भारतवर्ष को दुनिया में अध्यात्मवाद का दर्शन देने वाले एक देश के रूप में पहचाना जाता है। और एक अध्यात्मवादी देश के रूप में भारत का डंका सदियों से बजता आ रहा है। निश्चित रूप से यही वजह रही होगी कि लगभग सभी धर्मों के संतों, फकीरों, ऋषियों-मुनियों व अध्यात्मवाद का पाठ पढ़ाने वाले स्वदेशी तथा विदेशी महापुरुषों ने भारतवर्ष को ही अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना। भले ही आज वह महापुरुष हमारे बीच न हों पंरतु उनके द्वारा दिखाए गए अध्यात्म के मार्ग का आज भी देश में विभिन्न वर्गों के लोग अनुसरण करते हैं तथा उससे लाभ उठाने व शांति प्राप्त करने का उपाय करते हैं। पंरतु अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भारतवर्ष से अध्यात्म के रिश्ते की बात गोया सतयुग काल की बातें बनकर रह गई हों।
कलयुग के वर्तमान दौर के तथाकथित अध्यात्मवादियों ने अध्यात्म की परिभाषा ही वर्तमान समय की नब्ज़ एवं ज़रूरतों के मुताबिक गढऩी शुरु कर दी हो। अन्यथा क्या वजह हो सकती है कि जिस भारतवर्ष को कभी संसार में विश्वगुरू का दर्जा प्राप्त रहा हो वही महान देश आज पाखंडी अध्यात्मवादियों,बलात्कारियों,छलात्कारियों,भ्रष्टाचारियों एवं देश को बेचकर खाने वाले लोगों के देश के रूप में अपनी पहचान छोड़ रहा है।
अभी कुछ ही समय पूर्व की बात है जबकि जम्मू-कश्मीर राज्य में एक ढोंगी व दुष्चरित्र मौलवी द्वारा अपनी शिष्याओं को बहला-फुसला कर उनके साथ कई वर्षों तक बलात्कार किए जाने का मामला सामने आया। मौलवी का भेष बनाए बैठा यह राक्षसरूपी व्यक्ति उन मासूम बच्चियों व धर्म की शिक्षा ग्रहण करने वाली कुंआरी लड़कियों को अपने दुष्कर्मों के संबंध में यही समझाता था कि ऐसा करने से उन्हें जन्नत मिलेगी। ज़रा कल्पना कीजिए कि जहन्नुम में जाने के उपाय व वैसे कर्म करने वाला ढोंगी अध्यात्मवादी मौलवी अपने दुष्कर्मों को जन्नत का मार्ग कऱार दे रहा था। इसी को कहते हैं उल्टी गंगा बहाना। गोया कर्म नरक भोगने वाले और उस पर तुर्रा यह कि वह स्वर्ग में जाने वाले कर्म हैं।
अब ज़रा तुलना कीजिए उन वास्तविक अध्यात्मवादी फकीरों से इस खबीस मौलवी की जिनके दर पर आज भी हर धर्म व जाति के लोग अपनी हाज़री लगाने मात्र से ही शांति प्राप्त करने तथा अपनी मुंह मांगी मन्नतों को पूरा करने का विश्वास लेकर जाते हैं। क्या ऐसे ढोंगी व बदचलन तथाकथित अध्यात्मवादी व्यक्ति को ढोंगी फकीर कहना गलत है?
गत् एक दशक में देश में ऐसी दर्जनों घटनाएं सामने आईं जिन से यह पता चला कि अध्यात्म के नाम पर अपनी दुकान तथा व्यापार चलाने वाले दुष्कर्मी संतों ने किस प्रकार अपनी ही पुत्री व पौत्री समान शिष्याओं के साथ रासलीला रचाई। इनमें सबसे ताज़ा प्रकरण आसाराम नामक उस ढोंगी व्यक्ति से जुड़ा है जो अपने कुकर्मों में अपने साथ अपने बेटे को भी शामिल रखता था। ज़रा सोचिए कि जिस भारतवर्ष के प्राचीन संस्कार ऐसे रहे हों जहां पिता के समक्ष पुत्र बैठने से, बोलने से परहेज़ करता हो,जहां पुत्र अपने पिता को ईश्वर व गुरु तुल्य समझता हो, अपने पिता के सामने बुलंद आवाज़ से बात न करता हो उस देश का यह तथाकथित महान संत व उसका बेटा नारायण साईं सामूहिक रूप से यौनाचार का मिशन चला रहा हो। और वह भी अध्यात्मवाद की आड़ में? इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे देश का आखिर और क्या हो सकता है? आज यही पाखंडी संत रूपी पिता-पुत्र न केवल अपने अनुयाईयों से बल्कि पूरे देश,दुनिया और खासतौर पर मीडिया से अपना मुंह छिपाने के लिए मजबूर हैं। ज मु-कश्मीर के दुष्कर्मी मौलवी की ही तरह यह पिता-पुत्र भी अपने बलात्कार की शिकार अपनी शिष्या से भोग-विलास करते समय उससे भी यही कहा करते थे कि 'वह यही समझे कि उसके साथ प्रभु संभोग कर रहे हैं। और पुत्र के साथ रासलीला करने वाली कन्या स्वर्ग की भागीदार होती है।
आखिर ऐसे पापियों व अपराधियों को अपने दुष्कर्मों में अध्यात्म को खींचने की ज़रूरत क्या है? यह ढोंगी व पापी मौलवी व संतरूपी लोग अपने दुष्कर्मों को अंजाम देने के लिए अध्यात्म के नकली चोलेे से आखिर बाहर क्यों नहीं निकल आते। इन पापियों की वजह से धर्म व देश तो बदनाम हो ही रहा है साथ-साथ अध्यात्मवाद की शिक्षा भी इनकी वजह से बदनाम व संदिग्ध होती जा रही है। अध्यात्मवाद को संदिग्ध करने की रही-सही कसर पिछले दिनों उस समय पूरी होती हुई देखी गई जबकि एक कथित संत के सपने के आधार पर केंद्र सरकार के जि़योलोजिकल सर्वे आफ इंडिया विभाग (जीएसआई) ने उत्तर प्रदेश के उन्नाव जि़ले में गंगा नदी के किनारे पडऩे वाले एक गांव डोडिया खेड़ा में स्थित एक मंदिर के आसपास की खुदाई करनी शुरु कर दी। उस कथित संत का दावा था कि उसने सपने में इस मंदिर के नीचे सोने का विशाल भंडार दबा देखा है।
जीएसआई ने भी उस साधू के सपने पर यह कहकर मोहर लगा दी कि वैज्ञानिक जांच-पड़ताल से भी ऐसा प्रतीत होता है कि इस भूमि के तले बड़ी मात्रा में धातु रूपी भंडार मौजूद हैं। बस फिर क्या था। बाबा के सपने और जीएसआई की रिपोर्ट को संयुक्त रूप से आधार बनाकर सरकारी विभाग के लोग मज़दूरों की सेना लेकर मंदिर के आसपास की ज़मीन की खुदाई में जुट गए। उधर खुदाई के दौरान सपने देखने वाला बाबा भी यह कहता रहा कि मैं अपने अध्यात्म के बल पर धरती के तले स्वर्ण भंडार होने की बात कह रहा हूं।
मेरी यह वाणी सत्य होकर ही रहेगी अन्यथा मैं अपनी गर्दन कटवा दूंगा। परंतु खोदा पहाड़ निकली चूहिया जैसी कहावत उस गांव में चरितार्थ हुई। कई दिन तक की गई मेहनत-मशक्कत के बाद जीएसआई के अधिकारियों ने खुदाई का काम बंद कर दिया और सपने में देखा गया स्वर्ण भंडार सपना ही बनकर रह गया। इस घटना ने भी साधु-संतों व फकीरों के प्रति अपनी गहन श्रद्धा रखने वाले भक्तों का विश्वास कम कर दिया है। निम्र स्तर पर तो अध्यात्म की खिल्ली उड़ाने वाली ऐसी सैकड़ों घटनाएं तो हमारे देश में आए दिन होती ही रहती है जबकि किसी तांत्रिक,ज्योतिषी अथवा मौलवी व पंडित के कहने मात्र से दौलत की लालच में कोई अपने मकान की फ़र्श खुदवा डालता है तो कभी कोई अपने बच्चे या किसी दूसरे के बच्चे की बलि तक चढ़ा देता है।
पंरतु ऐसा तो शायद पहली बार सुना जा रहा है जबकि किसी अशिक्षित साधू के स्वप्र के आधार पर सरकार ने अपनी कार्रवाई करनी शुरु कर दी हो। इस घटना से भारत में अध्यात्मवाद की वर्तमान दयनीय स्थिति का तो बोध होता ही है साथ-साथ हमें यह भी देखने को मिलता है कि लालची केवल कोई व्यक्ति या परिवार ही नहीं बल्कि स्वयं सरकार भी हो सकती है। अन्यथा देश के लोगों को अंधविश्वास से दूर रहने की शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाली केंद्र सरकार को किसी बाबा के कहने पर धरती के नीचे कथित रूप से दबे हुए सोने की तलाश में हरगिज़ नहीं जुटना चाहिए था। परंतु सरकार ने एक ढोंगी साधू की बात मानकर यह साबित कर दिया कि सरकार भी अंधविश्वास तथा ढोंगी अध्यातमवाद के झांसे में आ सकती है तथा यह भी साबित होता है कि किसी निक मे व लालची व्यक्ति की ही तरह सरकार भी बिना किसी कर्म के धनवान होने की िफराक में रहती है।
ढोंगी अध्यात्मवाद तथा अंधविश्वास की गिर त में हमारे देश के नेताओं व अधिकारियों का रहना कोई नई बात नहीं है। नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री नरसि हाराव तथा इनके अतिरिक्त भी देश के सैकड़ों प्रमुख व्यक्ति ढोंगी बाबाओं,ज्योतिषियों तथा झाडफ़ूंक करने वाले मौलवियों व पंडितों की गिर त में फंसे देखे जाते रहे हैं। आज जेल की हवा खा रहा बलात्कारी आसाराम तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को अपने मंच पर बुलाकर दुनिया को अपनी ढोंगी अध्यात्मवादी शक्ति का परिचय करा चुका है। प्राय: मंत्रिमंडल के शपथग्रहण समारोह भी इन्हीं तथाकथित अध्यातमवादियों व पंडितों द्वारा सुझाए गए दिन व समय (मुहूर्त)के अनुसार आयोजित किए जाते हैं। जबकि विज्ञान ऐसी बातों की इजाज़त कतई नहीं देता।
हमारे देश में अध्यात्मवाद की दुकानदारी का तो अब यह आलम हो गया है कि जिसे देखो वही गेरुआ वस्त्र पहन कर लाटरी व सट्टे का नंबर बताता फिरता है। और ऐसे ढोंगियों के लालची भक्तों की भी कोई कमी नहीं है। कई पाखंडी लोगों की दुकानें इसी सट्टा व लाटरी के व्यापार से ही चल रही हैं। लाखों ढोंगी अध्यात्मवादी केवल अपने नशे की लत को पूरी करने की खातिर अध्यात्म का चोला धारण किए बैठे हैं। तमाम ऐसे भी है जो अपने जीवन के सभी क्षेत्रों में असफल होने के बाद अध्यात्मिक गुरु ही बन कर बैठ गए हैं। और सीधे-सादे लोगों को मार्गदर्शन व अध्यात्मवाद का ज्ञान बेचने लगे हैं। इन्हीं तथाकथित अध्यात्मवादियों में कई ऐसे भी मिल जाएंगे जो अपने-अपने इलाकों में जघन्य अपराधों को अंजाम देने के बाद अध्यात्म के चोले में खुद को छुपाए बैठे हैं तथा कानून की नज़रों से स्वयं को बचाए हुए हैं। अत: देश के धर्मभीरू लोगों को ऐसे कलयुगी अध्यात्मवादियों से स्वयं को न केवल बचाने की ज़रूरत है बल्कि इन्हें बेनकाब करना भी बेहद ज़रूरी है। ऐसे लोग धर्म व अध्यात्म के साथ-साथ हमारी प्राचीन अध्यात्मवादी पहचान पर भी एक बड़ा कलंक हैं।
तनवीर जाफरी
1618, महावीर नगर,
अंबाला शहर, हरियाणा
फोन : 0171-2535628
कलियुग के पाखंडी चेहरे!
संस्कृति संगम के नए संस्करण का लोकार्पण
मुम्बई की सांस्कृतिक निर्देशिका ‘संस्कृति संगम’ में हिन्दी रचनाकारों, पत्रकारों, रंगकर्मियों, फ़िल्म लेखकों, गायक कलाकारों, गीतकारों-शायरों, समाचारपत्र-पत्रिकाओं, के साथ ही अखिल भारतीय प्रमुख साहित्यकारों, मंच पर सक्रिय अखिल भारतीय कवियों एवं विदेशों में बसे प्रमुख हिन्दी रचनाकारों के नाम, पते, दूरभाष नं. एवं ईमेल शामिल हैं। संस्कृति संगम ने साहित्य, संगीत, पत्रकारिता, रंगमंच, आदि क्षेत्रों में सक्रिय रचनाकर्मियों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मुम्बई की सांस्कृतिक सक्रियता को बढ़ावा देने में 'संस्कृति संगम' का उल्लेखनीय योगदान है।
‘संस्कृति संगम’ के पाँचवें संस्करण की तैयारी चल रही है। संलग्न सूची के अनुसार इस निर्देशिका में आपको शामिल करके हमें बहुत ख़ुशी होगी। कृपया अपना पता, फोन नं. और ईमेल उपलब्ध कराएं। संस्कृति संगम’ को और अधिक समृद्ध, सुरुचिपूर्ण और उपयोगी बनाने के लिए आपके सुझावों का स्वागत है।
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चित्र : संस्कृति संगम के चौथे संस्करण के लोकार्पण समारोह में (बायें से दायें)– शचीन्द्र त्रिपाठी (संपादक, नवभारत टाइम्स), सामाजिक कार्यकर्ता रानी पोद्दार, गायक पंकज उधास, संगीत-निर्देशक आनंदजी शाह (कल्याण जी आनंद जी), संपादक देवमणि पाण्डेय, सुरेन्द्र गाडिया और नवभारत टाइम्स के पत्रकार भुवेन्द्र त्यागी .
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रवीश कुमार की बात पर, मोहर नहीं हैं हाथ पर !
रवीश कुमार बिहार में अपने गांव जाकर आए हैं। गांव में जो उन्होंने देखा, जाना, समझा, महसूस किया और पाया, वह पूरी बेबाक किस्म की ईमानदारी से अपनी कलम से निचोड़कर उन्होंने जस का तस पेश कर दिया। रवीश की बातों के सार को अपने शब्दों में पेश करते हुए एक लाइन में तो सिर्फ यही लिखा जा सकता है कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी को अगर कमजोर मान रही है तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल होगी, क्योंकि मोदी सिर्फ सोश्यल मीडिया में ही समाहित नहीं है, देश के गरीब प्रदेशों के गांवों तक में मोदी इस कदर पसर चुके हैं कि कांग्रेस के लिए अब मामला आसान नहीं है। रवीश कुमार अच्छा सोचते हैं, इसीलिए अच्छा बोलते भी हैं और अच्छा लिखते भी हैं। लेकिन यही अच्छा कांग्रेस को शायद पसंद नहीं आएगा। सच सुनना बहुत खराब लगता है। पर, सच यही है कि अगली बार देश में फिर सरकार बनाने के मामले में कांग्रेस को बहुत चिंता करनी होगी। उसे समझना चाहिए कि कोई चाहे कुछ भी कहे, लेकिन नरेंद्र मोदी का असर बहुत बढ़ गया है। यह असर देश के गांवों तक घुस गया है।
कांग्रेस के लिए जो टीम देश भर में सोश्यल इंजीनियरिंग के असर का अध्ययन करती हैं, उसने पता नहीं पार्टी के नेताओं को अब तक यह समझाया है या नहीं कि इतने दिन तक तो, जो हुआ सो हुआ, पर मोदी को अब हल्के से लेना खतरे से खाली नहीं है। मोदी का असर हिंदी बेल्ट के गांवों में गहरे तक समा गया है। बिहार हो या बंगाल, यूपी हो या झारखंड, या फिर हो कोई और प्रदेश। हर प्रदेश के हर गांव पर गुजरात का असर है। मोदी ने गांवों के इन लोगों को अपने समर्थन में सारे तर्क और तेवर दोनों थमा दिए हैं। इन प्रदेशों के गांवों और घरों में पैसा गुजरात से ही आ रहा है। और घर में रहनेवालों के चेहरों की खुशहाली का रास्ता गुजरात से ही शुरू होता है। जाकर देख लीजिए, इन प्रदेशों के किसी भी गांव पंचायत में अब साठ से सत्तर फ़ीसदी घर पक्के बन गए हैं। यह बदलाव बीते कुछेक सालों में ही हुआ है। गांवों में बने इन पक्के मकानों में आधे से ज़्यादा अभी अभी बने हए से लगते हैं। किसी की दीवारों पर सीमेंट नहीं लगा है, तो किसी पर प्लास्टर बाकी है। ज्यादातर पर रंग रोगन नहीं हुआ है। ऐसे घर पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों के ज़्यादा हैं। ये वे जातियां हैं, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोट बैंक रही हैं। पर अब मोदी की महारत को मानती हैं। कांग्रेस मोदी के बारे में चाहे कुछ भी कहती रहें, कोई भरोसा नहीं करता, क्योंकि इन घरों की दीवारें अपने विकास में गुजरात के सहयोग की कहानी कह रही हैं।
रवीश कुमार अपने गांव गए तो उन्होंने देखा कि अब उनके वहां के लोग लोग पंजाब और दिल्ली नहीं गुजरात कमाने जाते हैं। अपन भी गुजरात आते जाते रहते हैं। मुंबई से राजस्थान जाने के लिए आधे गुजरात की छाती पर से ही गुजरना होता है। वापी – वलसाड़ से लेकर राजकोट और भावनगर से लेकर जामनगर ही नहीं सूरत – बड़ौदा से लेकर पालनपुर तक में ज्यादातर मजदूर बिहार, बंगाल, झारखंड और यूपी का है। सूरत और राजकोट तो पूरे के पूरे उन्हीं से भरे पड़े हैं। मोदी का मुखर विरोध करनेवाले नीतीश कुमार वाले बिहार के मजदूर सबसे ज्यादा गुजरात में है। अपने अशोक गहलोत के राजस्थान के लाखों घरों की अर्थव्यवस्था का भी बहुत बड़ा हिस्सा गुजरात ही संभालता है। राजकोट, सूरत और जानमगर ही नहीं पूरा गुजरात भरा पड़ा है देश के बाकी हिस्सों के मजदूरों से।�
अपन मुंबई में रहते हैं, और इसीलिए जानते हैं कि काम की आस में अब मुंबई के मुकाबले लोग गुजरात ज्यादा जाते हैं। संजय निरुपम अपने दोस्त हैं। जनसत्ता में हर तरह से अपन उनके साथ थे। टीवी कैंमरों के सामने चीख चीख कर मोदी को कोसना उनकी कांग्रेसी होने की मजबूरी हैं, लेकिन अंदर की बात उनका दिल भी जानता है। रवीश कुमार लिखते हैं कि गुजरात में राज मिस्त्री को सात सौ रुपये दिन के मिलते हैं। गुजरात से ही गाँवों में पैसा आ रहा हैं। जो पैसे गुजरात में बैठे लोग अपने गांव भेजते हैं, वे घर खर्चे के होते हैं। लेकिन उसमें से भी बहुत सारा बचता है, तो लोग घर बना रहे हैं। इसीलिए, यह अब मान लेने में कोई गलती नहीं है कि गुजरात से कमाकर आने वाला मालामाल मज़दूर देश के अन्य प्रदेशों के गांवों में नरेंद्र मोदी का ब्रांड एंबेसडर हैं।
राजस्थान में चुनाव चल रहा है। वहां के नेता मुंबई आ रहे हैं। लोगों से कह रहे हैं कि आप अपने गांव चिट्ठी लिखो कि वे हमको वोट दें। कमानेवाले की बात में वजन होता है। कमानेवाला जब घर वालों को कुछ कहता है तो वे उसकी बात मानते हैं। सही भी है। मुंबई के बहुत सारे लोग इसी रास्ते से राजस्थान जाकर भी चुनाव जीतते रहे हैं, विधायक और सांसद बनते रहे हैं। कमाई वाकई में बहुत अहमियत रखती है। रही बात राजस्थान के मुसलमानों की, तो वहां का तो आधे से भी ज्यादा मुसलमान न केवल शुद्ध रूप से भाजपाई है, बल्कि मोदी में बहुत भरोसा भी करता है। रही बात घरेलू विकास की, तो रवीश ने तो सिर्फ बिहार के गांवों की बात की, मगर राजस्थान ही नहीं बिहार, बंगाल, यूपी और झारखंड सहित देश के कई प्रदेशों के गांव गुजरात की कमाई से विकसित हो रहे है। मोदी के गुजरात ने इन गांवों के लोगों को अपनी तारीफ़ के तर्क और तेवर दोनों उपलब्ध करा दिये है।
�रवीश कुमार जब गांव गए तो उनके गाँव से लेकर मोतिहारी और ट्रेन में जिससे भी मिला सबने नरेंद्र मोदी की बात की। खूब बात की। जो मोदी के बारे में बतिया रहे थे, उनमें हर जाति और वर्ग के लोग थे। रवीश कुछ कांग्रेसी परिवारों में भी गए तो वहाँ भी लोगों ने नरेंद्र मोदी के बारे में ही चर्चा की। रवीश दिल्ली लौटते वक्त लिखने के लिए ट्रेन में जब इन बातों की सूची बना रहे थे तो उनको खयाल आया कि किसी ने भी उनसे राहुल गांधी के बारे में तो एक लाइन नहीं पूछी। एक आदमी ने भी नहीं पूछा कि सोनिया क्या करेंगी या राहुल क्या कर रहे हैं। गाँव गाँव में मोदी के पोस्टर हैं। नीतीश कुमार के नहीं। राहुल गांधी के भी पोस्टर नहीं दिखे। मगर मोदी हर जगह बिहार में दिख रहे हैं। झारखंड में ङी, छत्तीसगढ़ में, एमपी, यूपी, राजस्थान और बंगाल में भी दिख रहे हैं। अपन अभी महाराष्ट्र और एमपी और राजस्थान के गांवों में जाकर आए हैं। मोदी का डंका वहां भी बज रहा है।
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अपना मानना है कि देश के गांवों का गरीब तक अब यह मानने लग गया है कि भारत के प्रधानमंत्री के रूप में किसी मोहरे, मुखौटे या कमजोर कठपुतली जैसे आदमी की जरूरत नहीं है। देश को एक मजबूत प्रधानमंत्री चाहिए। बीते एक दशक से देश पर राज करनेवालों की आंतरिक कमजोरियों की वजह से हमारे देश की राजनीतिक जमीन की उर्वरा की तासीर में तरह तरह की तब्दीलियां आ गई हैं। जिनको राहुल गांधी और समूची कांग्रेस को समझने में शायद अभी कुछ साल और लगेंगे। नरेंद्र मोदी शहर तक सीमित नहीं हैं। गांवों की तह तक उनका फैलाव साफ दिख रहा है। रवीश कुमार सही कहते हैं कि कांग्रेस में वो नज़रिया ही नहीं है कि महँगाई के इस दौर में गाँवों की इन तस्वीरों को कैसे पेश किया जाए, इस, पर चिंतन करे। कांग्रेस सन्न है, क्योंकि मोदी ने खाली नेम प्लेट पर अपना नाम सबसे ऊपर और सबसे पहले लिख दिया है। जो लोग यह मान कर दिल बहला रहे हैं कि मोदी सिर्फ फेसबुक, ट्वीटर, वॉट्सएप्प पर ही बड़े हो रहे हैं, सोश्यल मीडिया में ही पसर रहे हैं और टीवी पर ही दिख रहे हैं। वे अपने दिलों को बहलाए रखने के लिए चाहे कुछ भी माने, लेकिन सच्चाई यही है कि मोदी कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बनकर उभर चुके हैं और उनकी ताकत के तेवर कांग्रेस की सीमाओं के पार जाकर बोल रहे हैं। �
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं, उनसे 9821226894 पर संपर्क किया जा सकता है।)
राम लीला [ हिंदी एक्शन प्रेम कथा ]
दो टूक : प्रेम के लिए दोस्ती और दुशमनी कोई मायने नहीं रखती। वो बस हो जाता है. अब ये अलग बात है कि उसके बाद उसके लिए मौत और जिंदगी का मायने भी ख़त्म हो जाता है . बस इतनी सी बात करती है संजय लीला भंसाली की रणवीर सिंह , दीपिका पादुकोण , गुलशन देवयाह , ऋचा चड्ढा , श्वेता साल्वे, सुप्रिया पाठक , गिरीश सहदेव, बरखा बिष्ट, अभिमन्यु सिंह , विवान बाटना , शरद केलकर और प्रियंका चोपड़ा के अभिनय वाली नयी फ़िल्म राम लीला .
कहानी: फ़िल्म की कहानी है राम (रणवीर सिंह) और लीला (दीपिका पादुकोण) की है जो गुजरात में सनेड़ा और रजाड़ी खानदानों के बीच पांच सौ सालों से चली आ रही दुश्मनी के बीच भी प्रेम कर बैठते हैं . दोनों शादी करना चाहते हैं और इस से पहले कि उनकी दुश्मनी और प्रेम को एक नया चेहरा मिले राम के भाई [अभिमन्यु सिंह ] की हत्या सनेड़ा खानदान के लोगों के हाथ हो जाती है और गुस्से में आकर राम, लीला के भाई की हत्या कर देता है. लेकिन लीला, अपने प्यार के आगे भाई की हत्या को भूलकर राम के साथ भाग जाती है. समय उनका साथ दे इस से पहले ही उनके बीच सलीला [ऋचा चड्ढा] और लीला का भाई [गुलशन देवयाह] जैसे लोग आ खड़े होते हैं . इसके बाद शुरू होती है दोनों समूहों के बीच नए सिरे से दुश्मनी की भी एक नयी शुरुआत .फ़िल्म की कहानी शेक्सपियर के रोमियो और जूलियट नाटक पर आधारित है.
गीत संगीत : फ़िल्म का संगीत निर्देशक संजय लीला भंसाली ने दिया हैं और गीत सिद्धार्थ और गरिमा ने लिखे हैं . संजय की फिल्मों की एक ख़ास बात है कि उनकी फ़िल्म के रंगों और बोलों में उनका परिदृश्य भी मिल जाता है और साथ ही उनका प्रस्तुतीकरण भी अद्भुत किस्म को होता है . फ़िल्म का शीर्षक गीत राम लीला , नगाड़ा संग ढोल बाजे , अंग लगा दे जैसे गीत बेशक लम्बे समय न सुने जाएं पर वो याद तो रखे जा सकते हैं .
अभिनय : राम और लीला की भूमिका में में रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की अपने अपने अपने पात्रों के साथ गम्भीरता दिखती देती है . ये अलग बात है कि पिछली कुछ फिल्मों में दीपिका कुछ अधिक बोल्ड और खुलकर सामने आती हैं पर वो जमती हैं और रणवीर सिंह के साथ उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ खुद को प्रस्तुत किया है . रही रणवीर सिंह की बात तो उनके संवाद आदायगी के मामले को छोड़ दें तो उनकी शारीरिक भाषा और अपने पात्र के प्रति आत्मविश्वास गजब का है .
सुप्रिया पाठक अपनी प्रतिभा से प्रभावित करती है और गुलशन देवैया के साथ रिचा चढ्डा और अभिमन्यु सिंह एक नए परवेश के साथ खुद को साबित करते हैं पर इन सब पर भारी तो दीपिका ही हैं . फ़िल्म में उनके गहने और कपड़े नए फ़ैशन शैली के परिचायक हैं. रजा मुराद लम्बे समय दिखे हैं और शरद केलकर , होमी वाडिया के साथ बरखा बिष्ट के लिए इस से बड़ा मौका नहीं हो सकता हथा . रही प्रियंका चोपड़ा कि बात तो उनके तो कहें ही क्या .
निर्देशन : संजय लीला भंसाली की फिल्मों में भव्यता होती है और रंगों के साथ उनके पात्र भी सजे धजे रहते हैं . हर फ़्रेम में उनके शानदार सेट, गांव की गलियों की खूबसूरती, तकनीक और कलात्मकता दिखती है लेकिन इस बार उनकी फ़िल्म उनकी फिल्मों से अलग है . कई मायनो में . फ़िल्म विलियम शेक्सपियर के मशहूर नाटक 'रोमियो-जूलियट' पर आधारित है लेकिन उसे उसमे लीला ने इस बार प्रेम रिश्तों,कहानी, चरित्र, कथानक और घटनाओं का जो मेलोड्रामा गढ़ा है वो सेक्स , चुम्बन , हिंसा को मिलाकर बुना गया है . फ़िल्म एक सुन्दर कैनवास है पर उसे उसके चमकीले गाढ़े रंगों के साथ देखना भी एक अलग अनुभव है जिसमे राकेश पांडे और भंसाली का सम्पादन , एस रवि वर्मन का कैमरा , शाम कौशल का एक्शन और सिद्धार्थ गरिमा के संवाद उसे एक बार तो देखने लायक बना ही देते हैं .
फ़िल्म क्यों देखें : संजय लीला भंसाली की एक नए किस्म की प्रेम कहानी है .
फ़िल्म क्यों न देखें : ये अलग बात है कि लीला की इस फ़िल्म में कहानी के नाम पर कोई नया करिशमा नहीं है .
रज्जो [हिंदी अपराध कथा ]
फिल्म समीक्षा
रामकिशोर पारचा
रज्जो [हिंदी अपराध कथा ]
दो टूक : कौन कहता है कि तवायफों के लिए जिंदगी बस कोठा होती है . पर ये भी सच है कि उस कोठे से उतरकर किसी तवायफ के लिए सीधी जिंदगी का रात आसान नहीं है । निर्देशक विश्वास पाटिल की कंगना राणावत , अरोरा महेश , प्रकाश राज ,जया प्रदा , तनुश्री चक्रवर्ती , दिलीप ताहिल और स्वाति चिटनिस के साथ कृतिका चौधरी के अभिनय वाली रज्जो भी बस एक ऐसी ही कहानी कहती है.
कहानी : फ़िल्म की कहानी है रज्जो(कंगना रांवत ) की है जो नागपाड़ा के एक कोठे की तवायफ हैं। रज्जो अपने इलाके की सबसे मशहूर तवायफ हैं। एक दिन रज्जो के कोठे पर चंदू (पारस अरोड़ा) आता है तो वह रज्जो की गायिकी का दीवाना हो जाता है और उसे दिल दे बैठता है। पर उनके रास्ते में हांडे भाऊ [प्रकाश राज ] आ जाता है तो उनका प्रेम भी जिंदगी और मौत के बीच फंस जाता है . उनकी मदद को अति है बेगम [महेश मांजरेका ] और फिर शुरू होती है उनके प्रेम और जिंदगी के एक कड़वे सच को जीने की शुरुआत .
गीत संगीत : फ़िल्म में उत्तम सिंह का संगीत है और गीत देव कोहली के साथ समीर और विश्वास पाटिल के हैं लेकिन फ़िल्म के गीत अच्छे होने के बाद भी राम लीला के द्वन्द में फंस कर बस याद रहते हैं लेकिन हाल से बाहर नहीं आते .
अभिनय : फ़िल्म में कंगना केंद्र में हैं और पारस उनके सामने बहुत कुछ नहीं कर पाते . कृष के बाद कंगना को एक नयी भूमिका में देखना सुखद है पर पारस को अभी और मेहनत करनी होगी . महेश किन्नर की भूमिका में जमते हैं लेकिन प्रकाश राज खुद को दोहराते हैं .. दिलीप ताहिल और जया प्रदा के साथ किशोर कदम और उपेन्द्र लिमय ठीक है पर बहुत नया नहीं करते .
निर्देशन: फ़िल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं लेकिन विश्वास पाटिल की ये फ़िल्म बुरी नहीं है और बिनोद प्रधान के कैमरे से निकली ये फ़िल्म कुछ चमकीले और कुछ घहरे रंगों के साथ देख सकते हैं आप .
फ़िल्म क्यों देखें : कंगना के लिए .
फ़िल्म क्यों न देखें : एक पुरानी कहानी पर नयी फ़िल्म है .
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रामकिशोर पारचा
पहले रामलीला नाम हटाओ तभी फिल्म दिखाओ, उच्च न्यायालय का आदेश
मप्र हाईकोर्ट ने गोलियों की रासलीला रामलीला शीर्षक से प्रदर्शित हो रही फिल्म को चुनौती देने वाले मामले को गंभीरता से लिया। एक्टिंग चीफ जस्टिस केके लाहोटी और जस्टिस सुभाष काकड़े की युगलपीठ ने अपने अंतरिम आदेश में कहा है कि आगामी आदेश तक फिल्म रिलीज न करें यदि शुक्रवार 15 नवंबर को निर्धारित तिथि पर फिल्म रिलीज करना है तो रामलीला शब्द हटाना होगा। युगलपीठ ने मामले में फिल्म के निर्माता व निर्देशक संजय लीला भंसाली, इरोज प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ किशोर कुमार व अभिनेता रणवीर सिंह व अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को नोटिस जारी कर जवाब पेश करने के निर्देश दिये है। युगलपीठ ने मामले की अगली सुनवाई 22 नवंबर को नियत की है।
इस मामले अधिवक्ता अमित कुमार साहू व अधिवक्ता आनंद चावला की ओर से दायर किया गया है। जिसमें कहा गया है कि संजय लीला भंसाली ने गोलियों की रासलीली-रामलीला नामक फिल्म बनाई है जो कि भारत के सांस्कारिक मूल्यों व हिंदू भावना को ठेस पहुंचाने वाली है। याचिका में यह भी कहा गया है कि रामलीला देश से लेकर विदेशो तक में लोकप्रिय है, यूनेस्को ने जिसे विश्व की सांस्कृतिक धरोहरो में शामिल किया है। केन्द्र सरकार के सांस्कृतिक विभाग ने रामलीला के दो भागो में वृत्तचित्र तैयार किये है।
मामले की सुनवाई दौरान युगलपीठ को सेंसर बोर्ड की ओर से बताया गया कि उन्होंने आवेदक के अभ्यावेदन 8 नवंबर को कर दिया है। फिल्म से रामलीला का कोई सारोकार नही है, फिल्म रोमियो व जूलियट की कहानी पर आधारित है। सुनवाई पश्चात् न्यायालय ने उक्त निर्देश दिये है।
सुनवाई के दौरान आवेदकों ने अपना पक्ष खुद रखा, जबकि अनावेदक राज्य सरकार की ओर से उप शासकीय अधिवक्ता स्वप्निल गांगुली और भारत सरकार की ओर से अधिवक्ता अभय पाण्डेय हाजिर हुए। उभय पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद युगलपीठ ने अपने अंतरिम आदेश में कहा-'भले ही सेन्सर बोर्ड की परीक्षण समिति ने फिल्म देखकर अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन फिल्म का नाम रामलीला रखने से यही लगता है कि वह भगवान राम के जीवन से जुड़ी हुई है, जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है।'
फिल्म के बारे में अपनी राय देते हुए युगलपीठ ने कहा-'फिल्म के नाम में रामलीला शब्द का इस्तेमाल करने से उन लोगों की भावनाएं बुरी तरह प्रभावित होंगी, जिनकी आस्था भगवान राम से जुड़ी हुई है। इस नाम से दर्शकों के मन में संशय पैदा होगा और वे फिल्म देखने जरूर जाएंगे।
इतना ही नहीं, रामलीला एक धार्मिक व महत्वपूर्ण शब्द है और उसके नाम का उपयोग रोमियो और जूलिएट की कहानी पर आधारित फिल्म के लिए नहीं किया जा सकता। अब सेन्सर बोर्ड ने फिल्म को रिलीज करने की इजाजत दे दी है। ऐसे में यही उचित होगा कि फिल्म का प्रदर्शन नाम बदल कर किया जाए। इस मत के साथ युगलपीठ ने कहा कि यदि अनावेदक फिल्म का नाम बदल रहे तो वे नवंबर को फिल्म रिलीज कर सकते हैं और यदि ऐसा नहीं होता तो अगली सुनवाई तक रामलीला के नाम पर फिल्म का प्रदर्शन न किया जाए।
फिल्म रामलीला पर आज युगलपीठ में विशेष सुनवाई होगी। जिसमें भारत के पूर्व एडिशनल सॉलीसीटर जनरल विवेक तन्खा एवं केन्द्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल के बेटे अमित सिब्बल पैरवी करेंगे।
आरएसएस लाएगा इस्लामिक चैनल
हिंदुत्व विचारधारा की कसमें खाने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसी योजना पर काम कर रहा है, जिसे सुनकर उसके समर्थकों का एक बार कश्मकश में पड़ना स्वभाविक है।
इकॉनामिक्स टाईम्स ने खबर दी है किआरएसएस से जुड़े लोग भारतीय मुस्लिमों को इस्लाम के बारे में सूचित करने के लिए एक नया टेलीविजन चैनल शुरू करने की योजना पर काम कर रहे हैं। अगले साल होने वाले आम चुनावों से पहले पैगाम टीवी लॉन्च करने की योजना पर काम हो रहा है। हाल में संघ ने एक उर्दू अखबार शुरू किया है, जिसका नाम 'पैगाम मादरे वतन' है। इसके अलावा रणनीति में एफएम चैनल शुरू करना भी शामिल है।
अखबार के प्रमुख संपादक और पूर्व आरएसएस प्रचारक गिरीश जुयाल इन तमाम पहलों के पीछे बताए जाते हैं। हालांकि, उनका कहना है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ी पहल का संघ से कोई लेना-देना नहीं है। जुयाल ने कहा, "यह व्यक्तिगत मोर्चे पर होने वाली कोशिश है और इसका आरएसएस और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से कोई वास्ता नहीं।"
जुयाल मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के नेशनल ऑर्गेनाइजिंग संयोजक हैं और इसकी अगुवाई इंद्रेश कुमार करते हैं। इंद्रेश आरएसएस से गहरे जुड़े हैं और मुस्लिमों के बीच संगठन के प्रचार के लिए काम करते हैं।
नरेंद्र मोदी को भाजपा का पीएम बनाने के लिए कड़ी मेहनत करने वाला आरएसएस और उन्हें 2014 के आम चुनावों में जीत तक पहुंचाने की जद्दोजहद में जुटे उसके कैडर साफ कर रहे हैं इन प्रस्तावित चैनलों से संघ का कोई वास्ता नहीं है।
आरएसएस प्रवक्ता राम माधव ने कहा, "आरएसएस किसी चैनल की फंडिंग नहीं करती। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच एक स्वतंत्र संगठन है, जिसके आरएसएस से बढ़िया संबंध हैं। उसकी गतिविधियां भी स्वतंत्र होती हैं।"
लोकतांत्रिक छवि पेश कर रहा है म्यांमार
पांच दशक के सैन्य शासन के बाद करीब दो साल पहले लोकतंत्र की राह पर निकला म्यांमार जल्द ही महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करना चाहता है, इसलिए राष्ट्रपति थ्येन सेन बड़े वैश्विक आयोजनों में शामिल होने से पहले राजनीतिक बंदियों की रिहाई करके दुनिया के समक्ष देश की नई तस्वीर पेश करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।
म्यांमार में कई पीढ़ियों के लोकतंत्र समर्थक नेता, वकील, प्रोफेसर, पत्रकार, छात्र और अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष करते हुए लंबे समय से जेलों में बंद हैं। दशकों तक उन्हें किसी ने नहीं पूछा। शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सांग सू की भी दशकों तक जेल में रहीं और रिहा होने के बाद वह देश के अन्य लोकतंत्र समर्थक नेताओं को मुक्त कराने के लिए शांतिपूर्वक संघर्ष कर रहीं हैं। म्यांमार में लोकतंत्र लौट रहा है, इसका भी सू की बखूबी प्रचार कर रहीं हैं और इस क्रम में उन्होंने भारत सहित कई अन्य लोकतांत्रिक देशों की यात्रा भी की है। म्यांमार लोकतंत्र की राह पर तेजी से अग्रसर है, यही बात संयुकत राष्ट्र महासिचव बान की मून भी कहते हैं।
राष्ट्रपति थ्येन सेन विश्व मंच पर देश की लोकतांत्रिक छवि पेश करने पर जुटे हैं। हाल ही में ब्रुनेई में दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान की बैठक में हिस्सा लेने से पहले उन्होंने अपने यहां बंद 56 राजनीतिक बंदियों की रिहाई की घोषणा करके संदेश देना चाहा कि उनके देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो चुकी है और वहां राजनीतिक स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है। उन्होंने विश्व समुदाय को बंदियों की रिहाई का आदेश देकर यह भी संदेश दिया है कि म्यांमार में खुला और पारदर्शी माहौल है और सभी के पास समान राजनीतिक अधिकार हैं।
सरकार ने जुलाई में भी 70 राजनीतिक बंदियों को उस समय रिहा करने की घोषणा की थी, जब राष्ट्रपति थ्येन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में हिस्सा लेने जा रहे थे। उन्होंने तब भी पूरी दुनिया को संदेश दिया था कि उन्हें लोकतांत्रिक देश की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उन्होंने उसी दौरान यह भी घोषणा की थी कि इस साल के अंत तक सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार देश की जेलों में अब भी 130 के आसपास राजनीतिक बंदी हैं।
म्यांमार की जेलें कभी दस हजार से अधिक राजनीतिक बंदियों का घर हुआ करती थीं, लेकिन अब स्थिति सुधारी है और वहां से बड़ी संख्या में बंदियों को रिहा किया जा चुका है। जेलों से रिहा हो रहे राजनीतिक कैदियों का कहना है कि अब गिनती के ही उनके साथी जेलों में हैं और उनकी संख्या धीरे धीरे कम हो रही है। बंदियों में कई पीढ़ियों के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और सभी को देश में लोकतंत्र की बहाली की वकालत करने के आरोप में सलाखों के पीछे ठूंसा गया था। राष्ट्रपति थ्येन ने मार्च 2011 में देश की बागड़ोर संभाली और तब से वह विश्व समुदाय को विश्वास दिलाने में लगे हैं कि म्यांमार अब लोकतांत्रिक देश है।
संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार में मानवाधिकार पर नजर रखने के लिए विशेष प्रतिनिधि के तौर पर तोमस ओजे किंताने को भेजा है। तोमस ने हाल में राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर म्यांमार सरकार की सराहना की और कहा है कि इन सभी बंदियों को देश की पूर्व सैन्य सरकार ने अन्यायपूर्ण तरीके से जेलों में ठूंस दिया था। उनका कहना है कि राजनीतिक कैदियों की रिहाई उनके अथवा उनके परिवार के सदस्यों के लिए ही नहीं, बल्कि देश में लोकतंत्र की बहाली और देश को फिर से पटरी पर लाने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है।
मानवाधिकार के विशेष प्रतिनिधि का कहना है कि जिन लोगों को रिहा किया जा रहा है, उनमें 1988 और फिर 1996 के दौरान बंद हुए राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हैं। उन्हें इस बात की भी चिंता है कि अब भी बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है। सरकार पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि कई लोगों को राजनीतिक विद्वेष के कारण गिरफ्तार किया गया है। पिछले साल जून जुलाई में भी बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया था। विशेषज्ञों का कहना है कि राजनीतिक बंदियों की रिहाई का काम सिद्धांत आधारित और बिना शर्त होना चाहिए। रिहाई के बाद उन्हें कहीं भी जाने और किसी भी स्थान पर रहने की छूट होनी चाहिए। जेल से बाहर उन्हें पूरी राजनीतिक और सामाजिक आजादी मिलनी चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के विशेष प्रतिनिधि म्यांमार में मानवाधिकार की स्थिति पर कड़ी नजर रखे हैं और सरकार का प्रयास अपनी छवि सुधारने के लिए उन्हें हर संभव यह विश्वास दिलाना है कि देश की शासन व्यवस्था लोकतंत्र के अनुरूप है, इसलिए उसे अब विश्व मंच पर लोकतांत्रिक देश के रूप में देखा जाना चाहिए। विशेष प्रतिनिधि म्यांमार में चल रही मानवाधिकार की स्थिति पर संतुष्ट हैं और वह संयुक्त राष्ट्र महासभा की आम बैठक में वहां की स्थिति पर जल्द ही रिपोर्ट भी पेश कर देंगे।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने महासभा की हाल में ही न्यूयॉर्क में हुई 68वीं बैठक के दौरान म्यांमार के मित्र देशों के प्रतिनिधियों के साथ अलग से बातचीत की। इस बैठक में भी यही कहा गया कि म्यांमार में सुधार हो रहा है और यह देश तेजी से लोकतंत्र की राह पर चल रहा है। उन्होंने राष्ट्रपति थ्येन की यह कहते हुए तारीफ भी कि वह देश को लोकतंत्र के साथ ही शांति, खुशहाली तथा खुली आर्थिक व्यवस्था की तरफ ले जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने सुरक्षा के स्तर पर देश में और सुधार की जरूरत पर बल दिया है। उनका कहना है कि सांप्रदायिक दंगे होंगे, तो इससे देश की छवि खराब होगी और उसने अपनी छवि को सुधारने के लिए अब तक जो भी प्रगति की है, वह सब धुल जाएगा, इसलिए म्यांमार सरकार को देश की छवि को बनाने के लिए सामाजिक स्तर पर भी सख्ती से काम करने की जरूरत है।
म्यांमार में 1988 के सैन्य तख्तापलट के दौरान लोकतंत्र समर्थकों के सपने को चकनाचूर कर दिया गया था, लेकिन आज स्थिति बहुत बदली है और वहां लोकतंत्र का रास्ता दिखाई देने लगा है। पिछले दो साल के दौरान हजारों राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जा चुका है और म्यांमार अपनी आर्थिक हालात में सुधार लाने के लिए वैश्विक स्तर पर बाजार तलाश रहा है। वह दुनिया के साथ अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह सहभागिता चाहता है।
(लेखक पत्रकार हैं और हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से जुड़ें हैं।…)
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आतंक की दुनिया से अध्यात्म में लौटे अहमद अक्कारी
इस्लाम की रक्षा के नाम पर डेनमार्क के अहमद अक्कारी ने सात साल पहले पूरी दुनिया में ऐसी आग भड़काई जिसमें करीब 200 लोगों की जान चली गई. तब वह 27 साल का था और बदले की आग से धधक रहा था. अब पश्चात्ताप की आंच से पिघलकर वह धार्मिक सद्भावना का भक्त बन गया है.
युइलांद्स पोस्टन (द युटलैंड पोस्ट) डेनमार्क का सबसे बड़ा दैनिक है. 19 सितंबर, 2005 के दिन उसके संपादकीय मंडल की बैठक में एक अनोखा सुझाव दिया गया. देश के दैनिक पत्रों के लिए व्यंग्यचित्र बानाने वाले चित्रकारों से पूछा जाए कि क्या वे पैगंबर मुहम्मद के कार्टून बनाने की सोच सकते हैं. युइलांद्स पोस्टन के संपादकगण देखना चाहते थे कि व्यंग्य चित्रकार कितनी निर्भीकता का और देश में रहने वाले मुसलमान कितनी सहनशीलता का परिचय दे पाते हैं. व्यंग्य चित्रकार यूनियन के 42 में से केवल 15 चित्रकारों ने अपने उत्तर भेजे. केवल 12 चित्र आए, जिनमें से तीन युइलांद्स पोस्टन के अपने ही चित्रकारों के थे.
तय हुआ कि इन सभी व्यंग्यचित्रों को प्रकाशित किया जाए. उन्हें 12 अलग-अलग पेशेवर व्यंग्य चित्रकारों ने बनाया था. दैनिक के 30 सितंबर, 2005 वाले अंक में ‘मुहम्मद का चेहरा’ शीर्षक एक लेख के अंतर्गत उन्हें प्रकाशित किया गया. लेकिन, उस दिन का अंक प्रेस से बाहर जाते ही ओले पड़ने शुरू हो गए. मुसलमान पाठकों और प्रेस-प्रकाशन विक्रेताओं के निंदात्मक टेलीफोनों और पत्रों की झड़ी लग गई.
गुस्से से उबल पड़े लोग
गुस्से से उबल रहे लोगों में उस समय 27 साल का अहमद अक्कारी भी था. उसका जन्म 1978 में लेबनान में हुआ था. जब वह सात साल का था, तभी उसके घरवाले लेबनान छोड़ कर डेनमार्क आ गए. पूरे परिवार को राजनैतिक शरण मिल गई. लेकिन पैगंबर के कार्टून प्रकाशित होते ही अक्कारी आनन-फानन में डेनिश मुसलमानों के एक ऐसे उग्रवादी संगठन का मुखिया बन गया जो इस्लाम और उसके पैगंबर के इस अपमान के लिए न केवल युइलांद्स पोस्टन से बल्कि डेनमार्क की सरकार से भी क्षमा की मांग कर रहा था. पत्र सफाई दे रहा था कि ‘चित्रकार इस्लाम को भी उसी नजर से देख रहे हैं जिस नजर से वे ईसाई, बौद्ध या हिंदूू धर्म को देखते हैं.’ डेनिश सरकार कह रही थी, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा हमारे यहां बहुत बड़ा है और डेनिश सरकार के पास प्रेस पर दबाव डालने का कोई उपाय भी नहीं है.’
अहमद अक्कारी उस समय यह सब सुनने के लिए कतई तैयार नहीं था. डेनमार्क को घुटने टेकने पर मजबूर करने के इरादे से वह डेनमार्क के कुछ इमामों को लेकर मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों के दौरे पर निकल पड़ा. वहां के लोगों और धर्मोपदेशकों को समझाने-बुझाने और भड़काने लगा कि उन्हें अपने यहां डेनमार्क विरोधी प्रदर्शन ही नहीं, दंगे-फसाद भी करवाने चाहिए.
लेबनान से इंडोनेशिया तक हुए दंगे
वह अपने उद्देश्य में सफल भी रहा. मध्य-पूर्व के देशों में ही नहीं, लेबनान से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित इंडोनेशिया तक के सभी मुस्लिम देशों में लाखों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े. डेनमार्क के ही नहीं, यूरोप के अन्य देशों के दूतावासों को भी तोड़ने-फोड़ने और उन्हें आग लगाने लगे. जनता के बहिष्कार के कारण दुकानों और सुपरबाजारों से डेनमार्क से आयातित खाने-पीने की तथा अन्य प्रकार की सामग्रियां गायब हो गईं. दंगों-फसादों में 200 से अधिक लोग मरे, हजारों घायल हुए.
‘उस समय मुझे पक्का विश्वास था कि मैं सही काम कर रहा हूं’, अहमद अक्कारी का आज कहना है. ‘आज मैं जानता हूं कि हमने जो कुछ किया वह सब बिल्कुल गलत था’, लंबे समय तक चुप रहने के बाद हाल ही में अपनी चुप्पी तोड़ते हुए एक टेलीविजन कार्यक्रम में उसने कहा. इस बीच वह मीडिया के सामने कई बार इस बात को दुहरा चुका है.
अक्कारी के चेहरे पर तब दाढ़ी हुआ करती थी. अब नहीं है. उसमें प्रौढ़ता आ गई है. उसका कहना है, ‘तब मैं अनुभवहीन था, अब समझदार हो गया हूं. मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं उस में लोग हर चीज को अच्छे और बुरे के बीच लड़ाई के रूप में देखते हैं…. हर कोई केवल अपने आप को अच्छा समझता है और बाकी सबको अपने ऐसे दुश्मन मानता है जिनसे लड़ना और उनका सफाया कर देना उसका कर्तव्य है. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है.’
धर्म है सत्ता-संघर्ष का हथकंडा
अहमद अक्कारी ने बताया कि मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों की अपनी यात्राओं में उसने वहां जो कुछ देखा, उससे उसकी आंखें खुलने लगीं, उसका मन बदलने लगा. उसका कहना था, ‘मैंने देखा कि वहां धर्म को किस तरह भीतरी सत्ता-संघर्ष का हथकंडा बनाया जा रहा है. मेरी समझ में आया कि आखिर मैं भी तो इसी रास्ते पर चल रहा है.’ उसने तय किया कि अब वह किसी मस्जिद में इमाम का काम नहीं करेगा. वह ग्रीनलैंड चला गया और वहां एक प्रौढ़शिक्षा स्कूल में पढ़ाने लगा. ग्रीनलैंड संसार का सबसे बड़ा और सबसे बर्फीला द्वीप माना जाता है, जो साथ ही डेनमार्क का एक स्वायत्तशासी प्रदेश भी है.
ग्रीनलैंड में अक्कारी ने ढेर सारी किताबें पढ़ीं. आत्ममंथन किया. उसका कहना है, ‘मुझे बोध हुआ कि नायक और खलनायक तो सब जगह होते हैं. यह बोध मेरी इस समझ से मेल नहीं खा रहा था कि अच्छाई तो केवल मेरे ही धर्म में हो सकती है, दूसरे किसी धर्म में अच्छाई हो ही नहीं सकती. मेरी समझ में आने लगा कि एक ऐसा उदार समाज होना कितना जरूरी है जिसमें सबके रहने और सोचने के लिए जगह हो.’
मौन रहें या मुंहफट बनें
सात साल पहले पैगंबर मुहम्मद वाले कार्टून अहमद अक्कारी को इस्लाम पर खुला हमला लगे थे. वह बौखला उठा था. अब उसकी समझ में आ रहा है कि युइलांद्स पोस्टन उनके माध्यम से क्या कहना चाहता था. यही कि अपने आप पर खुद ही सेंसरशिप थोपने और दूसरी ओर विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच की सीमा के बारे में बहस होनी चाहिए. उसके शब्दों में, ‘मैं नहीं जानता कि बहस का यह तरीका (व्यंग्यचित्र) सही था या नहीं, लेकिन उसके उद्देश्य से मैं सहमत हूं.’
यही नहीं, सात साल पहले अखबार और सरकार से माफी मंगवाने पर उतारू अक्कारी अब खुद सबसे माफी मांग रहा है. उसका कहना है, ‘मैंने जो आग फूंकी थी, उसे लेकर मुझे आज बहुत आत्मग्लानि होती है. मैं अपनी उस भूमिका के लिए माफी मांगता हूं जिसकी वजह से डेनमार्क को घृणा का निशाना बनना पड़ा.’
पैगंबर के कार्टूनिस्ट से भी क्षमायाचना
सबसे मार्मिक तो वह क्षण था, जब अहमद अक्कारी ने कुर्त वेस्टरगार्द नाम के उस व्यंग चित्रकार से मिल कर उससे भी क्षमायाचना की जिसने-अपनी पगड़ी में बम छिपाए – पैगंबर मोहम्मद वाला कार्टून बनाया था. वेस्टरगार्द 2005 से ही चौबीसों घंटे की पुलिस सुरक्षा के बीच जी रहे हैं. उनकी हत्या के कई प्रयास हो चुके हैं. इस बीच 78 साल के हो गए वेस्टरगार्द ने अहमद अक्कारी को कॉफी पेश करते हुए कहा, ‘अब
तो तुम इस्लामवादी नहीं रहे, मानवतावादी हो गए हो. हमें ऐसे ही लोग चाहिए.’
डेनमार्क में अहमद अक्कारी के हृदय-परिवर्तन की हर तरफ व्यापक चर्चा है. इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने या पश्चिमी देशों के इस्लामीकरण की प्रवृत्ति के विरोधी तो उसकी प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं, जबकि वे लोग जो कल तक उसके संगी-साथी थे, उसकी जय-जयकार किया करते थे, उसे गद्दार बता कर कोसने-धिक्कारने में जुट गए हैं. ‘अहमद अक्कारी के बारे में हमें कुछ नहीं कहना है’, कहते हुए डेनमार्क के इस्लामी फेडरेशन के प्रवक्ता इमरान शाह ने पत्रकारों से बात करने से मना कर दिया. डेनमार्क की मात्र 56 लाख की जनसंख्या में लगभग हर दसवां आदमी पिछले कुछ ही दशकों में एशिया या अफ्रीका के देशों से आकर वहां बस गया मुसलमान है. पाकिस्तानियों की संख्या भी अच्छी-खासी है और कट्टरपंथ के प्रति उनका झुकाव भी कुछ कम नहीं है.
(लेखक जर्मन रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)
साभार- http://www.tehelkahindi.com/ से
विंडो एक्सपी बंद होगा, बैंका का कामकाज ठप्प होने का खतरा
देश के सरकारी बैंकों की 34 हजार से अधिक शाखाओं में अगले करीब 150 दिनों में कामकाज ठप होने का खतरा है।
इन शाखाओं में जो सिस्टम विंडोज एक्सपी ऑपरेटिंग सिस्टम पर संचालित हैं, उन्हें 8 अप्रैल 2014 से माइक्रोसॉफ्ट सपोर्ट करना बंद कर देगा।
माइक्रोसॉफ्ट की ओर से एसेंसियस कंसल्टिंग की ओर से कराए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है। अध्ययन के मुताबिक बैंकिंग सेक्टर में विंडोज एक्सपी का प्रसार 70 फीसदी है।
माइक्रोसॉफ्ट ने एक बयान जारी कर बताया कि भारतीय सरकारी बैंकों की 34,115 शाखाओं पर जोखिम है। 8 अप्रैल 2014 से विंडोज एक्सपी को माइक्रोसॉफ्ट सपोर्ट नहीं करेगा।
अध्ययन बताता है कि बैंकिंग सेक्टर में विंडोज एक्सपी की पहुंच 40 से 70 फीसदी है। बैंकों के सामने सबसे बड़ा जोखिम सपोर्ट बंद हो जाने के बावजूद एक्सपी इंस्टालेशन को बनाए रखना है।
अध्ययन के मुताबिक बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं खासकर रुरल और सेमी-अर्बन क्षेत्रों में एक्सपी पर निर्भर हैं। इन शाखाओं में सिस्टम काम करना बंद कर सकते हैं और इसके चलते ग्राहक सेवाएं पूरी तरह ठप हो सकती हैं।
माना जाता है कि बड़ी गड़बड़ी होने की स्थिति में सिस्टम को सामान्य रूप से सुचारु होने में तीन दिन का समय लगता है।
ऐसे में इस घटना के चलते रोजाना 1,100 करोड़ रुपये के कारोबार का नुकसान हो सकता है और तीन दिनों में 330 करोड़ रुपये की आमदनी प्रभावित हो सकती है।
विंडोज एक्सपी का सपोर्ट बंद होने से महानगरों और शहरी शाखाओं में करीब 55 फीसदी ग्राहकों को एक ट्रांजेक्शन में 30 मिनट तक का समय लग सकता है।
माइक्रोसॉफ्ट की ताजा सिक्यूरिटी इंटेलीजेंस रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपी यूजर्स माइक्रोसॉफ्ट के विंडोज 8.1 जैसे आधुनिक ऑपरेटिंग सिस्टम की तुलना में 6 गुना अधिक इनफेक्डेड (सिस्टम वायरस के शिकार) हो सकते हैं।