Thursday, January 16, 2025
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लोकतांत्रिक छवि पेश कर रहा है म्यांमार

पांच दशक के सैन्य शासन के बाद करीब दो साल पहले लोकतंत्र की राह पर निकला म्यांमार जल्द ही महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करना चाहता है, इसलिए राष्ट्रपति थ्येन सेन बड़े वैश्विक आयोजनों में शामिल होने से पहले राजनीतिक बंदियों की रिहाई करके दुनिया के समक्ष देश की नई तस्वीर पेश करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

म्यांमार में कई पीढ़ियों के लोकतंत्र समर्थक नेता, वकील, प्रोफेसर, पत्रकार, छात्र और अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष करते हुए लंबे समय से जेलों में बंद हैं। दशकों तक उन्हें किसी ने नहीं पूछा। शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सांग सू की भी दशकों तक जेल में रहीं और रिहा होने के बाद वह देश के अन्य लोकतंत्र समर्थक नेताओं को मुक्त कराने के लिए शांतिपूर्वक संघर्ष कर रहीं हैं। म्यांमार में लोकतंत्र लौट रहा है, इसका भी सू की बखूबी प्रचार कर रहीं हैं और इस क्रम में उन्होंने भारत सहित कई अन्य लोकतांत्रिक देशों की यात्रा भी की है। म्यांमार लोकतंत्र की राह पर  तेजी से अग्रसर है, यही बात संयुकत राष्ट्र महासिचव बान की मून भी कहते हैं।  

राष्ट्रपति थ्येन सेन विश्व मंच पर देश की लोकतांत्रिक छवि पेश करने पर जुटे हैं। हाल ही में ब्रुनेई में दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान की बैठक में हिस्सा लेने से पहले उन्होंने अपने यहां बंद 56 राजनीतिक बंदियों की रिहाई की घोषणा करके संदेश देना चाहा कि उनके देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो चुकी है और वहां राजनीतिक स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है। उन्होंने विश्व समुदाय को बंदियों की रिहाई का आदेश देकर यह भी संदेश दिया है कि म्यांमार में खुला और पारदर्शी माहौल है और सभी के पास समान राजनीतिक अधिकार हैं।  

सरकार ने जुलाई में भी 70 राजनीतिक बंदियों को उस समय रिहा करने की घोषणा की थी, जब राष्ट्रपति थ्येन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में हिस्सा लेने जा रहे थे। उन्होंने तब भी पूरी दुनिया को संदेश दिया था कि उन्हें लोकतांत्रिक देश की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उन्होंने उसी दौरान यह भी घोषणा की थी कि इस साल के अंत तक सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार देश की जेलों में अब भी 130 के आसपास राजनीतिक बंदी हैं।  

म्यांमार की जेलें कभी दस हजार से अधिक राजनीतिक बंदियों का घर हुआ करती थीं, लेकिन अब स्थिति सुधारी है और वहां से बड़ी संख्या में बंदियों को रिहा किया जा चुका है। जेलों से रिहा हो रहे राजनीतिक कैदियों का कहना है कि अब गिनती के ही उनके साथी जेलों में हैं और उनकी संख्या धीरे धीरे कम हो रही है। बंदियों में कई पीढ़ियों के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और सभी को देश में लोकतंत्र की बहाली की वकालत करने के आरोप में सलाखों के पीछे ठूंसा गया था। राष्ट्रपति थ्येन ने मार्च 2011 में देश की बागड़ोर संभाली और तब से वह विश्व समुदाय को विश्वास दिलाने में लगे हैं कि म्यांमार अब लोकतांत्रिक देश है।  

संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार में मानवाधिकार पर नजर रखने के लिए विशेष प्रतिनिधि के तौर पर तोमस ओजे किंताने को भेजा है। तोमस ने हाल में राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर म्यांमार सरकार की सराहना की और कहा है कि इन सभी बंदियों को देश की पूर्व सैन्य सरकार ने अन्यायपूर्ण तरीके से जेलों में ठूंस दिया था। उनका कहना है कि राजनीतिक कैदियों की रिहाई उनके अथवा उनके परिवार के सदस्यों के लिए ही नहीं, बल्कि देश में लोकतंत्र की बहाली और देश को फिर से पटरी पर लाने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है।

मानवाधिकार के विशेष प्रतिनिधि का कहना है कि जिन लोगों को रिहा किया जा रहा है, उनमें 1988 और फिर 1996 के दौरान बंद हुए राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हैं। उन्हें इस बात की भी चिंता है कि अब भी बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है। सरकार पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि कई लोगों को राजनीतिक विद्वेष के कारण गिरफ्तार किया गया है। पिछले साल जून जुलाई में भी बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया था। विशेषज्ञों का कहना है कि राजनीतिक बंदियों की रिहाई का काम सिद्धांत आधारित और बिना शर्त होना चाहिए। रिहाई के बाद उन्हें कहीं भी जाने और किसी भी स्थान पर रहने की छूट होनी चाहिए। जेल से बाहर उन्हें पूरी राजनीतिक और सामाजिक आजादी मिलनी चाहिए।   

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के विशेष प्रतिनिधि म्यांमार में मानवाधिकार की स्थिति पर कड़ी नजर रखे हैं और सरकार का प्रयास अपनी छवि सुधारने के लिए उन्हें हर संभव यह विश्वास दिलाना है कि देश की शासन व्यवस्था लोकतंत्र के अनुरूप है, इसलिए उसे अब विश्व मंच पर लोकतांत्रिक देश के रूप में देखा जाना चाहिए। विशेष प्रतिनिधि म्यांमार में चल रही मानवाधिकार की स्थिति पर संतुष्ट हैं और वह संयुक्त राष्ट्र महासभा की आम बैठक में वहां की स्थिति पर जल्द ही रिपोर्ट भी पेश कर देंगे।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने महासभा की हाल में ही न्यूयॉर्क में हुई 68वीं बैठक के दौरान म्यांमार  के मित्र देशों के प्रतिनिधियों के साथ अलग से बातचीत की। इस बैठक में भी यही कहा गया कि म्यांमार में सुधार हो रहा है और यह देश तेजी से लोकतंत्र की राह पर चल रहा है। उन्होंने राष्ट्रपति थ्येन की यह कहते हुए तारीफ भी कि वह देश को लोकतंत्र के साथ ही शांति, खुशहाली तथा खुली आर्थिक व्यवस्था की तरफ ले जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने सुरक्षा के स्तर पर देश में और सुधार की जरूरत पर बल दिया है। उनका कहना है कि सांप्रदायिक दंगे होंगे, तो इससे देश की छवि खराब होगी और उसने अपनी छवि को सुधारने के लिए अब तक जो भी प्रगति की है, वह सब धुल जाएगा, इसलिए म्यांमार सरकार को देश की छवि को बनाने के लिए सामाजिक स्तर पर भी सख्ती से काम करने की जरूरत है।

म्यांमार में 1988 के सैन्य तख्तापलट के दौरान लोकतंत्र समर्थकों के सपने को चकनाचूर कर दिया गया था, लेकिन आज स्थिति बहुत बदली है और वहां लोकतंत्र का रास्ता दिखाई देने लगा है। पिछले दो साल के दौरान हजारों राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जा चुका है और म्यांमार अपनी आर्थिक हालात में सुधार लाने के लिए वैश्विक स्तर पर बाजार तलाश रहा है। वह दुनिया के साथ अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह सहभागिता चाहता है।  

(लेखक पत्रकार हैं और हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से जुड़ें हैं।…)

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Ankur Vijaivargiya
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आतंक की दुनिया से अध्यात्म में लौटे अहमद अक्कारी

इस्लाम की रक्षा के नाम पर डेनमार्क के अहमद अक्कारी ने सात साल पहले पूरी दुनिया में ऐसी आग भड़काई जिसमें करीब 200 लोगों की जान चली गई. तब वह 27 साल का था और बदले की आग से धधक रहा था. अब पश्चात्ताप की आंच से पिघलकर वह धार्मिक सद्भावना का भक्त बन गया है.

युइलांद्स पोस्टन (द युटलैंड पोस्ट) डेनमार्क का सबसे बड़ा दैनिक है. 19 सितंबर, 2005 के दिन उसके संपादकीय मंडल की बैठक में एक अनोखा सुझाव दिया गया. देश के दैनिक पत्रों के लिए व्यंग्यचित्र बानाने वाले चित्रकारों से पूछा जाए कि क्या वे पैगंबर मुहम्मद के कार्टून बनाने की सोच सकते हैं. युइलांद्स पोस्टन के संपादकगण देखना चाहते थे कि व्यंग्य चित्रकार कितनी निर्भीकता का और देश में रहने वाले मुसलमान कितनी सहनशीलता का परिचय दे पाते हैं. व्यंग्य चित्रकार यूनियन के 42 में से केवल 15 चित्रकारों ने अपने उत्तर भेजे. केवल 12 चित्र आए, जिनमें से तीन युइलांद्स पोस्टन के अपने ही चित्रकारों के थे.

तय हुआ कि इन सभी व्यंग्यचित्रों को प्रकाशित किया जाए. उन्हें 12 अलग-अलग पेशेवर व्यंग्य चित्रकारों ने बनाया था. दैनिक के 30 सितंबर, 2005 वाले अंक में ‘मुहम्मद का चेहरा’ शीर्षक एक लेख के अंतर्गत उन्हें प्रकाशित किया गया. लेकिन, उस दिन का अंक प्रेस से बाहर जाते ही ओले पड़ने शुरू हो गए. मुसलमान पाठकों और प्रेस-प्रकाशन विक्रेताओं के निंदात्मक टेलीफोनों और पत्रों की झड़ी लग गई.  

गुस्से से उबल पड़े लोग

गुस्से से उबल रहे लोगों में उस समय 27 साल का अहमद अक्कारी भी था. उसका जन्म 1978 में लेबनान में हुआ था. जब वह सात साल का था, तभी उसके घरवाले लेबनान छोड़ कर डेनमार्क आ गए. पूरे परिवार को राजनैतिक शरण मिल गई. लेकिन पैगंबर के कार्टून प्रकाशित होते ही अक्कारी आनन-फानन में डेनिश मुसलमानों के एक ऐसे उग्रवादी संगठन का मुखिया बन गया जो इस्लाम और उसके पैगंबर के इस अपमान के लिए न केवल युइलांद्स पोस्टन से बल्कि डेनमार्क की सरकार से भी क्षमा की मांग कर रहा था. पत्र सफाई दे रहा था कि ‘चित्रकार इस्लाम को भी उसी नजर से देख रहे हैं जिस नजर से वे ईसाई, बौद्ध या हिंदूू धर्म को  देखते हैं.’ डेनिश सरकार कह रही थी, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा हमारे यहां बहुत बड़ा है और डेनिश सरकार के पास प्रेस पर दबाव डालने का कोई उपाय भी नहीं है.’

अहमद अक्कारी उस समय यह सब सुनने के लिए कतई तैयार नहीं था. डेनमार्क को घुटने टेकने पर मजबूर करने के इरादे से वह डेनमार्क के कुछ इमामों को लेकर मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों के दौरे पर निकल पड़ा. वहां के लोगों और धर्मोपदेशकों को समझाने-बुझाने और भड़काने लगा कि उन्हें अपने यहां डेनमार्क विरोधी प्रदर्शन ही नहीं, दंगे-फसाद भी करवाने चाहिए.

लेबनान से इंडोनेशिया तक हुए दंगे

वह अपने उद्देश्य में सफल भी रहा. मध्य-पूर्व के देशों में ही नहीं, लेबनान से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित इंडोनेशिया तक के सभी मुस्लिम देशों में लाखों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े. डेनमार्क के ही नहीं, यूरोप के अन्य देशों के दूतावासों को भी तोड़ने-फोड़ने और उन्हें आग लगाने लगे. जनता के बहिष्कार के कारण दुकानों और सुपरबाजारों से डेनमार्क से आयातित खाने-पीने की तथा अन्य प्रकार की सामग्रियां गायब हो गईं. दंगों-फसादों में 200 से अधिक लोग मरे, हजारों घायल हुए.

‘उस समय मुझे पक्का विश्वास था कि मैं सही काम कर रहा हूं’, अहमद अक्कारी का आज कहना है. ‘आज मैं जानता हूं कि हमने जो कुछ किया वह सब बिल्कुल गलत था’,  लंबे समय तक चुप रहने के बाद हाल ही में अपनी चुप्पी तोड़ते हुए एक टेलीविजन कार्यक्रम में उसने कहा. इस बीच वह मीडिया के सामने कई बार इस बात को दुहरा चुका है.

अक्कारी के चेहरे पर तब दाढ़ी हुआ करती थी. अब नहीं है. उसमें प्रौढ़ता आ गई है. उसका कहना है, ‘तब मैं अनुभवहीन था, अब समझदार हो गया हूं. मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं उस में लोग हर चीज को अच्छे और बुरे के बीच लड़ाई के रूप में देखते हैं…. हर कोई केवल अपने आप को अच्छा समझता है और बाकी सबको अपने ऐसे दुश्मन मानता है जिनसे लड़ना और उनका सफाया कर देना उसका कर्तव्य है. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है.’

धर्म है सत्ता-संघर्ष का हथकंडा

अहमद अक्कारी ने बताया कि मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों की अपनी यात्राओं में उसने वहां जो कुछ देखा, उससे उसकी आंखें खुलने लगीं, उसका मन बदलने लगा. उसका कहना था, ‘मैंने देखा कि वहां धर्म को किस तरह भीतरी सत्ता-संघर्ष का हथकंडा बनाया जा रहा है. मेरी समझ में आया कि आखिर मैं भी तो इसी रास्ते पर चल रहा है.’ उसने तय किया कि अब वह किसी मस्जिद में इमाम का काम नहीं करेगा. वह ग्रीनलैंड चला गया और वहां एक प्रौढ़शिक्षा स्कूल में पढ़ाने लगा. ग्रीनलैंड संसार का सबसे बड़ा और सबसे बर्फीला द्वीप माना जाता है, जो साथ ही डेनमार्क का एक स्वायत्तशासी प्रदेश भी है.

ग्रीनलैंड में अक्कारी ने ढेर सारी किताबें पढ़ीं. आत्ममंथन किया. उसका कहना है, ‘मुझे बोध हुआ कि नायक और खलनायक तो सब जगह होते हैं. यह बोध मेरी इस समझ से मेल नहीं खा रहा था कि अच्छाई तो केवल मेरे ही धर्म में हो सकती है, दूसरे किसी धर्म में अच्छाई हो ही नहीं सकती. मेरी समझ में आने लगा कि एक ऐसा उदार समाज होना कितना जरूरी है जिसमें सबके रहने और सोचने के लिए जगह हो.’

मौन रहें या मुंहफट बनें

सात साल पहले पैगंबर मुहम्मद वाले कार्टून अहमद अक्कारी को इस्लाम पर खुला हमला लगे थे. वह बौखला उठा था. अब उसकी समझ में आ रहा है कि युइलांद्स पोस्टन उनके माध्यम से क्या कहना चाहता था. यही कि अपने आप पर खुद ही सेंसरशिप थोपने और दूसरी ओर विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच की सीमा के बारे में बहस होनी चाहिए. उसके शब्दों में, ‘मैं नहीं जानता कि बहस का यह तरीका (व्यंग्यचित्र) सही था या नहीं, लेकिन उसके उद्देश्य से मैं सहमत हूं.’

यही नहीं, सात साल पहले अखबार और सरकार से माफी मंगवाने पर उतारू अक्कारी अब खुद सबसे माफी मांग रहा है. उसका कहना है, ‘मैंने जो आग फूंकी थी, उसे लेकर मुझे आज बहुत आत्मग्लानि होती है. मैं अपनी उस भूमिका के लिए माफी मांगता हूं जिसकी वजह से डेनमार्क को घृणा का निशाना बनना पड़ा.’

पैगंबर के कार्टूनिस्ट से भी क्षमायाचना

सबसे मार्मिक तो वह क्षण था, जब अहमद अक्कारी ने कुर्त वेस्टरगार्द नाम के उस व्यंग चित्रकार से मिल कर उससे भी क्षमायाचना की जिसने-अपनी पगड़ी में बम छिपाए – पैगंबर मोहम्मद वाला कार्टून बनाया था. वेस्टरगार्द 2005 से ही चौबीसों घंटे की पुलिस सुरक्षा के बीच जी रहे हैं. उनकी हत्या के कई प्रयास हो चुके हैं. इस बीच 78 साल के हो गए वेस्टरगार्द ने अहमद अक्कारी को कॉफी पेश करते हुए कहा, ‘अब
तो तुम इस्लामवादी नहीं रहे, मानवतावादी हो गए हो. हमें ऐसे ही लोग चाहिए.’

डेनमार्क में अहमद अक्कारी के हृदय-परिवर्तन की हर तरफ व्यापक चर्चा है. इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने या पश्चिमी देशों के इस्लामीकरण की प्रवृत्ति के विरोधी तो उसकी प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं, जबकि वे लोग जो कल तक उसके संगी-साथी थे, उसकी जय-जयकार किया करते थे, उसे गद्दार बता कर कोसने-धिक्कारने में जुट गए हैं. ‘अहमद अक्कारी के बारे में हमें कुछ नहीं कहना है’, कहते हुए डेनमार्क के इस्लामी फेडरेशन के प्रवक्ता इमरान शाह ने पत्रकारों से बात करने से मना कर दिया. डेनमार्क की मात्र 56 लाख की जनसंख्या में लगभग हर दसवां आदमी पिछले कुछ ही दशकों में एशिया या अफ्रीका के देशों से आकर वहां बस गया मुसलमान है. पाकिस्तानियों की संख्या भी अच्छी-खासी है और कट्टरपंथ के प्रति उनका झुकाव भी कुछ कम नहीं है.

(लेखक जर्मन रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)

साभार- http://www.tehelkahindi.com/ से

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विंडो एक्सपी बंद होगा, बैंका का कामकाज ठप्प होने का खतरा

देश के सरकारी बैंकों की 34 हजार से अधिक शाखाओं में अगले करीब 150 दिनों में कामकाज ठप होने का खतरा है।

इन शाखाओं में जो सिस्टम विंडोज एक्सपी ऑपरेटिंग सिस्टम पर संचालित हैं, उन्हें 8 अप्रैल 2014 से माइक्रोसॉफ्ट सपोर्ट करना बंद कर देगा।

माइक्रोसॉफ्ट की ओर से एसेंसियस कंसल्टिंग की ओर से कराए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है। अध्ययन के मुताबिक बैंकिंग सेक्टर में विंडोज एक्सपी का प्रसार 70 फीसदी है।

माइक्रोसॉफ्ट ने एक बयान जारी कर बताया कि भारतीय सरकारी बैंकों की 34,115 शाखाओं पर जोखिम है। 8 अप्रैल 2014 से विंडोज एक्सपी को माइक्रोसॉफ्ट सपोर्ट नहीं करेगा।

अध्ययन बताता है कि बैंकिंग सेक्टर में विंडोज एक्सपी की पहुंच 40 से 70 फीसदी है। बैंकों के सामने सबसे बड़ा जोखिम सपोर्ट बंद हो जाने के बावजूद एक्सपी इंस्टालेशन को बनाए रखना है।

अध्ययन के मुताबिक बड़ी संख्या में बैंक शाखाएं खासकर रुरल और सेमी-अर्बन क्षेत्रों में एक्सपी पर निर्भर हैं। इन शाखाओं में सिस्टम काम करना बंद कर सकते हैं और इसके चलते ग्राहक सेवाएं पूरी तरह ठप हो सकती हैं।

माना जाता है कि बड़ी गड़बड़ी होने की स्थिति में सिस्टम को सामान्य रूप से सुचारु होने में तीन दिन का समय लगता है।

ऐसे में इस घटना के चलते रोजाना 1,100 करोड़ रुपये के कारोबार का नुकसान हो सकता है और तीन दिनों में 330 करोड़ रुपये की आमदनी प्रभावित हो सकती है।

विंडोज एक्सपी का सपोर्ट बंद होने से महानगरों और शहरी शाखाओं में करीब 55 फीसदी ग्राहकों को एक ट्रांजेक्शन में 30 मिनट तक का समय लग सकता है।

माइक्रोसॉफ्ट की ताजा सिक्यूरिटी इंटेलीजेंस रिपोर्ट के मुताबिक एक्सपी यूजर्स माइक्रोसॉफ्ट के विंडोज 8.1 जैसे आधुनिक ऑपरेटिंग सिस्टम की तुलना में 6 गुना अधिक इनफेक्डेड (सिस्टम वायरस के शिकार) हो सकते हैं।

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सीबीआई प्रमुख के खिलाफ मुकदमा

रेप पर आपत्तिजनक बयान देने वाले सीबीआई डायरेक्टर मुसीबत में फंस सकते हैं। उनके खिलाफ कानपुर के सीएमएम कोर्ट में मुकदमा दर्ज किया गया है। खबर आ रही है कि महिला वकील आशा साहू ने यह केस दर्ज किया है। इसकी अलगी सुनवाई की तारीख भी तय कर दी गई है। 16 नवंबर को होने वाली इस सुनवाई में पता चलेगा कि रंजीत सिन्हा पर की गई इस याचिका क्या फैसला लिया जाता है।

क्या था बयान

सीबीआई के गोल्डन जुबली महोत्सव पर आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए सीबीआई चीफ रंजीत सिन्हा ने क्रिकेट में सट्टेबाजी की तुलना रेप से कर डाली थी।  उन्होंने कहा दिया था कहा कि क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए, क्योंकि देश में उसे रोकने के लिए पर्याप्त एजेंसियां नहीं हैं।

रंजीत सिन्हा ने कहा था, 'जब कुछ राज्यों में लॉटरी और कसिनो को इजाजत मिली है, तो फिर सट्टेबाजी को कानूनी रूप देने में क्या हर्ज है।' यह बोलकर उन्होंने आफत मोल ले ली थी कि अगर सट्टेबाजी को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे अगर रेप को रोका नहीं जा सकता तो उसका आनंद लेते हैं।

हालांकि, सिन्हा को इस विवादास्पद बयान के लिए माफी भी मांगनी पड़ी थी।

 

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सलमान खान का ट्विटर एकाउंट हैकरों के निशाने पर

सलमान खान और उनकी बहन अर्पिता काफी परेशान हैं कारण सलमान खान का सोशल मीडिया एकाउंट का हैक होना है। ये जानकारी सलमान की बहन ने अपने ट्विटर एकाउंट पर डाली है।

कुछ हैकर्स ने सलमान खान का ट्विटर एकाउंट हैक कर लिया है। सबसे पहले इसकी जानकारी उनकी बहन अर्पिता को हुई। अर्पिता ने देखा कि सलमान के एकाउंट पर काफी ऐसे ट्वीट्स थे जो उन्होंने नहीं लिखे थे। 

ये बात उन्होंने सलमान को भी बता दी तो वे भी परेशान हो उठे। मामले की तह तक जाने पर पता चला कि किसी ने सलमान की आईडी व प्रोफाइल चुराकर एक नकली एकाउंट बना डाला है।

मालूम हो कि बिग बॉस में कुशाल व गौहर मामले में सलमान पर पक्षपात का आरोप भी लगाया जा रहा है जिसको लेकर सोशल मीडिया पर कमेंट की बाढ़ आई हुई है। 

इस संबंध में सलमान भी ट्विटर पर एक्टिव हैं। लेकिन हाल फिलहाल में जो कमेंट उनके ट्विटर पर आए हैं वो उनके फर्जी एकाउंट से भी जुड़े हो सकते हैं। 

अर्पिता ने भी अपने ट्वीट में इस ओर इशारा किया है। वैसे अब सलमान के फैंस को काफी सावधान रहना होगा और किसी भी इंटरेक्‍शन से पहले सलमान की आईडी की पूरी तरह से पड़ताल करनी पड़ेगी।

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भाजपा के पूर्व सांसद व पत्रकार दीनानाथ मिश्र नहीं रहे

भाजपा के पूर्व राज्यसभा सदस्य और लेखक दीनानाथ मिश्र का बुधवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. वह 76 वर्ष के थे. वह पिछले कुछ समय से बीमार थे और उन्हें हाल में एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

मिश्र वर्ष 1998 से 2004 तक सांसद रहे थे. उन्होंने अपना करियर पत्रकार के तौर पर शुरू किया था और वह वर्ष 1971 से 1974 तक आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य के संपादक रहे थे. बाद में वह नवभारत टाइम्स के संपादक भी रहे.

वह मूलत: बिहार के गया के रहने वाले थे. वह वर्ष 1967 में अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गये थे. उनके परिवार में पत्नी, बेटा और तीन बेटियां हैं.

 

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संगीनों के साये में ‘लोकतंत्र’ का महापर्व

छत्तीसगढ़ के 18 सीटों पर करीब 67 प्रतिशत मतदान होने की खबर आ रही है। जिसे भारत की मुख्य मीडिया, छत्तीसगढ़ सरकार व भारत का शासक वर्ग एक जीत के रूप में देख रहा है। सभी अखबारों में बुलेट पर भारी बैलट नामक शीर्षक से खबरें बनाई गई हैं। इसे लोकतंत्र की जीत माना जा रहा है और लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत के रूप में देखा जा रहा है। 27 सितम्बर, 2013 के सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद पहली बार देश में नोटा (उम्मीदवारों को नकारने का) बटन का प्रयोग किया गया है। क्या सचमुच यह लोकतंत्र में लोगों की जीत है या नोटा का प्रभाव है या सरकारी आंकड़ों का खेल है?

नोटा का प्रयोग

27 सितम्बर, 2013 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सभी ईवीएम मशीन में गुलाबी रंग का नोटा बटन लगाया जाये और लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाये। लेकिन सरकार ने इस काम को पूरा नहीं किया गया। दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे। उन्होंने बताया कि जब इलेक्शन ड्यूटी की ट्रेनिंग दी जा रही थी उस समय भी नोटा को लेकर कुछ नहीं बताया गया।  मुन्ना रमायणम स्थानीय निवासी हैं और वो गोंडी भाषा के जानकार भी हैं वो अच्छे से बस्तर के आदिवासियों को गोंडी में समझा सकते थे जो कि बाहरी लोगों के लिए समझाना आसान काम नहीं है। लेकिन जब उनको ही नोटा के विषय में मालूम नहीं है तो वो कैसे बतायेंगे लोगों को? क्या यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का उल्लंघन नहीं है? क्या शासन-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मजाक नहीं उड़ा रहे हैं? क्या उन पर कोर्ट की अवमानना का केस हो सकता है?

माओवादी चुनाव बहिष्कार के साथ-साथ, गांव-गांव जाकर ईवीएम मशीन के द्वारा नोटा के बारे में बता रहे थे। इवीएम मशीन कम होने के कारण वे गत्ते का प्रयोग कर लोगों को नोटा के लिए जागरूक कर रहे थे। हो सकता है कि माओवादियों के इस रणनीति के तहत भी वोट का प्रतिशत बढ़ा हो।

लोकतंत्र में लोगों को अपने मन से चुनाव डालना होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखा गया कि किस तरह भारी फोर्स लगा कर चुनाव कराया गया आलम यह रहा कि अबूझमाड़ में बारह हजार मतदताओं के लिए बीस हजार जवानों को लगाया गया है। बस्तर व राजनन्दगांव में चुनाव के लिए सीआरपीएफ और राज्य सशस्त्र पुलिस की 560 कम्पनियां तैनात की जा रही है जबकि पहले से 33 सुरक्षा बलों का बटालियन तैनात है। 18 सीटों के ‘लोकतंत्र’ का महापंर्व सम्पन्न कराने के लिए लगभग 56 हजार हथियारंबद जवानों को उतारा गया है। इसके अलावा 19 हेलिकाप्टर को लगाया गया है। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और 10 राज्यों की आम्र्ड फोर्सेज के आला अधिकरियांे का ज्वांइट ग्रुप बनाया गया है, जो हर दो घंटे पर समीक्षा कर कर रहा है। क्या यह तैयारी किसी ‘लोकतंत्र’ के चुनाव जैसा है या लड़ाई जैसा?

इन जवानों को स्कूलों, हास्टलों व आश्रमों में ठहराया गया है। इन इलाकों में चुनाव होने तक स्कूल बंद रखने की घोषणा की गई है। यह सुप्रीम कोर्ट के 18 जनवरी, 2011 के आदेश के खिलाफ हैं जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार से सुरक्षा बलों को स्कूलों, हॉस्टलों और आश्रमों से हटाने को कहा गया था। पुलिस महानिदेशक रामनिवास के अनुसार ‘‘सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराने का निर्णय हमने चुनाव आयोग की सहमति के बाद लिया है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमने केन्द्रीय चुनाव आयोग से इसके लिए अनुमति मांगी थी और उनकी सहमति के बाद ही हमने सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराया है।’’ कानून के जानकारों के अनुसार यह सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है।

बीजापुर के 243 मतदान केन्द्रों में से 104 मतदान केन्द्रों को अतिसंवेदनशील तथा 139 मतदान केन्द्रों को संवेदनशील माना गया है। 167 मतदान केन्द्रों को भीतरी इलाके से यह कह कर हटा दिया गया कि वहां मतदानकर्मियों का पुहंचना मुश्किल है। 

अगर यहां के मतदाताओं को वोट डालना है तो उनको  40 से 60 किलोमीटर का सफर तय करके वोट डालना पड़ेगा। सवाल यह है कि जिस सरकार को जनता टैक्स देती है उसी जनता तक पहुंचने के लिए सरकार के पास संसाधन नहीं है। तो क्या वह गरीब मतदाता जो अपने जीविका के लिए जूझ रहा है इतनी दूर पहुंच कर अपने मतों का इस्तेमाल कर सकेगा? क्या लोगों को इस ‘लोकतंत्र’ में कोई जगह है? लोगों को इस तंत्र से दूर भगाने में सरकार की सभी मशीनरी शामिल है।

जनता हाशिये पर

संगीनों के साए में प्रचार हुआ और संगीनों के साए में मतदान भी हो गया। सड़कों पर चलना दूभर है जगह-जगह नाकाबंदी व चेकिंग की जा रही है। सड़कों से छोटे और बड़े वाहन भी गायब हैं सभी वाहनों को जब्त कर चुनाव कार्यों में लगा दिया गया है। जो भी गाड़ियां जब्त है उनके ड्राइवर एक तरह से बंधक बने हुए हैं। वे अपने वाहन मालिकों, घरों पर फोन से सम्पर्क नहीं कर सकते उनके पास खाने, रहने को कुछ नहीं है वे अपने गाड़ियों में ही बीस दिनों से सो रहे हैं। ड्राइवरों का कहना है कि उन्हें सीधे सड़क से पकड़ लिया गया। मालिक से मिलने का मौका ही नहीं मिला। यहां न एटीएम है न ही मोबईल का नेटवर्क और न ही यहां आया जा सकता है। 

प्रशासनिक अधिकारियों से खर्च मांगने पर कहते हैं कि वाहन मालिक से पैसा मांगों। मालिक भी पैसा भिजवाए तो कैसे, इस बिहड़ में पैसे लेकर कौन आएगा? ये ड्राइवर अपनी घड़ियों तथा स्टेपनी (एक्सट्रा टायर) को बेच कर अपने खाने का जुगाड़ कर रहे हैं। इस बात को छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त ट्रांसपोर्ट कमिश्नर डी रविशंकर भी मान रहे हैं कि उनके विभाग के पास इस तरह की शिकायतें मिल रही है। उन्होंने कहा कि ‘‘हमने यह साफ निर्देश दिए हैं कि जिले के स्तर पर कलक्टर और एसपी इन ड्राइवरों के खाने-रहने और सुरक्षा की व्यवस्था करें। मगर इसके बावजूद हमें शिकायतें मिल रही है। हमने फिर प्रशासनिक अधिकारियों को लिखा है।’’

चुनावी मुद्दे

किसी भी संसदीय राजनीतिक पार्टियों के पास जनता का कोई मुद्दा नहीं रह गया है। जनता के जीविका के संसाधन जल-जंगल-जमीन की लूट, आपरेशन ग्रिन हंट, माओवादी बताकर फर्जी इनकांउटर व जेलों में बंद हजारों आदिवासियों को बंद रखना, महिलाओं के साथ जवानों द्वारा बलात्कार किसी भी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा है। खासकर दो राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां जो लोगों को बरगलाने के सिवा और कुछ नहीं कर रही हैं। जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने दर्भा घटना में मारे गये कांग्रेसी नेताओं को भुनाने की कोशिश की वहीं भाजपा के पास केन्द्र में कांग्रेस सरकार को कोसने के अलावा और कुछ नहीं बचा है। जिस सलवा जुडूम में दोनों पार्टियों की सहभागिता रही है और करीब 650 गांवों के करीब दो लाख आदिवासियों को उजाड़ दिया गया वह किसी भी पार्टी के लिए चुनावी मुद्दा ही नही बन पाया। वह आदिवासी कहां गये किस हालत में है उस पर आज तक न तो छत्तीसगढ़ सरकार, केन्द्र सरकार और न ही किसी संसदीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा खबर ली गई।

आंध्र प्रदेश के खम्म जिले में छत्तीसगढ़ से पलायन कर के आए मुरिया और माड़िया आदिवासियों की दो सौ से ज्यादा बस्तियां हैं। उनके प्रधान पदम पेंटा कहते हैं कि जब वे लोग सुकमा के सुदूर इलाकों में रहा करते थे तो वहां कभी कोई सरकारी अधिकारी या नेता उनका हाल-चाल पूछने उनके गांव नहीं आया और न ही यहां कभी कोई अधिकारी, मंत्री या नेता आये। वे कहते हैं कि वहां भी हमारा कोई नहीं था यहां भी हमारा कोई नहीं है। वह बताते हैं कि इस इलाके में पलायन करके आये लोगों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो सकता है क्योंकि कोई सर्वे अभी तक नहीं हुआ है। गांव के बुर्जुगों का कहना है कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने बच्चों को पढ़ाने के लिए पहल की तो आंध्र प्रदेश सरकार के फरमान से वह काम बंद  हो गया।

क्या इस तरह के संगीनों के साये में ‘लोकतंत्र’ के महापर्व को मना कर हम लोगों को जोड़ पायेंगे या ‘लोक’ को गायब कर तंत्र की ही रक्षा करते रहेंगे? मतदान के प्रतिशत बढ़ने का कारण कुछ भी हो उससे क्या आम लोगों को लाभ मिलेगा? क्या स्कूल से वंचित बच्चों के शिक्षा पूरी हो पायेगी? क्या उन ट्रक चालकों को न्याय मिल पायेगा जो बीस दिन से भूखे-प्यासे सरकार की ड्यूटी बजा रहे हैं, क्या कोई न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग इनकी खोज-खबर करेगी?

 

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.  इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

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ज़ूम पर वरुण धवन बताएंगे अर्जुन कपूर के बारे में कुछ खास बातें!

वरुण धवन ने सबसे पहले लॉन्च किया था अर्जुन कपूर  को!  -वरुण धवन बात करेंगे दोस्ती, संबंधों और अपनी उन   बेवकूफियों के बारे में जिन्होंने उनको जेननेक्सट स्टार बनाया-  किंग ऑफ कॉमेडी- निर्देशक डेविड धवन जैसे पिता के होते हुए भी वरुण धवन   के लिए जिंदगी इतनी आसान नहीं थी। बचपन से ही स्वयंभू एनटरटेनर के तौर पर   वरुण अक्सर परिवार के विभिन्न कार्यक्रमों में अपने डांस की प्रस्तुति देते थे जब   कि उन्हें रेसलिंग में भी काफी दिलचस्पी हुआ करती थी!

इस सप्ताह वे जिंदगी के   महत्वपूर्ण सबक और अपने अनुभवों के बारे में बात करेंगे जूम के नए शो   जेनेक्सट-द फ्यूचर ऑफ बॉलीवुड में!   इस नए स्टार ने स्टूडेंट ऑफ द ईयर में अपनी शानदार भूमिका से बॉलीवुड   के साथ साथ दर्शकों के दिलों में भी अपनी जगह बना ली। बहरहाल, पर्दे पर   समर्पित स्टूडेंट का किरदार भले ही वरूण ने बाखूबी निभाया हो, पर असली जिंदगी   में वरूण का बचपन नादानियों से भरा था। परीक्षाआ में नकल करते हुए पकड़े   जाने पर बड़ी ही खूबी से वरूण ने अपनी उत्तर पुस्तिका पर सफेद स्याही का इस्तेमाल   करते हुए लाल निषान मिटा दिए! अपने स्कूल में स्टूडेंट ऑफ द ईयर बनना तो   दूर की बात है, वो तो कभी अपने टीचर्स के भी पसंदीदा स्टूडेंट नहीं   बने!  वरुण, चाहे एक फिल्म परिवार के बेटे हों लेकिन उन्हें भीकॉलेज में पहली   बार एक चैकीदार की भूमिका के लिए अपने अन्य सहपाठियों के साथ मुकाबला   करना पड़ा था! अपने प्रशंसकों की फौज होने के बावजूद बेहद नम्रता से बात   करने वाले वरुण ने अभिनेता बनने से पहले ही डायरेक्टर की भूमिका भी अदा   की है और उनका दावा है कि सबसे पहले उन्होंने ही कॉलेज में अर्जुन कपूर   को एक शॉर्ट फिल्म द व्हाइट माउंटेन में लॉन्च किया था। चूकिए मत, क्योंकि   अर्जुन खुलासा करेंगे कि कैसे उनके निर्देशक  ने इस फिल्म की शूटिंग को सिर्फ   5000 रुपए के बजट में ही पूरा कर लिया था। 

देखिए, वरुण के अपनी जिंदगी के कुछ पलों को याद करते हुए, जब वे नॉटिंघम,   इंग्लैंड में पढ़ाई कर रहे थे। अपने मनोरंजन के चक्कर में जब वे अपने रूम   में हिंदी फिल्मों के डायलॉग रिकार्ड कर अपने आप ही रिहर्सल कर रहे थे तब   उनके दोस्तों ने भी बिन बुलाए ही रूम में एंटरी ले ली और उनका खूब मजाक   उड़ाया!

क्या आप जानते हैं कि आलिया और वरुण के बीच किस तरह की दोस्ती है ? देखिए   वरूण को आलिया के साथ अपने संबंधों और अपने पहले प्यार के बारे में खुलासा   करते हुए, सिर्फ जूम पर। वहीं देखिए सना खान, आलिया भट्ट, सिद्धार्थ मल्होत्रा,   काजोल, करण जौहर और अंकल मनीष मल्होत्रा को वरुण के बारे में कुछ खास   बातें.. सोमवार, 18 नवंबर, 2013, रात  सिर्फ जूम पर!! 

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मुंबई में अंतर्राष्ट्रीय वैश्य फेडरेशन का गठन

दुनिया भर में फैले वैश्य समाज के लोगों को एक मंच पर लाने की दिशा सार्थक पहल करते हुए मुंबई में विभिन्न व्यवसायों से जुड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों व कॉर्पोरेट जगत से जुडे लोगों ने इंटरनेशनल वैश्य फेडरेनशन का गठन किया है। यह संगठन देश भर में फैले वैश्य समाज जिनमें जैन, माहेश्वरी, अग्रवाल, खंडेलवाल से लेकर वैश्य समाज से जुड़े सभी लोग शामिल होंगे,  को एक राजनीतिक शक्ति बनाने के साथ ही उनके हितों के लिए संघर्ष करेगा।

मुंबई के इंडियन मर्चेंट चेबर मे आयोजित एक शानदार समारोह में इसका पहला समारोह योजित किया गया जिसमें बड़ी संख्या में कारोबारी, उद्योगपति आदि शामिल हुए।

इंटरनेशनल वैश्य फेडरेशन के गठन में मुंबई के जाने माने उद्योगपति और दानदाता श्री राकेश झुनझुनवाला को अध्यक्ष, श्री आर. के मित्तल को कार्यकारी अध्यक्ष व श्री डीसी गुप्ता को महासचिव बनाया गया। श्री गुप्ता देश की कई प्रमुख कंपनियों में अध्यक्ष व प्रबंध संचालक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं।

कार्यक्रम का संचालन वैश्य फेडरेशन के पीआरओ श्री कन्हैयालाल खंडेलवाल ने किया। इस अवसर पर श्री राकेश मेहता ने कहा कि वैश्य समाज के तीन प्रमुख एजेंडे हैं – वैश्य समाज को संगठछित कर राजनीतिक दलों को इस बात के लिए मजबूर करना कि वे चुनावों में वैश्य समाज की उपेक्षा न करें, आएएस व आपीएस जैसी परीक्षाओं में शामनल होने वाले वैश्य समाज के छात्र-छात्राओं को एक लाख रु. की सहायता प्रदान करना और देश भर में फैली वैश्य समाज की विभिन्न प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करना ताकि समाज के सभी लोगों को उनके बारे में जानकारी हो और उन्हें बेहतर कुछ करने के लिए सहायता मिल सके।

इस अवसर पर आयोजित कवि गोष्ठी में मध्य प्रदेश के सतना से आए अशोक संदेरिया और अकोदिया के श्री गोविंद राठी ने अपनी हास्य रचनाओं स सबका मनोरंजन किया, लेकिन दोनों समय पूरे कवि कविताए सुनाने की बजाय तालियाँ बजवाने की भोंडी मांग करते रहे जिससे लोगों का कविता सुनने का मजा किरकिरा हो गया। हर एक लाईन सुनाने के बाद दोनों कविश्रोताओं को मजबूर करते थे कि वे ताली बजाएँ, ऐसा लगता था मानो ये कविता सुनाने नहीं बल्कि तालियाँ बजवाने आए हैं, जब कई श्रोताओं ने उनकी बार बार की माँग पर तालियाँ नहीं बजाई तो ये उन पर छींटा-कशी करने लगे। पूरे हाल में उन लोगों को जानबूझकर निशाना बनाने लगे जो उनकी कविताओं पर तालियाँ नहीं बजा रहे थे। कार्यक्रम के बाद में कई श्रोताओं ने कवियों की इस छींटाकशी पर अफसोस जाहिर किया।

इन दिनों हर कवि सम्मेलन में ये दृश्य आम होता जा रहा है कि कोई भी कवि कैसी भी दो कौड़ी की रचना सुनाए वह हर एक लाईन पर तालियाँ बजाने का आग्रह इस अधिकार से करता है मानो श्रोताओं को तालियाँ बजाने के लिए ही इकठ्ठा किया गया है। एक आम सुधी श्रोता इन कवियों की इस बेहूदगी पर मन मसोस कर रह जाता है।

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गाँधीजी की हत्या को लेकर नया खुलासा, कैसे फँसाया गया सावरकर को

फरवरी, 2003 में पहली बार संसद के सेंट्रल हॉल में स्वातंत्र्य वीर सावरकर का चित्र लगाया गया। उस समय एनडीए सरकार थी श्री वाजपेयी प्रधाननमंत्री और श्री मनोहर जोशी लोक सभा के अध्यक्ष, राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने तैलचित्र का अनावरण किया। संसदीय इतिहास में, पहली बार कांग्रेस पार्टी ने राष्ट™पति के कार्यÿम का बहिष्कार किया। तबसे प्रत्येक 28 मई को वीर सावरकर की जन्मतिथि पर जब सांसद सेंट™ल हॉल में इस महान स्वतंत्रता सेनानी को अपनी श्रध्दांजलि देने आते हैं तो कांग्रेसी सांसद इस कार्यÿम का बहिष्कार करते हैं। कांग्रेस पार्टी ने कभी भी अपने इस व्यवहार पर सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण नहीं दिया है। परन्तु अघोषित कारण यह है कि वह गाँधीजी हत्या केस में एक आरोपी थे। पार्टी इस तथ्य की अनदेखी करती है कि न्यायालय ने इस केस में दो को मृत्युदण्ड और अन्यों को विभिन्न कारावासों की सजा दी थी परन्तु वीर सावरकर को flदोषी नहीं पाया’’ और उन्हें बरी किया।
 
महात्मा गाँधीजी की हत्या के दो दशक बाद, साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पुस्तकों के एक प्रसिध्द लेखक मनोहर मालगांवकर ने भारतीय इतिहास की इस दुःखद त्रासदी पर आधारित एक पुस्तक लिखी। सजा काटकर बाहर निकले आरोपियों तथा सरकारी गवाह बने बडगे जिसे माफी दे दी गई से पुस्तक लेखक के साक्षात्कारों पर आधारित है। लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशित होने से काफी पहले ही मालगांवकर ने यह रिपोर्ट उस समय की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लाइफ इंटरनेशनल’ को दे दी।
 
इस पत्रिका ने फरवरी, 1968 के अपने अंक में मालगांवकर द्वारा दिए गए तथ्यों को उपरोक्त वर्णित व्यक्तियों के घरों पर खींचे गए फोटोग्राफ के साथ प्रकाशित किया। गाँधीजी की हत्या जिसने दुनिया को धक्का पहुंचाया, के लगभग तीस वर्ष पश्चात सन् 1977 में लंदन के प्रकाशक मैक्मिलन ने मालगांवकर द्वारा किए गए शोध को ‘दि मैन हू किल्ड गाँधीजी’ ; शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की। उसके कुछ समय पश्चात् मैंने इसे पढ़ा था। वर्तमान में मेरे सम्मुख इस पुस्तक का 13वां संस्करण है जिसे दिल्ली स्थित रोली बुक्स ने उसी शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है परन्तु एक अतिरिक्त उल्लेख के साथः अप्रकाशित दस्तावेजों और फोटोग्रास के साथ’’।
 
इस संस्करण में, लेखक मालगांवकर अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं- 1960 के दशक के मध्य में, इस अपराध में शामिल कुछ लोगों द्वारा किए गए रहस्योद्घाटनों से लगातार यह आरोप उठ रहे थे कि सावरकर के बारे में डॉ. अम्बेडकर का ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन रु लालड्डष्ण आडवाणी फमुंबई में जिम्मेदार पदों पर बैठे अनेक लोगों को इस हत्या की साजिश की पूर्व जानकारी थी, परन्तु वे पुलिस को बताने में असफल रहे। इन आरोपों के पीछे के सत्य को जानने के उद्देश्य से सरकार ने न्यायमूर्ति के.एल. कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग गठित किया। इस आयोग की खोजों की रिपोर्ट को मेरे दोस्त ने मुझे भेजा। अब मेरे पास आयोग की वृहत और तीक्ष्ण रिपोर्ट थी और मुझे अपनी खोज से न्यायमूर्ति कपूर के निष्कर्षों की प्रमाणिकता सिह् करनी थी। निस्संदेह मैं अभी भी अपनी पुस्तक लिख सकता था। लेकिन मुझे इसमें संदेह था कि कपूर आयोग की रिपोर्ट की सहायता के बगैर ‘दि मैन हू किल्ड गांधीजी एक मजबूत बन पाती या इतनी चिरकालिक।
 
पुस्तक पहली बार तब सामने आई जब देश ‘आपातकाल’ के शिकंजे में था, और पुस्तकों पर सेंसरशिप अत्यन्त निदर्यतापूर्वक लागू थी। इससे मुझ पर यह कर्तव्य आ गया कि जिन कुछ चीजों को मैंने छोड़ दिया था, जैसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा श्री एल0बी0 भोपतकर को दिया गया गुप्त आश्वासन कि उनके मुवक्किल श्री वी0डी0सावरकर को संदिग्ध्ा हत्यारों में कमजोर आध्ाारों पर फंसाया गया। तब फिर अन्य महत्वपूर्ण जानकारी जैसेकि एक मजिस्ट™ेट द्वारा एक गवाही को ‘तोड़मरोड़कर’ प्रस्तुत करना, जिसकी डयूटी सिर्फ यह रिकार्ड करना थी जो उसे कहा गया है, भी बाद के वर्षों में सामने आई।
 
इन तथ्यों और अन्य अंशों को उनके सही स्थान पर रखने के बाद मैं महसूस करता हूं कि अब नई पुस्तक महात्मा गाँधीजी की हत्या की साजिश का एक सम्पूर्ण लेखा-जोखा है। जो भी इस प्रस्तावना को पढ़ेगा तो इसकी प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सकेगा कि समूचे राष्ट™ को यह जानना कितना महत्वपूर्ण है कि डा0 अम्बेडकर ने सावरकर के वकील भोपतकर को क्या कहा। इस संदर्भ में मैं पुस्तक के इस संस्करण के सम्बह् अंशों को उह्ृत कर रहा हूंः पुलिस सावरकर को फांसने को क्यों इतनी चिंतित थी? क्या मात्र इसलिए कि गांधीजी को मारने से पहले वह नाथूराम गोडसे को गिर∂तार करने का काम नहीं कर पाए थे, इसके चलते अपनी असफलता छुपाने के लिए वह यह बहाना बना रहे थे कि इसके पीछे एक बड़े नेता का हाथ है जो संयोग से उस समय की सरकार की नजरों में खटकता था? या स्वयं वह सरकार या इसमें के कुछ शक्तिशाली समूह, पुलिस एजेंसी का उपयोग कर एक विरोध्ाी राजनीतिक संगठन को नष्ट करना चाहती थी या कम से कम एक प्रखर और निर्भीक विपक्षी हस्ती को नष्ट करना चाहती थी? या फिर से यह सब भारत, ध्ाार्मिकता, वंश, भाषायी या क्षेत्रीयता के विरुह् एक अजीब किस्म के फोबिया का प्रकटीकरण था जो समाज के कुछ वर्गों के विष हेतु सावरकर को एक स्वाभाविक निशाना बनाता था?
 
यह चाहें जो हो, सावरकर स्वयं इसके प्रति सतर्क थे, इतने सावध्ाान भी कि सरकारी तंत्र उन्हें नाथूराम के सहयोगी के रूप में अदालत ले जाएगा कि जब गाँधीजीकी हत्या के पांच दिन बाद एक पुलिस दल उनके घर में प्रविष्ट हुआ तो वह उससे मिलने सामने आए और पूछाः-तो आप गांधीजी हत्या के लिए मुझे गिरतार करने आ गए?’’ सावरकर को गाँधी हत्या केस में एक आरोपी बनाया जाना भले ही राजनीतिक प्रतिशोध का पुस्तक पहली बार तब सामने आई जब देश ‘आपातकाल’ के शिकंजे में था, और पुस्तकों पर सेंसरशिप अत्यन्त निदर्यतापूर्वक लागू थी। इससे मुझ पर यह कर्तव्य आ गया कि जिन कुछ चीजों को मैंने छोड़ दिया था, जैसे डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा श्री एल. बी. भोपतकर को दिया गया गुप्त आश्वासन कि उनके मुवक्किल श्री वी. डी. सावरकर को संदिग्ध हत्यारों में कमजोर आधारों पर फंसाया गया। पुलिस सावरकर को फांसने को क्यों इतनी चिंतित थी? क्या मात्र इसलिए कि गाँधीजी को मारने से पहले वह नाथूराम गोडसे को गिर∂तार करने का काम नहीं कर पाए थे, इसके चलते अपनी असफलता छुपाने के लिए वह यह बहाना बना रहे थे कि इसके पीछे एक बड़े नेता का हाथ है जो संयोग से उस समय की सरकार की नजरों में खटकता था? या स्वयं वह सरकार या इसमें के कुछ श७िशाली समूह, पुलिस एजेंसी का उपयोग कर एक विरोध राजनीतिक संगठन को नष्ट करना चाहती थी या कम से कम एक प्रखर और निर्भीक विपक्षी हस्ती को नष्ट करना चाहती थी?
 
हालांकि बडगे का रिकार्ड भी अस्थिर चरित्र वाला और भरोसे करने लायक नहीं था लेकिन वह मुझसे लगातार यह कह रहा था कि उस पर दबाव डालकर झूठ बुलवाया गया और बम्बई के पुलिस विभाग द्वारा उसको माफी तथा भविष्य का खर्चा इस पर निर्भर था कि वह केस में सरकारी दावे का समर्थन करे और विशेषरूप से उसने सावरकर को कभी आपटे से बात करते नहीं देखा, और न ही कभी उन्हें यह कहते सुनाः ‘यशस्वी हा≈न या।’ केस के सिलसिले में जब भोपतकर दिल्ली में थे तो उन्हें हिन्दू महासभा कार्यालय में ठहराया गया। भोपतकर को यह बात दुविध्ाा में डाल रही थी कि जबकि सभी अन्य आरोपियों के विरुह् विशेष आरोप लगाए गए थे परन्तु उनके मुवक्किल के खिलाफ कोई निश्चित आरोप नहीं थे। वह अपने बचाव पक्ष की तैयारी कर रहे थे कि एक सुबह उन्हें बताया गया कि उनके लिए टेलीफोन आया है, अतः वह सुनने के लिए उस कक्ष में गए जहां टेलीफोन रखा था, उन्होंने रिसीवर उठाया और अपना परिचय दिया।
 
उन्हें फोन करने वाले थे डा. भीमराव अम्बेडकर जिन्होंने सिर्फ इतना कहाः flकृपया आज शाम को मुझे मथुरा रोड पर छठे मील पर मिलो,’’ लेकिन भोपतकर कुछ और कहते कि उध्ार से रिसीवर रख दिया गया। उस शाम को जब भोपतकर स्वयं कार चलाकर निर्धारित स्थान पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि अम्बेडकर पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने भोपतकर को अपनी कार में बैठने को कहा जिसे वह स्वयं चला रहे थे। कुछ मिनटों के बाद, उन्होंने कार को रोका और भोपतकर को बतायाः तुम्हारे मुवक्किल के विरूह् कोई असली आरोप नहीं हैं, बेकार के सबूत बनाये गये हैं। केबिनेट के अनेक सदस्य इसके विरूह् थे लेकिन कोई फायदा नहीं। यहां तक कि सरदार पटेल भी इन आदेशों के विरुह् नहीं जा सके। परन्तु मैं तुम्हें बता रहा हूं कि कोई केस नहीं है। तुम जीतोगे। कौन जवाहरलाल नेहरू? लेकिन क्यों?
 
मुझे खुशी है कि कांग्रेस पार्टी के फैसले के बावजूद लोकसभा की अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार अपने कार्यकाल के दौरान इस महान क्रांतिकारी को श्रध्दांजलि देने कई बार आईं। पहले के अपने एक ब्लॉग में मैंने कांग्रेस संसदीय दल से इस निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है। आजकल श्री शिंदे न केवल गृहमंत्री हैं अपितु लोकसभा में सत्ता पक्ष के नेता भी हैं। मैं चाहता हूं कि सम्माननीय लोकसभाध्यक्ष और श्री शिंदे एक साफ परन्तु गंभीर भूल पर नई पहल करें।
 

यह पुस्तक पढ़ने से पूर्व मुझे मालूम नहीं था कि कब सावरकर को पुलिस ने 30 जनवरी, 1948 को गाँधीजी की हत्या के एकदम बाद बंदी निरोधक कानून के तहत बंदी बनाया था जो flकानून का एक सर्वाधिक विद्वेषपूर्ण अंग है जिसके सहारे ब्रिटिशों ने भारत पर शासन किया।’’ बम्बई पुलिस ने शिवाजी पार्क के समीप सावरकर के घर पर छापा मारकर 143 फाइलों और कम से कम 10,000 पत्रों सहित उनके सारे निजी पत्रों को अपने कब्जे में ले लिया। मालगांवकर लिखते है- कहीं भी कोई सबूत नहीं था। जो पता लगा ;इन कागजों सेद्ध वह था षडयंत्रकारियों का हिन्दू महासभा से सम्बन्ध और सावरकर के प्रति उनकी निजी श्रह्ा। लेखक निष्कर्ष रूप में लिखते हैं वह चैंसठ वर्ष के थे और एक वर्ष या उससे ज्यादा समय से बीमार थे। उन्हें 6 फरवरी, 1948 को गिर∂तार किया गया और पूरे वर्ष जेल में रहे जिसमें जांच और मुकदमा जारी रहे। 10 फरवरी, 1949 को उन्हें ‘दोषी नहीं’ ठहराया गया। जो व्यक्ति भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में ब्रिटिश राज में 26 वर्ष जेलों में रहा वह फिर से एक वर्ष के लिए जेल में था वह भी स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद।’’ „
 
साभार- भाजपा के मुखपत्र कमल संदेश से 

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