाया जाय तो केवल कल्पना ही की जा सकती है कि इस श्रम से देश के सकल घरेलू उत्पाद में अतुलनीय वृद्धि दर्ज की जा सकती है। अमेरिकी थिंक टैंक के एक अर्थशास्त्री के अनुसार, देश में बार बार चुनाव कराए जाने के चलते उस देश का सकल घरेलू उत्पाद लगभग एक प्रतिशत से कम हो जाता है।

चुनाव कराने के लिए होने वाले खर्च पर भी यदि विचार किया जाय तो भारत में केवल लोकसभा चुनाव कराने के लिए ही 60,000 करोड़ रुपए का खर्च किया जाता है।

आप कल्पना कर सकते हैं इस राशि में यदि विभिन्न प्रदेशों की विधानसभाओं, नगर निगमों, निकायों एवं ग्राम पंचायतों के चुनाव पर किए जाने वाले खर्च को भी जोड़ा जाय तो खर्च का यह आंकड़ा निश्चित ही एक लाख करोड़ रुपए के आंकडें को पार कर जाएगा।

उक्त बातों के ध्यान में आने के पश्चात केंद्र सरकार ने विचार किया है कि भारत में “वन नेशन वन इलेक्शन” के नियम को लागू किया जाना चाहिए। इस विचार को आगे बढ़ाने एवं इस संदर्भ में नियम आदि बनाने के उद्देश्य से भारत के पूर्व राष्ट्रपति माननीय श्री रामनाथ कोविंद जी की अध्यक्षता में एक विशेष समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट हाल ही में राष्ट्रपति/केंद्र सरकार को सौंप दी है। इसके बाद, केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल की समिति ने इस रिपोर्ट को स्वीकृत कर लिया है एवं इसे अब लोकसभा एवं राज्यसभा के सामने विचार के लिए प्रस्तुत किया जाएगा।

किसी भी देश की लोकतंत्रीय प्रणाली में समय पर चुनाव कराना एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। चुनाव किस प्रकार हों, समय पर हों एवं सही तरीके से हों, इसका बहुत महत्व होता है। परंतु देश में चुनाव बार बार होना भी अपने आप में ठीक स्थिति नहीं कही जा सकती है। विश्व के कई देशों, यथा स्वीडन, ब्राजील, बेलजियम, दक्षिण अफ्रीका, आदि में समस्त प्रकार के चुनाव एक साथ ही कराए जाने के नियम का पालन सफलतापूर्वक किया जा रहा है।

चुनाव एक साथ कराने के कई फायदे हैं जैसे इन देशों में चुनाव कराने सम्बंधी खर्चों पर नियंत्रण रहता है। दूसरे, सुरक्षा हेतु पुलिसकर्मियों एवं चुनाव करवाने के लिए स्थानीय कर्मचारियों की बड़ी मात्रा में आवश्यकता को कम किया जा सकता है। तीसरे, देश में चुनाव एक साथ कराने से अभिशासन पर अधिक ध्यान दिया जा सकता है एवं चौथे विभिन्न स्तर के चुनाव एक साथ कराने से चुनाव में वोट डालने वाले नागरिकों की संख्या में निश्चित ही वृद्धि होती है क्योंकि नागरिकों को मालूम होता है कि पांच साल में केवल एक बार ही वोट डालना है अतः वह अन्य कार्यों को दरकिनार करते हुए अपने वोट डालने के अधिकार का उपयोग करना पसंद करता है।

इसी प्रकार यदि कोई नागरिक किसी अन्य नगर यथा दिल्ली में कार्य कर रहा है और उसके मुंबई का निवासी होने चलते उसे वोट डालने के लिए मुंबई जाना होता है तो पांच वर्ष में एक बार तो इस महान कार्य के लिए वह दिल्ली से मुंबई आ सकता है परंतु पांच वर्षों में पांच बार तो वह दिल्ली से मुंबई नहीं जा पाएगा।

इसके अलावा लोकसभा, विधानसभाओं, स्थानीय निकायों एवं पंचायतों के चुनाव अलग अलग होने से विभिन्न पार्टियों के पदाधिकारी, इनमें केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों के मंत्री आदि भी शामिल रहते हैं, अपना सरकारी कार्य छोड़कर चुनाव प्रचार के लिए अपना समय देते हैं। जबकि, यह समय तो उन्हें देश एवं प्रदेश की सेवा में लगाना चाहिए। इससे देश में अभिशासन की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

वन नेशन वन इलेक्शन के लिए गठित उक्त विशेष समिति ने यह सलाह दी है कि शुरुआत में लोकसभा एवं समस्त प्रदेशों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते है।

यदि ऐसा होता है तो यह भी सही है कि देश में लोकसभा एवं विधान सभा चुनाव एक साथ कराने के लिए संसाधनों की भारी मात्रा में आवश्यकता पड़ेगी, इसका हल किस प्रकार निकाला जाएगा इस पर भारतीय संसद में विचार किया जा सकता है। साथ ही, भारत में 6 राष्ट्रीय दल, 54 राज्य स्तरीय दल एवं 2000 से अधिक गैर मान्यता प्राप्त दल हैं जिनके बीच में सामंजस्य स्थापित करने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही, भारत में अंतिम बार लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ 1960 के दशक में कराए गए थे। आज भारतीय नागरिकों को भी शिक्षित करने की आवश्यकता होगी कि लोकसभा, विधान सभाओं एवं स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ किस प्रकार कराए जा सकते हैं ताकि उन्हें वोट डालने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो।

इन समस्याओं का हल भारतीय संसद में चर्चा के दौरान निकाला जा सकता है। यदि किसी कारण से केंद्र में लोकसभा अथवा किसी प्रदेश में विधानसभा पांच वर्ष की समय सीमा के पूर्व ही गिर जाती है तो लोकसभा अथवा उस प्रदेश की विधान सभा के चुनाव शेष बचे हुए समय के लिए पुनः कराए जा सकते हैं, ऐसे प्रावधान को कानूनी रूप प्रदान दिया जा सकता है। इससे विभिन्न राजनैतिक दलों के सांसदों एवं विधायकों पर भी यह दबाव रहेगा कि वे लोकसभा अथवा विधानसभा को समय पूर्व भंग कराने अथवा गिराने का प्रयास नहीं करें।वन नेशन वन इलेक्शन के सम्बंध में कुछ संशोधन तो देश के वर्तमान कानून में करने ही होंगे और फिर पूर्व में भी विभिन्न विषयों पर अलग अलग खंडकाल में (समय समय पर) 100 बार से अधिक संशोधन कानून में किए ही जा चुके हैं।

यह तर्क भी सही नहीं है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से भारत के नागरिक केंद्र एवं राज्यों में एक ही राजनैतिक दल की सरकार चुनने को प्रोत्साहित होंगे। परंतु, भारत का नागरिक अब पूर्ण रूप से परिपक्व एवं सक्षम हो चुका है कि वह लोकसभा एवं विधान सभा चुनाव एक साथ कराए जाने पर केवल एक ही दल की सरकार को नहीं चुनेगा। देश में ऐसा कई बार हुआ है कि लोकसभा एवं विधान सभा के एक साथ हुए चुनवा में लोकसभा में एक दल के सांसद को चुना गया है एवं विधान सभा में किसी अन्य दल के विधायक को चुना गया है।

भारत आज एक विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है, ऐसे समय में भारत को अपने संसाधनों का उत्पादक कार्यों के लिए उपयोग करना आवश्यक होगा न कि रक्षा एवं सरकारी कर्मचारी देश में बार बार हो रहे चुनाव के कार्यों में व्यस्त रहें। कुल मिलाकर वन नेशन वन इलेक्शन, देश के हित में उठाया जा रहा एक मजबूत कदम है। इस विषय पर, भारत के हित में, देश के समस्त राजनैतिक दलों को गम्भीरता से विचार कर इस नियम को भारत में लागू किया जाना चाहिए।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

पाली में ‘मीडिया गुरु सम्मान’ से हुए प्रो.द्विवेदी का सम्मान

पाली। अखिल भारतीय साहित्य परिषद राजस्थान ,कल्पवृक्ष साहित्य सेवा संस्थान एवं वंदेमातरम् शिक्षण समूह पाली के संयुक्त तत्वावधान में पं. विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी समृति द्वितीय राष्ट्रीय व्याख्यानमाला एवं साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन पाली में संपन्न हुआ। इस मौके पर भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रोफेसर संजय द्विवेदी को ‘राष्ट्रीय मीडिया गुरु सम्मान’ से अलंकृत किया गया। साथ ही उन्होंने कार्यक्रम को मुख्य वक्ता की आसंदी से संबोधित भी किया।

कार्यक्रम में अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय सचिव जगतगुरु विजयराम रावलद्वारा पीठाधीश्वर जगद्गुरु वेदेही वल्लभ देवाचार्य, साहित्यकार डा.जितेंद्र कुमार सिंह संजय , कवयित्री डा. चारुशीला सिंह, राजेन्द्र सिंह भाटी, प्रो. डा.मंजू शर्मा, नूतनबाला कपिला, सहायक कलेक्टर ऋषि सुधांसु पाण्डेय कोषाधिकारी हंसा राजपुरोहित उपस्थित रहे।

मुख्य वक्ता प्रो. संजय द्विवेदी ने अपने संबोधन में कहा कि साहित्य का मूल उद्देश्य ही लोक मंगल है। पिछले कुछ वर्षो में भारत अपनी जड़ों की तरफ वापसी कर रहा है। यह ‘विचारों की घर वापसी का समय’ है।

सालों साल तक चले समाजतोड़क साहित्यिक अभियानों के बजाए समाज को जोड़ने वाले तथा भारतबोध कराने वाले साहित्य सृजन की आवश्यकता है । इससे भारत विकसित भारत बनेगा और अपने सपनों में रंग भरेगा। कार्यक्रम के संयोजक साहित्य परिषद के प्रांत अध्यक्ष डा.अखिलानंद और पवन पाण्डेय ने अतिथियों के प्रति स्वागत और आभार ज्ञापन किया।

दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ के त्योहारी सीजन के दौरान, फेस्टिवल स्पेशल ट्रेनों के 6,000 से अधिक फेरे चलाए जाएंगे

पश्चिम रेलवे द्वारा 86 फेस्टिवल स्पेशल ट्रेनों के साथ

1,380 से अधिक फेरे विभिन्न गंतव्यों के लिए चलाए जा रहे हैं।

दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ पूजा के दौरान यात्रियों की सुगम आवाजाही के लिए भारतीय रेल द्वारा इस वर्ष 519 स्पेशल ट्रेनों का संचालन किया जाएगा। इन स्पेशल ट्रेनों का संचालन 1 अक्टूबर से 30 नवंबर के बीच किया जाएगा। रेलवे अधिकारी के मुताबिक़ हर साल त्योहारों के अवसर पर रेलवे द्वारा स्पेशल ट्रेनों का संचालन किया जाता है। इस वर्ष इन स्पेशल ट्रेनों की संख्या में भारी बढ़ोतरी की गई है। इनमें से, पश्चिम रेलवे 86 फेस्टिवल स्पेशल ट्रेनों के साथ 1,382 फेरे चला रहा है, जो पूरे भारतीय रेलवे में सबसे अधिक हैं।

गौरतलब है कि दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ पर्वों के दौरान लाखों की संख्या में यात्री सफर करते हैं। यात्रियों की भारी भीड़ को सुगम एवं आरामदायक यात्रा प्रदान करने के लिए रेलवे द्वारा इस वर्ष भी विशेष ट्रेनों का संचालन करने की तैयारी की गई है। दो महीने की अवधि के दौरान ये स्पेशल ट्रेनें लगभग 6000 फेरे लगाएंगी और बड़ी तादाद में यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने का काम करेंगी। पिछले वर्ष भी भारतीय रेल द्वारा बड़ी संख्या में त्योहार स्पेशल ट्रेनों का संचालन किया गया था और इन ट्रेनों ने कुल 4,429 फेरे लगाए थे, जिनके माध्यम से लाखों की संख्या में यात्रियों को आरामदायक यात्रा की सुविधा प्राप्त हुई थी।

जाहिर है कि हर साल दुर्गा पूजा, दीपावली और छठ पूजा के अवसर पर देश भर से बड़ी संख्या में लोग उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर प्रस्थान करते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के लिए ये त्योहार न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि परिवारों से मिलने का भी एक अहम अवसर होते हैं। हर साल त्योहारों के दौरान यात्रियों की भीड़ की वजह से अधिकांश ट्रेनों में दो-तीन महीने पहले से ही टिकट वेटिंग लिस्ट में चली जाती हैं। इसी को देखते हुए रेलवे द्वारा इस वर्ष भी त्योहारों के अवसर पर स्पेशल ट्रेनों का संचालन किया जा रहा है।

इस वर्ष, पश्चिम रेलवे ने 86 स्पेशल ट्रेनों की अधिसूचना जारी की है, जो 1,380 से अधिक फेरे लगाएंगी। पिछले वर्ष की तुलना में, पश्चिम रेलवे ने 21 और ट्रेनें जोड़ी हैं और लगभग 270 अतिरिक्त फेरे बढ़ाए हैं, ताकि त्योहारी सीजन के दौरान बढ़ती यात्रा मांग को पूरा किया जा सके। ये ट्रेनें उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर भारत, उत्तर पूर्व आदि के गंतव्यों के लिए चलाई जा रही हैं। पश्चिम रेलवे द्वारा मुंबई से देश के विभिन्न गंतव्यों के लिए 14 जोड़ी स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं। इसी प्रकार, सूरत/उधना से यात्रियों की भारी मांग को पूरा करने के लिए 8 जोड़ी स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं, जबकि 20 जोड़ी स्पेशल ट्रेनें सूरत/उधना या भेस्तान से होकर गुजर रही हैं। इसी तरह, गुजरात के अन्य स्टेशनों जैसे वापी, वलसाड, वडोदरा, अहमदाबाद, साबरमती, हापा, ओखा, राजकोट, भावनगर टर्मिनस आदि से स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं, साथ ही मध्य प्रदेश के इंदौर, डॉ. अंबेडकर नगर और उज्जैन से भी स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं।

पर्यटन मंत्रालय ने अतुल्य भारत कंटेंट हब और डिजिटल पोर्टल शुरू किया

भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने 27 सितंबर 2024 को विश्व पर्यटन दिवस के अवसर पर नए सिरे से तैयार किए गए अतुल्य भारत डिजिटल पोर्टल (www.incredibleindia.gov.inपर अतुल्य भारत कंटेंट हब शुरू किया। अतुल्य भारत कंटेंट हब एक व्यापक डिजिटल संग्रह है। इसमें भारत में पर्यटन से संबंधित उच्च गुणवत्ता वाली छवियोंफिल्मोंब्रोशर और समाचार पत्रों का समृद्ध संग्रह है। 

यह संग्रह विभिन्न हितधारकों के उपयोग के लिए है। इसमें टूर ऑपरेटरपत्रकारछात्रशोधकर्ताफिल्म निर्मातालेखकप्रभावशाली व्यक्तिसामग्री निर्मातासरकारी अधिकारी और राजदूत शामिल हैं।

कंटेंट हब नए अतुल्य भारत डिजिटल पोर्टल का हिस्सा है। इसका उद्देश्य दुनिया भर में यात्रा व्यापार (यात्रा मीडियाटूर ऑपरेटरट्रैवल एजेंटके लिए अतुल्य भारत पर अपनी ज़रूरत की हर चीज़ को एक ही स्थान पर एक्सेस करना आसान और सुविधाजनक बनाना है। इससे वे अपने सभी मार्केटिंग और प्रचार प्रयासों में अतुल्य भारत को बढ़ावा दे सकें। 

कंटेंट हब में वर्तमान में लगभग 5,000 कंटेंट एसेट हैं। रिपॉजिटरी पर उपलब्ध कंटेंट कई संगठनों के सहयोगात्मक प्रयास का परिणाम है। इसमें पर्यटन मंत्रालयभारतीय पुरातत्व सर्वेक्षणसंस्कृति मंत्रालय और अन्य शामिल हैं।

अतुल्य भारत डिजिटल पोर्टल एक पर्यटककेंद्रितवनस्टॉप डिजिटल समाधान है जिसे भारत आने वाले आगंतुकों के लिए यात्रा के अनुभव को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। नया पोर्टल यात्रियों को उनकी यात्रा के हर चरण मेंखोज और शोध से लेकर योजनाबुकिंगयात्रा और वापसी तक आवश्यक जानकारी और सेवाएँ प्रदान करता है।

नया पोर्टल वीडियोछवियों और डिजिटल मानचित्रों जैसी मल्टीमीडिया सामग्री का उपयोग करके आकर्षणोंशिल्पत्योहारोंयात्रा डायरीयात्रा कार्यक्रम और बहुत कुछ के बारे में जानकारी प्रदान करता है। प्लेटफ़ॉर्म की बुक योर ट्रैवल‘ सुविधा उड़ानोंहोटलोंकैबबसों और स्मारकों के लिए बुकिंग सुविधा प्रदान करती है। इससे यात्रियों सुविधा होती है। इसके अतिरिक्तएआईसंचालित चैटबॉट प्रश्नों का उत्तर देने और यात्रियों को रियल टाइम जानकारी प्रदान करने के लिए एक वर्चुअल सहायक के रूप में कार्य करता है। अन्य सुविधाओं में मौसम की जानकारीटूर ऑपरेटर विवरणमुद्रा परिवर्तकहवाई अड्डे की जानकारीवीज़ागाइड और बहुत कुछ शामिल हैं।

पर्यटन मंत्रालय डिजिटल पोर्टल को अतुल्य भारत की खोज करने वाले सभी लोगों के लिए प्रेरणा का एक निरंतर स्रोत बनाने के लिए कई कदम उठाए है। इनमे नई सुविधाओं को शामिल करनाक्राउडसोर्सिंग के माध्यम से अतिरिक्त सामग्री जोड़ने के लिए संगठनों और संस्थानों के साथ साझेदारी कर पोर्टल में सुधार और विकास कार्य शामिल है।