Sunday, November 24, 2024
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भारत फिर चला चंद्रमा की यात्रा परः इस बार चंद्रमा की यात्रा कर वापस लौटने की भी तैयारी

कैबिनेट ने चंद्रयान-1,2 और 3 की श्रृंखला में अगले कदम के तहत चंद्रयान-4 मिशन के लिए मंजूरी दी

चंद्रयान -3 की सफलता के बाद, इस बार चंद्रमा मिशन, चंद्रमा से पृथ्वी पर वापस आने के लिए प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करेगा और चांद से नमूने भी लाएगा

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने चंद्रयान-4 नामक मिशन को मंजूरी दे दी है, जिसका मकसद चांद पर सफलतापूर्वक उतरने के बाद, पृथ्वी पर वापस आने में प्रयोग होने वाली प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन करना है, साथ ही चंद्रमा से नमूने लाकर, पृथ्वी पर उनका विश्लेषण करना है। चंद्रयान -4 मिशन दरअसल, चंद्रमा पर भारत की लैंडिंग (वर्ष 2040 तक नियोजित) और सुरक्षित रूप से पृथ्वी पर वापस आने के लिए मूलभूत प्रौद्योगिकी क्षमताओं को प्राप्त करेगा।  डॉकिंग/अनडॉकिंग, लैंडिंग, पृथ्वी पर सुरक्षित वापसी और चंद्रमा के नमूना संग्रह और उनके विश्लेषण को पूरा करने के लिए ज़रुरी प्रमुख प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन किया जाएगा।

भारत सरकार ने अमृत काल के दौरान भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए एक विस्तारित दृष्टिकोण का खाका तैयार किया है, जिसके तहत वर्ष 2035 तक एक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन) और वर्ष 2040 तक चंद्रमा पर भारत की लैंडिंग की परिकल्पना की गई है। इस परिकल्पना को साकार करने के लिए, गगनयान और चंद्रयान फॉलो-ऑन मिशनों की एक श्रृंखला की भी रुपरेखा तैयार की गई है, जिसमें संबंधित अंतरिक्ष परिवहन और बुनियादी ढांचे की क्षमताओं का विकास शामिल है। चंद्रयान -3 लैंडर की चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित और सॉफ्ट लैंडिंग के सफल प्रदर्शन ने कुछ अहम प्रौद्योगिकियों को स्थापित किया है और उन क्षमताओं का प्रदर्शन किया है जो केवल कुछ ही दूसरे देशों के पास है। चंद्रमा के नमूने एकत्र करने और उन्हें सुरक्षित रूप से पृथ्वी पर वापस लाने की क्षमता के प्रदर्शन से ही सफल लैंडिंग मिशन का अगला कदम निर्धारित हो सकेगा।

अंतरिक्ष यान के विकास और प्रक्षेपण की जिम्मेदारी इसरो की होगी। इसरो में मौजूद स्थापित कार्यप्रणाली के माध्यम से परियोजना को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जाएगा और उसकी निगरानी की जाएगी। उद्योग और शिक्षाविदों की भागीदारी की मदद से, अनुमोदन के 36 महीनों के भीतर मिशन के पूरा होने की उम्मीद है।

सभी महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों को स्वदेशी रूप से विकसित करने की परिकल्पना की गई है। मिशन को विभिन्न उद्योगों के माध्यम से कार्यान्वित किया जा रहा है और उम्मीद की जा रही है कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में भी इससे रोजगार की उच्च संभावना पैदा होगी और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा।

प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मिशन “चंद्रयान -4” के लिए कुल 2104.06 करोड़ रुपये की आवश्यकता है। लागत में अंतरिक्ष यान का निर्माण,  एलवीएम 3 के दो लॉन्च वाहन मिशन,  बाह्य गहन अंतरिक्ष नेटवर्क का समर्थन और डिजाइन सत्यापन के लिए विशेष परीक्षण आयोजित करना,  और अंत में चंद्रमा की सतह पर लैंडिंग के मिशन और चंद्रमा के नमूने एकत्रित कर उनकी पृथ्वी पर सुरक्षित वापसी शामिल हैं।

यह मिशन भारत को मानवयुक्त मिशनों, चंद्रमा के नमूनों की वापसी और चंद्रमा के नमूनों के वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण मूलभूत प्रौद्योगिकियों में आत्मनिर्भर होने में सक्षम बनाएगा। इसे साकार करने में भारतीय उद्योग की भी अहम भागीदारी होगी। चंद्रयान-4 विज्ञान बैठकों और कार्यशालाओं के माध्यम से भारतीय शिक्षा जगत को इससे जोड़ने की योजना पहले से ही तैयार है। यह मिशन पृथ्वी पर लाए गए नमूनों के क्यूरेशन और विश्लेषण के लिए बेहतर सुविधाएं भी सुनिश्चित करेगा, जोकि राष्ट्रीय संपत्ति होंगी।

भोले – भाले अभावग्रस्त इंसानों की संवेदनशील कहानियाँ

चेहरे पर मुस्कान लिए शंकर ज़मीन की तरफ देखने लगा और सोचने लगा कि सच्चे ,मासूम और पवित्र लोग आज भी धरती पर, से समाप्त होती कहानी ” एक था फरसा ” कालेरा वास के उस फरसा काका की कहानी सुनता है जो अभावों में में गधा गाड़ी से मेहनत मजदूरी कर परिवार का पेट पालता है। यही फरसा मजदूरी खोटी कर अपनी भांजी के विवाह में तीन दिन पूर्व जा कर अपने गधा गाड़ी से उसके समान को इधर उधर ले जा कर बहिन का शादी के काम में हाथ बटाता है। जबकि उसका सगा भाई शंकर विवाह के एन दिन पहुंचता है। बहन जब फरसा को तीन दिन सहायता के लिए खोटी हुई उसकी मजदूरी के लिए पांच सो रुपए देना चाहती है तब वह यह कह कर कि इंकार कर देता है बहन के घर का एक रुपया भी पाप है, मैं धन से नहीं तो तन से तो मदद कर ही सकता है। फरसा काका की इस बात से प्रभावित हो कर शंकर की आंखें खुलती हैं जो सगा भाई होकर भी तीन दिन पहले नहीं आया। मजदूरी के पेटे रुपए लेने से इंकार करने पर शंकर उसकी मानवता का कायल हो जाता है।
संग्रह की कहानी ” खेमू “ऐसा बच्चे की कहानी है जो अपने बाल सखा के साथ मेला देखने की उत्सुकता में घर के पशुओं के लिए दो समय की घास की मुठिया इकठ्ठी कर शाम को घर पहुंच कर बापू से कहता है मैं पशुओं के लिए घास ले आया हूं अब तैयार हो जाता हूं , निजू के साथ मेला देखने जाऊंगा। बापू उसके पास आ कर कहता है बाबोसा के घर कुंवर सा को देखने मेहमान आए हैं, वे अपने पशुओं के लिए घास नहीं ला सके होंगे , यह घास मैं उनको दे आता हूं। उनकी सहायता करना हमारा फर्ज है। वह घास की गठरी वहां दे आता है और खेमू को फिरसे घास लाने को कहता है। कहता है मेला तो हर साल आता है, बाबोसा के यहां मेहमान तो नहीं आयेंगे। मेला देखने की लालसा मन में लिए खेमू फिर से घास लेने चल देता है। ऐसी ही कहानियां ” नई चप्पलें”, “नया कुर्ता “, आटे के लड्डू”, ” बापू की अगवानी” और बच्चे की मजदूरी” जैसे मर्मस्पर्शी प्रसंग समाज के सामने अत्यंत दरिद्रता में भी जीवन मूल्यों की स्थापना करने वाले चरित्रों को सामने लाती हैं। इनके स्वाभिमान का एक छोटा सा अंश भी हमें अपने दुखों से तुलना करने को मजबूर करता है।
कहानी ” बड़े लोग ” ऐसे  परिवार की कथा कहती है जिसका पति बमुश्किल कुछ कमा कर पत्नी और बच्चे के गुजारे के लिए दो – तीन महीने में कुछ रुपए भेज पता है। पत्नी बड़े घर की सेठानी से ब्याज मुक्त दो हज़ार रुपए मदद के लिए लेती हैं। इस अहसान के बदले वह समय – समय पर सेठानी को कुछ न कुछ देती रहती है। उसका बच्चा जब उधार लिए रुपए लौटाने जाता है तो सेठानी के कपटपूर्ण व्यवहार से आहत हो जाता है और सेठानी पांच महीने के 300 रुपए ब्याज काट कर उसे यह कहते हुए, मूल तो मैं एक साथ ही लूंगी 1700 रुपए लौटा देती है। उसे न घर के अंदर आने को कहती है और न प्यास लगने पर पीने का पानी मांगने पर पानी ही पिलाती हैं।व्यवहार से आहत बच्चा भारी मन से घर लौट आता है।
काली दिवाली, विद्यालय का समय, लापरवाही की कीमत, प्रतिभा का सम्मान, सपना, भिखारी की मजबूरियां, चौखी बारहवीं भी ऐसी ही कहानियां हैं जो समाज में व्याप्त व्यक्तित्व के दो विरोधी पक्ष, पाखंड और सामाजिक मूल्यों के आपसी द्वंद को शिद्दत से उभरती हैं। ये कहानियां वर्तमान सामाजिक ताने – बाने की सच्चाई को हमारे सामने रखती हैं। मानव स्वभाव का प्रतिबिंब हैं ” कल्या – कृष्ण और ” , “फुटपाथ की नींद” और ” जीने की ललक” कहानियां। लैंगिक आकर्षण से परे यथार्थ  एवम्  आदर्शवाद के  मध्य संघर्ष को बताती हैं  ” नीम का पेड़” और ” सोजदी का भाई” प्रेम आधारित कहानियां।
पुस्तक में संकलित 22 कहानियां हमारे समाज का वो आइना है जो अभावग्रस्त गांवों के भोले – भाले लोगों में छुपे मानवीय मूल्यों और नैतिक चरित्र को उन लोगों के सामने ला कर एक उदहारण पेश करती हैं। इन कहानियों में कहीं ना कहीं कालजई उपन्यासकार और कहानीकार मुंशी प्रेम चंद की छाया दिखाई देती है। लेखक ने जिन कठानको और पात्रों पर कहानी का ताना बाना बुनकर जिन विषयों को छूने का प्रयास किया है वह उनकी अंतर्दृष्टि और समाज के प्रति चिंतन को दर्शाती है।
अपने लेखकीय में वे लिखते हैं कि कलेरा वास कभी राजस्थान में चुरू के पास एक छोटा सा गांव हुआ करता था, जहां इनका बचपन बीता और कहानियों की घटनाएं सत्य और यथार्थ का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो स्वयं देखी और महसूस की हैं। इसीलिए पुस्तक का शीर्षक भी ” कालेरा वास की बातें ” रखा गया है। पुस्तक भी उन्हीं भोले भाले लोगों को समर्पित है ” जो निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगे रहते है। जिनकी सच्चाई और स्वाभिमान भले ही अन्य लोगों से उन्हें पीछे कर दें, लेकिन उन्हीं मासूम और मेहनती लोगों के कारण समाज सुंदर दिखाई देता है।” कह सकते हैं कहानियों में कथानक का मुख्य पात्र मानवीय और सामाजिक धरातल पर अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व का घनी है।
भाषा सरल और ह्रदयग्राही है।  अमेजॉन.काम द्वार इस पुस्तक पर लेखक को ” बेस्ट सेलिंग ऑथर ” की श्रेणी में रखना ही इनकी लेखन की सफलता की कहानी कहता है। लेखक गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखते हैं। ये पश्चिम – मध्य रेलवे में कोटा में उप मुख्य वित्त सलाहकार के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।
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समीक्षक : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवम् पत्रकार, कोटा

 पुस्तक के बारे में

” कालेरा बास की बातें ” ( कहानी संग्रह )
लेखक : राजकुमार प्रजापत
प्रकाशक : ड्रीम बुक पब्लिशिंग
पृष्ट : 145
मूल्य : 275 ₹
समीक्षक : डॉ.,प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

रांगेय राघवः 39 साल में सौ साल जी गए

रांगेय राघव एक अदद ऐसे लेखक हैं, जिनके लिखने को लेकर अनेक किंवदंतियां हैं- वे सेर भर कागज रोज लिखते थे। वे चार-पांच किताबें एक साथ लिखते थे। वे गप्पें लड़ाते रहते थे और उनका लिखना चलता रहता था। वे सारे दिन अड्डेबाजी करते और सारी रात लिखते थे। यह भी कि सौ-दो-सौ पन्नों के उपन्यास एक-दो दिनों में और ‘मुर्दों का टीला’ या ‘कब तक पुकारूं’ जैसे उपन्यास दो से तीन सप्ताह के भीतर लिखे गयें।
वे जितने पन्नों का उपन्यास लिखना हो उतने `पृष्ठ लेकर, पहले एक दो बैठकों में हर पैराग्राफ की पहली पंक्ति लिख लेते थे, इसके बाद दूसरे एक-दो बैठकों में वो पैराग्राफ को भर डालते थे। याकि वे सीधे पन्ने लेकर उसमें शुरूआत, मध्य और अंत पहले लिख लेते हैं, फिर पूरी किताब की बारी आती है। एक बार तो उन्होंने महीने भर रोज़ एक कहानी लिखी। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि वो दोनो हाथों से रात दिन लिखते थे और उनके लिखे ढेर को देखकर समकालीन ये भी कयास लगाते थे कि शायद वो ‘तन्त्र सिद्ध’ हैं नहीं तो इतने कम समय में कोई भी इतना ज़्यादा और इतना बढिया कैसे लिख सकता है? उन्हें हिन्दी का पहला ‘मसिजीवी क़लमकार’ भी कहा जाता है, जिनकी जीविका का साधन सिर्फ़ लेखन था।’
इनमें से भले हीं कुछ बातें सच्ची हों और कुछ झूठी याकि अतिशयोक्तिपूर्ण। पर ये किंवदंतियां जो उनके जीते जी चल और निकल पड़ी थी, लेखन के प्रति उनके आस्था, उनकी जीजिविषा और उनके भीतर बसे अदम्य इच्छाशक्ति को ही दर्शाती हैं। जब उनसे इन किंवदंतियों को केंद्र में रखते हुये ये पूछा गया-‘ वे एक दिन में औसतन कितना लिख लेते हैं?’ तो उनका जबाब था-‘ सामान्य तौर पर मतलब बिना किसी अतिरिक्त श्रम के मैं एक दिन में तीस-चालीस पृष्ठ लिख लेता हूं। यों लिखने को मैंने साठ और अस्सी फुलस्केप भी लिखे हैं। पर वह अपवाद है। राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने क़रीब क़रीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ।
अधिक लिखने वालों के लिखे पर एक प्रश्नचिन्ह उनके लेखन की गुणवत्ता को लेकर भी किया जाता रहा है। उनके सामने भी ये प्रश्न तरह-तरह से आते रहें-‘ यार पप्पू, तुम इतना अधिक लिखते हो…थोड़ा लिखो और जमकर लिखो!’
उनका आत्मविश्वास भरा प्रत्युत्तर जैसे कहीं तैयार ही धरा हुआ था-‘ जहां तक क्वालिटी का सवाल है, यह तो समय ही बतायेगा। इस पर राय देने वाले हम तुम कौन होते हैं? आपलोगों में न जाने कैसे यह मिथ्या धारणा भर गयी है कि कम लिखना और श्रेष्ठ लिखना एक हीं बात है। कभी आपने रवींद्रनाथ टैगोर की किताबें गिनी हैं? तोल्स्तोय, गोर्की, रोला, ह्यूगो, जोला, डिकेंस, स्कॉट, मॉम…कभी पता लगाना कि एक-एक ने कितना लिखा है? दोस्तोवयस्की के लिखे पन्ने गिनोगे? इनमें से किसी एक के भी साहित्य का वजन कोई अकेला आदमी नहीं उठा सकता।
रांगेय राघव की कृतियां ही सुंदर नहीं हैं। वे स्वयं भी विधाता की अनुपम कृति थे। पतली नुकीली नाक, बेहद बड़ी-बड़ी आंखें, कलात्मक रुप से पतले होंठ, लम्बी पतली पलक, चौड़ा माथा, रेशमी बाल और गौरवर्ण मुख। वर्णन करो तो बिलकुल किसी सुंदरी नायिका के नख-शिख वर्णन की तरह उपमाओं की शृंखला खत्म ही न हो। वह सुंदरता जो कहने वाले कहते हैं गंभीर बीमारी के चपेट में क्षीण तो हुई पर क्षीण होते हुये भी और मर्मांतक होती गयी थी। राजेंद्र यादव कहते थे- ‘जब-जब मैंने किसी सुंदर पुरुष चेहरे को देखा है तो निमिष भर के लिए रांगेय राघव का ध्यान जरूर आता है।
दो बड़ी बड़ी चमकदार आंखे, नुकीली सुती हुई नाक, लम्बी लम्बी उंगलियों के बीच में दबी सिगरेट। होंठो के कोनों से झांकती व्यंग्य और आत्मतुष्टि भरी परम आश्वस्त मुस्कान। और उसी मुस्कान के सहारे पलक मूंदकर किसी सुदूर लोक में खोते चले जाना। उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।’
‘‘दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन ‘र‘ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव।’ पर बाद में इन तीनों के सम्बंध उतने सहज और सरल नहीं रह गये थे। जिसके केंद्र में बस वही लेखकीय प्रतिस्पर्धा ही थी। रामविलास जी के रांगेय राघव पर लिखे गये और हंस में प्रकाशित एक लेख से जिसमें वे उनकी भाषा को ‘छायावादी और उन्हें छद्म प्रगतिशील’ कहे जाने से आहत थे, पर सामने से उन्होंने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।
उन्होंने अगले दिन राजेंद्र यादव के उनके घर आने पर उनसे पूछा था-‘ तुमने रामविलास का वो लेख पढा है?’
‘हां पढा तो है… और उसकी कुछ बातों से सहमत भी हूं…’
‘हां तुम तो कहोगे ही… तुम तो उसके हिज मास्टर वॉयस हो… राजेंद्र यादव ने आगे लिखा है-
‘कैसा था वह क्षण कि उनका यह कथन मुझे भीतर तक भेदे चला जा रहा था- ‘आचार्य जी, वे मेरे पड़ोसी मुहल्ले में रहते हैं इसके सिवा…
मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अब मैं कभी अपनी तरफ से इस व्यक्ति से नहीं मिलूंगा… हालांकि हम बाद में कई बार मिले…पर बाहर-बाहर’
बाद इसके इन दोनों की अंतिम मुलाकात का जिक्र-
‘मैं हर क्षण यह सोच रहा था, रांगेय राघव से मिलकर मुझे कैसा लगेगा? किसी ऐसे व्यक्ति से मिलकर कैसा लग सकता है जिसे पता हो कि उसे मौत की सजा मिल चुकी है और अब बस तारीख तय होनी शेष है…उस दुर्बल आदमी से मिलकर मुझे धक्का सा लगा। वही यह आदमी है जो अपने सामने सारी दुनिया को तुच्छ समझता है और जिसके घर से निकलते समय एक दिन मैंने निश्चय किया था अब इस व्यक्ति से अपनी ओर से कभी मिलने नहीं आना।’
… ‘एक छोटी सी तिपाई पर कुछ शीशियां थीं, बिस्तर जमीन पर हीं था। वे दीवार का सहारा लेकर बैठे थे, चौड़ा माथा खोपड़ी तक फैल गया था। केवल कानों के ऊपर बालों की पट्टी बची रह गयी थी। कुर्ता और धोती शरीर पर बहुत ढीले लग रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने नितांत स्वाभाविक स्वर में कहा था – ‘ अरे राजेन्द्र , तुम हो, आओ … फिर वही दो चार बातें -मन्नू कैसी हैं? तुमने अपनी बच्ची का नाम क्या रखा है? फिर उन्होंने सिगरेट निकालकर मुझे बढाई थी…’
(राजेंद्र यादव लिखित संस्मरण ‘ऐ रे मेरे, मरण आया द्वार…’से)
सिगरेट पीने का उन्हें बेहद शौक़ था। वह सिगरेट पीते तो केवल जानपील ही, दूसरी सिगरेट को वह हाथ तक नहीं लगाते थे। एक दर्जन सिगरेट की डिब्बी उनकी लिखने की मेज पर रखी रहती थीं और ऐश-ट्रे के नाम पर रखा गया चीनी का प्याला दिन में तीन-चार बार साफ़ करना पड़ता। उनका कमरा था कि सिगरेट की गंध और धुएँ से भरा रहता था। किसी भी आगन्तुक ने आकर उनके कमरे का दरवाज़ा खोला तो सिगरेट का एक भभका उसे लगता, परन्तु हिन्दी साहित्य के इस साधक के लिये सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई थी। बिना सिगरेट पिये वह कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। परन्तु शायद सिगरेट पीने की यह आदत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी, जिसने 1962 में हिन्दी के इस अनुपम योद्धा को हमसे हमेशा के लिये छीन लिया। अपनी उसी अंतिम मुलाकात में जिसका जिक्र ऊपर आया है, जब राजेंद्र यादव ने मुम्बई में उन्हें सिगरेट पीते देखकर उन्हें रोकना चाहा- ‘क्या आचार्य जी अभी भी…
हंसकर वो दृढता से बोले थे- ‘कुछ नहीं यार मैंने डाक्टरों से पूछ लिया है। इनलोगों को अभी पता ही नहीं कि कैंसर होता काहे से है, कभी सिगरेट बताते हैं, कभी पान। बहरहाल सिगरेट से इसका कोई सम्बंध नहीं है। इन डाक्टरों के पास तो कोई ईलाज नहीं… मुझे एक बार आयुर्वेदिक इलाज कर लेने दो।’
रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी सन्‌ 1923 को आगरा में हुआ। रागेय राघव साहित्य के विलक्षण कथाकार, लेखक, कवि थे। वह मूल रूप से तमिल भाषी थे लेकिन उन्हें अंग्रेजी, हिंदी, ब्रज और संस्कृत के अलावे अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं का भी अच्छा-खासा ज्ञान था। बावजूद इसके उन्होंने हिंदी को अपने लेखन की भाषा के रूप में चुना। इनके परिवार के लोग काफ़ी पहले मथुरा में आकर बस ग़ए थे और भरतपुर के पास वैर नामक स्थान में जिनकी जमींदारी थी। आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में. एम.ए. करने के बाद वहीं से सन्‌ 1948 मे ‘श्री गुरु गोरखनाथ और उनका युग’ विषय पर आपने पीएचडी की।
उनके पिता का नाम रंगाचार्य और माता का नाम कनकवल्ली था। माता कन्नड़ और पिता तमिल थे। रांगेय राघव का मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था, लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम ‘रांगेय राघव’ रखा। रांगेय राघव नाम के पीछे भी एक कहानी है। उन्होंने अपने पिता रंगाचार्य के नाम से रांगेय शब्द स्वीकार किया और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना पेन नेम ‘रांगेय राघव’ बनाया। वो इसलिए क्योंकि अपने जीवन और साहित्य की तरह वे अपने नाम में भी एक सादगी और सहजता चाहते थे, उसका भारी भरकम होना या सुदीर्घ होना उनके लिए उतना माने नहीं रखता था।
उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया था। इनका विवाह सुलोचना से हुआ था। इन दोनों की एक इकलौती बिटिया हुई-सीमांतिनी। उन्हने उम्र बहुत कम पाई पर इतना प्रचुर लिखा कि कालजयी हो गए। हालांकि वह केवल 39 साल की उम्र तक जीये, पर इस बीच उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज सहित आलोचना, संस्कृति और सभ्यता जैसे विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें लिख दी थीं। उनके बारे में कहा जाता था कि जितने समय में कोई एक किताब पढ़ता है, उतने में वह एक किताब लिख देते हैं।
रांगेय राघव के रचनाकर्म को देखें तो उन्होंने अपने अध्ययन से, हमारे दौर के इतिहास से, मानवीय जीवन की, मनुष्य के दुःख, दर्द, पीड़ा और उस चेतना की, जिसके भरोसे वह संघर्ष करता है, अंधकार से जूझता है, उसे ही सत्य माना; उसी को आधार बनाकर लिखा, उसे प्रेरणा दी। रांगेय राघव सामान्य जन के ऐसे रचनाकार थे जो समूचे जीवन न किसी वाद से बंधे, न विधा से, रांगेय राघव हिन्दी के प्रगतिशील विचारों के लेखक जरूर थे, किन्तु मार्क्स के दर्शन को उन्होंने संशोधित रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने खुद को मूलतः मानवीय सरोकारों का लेखक कहा और माना। प्रेमचंद के बाद वे हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक लेखक माने गए। उन्हें अपने रचनाकर्म के लिए कई सम्मान मिले, जिनमें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, डालमिया पुरस्कार, उत्तरप्रदेश शासन, राजस्थान साहित्य अकादमी सम्मान शामिल है।
उन्होंने जर्मन और फ्रांसीसी के कई साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। ये सभी अनुवाद बेहद सरल और सुबोध थे। राघव द्वारा शेक्सपियर की रचनाओं का हिंदी अनुवाद इस कदर मूल सरीखा और अच्छा था कि उन्हें ‘हिंदी के शेक्सपीयर’ की संज्ञा दे दी गई। उन्होंने शेक्सपीयर’ के प्रायः सभी नाटकों का हिंदी में सरल और सुगम्य अनुवाद किया। लेकिन शेक्सपीयर के दुखांत नाटकों यथा हेमलेट, ओथेलो और मैकबेथ को तो जिस खूबी से डॉ.-रांगेय राघव ने हिन्दी के प्रांगण में उतारा वह उनके जीवन की विशेष उपलब्धियों में गिना जा सकता है। उनके अनुवाद की यह विशेषता थीं कि वह अनुवाद न लगकर मूल रचना ही प्रतीत होती है।
संस्कृत के अमर ग्रन्थों ‘ऋतु संहार’, ‘मेघदूत’, ‘दशकुमार चरित’, ‘मृच्छकटिकम्’ और ‘मुद्राराक्षस’ आदि को भी उन्होंने अनुवाद करके हिंदी पाठकों के लिए सुलभ बनाया। ‘गीत गोविंद” का भी उन्होंने बहुत सरस अनुवाद किया। इस तरह साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक पहुँचाने का महान कार्य वे अपने लेखन के संग-संग करते रहे।
उनके बहुआयामी रचना संसार में कहानी संग्रह- देवदासी, समुद्र के फेन, जीवन के दाने, इंसान पैदा हुआ, पांच गधे, साम्राज्य का वैभव, अधूरी मूरत, ऐयाश मुर्दे, एक छोड़ एक, धर्म संकट आदि है तो उपन्यासो में मुर्दों का टीला, हुजूर, रत्न की बात, राई और पर्बत, भारती का सपूत, विषाद मठ, सीधा-सादा रास्ता, लखिमा की आंखें, प्रतिदान, काका, अंधेरे के जुगनू, लोई का ताना, उबाल, कब तक पुकारूं, पराया, आंधी की नावें, धरती मेरा घर, अंधेरे की भूख, छोटी-सी बात, बोलते खंडहर, पक्षी और आकाश, बौने और घायल फूल, राह न रुकी, जब आवेगी काली घटा, पथ का पाप, कल्पना, प्रोफ़ेसर, दायरे, मेरी भाव बाधा हरो, पतझड़, धूनी का धुआं, यशोधरा जीत गई, आखिरी आवाज़, देवकी का बेटा खास हैं।
इनकी ‘गदल” शीर्षक कहानी तो हिंदी की सर्वोत्तम कहानियों में से एक है। सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में अग्रणी भी। जिसमें गदल का चरित्र जिस सबलता से उभरता है, वो श्लाघनीय है। रांगेय राघव के कहानी-लेखन का मुख्य दौर भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत हलचल भरा विरल कालखंड है। कम मौकों पर भारतीय जनता ने इतने स्वप्न और दु:स्वप्न एक साथ देखे थे। आशा और हताशा ऐसे अड़ोस-पड़ोस में खड़ी देखी थी। रांगेय राघव की कहानियों की विशेषता यह है कि इस पूरे कालखंड की शायद ही कोई ऐसी घटना हो, जिसकी अनुगूँज इनमें न सुनी जा सकें। सच तो यह है कि रांगेय राघव ने हिंदी कहानी को भारतीय समाज के उन धूल-काँटों भरे रास्तों, आवारे-लफंडरों-परजीवियों की फक्कड़ ज़िंदगी, भारतीय गाँवों की कच्ची और कीचड़-भरी पगडंडियों की गश्त करवाई, जिनसे वह भले ही अब तक पूर्णत: अपरिचित न रही हो पर इस तरह हिली-मिली भी न थी। और इन ‘दुनियाओं’ में से जीवन से लबलबाते ऐसे-ऐसे कद्दावर चरित्र प्रकट किए जिन्हें हम विस्मृत नहीं कर सकेंगे। ‘गदल’ भी एक ऐसा ही अविस्मरणीय चरित्र बन जाती है।
मोअन-जो-दड़ो पर आधारित उनका काल्पनिक उपन्यास ‘मुर्दों का टीला‘ से लेकर उनके अन्य उपन्यासों और कहानियों तक में स्त्री-पात्र उनके कथा संसार की धुरी होते थे। सन्‌ 1946 में जब उनका पहला उपन्यास ‘घरौंदे’ प्रकाशित हुआ तो उसने भी लेखन-शैली और कथावस्तु के कारण हिंदी के पाठकों और अध्येताओं को अपनी ओर आकृष्ट किया। ‘कब तक पुकारूँ’ जो कि उनका बहु-प्रसिद्ध उपन्यास है, जिसमें राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमा से जुड़े ‘बैर’ नामक ग्रामीण क्षेत्र जोकि नटों की बस्ती है, की कथा-वर्णित है। यह जरायम पेशा लोगों यानी नटों की संस्कृति पर आधारित पहला और बेहद सफल आँचलिक उपन्यास है। इस उपन्यास की कहानी 1920 से लेकर 1950 के बीच की है। जिसपर आधारित वर्ष 1985 में दूरदर्शन पर इसी नाम से आनेवाला धारावाहिक भी बेहद लोकप्रिय रहा।उनके अन्य प्रमुख उपन्यासों में ‘मु्दों का टीला’, ‘सीधा-सादा रास्ता’ और ‘कब तक पुकारूँ’ हैं।
कहा जाता है कि कई बार उन्होंने लेखकों की कृतियों के जबाब में उनकी प्रति-कृतियां भी लिखीं। आनंद मठ की धरती को उन्होंने ‘विषाद-मठ’ में विपन्न, अकालग्रस्त और गत-वैभव बताया तो ‘सीधा-सादा रास्ता’’ में भगवतीचरण वर्मा के ‘टेढ़े मेढे रास्ते’ के पात्रों और परिस्थितियों को ही लेकर उनके समानांतर हीं एक दूसरा और नया संसार खड़ा कर दिया। पर यहां उनका मकसद किसी की नकल करना नहीं बल्कि यह घोषित करना था- ये वंदनीय कृतियां भी अधूरी हैं, अपूर्ण है, सच्चाई तो कुछ और है।
रांगेय राघव ने 1950 ई. के पश्चात् कई जीवनीपरक उपन्यास लिखे हैं। इनका उपन्यास ‘भारती का सपूत’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी पर आधारित है। ‘लखिमा की आंखें’ विद्यापति के जीवन पर आधारित है। ‘मेरी भव बाधा हरो’ जो बिहारी के जीवन पर आधारित है। ‘रत्ना की बात’ जो तुलसी के जीवन पर आधारित है। ‘लोई का ताना’ जो कबीर- जीवन पर आधारित है। ‘धूनी का धुंआं’ जो गोरखनाथ के जीवन पर आधारित कृति है। ‘यशोधरा जीत गई’ जो गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। ‘देवकी का बेटा’ जो कृष्ण के जीवन पर आधारित है। ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों पर आधारित उनकीी ये किताबें सच कहे तो पात्रों को, खासकर स्त्री-पात्रों को एक खास संपूर्णता में देखने का एक सबल और सतर्क प्रयास थीं।
उनकी रचनाओं में स्त्री पात्र अत्यंत मजबूत होती थीं और लगभग पूरा कथानक उनके इर्द-गिर्द घूमता था। इस संदर्भ में उनका ये कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि- ‘ भारत की पुरातन कहानियों में हमें अनेक परम्परओं के प्रभाव मिलते हैं। महाभारत के युद्ध के बाद हिन्दू धर्म में वैष्णव और शिव चिन्तन की धारा बही और इन दोनों सम्प्रदायों ने पुरातन ब्राह्मण परम्पराओं को अपनी-अपनी तरह स्वीकार किया। जिस कारण से वेद और उपनिषद में वर्णित पौराणिक चरित्रों के वर्णन में बदलाव देखने को मिलता है। और बाद के लेखन में हमें अधिक मानवीय भावों की छाया देखने को मिलती है। मैं ये महसूस करता हूँ कि मेरे से पहले के लेखकों ने अपने विश्वास और धारणाओं के आलोक में मुख्य पात्रो का वर्णन किया है और ऊँचे मानवीय आदर्श खडे किये हैं और अपने पात्रों को साम्प्रदायिकता से बचाये रखा है इसलिये मैंने पुरातन भारतीय चिन्तन को पाठकों तक पहुचाने का प्रयास किया है।”
सन 1942 में बंगाल के अकाल पर लिखी उनकी रिपोर्ट ‘तूफानों के बीच’ काफी चर्चित रही। बंगाल के अकाल के दिनों में भयंकर विभीषिका से आक्रांत प्रदेश की पैदल यात्रा करके उन्होंने ये रिपोर्ताज लिखे, सर्वप्रथम इन्हीं से हिंदी के अनेक साहित्यकारों का ध्यान डॉ. राघव की ओर गया था और जब वे ‘हंस’ में प्रकाशित होने प्रारंभ हुए तो साहित्यिक क्षेत्र में जैसे तहलका सा मच गया। यहीं से ‘रिपोर्ताज-लेखन की परंपरा-सी भी चल पड़ी।
रांगेय राघव का तूफानों के बीच रिपोर्ताज हिन्दी साहित्य का ऐसा अमूल्य संग्रह है जिसने बंगाल के भीषण अकाल से उत्पन्न वहाँ के जनजीवन को हर प्रकार से छिन्न-भिन्न कर देने वाली परिस्थितियों का अत्यन्त संवेदनात्मक वर्णन किया है। रांगेय राघव ने सच्ची पत्रकारिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उस संकट की स्थिति में प्रशासन की स्वार्थपरता, गरीब मजदूरों, किसानों और जनजीवन के प्रति असंवेदनशीलता को उजागर किया है।तब उन्होंने वहाँ के जनमानस से सम्पर्क किया तथा उनके दुखों और कष्टों को आत्मीयता से सुना। इन रिपोर्टों की स्पष्ट और सीधी सहज भाषा को पढते हुये ये कौन कहेगा कि ये वही लेखक है, जिसकी कृतियों पर छायावादी भाषा में लिखे जाने का आरोप है? दरअसल भाषा कैसी हों, अक्सर यह रचनाएँ याकि विधा तय करती हैं, न कि स्वयं कोई लेखक?
इस रिपोर्ताज में लेखक का प्रशासन द्वारा कुछ ना किये जाने का आक्रोश दिखाई देता है। वो लिखते हैं कि-‘ बंगाल की टैक्सटाइल मिल कोयले की कमी के कारण बन्द हो गई, जिसके कारण 3500 मजदूर बेकार हो गए। परन्तु सरकार ने इस बात की कुछ चिन्ता नहीं की।’ शिद्धिरगंज में अकाल से हुई भयावहता की पराकाष्ठा थी। बस्ती में कोई घर नहीं बचे थे। घरों के स्थान पर वहाँ पर घास के बीच केवल मिट्टी के ढूह रह गये थे। एक पेड़ की छाया में चौदह कब्रें थीं, वहाँ की परिस्थितियों से अभ्यस्त हो चुका एक लड़का विरक्त भाव से चिल्लाया “बाबू, एक-एक में दो-दो, तीन-तीन हैं। एक-एक में दो-दो तीन -तीन।’” (अदम्य जीवन )’
‘तीस-चालीस लोग रोज मरते थे। ढाका की मलमल बनाने वाले जुलाहे मर रहे थे। केवल दो-चार घरों में ही ढाका की साड़ियाँ बुनी जा रही थीं। कपड़े बनाने वालों के पास स्वयं के लिए कपड़े नहीं थे। भूख के कारण तीन-साढ़े तीन सौ लोग गाँव छोड़ कर चले गये। चावल मह्ंगे होने के कारण कुछ लोग एक वक्त केवल शकरकंद खाकर निर्वाह करते थे। हिन्दू और मुसलमानों के अलग-अलग लंगरखाने थे लेकिन उनमें पर्याप्त खाना नहीं मिलता था। अब शिद्धिरगंज में सन्नाटा था। अधिकांश घरों की टीन की छतें उड़ गईं थीं या लोगों ने भूख मिटाने के लिए बेच दी थीं।‘
‘एक जगह मिट्टी की लगभग पाच सौ के करीब कच्ची कब्रें थीं और यह भी निश्चित नहीं था कि एक-एक में एक ही आदमी दफ़नाया गया हो। वो भी कपड़ा ना होने से बिना कफ़न के दफ़नाए गए। गाँव में इतनी कब्रें हो गई कि चलने की जगह नहीं थी। लोगों को कब्रों पर चलकर जाना पड़ता था।“
-‘बीमार लोगों के लिए जो सरकारी दवाखाना था, वहाँ न तो दवाई ठीक से थी और न मरीजों पर ठीक ध्यान दिया जाता था लेकिन फिर भी प्रशासन ने दावा किया कि‘”हमने 75 फीसदी आदमियों की हालत सुधार दी है।’” (अदम्य जीवन )
इस विषम परिस्थिति में रांगेय राघव बंगाल के लोगों की जिजीविषा से बहुत प्रभावित थे। उन्हें गर्व था कि लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहते थे। उस कब्रों से घिरे गाँव में लोग चेतनाशून्य नहीं हो गए थे, अपितु अभी भी उनमें जीने की लालसा थी। संकट का सामना करने का साहस था। जिसका उन्होंने अनेक स्थान पर वर्णन किया है- “यह अकाल जो गुलामी है, जो एक भीषण आक्रमण है, उसे हमें आस्तीन के साँप की तरह कुचलकर खत्म कर देना होगा। ”
बाँध भाँगे दाओ रिपोर्ताज के प्रारम्भ में रांगेय राघव ने नदिया जिले के एक कस्बे, कुष्टिया की अकाल प्रभावित भयावह स्थिति का वर्णन किया है। अकाल के समय में कुष्टिया गाँव में लोगों को खाना दुर्लभ था। परिवारों में असहायता के कारण अपराध बढ़ गए थे। अनेक पुरुष अपने परिवारों को उनके हाल पर छोड़ कर चले गए। भूख के कारण बच्चे मर गये। औरतों को पैसों के लिए अपने शरीर का सौदा करना पड़ा।
लेखक को लगता है मानो वे औरतें उससे पूछ रही हैं कि, “क्या हमें मर जाना चाहिये था? ”वो लिखते हैं- ‘लोग घर में मरते थे। बाज़ार में मरते थे। राह में मरते थे। जैसे जीवन का अन्तिम ध्येय मुट्ठी भर अन्न के लिए तड़प-तड़पकर मर जाना ही हो । बंगाल का सामाजिक जीवन कच्चे कगार पर खड़ा होकर काँप रहा था। और वही लोग जो अकाल के ग्रास बन रहे थे, मरने के बाद पथों पर भीषणता के पगचिन्ह बने सभ्यता पर, मानवता पर भयानक अट्टहास-सा कर उठते थे।”
बंगाल में उस समय फैल रही बीमारियों के बारे में भी रांगेय राघव ने विस्तार से लिखा है। मलेरिया, चेचक और चर्मरोग आदि बीमारियों से लोग मर रहे थे परन्तु प्रशासन की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा था। लोगों को सरकारी दवाईयाँ नहीं मिल रहीं थीं। इंजेक्शन लगने थे परन्तु फौज के आदमी पैसे देने के बाद भी इलाज नहीं करते थे। बहुत लोग बिना इलाज के मर गए। चिकित्सक दल जब दवाईयाँ और इंजेक्शन लेकर पहुँचा तो बंगाल के निराशा में डूबे लोग आशान्वित हुए। आरम्भ में वहाँ के हताश लोग चिकित्सक दल से टीका लगवाने के लिए तैयार नहीं होते थे क्योंकि उनके बहुत से लोग मर चुके थे। सबको यह शिकायत थी कि डॉक्टर पहले आ जाते तो इतने लोग नहीं मरते।
किसानों के प्रति प्रशासन की असंवेदनशीलता और अन्याय को भी लेखक ने इस रिपोर्ताज में दर्शाया है। गाँव-कमेटी और यूनियन-बोर्ड के मेम्बर अपने रिश्तेदारों को और जान-पहचान के लोगों को ही कार्ड देते थे। चावल का दाम बढ़ गया था और वह भी चोरी से मजदूरों की पहुँच से दूर ले जाया जा रहा था। रांगेय राघव समाज के प्रत्येक वर्ग के संघर्ष से प्रभावित थे। इन परिस्थितियों में वह समाज की स्वार्थपरता से उद्विग्न हो जाते हैं। ‘
एक रात’ में वह लिखते हैं -“क्यों नहीं समझता मनुष्य कि अपना स्वार्थ जो सबका स्वार्थ हो? क्यों वह परम्परा से स्वार्थ को व्यक्ति के संकुचित रूप में बाँधता रहा है?” वहाँ के लोग अफसरों से नाराज थे व प्रशासन और महाजनों के शोषण से त्रस्त। वे एक होकर अन्याय के खिलाफ़ लड़ना चाह्ते थे, वे झुकना नहीं जानते थे और उनको अपने संघर्ष का फल भी मिला। रांगेय राघव एक संघर्षशील युवक के कथन का रिपोर्ताज ‘बाँध भाँगे दाओ में उल्लेख करते हैं- “टेक दिये घुटने नौकरशाही ने, झुका दिया सर जनबल के आगे। कौन है जो हमें झुका सकेगा। हम बंगाली कभी भी साम्राज्यवाद की तड़क-भड़क से रोब में नहीं आये। हमें गर्व है बाबू हम भूखे रहकर भी अभी मरे नहीं हैं।”
कहीं-कहीं’ उनके इन चित्रणों में बंगाल के दु:ख के साथ प्रकृति-चित्रण का समन्वय भी मिल जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है जैसे बंगाल के दु:ख से व्यथित लेखक को प्राकृतिक सौन्दर्य और उसकी स्थिरता में आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है और जब भी वह बंगाल के प्राकृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होता है तो प्रत्येक बार उसे प्रकृति में वेदना का आभास होने लगता है। जैसा कि ‘बाँध भाँगे दाओ’ के इस चित्रण में देखा जा सकता है- “साँझ घिर चली थी। बादल झूम उठते थे जैसे लुढ़कने के अतिरिक्त और कोई काम ही न था। घास फरफरा रही थी। समस्त वातावरण में एक कल्लोल लहरा रहा था जैसे वेदना से भरे श्वास बंशी में गूँज उठते हैं।” ऐसे में लेखक का मन बार-बार प्रकृति की ओर जाता तो है, परन्तु ‘बंगाल का दु:ख’ उसे प्र्कृति में सुनाई देने लगता है- “ग्राम के सघन वृक्षों में अंधेरा छिपा बैठा है। धुंधली चाँदनी अपने पंख फैला्ये जैसे अनन्त आकाश में उड़ जाने के लिये तैयार बैठी है।” (एक रात ) लेखक अंधेरे में चाँदनी रूपी पक्षी के उड़ने की कल्पना से कुछ अच्छा होने की संभावना ढूँढता है।
रांगेय राघव को प्रकृति भी ऐसे में उदास प्रतीत होती है। वो लिखते हैं- “ हरीपुर गाँव जो घनी छाया में ऊँघता-सा, मचलता-सा धूप और छाया में, अल्हड़-सा, आज सु,नसान पड़ा था; अपने आप पर लज्जित एक व्याकुल विधवा की आह-सा।” (एक रात ) दूर से बंगाल में हरियाली और ताल दिखने पर भी लेखक को वहाँ की प्रकृति में दु:ख का ही अनुभव होता है। ‘बाँध भाँगे दाओ’ रिपोर्ताज में कुष्टिया गाँव के वर्णन के संदर्भ में वह लिखते हैं- “कितना-कितना विश्राम। कितनी-कितनी शान्ति, जीवन का अपनापन उस नीरवता में बार-बार जैसे सुबक रहा हो, भीख माँग रहा हो, जहाँ प्यार, प्यार रह कर भी दुराशा था, अलगाव था, हाहाकार था… शान्त घर चाँदनी में सो रहे थे, लेकिन मानव को इतना अवकाश, इतना समय ही नहीं था कि वह भी पानी पर बहती चाँदी सोने की झिलमिल चादरों से आह्लादित होता।”(बाँध भाँगे दाओ ) कवि हृदय, संवेदनशील और बंगाल की इस त्रासदी से संतप्त लेखक दुख से बोझिल होकर प्राकृतिक सौन्दर्य में शान्ति ढूँढ़ने का प्रयास करते तो दिखाई देते हैं।
लेकिन सम्पूर्ण वातावरण का विरोधाभास उनको चैन नहीं लेने देता। कहीं प्रकृति की सुन्दरता में वेदना, तो कहीं विद्यार्थियों की हँसी परन्तु आँखों में एक भय और उदासी… और कहीं भी दीपक बिना निश्शंक न जलता हुआ। डॉ० रागेय राघव एक उत्कृष्ट चित्रकार भी थे। इन रिपोर्ताजों में से पेंटिंग के से दृश्य उभरकर सामने आते हैं। ये अलग बात है कि कहीं भी इनके रंग शोख और चटख नहीं, सब जगह धूसर और उदास हैं। जैसे दुखो ने सोख्ते की तरह जीवन और प्रकृति के सारे सुंदर रंग सोख लिए हों।
यूं तो अपनी सृजन-यात्रा के बारे में रांगेय राघव ने स्वयं कोई ख़ास टिप्पणी कभी नहीं की। ख़ासकर अपने प्रारंभिक रचनाकाल के बारे में, लेकिन एक जगह लिखा मिल ही जाता है-‘‘चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई. की बात है, तब ही मैंने कविता लिखना शुरू किया। संध्या-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था। वह सब खो गया है … और तब से संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूँ। ‘ इतना ही कह सकता हूँ कि चित्रों से ही कविता प्रारंभ हुई थी और एक प्रत्रकार की बेचैनी उसके मूल में थी। ‘
रांगेय राघव की एक कविता है-
जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे
मुझ से पुकार बोला प्याला वहां पड़ा था,
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
इस धूल से न डरना, इसमें सदा सहारा।
मैं हार देखता था वीरान आसमाँ को
बोले तभी नजूमी मुझसे; नहीं भटक तू
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
जो आँधियों ने फिर से अपना जुनूँ उभारा।
मैं पूछता हूँ सब से गर्दिश कहाँ थमें
जब मौत आज की है, दिकल है ज़िन्दग़ी
धोखे का डर करूँ, क्या रुकना न जब कहीं है
कोई मुझे बता दो, मुझ को मिले सहारा!
जिंदगी की क्षणभंगुरता के प्रति जो भाव इस कविता में व्यक्त है वो उनके जीवन और जीवन- दर्शन में सम्पूर्णता में मिल जाता है। शायद इसीलिए वो टूटकर जीये, टूटकर और डूबकर लिखा और इतना कुछ लिख सके जोकि एक भरे-पूरे और लंबे जीवन को जीनेवाले व्यक्ति के लिहाज से भी अविश्वसनीय है, लेकिन उन्होंने अपने छोटे से जीवनकाल में इसे संभव और सच कर दिखाया।
उनकी पत्नी सुलोचना रांगेय राघव ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कैसे उन्होंने जिद करके शादी के तुरंत बाद उन्हें आगे की शिक्षा के लिए खुद से दूर शहर भेज दिया था। नयी -नयी शादी थी, सो उन्हें पति से दूर रहना बिलकुल भी नहीं भाता था, पर मन मारकर वो यह करती रहीं कि यह उनके पति की इच्छा थी। उनके गुज़र जाने के बाद यही शिक्षा उनके जीवन-यापन, स्वाबलंबन और नन्हीं सी बिटिया के पालन-पोषण का सबब बनी।
जैसे उन्हें यह सबकुछ पहले से ज्ञात था..और इसीलिए…? क्या अपने जीवन, लेखन और अपने नाम की तरह मौत को भी उन्होने खुद से ही चुना था? जीवन का सुदीर्घ होना उनके लिए उतना मायने नहीं रखता था, जितना सार्थक होना?
उन्होंने अपनी सारी किताबें पूरी की, सिवाय एक उपन्यास, अपने अंतिम उपन्यास ‘आखिरी आवाज़’ को छोड़कर। वह भी कुछ इस कारण कि वे कई महीनों तक मौत से जूझते रहे और…रांगेय राघव का निधन 12 सितंबर सन्1962 को बंबई के ‘टाटा मेमोरियल अस्पताल’ में ब्लड-कैंसर की वजह से हुआ था, जहाँ रहकर वे अपनी अस्वस्थत्ता का इलाज करा रहे थे।
वे अकेले लेखक थे जिन्होंने लेखन में कभी किसी से समझौता नहीं किया। जिंदगी में कभी किसी से कोई अहसान लेना चाहा हो। दुख और सुख की चाहे जिन भी स्थितियों से गुजरे हों वे पर कहते हैं- उनके होंठो की वह मुस्कान कभी नहीं गयी ।

बलेसरा काहें बिकाला

जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख हो। एक गुल्ला छीलिए तो पोर खुल जाए। कुछ वैसे ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बलेसरा की है। अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए। बलेसरा मतलब बालेश्वर ।
आठवीं तक पढ़े बालेश्वर का नाम आज की तारीख में भोजपुरी लोक गायकी में शिखर पर है। उन की गायकी में ही कहें तो, ‘आज बलेसरा बिकाला।’ इसी बलेसरा से जब पूछा कि, ‘तू गायक नाईं होत न का होत ?’ तो वह बोले, खेती मजूरी करतीं और का होतीं? दरअसल तथ्य भी यही है कि बलेसरा की लोक गायकी की यात्रा सुविचारित तो नहीं है। वह छूटते ही कहते हैं, ‘कोई गुरु नहीं।’
तो सीखा कैसे?
-बस गाते गाते।
और शिष्य?
-शिष्य मानता ही नहीं किसी को।’ फिर भी हमारे गाने बहुत लोग गाते हैं।
‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी/आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ जैसे तल्ख गीत लिखने और गाने वाले बलेसरा ने बचपन में गायकी की यात्रा शुरू की नकल कर-कर के। वह कहते हैं, ‘गांव में शादी ब्याह में, रामलीला, नौटंकी में गाना शुरू किए। कलाकारों की कॉपी करना शुरू किया।’
किन कलाकारों की?
-भोजपुरी लोक गायकों की। जैसे वलीउल्लाह थे, जयश्री थे। हमने न सिर्फ़ इन की कॉपी की, बल्कि कोशिश की कि इन की टीम में आ जाऊं। पर इन लोगों ने अपनी टीम में हमें नहीं लिया। लेकिन मैं ने हिम्मत नहीं हारी। गावों के मंचों पर चंग बजा बजा कर अकेले ही गाना शुरू किया। पैसे कुछ भी नहीं मिलते थे। खाली वाहवाही मिलती थी।’ जिला पोस्ट मधुबन गांव बदनपुर में 1 जनवरी, 1942 में जनमे बालेश्वर इस वाहवाही से ही खुश थे कि उन का नाम होने लगा था। बालेश्वर ने अपनी गायकी का दौर नकल से शुरू ज़रूर किया। पर शुरू ही से खुद का ही लिखा गाना गाया। हालां कि वह इसे गाना ‘बनाना’ बोलते हैं।
उन के बनाए गानों में तंज और तल्खी तब भी बोलती थी। नतीज़तन कई बार मार पीट की भी नौबत आ गई। वह बताते हैं, ‘हमारे गांव में एक बारात आई। बारात को गांव वालों ने ही लूट लिया। इस पर गाना बनाया और गाने लगा तो गांव वाले नाराज हो गए। कि गांव की बेइज्जती कराते हो। ऐसे ही एक डॉक्टर ने हमारे गांव के एक गजराज यादव को सुई लगाई तो वह मरते-मरते बचा। बाद में पता चला कि उस की ज़मीन लोगों ने फर्जी बैनामा करवा लिया था।
 इस साजिश पर गाना बनाया और गाने लगा तो जवार के ठाकुर लोग नाराज हो गए। मार खाते-खाते बचा। घर में दो चार चोरी करवा दी इन लोगों ने। क्यों कि उन दिनों ठाकुरों के जुल्म के खिलाफ लिखता था। मैं अपने क्षेत्र के सामंतवादी ठाकुरों की आंख का कांटा बन गया। अब उन लोगों को मैं कैसे समझाता कि मैं ठाकुर जाति के खिलाफ नहीं, उन के ज़ुल्म, उन की ज़्यादतियों के खिलाफ गाता था। लेकिन बात ज़्यादा बढ़ गई। पर मेरा सौभाग्य था कि तभी 1962 का चुनाव आ गया। संयोग से मधुबन के पूर्व विधायक और स्वतंत्रता सेनानी विष्णुदेव गुप्ता ने दोहरीघाट भेज दिया। सोसलिस्ट पार्टी का प्रचार करने। मैं वहां चुनाव के गाने बना बना कर गाने लगा।
 वहीं कम्युनिस्ट पार्टी के झारखंडे राय ने हमारी प्रतिभा को पहचाना और घोसी ले गए अपने चुनाव प्रचार के लिए। वहां झारखंडे राय की विजय के लिए गाना बना-बना कर गाने लगा। झारखंडे राय जीत गए तो हम को भी अपने साथ लखनऊ ले आए। लखनऊ आ कर काफी भटका। इधर भटकाव था उधर ठाकुरों का ज़ुल्म। मैं ने लखनऊ में ही गली चौराहों पर भटकना ठीक समझा। इधर-उधर घूम-घाम गाता रहा।
1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने के लिए इम्तहान दिया। लेकिन फेल हो गया। अनुभव नहीं था। मेरी परेशानी बढ़ती गई। तभी एक छोटी सी नौकरी कर ली। गाना फिर भी नहीं छोड़ा। बाद में सूचना विभाग के के.बी.चंद्रा ने बताया कि आकाशवाणी का इम्तहान कैसे दूं। फिर दस बरस बाद दोबारा आकाशवाणी लखनऊ में इम्तहान दिया तो पास हो गया। आकाशवाणी पर हमारी बुलंद आवाज़ जब छा गई तो कई और लोग भी मौका देने को तैयार हो गए। हरवंश जायसवाल ने सरकारी प्रोग्राम में हम से चार साल तक कार्यक्रम करवाया। अब कार्यक्रमों से पैसा तो मिलने लगा था, नाम-मात्र का ही सही पर वाहवाही खूब मिलती थी। और मैं खुश था। बाद में रिकार्ड बनवाने की धुन समाई।
दो साल तक एच.एम.वी. के मैनेजर जहीर अहमद दौड़ाते रहे कि तुम्हारा रिकार्ड बनाऊंगा। यह 1978 की बात है। लेकिन वह हम को कमज़ोर समझ कर, वादा कर के छोड़ देते थे। हरवंश जायसवाल के बहुत कहने पर कि बालेश्वर को एक मौका दो, रिकार्ड बिकेगा। तो जुलाई, 1979 में एच.एम.वी. ने दो रिकार्ड बनाए। एक ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के’ और दूसरा ‘बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी।’ 1980 में यह रिकार्ड बाज़ार में आ गया। 1982 आते-आते मेरी मार्केट हाई हो गई। देश के कोने कोने में प्रोग्राम होने लगे। मेरे कार्यक्रमों में टिकट के लिए मार होने लगी। मैं हीरो हो गया भोजपुरी लोक-संगीत का।
‘1988 में पश्चिम बंग भोजपुरी परिषद ने कलकत्ता के इनडोर स्टेडियम में भोजपुरी सम्राट की उपाधि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल से दिलवाई। दिल्ली में अखिल भारतीय भोजपुरी गायक सम्मेलन में 1991 में पूर्व मंत्री के.के. तिवारी ने भोजपुरी रत्न उपाधि से सम्मानित किया। इस के पहले 1990 में दिल्ली में ही बिहार प्रवासी मजदूर संघ ने भोजपुरी पुत्र की उपाधि दी थी। इस के भी पहले मई, 1989 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति और वर्तमान में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के साथ जर्मनी, हॉलैंड, सूरीनाथ, गुयाना, दक्षिण अमेरिका भी घूमे।’
बात अब की चली तो बालेश्वर का कहना था, ‘अभी तो स्टेज कार्यक्रमों से ही फुर्सत नहीं। वैसे स्टेज कार्यक्रमों के अलावा आकाशवाणी, दूरदर्शन के लिए भी गाता हूं। और इस से भी ज़्यादा सुपर कैसेट्स की टी सीरीज में गाता हूं। हालां कि इस के पहले एच.एम.वी. से अनुबंध था मेरा। पर एच.एम.वी. ने रायल्टी देने में देर की तो मैं टी सीरीज में गाने लगा। 1985 में एच.एम.वी. ने मेरे ऊपर अनुबंध तोड़ने का मुकदमा कर दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय में। अब यह मुकदमा टी सीरीज वाले लड़ रहे हैं हमारी ओर से।’ बालेश्वर के अब तक कोई 12 रिकार्ड और 25 कैसेट्स बन चुके हैं। इधर हर साल कोई चार या पांच कैसेट आ जाते हैं। दो किताबें भी उन के गानों की छपी है।
‘बुलंदी पर होने के बावजूद कैसेट्स बाजार में आने की गति इतनी धीमी क्यों है?’ पूछने पर वह बोले, ‘हम वैसे भी कैसेट के लिए कम गाते हैं। इस लिए कि स्टैण्डर्ड मेनटेन रहे।’
और सच भी शायद यही है कि कल के बालेश्वर और आज के बालेश्वर में काफी फ़र्क आया है, कई अंतर्विरोध जनमे हैं। कई चीज़ें बदली हैं। ठीक वैसे ही जैसे उन्हों ने गांव बदल दिया। अब उन का गांव बदनपुर, पोस्ट मधुबन, ज़िला आज़मगढ़ नहीं है। अब उन का गांव ज़िला मऊ में कल्पनाथ राय रोड पर चचाईपार है। पिता अर्जुन तो अब जीवित नहीं हैं। तीन भाइयों में एक भाई भी नहीं रहा। पर दूसरा भाई नगेसर में नागलैंड में ठेकेदारी करता है। तीन बेटों में दो नौकरी करते हैं। एक सचिवालय में, एक कोआपरेटिव बैंक में। एक पढ़ रहा है आठवीं में। दो बहू, एक नातिनी, एक नाती, भतीजा, भाई है परिवार में।
और बलेसरा ?
-कभी शौकिया और सिर्फ़ वाहवाही के लिए गाने वाला बलेसरा व्यावसायिकता का शिकार हो अब बालेश्वर हैं। अब वह नकल नहीं करते किसी की। लोग उन की नकल करते हैं। अपने बनाए औऱ गाए गानों में हालां कि अब भी बालेश्वर ‘बलेसरा’ ही को बेचते हैं पर हैं वह अब बालेश्वर ही।
1962 और 1992 के बालेश्वर का फ़र्क सिर्फ़ यही नहीं है। बालेश्वर की गायकी का फलक भी अब विस्तार पाया दीखता है। वह कहते भी हैं, ‘मेरा दिमाग अब मंडल कमंडल, मंदिर मस्जिद के झगड़े में अधिक लगता है। मंदिर मुद्दे पर बालेश्वर का यह गाना कुछ ज़्यादा ही ज़ोर पकड़े हुए है: ‘मंदिर बनी लेकिन महजिद गिराई न जाएगी/ आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ कुछ समय पहले जब मिली जुली सरकारों का दौरा चला था तो बालेश्वर गाते थे, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले/ हिटलरशाही मिले मगर मिली जुली सरकार न मिले। मरदा एक ही मिले, मगर हिजड़ा कई हजार न मिले।’
आरक्षण पर भी बालेश्वर स्टेजों पर ललकारते हैं, ‘जिन्ना ने हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा करा दिया/बुखारी आडवाणी ने मंदिर मस्जिद को लड़ा दिया/ वी.पी. सिंह शरद यादव ने मंडल कमंडल खड़खड़ा दिया/पासवान काशीराम ने हरिजन और सवर्णों को जुझा दिया।’
बालेश्वर अपने अंतर्विरोधों को भी अच्छी तरह जानते हैं और स्वीकारते हैं: ‘कैसेट में श्रृंगार रस और सामाजिक गाने गाता हूं। पर स्टेज पर राजनीतिक गाने ज़्यादा गाता हूं।’ यह पूछने पर कि किस राजनीतिक पार्टी से संबंध रखते हैं बालेश्वर कहते हैं, ‘न किसी राजनीतिक पार्टी से मेरा संबंध है न ही जातिवादी हूं मैं। हालां कि जातिवाद आज समाज में ‘ओभर’ हो गया है। खास कर गांवों में यह ठीक नहीं है।’
बात उन के रचनाकार पक्ष की चली तो यह अंतर्विरोध भी वह बड़ी ईमानदारी से स्वीकार गए। पूछा उन से कि, ‘कवि सम्मेलनों में क्यों नहीं जाते?’ वह बोले, ‘कवि सम्मेलनों में जाने की सोचता तो हूं। पर यह भी जानता हूं कि कवि सम्मेलनों में जाऊंगा तो फ्लाप हो जाऊंगा।’
क्यों?
-क्यों कि बिना साज के और टीम के मैं गा नहीं सकता। और वहां अकेले गाना पड़ेगा। इस लिए कवि सम्मेलनों में मैं नहीं जा सकता। हालां कि लिखता वही हूं जो समाज में देखता हूं।’ फिर जैसे उनका असंतोष भी उभर आता है,‘मेरी अच्छी बैकिंग चूंकि नहीं है सो कीचड़ में पड़ा हूं। इतना लिखने-पढ़ने, गाने के बाद भी क्या मिलता है ?’ वह पूछते हैं और कहते हैं, ‘भोजपुरी लोकगीतों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया पर पद्मश्री पा गई शारदा सिनहा।’ बालेश्वर यह भी जोड़ते हैं, ‘सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार मिलना असंभव भी है। क्यों कि मक्खनबाजी का ढंग मुझे नहीं आता। मेरे गाने क्रांतिकारी हैं, आलोचनात्मक हैं। दलबदलुओं के खिलाफ लिखता हूं। तो कौन नेता इस को पसंद करेगा? किस पार्टी में दलबदलू नहीं हैं।’
बात भोजपुरी गायक कलाकारों की चली है तो बालेश्वर बिफरे हैं, ‘भोजपुरी गाना गाने वाले कलाकारों पर सरकार की निगाह बिलकुल नहीं है। कलाकार बहुत हैं। पर पर्दे पर जो आता है वही कलाकार हो जाता है।’ बालेश्वर स्वीकारते हैं, ‘ हम से भी अच्छा गाने वाले हैं। पर उन्हें मौका ही नहीं मिलता। स्टेज प्रोग्रामों से फुर्सत मिले तो यह सब बातें उठाता हूं। उ.प्र. सरकार ने अभी तक भोजपुरी के लिए कुछ किया नहीं। पर हमने भोजपुरी अकादमी गठित की है। मैं इस अकादमी का संस्थापक और सचिव हूं, जय प्रकाश शाही अध्यक्ष हैं।’
बालेश्वर बताते हैं, ‘पंद्रह बरस पहले तक भोजपुरी गाने वाले कलाकारों की बड़ी हीन स्थिति थी बाहर। लोग मजाक उड़ाते थे। मेरा भी मजाक बनाते थे लोग। पर अब ऐसा नहीं है।’ बताते बताते वह फिर पुरानी बात पर आ गए हैं, ‘अभी तक विश्व में सब से अधिक भोजपुरिया हैं जो मेहनत करते हैं। पर दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भोजपुरी कलाकारों को मौका नहीं दिया जाता। यह भोजपुरी के साथ अन्याय है।’ बालेश्वर से मैं ने पूछ लिया कि, ‘क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि अगर आप की पढ़ाई लिखाई पूरी होती तो आप और अच्छी रचनाएं कर सकते थे।’ बालेश्वर लगभग बौराए और बोले, ‘पढ़ाई लिखाई पूरी और बढ़िया होती, और कि मैं सवर्ण परिवार में पैदा हुआ होता तो मैं शायद बहुत आगे जाता। तब शायद उच्च कोटि का साहित्यकार होता मैं।’ वह बात फिर बदलते हैं, ‘फिर भी हमें गर्व है कि पिछड़े वर्ग में भी रह कर मैं समाज की सारी बातों को ललकार कर कहता हूं।’
यह टोकने पर कि, ‘अगर सवर्ण परिवार में पैदा होते तो क्या ऐसे ही गा पाते?’ सवाल सुन कर बालेश्वर भकुआ जाते हैं।
‘हां यह भी हो सकता था। हो सकता था कि तब न गा पाते।’ फिर वह जैसे सफाई देने लग जाते हैं, ‘जाति-पाति में मेरा विश्वास नहीं है। हम तो सभी के प्रोग्राम में जाता हूं।’
राजनीतिक और सामाजिक तंज कसने, रचने और गाने वाले बालेश्वर के गाए द्विअर्थी गानों की बात चली तो बालेश्वर ने बगलें नहीं झांकी। बोले, ‘हां गाता हूं। क्या बुरा है। लोग सुनते हैं तो गाता हूं। फिर वह खुद कुछ द्विअर्थी गानों की फेहरिस्त खोल बैठते हैं। ‘कटहर के कोआ तू खइबू, त मोटका मुअड़वा का होई, नैहरे में हो गई अधेड़, दारू बदनाम है, नशे में सारी दुनिया, कचहरिया में गोरी से पूछता सजनवा, जब खिलल कली से तू खेलल, अब लटकल अनरवा का होई।’
फ़िल्मों में गाने की बात चली तो वह कहने लगे, ‘फ़िल्मों में ट्राई करने का मौका नहीं मिला। स्टेज प्रोग्राम में ही एतना व्यस्त रहता हूं कि बंबई, दिल्ली का चक्कर नहीं लगा पाता हूं।’ फिर वह बताने लगे कि, ‘तो भी सुजीत कुमार ने अपनी भोजपुरी फ़िल्म ‘पान खाएं सइया हमार’ में हम से बिना पूछे हमारे गाए तीन गाने हमारी ही आवाज़ में कैसेट से ले कर इस्तेमाल कर लिए। एक तो सब से मशहूर गाना हमारा, ‘बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी’ और दूसरा ‘मोटका मुअड़वा का होई’, और तीसरा ‘कजरवा हे धनिया’ गीत ले लिए फ़िल्म में। पर न तो हम से पूछा, न पैसा दिया और न ही फ़िल्म में कहीं हमारा नाम दिया।
आप ने एतराज नहीं जताया सुजीत कुमार से?
-का एतराज जताएं? भोजपुरी के नाम पर संतोष कर गए। हम तो पिक्चर भी नहीं देख पाए। फिर भी फ़िल्म में हमारा गाना उन्हों ने हमारे कैसेट से लिया इस का खुशी है। बस अफसोस एही है कि पैसा न दिया न सही नाम तो दे दिए होते। पर चलिए कोई बात नहीं। अब कौन बवाल में पड़े। पब्लिक तो जानती ही है, कि वो हमारा गाना है।’ फिर वह एक घटना सुनाने लगे, ‘यह 1986 की बात है। आसाम हम गए हुए थे। तिनसुखिया में बालेश्वर नाईट मनाई जा रही थी। पर तिनसुखिया के आगे दुमदुमा में भी हमारी नाईट थी। हम को मालूम भी नहीं था। बाद में पता चला कि वहां कोई नकली बालेश्वर पहुंचा हुआ था। लेकिन जब वहां की जनता ने, ‘बलिया बीच बलमा हेराईल सजनी’ की फर्माईश कर दी तो वह नकली कलाकार हथियार डाल गया। बोला मैं तो बालेश्वर नहीं हूं फिर तो वहां कुर्सियां टूटने लगीं। हंगामा हो गया। टिकट लोगों के वापस हुए तभी शांति बन पाई।’
बालेश्वर की टीम में पहले पांच लोग थे पर अब बीस लोग हैं। वह कहते हैं,‘मांग बढ़ती गई तो टीम बड़ी करनी पड़ी। बालेश्वर की टीम लोकगीत और लोकनृत्य का 5-6 घंटे का कार्यक्रम बड़े आराम से करती है। वह भोजपुरी में बिरहा, कहरवा, सोरठी, लाचारी, झूमर, चैता, फगुवा, गारी, कजरी, विदेशिया आदि सभी तरह के गीत गाते हैं। राजनीतिक और सामाजिक गाने इन दिनों उन के स्टेज प्रोग्रामों में अनायास ही छा जाते हैं। आजकल वह नया गाना बनाए हुए हैं: ‘पैसा ये पैसा कैसा ये पैसा /पैसे के लिए सुख चैन बेच दिया।/ कोई बेचे लोटा कोई बेचे थाली/ हर्षद मेहता ने इंडिया का बैंक बेच दिया।/ कोई बेचे बेटी कोई बेचे बहू/ कृष्णमूर्ति ने पद्मश्री बेच दिया।/ कोई बेचे मंदिर कोई बेचे महजिद /बालेश्वर ने बिरहा बेच दिया।’
बालेश्वर समकालीन भोजपुरी गायकों में हीरा लाल यादव, बुल्लू यादव, बेचन राम, परशुराम यादव और बिहार के मुन्ना सिंह, रत्ने सिंह तथा शारदा सिनहा का नाम गिनाते हैं। नए भोजपुरी गायकों की चर्चा चली तो वह श्यामा यादव, प्रेमी प्रसाद, जे.डी. श्रीवास्तव, कुमारी सोना सिंह और श्रीमती रागिनी पाण्डेय के नाम गिना गए। और बताने लगे, ‘इस में कुछ तो हमारी टीम में हैं और कुछ बाहर भी हैं।’ बात ही बात में वह कहने लगे, ‘मेरा लक्ष्य है कि भोजपुरी और अवधी लोकगीतों का डिस्को की होड़ में झंडा ऊंचा रहे।’
फिर बालेश्वर की नौकरी-चाकरी की बात चली तो वह टाल गए। कहने लगे‘नौकरी चाकरी से अब क्या लेना देना।’
‘एक प्रोग्राम का कितना लेते हैं?’ जैसे सवाल भी वह इनकम टैक्स की आड़ में टाल गए। पूछा कि गांव कब जाते हैं तो कहने लगे, ‘गांव कभी काल जाता हूं। 6 महीना हो गए। जब उधर प्रोग्राम लगता है तो ज़रूर जाता हूं।’
खेती बारी?
-खेती बारी एक भतीजा देखता है।’
लखनऊ में दारुलशफा बी ब्लॉक के एक गैराज में बैठकी जमाने वाले बालेश्वर के चाहे जितने अंतर्विरोध हों, वह चाहे जितने बदल गए हों, बलेसरा से बालेश्वर हो गये हों, गांव भी भले ही कभी-कभार जाते हों पर एक बात वह अभी भी नहीं भूले हैं। वह है चुनाव प्रचार। और वह जिस भी किसी के चुनाव प्रचार में गाने गाते हैं वह जीत जाता है। फ़र्क बस यही है कि पहले वह झारखंडे राय सरीखों का चुनाव प्रचार करते थे और अब कल्पनाथ राय जैसों का।
तो का बलेसरा के बिकाने का राज यही है?
-लेकिन बलेसरा के बिकाने का मर्म चुनाव प्रचार नहीं है। वह तो बिकाता है हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले मजूरों, मेहनतकशों और खेतिहरों के बीच।
शहरी ड्राइंग रूमों की शोभा बलेसरा न हो, न सही। वह तो खेतों की मेड़ों, मेलों बाज़ारों, गांव की गलियों और मद्धिम रौशनी वाले मटियारे घरों में मकलाता गाता बजाता है, ‘समधिनिया का पेट जइसे इंडिया का गेट!’ बिलकुल मीठी नरम ऊंख की तरह। पोर-पोर खोलता हुआ एक ही गुल्ले में, ‘समधिनिया का बेलना झूठ बोलेला।’ भद्रलोक नहीं सुन पाता तो नहीं सुने। बलेसरा तो, ‘रई-रई-रई’ करते हुए गाएगा, बिकाएगा और ललकारेगा भी, ‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी/ आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी।’ बालेश्वर की गायकी का यह अंतिम बिंदु नहीं है। बदलाव के कई पड़ाव अभी बाकी हैं।
[ 1992 में लिया गया इंटरव्यू ]

हैदराबाद संग्राम काल में आर्य समाज द्वारा किया प्रखर आंदोलन

[आज हैदराबाद का ओवैसी मुस्लिम अधिकारों को लेकर संसद से लेकर सड़क पर शोर मचाता फिरता हैं। इतिहास उठाकर देखिये ओवैसी के पिता और उसके सहयोगियों द्वारा चलाई जाने वाली मजलिस नामक संस्था  निज़ाम द्वारा संरक्षित रजाकारों की फौज के साथ मिलकर हिन्दुओं पर कैसे कैसे अत्याचार करती थी। उस विपत्ति काल में कैसे आर्यसमाज ने इन मज़हबी अत्याचारियों का प्रतिकार किया था-संपादक ]
हैदराबाद राज्य में सन 1920 में आर्य समाज की स्थापना हुई  अगले दो-तीन सालों में ही व्यवस्थित ढंग से काम करने वाली लगभग दो सौ शाखाएँ खुल गईं। निज़ामी राज्य में हैदराबाद के बै. विनायकराव कोरटकर आर्य समाज के अध्यक्ष थे । बंसीलालजी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने उदगीर में अपना मुख्य कार्यालय खोला । उन्होंने “वैदिक संदेश” नामक वृत्तपत्र सोलापुर से प्रकाशित करना शुरू किया ।
“वैदिक संदेश” को निज़ाम स्टेट में सभी दूर पहुँचाने की व्यवस्था की । यह अत्यंत अनुशासनप्रिय और ध्येयवादी संगठन था । मातृभूमि के प्रति निश्चल प्रेम और अपने धर्म पर प्रगाढ़ निष्ठा, इन दो मानबिंदुओं के लिए हर आर्य समाजी अपनी जान की भी बाजी लगाने को तैयार रहता था ।
हैदराबाद राज्य के बहुसंख्यक समाज का कोई रखवाला नहीं था । उलटे हिंदुओं को समाप्त करने के लिए खाकसार पार्टी, निज़ाम सेना, इत्तेहादुल संगठन, दीनदार सिद्दीक़ के धर्मप्रचारक अनुयायी, सबने कोहराम मचा रखा था । सब समझ चुके थे कि इन सबका प्रतिकार करने वाला,हिंदुओ का एकमात्र संगठन आर्य समाज ही है । उत्तर भारत से सैंकड़ों आर्य समाजी कार्यकर्ता अपनी जान की परवाह किये बिना, निजाम राज्य में चले आये । विशेषकर मराठवाडा में कई आर्य समाजी नेता और कार्यकर्ता निजाम के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो गए ।
2/9/1929 को “दीनदार सिद्दीक़ पार्टी” नामक इस्लाम धर्म प्रसारक संस्था की स्थापना हैदराबाद राज्य में हुई । दीनदार सिद्दीक़ स्वयं को चन्न बसवेश्वर का अवतार बताते थे, और कहते थे कि भगवान् बसवेश्वर के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए ही इस्लाम धर्म है । इस प्रकार गुमराह करके दीनदार सिद्दीक़ और उनके अनुयायियों ने हिंदुओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करना शुरू किया । अपने प्रचार-प्रसार में वे राम और कृष्ण जैसे हिंदुओं के भगवानों का अपमान करते और इस्लाम को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताते । 1929 में आर्य समाजी आंदोलन में भी तेज़ी आई। 1930 में हैदराबाद राज्य के प्रत्येक जिले में आर्य समाज का संगठन खड़ा होने लगा । उद्गीर के भाई बंसीलाल और श्यामलाल, इन दोनों बंधुओं ने राज्य में भरपूर कार्य किया । हिंदु समाज में फैली कमजोरी और हीनभावना को नष्ट कर, उसे पूरे स्वाभिमान और गर्व से जीना आर्य समाज के कार्यकर्ताओं, बै. विनायकरावजी विद्यालंकार, पं. नरेंद्र जी आर्य आदि ने सिखाया । अपने राज्य में आर्य समाज के बढ़ते प्रभाव को देख कर निजाम की वक्रदृष्टि आर्य समाज पर पड़ी । 1935 में निलंगा में सरकार ने अपने गुंडों के माध्यम से एक हवनकुंड और एक आर्य समाज मंदिर ध्वस्त कर दिया । किसी के हाथ में “सत्यार्थ प्रकाश” पुस्तक देखते ही निजामी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती ।  निलंगा की घटना से शेषरावजी वाघमारे (पिताजी – आनंद मुनिजी) और उनके सहयोगी कार्यकर्ताओं के क्रोध की सीमा न रही । शेषरावजी निर्भीक, साहसी, संगठन-कुशल और बुद्धिमान नेता थे । उन्होंने इस अत्याचार का बदला लेने के लिए हजारों लोगों को गाँव-गाँव में, शस्त्रों से सुसज्जित आर्य समाज का संगठन स्थापित करने के लिए प्रेरित किया । भाई बंसीलाल जी,श्याम लाल जी, शेषराव जी, दत्तात्रेय प्रसाद, गोपाल देव शास्त्री आदि आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव घूम कर हिंदुओं को वैदिक धर्म के ध्वज तले हथियारों समेत एकत्रित किया। अनगिनत गांवों में आर्य समाज मंदिर स्थापित हुए। इत्तेहादुल पार्टी या रजाकार की ओर से आक्रमण होने का कोई भी अंदेशा होता, तो आर्य समाज मंदिर की घंटियां बजने लगती । घंटियों की आवाज सुन घर-घर से पुरुष और 18-20 साल के लड़के लाठियां, कुल्हाड़ी,भाले, बरछियाँ, तलवारें, बंदूके आदि लेकर आर्य समाज मंदिर की ओर दौड़ पड़ते । 5-10 मिनट में ही सभी, पूरे अनुशासित तरीके से मुकाबले के लिए तैयार हो जाते। खाकसार पार्टी, दीनदार सिद्दीक़ पार्टी, इत्तेहादुल संगठन और रज़ाकार के पीछे सरकार थी । इसलिए वे सभी हिंदुओं के खिलाफ बेरोकटोक हिंसा कर रहे थे । हिंदू व्यक्ति यदि किसी रोहिले या पठान को गलती से भी कुछ कह दे तो वे तुरंत पिस्तौल निकाल लेते और जान से मार डालने की धमकी देते ।
हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण का काम पूरे ज़ोरों से चल रहा था । इस काम को सरकार का पूरा प्रोत्साहन और सहायता थी । सरकार की ओर से इसी काम के लिए तीन सौ से ज्यादा मौलवी वेतन पर रखे गए थे । इस मुहीम को “तबलीत” या “तंज़ीम” कहा जाता था । निजाम ने वेतनभोगी मौलवियों को नियुक्त किया था और हिंदू-मुसलमानों में शांति बनाये रखने के लिए “अमन कमेटिया ” बनाई थी । ये मौलवी उन कमेटियों में काम करते थे । ये अमन कमेटिया सिर्फ दिखावे के लिए थी । ये वेतनभोगी मौलवी अस्पृश्यों की बस्तियों में घूम-घूम कर उन्हें हिंदुओं के खिलाफ बगावत करने के लिए भड़काते थे । ये मौलवी मुस्लिम गुंडों को भी भड़काते । ये गुंडे खुराफात कर के दंगे भड़काते और सरकारी नौकर उनको बचाते ।
उदाहरण के लिए, तालुका कलंब में अंदुर गाँव में एक खटीक, गाय को काटकर उसका माँस बेचने के लिए बाजार में सड़क पर ही बैठ गया। हिंदुओं ने इस पर आपत्ति ली । उससे कहा – “चाहो तो अपने घर में तुम गोमाँस बेचो, लेकिन यहाँ बीच सड़क पर मत बैठो ।” पुलिस हवलदार ने ही फौजदार से उसकी तकरार की । लेकिन फौजदार साहब ने तो हद ही कर दी !! वे खुद उस गाँव में पहुँचे और उस खटीक को सड़क से उठाकर हनुमान मंदिर की चौपाल पर बैठा दिया । हिंदू और क्रोधित हो गए और दंगा भड़कने के आसार नज़र आने लगे । तब फौजदार साहब ने उसे चौपाल से उठाकर मंदिर के सामने बैठा दिया । ऐसे थे वहाँ के सरकारी अधिकारी !!
ऐसी घटनाओं से आर्य समाज के लोग और संगठित होते गए । साथ ही इत्तेहादुल पार्टी और मुस्लिम गुंडे और भी भड़क उठे । 1938 में गुंजोटी में वेदप्रकाश का खून हो गया । वेदप्रकाश की हत्या का समाचार पाते ही भाई बंसीलाल और वीरभद्र जी आर्य तुरंत गुंजोटी पहुँचे । पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया ।
 वेदप्रकाश का खून हैदराबाद मुक्ति संग्राम का पहला बलिदान था । उसके बाद भाई श्यामलाल जी को ख़राब खाना और पानी देकर प्रताड़ित किया गया । बीमार होने के बाद भी दवाखाने में नहीं ले जाया गया । अंततः जेल में ही उन्हें जहर देकर मार दिया गया ।
हैदराबाद राज्य में 1938-39, इन दो सालों में शहर में हजारों की संख्या में आर्य समाजी लोगों ने सत्याग्रह किया । सोलापुर में माधवराव अणे की अध्यक्षता में एक परिषद् आयोजित की गई ताकी इस सत्याग्रह को हिंदुस्तान की जनता का भी समर्थन मिल सके । इस परिषद् में “हैदराबाद विरोध दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया । सारे हिंदुस्थान भर में “हैदराबाद विरोध दिवस” का माहौल बनने लगा । भारत भर से कई आर्य समाजी सत्याग्रह में भाग लेने के लिए हैदराबाद स्टेट पहुँचने लगे । सोलापुर, राजस्थान, दिल्ली, नागपुर, उत्तर प्रदेश, रावलपिंडी से हजारों कार्यकर्ता हैदराबाद में दाखिल हुए । अनगिनत सत्याग्रहियों को जेलों में ठूंस दिया गया । कईयों को पीटा गया । ख़राब खाना और पानी देने के कारण कई सत्याग्रही बीमार पड़ गए । उसमें भी हद तो तब हो गई, जब इत्तेहादुल संगठन के गुंडे जेलों में घुस कर पुलिस के सामने, सत्याग्रहियों को बेरहमी से मारने-पीटने लगे । इस अत्याचार में एक कार्यकर्ता सदाशिव विश्वनाथ पाठक की 12-08-1939 को हैदराबाद जेल में मृत्यु हो गई । राजस्थान के स्वामी ब्रह्मानंद जी का भी चंचलगुडा जेल में निधन हो गया । दिल्ली के शांति प्रकाश जी की भी हैदराबाद जेल में 27-07-1939 को मृत्यु हो गई । नागपुर के पुरुषोत्तम प्रभाकर की 16-12-1938 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के माखन सिंह की 01-07-1939 को हैदराबाद जेल में, रावलपिंडी के पंडित परमानंद जी की  05-04-1939 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के स्वामी कल्याणानंद जी की  08-07-1939 को गुलबर्गा जेल में, बैंगलोर के स्वामी सत्यानंद जी की     को चंचलगुडा जेल में, विष्णु भगवंत अंदुरकर की 02-05-1939 को चंचलगुडा जेल में, व्यंकटराव कंधारकर की 09-04-1939 को निजामाबाद जेल में मृत्यु हुई । कुल 23 लोगों ने इस आंदोलन के दौरान जेल में अपने प्राणों की आहुति दी ।
उमरी, जिला नांदेड में गणपतराव, गंगाराम और दत्तात्रेय इन तीन आर्य समाजी प्रचारकों को पठानों ने पत्थरों से पीट-पीट कर मार डाला ।
1942 में उद्गीर में बै. विनायकराव जी विद्यालंकार की अध्यक्षता में एक परिषद् हुई । इस परिषद् में निजामी पुलिस, रज़ाकारों और अमानवीय अत्याचार करने वाले सभी घटकों को चेतावनी दी गई । तब पुलिस और मुस्लिम संगठनों की ओर से हिंदुओं के घरों और दुकानों पर ज़ोरदार हमले किये गए । हुमनाबाद में एक जुलुस पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई जिससे 5 लोग मारे गए ।
1943 में निज़ामाबाद में फिर एक बार आर्य समाज की परिषद हुई । आर्य समाज के लिए काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की देश, धर्म और ध्येय पर निष्ठा और व्यवहार पूरी तरह से अनुशासनपूर्ण था । इस परिषद् में पच्चीस हज़ार सैनिकों का एक दल स्थापित करने का निर्णय हुआ । साथ ही, यह भी निर्णय हुआ कि कई स्थानों पर पाठशालाएँ खोलकर देश से प्रेम करने वाले, निष्ठावान, ऊर्जावान और अनुशासनपूर्ण युवाओं का निर्माण किया जाये ।
निज़ाम सरकार ने आर्य समाज की दीक्षा ले चुके सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को निकाल देने का फरमान जारी किया । इतना ही नहीं,यहां तक कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी किसी आर्य समाजी से बात करता हुआ दिख जाए, तब भी उसे नौकरी से निकाल देने के आदेश जारी कर दिए गए थे । कुल मिलाकर निजाम सरकार का आर्य समाज के लोगों के बारे में अत्यंत सख्त रवैया हो चुका था ।
लातूर के एक नवविवाहित जोड़े को बार-बार पुलिस थाने में बुलाया जाता था । यह युगल पूरी तरह से त्रस्त हो चुका था । पुलिस के की परेशानी से मुक्ति के लिए कोई उनकी मदद करने की स्थिति में नहीं था । ऐसे में किसी ने उन्हें “आर्य समाजी” हो जाने की सलाह दी । इसलिए वे आर्य समाजी बन गए । आश्चर्य की बात यह कि, सचमुच ही उस दिन के बाद से किसी भी पुलिस वाले ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया । उन्हें बुलाने कोई पुलिस का जवान उसके बाद कभी नहीं आया ।
1924 में उस्मानाबाद जिले में आर्य समाज की स्थापना की गई । केशवराव कोरटकर, अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, श्रीपादराव सातवलेकर आदि के नेतृत्व में उस्मानाबाद जिले में कई स्थानों पर आर्य समाज का संगठन खड़ा होने लगा । कई स्थानों पर आर्य समाज मंदिर खोले गए । बापूराव मास्टर,रामभाऊ मैंदरकर, तुलजाराम सुरवसे ने मिलकर उस्मानाबाद जिले में आर्य समाज के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कामों में अच्छी तेजी लायी ।इनके साथ सन्मित्र समाज के दत्तोपंत जिंतूरकर, बलभीमराव हिंगे, ज्ञानराव सालुंके, डांगे, देवीदास मुरूमकर, पुरुषोत्तमराव माशालकर आदि कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी की दृष्टि से एक व्यायामशाला प्रारंभ कर बल की उपासना की शुरु की । महाराष्ट्र समाज के कार्यकर्ता द.या. गणेश, न.प. मालखरे, शंकर नायगांवकर, चंदूलाल गांधी, सुपेकर,जिंतुरकर, आदियों ने गांव-गांव जाकर जनजागृति का कार्य किया और स्वयं सत्याग्रह में भाग लिया । उन्हें सजा भी हुई।
 इसी दौरान सोलापुर में दयानंद कॉलेज की स्थापना हुई ।मराठवाड़ा के लोगों के लिए सोलापुर, हैदराबाद की तुलना में शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से ज्यादा सुलभ था । इसलिए दयानंद कॉलेज में छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। अंग्रेजों और निजामशाही के खिलाफ शुरू किए गए स्वतंत्रता संग्राम के लिए युवकों को प्रेरणा देने का कार्य इसी कॉलेज नेकिया । यह बात एक खुल्ला सत्य है। कॉलेज के विद्यार्थी आर्य समाज के विचारों से प्रभावित होकर निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह और वंदे मातरम सत्याग्रह में पूरे जोर-शोर से भाग लेने लगे । दयानंद कॉलेज में मराठवाड़ा से आए हुए विद्यार्थियों ने हैदराबाद स्टूडेंट यूनियन की स्थापना की। इस यूनियन के तत्वावधान में कॉलेज प्रांगण में विनायकराव जी विद्यालंकार, पंडित नरेंद्र जी, भाई बंसीलाल जी जैसे आर्य समाज के नेताओं के भाषण होने लगे । गांधी जी के कहने पर “कॉलेज छोड़ो आंदोलन” को उग्र रूप प्राप्त हुआ और विद्यार्थी तेज़ी से कॉलेज छोड़कर जाने लगे । उस्मानाबाद जिले की सीमा पर लगे हर शिविर में दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी हर काम में आगे थे । “पहले स्वराज फिर शिक्षा” के अपने ध्येय को हैदराबाद राज्य में फैलाने और हैदराबाद शहर तक पहुंचाने के लिए, दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी पहुंचे । कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य श्रीराम शर्मा जी, जो एक विख्यात इतिहासकार थे, ने विद्यार्थियों को देशप्रेम और धर्मप्रेम की शिक्षा तो दी ही, साथ ही अन्याय के विरुद्ध लड़ने की शक्ति भी दी । विद्यार्थियों को निर्भय बनाया। दयानंद कॉलेज क्रांति के लिए शस्त्र और प्रेरणा प्रदान वाला एक असीमित भंडार बन गया था ।
हर छोटे-बड़े गांव में आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी और उसका काम बढ़ रहा था। इसके कारण दीनदार सिद्दिक संगठन का प्रभाव कम होने लगा । मुरूम (तालुका उमरगा) में आर्य समाज की स्थापना हुई, तब निजाम ने वहां 200 फौजी जवानों की एक टुकड़ी भेजी तैनात की । फ़ौज की मदद से दीनदार सिद्दीक पार्टी और खाकसार पार्टी अपना कार्य करने लगी। आष्टा (कासार) में सिद्दीकी के भाषण से लोग भड़क उठे, क्योंकि भाषण के पहले सिद्दीक पार्टी के लोग मस्जिद में एक गाय लेकर आये थे ।
श्याम लाल जी को यह समाचार मिलते ही वे आष्टा (कासार) में पहुंचे । उन्होंने आष्टा(कासार), मुरूम आदि गांव में भाषण देकर हिंदुओं को आर्य समाज की दीक्षा दी और उन्हें यज्ञोपवित पहनाया । आर्य समाज का आंदोलन हैदराबाद स्टेटकी सीमा तक पहुंचा हुआ देखकर निजाम ने फौज का खर्चा भी हिंदुओं पर लाद दिया। इससे असंतोष और भी बढ़ने लगा । सर अकबर हैदरी उस समय निजाम के प्रधान थे ।
अनंतराव काका (आष्टा कासार), राम पांढरे, और करबसप्पा ब्याले, यह सभी लोग हैदराबाद जाकर हैदरी साहब से मिले। सभी ने मिलकर हैदरी साहब को अनुरोध किया कि यह सारा खर्च हिंदु प्रजा पर लादना अन्यायपूर्ण है और उसे हटा दिया जाए। तब हैदरी साहब ने यह खर्च हिंदुओं और मुसलमानों पर एक समान कर दिया । लेकिन प्रजा के द्वारा फ़ौज का खर्च उठाना अन्यायपूर्ण ही था और यह चलता रहा । सोलापुर से प्रकाशित होने वाले “वैदिक संदेश” और “सुदर्शन”, इन दो आर्य समाजी मुखपत्रों के माध्यम से, संग्राम की सारी जानकारी, आगामी कार्यक्रम और सूचनाएं लोगों तक पहुंचने लगे । “वैदिक संदेश” ने तो “निजाम सरकार के काले कानून” नामक पुस्तक भी प्रकाशित की ।
हैदराबाद स्टेट में उस्मानाबाद जिले के कुल 13 लोगों पर भाषण और लेखलिखने पर प्रतिबंध लगाया गया था । इन 13 लोगों के नाम पूरे राज्य में जारी किए गए थे । इस सूची में राम पांढरे (मुरुम) का भी नाम था । इन 13 व्यक्तियों को “नागवार बागी” करार दे कर निज़ाम सरकार ने नोटिस भेजी थी ।
हुतात्मा रामा मांग
तावशी, ता. लोहारा (पायगा) में रामा मांग नामक व्यक्ति ने आर्य समाज की दीक्षा ली थी। 1932 में तावशी में एक हिंदू मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने की कोशिश की जा रही थी । तब क्रोधित आर्य समाजी लोगों ने मस्जिद के चबूतरे को तोड़ दिया । फिर तावशी के रज़ाकार, आसपास के गांव में जाकर दो ट्रक भरकर सशस्त्र पठान और अरबी लोगों को बुलाकर लाये ।
ये सभी – “अब देखते हैं , किसमें हिम्मत है हमें रोकने की ?” और “अल्ला हू अकबर” चिल्लाते हुए मंदिर को तोड़ने के लिए निकले । इतने सारे सशस्त्र पठानों और अरबों को देखकर सभी हिंदू चुपचाप खड़े रहे । लेकिन तभी जोर से आवाज आयी – “मैं तैयार हूं…. तुम लोगों से मुकाबला करने के लिए !! मंदिर की एक ईट को भी किसी ने हाथ लगाया, तो एक-एक के सर काट दूंगा !!” यह आवाज़ थी , रामा मांग की !! वह अकेला ही था, लेकिन बहुत बलशाली था। रामा को आगे आते हुए देखकर एक पठान ने उस पर गोली चलाई। गोली उसकी जांघ में घुस गई । उसी अवस्था में रामा मांग अरबों और पठानों की भीड़ पर टूट पड़ा ।
पहले ही झटके में उसने चार पठान और एक अरब को नरक पहुँचा दिया । एक पठान के हाथ से बंदूक छीन कर उसने चार और पठानों और एक अरब के सर फोड़ दिए । एक पठान के हाथ का तमंचा उसने छीन लिया । रामा मांग का वो आवेश देखकर, पठानों और अरबों ने वहाँ से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी । लोग रामा मांग को तुलजापुर ले गए और फिर वहां से उसे उस्मानाबाद ले जाया गया । जांघ में लगी गोली के कारण अत्यधिक रक्त बह गया था और वह बेहोश हो गया था । अंततः उस्मानाबाद के अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई ।
आर्य समाज की एक शाखा के अध्यक्ष माणिकराव पर गुंडों ने हमला कर उन्हें जख्मी कर दिया । 27 अक्टूबर 1938 को अस्पताल में उनका निधन हो गया । पुलिस ने उनके शव को उनके घरवालों को देने से इंकार कर दिया । तब आर्य समाजी युवकों ने इसके विरोध में जुलूस निकाला । पुलिस ने पं. देवीलाल और अन्य 20 आर्य समाजी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया ।
इस प्रकार निजाम ने हर तरह से आर्य समाजी कार्यकर्ताओं पर अत्याचार किए। आर्य समाज पर निजाम को अत्यंत क्रोध था । हिंदुओं का संगठन करने वाले आर्य समाज के आंदोलन को कुचलने के लिए उसने हर संभव मार्ग अपनाया । लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आर्य समाज की शाखाएं दुगनी होने में नजर आने लगी । आर्य समाज ने न केवल हिंदुओं का संगठन किया, बल्कि जन्मजात मुसलमानों को भी वैदिक पद्धति से दीक्षा देकर उनका शुद्धिकरण का कार्य अत्यंत द्रुतगति से जारी रखा । अनेक अस्पृश्यों को आर्य समाज में स्थान देकर उनके मन में हिंदूधर्म और हिंदूराष्ट्र के प्रति प्रेम और स्वाभिमान पैदा किया । आर्य समाज द्वारा हैदराबाद स्टेट में किया गया यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुमूल्य है । आर्य समाज संगठन के कारण ही हैदराबाद स्टेट कांग्रेस मजबूती से खड़ी हो सकी ।
(मराठी ग्रंथ – “हैदराबाद स्वातंत्र्य संग्राम” से साभार, लेखक: स्व. वसंत ब. पोतदार)
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कोटा के विजय जोशी राज्य स्तरीय ” हिन्दी सेवा पुरस्कार” से सम्मानित

कोटा/ कोटा के प्रसिद्ध कथाकार और समीक्षक विजय जोशी को हिन्दी साहित्य ‘ कथेतर विधा ‘ में इनकी कृति  “अनुभूति के पथ पर : जीवन की बातें ” के लिए राज्य स्तरीय ” हिन्दी सेवा पुरस्कार – 2024 ” से
पचास हजार रुपए के चेक, श्रीफल, शाल, पुस्तक एवं सम्मान- पत्र प्रदान कर सम्मानित किया गया। राज्य सरकार के भाषा एवम् पुस्तकालय विभाग द्वारा जयपुर में हिन्दी दिवस पर आयोजित राज्य स्तरीय समारोह में मुख्य अतिथि  उप मुख्यमंत्री  दिया कुमारी  एवं विशिष्ट अतिथि श्री अविनाश गहलोत मंत्री, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता तथा  गोपाल शर्मा माननीय विधायक, सिविल लाइन्स, जयपुर एवं समारोह अध्यक्ष  कृष्ण कुणाल शासन सचिव, स्कूल शिक्षा, भाषा एवं पुस्तकालय विभाग द्वारा प्रदान किया गया।
मुख्य वक्ता डॉ. के. के. पाठक शासन सचिव, कार्मिक विभाग थे। समारोह में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में हिन्दी विषय में शत प्रतिशत अंक लाने वाले 318 प्रतिभाशाली छात्र – छात्राओं को भी सम्मानित किया गया तथा विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका “भाषा विमर्श” के “प्रशासन में सर्जन” विशेषांक अंक का विमोचन भी किया।
जोशी की समीक्षात्मक आलेखों की इस कृति में पाठक को एक स्थान पर अलग –  अलग लेखकों की विभिन्न प्रकार की साहित्यिक विधाओं की पुस्तकों का विश्लेषणात्मक परिचय प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण प्लेटफार्म उपलब्ध होता है। साहित्य की हर विधा पर लिखी गई पुस्तकों की समीक्षा  चिंतन – मनन करने की एक दिशा प्रदान करती है। समीक्षा करने की यह विशेषता है कि वे पुस्तक का आद्योपांत गहन, निष्पक्ष, वैज्ञानिक एवं अंतः प्रवृति के साथ अध्ययन कर उसका वास्तविक चित्रण करते हैं। यही सार पाठक को सहजता से पुस्तक की पूरी जानकारी देने में सक्षम है और पाठकों में पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। यही उनकी समीक्षा की सफलता का राज है।
विजय जोशी की हिन्दी और  राजस्थानी में अब तक एक दर्जन से अधिक  पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें दो हिन्दी उपन्यास ,पाँच हिन्दी कहानी संग्रह ,एक बाल कहानी संग्रह, चार हिन्दी समीक्षा-आलेख ग्रन्थ, दो राजस्थानी कहानी संग्रह, एक राजस्थानी अनुवाद, एक राजस्थानी समीक्षा-आलेख ग्रंथ, एक राजस्थानी गद्य विविधा  शामिल हैं। इनके साहित्य का मूल्यांकन करते हुए विद्वान् साहित्यकारों के सम्पादन में तीन समीक्षा ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, वहीं विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा दो शोधार्थियों को पीएच.डी. तथा तीन विद्यार्थियों को एम. फिल. की उपाधि प्रदान की गई है। एक विद्यार्थी वर्तमान में पीएच.डी. हेतु शोधरत है।
सृजनात्मक लेखन के साथ राजस्थानी और हिन्दी साहित्य की सेवा के लिए इनको राष्ट्रीय स्तर पर मिले पुरस्कारों में भाऊराव देवरस सेवा न्यास, द्वारा पं. प्रतापनारायण मिश्र स्मृति कथा-विधा का ‘युवा – साहित्यकार सम्मान-  लखनऊ, उत्तर प्रदेश, राजस्थान पत्रिका द्वारा अखिल भारतीय  ‘ हिन्दी हैं हम अभियान ‘ के  अन्तर्गत “लघुकथा विधा” का द्वितीय पुरस्कार, – मुंशी प्रेम चंद कथाकार सम्मान , दिल्ली, हिन्दी प्रतिष्ठा सम्मान, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश प्राप्त हुए हैं। राज्य स्तर पर मिले पुरस्कार-सम्मानों में सृजन साहित्य सम्मान , श्री गंगानागर, गौरीशंकर कमलेश स्मृति राजस्थानी साहित्य पुरस्कार , अक्षर सम्मान  प्रमुख हैं ।  वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा द्वारा हिन्दी दिवस पर सम्मान- , साहित्य श्री सम्मान , आशीर्वाद अचीवर्स अवार्ड , हिन्दी सेवी सम्मान  सृजन साहित्य सम्मान,  प्रमुख हैं। जिला स्तर पर मिले पुरस्कार-सम्मान में राजस्थान सरकार, जिला प्रशासन कोटा द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर सम्मान , मुंशी प्रेमचन्द कथा सम्मान , हिन्दी दिवस सम्मान  और सृजन रत्न सम्मान प्रमुख हैं।
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‘वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा का योगदान’

विषयक त्रि-दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न गुर्रमको़ड नीरजा हिंदी है हृदय की भाषा : रेणुका संग्रामसिंह सुखलाल व्यावहारिक स्तर पर हिंदी अपनाएँ, सांस्कृतिक धरोहर को अंतरित करें

त्रिनिदाद यात्रा से डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की रिपोर्ट

 

पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिदाद और टोबैगो। “त्रिनिदाद की जनता के लिए हिंदी हृदय की भाषा है। ऐसी हिंदी भाषा को तथा उसकी संस्कृति को सुनिश्चित रखना अनिवार्य है। भले ही यह कार्य कठिन है लेकिन असाध्य नहीं। त्रिनिदाद में बसा हुआ हर भारतीय मूल का परिवार अपनी संस्कृति और सभ्यता, विशेष रूप से अपनी भाषा हिंदी को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष कर रहा है।”

माउंट होप, त्रिनिदाद में स्थित महात्मा गांधी सांस्कृतिक सहयोग संस्था के सभागार में 6 से 8 सितंबर, 2024 तक भारतीय उच्चायोग, पोर्ट ऑफ स्पेन द्वारा आयोजित “त्रि-दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन”  का उद्घाटन करते हुए  अटॉर्नी जनरल कार्यालय और कानूनी मामलों के मंत्रालय की मंत्री रेणुका संग्रामसिंह सुखलाल ने उक्त विचार व्यक्त किए। उन्होंने यह भी चिंता व्यक्त की कि कैरेबियन देशों में  भारतवंशी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति, सभ्यता और हिंदी भाषा को अंतरित करने में असमर्थ हो रहे हैं।

भारतीय उच्चायोग, पोर्ट ऑफ स्पेन के उच्चायुक्त डॉ. प्रदीप राजपुरोहित ने सबका स्वागत करते हुए कहा कि सबको व्यावहारिक स्तर पर हिंदी को अपना चाहिए। पंडिताऊ भाषा के स्थान पर सामान्य बोलचाल की हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से हिंदी भाषा में निहित सांस्कृतिक एवं लोक धरोहर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतरित किया जा सकता है। उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोग अपनी भाषा को अक्षुण्ण रख पाने में असमर्थ अनुभव करने लगे हैं। हिंदी भाषा, विशेष रूप से बोलचाल की भाषा, पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि दूतावास स्कूली स्तर पर हिंदी कक्षाएँ चलाने का प्रयास कर रहा है।

 हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहन के रूप में छात्रवृत्ति देने के लिए भी तैयार है। उन्होंने त्रिनिदाद वासियों से अपील की कि हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझकर हिंदी के प्रचार-प्रसार में आगे बढ़े। उन्होंने यह प्रश्न किया कि क्या स्थानीय शिक्षण संस्थाएँ इस कार्य को अंजाम देने में उच्चायोग का सहयोग करने के लिए तैयार हैं?

पोर्ट ऑफ स्पेन स्थित राष्ट्रीय भारतीय संस्कृति परिषद (एनसीआईसी) के अध्यक्ष देवरूप तीमल ने कहा कि भाषा जीवन के साथ एकीकृत है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वैश्विक स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए नेटवर्किंग आवश्यक है। आगे उन्होंने कहा कि त्रिनिदाद और टोबैगो में स्थित भारतीय मूल के वासियों में भारतीय संस्कृति ‘रामचरित मानस’ के रूप में विद्यमान है। भले ही यहाँ के लोग अर्थ न जानते हों, लेकिन मानस के पद कंठस्थ करते हैं। यह इसलिए क्योंकि भारतीयता उनके डीएनए में विद्यमान है।

भारतीय विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव रवींद्र प्रसाद जायसवाल ने कहा कि भारतीयता को समझने की कुंजी है हिंदी भाषा। यदि हम सांस्कृतिक अस्मिता को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं तो क्षेत्रीय रंगों को भी अपनाना होगा। उन्होंने भी यही चिंता व्यक्त की कि इस यात्रा में हिंदी भाषा कहीं पीछे छूट रही है।

राष्ट्रीय पुस्तकालय और सूचना प्रणाली प्राधिकरण (नालिस) के चेयरमैन नील पर्सनलाल ने हिंदी भाषा, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज की पीढ़ी में हिंदी भाषा के प्रति रुचि जगाने के लिए पुरजोर कोशिश किए जाने की ज़रूरत है।

त्रिनिदाद में स्थित हिंदी निधि के अध्यक्ष चंका सीताराम ने हिंदी भाषा को त्रिनिदाद और टोबैगो के भाषाई समाज में पुनः स्थापित करने के लिए युवा पीढ़ी से अपील की।

कार्यक्रम के आरंभ में वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय को श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर महात्मा गांधी सांस्कृतिक सहयोग संस्था के छात्र और अध्यापकों ने गायन तथा भरतनाट्यम नृत्य प्रस्तुत किया। ‘हिंदी, शिक्षा और संस्कृति’, पोर्ट ऑफ स्पेन के द्वितीय सचिव शिवकुमार निगम ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन आशा महाराज और ऋषा मोहम्मद ने किया।

उद्घाटन के बाद विचार सत्रों में त्रिनिदाद और टोबैगो के साहित्यकारों, समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ भारत, सूरीनाम, गयाना, अमेरिका से पधारे विद्वानों ने इस संबंध में अपने-अपने विचार व्यक्त किए। प्रथम विचार सत्र में देवरूप तीमल की अध्यक्षता में कमला रामलखन (त्रिनिदाद), सत्यानंद हेरोल्ड परमसुख (सूरीनाम), विकास रामकिसुन (सांसद, गयाना) ने कैरेबियाई क्षेत्र में बोली जाने वाली हिंदी के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला। इस विचार सत्र से यह तथ्य सामने आया कि कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी भाषा को सुरक्षित रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह भी कि सूरीनाम में आज भी ‘सूरीनामी हिंदी’ बोली जाती है जो भोजपुरी और हिंदी का मिश्रित रूप है।

विद्वानों ने यह कहा कि हिंदी और भारतीय संस्कृति उनकी अस्मिता है। इन कैरेबियाई क्षेत्रों में ‘रामचरित मानस’ ने हिंदू समाज को जोड़कर रखा है। यदि यहाँ के समाज में आज भी हिंदी जीवित है तो उसका श्रेय ‘मानस’ को ही जाता है। यहाँ के लोग ‘रामायण’ और ‘वेद’ को भी अंग्रेजी में ही पढ़ते हैं। गायन और संगीत के कारण यहाँ के लोग अपनी मूल संस्कृति के निकट हैं।

डॉ. हितेन्द्र कुमार मिश्र (शिलांग) की अध्यक्षता में संपन्न द्वितीय विचार सत्र में हिंदी भाषा को सीखने के लिए उपलब्ध संसाधनों के बारे में चर्चा करते हुए हिमांचल प्रसाद (गयाना), डॉ. नवलकिशोर भाबड़ा (अजमेर), डॉ. प्रदीप के. शर्मा (सिक्किम) ने यह बताया कि गीत-संगीत, सिनेमा, लोकसंगीत, लोक नाटक आदि के माध्यम से भाषा सीखी और सिखाई जा सकती है। आज के समय में सोशल मीडिया के कारण तथा तकनीकी विकास के कारण इतने सारे मोबाइल एप्लीकेशन्स हैं कि भाषा सीखने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (चेन्नै) की अध्यक्षता में संपन्न तृतीय विचार सत्र में डॉ. निवेदिता मिश्र (त्रिनिदाद), रफ़ी हुसैन (त्रिनिदाद), इंदिरा (त्रिनिदाद) और डॉ. मिलन रानी जमातिया (त्रिपुरा) ने हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों के योगदान पर प्रकाश डाला और यह सिद्ध किया कि यदि उचित वातावरण उपलब्ध हो तो भाषा सीखने में समस्या नहीं होगी। भाषा सीखने के लिए पहली शर्त है जिज्ञासा और ज़रूरत।

चतुर्थ विचार सत्र में सूरजदेव मंगरू (त्रिनिदाद और टोबैगो), डॉ. शिवानंद महाराज (यूडब्ल्यूआई), राणा मोहिप (त्रिनिदाद और टोबैगो), कृष रामखलावन (सूरीनाम) ने ‘बैठक गाना’, ‘चटनी संगीत’ और ‘शास्त्रीय संगीत’ के बारे में बताते हुए व्यावहारिक तौर पर दर्शाया कि इनके माध्यम से कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी भाषा आज तक कैसे जीवित है।

हर विचार सत्र के बाद पैनल चर्चा हुई। रामप्रसाद परशुराम (त्रिनिदाद) की अध्यक्षता में संपन्न पैनल चर्चा में आशा मोर (त्रिनिदाद), नितिन जगबंधन (सूरीनाम), डॉ. नवलकिशोर भाबड़ा (अजमेर), सुनैना परीक्षा रागिनीदेवी (सूरीनाम) और स्वामी ब्रह्मस्वरूप नंदा (त्रिनिदाद और टोबैगो) ने यह प्रतिपादित किया कि रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य कैरेबियाई क्षेत्र के लोगों की आत्मा में बसते हैं। आज की पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं। अपनी भाषा हिंदी को सीखने की कोशिश कर रही है। डॉ. विद्याधर शाह की अध्यक्षता में संपन्न चर्चा में डॉ. हितेंद्र मिश्र, ईशा दीक्षित (त्रिनिदाद), कादंबरी आदेश (फ्लोरिडा) ने भाषा के विकास में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डाला।  नील पर्सनलाल की अध्यक्षता में संपन्न विचार सत्र में डॉ. प्रदीप के शर्मा, डॉ. शशिधरन (केरल), डॉ. मिलन रानी जमातिया, विकास रामकिसुन ने हिंदी भाषा सीखने में फिल्मों की भूमिका पर प्रकाश डाला।

चर्चा-परिचर्चा के उपरांत उच्चायुक्त और सांसदों ने यह घोषणा की कि कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी विकास के लिए अनिवार्य कदम उठाए जाएँगे। यह भी निर्णय लिया गया कि हिंदी सीखने के लिए जो छात्र आगे आएँगे उन्हें छात्रवृत्ति देकर प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं, प्राथमिक स्तर पर हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रस्ताव भी सरकार के समक्ष रखा जाएगा।

त्रि-दिवसीय सम्मेलन के दौरान चर्चा-परिचर्चाओं के अलावा, कैरेबियाई क्षेत्रों में प्रसिद्ध बैठक गाना, चटनी संगीत, लोक नृत्य, शास्त्रीय नृत्य आदि का प्रदर्शन किया गया जिससे संपूर्ण वातावरण जीवंत हो उठा।

प्रस्तुति- डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

सह संपादक ‘स्रवंति’

एसोसिएट प्रोफेसर

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा

टी नगर

चेन्नई – 600017

जम्मू कश्मीर में चुनाव के मुद्दे क्या हैं

अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। यह लोग जब दिल्ली में होते है, तब ‘सेकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात करते हुए एकाएक भावुक हो जाते है। किंतु घाटी लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता के प्रति घृणा, तो बहुलतावाद-लोकंतत्र विरोधी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सहानुभूति दिखती है।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव 18 सितंबर से लेकर एक अक्टूबर के बीच तीन चरणों में संपन्न होंगे। चुनाव का मुद्दा क्या है? क्या कश्मीर वर्ष 2019 से पहले के उस कालखंड में लौटे, जब क्षेत्र में सभी आर्थिक गतिविधियां बंद थी, विकास कार्यों पर लगभग अघोषित प्रतिबंध था, सेना-पुलिसबलों पर लगातार पत्थरबाजी होती थी, गाए-बगाए अलगाववादियों द्वारा बंद बुला लिया जाता था और वातावरण ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे भारत विरोधी नारों से दूषित होता रहता था? या फिर इस केंद्र शासित प्रदेश में बीते पांच वर्षों की भांति वैसी विकास की धारा बहती रहे, जिसके कारण कश्मीर तुलमात्मक रूप से शांत है, देश के शेष हिस्सों की तरह संविधान-कानून का इकबाल है और बहुलतावादी संस्कृति के साथ समरसता से युक्त वातावरण है?

यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि इस चुनाव में जम्मू-कश्मीर के बड़े क्षत्रप दल नेशनल कॉन्फ्रेंस ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है, जिसका घोषणापत्र मतदाताओं से वादा करता है कि सत्ता में लौटने पर उस जहरीली धारा 370-35ए को भारतीय संविधान में बहाल करेंगे, जिसके सक्रिय रहते (अगस्त 2019 से पहले) पूरा सूबा अंधकार में था, पर्यटक आने से कतराते थे, सिनेमाघरों पर ताला लगा हुआ था, मजहब केंद्रित आतंकवाद, पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का वर्चस्व था और शेष देश की भांति दलित-वंचितों के साथ आदिवासियों को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों (आरक्षण सहित) पर डाका था।

धारा 370-35ए के संवैधानिक परिमार्जन के बाद जम्मू-कश्मीर पिछले पांच वर्षों से गुलजार हो रहा है। तिरंगामयी हो चुके श्रीनगर स्थित लालचौक की रौनक देखते ही बनती है। पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। तीन दशक से अधिक के लंबे फासले के बाद नए-पुराने सिनेमाघर संचालित हो रहे हैं। देर रात तक लोग प्रसिद्ध शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय भी सुचारू रूप से चल रहे हैं। दुकानें भी लंबे समय तक खुली रहती हैं। स्थानीय लोगों का जीवनस्तर सुधर रहा है। जिहादी दंश झेलने के बाद वर्षों पहले घाटी छोड़कर गए कश्मीरी पंडित धीरे-धीरे लौटने लगे है।

बदली परिस्थिति में जी-20 सम्मेलन हो चुका है, तो फिल्म निर्माता-निर्देशक घाटी की ओर फिर से आकर्षित होने लगे है। जम्मू-कश्मीर की नई औद्योगिक नीति के अंतर्गत, देश-विदेश से लगभग सवा लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आ चुके हैं, जिससे प्रदेश में 4।69 लाख रोजगार पैदा होने का अनुमान है। यहां तक, गत वर्ष कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी श्रीनगर में तिरंगे के साथ अपनी महत्वकांशी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का समापन कर चुके है। अगस्त 2019 से पहले क्या स्थिति थी, यह पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे के हालिया वक्तव्य से स्पष्ट है।

जम्मू-कश्मीर का एक वर्ग पाकिस्तानी मानसिकता से ग्रस्त है। चूंकि पाकिस्तान किसी देश का नाम न होकर स्वयं में एक विचारधारा है और ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा पाता है, इसलिए घाटी के कुछ नेता इसी चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हुए क्षेत्र को पुराने, मजहबी, अराजकवादी और मध्यकालीन दौर में लौटाना चाहते है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी भी घाटी में इसी विभाजनकारी मानस के प्रमुख झंडाबरदार है। जातिगत जनगणना की हिमायती कांग्रेस का गठबंधन उसी नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ है, जिसने अपने चुनावी घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर में सभी आरक्षणों की ‘समीक्षा’ करने की भी बात कही है। यह वादा क्षेत्र में वाल्मिकी-आदिवासी समाज के साथ मुस्लिम गुज्जर और बकरवालों के अधिकारों पर कुठाराघात करता है। यही नहीं, नेशनल कॉन्फ्रेंस फिर से अलगाववाद से प्रेरित ‘स्वायत्तता’ की बात कर रहा है। उनके घोषणापत्र में उन कैदियों को रिहा करने का वादा किया गया है, जो आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के शामिल होने के कारण जेल में बंद है। साथ ही उसमें श्रीनगर के प्रसिद्ध शंकराचार्य पर्वत को ‘तख्त-ए-सुलेमान’ और हरि पर्वत किले को ‘कोह-ए-मरान’ के रूप में संदर्भित किया गया है।

जम्मू-कश्मीर में प्रमुख क्षत्रपों के अतिरिक्त सज्जाद लोन की ‘पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ और अल्ताफ बुखारी की ‘जेके अपनी पार्टी’ के साथ जेल में बंद अलगाववादी शेख अब्दुल राशिद (राशिद इंजीनियर) की ‘अवामी इत्तेहाद पार्टी’ भी चुनावी मैदान में है। जब से राशिद इंजीनियर ने इस वर्ष बारामूला की लोकसभा सीट से नेशनल कॉन्फ्रेंस के शीर्ष नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बुरी तरह परास्त किया है, तब से आशंका जताई जा रही हैं कि राशिद एक प्रभावशाली ताकत बनकर उभर सकते है, जो क्षेत्र के साथ शेष देश के लिए चिंता का विषय हो सकता है।

लोकसभा चुनाव में उमर की करारी हार ने घाटी में अधिकांश सीटें जीतकर वापसी की उम्मीद कर रही नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थिति को धुंधला किया है। इसी हताशा और अवसरवाद की खोज में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है, जो गुलाम नबी आजाद द्वारा अगस्त 2022 में पार्टी छोड़ने के बाद लगभग कमजोर हो चुकी है। बात यदि पीडीपी की करें, तो उसकी शीर्ष नेत्री और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को भी अनंतनाग-राजौरी संसदीय सीट पर हार का मुंह देखना पड़ा था। उमर और महबूबा की हार से स्पष्ट है कि घाटी के लोग परिवारवादियों से मुक्ति चाहते है। राष्ट्रीय दल के रूप में भाजपा एक बड़ी पार्टी है, जिसका 43 विधानसभा सीटों वाले जम्मू क्षेत्र में मजबूत आधार है।

अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। यह लोग जब दिल्ली में होते है, तब ‘सेकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात करते हुए एकाएक भावुक हो जाते है। किंतु घाटी लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता के प्रति घृणा, तो बहुलतावाद-लोकंतत्र विरोधी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सहानुभूति दिखती है। सच तो यह है कि घाटी में बसे दो प्रकार के वर्ग— भारत-हितैषी और भारत-विरोधी, इन राजनीतिक परिवारों की असलियत जान चुके है और इनसे छुटकारा पाना चाहते है।

यह कहना तो कठिन है कि घाटी की जनता किस ओर जाएगी। इसका खुलासा 8 अक्टूबर को ईवीएम आधारित मतगणना के बाद हो जाएगा। परंतु इतना स्पष्ट कहा जा सकता है कि यदि प्रदेश को इसी तरह विकास के पथ पर चलना है और अलगाववादी-सांप्रदायिक-अराजक तत्वों से छुटाकारा पाना है, तो उन्हें संकीर्ण और मध्यकालीन मजहबी मानसिकता से ऊपर से उठकर सोचना होगा।

( लेखक 


(लेखक एक पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं। वे भारतीय जनता पार्टी से राज्यसभा के सदस्य व  उपाध्यक्ष भी रहे हैं।)

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

वीर सावरकर ने जेल में क्या क्या यातनाएँ सही

मेरा आजीवन कारावास में उन्होंने जेल-जीवन की भीषण यातनाओं का विवरण दिया है। ब्रिटिश सरकार द्वारा दो-दो आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद अपनी मानसिक स्थिति, भारत की विभिन्न जेलों में भोगी गई यातनाओं, अंडमान भेजे जाने पर जहाज पर कैदियों की  नारकीय स्थिति का जीवन्त वर्णन किया है। कालापानी पहुँचने पर सेलुलर जेल की विषम स्थितियों, वहाँ के जेलर बारी का कूरतम व्यवहार, छोटी-छोटी गलतियों पर दी जानेवाली अमानवीय शारीरिक यातनाएँ यथा-कोडे लगाना, बेंत से पिटाई करना, दंडी-बेड़ी लगाकर उलटा लटका देना आदि का वर्णन मन को उद्वेलित करदेनेवाला है। विषम परिस्थितियों में भी कैदियों में देशभक्ति और एकता की भावना कैसे भरी, अनपढ़ कैदियों को पढाने का अभियान कैसे चलाया, किस प्रकार दूसरे रचनात्मक कार्यो को जारी रखा तथा अपनी दृढ़ता और दूरदर्शिता से जेल के वातावरण को कैसे बदल डाला, कैसे उन्होंने अपनी खुफिया गतिविधियों चलाई आदि का सच्चा इतिहास वर्णित है। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक प्रसंग, जिनको पढ़कर पाठकउत्तेजित और रोमांचित हुए बिना न रहेंगे। विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति में भी कुछ अच्छा करने की प्रेरणा प्राप्त करते हुए आप उनके प्रति कृतज्ञता से भर जाएंगे।
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पुस्तक का एक अंश-
जब सावरकर जी को 50 वर्ष की सजा हुई और उनसे उनकी पत्नी मिलने आती है-
कार्यालय में आते ही मैंने देखा, सलाखों की खिड़की के पास मेरे बड़े साले साहब खड़े हैं। साथ में मेरी धर्मपत्नी । बंदीगृह के वेष में, कैदी के दुःखद स्वरूप में, पैरों में जकड़कर ठोंकी हुई भारी बेड़ियों को यथासंभव सहज उठाए हुए मैं आज पहली बार उनके सामने खड़ा हो गया। मेरे मन में धुकधकी हो रही थी। चार वर्ष पूर्व जब इसी बंबई से मैं इनसे विदा लेकर विलायत चला गया, उनकी आकांक्षा थी कि वापस लौटते समय मैं बैरिस्टरी के रोबदार गाउन (चोगा) में तथा उन भाग्यशाली लक्ष्मीधरों के मंडल से घिरा आशा एवं ऐश्वर्य की प्रभा से दमक रहा हूंगा। लेकिन आज मुझे इस तरह निस्सहाय, निराशा की बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर उन्नीस- बीस वर्षीय उस बेचारी युवा रमणी के ह्नदय को कितनी ठेस पहुंची होगी? दोनों सलाखों के पीछे खड़े थे। मुझे छूने के लिए भी उनपर प्रतिबंध लगाया गया था। पास ही पराए लोगों का कड़ा पहरा! मन में ऐसे भाव उमड़ रहे हैं, जिनको शब्दों का सान्निध्य भी संकोचास्पद होता है। हाय! पचास वर्षों के अर्थात् आजीवन बिछोह के पूर्व विदा लेनी है और वह भी इन विदेशी निर्दयी काराधिकारियों के स्नेहशून्य दृष्टिपातों की कक्षा में। इस जन्म में अब आपकी- हमारी भेंट लगभग असंभव ही है। ऐसा कहनेवाली वह भेंट!
आकाश आंधी-पानी से भर जाए, ऐेसे विचार अचानक एक ही क्षण में हृदय की विवेक चौकी पर उन्हें रोका गया। उनके सारे झूण्ड छिन्न-विछिन्न किए गए और दृष्टि मिलते ही नीचे बैठकर मुस्कुराते हुए मैंने पूछा,’’ क्यों, देखते ही पहचान लिया मुझे? यह तो केवल वस्त्र परिवर्तन हुआ है। मैं तो वही हूं। सर्दी का निवारण करना ही वस्त्रों का प्रमुख उद्देश्य होता है, जो इन कपड़ोें द्वारा भी पूरा हो रहा है।’’ थोड़ी देर में विनोद-निमग्न होकर वे दोनों इतने सहज होकर वार्तालाप करने लगे, जैसे वे अपने घर में बैठकर ही गपशप कर रहे हों।
अवसर पाकर मैंने बीच में ही कहा, ’’ठीक है, ईश्वर की कृपा हुई तो पुनः भेंट होगी ही। इस बीच कभी इस सामान्य संसार का मोह होने लगे तो ऐसा विचार करना कि संतानोत्पति
करना, चार लकड़ी- तिनके जोड़कर घोंसला बनाना ही संसार कहलाता हो तो ऐसी गृहस्थी कौए-चिड़िया भी बनाते हैं। परंतु गृहस्थी चलाने का इससे भी भव्यतर अर्थ लेना हो तो मानव सदृश घरौंदा बसाने में हम भी कृतार्थ हो गए हैं। हमने अपना घरौंदा तोड़-फोड़ दिया, परंतु उसके योग से भविष्य में हजारों लोगों के घरों से कदाचित् सोने का धुआं भी निकल सकता है। उस पर ’घर-घर’ की रट लगाकर भी प्लेग के कारण क्या सैकड़ों लोगों के घर-बार उजड़ नहीं गए? विवाह-मंडप से दूल्हा-दूल्हन को कराल काल के गाल में खदेड़कर संकटों का सामना करो। मैंने सुना है, कुछ वर्षों के पष्चात् अंदमान में परिवार ले जाने की अनुमति दी जाती है। यदि ऐसा हुआ तो ठीक ही है, परंतु यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी इस धैर्य के साथ रहने का प्रयास करो कि कुछ भी हो, इस समय को सहना ही होगा।’’
’’हम इस तरह का ही प्रयास कर रहे हैं। हम एक-दूसरे के लिए हैं ही। हमारी चिंता न करें, आप स्वयं का जतन करें, हमें सब कुुछ मिल जायेगा।’’  विवेक के खूंटे से बांध दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मेरी संपूर्ण शक्ति निचुड़ गई है।
मेरा आजीवन कारावास-
मूल्य ₹500 ( डाक खर्च सहित)।
मंगवाने के लिए 7015591564 पर वट्सएप करें।

नाथद्वारा में साहित्य मंडल का हिंदी दिवस समारोह

हिंदी उपनिषद , साहित्यकारों का सम्मान, पुस्तकों का लोकार्पण के आयोजन हुए

कोटा/नाथद्वारा । हिंदी दिवस के अवसर पर साहित्य मंडल नाथद्वारा की ओर से नाथद्वारा में 14 एवं 15 सितंबर को आयोजित  ” हिंदी लाओ देश बचाओ “दो दिवसीय समारोह में हिंदी उपनिषद , साहित्यकारों का सम्मान, पुस्तकों का लोकार्पण, सांस्कृतिक कार्यक्रम और कवि सम्मेलन के आयोजन किए गए। हिंदी उपनिषद में दिल्ली के डॉ.राहुल, मधुबनी की विभा कुमारी, बेंगलुरु की उर्मिला ‘ उर्मी ‘ , डॉ. मंजु गुप्ता, उदयपुर ले डॉ. नवीन नंदवाना तथा श्रीगंगानगर के डॉ.गोपीराम शर्मा ने हिंदी के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए हिंदी भाषा के अधिक से अधिक प्रचार – प्रसार की आवश्यकता पर बल दिया।
वक्ताओं ने कहा हमें गर्व है हिंदी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा हैं। हमें अपनी राष्ट्र भाषा पर गर्व है और इसे अधिक से अधिक समृद्ध बना हम सब का धर्म है। वक्ताओं ने स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा को स्मरण किया जो जीवन भर हिंदी भाषा के विकास के लिए कृत संकल्प रहे और कई वर्षों पूर्व इस समारोह की शुरुआत की। उन्होंने  उनके पुत्र श्याम प्रकाश देवपुरा का आभार व्यक्त किया जो पूरे समर्पण के साथ निरंतर इस समारोह का आयोजन कर पिता के प्रण को जीवंत बनाए हुए हैं।
समारोह में देशभर से आए 68 साहित्यकारों को उपरना, मोतियों का कंठाहार ,मेवाड़ी पगड़ी पहनाकर श्रीफल, श्रीनाथ जी की तस्वीर और प्रसाद तथा सम्मान पत्र भेंट कर विभिन्न उपाधियों और अलंकरणों से पुरस्कृत और सम्मानित किया गया। श्रीनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी इंद्रवदन गिरनारा का भी सम्मान किया गया। दिल्ली की कत्थक नृत्यांगना डॉ.प्रभा दुबे और साथी कलाकारों का कत्थक नृत्य एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में कवियों ने एक से बढ़ कर एक रचनाएं सुना कर श्रोताओं को खूब गुदगुदाया। कार्यक्रम का संचालन संस्था के प्रधानमंत्री श्याम देवपुरा ने किया।
पुस्तकों का लोकार्पण :
समारोह में कोटा के लेखक डॉ.प्रभात कुमार सिंघल की “अद्भुत भारत “( उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्व भारत, पश्चिम भारत, मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत ) की 6 पुस्तकों का लोकार्पण संस्था के प्रधानमंत्री श्याम प्रकाश देवपुरा, अध्यक्ष मदन मोहन शर्मा, साहित्यकार पुरुषोत्तम पल्लव , हीरालाल ‘ मिलन ‘, डॉ.राजेंद्र नाथ शर्मा ‘ अरुण ‘, अमर सिंह बछाल, डॉ. राहुल, डॉ. कृष्णा कुमारी द्वारा किया गया। लेखक  डॉ. सिंघल ने बताया कि भारत को जानने के लिए  लिखी गई  ये पुस्तकें पाठकों को भारत के इतिहास, भूगोल, विकास की गाथा,कला – संस्कृति और पर्यटन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने में सक्षम हैं। ये पुस्तकें सामान्य ज्ञान, शोध और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं।
इस अवसर पर अन्य पुस्तकों में आनंद शर्मा और प्रेमपाल शर्मा की पुस्तक ” डॉ. स्मरजीत जैना : अंधेरी जिंदगियों में रोशनी के मसीहा “,  दिल्ली के डॉ. राहुल की पुस्तक ” कालापानी की अंतर्व्यथा “, किशोर शर्मा सारस्वत का उपन्यास ” बड़ी माँ ” , डॉ. अवध हरी की पुस्तकें ” जगन्नाथाष्टम “, ” कांकधारा स्तोत्र ” और अन्य पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया।  लोकार्पण कार्यक्रम में राजस्थान सहित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तमिलनाडु, असम, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब, झारखंड और कर्नाटक से आए साहित्यकार उपस्थित रहे।
समारोह में जिन साहित्यकारों और अन्य विभूतियों को सम्मानित किया गया वे इस प्रकार हैं। बिजनौर के विदुर भारद्वाज, इंदौर के राजेश मेहरा, कोलकाता के डॉ. सुनील कुमार शर्मा, डॉ. बाबू लाल शर्मा, कत्थक नृत्यांगना दिल्ली की डॉ. प्रभा दुबे, मुरादाबाद के डॉ. महेश दिवाकर, केलीफोर्निया ( अमेरिका ) की डॉ. अनीता कपूर, चेन्नई की डॉ. के. आनंदी , लखीमपुर खीरी के संतकुमार वाजपेयी , गोला गोकर्णनाथ के डॉ, वेदप्रकाश अग्निहोत्री, तिनसुखिया – असम के मनोज मोदी, मथुरा के हुकुमचंद तिवारी, पुणे के डॉ. सत्येंद्र सिंह , डॉ. अरुणा पाठक, पटना के सिद्धेश्वर, मधुबनी की डॉ. विभा कुमारी, होशियारपुर की डॉ. प्रिया सूफी, देहरादून की विद्युत प्रभा चतुर्वेदी, वाराणसी की डॉ. शशिकला पाण्डेय , डॉ. मालती गोस्वामी , दरभंगा के डॉ. हीरालाल सहनी , रायपुर के डॉ. लोकेश्वर प्रसाद सिन्हा, डॉ. गिरिजा शंकर गौतम , लखनऊ के डॉ. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, उमा शंकर, मुंबई की प्रो. उमा मिश्र, जमशेदपुर के डॉ.ब्रजेंद्रनाथ मिश्र, माधवी उपाध्यय,डॉ. वीना पाण्डेय , शीतल प्रसाद दूबे, सुलतानपुर के हरिनाथ शुल्क , बेंगलुरु की उर्मिला उर्मि , माणक तुलसी राम गौड़, डॉ. मंजु गुप्ता, अयोध्या से डॉ. हरी प्रसाद दुबे एवं अवधि हरी शामिल हैं।
 अन्य सम्मानितों में नाथद्वारा से डॉ. हरीश गहलोत, डॉ. राजेंद्र कुमार जांगिड़, प्रमोद सनाढ्य, उदयपुर से डॉ. नवीन नंदवाना,  डॉ. पुरुषोत्तम पल्लव, इंदौर से माधुरी यादव, शोभा रानी, नोएडा से डॉ.बृज लता शर्मा, जयपुर से प्रो. सूरज पालीवाल,  जगदीश मोहन रावत, रांची से डॉ. प्रशांत गौरव, गंगानगर से डॉ. गोपीराम शर्मा, गया से डॉ. राम सिंहासन सिंह, बडौद से डॉ.धनंजय चौहान, अहमदाबाद से डॉ. धीरज भाई , जलंधर से डॉ. कुलविंदर कौर, नवी मुंबई से डॉ. मनोहर अभय, मुंबई से संपूर्णानंद द्विवेदी, आगरा से रविंद्र वर्मा, प्रभुदत्त उपाध्याय, झालरापाटन से धनश्याम आचार्य , अलवर से राज गुप्ता, कांकरोली से पीरदान चारण, शाहपुरा से बालकृष्ण जोशी, मेरठ से प्रो. सरोजनी , आगरा से रमेश अधीर, भरतपुर से मनमोहन अभिलाषी , फर्रुखाबाद से डॉ .संतोष पाण्डेय, कानपुर से प. बाबूलाल शर्मा, राची से डॉ.तारामती पांडेय एवम् विनय कुमार पाण्डेय को सम्मानित किया गया।
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