ये घटनाएँ कुछ नहीं बहुत कुछ कहती है
अहम मुद्दों पर उजागर हुई राहुल गांधी की असलियत
लोकसभा में विपक्ष के नेता बनने के बाद राहुल गांधी ने अमेरिका यात्रा की और वहां भारत विरोधी शक्तियों और समूहों के साथ बैठकर भारत तथा हिंदुत्व विरोधी बयान देकर उजागर कर दिया कि वे लोकसभा में नेता विरोधी दल नहीं वरन भारत विरोधी नेता हैं। मोहब्बत की दुकान का गाना गाने वाले राहुल गांधी नफरत से इतने अधिक भरे हुए हैं कि अपने पूर्वजों के अच्छे विचारों को भी तिलांजलि दे चुके हैं।अमेरिका में राहुल गांधी द्वारा प्रस्तुत विमर्श भारत विरोधी, अलगाववादी, विध्वंसक तथा हिंदुत्व का अपमान करने वाला है।राहुल गाँधी की भाषा हिन्दू देवी देवताओं के प्रति अपमानजनक रही। ऐसा प्रतीत हुआ कि राहुल गांधी वास्तव में शहरी नक्सली हैं और टुकड़े- टुकड़े गैंग के निर्देशक ही उनके सलाहकार हैं।
राहुल गांधी ने अमेरिका में भारत के खिलाफ जो जहर उगला है वहां की चुनावी रैलियों से अनवरत चली आ बयानबाजी का विस्तार है। राहुल गांधी ने अमेरिका में एक के बाद एक कई विवादित बयान दिये हैं जिनके कारण भारत का राजनैतिक वातावरण उद्वेलित है। राहुल गांधी ने अमेरिका में चीन की प्रशंसा करते हुए कहा कि वैश्विक उत्पादन में चीन का प्रभुत्व है इसलिए वहां पर बेरोजगारी नहीं है जबकि भारत और अमेरिका जैसे देशों में भयंकर बेरोजगारी है। सिख समुदाय पर भी राहुल ने विवादित और घटिया बयान दिया और कहा, मेरी लड़ाई इस बात को लेकर है कि क्या एक सिख को भारत में पगड़ी पहनने की अनुमति दी जाएगी ?या एक सिख को कड़ा पहनने की अनुमति दी जाएगी? जो राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में यह ढिंढोरा पीटते रहे अगर भाजपा 400 पार चली गयी तो वह संविधान बदल देगी आरक्षण को समाप्त कर देगी उन्हीं राहुल गांधी ने अमेरिका में कहा कि जब भारत भेदभाव रहित स्थान होगा तब कांग्रेस आरक्षण समाप्त करने पर विचार करेगी।
अभी ऐसा नहीं है क्योंकि उनकी नजर में 2014 से दलितों आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) को उचित भगीदारी नहीं मिल रही है। राहुल गांधी ने हिंदी पर भी आरोप मढ़ दिया और कह डाला कि अगर आपको लगता है कि आंध्रप्रदेश के लोग हिंदी जितने महत्वपूर्ण नहीं हैं तो यह राज्य के लोगों का अपमान है। राहुल गांधी यहीं नहीं रुके बोलते बोलते राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ तक पहुँच गए औए कहा वे मानते हैं कि महिलाएं घर पर ही रहें, रसोई संभालें। सबसे बड़ा झूठ यह बोलकर आये हैं कि भारतीय राजनीति में प्रेम सम्मान और विनम्रता गायब है।
राहुल गांधी ने सिख समुदाय को लेकर जो विवादित बयान दिया है उससे खालिस्तान समर्थक आतंकवादी गुनपतवंतसिंह पन्नू बहत खुश है तथा उनका समर्थन कर रहा है, राहुल के बयानों से खालिस्तान मूवमेंट के समर्थन की बू आ रही है। भारत में पंजाब और पंजाबियत का जो हाल कांग्रेस ने किया है वह किसी से छुपा नहीं है। कौन नहीं जानता कि पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 3000 सिखों का जो नरसंहार हुआ, जगह जगह दंगो के दौरान सिखों की पगड़ी उतार कर फेकी गई, उनके घर और दुकानों को आग के हवाले किया गया यह सब कुछ गाँधी परिवार के नियंत्रण में ही हुआ था और राहुल के पिता राजीव गाँधी ने, “बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है “ कहकर उसका बचाव किया था। कांग्रेस के ही शासनकाल में सिख राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ हुआ दुर्व्यवहार पूरा देश जानता है। राहुल गांधी के बयान से भारत का राष्ट्रभक्त सिख समाज आंदोलित और आहत है।
राहुल गांधी ने अमेरिका में एक बड़ा बयान भारत के लोकतंत्र और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को लेकर भी दिया है। राहुल के अनुसार 2024 का लोकसभा चुनाव निष्पक्ष नहीं था, उन्होंने कहाकि चुनाव आयोग बीजेपी द्वारा नियंत्रित था। बीजेपी के पास अपार धन था, प्रशासन की ताकत थी, चुनाव आयोग का रवैया बीजेपी के पक्ष में था अगर निष्पक्ष चुनाव होते तो बीजेपी 240 सीटें जीत ही नहीं सकती थी। यहाँ राहुल गांधी संभवतः भूल गये कि चुनावों के दौरान कांग्रेस द्वारा सत्ता के दुरुप्रयोग की कहानियां भरी पड़ी हैं वो तो भला हो कि धीरे धीरे चुनाव आयोग ने सामर्थ्य दिखाना आरम्भ किया और चुनाव प्रणाली को सुदृढ़ किया।
राहुल गांधी अमेरिका में धुर भारत विरोधी नेताओं के साथ बैठक करते हैं और उनके साथ विचार विमर्श करते हैं। दुनिया भर में राष्ट्रवादी सरकारों के सबसे बड़े दुश्मन और नशीले पदार्थों की तस्करी करने वाले जार्ज सोरोस के साथ उनके और उनकी माता जी के सम्बंध अब छुपे नहीं रह गये हैं। राहुल गांधी की सबसे अधिक विवादित मुलाकात डेमोक्रेट सांसद इल्हान उमर और प्रमिला जयपाल सहित विदेशी सरकारों के तख्ता पलट के विशेषज्ञ माने जाने वाले डोनाल्ड ब्लू से होती है जो बताती है कि राहुल गांधी के इरादे खतरनाक ही नहीं बहुत ही खतरनाक हैं।
राहुल गांधी प्रधानमंत्री का विरोध करते – करते अब देश का ही विरोध करने पर उतारू हो गये हैं। विश्लेषकों का अनुमान है राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा और उनकी बयानबाजी उन्हें ही भारी पड़ने वाली है जिसमें एक अहम मुद्दा आरक्षण का है। राहुल गांधी के आरक्षण समाप्त करने वाले बयान को बसपा नेत्री मायावती ने लपक लिया है और अब वह उसी को हथियार बनाकर हरियाणा व जम्मू कश्मीर सहित आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पर हमला करने जा रही हैं।
आश्चर्यजनक रूप से राहुल गांधी भारत के शत्रु देशों चीन और पाकिस्तान की निंदा नहीं करते, वह सीमा पार से चलाये जा रहे आतंकवाद का विरोध नहीं करते। राहुल गांधी का स्पष्ट विचार है कि 1947 से पहले भारत का अस्तित्व ही नहीं था। राहुल गांधी अमेरिका में जिस संगठन की ओर से कार्यक्रम आयोजित करते हैं वह सभी जार्ज सोरोस द्वारा पोषित संस्थाएं हैं। साफ है कि राहुल गांधी देश में अराजकता चाहते हैं। जब राहुल गांधी अमेरिका गये तब भारत में सुनियोजित तरीके से एक ही पैटर्न पर गणेशोत्सव पर हमले किये गये। राहुल गांधी अमेरिका में भाजपा व संघ की तुलना तालिबान से करते हुए हिंदुत्व पर प्रहार करते हैं ।
राहुल गांधी अपनी विदेश यात्राओं के दौरान हमेशा ही भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों के लिए खाद, पानी उपलब्ध कराते रहते हैं। राहुल गांधी जिस प्रकार चीन और पाकिस्तान की प्रशंसा के पुल बांधते हैं उससे एक बड़ा संदेह और भय पैदा होना स्वाभविक है। उनके मन में हिंदू और हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति जिस प्रकार की नफरत भरी हुई है वो बहुसंख्यक समाज के लिए चिंता का विषय है।
प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित
फोन नं.- 9198571540
भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.93 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जबकि, जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है एवं जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष बनी हुई है और जापान एवं जर्मनी की आर्थिक विकास दर लगभग स्थिर है अथवा इसके ऋणात्मक रहने की भी प्रबल सम्भावना है। इस दृष्टि से मार्च 2025 तक भारत जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं मार्च 2026 तक भारत जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हाल ही के समय में जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएं दृष्टिगोचर हैं, जिनके कारण इन दोनों देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले वर्षों में विपरीत रूप से प्रभावित रह सकती है।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लगातार 4 दशकों तक जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन में तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा। इस दौरान विनिर्माण इकाईयों के बल पर जर्मनी ने अपने आप को विश्व में विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया था एवं विभिन्न उत्पादों, विशेष रूप से कार, मशीनरी एवं केमिकल उत्पादों का निर्यात पूरे विश्व को भारी मात्रा में किया जाने लगा था। पिछले 20 वर्षों के दौरान जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन के विकास का इंजिन बना हुआ था। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकास कर रही थी अतः पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन, जर्मनी से लगातार मशीनरी, कार एवं केमिकल पदार्थों का भारी मात्रा में आयात करता रहा है। परंतु, अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने लगी है और चीन ने विभिन्न उत्पादों का जर्मनी से आयात कम कर दिया है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव भी जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है एवं अब पूरे विश्व में गैरवैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। आज प्रत्येक विकसित एवं विकासशील देश अपने पैरों पर खड़ा होकर स्वावलंबी बनना चाहता है। अतः जर्मनी जैसे देशों से मशीनरी एवं कारों का निर्यात कम हो रहा है साथ ही इन उत्पादों की तकनीकि भी लगातार बदल रही है जिसे जर्मनी की विनिर्माण इकाईयां उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान जर्मनी अर्थव्यवस्था में विकास दर हासिल नहीं की जा सकी है।
जर्मनी में सितम्बर 2023 माह में वोक्सवेगन (Volkswagen) कम्पनी ने अपनी दो विनिर्माण इकाईयों को बंद करने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी जर्मनी में 3 लाख से अधिक रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर उपलब्ध कराती है तथा अन्य लाखों नागरिकों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं। इस कम्पनी ने जर्मनी में अपनी विनिर्माण इकाईयों में उत्पादन कार्य को काफी हद्द तक कम कर दिया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से इस कम्पनी के उत्पादों की बिक्री लगातार कम हो रही है।
एक अनुमान के अनुसार जर्मनी अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 में भी कम होने जा रहा है, यह वर्ष 2023 में भी कम हुआ था और इसके वर्ष 2025 में भी सुधरने की सम्भावना कम ही दिखाई दे रही है। जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 के दौरान 0.1 प्रतिशत की कमी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी की दर भी 6.1 प्रतिशत के स्तर तक ऊपर जा सकती है। जर्मनी अर्थव्यवस्था केवल चक्रीय ही नहीं बल्कि संरचनात्मक क्षेत्र में भी समस्याओं का सामना कर रही है। इसमें सुधार की कोई सम्भावना आने वाले समय में नहीं दिख रही है। हालांकि यूरोपीयन यूनियन में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परंतु फिर भी भारत, उक्त कारणों के चलते, जर्मनी की अर्थव्यवस्था को मार्च 2026 तक पीछे छोड़ देगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।
इसी प्रकार, पिछले लगभग 30 वर्षों के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति, ब्याज दरें एवं येन की कीमत स्थिर रही है। परंतु, हाल ही के समय में येन का अंतरराष्ट्रीय बाजार में अवमूल्यन हो रहा है एवं यह 160 येन प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया है, जो वर्ष 2009 के बाद से कभी नहीं रहा है। जापान की अर्थव्यवस्था कई उत्पादों के आयात पर निर्भर करती है। जापान अपनी ऊर्जा की आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत एवं खाद्य सामग्री का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। जापान द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से जापान में भी आयातित मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है जो पिछले एक दशक के दौरान लगातार स्थिर रही है।
वर्ष 1955 से वर्ष 1990 के बीच जापान की अर्थव्यवस्था औसत 6.8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ती रही। वर्ष 1990 तक जापान का स्टॉक मार्केट लगातार बढ़ता रहा एवं अचानक वर्ष 1990 में यह बुलबुला फट पढ़ा और जापान में आवासीय मकानों की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई एवं व्यावसायिक मकानों की कीमत 85 प्रतिशत तक गिर गई। जापान के पूंजी बाजार में निक्के स्टॉक सूचकांक भी 75 प्रतिशत तक गिर गया।
जापान की अर्थव्यवस्था में तेजी के दौरान आस्तियों की बढ़ी हुई कीमत पर ऋण लिए गए थे परंतु जैसे ही इन आस्तियों की कीमत बाजार में कम हुई, नागरिकों को ऋणराशि की किश्तें चुकाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा और इससे भी जापान में आर्थिक समस्याएं बढ़ी थी। दिवालिया होने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ी और देश में अपस्फीति की समस्या प्रारम्भ हो गई थी। जापान की सरकार ने आर्थिक तंत्र में नई मुद्रा की मात्रा बढ़ाई और ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया।
प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – [email protected]
हिन्दी को समर्पित एक परिवार
हमारे देश में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था। इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को लेकर तमाम विद्वान, संस्थाएँ, सरकारी विभाग अपने स्तर पर कार्य कर रहे हैं। इन सबके बीच उत्तर गुजरात परिक्षेत्र, अहमदाबाद के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का अनूठा परिवार ऐसा भी है, जिनकी तीन पीढ़ियाँ हिंदी की अभिवृद्धि के लिए न सिर्फ प्रयासरत हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर कई देशों में सम्मानित हैं।
मूलत: उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जनपद निवासी श्री कृष्ण कुमार यादव के परिवार में उनके पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव के साथ-साथ पत्नी सुश्री आकांक्षा यादव और दोनों बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा भी हिंदी को अपने लेखन से लगातार नए आयाम दे रही हैं। देश-दुनिया की तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ श्री कृष्ण कुमार यादव की 7 और पत्नी सुश्री आकांक्षा की 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रशासनिक सेवा के दायित्वों के निर्वहन के साथ श्री कृष्ण कुमार यादव की ‘अभिलाषा’ (काव्य संग्रह), ‘अभिव्यक्तियों के बहाने’, ‘अनुभूतियाँ और विमर्श’ (निबंध संग्रह), ‘क्रांति यज्ञ : 1857-1947 की गाथा’, ‘जंगल में क्रिकेट’ (बाल गीत संग्रह) एवं ’16 आने, 16 लोग’ सहित कुल सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक – साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता व प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु शताधिक सम्मान प्राप्त श्री यादव को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और सिक्किम के राज्यपाल भी सम्मानित कर चुके हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में इस परिवार का नाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अग्रणी है। ‘दशक के श्रेष्ठ ब्लॉगर दम्पति’ सम्मान से विभूषित यादव दम्पति को नेपाल, भूटान व श्रीलंका में आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन’ में “परिकल्पना ब्लॉगिंग सार्क शिखर सम्मान” सहित अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है। जर्मनी के बॉन शहर में ग्लोबल मीडिया फोरम (2015) के दौरान ‘पीपुल्स चॉइस अवॉर्ड’ श्रेणी में सुश्री आकांक्षा यादव के ब्लॉग ‘शब्द-शिखर’ को हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में भी सम्मानित किया जा चुका है।
फिरदौस अमृत सेंटर स्कूल, कैंटोनमेंट, अहमदाबाद में अध्ययनरत इनकी दोनों बेटियाँ अक्षिता (पाखी) और अपूर्वा भी इसी राह पर चलते हुए अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई के बावजूद हिंदी में सृजनरत हैं। अपने ब्लॉग ‘पाखी की दुनिया’ हेतु अक्षिता को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2011 में सबसे कम उम्र में ‘राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। अक्षिता को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, नई दिल्ली (2011) में भारत के पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने ‘श्रेष्ठ नन्ही ब्लॉगर‘ सम्मान से अलंकृत किया, तो अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, श्रीलंका (2015) में भी अक्षिता को “परिकल्पना कनिष्ठ सार्क ब्लॉगर सम्मान” से सम्मानित किया गया। अपूर्वा ने भी कोरोना महामारी के दौर में अपनी कविताओं से लोगों को सचेत किया।
पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का कहना है कि, सृजन एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिंदी दुनिया की अग्रणी भाषाओं में से एक है। हिन्दी सिर्फ एक भाषा ही नहीं बल्कि हम सबकी पहचान है, यह हर हिंदुस्तानी का हृदय है। डिजिटल क्रान्ति के इस युग में हिन्दी में विश्व भाषा बनने की क्षमता है। वहीं, सुश्री आकांक्षा यादव का मानना है कि, हिंदी राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली तथा विभिन्न संस्कृतियों, विधाओं और कलाओं की त्रिवेणी है, जिसके साहित्य में समाज की विविधता, जीवन दृष्टि और लोक कलाएं संरक्षित हैं। आज परिवर्तन और विकास की भाषा के रूप में हिन्दी के महत्व को नये सिरे से रेखांकित किया जा रहा है।
हिंदी दिवस पर विजय जोशी को राज्य स्तरीय सम्मान
द बस्तर मड़ई में बिखरेगी बस्तर की बहुरंगी कला-संस्कृति की छटा
रायपुर 1 मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय ने अपने निवास कार्यालय 75 दिन तक मनाये जाने वाले देश के ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व के सफल आयोजन के सम्बन्ध में समीक्षा बैठक ली। उन्होंने इस दौरान बस्तर दशहरा पर्व की गरिमा के अनुरूप सफलतापूर्वक आयोजन के लिए सर्व संबंधितों को सौंपे गए दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन किये जाने के निर्देश दिए। उल्लेखनीय है कि 75 दिन तक चलने वाला बस्तर दशहरा पर्व हरेली अमावस्या के दिन पाट जात्रा पूजा विधान के साथ 4 अगस्त 2024 से शुरू हो गया है, जो कि 19 अक्टूबर 2024 तक मनाया जाएगा। यह दशहरा पर्व विभिन्न जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक भावना का महत्वपूर्ण प्रतीक है।
पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक महफ़िल हसन की जड़ें शेखावटी में थीं
एक दिया है जो अंधेरों में जला रखा है ………
यह ग़ज़ल अपनी जवानी के दिनों में हम सभी ने सुनी है और उसमें इश्क़ के बहुत सारे रंग देखे हैं. इस बेहतरीन ग़ज़ल को गायक मेहदी हसन ने युवाओं का गीत बना दिया था.
भारत और सीमा पार के जिन गायकों ने ग़ज़ल गायकी को बुलंदी पर पहुँचाया उनमें निस्संदेह एक अज़ीम नाम मेहदी साहब का भी है . उनकी गायी ग़ज़लों में लोग उन्हें इतना गहराई तक डूबा पाये हैं कि उसके शायर की जगह उसे मेहदी साहब की ग़ज़ल कहते हैं . जो लोग उन्हें पाकिस्तानी गायक समझते हैं उन्हें शायद ही पता हो कि उनकी जड़ें भारत और ख़ासकर राजस्थान की लोकगायकी में बसी हुई हैं.
फिर अचानक मेहदी हसन ल ने विशुद्ध क्लासिकल छोड़ ग़ज़ल गायकी को अपना अभिव्यक्ति माध्यम बना लिया पाकिस्तानी फ़िल्मों में गाया लेकिन वहाँ की फ़िल्म इंडस्ट्री बहुत छोटी थी , असली शोहरत मंच से मिली और और पूरे भारतीय उप महाद्वीप में उनकी गायकी गूंज उठी. उन्होंने मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे उस्ताद सूत्रों को तो गाया ही और फरहत शहज़ाद, सलीम गिलानी और परवीन शाकिर जैसे अपेक्षाकृत नए शहरों को भी अपनी गायकी में शामिल किया. उनकी प्रस्तुति में दो कला-विधाओं यानी शायरी और गायकी का चरम था उन्होंने अपने सुरों में ग़ज़लों को अलग ऊँचाई दी और अपनी परफॉरमेंस में रदीफ़-काफ़ियों ने नई नई पोशाकें पहनाईं .
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा
हिन्दी – कल आज और कल
भाषा आदमी को आदमी से जोड़ने का जरिया मात्र नहीं है, बल्कि भाषा हमारी भूतकालिक विरासत को संरक्षित भी करती है । ये भाषा का ही कमाल है कि शताब्दियों से लिखा गया चिंतन आज एक भाषिक विरासत की तरह हमें मार्ग-दर्शन दे रहा है। भाषा सामाजिक व्यवहारों पर निर्भर करती है। इसलिए इसमें बोलने वाले समूहों की जातिगत विविधता और उनकी संस्कृति अभिव्यक्ति पाती है।
हमारी ऐसी ही समर्थ भाषा है, इसने हमारी अभिव्यक्ति की भाषा, संपर्क भाषा, राज्य भाषा, राष्ट्र भाषा, टंकण और मुद्रण की भाषा, संचार की भाषा, कम्प्यूटर की भाषा का सफर तय करते हुए हमारी अस्मिता को विश्व के विशाल धरातल पर सुशोभित किया है।
इसकी धारा जनजीवन में सदा से प्रवाहित है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय ये समझ लिया गया था कि हिन्दी ही स्वाधीनता के पश्चात् अंग्रेजी का विकल्प हो सकती है। विशाल भारतीय जनसंख्या की भाषा होने के कारण भी राष्ट्रीय मुख्य धारा हिन्दी ही थी । फलतः 14 सितम्बर 1949 को देश की राजभाषा बनाने संबंधी अनुच्छेद स्वीकृत किये गये ।
‘हिन्दी’ शब्द का मूल अर्थ है – हिन्दी का भारत का अर्थात् भारतीय । जैसे जापान का जापानी, चीन का चीनी इसलिए तो एक गीत
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा में कहा गया है। “हिन्दी है हम, वतन है” । हिन्दोस्तां हमारा
यहाॅ ‘हिन्दी’ हैं हम
‘हम’ से तात्पर्य भारतीय है।
ये तो हम सभी जानते है कि आज जिसे हम मानक हिन्दी कहते है, वह खड़ी बोली का विकसित रूप है, इसे ‘कौरवी’ भी कहा जाता है। दिल्ली, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद के पूर्वी भागों में आज भी अपने मूल रूप में ये बोली जाती है। 14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरों ने हिन्दी की इसी खड़ी बोली में काव्य रचना की, इसलिए इन्हें हिन्द का तोता भी कहा जाता है। इनकी पहेलियाँ आपने भी शायद पढ़ी होंगी
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा । चरों ओर वह थाली फिरे, मोती उनके एक न गिरे । ।
यही खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का आधार है । हिन्दी शब्द का आरंभिक प्रयोग पंडित विष्णु शर्मा की पुस्तक ‘पंचतंत्र’ की भाषा के लिए हुआ। यह पुस्तक संस्कृत में लिखी गई थी पर इसका अनुवाद प्राचीन ईरानी में किया गया और पुस्तक की भूमिका में लिखा था- – यह अनुवाद जबाने हिन्दी से किया गया है। इस तरह जबाने हिन्दी ही हिन्दी भाषा बनी ।
यह खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का मूल आधार है । हिन्दी जब संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ प्रयुक्त हुई तो हिन्दी कहलायी और अरबी, फारसी शब्दों के साथ बोली गई तो उर्दू कहलायी। इस तरह हिन्दी और उर्दू एक मॉ की दो संतान है।
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि हमारी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहिन्दी भाषी भारतीय और अंग्रेजों का विशेष योगदान रहा सर्वप्रथम 1800 ईस्वीं के कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करने वाले एक अंग्रेज प्रो. गिल काईस्ट थे। उस समय नवागत अंग्रेज अफसरों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी । इस प्रशिक्षण में भारतीय भाषाओं की जानकारी भी शामिल थी पढ़ाने के लिए राम प्रसाद निरंजनी, लल्लू लाल और सदल मिश्र को नियुक्त किया गया। इन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी गद्य में पुस्तकें लिखी । अंग्रेजों के द्वारा
शुद्ध व्यावसायिक मुनाफे के लिए बिछाये गये रेलों के जाल से भी दूरगायी लाभ मिले। पहले से ही हिन्दी देश के बड़े भू-भाग की भाषा थी । रेल और यातायात के साधनों ने इसे फैलने में मद्द की । हिन्दी की राष्ट्रीय भूमिका को अहिन्दी प्रदेशी भारतीय नेताओं जैसे तिलक, गांधी, सुभाशचन्द्र बोस, अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने पहचाना। सन् 1883 में स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश” हिन्दी में लिखा ।
एंग्लो वैदिक कॉलेज में छात्रों के लिए हिन्दी पढ़ना अनिवार्य था । इस प्रकार हिन्दी अपने वूते संपर्क भाषा बनी। कश्मीर से कन्याकुमारी और कलकत्ता से कच्छ तक के भू-भाग के लोगों को आपस में जोड़ती है। इस विस्तार में हिन्दी के अनेक रूप रंग मिलते हैं ।
भाषा के लिए कहा गया है – “चार कोस में पानी बदले आठ कोस में बानी ।”
परिवर्तन सृष्टि का नियम है, जहाँ परिवर्तन है, वहाँ गति है और जहाँ गति है, वहाॅ जीवन । कहने का तात्पर्य है जीवंत भाषा अपने को उदार और उन्मुक्त बनाये रखती है। दूसरी भाषा के शब्दग्रहण करके उसे अपने स्वभाव का अंग बना लेती है। हिन्दी में ये विशेषता खूब रही है। विदेशी भाषा और अन्य भाषा के शब्द इसमें इतने अधिक रच बस गए हैं कि इन्हें छॉट कर अलग करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल अवश्य है ।
पारिभाषिक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, नये-नये शब्द आविष्कारों से संबंधित नये शब्द गढ़े जा रहे हैं, जो हिन्दी के विकास को गति दे रहे हैं । सबसे बड़ी बात चलन भी है, व्यवहार भी है, आज आप रिक्शेवाले या ऑटो वाले से कहें – लौहपथगामिनी स्थल ले चलिए तो वो पूछेगा – ये कौन सी जगह है? लेकिन रेल्वे स्टेशन कहने से वह झट से समझ जायेगा ।
हिन्दी व्यावहारिक शब्दों को समेटते हुए चल रही है। इस सन्दर्भ में पंडित गिरधर शर्मा ने म्या खूब कहा है-
हजारों लब्ज आयेंगे नये, आ जायें क्या डर है? पचा लेगी उन्हें हिन्दी, कि है जिन्दा जुंबा हिन्दी ।
शतरूपा हिन्दी के अनेक रूप हैं-जनभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क
भाषा, मशीनी भाषा, टकसाली भाषा । इन दिनों हिन्दी के एक और रूप की संभावना उभरी है यह नया रूप है हिन्दी विश्व भाषा या अंतर्राष्ट्रीय भाषा रूप। चूँकि हिन्दी विश्व के एक महानतम लोकतंत्र की भाषा है, इसलिए इस भाषा ने अनेक देशों को आकर्शित किया है। कुछ देश ऐसे हैं जहाॅ भारत के मूल निवासी बड़ी संख्या में बसे हैं, जैसे मारीशस, फ़ीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद । इसी तरह कुली मजदूर के रूप में विदेशों में गये भारत वांशियों ने अपने त्याग और तपस्या से हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना दिया है। उन्होंने अपने श्रम और साधना के बल पर अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर हिन्दी को जो गरिमा प्रदान की है, वह स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है ।
भूमंडलीकरण और निजीकरण के चलते आज पूरे विश्व की निगाह भारत पर है- क्योंकि भारत सबसे बड़ा बाजार है। एक विशाल उपभोक्ता क्षेत्र है । यही कारण है कि आज विदेशी कंपनियाँ प्रचार सामग्री हिन्दी में छपवाते हैं । आज टी.वी. के सारे चैनल हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं। बी. बी. सी. भी अपना वैज्ञानिक कार्यक्रम डिस्कव्हरी भी हिन्दी में प्रसारित कर रही है।
इन सबके बाद भी हमें यह ध्यान रखना है कि जैसे हमारा अपना संस्कार होता है, भाषा की भी संस्कृति होती है । भाषा के संस्कार शब्द के मूल अर्थ में होते हैं, जो उसकी आत्मा होती । आज हिन्दी साहित्य बोलचाल की सौम्य एवं अनुशासित भाषा से अलग ही तेवर में प्रयुक्त हो रही है। हिन्दी ‘आप’ पर
‘तू’ भारी हो गया है, मुझे-तुझे का स्थान मेरे को तेरे को ने ले लिया है।
इसके अलावा अपून तो यहीच्च रहना मांगता: कट ले, कल्टी कर ले, तेरी तो वॉट लग गई जैसे जूमले लोगों की जुबान पर चढ़ गये हैं ।
विकास, परिवर्तन और गति यही जीवन है, पर विकास हो, विनाश नही । आज भाषा को ध्वनि संकेत एस. एम. एस. के प्रतीकों में सीमित कर महज एक यांत्रिक उत्पाद में बदल दिया गया है- एक विज्ञापन में कहा जाता है न ” कर लो दुनिया मुट्ठी में” सही है, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के जरिये कर लिया आपने दुनिया मुट्ठी में । सिमट गई दुनिया मुट्ठी में पर बिखर गई दूरियाँ दिलों की, संवेदनाओं की । मेरी मतलब भाषा के संक्षिप्तीकरण से है ।
अब चूँकि भाषा संप्रेषण का माध्यम है- साथ ही गतिशील है, इसलिए परिवर्तन जरूरी है, पर ध्यान रहे, परिवर्तन की इस प्रक्रिया में उसका मूल स्वरूप उसकी आत्मा बरकरार रहे, हिन्दी का शुद्ध और परिनिष्ठित रूप भी बना रहे। भाषा तो वही होनी चाहिए न जो मुझ तक आपकी बात या मेरी बात आप तक इस तरह पहुॅचा दे कि वो आपकी अपनी बात बन जाये
देखिए गुफतार की खूबी, कि जो उसने कहा।
हमने ये समझा कि, गोया वो मेरे दिल में था । ।
केवल हिन्दी ही होनी चाहिए भारत की राष्ट्रभाषा
भाषाओं की मर्यादाएँ, सीमाएँ न केवल संवाद की मध्यस्थता तक हैं बल्कि राष्ट्र के समृद्ध सांस्कृतिक वैभव का परिचय भी भाषाओं के उन्नयन से ही होता है। जिस तरह समग्र विश्व में आज भारत की पहचान में तिरंगा, राष्ट्रगान वन्दे मातरम और राष्ट्रगीत जन-गण-मन है, उसी तरह भारत का भाषाई परिचय हिन्दी से होता है, और होना भी हिन्दी से ही चाहिए क्योंकि जनगणना 2011 के शासकीय आँकड़ों के आलोक में देश की लगभग 59 प्रतिशत आबादी प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय भाषा के रूप में हिन्दी बोलती, सुनती और समझती है।
अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति हिन्दी की तुलना में आधी भी नहीं है। साथ ही, वैश्विक भाषा का ढोल पीटने वाली अंग्रेज़ी भाषा की स्थिति भी भारत में 7% तक भी नहीं है। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक होने के बावजूद भी आज तक हिन्दी महज़ राजकार्य की भाषा यानी संवैधानिक दृष्टि से केवल राजभाषा के रूप में विद्यमान है।
जिस तरह एक राष्ट्र के निर्माण के साथ ही ध्वज, पक्षी, खेल, गीत, गान और चिह्न तक को राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर संविधान सम्मत बनाने और संविधान की परिधि में लाने का कार्य किया गया है तो फिर भाषा क्यों नहीं?
किसी भी राष्ट्र में जिस तरह राष्ट्रचिह्न, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु की अवहेलना होने पर देशद्रोह का दोष लगता है परन्तु भारत में हिन्दी के प्रति इस तरह का प्रेम राजनैतिक स्वार्थ के चलते राजनीति प्रेरित लोग नहीं दर्शा पाए, उसके पीछे मूल कारण में तात्कालीन राजनीतिक दल के दक्षिण के पारंपरिक वोट बैंक टूटना भी है, परंतु अब हालात बदले हैं।
हाशिए पर आ चुकी बोलियाँ जब केन्द्रीय तौर पर एकीकृत होना चाहती हैं तो उनकी आशा का रुख सदैव हिन्दी की ओर होता है, हिन्दी सभी बोलियों को स्व में समाहित करने का दंभ भी भरती है, साथ ही, उन बोलियों के मूल में संरक्षित भी होती है। इसी कारण समग्र राष्ट्र के चिन्तन और संवाद की केन्द्रीय भाषा हिन्दी ही रही है।
विश्व के 178 देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है, जबकि इनमें से 101 देश में एक से ज़्यादा भाषाओं पर निर्भरता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि एक छोटा-सा राष्ट्र है ‘फ़िज़ी गणराज्य’, जिसकी आबादी का कुल 37 प्रतिशत हिस्सा ही हिन्दी बोलता है, पर उन्होंने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को घोषित कर रखा है। जबकि हिन्दुस्तान में 50 प्रतिशत से ज़्यादा लोग हिन्दीभाषी होने के बावजूद भी केवल राजभाषा के तौर पर हिन्दी स्वीकारी गई है।
राजभाषा का मतलब साफ़ है कि केवल राजकार्यों की भाषा।
आखिर राजभाषा को संवैधानिक आलोक में देखें तो पता चलता है कि ‘राजभाषा’ नामक भ्रम के सहारे सत्तासीन राजनैतिक दल ने अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। उन्होंने दक्षिण के बागी स्वर को भी समेट लिया और देश को भी झुनझुना पकड़ा दिया।
राजभाषा बनाने के पीछे सन् 1967 में बापू के तर्क का हवाला दिया गया, जिसमें बापू ने संवाद शैली में राष्ट्रभाषा को राजभाषा कहा था। शायद बापू का अभिप्राय राजकीय कार्यों के साथ राष्ट्र के स्वर से रहा हो परन्तु तात्कालीन एकत्रित राजनैतिक ताक़तों ने स्वयं के स्वार्थ के चलते बापू की लिखावट को ढाल बनाकर हिन्दी को ही हाशिए पर ला दिया। किंतु दुर्भाग्य है कि हिन्दी को जो स्थान शासकीय तंत्र से भारत में मिलना चाहिए, वो कृपापूर्वक दी जा रही खैरात है। हिन्दी का स्थान राष्ट्र भाषा का होना चाहिए न कि राजभाषा का ।
जब अखिल विश्व में हिन्दुस्तानी प्रतिभा का लोहा माना जा रहा हो, राष्ट्राध्यक्षों की आँखें हिन्दुस्तान की ओर उम्मीद से देख रही हों, विश्व के तमाम बड़े व्यापारी भारत की ओर उम्मीद भरी टुकटुकी नज़रों से व्यवसाय की समृद्धता देख रहे हों, राष्ट्र में शासन करने वाले ही हिन्दी के समर्थक हों, उसके बाद भी हम अभी तक अपने देश में अब तक संवैधानिक रूप से अपनी ही भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं कर सके, यह दुर्भाग्य है।
जबकि स्वतंत्र भारत की पहली संविधान सभा ने मात्र 15 वर्षों के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का निश्चय किया था और यह इसीलिए ताकि देश में हिन्दी का ज्ञान और प्रचलन व्यापक रूप से हो सके, तथा नौकरशाही हिन्दी सीख सकें परन्तु इस घोषित लक्ष्य को पूरा करने या क्रियान्वित करने की दिशा में शासन की ओर से कोई पहल नहीं हुई।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की कल्पना महात्मा गांधी ने की थी। अंग्रेज़ी भाषा में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, परन्तु वे राष्ट्र के विकास में राष्ट्रीय एकता में राष्ट्रभाषा के महत्त्व को समझते थे और उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पीछे जो तर्क दिये थे, उसमें सबसे मज़बूत तर्क देश में हिन्दी का व्यापक जनआधार होना था। गांधी जी का कहना था कि जो भाषा देश में सर्वाधिक बोली या समझी जा सकती है, वह हिन्दी है, और हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने से
महात्मा गांधी ने इन्दौर से संकल्प लेकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था, फिर राष्ट्रभाषा के प्रचार का काम शुरु किया था, तो उसकी शुरुआत दक्षिण और तमिलनाडु से की थी। परन्तु अब तमिलनाडु के शासक अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दी के प्रयोग के विरोध में हैं, हालांकि दूसरा पक्ष यह भी है कि दक्षिण की जनता हिन्दी विरोधी मानसिकता की नहीं है। दक्षिण में हिन्दी फ़िल्में और हिन्दी गानों का चलन बहुतायत में है। हिन्दी फ़िल्मों के नायक भी वहाँ काफ़ी प्रशंसा और लोकप्रियता पाते हैं।
स्व. डॉ. लोहिया ने जब अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन का सूत्रपात किया था तो उनका भी यह कहना था कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषायें परस्पर बहने हैं, राज्यों का कामकाज राज्य भाषा में हो और देश में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में काम का आधार बने। उनका नारा था, ’’अंग्रेज़ी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा, चले देश में देशी भाषा।’ डॉ.लोहिया अंग्रेज़ी को साम्राज्यवाद और शोषण की भाषा मानते थे और यह निष्कर्ष तथ्यपरक भी है।
आज भी अंग्रेज़ी देश में विषमता की भाषा है तथा देश के बहुसंख्यक लोगों का इसलिये शोषण हो पाता है क्योंकि वे अंग्रेज़ी नही जानते। देश की अदालतों में और शासकीय दफ़्तरों में इसलिए लुटना पड़ता है, क्योंकि वहाँ अंग्रेज़ी चलती है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अदालतों की भाषा अंग्रेज़ी है, कानून अंग्रेज़ी में, सरकारी आदेश अंग्रेज़ी में होते हैं और इसलिए भारत का नागरिक उस अंग्रेज़ी का शिकार और शोषित होता है।
अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही है? इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। हमारा देश कुछ मामलों में बड़ा स्वपनदर्शी और भावुक भी है। अगर हमारा कोई शासक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी बोल दे तो हम इसे शासक का दायित्व नहीं बल्कि एक ऐसी महान घटना के रूप में देखते हैं जैसे शासक ने भारत के ऊपर कोई कृपा कर दी हो। इतने ही मात्र से हम उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शुरु कर देते हैं, और यह प्रश्न पूछना भूल जाते है कि अगर वे मानते हैं कि हिन्दी का प्रयोग करना शासक और शासन का नितांत आवश्यक गुण है तो फिर अपने देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बनाते? दरअसल, हमारे देश के शासकों में संकल्प शक्ति का बड़ा अभाव रहा है। राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण अब तक हिन्दी अभागन की तरह राष्ट्र के मुकुट के रूप में स्थापित नहीं हो पाई है।
हाँ! हम भारतवंशियों को कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई राष्ट्रभाषा की, परन्तु जब देश के अन्दर ही देश की राजभाषा या हिन्दी भाषा का अपमान हो, तब मन का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च न्याय मंदिर ने एक आदेश पारित किया है कि न्यायालय में निकलने वाले समस्त न्यायदृष्टान्त व न्यायिक फ़ैसलों की प्रथम प्रति हिन्दी में दी जाएगी, परन्तु 90 प्रतिशत इसी आदेश की अवहेलना न्यायमंदिर में होकर सभी निर्णय की प्रतियाँ अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और यदि प्रति हिन्दी में माँगी जाए तो अतिरिक्त शुल्क जमा करवाया जाता है।
दक्षिण में हिन्दीभाषियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार भी सार्वभौमिक हैं। साथ ही, कई जगहों पर तो हिन्दी साहित्यकारों को प्रताड़ित भी किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में कानून सम्मत भाषा अधिकार होना यानी राष्ट्रभाषा का होना सबसे महत्त्वपूर्ण है ।
कमोबेश हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर सत्ता से आशा ही की जा सकती है कि वे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए, संस्कार सिंचन के तारतम्य में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर इसे अनिवार्य शिक्षा में शामिल करें। इन्हीं सब तर्कों के संप्रेषण व आरोहण के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सूर्य देखने को मिलेगा और देश की सबसे बड़ी ताक़त उसकी वैदिक संस्कृति व पुरातात्विक महत्त्व के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम जीवित रहेगा।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
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[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]