Friday, January 17, 2025
spot_img
Home Blog Page 1823

आज़ादी के 66 साल बाद भी नाव में बैठकर वोट डालने जाएंगे…

मध्य प्रदेश के  ग्वालियर भितरवार (गिर्द) विधानसभा क्षेत्र में चार गांव के लोग नावों में बैठकर वोट डालने जाएंगे। आजादी को ६६ साल बीतने के बाद भी इन गांवों में न तो सड़क पहुंच सकी है, न ही बिजली की रोशनी। लेकिन हर ५ साल बाद चाहे कांग्रेस हो या भाजपा सभी पार्टिंयों के नेता वोट मांगने जरूर पहुंच जाते हैं। घाटीगांव ब्लॉक में आने वाले बसई,समेड़ी, खतैरा, पैयखौं गांव में पगारा डेम की डूब प्रभावित क्षेत्र में बसे हुए हैं। गुर्जर, जाटव और आदिवासी बाहुल इन गांवों की कुल आबादी लगभग २००० है। जबकि कुल मतदाताओं की संख्या १४०० है।

आसन नदी के दूसरी ओर बसे इन गांवों में आवागमन मुरैना के जौरा क्षेत्रों से होता है। लेकिन ग्वालियर जिले के यह गांव घाटीगांव ब्लॉक का हिस्सा होने के कारण भितरवार विधानसभा क्षेत्र में आते हैं। इनके अलावा भी मुरैना जिले की दक्षिण-पूर्वी सीमा से पर बसे मिर्चा, सौंसा, राई समेत एक दर्जन से अधिक गांव हैं, जहां न तो पक्की सड़क है, न ही बिजली की लाइन अब तक पहुंच पाई है।

इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने में असफलता को छिपाने के लिए शासन और प्रशासन के पास एक आसान बहाना सोनचिरैया अभयारण्य का होना है, जब भी इन गांवों के लोग अपनी जरूरतों के लिए प्रशासन से मांग करते हैं, तब कहा जाता है कि इन गांवों का रास्ता सोन चिरैया अभयारय के बीच से जाता है, इसलिए यहां नवीन निर्माण नहीं किए जा सकते। लेकिन इन इलाकों में अवैध रूप से पत्थर की खुदाई के लिए पहाड़ों की खुदाई बदस्तूर जारी है। लेकिन इस ओर न सरकार का ध्यान है न ही प्रशासन का।

साभार -दैनिक नईदुनिया  से

.

मोहर्रम में रक्तदान शिविर लगाकर करें सद्भावना का प्रदर्शन

0

विश्व के कई मुस्लिम बाहुल्य देश इस समय हिंसाग्रस्त हैं। कहीं सत्ता संघर्ष के चलते आए दिन बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं तो कहीं विद्रोहियों व स्थानीय सेना के बीच खंूरेज़ी का खेल चल रहा है। कोई देश जातिवादी हिंसा की चपेट में है तो कहीं आतंकवादी व कट्टरपंथी लोग वैचारिक मतभेद रखने वाले अपने विरोधियों की जान के दुश्मन बने बैठे हैं। कहीं पश्चिम विरोध के नाम पर खून बहाया जा रहा है तो कहीं इस्लामी जेहाद के नाम का सहारा लेकर बेकुसूर इंसानों को मौत के घाट उतारा जा रहा है।

कुल मिलाकर इस्लाम धर्म इस समय पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। हालंाकि लगभग प्रत्येक हिंसा प्रभावित मुस्लिम देश में हत्याओं व हिंसा के अलग-अलग कारण ज़रूर हैं परंतु इन कारणों की परिणिती एक-दूसरे का खून बहाने के रूप में ही होती देखी जा रही है। यही वजह है कि पूरी दुनिया खंूरेज़ी के इस घिनौने व अमानवीय खेल को इस्लाम धर्म की शिक्षाओं से जोड़कर देखने लगी है। ऐसे में इस्लामी जगत के जि़ मेदार लोगों खासतौर पर उदारवादी धर्मगुरुओं की यह जि़ मेदारी है कि वे इस्लाम पर लगने वाले इस प्रकार के आरोपों का केवल माकूल जवाब ही न दें बल्कि अपनी रचनात्मक कारगुज़ारियों से भी यह साबित करने की कोशिश करें कि इस्लाम धर्म किसी इंसान की जान लेना नहीं बल्कि इंसान की जान बचाने की शिक्षा देता है। इस्लाम किसी की हत्या करना नहीं बल्कि खुद अपनी जान को जोखिम में डालकर दूसरे इंसान की जान बचाने की तालीम देता है।         

यह प्रमाणित करने का सबसे उचित अवसर निश्चित रूप से मोहर्रम का वह महीना है जिस दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग करबला की घटना को याद कर हज़रत मोह मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन का सोग मनाते हैं। वैसे तो हज़रत इमाम हुसैन व उनके 72 साथियों की करबला में हुई कुर्बानी को सभी धर्मों व समुदायों के लोग किसी न किसी रूप में कमोबेश पूरे विश्व में मनाते हैं। पंरतु मुसलमानों में शिया समाज के लोग इस अवसर पर अनेक िकस्म के आयोजन करते हैं। इनमें मजलिस व नौहा  वानी(जि़क्र-ए-हुसैन)से लेकर तलवार,ज़ंजीर व आग के अंगारों पर चलने वाले मातम तक शामिल हैं।

कहना ग़लत नहीं होगा कि केवल दसवीं मोहर्रम को एक ही दिन में पूरे विश्व में हज़रत इमाम हुसैन के चाहने वाले उनकी याद में सैकड़ों टन खून की नदियां सड़कों पर स्वेच्छा से बहा देते हैं। भारतवर्ष में भी शिया आबादी वाले कई स्थानों पर यह शोकपूर्ण नज़ारा देखा जा सकता है। हज़रत इमाम हुसैन के अनुयायी हज़रत हुसैन की याद में धारदार ज़ंजीरों व तलवारों के मातम के द्वारा अपना खून बहाकर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि यदि वे करबला के मैदान में होते तो वे भी हज़रत इमाम हुसैन के साथ खड़े होकर क्रूर यज़ीद  व उसकी सेना से लड़ते हुए अपनी जानें न्यौछावर कर देते।

परंतु एक ओर जहां मुस्लिम समुदाय विशेषकर शिया समाज द्वारा गत् 1400 वर्षों से भी अधिक समय से अपना रक्त बहाकर हज़रत हुसैन के वास्तविक इस्लाम को जि़ंदा रखने की कोशिश की जा रही है वहीं दूसरी ओर यज़ीदी विचारधारा का अनुसरण करने वाला एक हिंसक वर्ग बेगुनाह लोगों की जानें लेने पर आमादा है। यह तथाकथित इस्लाम विरोधी वर्ग सड़कों, भीड़ भरे बाज़ारों के अलावा विभिन्न धर्मस्थलों यहां तक कि शव यात्रा में शामिल भीड़ और नमाज़-ए-जनाज़ा में शिरकत करने वाले नमाजि़यों और अस्पताल में किसी घायल व्यक्ति की तीमारदारी के लिए पहुंची भीड़ के मध्य आत्मघाती धमाके कर बेगुनाहों की हत्याएं करने से बाज़ नहीं आ रहा है।

 इन्हीं ज़ालिम तथाकथित मुसलमानों की यही हिंसक गतिविधियां इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को संदिग्ध कर रही हैं। इस्लाम धर्म के विरुद्ध अपना पूर्वाग्रह रखने वाले लोग इन हिंसक गतिविधियों को सीधे तौर पर इस्लामी शिक्षाओं यहां तक कि कुरान शरीफ की तालीम से जोड़कर देखने लगते हैं। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी है कि दुनिया को खासतौर पर इस्लाम की आलोचना करने वाले पूर्वाग्रही लोगों को अपनी कारगुज़ारियों के द्वारा यह बताया जाए कि इस्लाम वास्तव में त्याग, कुर्बानी,मानवता तथा दूसरे की जान बचाने की शिक्षा देने वाला धर्म है।       

रक्तदान निश्चित रूप से एक ऐसा महादान है जिससे केवल किसी एक व्यक्ति की जान ही नहीं बचती बल्कि रक्तदान प्राकृतिक रूप से मानवीय सौहाद्र्र की भी एक बेजोड़ मिसाल पेश करता है।

 

कुदरत का भी क्या अजीब करिश्मा है कि उसने मनुष्य के रक्त में कोई भी अलग पहचान नहीं बनाई जिससे यह साबित हो सके कि यह खून किसी पश्चिमी स यता से संबंधित व्यक्ति का है या किसी पूर्वी देश के व्यक्ति का। कोई पैमाना ऐसा नहीं है जो यह निर्धारित कर सके कि यह खून किसी हिंदू का है अथवा मुस्लिम का, सिख का या ईसाई का। दलित का या ब्राह्मण का, किसी स्वर्ण जाति के व्यक्ति का अथवा कथित निम्र जाति के किसी श स का, किसी स्वामी का अथवा किसी नौकर का। गोया ईश्वर ने मानव को मात्र प्राणी के रूप में ही इस धरती पर पैदा किया।

 

परंतु दुर्भाग्यवश कहें या सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समय के आगे बढऩे के साथ-साथ मानव के विभाजन की रेखाओं की सं या भी बढ़ती ही गई। परिणामस्वरूप मानव समाज विभिन्न प्रकार की श्रेणियों,वर्गों तथा रेखाओं में विभाजित होकर रह गया। नि:संदेह रक्तदान एक ऐसा दान है जो बिना किसी धर्म-जाति अथवा संकीर्ण सीमाओं के एक-दूसरे के मध्य सद्भाव पैदा करता है। दो दशक पूर्व अमिताभ बच्चन अपनी एक िफल्म की शूटिंग के दौरान बुरी तरह घायल हो गए थे। उस समय उन्हें अमजद खान ने अपना खून दान किया था। आज अमजद खान हमारे मध्य नहीं हैं। परंतु उनका रक्त अमिताभ बच्चन के शरीर में प्रवाहित हो रहा है।

 

हिंदू-मुस्लिम एकता व घनिष्ठता  का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। लिहाज़ा आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में और केवल शिया समुदाय को ही नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम जगत को और कितना अच्छा हो यदि गैर मुस्लिम समुदाय के लोग भी मोहर्रम के महीने में जगह-जगह मिलजुल कर रक्तदान शिविर लगाकर पूरी दुनिया को यह संदेश दें कि वास्तविक इस्लाम अपना रक्त देकर दूसरे की जान बचाना है।

 

इस्लाम के नाम पर दूसरों की जान लेने जैसा कार्य वास्तविक इस्लाम नहीं बल्कि यज़ीदियत की पैरवी करने वाले तथा यज़ीदियत की शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले तथाकथित मुसलमानों के बुरे कारनामे मात्र हैं। और हकीकत भी यही है कि करबला के मैदान में सत्ता पर बैठे सीरिया के तत्कालीन बादशाह यज़ीद ने अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए पैगंबर-ए-रसूल हज़रत मोह मद के परिवार के सदस्यों के साथ जो ज़ुल्म किया उन्हें तीन दिनों तक भूखा-प्यासा रखकर कत्ल करने व कत्ल करने के बाद शहीदों की लाशों पर घोड़े दौड़ाने और लाशों से शहीदों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर बुलंद कर जुलूस में शामिल करने जैसा क्रूरतापूर्ण कार्य इस्लामी इतिहास की सबसे पहली व सबसे बड़ी आतंकवादी घटना थी। आज दुनिया में जहां-जहां आतंकवाद इस्लाम के नाम पर फैलाया जा रहा है वह नि:संदेह यज़ीदी शिक्षाओं से ही प्रेरित है पैगंबर हज़रत मोह मद अथवा कुरानी शिक्षाओं से नहीं।

               

 

इस्लाम का अपहरण करने की कोशिश करने वाले इन क्रूर,अत्याचारी तथा बेगुनाह इंसानों पर ज़ुल्म ढाने वाले लोगों को इसका माकूल जवाब दिए जाने की ज़रूरत है। और हज़रत इमाम हुसैन की याद में तथा करबला के शहीदों के नाम पर लगने वाले रक्तदान शिविर इस दिशा में एक बड़े और रचनात्मक कदम साबित हो सकते हैं।

 

इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे रक्तदान शिविर इस्लाम,मुसलमान तथा इस्लामी शिक्षाओं की धूमिल होती जा रही छवि को साफ करने में महत्वपूर्ण कदम साबित होंगे। पूरे देश व दुनिया के उदारवादी मुस्लिम धर्मगरुओं को इस मुहिम में आगे आना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि हज़रत इमाम हुसैन व करबला के शहीदों के नाम पर स्वेच्छा से बहाया जाने वाला श्रद्धालुओं का खून धरती पर व्यर्थ न बहने पाए।

 

यदि हज़रत इमाम हुसैन के किसी अनुयायी के रक्तदान के परिणामस्वरूप किसी दूसरे इंसान की जान बचती हो तो करबला के शहीदों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि आिखर और क्या हो सकती है? इस विषय पर हज़रत इमाम हुसैन की याद में अपना खून बहाने वाले युवाओं से लेकर इन्हें प्रोत्साहित करने वाले धर्मगुरुओं तक सभी को चिंतन-मंथन करना बहुत ज़रूरी है। हज़रत हुसैन के परस्तारों को यह बात बखूबी अपने ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस प्रकार 1400 वर्ष पूर्व हज़रत इमाम हुसैन ने अपना व अपने पूरे परिवार का रक्त देकर इस्लाम धर्म की छवि को दागदार होने से बचाया था वैसी ही जि़ मेदारी आज हज़रत इमाम हुसैन के अनुयायी समुदाय पर भी आ पड़ी है। लिहाज़ा इस जि़ मेदारी को भी कुर्बानी के उसी जज़्बे के साथ निपटने की ज़रूरत है।    

.

बसंत कुमार तिवारीः स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला

छत्तीसगढ़ के जाने-माने पत्रकार और ‘देशबंधु’ के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी का न होना जो शून्य रच है उसे लंबे समय तक भरना कठिन है। वे एक ऐसे साधक पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने निरंतर चलते हुए, लिखते हुए, धैर्य न खोते हुए,परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकते हुए न सिर्फ विपुल लेखन किया ,वरन एक स्वाभिमानी जीवन भी जिया । उनके जीवन में भी एक नैतिक अनुशासन दिखता रहा है। छत्तीसगढ़ की मूल्य आधारित पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बसंत कुमार तिवारी राज्य के एक ऐसे विचारक, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी पूरी जिंदगी कलम की साधना में गुजारी।

आकर्षक व्यक्तित्व के धनीः

  बसंत जी जब रिटायर हो चुके थे तो हमारे जैसे युवा पत्रकारिता में स्थापित होने के हाथ-पांव मार रहे थे। हमने उन्हें हमेशा एक हीरो की तरह देखा। आकर्षक व्यक्तित्व, कार ड्राइव करते हुए जब वे मुझसे मिलने ‘हरिभूमि’ के धमतरी रोड स्थित दफ्तर आते मैं उनसे कहता ” सर मैं अवंति विहार से आते समय आपसे मिलता आता, आपका घर मेरे रास्ते में है। अपना लेख लेकर आप खुद न आया करें।“ वे कहते “अरे भाई अभी से घर न बिठाओ।“ मुझे अजीब सा लगता पर उनकी सक्रियता प्रेरणा भी देती। खास बात यह कि खुद को लेकर, अपने व्यवसाय को लेकर उनमें कहीं कोई कटुता नहीं। कोई शिकायत नहीं। चिड़चिड़ाहट नहीं। वे अकेले ऐसे थे जिन्होंने हमेशा पत्रकारिता के जोखिमों, सावधानियों को लेकर तो हमें सावधान किया पर कभी भी निराश करने वाली बातें नहीं की। उनका घर मेरा-अपना घर था।

हम जब चाहे चले जाते और वे अपनी स्वाभाविक मुस्कान से हमारा स्वागत करते। हमने उन्हें कभी संपादक के रूप में नहीं देखा पर सुना कि वे काफी कड़क संपादक थे। हमें कभी ऐसा कभी लगा नहीं। एक बात उनमें खास थी कि उनमें नकलीपन नहीं था। अपने रूचियों, रिश्तों को कभी उन्होंने छिपाया नहीं। वे जैसे थे, वैसे ही लेखन में और मुंह पर भी वैसे। ‘मीडिया विमर्श ‘ पत्रिका का प्रकाशन रायपुर से प्रारंभ हुआ तो उन्होंने पहले अंक में ही ‘मेरा समय’ स्तंभ की शुरूआत की, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार अपने अनुभव लिखते थे। बाद में यह स्तंभ लोकप्रिय काफी लोकप्रिय हुआ जिसमें स्व. स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, मनहर चौहान, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर जैसे अनेक पत्रकारों ने इसमें अपनी पत्रकारीय यात्रा लिखी। ‘मीडिया विमर्श’ के वे एक प्रमुख लेखक थे। उसके हर आयोजन में वे अपनी उपस्थिति देते थे। मेरी पत्नी भूमिका को भी उनका बहुत स्नेह मिला। वे जब भी मिलते हम दोनों से बातें करते और परिवार के अभिभावक की तरह चिंता करते। रायपुर में गुजारे बहुत खूबसूरत सालों में वे सही मायने में हमारे अभिभावक ही थे, पिता सरीखे भी और मार्गदर्शक भी। उन्हें देखना, सुनना और साथ बैठना तीनों सुख देता था। अभी हाल में ही पत्रकार और पूर्व मंत्री बी.आर.यादव पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘कर्मपथ’ में भी उन्होंने बीमारी के बावजूद अपना लेख लिखा। किताब छपी तो उन्हें देने घर पर गया। बहुत खुश हुए बोले कि “तुमने इस तरह का डाक्युमेंटन करने का जो काम शुरू किया है वह बहुत महत्व का है।”

सांसें थमने तक चलती रही कलमः

   छत्तीसगढ़ के प्रथम दैनिक 'महाकौशल' से प्रारंभ हुई उनकी पत्रकारिता की यात्रा 81 साल की आयु में उनकी सांसें थमने तक अबाध रूप से जारी रही। सक्रिय पत्रकारिता से मुक्त होने के बाद भी उनके लेखन में निरंतरता बनी रही और ताजापन भी। सही अर्थों में वे हिंदी और दैनिक पत्रकारिता के लिए छत्तीसगढ़ में बुनियादी काम करने वाले लोगों में एक रहे। उनका पूरा जीवन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को समर्पित रहा । प्रांतीय, राष्ट्रीय और विकासपरक विषयों पर निरंतर उनकी लेखनी ने कई ज्वलंत प्रश्न उठाए हैं। राष्ट्रीय स्तर के कई समाचार पत्रों में उन्होंने निरंतर लेखन और रिपोर्टिंग की करते हुए एक खास पहचान बनाई थी।अपने पत्रकारिता जीवन के लेखन पर आधारित प्रदर्शनी के साथ-साथ पत्रकारिता के इतिहास से जुड़ी 'समाचारों का सफर' नामक प्रदर्शनी उन्होंने लगाई। इसका रायपुर,भोपाल, भिलाई और इंदौर में प्रदर्शन किया गया। उनके पूरे लेखन में डाक्युमेंट्रेशन और विश्वसनीयता पर जोर रहा है, लेकिन इन अर्थों में वे बेहद प्रमाणिक और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता में भरोसा रखते थे। संपादकीय पृष्ठ पर छपने वाली सामग्री को आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।बसंत कुमार तिवारी के पूरे लेखन का अस्सी प्रतिशत संपादकीय पृष्ठों पर ही छपा है। बोलचाल की भाषा में रिपोर्टिंग, फीचर लेखन और कई पुस्तकों के प्रकाशन के माध्यम से श्री तिवारी ने अपनी पत्रकारिता को विविध आयाम दिए हैं।

   मध्यप्रदेश की राजनीति पर उनकी तीन पुस्तकों में एक प्रामाणिक इतिहास दिखता है। प्रादेशिक राजनीति पर लिखी गई ये पुस्तकें हमारे समय का बयान भी हैं जिसका पुर्नपाठ सुख भी देता है और तमाम स्मृतियों से जोड़ता भी है। वे मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी की १२५ वीं जयंती समिति के द्वारा भी सम्मानित किए गए और छत्तीसगढ़ में उन्हें 'वसुंधरा सम्मान' भी मिला। राजनीति, समाज, पत्रकारिता, संस्कृति और अनेक विषयों पर उनका लेखन एक नई रोशनी देता है। उनकी रचनाएं पढ़ते हुए समय के तमाम रूप देखने को मिलते रहे हैं।

असहमति का साहसः

   अपने लेखन की भांति अपने जीवन में भी वे बहुत साफगो और स्पष्टवादी थे। अपनी असहमति को बेझिझक प्रगट करना और परिणाम की परवाह न करना बसंत कुमार तिवारी को बहुत सुहाता था। वे किसी को खुश करने के लिए लिखना और बोलना नहीं जानते थे। इस तरह अपने निजी जीवन में अनेक संघर्षों से घिरे रहकर भी उन्होंने सुविधाओं के लिए कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया। पं. श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं से बेहद पारिवारिक और व्यक्तिगत रिश्तों के बावजूद वे इन रिश्तों को कभी भी भुनाते हुए नजर नहीं देखे गए। मौलिकता और चिंतनशीलता उनके लेखन की ऐसी विशेषता है जो उनकी सैद्धांतिकता के साथ समरस हो गई थी। उन्हें न तो गरिमा गान आता था, न ही वे किसी की प्रशस्ति में लोटपोट हो सकते थे। इसके साथ ही वे लेखन में द्वेष और आक्रोश से भी बचते रहे हैं। नैतिकता, शुद्ध आचरण और प्रामाणिकता इन तीन कसौटियों पर उनका लेखन खरा उतरता है। उनके पास बेमिसाल शब्द संपदा है। मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ की छ: दशकों की पत्रकारिता का इतिहास उनके बिना पूरा नहीं होगा। वे इस दौर के नायकों में एक हैं।  

   पत्रकारिता में आने के बाद और बड़ी जिम्मेदारियां आने के बाद पत्रकारों का लेखन और अध्ययन प्राय: कम या सीमित हो जाता है किंतु श्री तिवारी हमेशा दुनिया-जहान की जानकारियों से लैस दिखते हैं। 80 वर्ष की आयु में भी उनकी कर्मठता देखते ही बनती थी। राज्य में नियमित लिखने वाले कुछ पत्रकारों में वे भी शामिल थे। उनका निरंतर लिखना और निरंतर छपना बहुत सुख देता था। वे स्वयं कहते थे-'मुझे लिखना अच्छा लगता है, न लिखूं तो शायद बीमार पड़ जाऊं।'  उनके बारे में डा. हरिशंकर शुक्ल का कहना है कि “वे प्रथमत: और अंतत: पूर्ण पत्रकार ही हैं।“ यह एक ऐसी सच्चाई है, जो उनके खरेपन का बयान है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उम्र का असर उन पर दिखता नहीं था। वे हर आयु, वर्ग के व्यक्ति से न सिर्फ संवाद कर सकते हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व से सामने वाला बहुत कुछ सीखने का प्रयास भी करता है। उनमें विश्लेषण की परिपक्वता और भाषा की सहजता का संयोग साफ दिखता है। वे बहुत दुर्लभ हो जा रही पत्रकारिता के ऐसे उदाहरण थे, जो छत्तीसगढ़ के लिए गौरव का विषय है। उनका धैर्य, परिस्थितियों से जूङाने की उनकी क्षमता वास्तव में उन्हें विशिष्ट बनाती है। अब जबकि वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाली पीढ़ी के लिए बसंत जी एक ऐसे नायक की तरह याद किए जाएंगें जो हम सबकी प्रेरणा और संबल दोनों है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

.

अम्बाला छावनी का २२ वां वार्षिकोत्सव

२४ से २७ अक्टूबर तक आर्यसमाज रामनगर अम्बाला छावनी का २२ वां वार्षिकोत्सव सामवेद पारायण यज्ञ (आंशिक) के माध्यम से मनाया गया | यज्ञ के ब्रह्मा होशंगाबाद मध्य प्रदेश के आचार्य आनंद पुरुषार्थी जी थे जिन्होंने प्रतिदिन मन्त्रों की मार्मिक व्याख्या के माध्यम से वैदिक सिद्धांतों को स्पष्ट किया | वेदपाठी के रूप में सुयोग्य डॉ नरेश बत्रा जी (प्रधान आर्यसमाज )एवं सुश्री प्रियंका आर्या जी थे | जो दोनों ही गुरुकुलों के स्नातक व सनातन धर्म डिग्री कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक है |आप दोनों ही ने उच्चारण की शुद्धता का तो ध्यान रखा ही और जनता जनार्दन को आपके उपदेशामृत के पान करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ |

भजनोदेशक श्री संदीप वैदिक मुजफ्फरनगर ने सारगर्भित व्याख्या व मधुर भजनों से सभी का मन मोह लिया | प्रातः ६:३० से ९;३० व सायंकाल ४ से ७ तक यज्ञ भजन प्रवचन होते थे | पुरुषार्थी जी के आग्रह पर  बाहर की संस्थाओ में प्रोग्राम सनातन धर्म इंटर कालेज एवं सेंट्रल जेल में उपदेश रखे गए |जिनका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला |लगभग २५ आर्यसमाजी साथ गए थे | इस जेल में १३०० कैदी है जिनमे ७० महिलाएं भी है |एक महिला ऐसी भी है जिनकी दया याचिका राष्ट्रपतिजी ने ख़ारिज कर दी है | उसने पति के साथ मिलकर अपने  विधायक पिता ,सगे भाई भाभी सहित ९ व्यक्तियों का कत्लेआम किया है | पुरुषार्थी जी ने कैदियों के प्रश्नों के उत्तर भी दिए |आर्यों को कैदियों की बैरक भोजनालय पुस्तकालय आदि देखने का अवसर प्राप्त हुआ |सत्यार्थ प्रकाश भेंट की गई |आचार्य जी ने कैदियों से अपने बेटे बेटियों को गुरुकुलों में देने पर उनकी निशुल्क व्यवस्था का आश्वासन दिया |

 अंतिम दिन पूर्णाहुति पर स्थानीय आर्यसमाजों से भी आर्य परिवार आये थे | स्कूल के बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गए थे | आर्य स्त्री समाज का योगदान न होता तो यह कार्यक्रम सफल होना कठिन था |मंत्री ने आर्यसमाज में एक कमरा बनाने हेतु ४० सीमेंट की बोरियों का आवाहन किया श्रद्धालुओं ने तुरंत  घोषणा करके उसकी पूर्ति कर दी | ऋषि लंगर में सभी ने प्रेम से भोजन किया |

संपर्क
कृष्ण कुमार
मंत्री आर्यसमाज
२९  रामनगर
अम्बाला छावनी हरयाणा 

.

कृष थ्री [हिंदी विज्ञान कथा]

दो टूक : कहते हैं बुराई चाहे जितनी ताकतवर हो उसका अंतिम संस्कार अच्छाई ही करती है . बस इतनी से बात कहती है.

निर्देशक राकेश रोशन की ऋतिक रोशन , प्रियंका चोपड़ा , विवेक ओबरॉय , कंगना राणावत , आरिफ जकारिया , शौर्य चौहान , मोहनीश बहल , राजपाल यादव ,रेखा और  नसीरुद्दीन शाह के अभिनय  फ़िल्म वाली कृष थ्री .

कहानी  : फ़िल्म की कहानी वहीँ से शुरू होती हैं जहाँ पहली फ़िल्म की कहानी ख़तम होती है . पिता रोहित [ऋतिक रोशन ] पर होने वाले  डॉक्टर आर्य [नसीर उद्दीनशाह ]  के जुल्म के बाद कृष (रितिक रोशन) अब भारत का सुपरहीरो बन चूका है। अपने पिता और पत्नी प्रिया (प्रियंका चोपड़ा) के साथ वह खुश है। लेकिन कृष की दुनिया तब बदलती है  जब काल [विवेक ओबरॉय ] नाम का एक वैज्ञानिक उसके रास्ते में आ जाता है . दुनिया के दूसरे छोर पर रहें वाला अपंग काल जीनियस है लेकिन उस के इरादे दुनिया में तबाही मचाने के है। इसके लिए पहले  वह खतरनाक बीमारियों के वायरस फैलाता है और फिर उनका एंटीडोट बेचकर पैसा कमाता है। उसके इस काम को अंजाम देने में काया (कंगना रनोट) उसकी मदद करती है जो गिरगट की तरह अपना भेष बदल लेती है। हालात तब मुश्किल होते हैं जब कृष काल का रास्ता रोककर उसे उसके इरादों में नाकाम कर देता है और बदले में काल उसके पिता रोहित और पत्नी प्रिया को अपने कब्जे में लेकर दुनिया को तबाह करने पर उतर आता है . इसके बाद शुरू होती है कृष की  दुनिया , प्रिया और रोहित को बचाने कि जंग की शुरुआत.

गीत संगीत : फ़िल्म में राजेश रोशन का संगीत और समीर के गीत हैं लेकिन फ़िल्म में इस बार ऐसा कोई भी गीत नहीं जो कानों को सुकून दें। हाँ एक गीत है जो मुझे बहुत पसंद आया और वो है दिल तू ही तो बता' जैसे बोलों वाला गीत . उसका फिल्मांकन भी अद्भुत रंगों और लोकेशंस वाला है . जबकि इसके साथ  रघुपति राघव राजा राम  बस सुना जा सकता है .

अभिनय :  ऋतिक रोशन को अगर हम अपने  पिता का हीरो माने तो बुरा नहीं लगाना चाहिए .सुपरहीरो की भूमिका के लिए रितिक रोशन से बेहतरीन विकल्प उनके पास नहीं है . यही नहीं ..इस पात्र के चरित्र को भी ऋतिक सलीके से अभिनीत करते हैं और उसके लिए भावुक भरी डिलीवरी देने के साथ ही एक सुपर एक्शन हीरो को भी वो अद्भुत तरीके से परदे पर उतारते  हैं . रोहित और कृष के की भूमिकाओं का अवयव तत्व , उसकी शारीरिक भाषा और संवादों के उम्र और पात्र के अंतर्मन को भी  . विवेक ओबेरॉय को पहली बार इतनी ग़हरी और गम्भीर खलनायकी करते हुए देखा . सुपर हीरो को सुपर खलनायक की ताकर देना आसान नहीं था पर प्रियंका चोपड़ा के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। उनसे बेहतर रोल कंगना के पास था और उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया। एक विशेष कास्ट्यूम के लिए उन्होंने अपने फिगर पर खासी मेहनत की जो नजर आती है ।काल भूमिका में उन्होंने मेहनत तो की है बात .औरउनके साथ कंगना ने भी .

हालांकि कंगना को कुछ और विस्तार दिया जा सकता था . पर फिर प्रियाका के लिए जगह कम हो जाती है और वैसे भी उनके लिए करने को बहुत कुछ नहीं था जबकि कंगना उनके और खुद के पात्र के लिए भी आधार बनी रही . राजपाल यादव और राखी विजन की  कोई जरुरत नहीं थी . मोहनीश बहाल,रेखा और नसीर बस कुछ दृश्यों कें दिखाई देते है और आरिफ जकारीय को बहुत जल्दी मार दिया  गया . हाँ नाजिए शेख और समीर अली खान जरुर याद रहते हैं.

निर्देशन : फिल्म की कहानी राकेश रोशन ने लिखी है और  पटकथा  हनी ईरानी, रॉबिन भट्ट, आकाश खुराना और इरफान कमल ने लिखी  है। कहानी में कुछ भी नया नहीं है लेकिन एनीमेशन, स्पेशल इफेक्टस , साउंड्स और कैमरे के कमाल को राकेश ने बहुत मेहनत के साथ परदे पर रखा  है . अपने नयाक को भी और खलनायक को भी . उनका सुपरहीरो अपने  बेहद क्रूर और विध्वंसकारी खलनायक को मात देता है तो लोग ताली बजाते हैं लेकिन फ़िल्म में विज्ञान सम्बन्धी शब्दों और भाषा का बेहद गूढ़ इस्तेमाल उसका चार्म कम कर देता है . फ़िल्म में एक्शन , रोमांस और रिश्तों की कहानी को बुना गया है .कोई और फ़िल्म .माने ..जब सुपर मैन , स्पाइडर मैन , टर्मिनेटर जैसी फ़िल्में देख चुके हों तो कृष ३ उतना प्रभाव नहीं छोड़ती ..ये अलग बात है कि फ़िल्म के क्लामीमेक्स में वही सब कुछ है जो किसी उत्रकृष्ठ फिल्मांकन , एक्शन  , संपादन और कैमरावर्क वली फ़िल्म में होता है.

फ़िल्म क्यों देखें : उत्कृष्ठ तकनिकी शैली वाली फ़िल्म हैं .

फ़िल्म क्यों ना देखें : अगर इसकी तुलना पिछली  वाली फ़िल्म से कर रहे हों .

.

मूवी नाउ का दिवाली धमाका ब्लॉक बस्टर फिल्मों के साथ !

हॉलीवुड की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्में दिवाली डे स्पेशल-बूम बूम ब्लास्ट में पूरे दिन दिखाई जाएंगी

मुंबई। दिवाली के दिन, मूवीज नॉऊ 3 नवंबर, 2013 को पूरा दिन एक्शन से भरपूर हॉलीवुड की ब्लॉकबस्टर फिल्मों का शानदार अनुभव मिलेगा। मूवीज नॉऊ ने दिवाली डे स्पेशल-बूम बूम ब्लास्ट में पूरा दिन 11 बजे से ये सुपरहिट फिल्में दिखाने का प्रबंध किया है।

इन फिल्मों में कुंग फू से लेकर भविश्कालीन फिल्में तक शामिल हैं और मूवीज नॉऊ सभी प्रकार के फिल्म दर्शाएगा और बूम बूम ब्लास्ट से हॉलीवुड प्रषंसकों को कभी ना भूलने वाला अनुभव दिलाएगा! इसलिए इस धमाकेदार दिन को मनाने के लिए तैयार रहिए!

 

हम सभी ने जैकी चैन की फुर्ती और तेज मूवमेंट्स को देखा है पर अब हम उन्हें जेडेन स्मिथ को भी वहीं षिक्षा देते हुए देखेंगे, जिस कला के लिए वे जाने जाते हैं। देखिए कैसे जेडेन स्कूल में अपनी खिंचाई करने वालों का कैसे मुकाबला करता है और अपने आप को मजबूत बनाता है। अब देखना होगा कि क्या इस पर लगाया गया दांव सही बैठेगा और वह चीन में सबसे मुश्किल कुंग फू चैम्पियनशिप का खिताब जीत पाएगा? इसलिए कराटे किड ना चूकें जो कि एक मार्शल आर्ट ब्लॉकबस्टर है जिसने पूरी दुनिया में 358 मिलियन डॉलर की कमाई की है।

 

अगर आपको भविष्यकालीन फिल्में भाती हैं तो एक्स-मैन लास्ट स्टैंड और राइज ऑफ द प्लेनेट ऑफ एप्स आपके लिए पूरी तरह से बना हैं। देखिए उन म्यूटेंट्स को सबसे बड़ी लड़ाई में आमने सामने होते है जब मानव उनके लिए एक स्थायी समाधान ढूंढ़ लेता है एक्स-मैन लास्ट स्टैंड में। इस सीजन में ये एकमात्र संघर्ष नहीं है जिसे आप देख पाएंगे। देखिए मानवजाति को वानरजाति से संघर्ष करते हुए! ये आंदोलन एक ऐसी चीज से जन्मा है जिसें मस्तिष्क की मरम्मत अपने आप करने के लिए डिजाइन किया गया था। देखिए राइज अॉफ द प्लेनेट अॉफ द एप्स! जे उसी आविष्कार का परिणाम है। इन दो प्रजातियों के अपने अस्तित्व को बचाने में कौन सफल रहेगा? इन दोनों सुपरहिट ब्लॉकबस्टर्स को देखिए और अपने सवालों के उत्तर पाएं।

हार्ड कोर एक्शन से आगे बढ़ते हुए अन्नोन आपको रोमांचित करने के लिए तैयार है। उस समय आपके साथ क्या होगा जब आप कोमा से जागे और आपको पता चले कि आपकी पहचान ही चोरी कर ली गई है?देखिए लियम नीसन को एक बेहद सनसनीखेज सस्पेंस ड्रामा-अन्नोन में।

 

.

लक्ष्मीजी की आरती

2625906-lakshmi_6

 

 

 

 

 

 

 

 

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसदिन सेवत हर-विष्णु-धाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता ।
सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

तुम पाताल-निरंजनि, सुख-सम्पत्ति-दाता ।
जोकोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि-धन पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता ।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

जिस घर तुम रहती, तहँ सब सद्गुण आता ।
सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान-पान का वैभव सब तुमसे आता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

शुभ-गुण-मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहिं पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

महालक्ष्मीजी की आरती, जो कई नर गाता ।
उर आनन्द समाता, पाप शमन हो जाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
(आरती करके शीतलीकरण हेतु जल छोड़ें एवं स्वयं आरती लें, पूजा में सम्मिलित सभी लोगों को आरती दें फिर हाथ धो लें।).

राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष – आचार्य तुलसी

आचार्य तुलसी जनशताब्दी शुभारंभ ( 5 नवम्बर, 2013) के अवसर पर विशेष

 

भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत की मिट्टी के कण-कण में महापुरुषों के उपदेश की प्रतिध्वनियाँ हैं। चाणक्य, आर्यभट्ट, विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के भारत का इतिहास विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। स्वर्णिम इतिहास की इसी पवित्र श्रृंखला में एक नाम है- अहिंसा के अग्रदूत, मानवता के मसीहा, अणुव्रत अनुशास्ता, आचार्य तुलसी का।

 

आप भारतीय-दर्शन एवं अध्यात्म के प्रतिनिधि संतपुरुश एवं  साकार विश्व चेतना का साकार स्वरूप थे, जिनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर विद्यमान था। उनकी सत् साहित्य सादृश्य जीवनशैली में संजीवनी-सा प्रभाव था। आचार्य तुलसी के मानसिक वैचारिक गुणों के अमृत घट से भारत ही नहीं, अपितु संसार ने भी पाया ही पाया है। उन्होंने देश व दुनियां के दिग्भ्रमित लोगों को नवजीवन, नई सोच, नई दिशा दी। सचमुच तेजस्वी जीवन के धनी गौरवशाली ज्ञान गरिमा के प्रेरक युगपुरुष थे, आचार्य तुलसी। उन्होंने भारत की रग-रग में नैतिक मूल्यों की प्रतिश्ठा की, अहिंसा-षांति व राष्ट्र-चेतना का संचार किया। समाज सुधारक, राष्ट्र चेतना के उन्नायक अध्येता-ज्ञाता-कीर्ति पुरुष आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व व ज्ञान आभा से देश ही नहीं सारा संसार आलोकित हुआ था। आचार्यजी की जन्म “ाताब्दी का शुभारंभ एक बार फिर से आचार्य तुलसी जीवन शैली व उपदेशों को जीवंत करने एवं उनसे प्रेरणा लेने का अवसर हैं।

 

आचार्य तुलसी राष्ट्रसंत थे। देश की महान धरोहर थे। राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द के पक्षधर थे। उनका प्रकाण्ड पांडित्य उन्हें स्वामी विवेकानंद और डॉ. राधाकृष्णन के समान स्तर पर प्रतिष्ठित करता है। उनका स्वयं का परिचय उन्हीं के शब्दों में इस विराटता के साथ मुखर हुआ कि मैं सबसे पहले मनुष्य हूँ फिर जैन हूँ, फिर तेरापंथ का आचार्य हूँ।

आचार्य तुलसी का जन्म बीसवीं शताब्दी में सन् 1914, अक्टूबर 20 को हुआ। मात्र ग्यारह वर्ष की अल्पावस्था में वे तेरापंथ के अष्टम आचार्य कालूगणी के पास दीक्षित हुए, अर्थात जैन मुनि बने। 11 वर्षों तक मेधावी छात्र के रूप में अध्ययन कर गुरु कालूगणी द्वारा 22 वर्षों की उभरती जवानी में आचार्य पद को प्राप्त हुए।

प्रथम स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त 1947) पर आपने ‘असली आजादी अपनाओ’ का शंखनाद किया। 1949 मार्च 2, में उन्होंने 34 वर्ष की आयु में अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। हरितक्रांति, सत्याग्रह, भूदान की तरह अणुव्रत आंदोलन में लोकतंत्र की उज्ज्वल कल्पना निहित है। अणुव्रत दर्शन व्यक्ति को नैतिक बनाने की आचार संहिता है। आचार्य तुलसी के अणुव्रत की आवाज राष्ट्रपति भवन से लेकर गरीब की झोपड़ी तक गूँजी। इस नैतिक क्रांति को निरंतर प्रज्ज्वलित रखने के लिए आपने पूरे देश में कन्याकुमारी से कोलकाता तक लगभग एक लाख किमी की पदयात्राएँ की। उनका व्यक्तित्व पुरुषार्थ की परम पर्याय था। वे सृजनशील चेतना के धनी थे। पद और सम्मान की आसक्ति से ऊपर उठ उन्होंने 18 फरवरी 1994 को अपने आचार्य पद का विसर्जन कर विश्व के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो वर्तमान युग के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है।

वे एक महान धर्मगुरु के साथ समाज सुधारक भी थे। गाँधी के बाद आचार्य तुलसी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन से समूचे देश और दुनिया को प्रभावित किया। कहा जाता है कि लीक से हट के चलने वाला व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है। समाज-सुधारक एवं  राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष आचार्य तुलसी ने राष्ट्रीय चेतना स्पंदित की और अंधविश्वासी, रूढ़िवादी समाज को नई दिशा दी। तुलसीजी ने अपने अध्यात्म ज्ञान व आत्मशक्ति से भारतवासियों में आत्मबल का संचार किया। विलक्षण व्यक्तित्व के धनी आचार्य तुलसी का नाम व काम भारत ही नहीं, अपितु संसार में भी अमर है और रहेगा।

आचार्य तुलसी का नाम इसलिये यादगार बना, क्योंकि वे निरन्तर गतिमान रहे और चरेवैति-चरेवैति उनके जीवन का आदर्ष था, यह आदर्ष इसलिये बना क्योंकि शोषण सेवा की ओट ले रहा था, हिंसा अहिंसा के वस्त्र पहन रही थी, अधर्म धर्म के मन्दिर में निवास कर रहा था और साम्प्रदायिकता उन्माद बन रही है।

इसलिए वे रूके नहीं और इसीलिए चलते रहे क्योंकि उन्हें वैमनस्य के सागर का गरल पीना था- शंकर बनकर। साम्प्रदायिकता के चण्डकोष को शांत करना था- महावीर बनकर। साम्प्रदायिकता के उन्माद में कोई ऐसा नहीं था , जो अंगुली उठाकर कह सके-”धर्म सम्प्रदाय से बड़ा है“ इसलिए वे निरन्तर मानवता के कल्याण के संकल्प को लेकर गतिमान रहे।

आजादी के बाद आचार्य तुलसी ने जब देखा कि जनमानस अशांति, असंतोष और विलासितापूर्ण जीवन की ओर बढ़ रहा है। इस कारण असली आजादी का आनंद कोसों दूर चला जा रहा है। तब उन्होंने सदाचार, सादगी नैतिकता एवं आजादी के मूल धेय को आत्मसात करवाने के लिए अणुव्रत आंदोलन की शुरुआत की। यह आचार्य तुलसी का राश्ट्र को महान् अवदान है। कृष्णमृग अभयारण्य के रूप में विख्यात ताल छापर से स्फूटित अणुव्रत रूपी चिंतन ने सरदारशहर की धरा पर आंदोलन का स्वरूप प्राप्त कर व्यक्ति, क्षेत्र, काल विशेष की सीमा से परे सार्वभौम और सर्वग्राही पहचान बना ली है। क्योंकि इसके द्वारा आज की समस्याओं का समाधान प्राप्त होता है एवं स्वस्थ समाज व देश की संरचना के लिए इसका होना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

आचार्य तुलसी ने न केवल अणुव्रत आंदोलन की शुरुआत की अपितु इसके माध्यम से नैतिकता व सदाचार की आवाज घर-घर पहुंचाई। उनका मानना था व्यक्ति से समाज बनता है और समाज से देश। यदि अच्छे समाज व देश का निर्माण करना है तो सर्वप्रथम व्यक्ति को अच्छा बनाना होगा। व्यक्ति के सुधरते ही समाज व देश अपने आप अच्छे बन जाएंगे। इसलिए उनके कथन के अनुसार ही अणुव्रत आंदोलन सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं सुधारने को कहता है। समाज व राष्ट्र के जीवन को ऊंचा उठाना है तो पहले स्वयं को उठाने की चर्चा करता है।

आचार्य तुलसी अणुव्रत आन्दोलन के कार्यक्रमों को लेकर नंगे पांव गांव-गांव घूमते और लोगों को अच्छा बनने के लिए कहते। न कौशल का प्रदर्शन, न रणनीति का चक्रव्यूह। सब कुछ साफ-साफ। बुराई छोड़ो, नशा छोड़ो, मिलावट मत करो, भेदभाव मत रखो, धर्म सम्प्रदाय से बड़ा है, लोक जीवन में शुद्धता आये,  राष्ट्रीय चरित्र बने। अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी सुबह से शाम तक गांवों के लोगों से मिलते, प्रवचन करते हैं। एक-एक व्यक्ति को समझाते । लाखों-करोड़ों लोगों से सम्पर्क साधा और स्वस्थ समाज संयोजना, पर्यावरण और प्रदूषण निरोध, लोकतंत्र शुद्धि अभियान, व्यसन मुक्ति आन्दोलन, राष्ट्रीय एकता उद्बोधन, अहिंसा सार्वभौम, जीवन विज्ञान शिक्षा योजना जैसे सार्वभौम एवं सार्वकालिक उद्देष्यों से प्रेरित किया। ये सभी बिन्दु यही कहते कि मनुष्य के जीवन में नैतिकता आए। नैतिकता का अर्थ है मनुष्य के उत्कृष्टतर होते जाने की अभिलाषा। शिक्षा का लक्ष्य होता है चरित्र निर्माण और चरित्र निर्माण का अन्तिम लक्ष्य है सेवा और उत्थान। यही उत्कृष्टता की सीढ़ियां हैं।

आचार्य तुलसी कहते थे कि केवल अणुव्रत (संकल्पों) को स्वीकारने वाला ही अणुव्रती नहीं है। जिसने अणुव्रत को समझ लिया वह भी अणुव्रती है। अणुव्रत को समझने का अर्थ है यह समझना कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है? और जिस दिन जो यह समझ लेता है, उसी दिन वह बुराई से दूर और अच्छाई के नजदीक होने की ओर प्रथम कदम बढ़ाता है।

उस समय मनुष्य का मानस वैज्ञानिक अवनति से, आचरण की अपरिपक्वता से, अनौचित्य  को साग्रह ग्रहण करने की प्रवृत्ति से विचलित था, वह युग साधारण मनुष्य का युग था। जिसमें विशिष्ट देवपुरुष नहीं साधारण मनुष्य ही युग धर्म की स्थापना कर सकता था और आचार्य तुलसी ने एक साधारण संतपुरुश बनकर ही असाधारण काम किया।

आचार्य तुलसी के समय में समूचा राष्ट्र पंजों के बल खड़ा नैतिकता की प्रतीक्षा कर रहा था, कब होगा वह सूर्योदय जिस दिन घर के दरवाजों पर ताले नहीं लगाने पड़ेंगे। महिलाएं अकेली भी सुरक्षित महसूस करेंगी। खाने को शुद्ध सामग्री मिलेगी। सामाजिक जीवन में विश्वास जगेगा। मूल्यों की राजनीति कहकर कीमत की राजनीति चलाने वाले राजनेता नकार दिये जायेंगे।

भारतीय जीवन से नैतिकता इतनी जल्दी भाग रही थी कि उसे थामकर रोक पाना किसी एक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं था। सामूहिक जागृति लानी थी। यह सबसे कठिन था पर यह सबसे आवश्यक भी था। और इसी आवष्यक असंभव लगने वाले काम को आचार्य तुलसी ने संभव कर दिखाया।

ईश्वर में आस्था परिश्रम का विकल्प नहीं हो सकता। नैतिक उत्थान की चाह, संकल्पों का विकल्प नहीं हो सकती। एक स्वस्थ समाज का स्वप्न जागरण का विकल्प नहीं होता। इसीलिये आचार्य श्री तुलसी कहते थे कि प्रभु तक पहुंचने के लिए प्रभु बनना होगा।

 

 

प्रेषकः

(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुँज अपार्टमेंट
25 आईñ पीñ एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133

.

दीपक जलाने व आतिशबाजी का कारण

दीपावली के दिन आतिशबाजी (आकाशदीप, कंडील आदि) जलाने की प्रथा के पीछे संभवतः यह धारणा है कि दीपावली-अमावस्या से पितरों की रात आरंभ होती है। कहीं वे मार्ग से भटक न जाएँ, इसलिए उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था इस रूप में की जाती है। इस प्रथा का बंगाल में विशेष प्रचलन है।

.

गौवंश को बचाने वाले मुस्लिम पत्रकार की जान गई

दुनिया के सामने पत्रकारिता के माध्यम से सच को उजागर करना एक पत्रकार के लिए आसान नहीं रह गया है, इस रास्ते में खतरा तो होता ही है, साथ में जान से हाथ धोने का जाने का भय भी बना रहता है। ऐसा ही एक वाक्या बुलंदशहर के खुर्जा में भी देखने को मिला।

प्राप्त जानकारी के अनुसार खुर्जा के मोहल्ला पंजाबियान का निवासी पत्रकार जकाउल्ला भी कुछ गो तस्करों की बलि चढ गया।   बताया जाता है कि पत्रकार जकाउल्ला हत्याकांड के पीछे उनके द्वारा किए गए खुर्जा में चल रहे गोकशी के गोरखधंधे के खुलासे के पर्दाफाश ने अहम भूमिका निभाई है।   अगर हम पुलिसिया खुलासे पर गौर करे तो उनके अनुसार जकाउल्ला की हत्या में गोकशी ही प्रमुख वजह बनी। इससे यह भी साफ हो गया है कि शहर में गोकशी का यह धंधा कितने बड़े पैमाने पर संगठित रूप से चल रहा है।   

गौरतलब है कि पत्रकार जकाउल्ला खां निवासी मोहल्ला पंजाबियान का 25 अगस्त को बोरे में बंद शव चोला चौकी क्षेत्र के जंगलों में बरामद हुआ। 27 अक्टूबर को पुलिस ने कोतवाली खुर्जा में खुलासा किया कि जकाउल्ला की हत्या नगर निवासी तीन लोगों ने मिलकर की थी।   पुलिस के अनुसार, जकाउल्ला को गोकशी के कारोबार के बारे बहुत सारे अहम सुराग प्राप्त कर लिए थे, इससे इस गोकशी के धंधें में लिप्त लोगों के लिए खतरा तो पैदा हो ही गया था, साथ ही उनका वर्चस्व भी दांव पर लगा था।इसलिए उन्होंने पत्रकार जकाउल्ला की हत्या कर दी गई।   

हांलाकि पुलिस अभी इस मामले में कोई ठोस सबूत जुटा नहीं पायी है, लेकिन पुलिस का दावा है कि उसके पास एक ऐसी चिट्ठी है, जिसमें जकाउल्ला के घर वालों को धमकी लिखकर भेजी गई है। उसमें लिखा गया है कि अगर मामले की पैरवी की तो ठीक नहीं होगा। हाथ से लिखी उस पाती को पुलिस ने अपना सबूत बनाया है।  

 इसके अलावा पुलिस उस युवक को गवाह बना रही है, जिसने आरोपी के घर के बाहर रात एक बजे आखिरी बार जकाउल्ला को देखा था। कोतवाली प्रभारी प्रमोद कुमार का कहना है कि आरोपियों ने उन्हें कार्रवाई न करने के लिए पेशकश की भी थी। इस केस में पुलिस गद्दों के राज को भी एक सबूत मानकर चल रही है। सूत्रों के मुताबिक, आरोपियों ने दो नए गद्दे कुछ दिनों पहले खरीदे थे। हत्या के बाद दोनों गद्दे गायब हैं। एक गद्दे के खोल में ही जका का शव लपेटे जाने की दलील भी पुलिस दे रही है।   

साभार-दैनिक जागरण से

.