रचनाकार अपने संचित और परिवेश से अर्जित अनुभवों से रचनात्मकता को विकसित ही नहीं करता वरन् उसे संरक्षित भी करता है। इस माने में कि उनका यह भाव और स्वभाव ही उनके सामाजिक सरोकारों को परिलक्षित करता है जो उनके निरन्तर लेखन का द्योतक है।
इन्हीं सन्दर्भों को अपने भीतर जागृत करते हुए अपने रचनाकर्म में सतत् रूप से सक्रिय “राजस्थान के साहित्य साधक” अक्षरों की आराधना करते हुए जीवन मूल्यों, सांस्कृतिक परिवेश और मानवीय चेतना से संदर्भित सशक्त रचनाओं को रचित कर सामाजिक समरसता और समन्वय को स्थापित, विकसित और पल्लवित करने में सतत् रूप से समर्पित होकर अपनी सृजन यात्रा कर रहे हैं। इस यात्रा में लोक-मंगल की भावना तो अंतर्निहित है ही साथ ही मानवीय संवेदना का उजास एवं गंभीर चिंतन और मनन का अनुनाद भी है।
इस अनुनाद को आत्मसात् किया लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने जो अपने रचनात्मक दृष्टिकोण से अपने लेखन कर्म के प्रति सजग और चेतन होकर निरन्तर इस सृजन यात्रा में सहभागी बने हुए है। सृजन सहभागिता का उनका यह पड़ाव ” राजस्थान के साहित्य साधक ” ऐसा पड़ाव है जहाँ सृजनशील व्यक्तित्व के कृतित्व की आभा अपने समय को समझने की अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है।
लेखक ने अपनी अन्तर्दृष्टि से इन साहित्यकारों की अभिव्यक्ति के बाह्य और आंतरिक पक्ष को सूक्ष्म रूप से उभारते हुए उनके कृतित्व को अनुसंधनात्मक स्वरूप प्रदान किया है। इस माने में भी कि उल्लेखित साहित्यकारों के लेखन की विविध विधाओं को उन्होंने अपनी मौलिक सोच और गहरी विश्लेषणात्मक दृष्टि से परखा है। यह वह परख है जो सृजन के प्रभाव और स्वभाव को
परिवर्तित होते मूल्यों के साथ समय के सच का खुलासा करती है और रचना में समाहित संवेदना और उभरी शैलीगत विशेषता को विवेचित करती है।
लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने अपने संचित और अर्जित कौशल से सदैव की भाँति इन आलेखों में साहित्यकारों के प्रारम्भिक लेखन, उसका विकास, विधा, भाषा, शैली, विषयवस्तु , विशेषता तथा सृजन की सामाजिक उपयोगिता को तो उभारा ही है साथ ही साथ उनके लेखन का मर्म और सृजन के सामाजिक सरोकारों का भी विश्लेषण किया है। यही नहीं लेखक ने अपनी
समीक्षात्मक दृष्टि से साहित्यकारों की विविध विधाओं की रचनाओं का समुचित उल्लेख करते हुए रचना के भीतर के तत्वों को विश्लेषित किया है और अन्त में उनके व्यक्तित्व को संक्षेप में उभारा है।
कृति में उल्लेखित सृजनधर्मियों के सृजित साहित्य के पठन से यह ज्ञात होता है कि – ‘ जीवन की मीठी चुभन जो लिखने की प्रेरणा देती है’ उसी से सृजन का पथ दिग्दर्शित होता चला जाता है। तब कहीं जाकर ‘ बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा’ और वे ही अपने सृजन से ‘ साहित्य पटल पर ध्रुव तारे से अटल’ हो जाते हैं। जिनके ‘ सृजन से गूंजते हैं लोक मंगल के स्वर’…,जिनके ‘ सृजन में मुखर है लोक जीवन’ जो ‘ माटी की सुगंध को महका रहे हैं।’ ऐसे में ‘ इंसानियत और सत्कर्म का संदेश देते रचनाकार’ ही ‘समाज को आइना दिखाता सृजन’ करते हैं और ‘ राष्ट्रवादी सृजन के पैरोकार’ बनते हैं। तभी ‘ भारतीय चिंतन से प्रेरित सृजन’ उभर कर दिशाबोध प्रदान करता है।
‘ सकारात्मक सोच को विकसित करता सृजन’ ‘ समाज की सच्चाई उजागर कर आँखें खोलता सृजन’ ही नहीं है वरन् ‘ आध्यात्म और राष्ट्र प्रेम की गंध से महकता सृजन’ तथा ‘ प्रेम और अध्यात्म से महकता सृजन’ भी है तो ‘ मानवीय संवेदनाओं से महकता सृजन’ भी है। इसीलिए तो इनके ‘सृजन के केंद्र में है सामाजिक सरोकार’ जो ‘ मीठी मार कर वर्तमान का आइना दिखाती व्यंग्य रचनाएं ‘ को भी समाहित किये है। इस लिए भी कि ‘ समाज का दर्पण हैं काव्य और व्यंग्य रचनाएँ ‘। यही नहीं ‘ जीवन के दर्द से लय मिलाता सृजन’ भी है तो ‘ प्रकृति से श्रृंगारित रचनाओं में बहती प्रेम की निश्चल धारा’ भी है। साथ ही ‘ प्रेम और सद्भावना के रंग में रंगी रचनाएँ ‘, ‘मानवता और प्रेम का संदेश देती रचनाएँ ‘ भी हैं। ये रचनाएँ ‘विषमता में धैर्य से जीना सिखाती रचनाएँ ‘ तो हैं ही साथ ही ‘ समाज को जाग्रत करती दिल को छू लेने वाली रचनाएं’ भी हैं ।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ‘ समाज को चेताती रचनाएं ‘ एवं ‘ आशाओं का संचार करती रचनाएं ‘ और अपने भीतर ‘ दर्शन और अध्यात्म के कैनवास पर उभरती रचनाएं ‘ एवं आध्यात्म की धारा से मुखर रचनाएं ‘ भी प्रमुखता से उभर कर सामने आयी है तो वर्तमान समय में अत्यावश्यक ‘ श्रीमद् भागवद् गीता की शिक्षाओं को सहज रूप से पाठक तक पहुंचाता सृजन’ भी सामने आया है। यही कारण है कि इन रचनाओं में ‘ आध्यात्मिक संचेतना के उभरते स्वर’ ध्वनित होते हैं तथा ‘ सृजन गंगा- सी बहती इन्द्रधनुषी काव्य धारा’ दिग्दर्शित होती है और ‘ लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती, दिल को छू लेने वाली कहानियाँ संवाद स्थापित करती हैं।
‘ समाज और शासन को आइना दिखाता सृजन’ जब सामने आता है तो ‘ तीखे तेवर अनूठी अभिव्यक्ति कहने का अपना अंदाज़ ‘ लिये इन रचनाकारों में ‘क्षणों से मुस्कान बिखेरते रचनाकार’… ‘ जन सरोकार के रचनाकार’… ‘माँ भारती के लोकमंगल के रचनाकार’ सामने आते हैं तो ‘ प्रेम और प्रकृति चित्रण की रचनाकार ‘ भी हैं, जिनके रचनाकर्म से ‘आधी दुनिया महिलाओं की पीड़ा को उभारता सृजन’ भी सामने आया है। यही नहीं ‘सृजन में उभरती उदात्त प्रेम की परिभाषा ‘ ‘ नारी अस्मिता और स्वतंत्रता को समर्पित सृजन’ का वितान भी खड़ा करती है। जहाँ ‘ बाल मन को आधुनिकता से जोड़ता सृजन’ सहजता से उभर कर सामने आ जाता है।
‘ सृजन का मर्म सबसे बढ़ कर इंसानियत’ का संदेश अपने सृजन में उभारते ऐसे ‘ बहुआयामी साहित्य सृजन के शिल्पी’… अपने सृजन से ‘ आलोचना, लघुकथा और व्यंग्य में पहचान के…तथा ‘ अनुवाद और आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर’ के रूप में स्थापित हैं। वहीं ‘ राजस्थानी मायड़ भाषा को मान दिलाने के लिए कटिबद्ध’ भी हैं। कदाचित् इसलिए भी कि ‘ मातृ भाषा में लिखने का आनंद ही कुछ और है’।
इन रचनाकारों ने ‘ देश के आंचलिक रचनाकारों में पहचान बनाई ‘ वहीं बाल साहित्य में नाम तथापि हिंदी साहित्य में पहचान ‘ भी स्थापित की। साथ ही ‘अनुवाद और संपादन में’ प्रसिद्ध ‘ होकर गीतकार के रूप में पहचान बनाई’। इसी के साथ- साथ राजस्थानी लेखन को समर्पित साहित्यकारों के ‘राजस्थानी गीतों ने देशभर में पहचान बनाई ‘। यही नहीं ‘ लोक जीवन की धड़कनों से सुगबुगाती दिल छू लेने वाली कहानियाँ ‘ भी सामने आयीं।
ऐसे बहुआयामी रचनाकारों ने ‘ मानवीयता के स्वप्न की सुलगती धीमी लौ…’ की तपन से ‘नई सोच, नए कलेवर से सृजन को दिए नए आयाम’ तभी तो ‘ आशा की किरणें बिखेरती रचनाएँ ‘ सामने आयी। ऐसी रचनाएँ जब पुस्तकाकार रूप में सामने आती हैं तो प्रेरणात्मक दिशाबोध प्रदान करती है। इस माने में कि ‘ किताबों से मिलता है नया जीवन ‘। ऐसे सशक्त रचनाकारों के कृतित्व और ‘ कृतियों की जितनी आलोचना होगी बात दूर तक जाएगी’ ….।
बात दूर तक ले जाने के लिए विचार अपनी यात्रा करता है। यह वही विचार होता है जो सृजन के साथ उभरता भी है और अभिव्यक्त होकर असर भी डालता है। इस कृति के उल्लेखित साहित्यकारों ने अपने विचारों के माध्यम से सृजन के विभिन्न पक्षों को उभारा है और सृजन संस्कारों की मूल संवेदना को एक दिशा देने के रूप में बेबाकी से अभिव्यक्त किया है।
इस माने में कि “कहीं भी रहो अपनी संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं को कभी नहीं भूलो। महिलाएं खूब पढ़े लिखे पर पर कभी घमंड नहीं करें। इस वजह से बहुत से घर टूट जाते हैं। छोटी – छोटी बातों पर कलह और तलाक जैसी स्थिति नहीं आनी चाहिए। स्त्री को स्वभाव में प्यार, माफी और विनम्रता को नहीं छोड़ना चाहिए। जब ये सब खो बैठती है तो जीवन नष्ट हो जाता है। मातृ भाषा और देश को नीचा दिखाने के वे सख्त खिलाफ है। हजारों सालों तक हमारे देश ने कई तकलीफें सही है। फिर भी हमारा देश और संस्कृति अजर अमर है। इस बात को युवाओं को समझना होगा और इस संस्कृति को आगे तक ले जाना होगा। बचपन में सुनी हुई लोक कथा और लोक गीतों से उन्हें जीवन में काफी कुछ सीखने को मिला है। इसलिए इनसे ना केवल शिक्षा मिलती है बल्कि समझ में भी बढोतरी होती है।” (किरण खेरुका) क्योंकि “कहानियाँ पढ़कर ही बच्चें और युवा पीढ़ी संस्कारित हो सकती है अत: आवश्यकता है कि उन तक सत्साहित्य पहुंचे।” (डाॅ. अखिलेश पालरिया) सत्साहित्य में ही संस्कृति और संस्कारों और आध्यात्मिकता से साक्षात्कार होता है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि “अध्यात्म भारतीय दर्शन का मुख्य केंद्र रहा है और हमारी संस्कृति विश्व में अध्यात्म की कहीं ना कही मुख्य भूमिका रखती है।” (किशन प्रणय)
तथापि “पुस्तकें, पुरस्कार व कुछ साहित्यकारों की मेज तक पहुँचकर रह जाती है, जबकि जिनके लिए साहित्य लिखा जाता है, वहां पहुँचता ही नही है। समाज में व्याप्त बुराइयां व नियोजित संदेश उनके पास जाना चाहिए, चाहे वो विद्यालयी छात्रों द्वारा ही हो, इसके लिए बच्चों की मानसिकता को देखते हुए बाल साहित्य पर भी काम हो, कवि इसमें रुचि रखता भी है। शिक्षा व स्कूल से जुड़े रहने की वजह से लेखक समाज से दूर नही है, लेखन की ऊर्जा व विषयवस्तु छात्र-छात्राओं सहित आसपास की प्रकृति से मिलती है।” (नंदू राजस्थानी) रचनात्मकता प्रकृति के सान्निध्य में ही समृद्ध होती है। क्योंकि “व्यक्ति कोई भी हो थोड़े या थोड़े से कुछ अधिक एक कवि या लेखक हृदय जरूर रखता है। विचारों का अंतर्द्वंद चलता रहता है। स्मृतियों और वर्तमान का चिंतन और विश्लेषण चलता रहता है। कोई अभिव्यक्ति का माध्यम बना लेता है और भावनाओं को कविता में ढाल देता है।” ( डॉ.प्रीति मीना)
भावनाओं को शब्द प्रदान करना एक लेखक बखूबी जानता है। तथापि ” लेखकों का जीवन विडंबना से मुक्त नहीं होता। यह नितांत एकान्तिक कर्म किसी भी स्तर पर सामूहिक गतिविधि नहीं है। हर लेखक या लेखिका के लेखन में उसका निजत्व बड़ी मात्रा में होता है। किसी भी लेखक के लिए सुरक्षा या सुरक्षित होने का भाव एक मंद विष है। लेखक में जितनी बेचैनी होगी, जितनी ज्यादा असुरक्षा की भावना होगी, जितना ज्यादा वह हाशिये पर होगा, जितना अधिक वह उपेक्षित होगा उसके लेखन में धार उतनी ही अधिक होगी। आज के युवा लेखक – लेखिकाएं मठाधीशों की बिलकुल परवाह नहीं करते। और, यही व्यवहार इन लोगों के साथ होना भी चाहिए। दुनिया में बदलाव लाने की संभावना हमेशा युवा पीढ़ी से होती है। इनसे उम्मीद होती है कि जो काम पिछली पीढ़ियाँ नहीं कर पाईं उसे ये कर सकेंगे। हमें युवा पीढ़ी को बहुत तेज़ी से आगे लाना होगा।” (राजेंद्र राव)
यह युवा जब साहित्य के पथ पर यात्रा करते हैं तो उन्हें इस पथ पर पड़ने वाले पड़ावों से भी वरिष्ठ साहित्यकार ही परिचित कराते हैं। उनका लेखन और अभिव्यक्त विचार इस पीढ़ी को संस्कारित करने हेतु प्रेरित करते हैं। यही नहीं सचेत करते हुए अपने इस रचनात्मक परिवेश को समझने और परखने का अवसर भी देते हैं कि “साहित्य में हम जिन्हें उपलब्धियां मानकर चल रहे हैं उसके बहुत सारे कारक पुरस्कृत होना, सम्मान पाना, सरकारी समितियों में दाख़िल होना, विदेश यात्राएं करना आदि हैं। जो हमारे बड़े-बड़े हस्ताक्षर हैं, जिनके लेखन पर हम गर्व भी करते हैं या उनका उल्लेख बार-बार करते हैं, उन्हें अपना प्रतिमान मान लेते हैं, हम दिल में जान लेते हैं कि वे अपनी निजी जिंदगी और अपने लेखकीय–कर्म में जिस तरह की राजनीतिक जोड़-तोड़ करते हैं उससे हिंदी साहित्य में गिरावट आई है और पाठकों का पलायन हुआ जबकि क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को लगातार बढ़त मिली है।
उड़िया, असमिया या जो ऐसे छोटे प्रदेशों की भाषाएँ हैं, उनमें पाठकों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती आई है। हिंदी का ऐसा दुर्भाग्य है कि हमने पठन-पाठन की संस्कृति को विकसित करने में योगदान नहीं दिया। सौभाग्य से कुछ पाठक बचे हैं। पाठक शून्य तो न कोई भाषा होती है और न ही समाज होता है। पाठकों की जो घटती संख्या की बात थी वह इस लिहाज से कि हिंदी विश्व की दो सबसे बड़ी भाषाओं में से एक है जिसे साठ-पैंसठ करोड़ लोग व्यवहार में लाते हैं, बोलते हैं। इतनी बड़ी भाषा में किताबों का पहला संस्करण ढाई-तीन सौ प्रतियों का छपे और चार साल में बिके तो यह बहुत ही दयनीय स्थिति है।
वह किताब जिसका संस्करण तीन सौ प्रतियों का छपा है उस पर लेखक को ग्यारह लाख का पुरस्कार मिल जाए पर उसे ग्यारह सौ की रायल्टी मिल जाए इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं होती। कौन-सा पुरस्कार है जो हिंदी में बगैर तिकड़म के मिल जाता है। जिनको मिला है या मिलने वाला है या जो समितियों में हैं वे भले ही ऊपरी तौर पर कह दें कि सारे निर्णय मेरिट के आधार पर लिए जाते हैं, मगर क्या यह सच है ? हम अपने दिल से पूछते हैं तो आवाज़ नहीं आती। तो, यह एक अजीबोगरीब स्थिति है कि इतनी बड़ी भाषा का साहित्य ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जिसमें सबसे ज्यादा दुर्गति और दयनीय दशा लेखक की होती है। उसके दो चेहरे हैं। एक बहुत सम्मानित है जिसे माला पहनाई जाती है, प्रशस्ति-पत्र दिए जाते हैं, पुरस्कार दिए जाते हैं, फ़्लैश बल्ब चमकते हैं, हाइलाइट होता है वह। बड़े सम्मान से उसे टी वी चैनेल्स पर बुलाया जाता है। उसी व्यक्ति का दूसरा चेहरा है जो दयनीय है, जो गिड़गिड़ाता है, पुरस्कार समितियों में जोड़-तोड़ फिट करता है, प्रकाशकों के पीछे पड़ता है कि मुझे पैसा ज़रूरत के लिए नहीं, सम्मान के लिए चाहिए। हम किस दुनिया में जी रहे हैं ? किस आत्मप्रवंचना में जी रहे हैं ?” (राजेंद्र राव)
यह कतिपय ऐसे सन्दर्भ हैं जिनसे लेखकीय दायित्व का बोध होता है और सृजनरत पीढ़ी को रचनात्मक संस्कृति की वास्तविक ध्वनि का नाद सुनाई पड़ता है। वह नाद जो साहित्य और साहित्यकार के भीतर संस्कारित और प्रकृति प्रदत्त रचनाशीलता के सकारात्मक पहलुओं को उजागर कर सदैव सावचेत रखता है।
यह लेखक लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की कर्मठता और पत्रकारिता के मध्य यात्रा करती उस अनुसंधानात्मक लेखकीय प्रवृत्ति का परिणाम है कि उन्होंने साहित्य साधकों से साहित्यिक परिवेश की पड़ताल करने और उसको अभिव्यक्त कर पाने का अवसर लिया और आलेखों की रचनात्मक ऊर्जा को साधे रखा।
लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की यह कृति उनके कला, संस्कृति और साहित्य की साधना का वह उजास जो उनके भीतर संरक्षित, पल्लवित और विकसित रचनात्मक परिवेश से सृजित हुई है, जिसमें साहित्य कर्म और मर्म से समृद्ध राजस्थान के ऐसे प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपने रचनाकर्म से राष्ट्रीय ही नहीं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाकर साहित्य और सृजन की मूल संवेदना को स्थापित कर महती योगदान दिया है। ऐसे साहित्य साधकों पर सृजित यह ग्रंथ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इन सभी ने लोकमंगल की भावना से अपने सृजन को समृद्ध कर उभरती प्रतिभाओं को भी दिशाबोध प्रदान किया है। इस कृति में राजस्थान वासी और प्रवासी साहित्यकारों के कृतित्व पर शोधात्मक और विवेचनात्मक आलेखन है जो इस कृति को एक सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में सामने लाता है। यह ग्रंथ समृद्ध सृजन परम्परा को तो उल्लेखित करता ही है साथ ही साथ साहित्यिक क्षेत्र में अध्ययनरत शोधार्थियों के लिए अनुशीलन का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
लेखक की यह कृति “राजस्थान के साहित्य साधक” लेखन परम्परा का वह पड़ाव है, जो राजस्थान के साहित्यकारों की गहन संवेदना और उसके रचाव को उद्घाटित करता है। यह वह रचाव है जो इन साहित्यकारों ने राजस्थान की धरा पर ही नहीं उकेरा वरन् अपने प्रवास की धरती के आँगन को भी स्पन्दित किया है। यह स्पन्दन वरिष्ठ लेखकों के साथ- साथ नवोदित सृजनकर्मियों के साथ ध्वनित होता हुआ रचनात्मक संस्कारों को अनुनादित करता है और साहित्य के विविध आयामी सन्दर्भों में सृजनात्मक वैशिष्ट्य को प्रतिपादित तो करता ही है, उल्लेखित साहित्यकारों के सृजनामक योगदान को समझने और परखने का अवसर भी प्रदान करता है। पुस्तक में राजस्थान के प्रसिद्ध 62 साहित्यकार शामिल हैं जिनमें 11 प्रवासी साहित्यकार हैं। आवरण पृष्ठ बहुत सुंदर है।
पुस्तक : राजस्थान के साहित्य साधक
लेखक : डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर
मूल्य : 750₹
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समीक्षक
विजय जोशी
174 – बी, आरकेपुरम, सेक्टर बी,
कोटा-324010 (राजस्थान)