Monday, November 25, 2024
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पति-पत्नी में मनमुटाव का फायदा उठाता था आसाराम

\nनाबालिग से रेप के आरोप में फंसे आसाराम के कृत्यों की फेहरिस्त में एक और सनसनीखेज खुलासा हुआ है। आसाराम का "शिकार" सिर्फ नाबालिग लड़कियां और युवतियां ही नहीं, बल्कि सुंदर विवाहिताएं भी थीं। खासकर वे जिनका अपने पति से अक्सर विवाद रहता था। आसाराम ऐसी महिलाओं को फंसाने के लिए त्रिकाल संध्या और ध्यान योग शिविर का सहारा लेते थे।

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आसाराम को लेकर यह नया खुलासा किया है शाहजहांपुर निवासी उनके ही तीन पूर्व साधकों ने। आसाराम से दीक्षा लेकर १४ पूनम दर्शन और ध्यान योग शिविर करने वाले ये साधक सात साल से अपनी पत्नी से अलग हैं। अपने अलगाव के लिए वह आसाराम को ही दोषी मानते हैं।

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उन्होंने बताया कि त्रिकाल संध्या और गुरु को ही सर्वस्व मानने के मंत्र ने उनकी जिंदगी बर्बाद कर दी। उन्होंने भी जब आसाराम की बुराई शुरू कर दी तो उनकी पत्नी ने भी गोहत्या का पाप बताते हुए उनसे पूरी तरह संबंध तोड़ लिए और अलग रहने लगी। त्रिकाल पूजासाधकों ने बताया कि आसाराम त्रिकाल पूजा सुबह, दोपहर और शाम को कराते थे।

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इसके लिए खासकर उन महिलाओं को प्रेरित किया जाता था, जिनका पतियों से कुछ मनमुटाव रहता था। त्रिकाल पूजा दंपतियों के बीच फूट की पहली कड़ी होती थी। विवाद बढ़ने पर उसे वैराग्य की संज्ञा दी जाती थी। पूजा के दौरान पति का स्पर्श भी महापाप बताकर उन्हें लगातार अलग रहने को प्रेरित किया जाता था। एक माह, पांच साल और १७ साल की यह साधना होती थी।

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१५ दिन के लिए कुटिया में बुलाता था

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त्रिकाल पूजा के बाद पति से अलग होने वाली महिलाओं के लिए अलग से ध्यान योग शिविर रखा जाता था जिसमें उन्हें बुलाया जाता था। वे १५ दिन तक बापू की कुटिया में रहती थीं। यहां मोक्ष दिलाने के बहाने उनका शारीरिक शोषण होता था।

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पूर्व साधक आज भी अपनी पत्नी से लगाव रखते हैं। उन्हें भरोसा है कि जिस दिन उनकी पत्नी आसाराम की अंधभक्ति छोड़ देगी, उनका घर फिर से आबाद हो जाएगा। उन्होंने कहा कि आसाराम ने उन्हें विवेक शून्य बना दिया है। हालांकि, जब उन्होंने नजदीक से यह सब देखा तो पूजा-पाठ बंद कर दी और घर से आसाराम की तस्वीर हटा दी.

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संजय दत्ते जैसे अपराधियों को जेल क्यों नहीं भेजा जाना चाहिए?

पिछले दिनों 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के कई आरोपियों को अदालत द्वारा सुनाई गई। इन सज़ा पाने वालों में अन्य आरोपियों के विषय में तो शायद देश इतना अधिक परिचित नहीं परंतु इन आरोपियों के साथ ही अवैध रूप से हथियार व गोलाबारूद रखने के मामले में सज़ा पाने वाले फिल्म अभिनेता संजय दत्त के नाम से तो पूरा देश भलीभांति वाकि़फ है। और जब अदालत ने संजय दत्त को भी अवैध रूप से हथियार के मामले में आरोपी बनाते हुए पांच वर्ष की सज़ा सुनाई तो पूरे देश में संजय दत्त को दी गई सज़ा को लेकर अच्छी-खासी बहस छिड़ गई।

हालांकि ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि अदालती फैसले खासतौर पर उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले आने के बाद सार्वजनिक रूप से इस प्रकार की चर्चाएं छिड़े जिसमें अदालतों को सलाह देने या उससे फैसले को बदलने की उम्मीदें रखी जाएं। परंतु संजय दत्त के मामले में तो कम से कम ऐसा ही देखने को मिला। मज़े की बात तो यह है कि इस अदालती फैसले पर असंतोष व्यक्त करने वालों व संजय दत्त को माफी दिए जाने की बात करने की शुरुआत करने वालों में पहला नाम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश तथा प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू का था। जस्टिज काटजू ने संजय दत्त को माफी दिए जाने की पुरज़ोर वकालत की। उसके पश्चात तो पूरे देश में यह बहस सभी वर्ग में छिड़ी दिखाई दी कि संजय दत्त को अदालत द्वारा माफ किया जाना चाहिए अथवा नहीं?

संजय दत्त के पक्ष में देश के तमाम प्रतिष्ठित लोगों, नेताओं, बुद्धिजीवियों व फिल्म जगत के तमाम लोगों के खड़े होने का जो कारण है वह ज़ाहिर है किसी से छुपा नहीं है। संजय दत्त एक अत्यंत प्रतिष्ठित व सम्मानित फिल्म अभिनेता व केंद्रीय मंत्री रहे सुनील दत्त के पुत्र हैं। उनकी माता नरगिस दत्त भी भारतीय सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्री रही हैं। उनकी बहन प्रिया दत्त भी सांसद हैं। संजय दत्त के अपने व्यक्तिगत रिश्ते भी कांग्रेस व समाजवादी पार्टी तथा शिवसेना सहित लगभग सभी पार्टियों से मधुर हैं। उधर संजय दत्त के पिता सुनील दत्त की असामयिक मृत्यु के पश्चात भी आम लोगों की सहानुभूति संजय दत्त को प्राप्त है। अपने नवयुवक होते संजय दत्त ने कई ऐसे गलत शौक़ भी पाले जिनकी वजह से उन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ी तथा बदनामी का भी सामना करना पड़ा।

उनका अपना व्यक्तिगत वैवाहिक जीवन भी सुखमय नहीं रहा। मुंबई में रहते हुए अपनी नौजवानी के दिनों में उनके संबंध अंडरवर्ल्ड के लोगों से भी हो गए थे। और इन्हीं संबंधों का परिणाम उन्हें इस सज़ा के रूप में आज भुगतना पड़ रहा है। उपरोक्त सभी परिस्थितियां ऐसी थीं जिनकी वजह से आम लोगों की सहानुभूति, संजय दत्त के साथ जुडऩा स्वाभाविक सी बात थी। उधर संजय दत्त को मुख्य अभिनेता के रूप में लेकर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में गत् वर्षों में मुन्ना भाई एमबीबीएस तथा लगे रहो मुन्ना भाई जैसी फिल्में बनाई गर्इं। इन फिल्मों के द्वारा संजय दत्त की छवि को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। काफी हद तक फिल्म जगत द्वारा संजय दत्त की छवि उज्जवल करने व जतना के बीच इन्हें लोकप्रिय बनाने का यह प्रयास सफल भी रहा। पूरे देश में संजय दत्त द्वारा लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में प्रदर्शित की गई उनकी गांधीगिरी की खूब चर्चा हुई। समीक्षकों ने तो यहां तक लिख डाला कि संजय दत्त ने इस फिल्म के माध्यम से गांधी जी व उनके सिद्धांतों को पुन: जीवित कर डाला।

अदालत ने न तो संजय दत्त की पारिवारिक पृष्ठभूमि को मद्देनज़र रखा, न ही फिल्म जगत में दिए गए उनके किसी योगदान का लिहाज़ किया। न ही उनकी किसी ‘बेचारगी’ का ख्याल किया। इन सबसे अलग हटकर कानून ने अदालत के माध्यम से वही फैसला सुनाया जिसकी देश की आम जनता उम्मीद करती है यानी ‘सिर्फ न्याय’। हमारे देश का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार देता है। कानून की नज़रों में भी सभी व्यक्ति समान हैं। ज़ाहिर है इसी सोच के अंतर्गत अदालत ने संजय दत्त को भी अपने पास अवैध व संगीन हथियार व गोला बारूद रखने का दोषी पाए जाने के जुर्म में सज़ा सुनाई। और संजय दत्त को अन्य दोषियों के समान सज़ा सुनाकर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि कानून की नज़रों में सभी नागरिक एक समान हैं।

संजय दत्त के प्रशंसकों तथा उन्हें क्षमादान दिए जाने की वकालत करने वालों के द्वारा यह तर्क दिए जा रहे थे कि उनके सामाजिक जीवन व उनकी फिल्म जगत को दी गई सेवाओं के चलते उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। यहां यह गौरतलब है कि अदालत ने संजय दत्त को सज़ा सुनाते वक्त खुद ही उन्हें दी गई सज़ा में नरमी बरतते हुए यह सज़ा सुनाई है। परंतु अदालत द्वारा संजय दत्त को पूरी तरह माफ कर दिए जाने की बात कहने वालों को ऐसा कहने या ऐसी सलाह देने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि भारतीय न्यायालयों द्वारा दिए जाने वाले सभी फैसले एक रिकॉर्ड के रूप में संकलित किए जाते हैं। तथा इन फैसलों को पूरे देश की अदालतों में अधिवक्तागण समय-समय पर व ज़रूरत पडऩे पर एक नज़ीर के रूप में पेश करते हैं।

कानूनी किताबों की श्रंखला एआईआर में भी ऐसे महत्वपूर्ण फैसले प्रकाशित किए जाते हैं। अदालतों द्वारा दिए जाने वाले फैसलों पर देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की नज़रें भी रहती हैं। लिहाज़ा यदि संजय दत्त के साथ अदालत किसी प्रकार का पक्षपात करती तो इसका देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि पर प्रभाव पडऩे के साथ-साथ भविष्य में होने वाली दूसरी घटनाओं व मुकद्दमों पर आिखर कैसा प्रभाव पड़ता ? इतना ही नहीं बल्कि देश की वह आम जनता जो आज भी इस बात को लेकर संदेह रखती है कि न्याय गरीबों को मिलता भी है अथवा नहीं कम से कम उस वर्ग को तो बिल्कुल ही यह विश्वास हो जाता कि अदालती फैसले पक्षपातपूर्ण होते हैं तथा आरोपियों व अपराधियों के ‘व्यक्तित्व’ पर आधारित होते हैं।

परंतु अदालत ने संजय दत्त के मामले में अपने फैसले के द्वारा ऐसा कोई भी नकारात्मक संदेश भेजने से परहेज़ किया। संजय दत्त कितने ही बड़े अभिनेता, प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य, समाजसेवी, राजनेता अथवा समय के सताए हुए एक सहानुभूति प्राप्त करने के हकदार व्यक्ति क्यों न रहे हों परंतु उनका व्यक्तित्व कम से कम इंदिरा गांधी के मुकाबले में तो कुछ भी नहीं है। देश ने भारतीय न्यायालय के उस कठोर रुख को उस समय भी देखा था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनारायण द्वारा इंदिरा गांधी के विरुद्ध दायर की गई चुनाव संबंधी एक याचिका के संबंध में अपना निर्णय देते हुए इंदिरा गांधी के विरुद्ध उस समय फैसला दिया था जबकि वे देश की प्रधानमंत्री थीं।

ज़ाहिर है देश में प्रधानमंत्री का पद सर्वोच्च पद है, इंदिरा गांधी का परिवार देश का सबसे प्रसिद्ध,प्रतिष्ठित व सम्मानित परिवार कल भी माना जाता था और आज भी है। इंदिरा गांधी द्वारा देश व दुनिया के लिए किए गए तमाम सामाजिक कार्यों को भी अनेदखा नहीं किया जा सकता। परंतु अदालत ने इन सभी योग्यताओं, उपलब्धियों तथा विशेषताओं को दरकिनार करते हुए एक साधारण नागरिक की ही तरह इंदिरा गांधी के मुकद्दमे की भी सुनवाई की तथा साक्ष्यों के आधार पर उनके विरुद्ध अपना फैसला सुना डाला। हालंाकि इस फैसले का देश की राजनीति पर दीर्घकालीन प्रभाव भी पड़ा। जिसका उल्लेख यहां करना आवश्यक व प्रासंगिक नहीं।

संजय दत्त को सुनाई गई सज़ा के बाद अदालत के फैसले की आलोचना करने अथवा इसे सलाह देने के बजाए सफेदपोश लोगों को विशेषकर सेलेब्रिटिज़, समाजसेवी, राजनेता, उच्चाधिकारी, धर्माधिकारी तथा ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोगों को स्वयं सबक लेना चाहिए तथा उन्हें अपने-आप यह सोचना चाहिए कि चूंकि भावनात्मक रूप से समाज का एक अच्छा-खासा वर्ग उनके साथ जुड़ा रहता है और उन्हें अपना आदर्श व प्रेरणास्रोत मानता है। लिहाज़ा वे खुद ऐसे किसी कार्य में संलिप्त न हों जो उनकी बदनामी व रुसवाई का कारण बने। इसमें कोई शक नहीं कि जब समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग किसी अपराध में शामिल पाए जाते हैं तो उनके समर्थकों व शुभचिंतकों को गहरा धक्का लगता है।

ज़ाहिर है शुभचिंतक व समर्थक होने के नाते यह वर्ग अपने आदर्श व्यक्ति के प्रति पूरी सहानुभूति भी रखता है। ऐसे में निश्चित रूप से वह नहीं चाहता कि उसका आदर्श पुरुष अपमानित हो, गिरफ्तार किया जाए, जेल भेजा जाए या फिर उसे अदालत द्वारा सज़ा सुनाई जाए। इससे बचने के उपाय केवल यही हो सकते हैं कि सेलेब्रिटिज़ अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त व समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग अपने आचरण में सुधार करें तथा अपना जीवन संयमित होकर पूरी नैतिकता के साथ गुज़ारें। परंतु ऐसे लोगों के किसी अपराध में संलिप्त होने के बाद देश की अदालतों से इनके पक्ष में फैसले दिए जाने की उम्मीद रखना तो कतई मुनासिब नहीं है।
Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002
Haryana
phone-09729229728.

900 से ज्यादा भारतीय रणबांकुरों के बलिदान ने लिखी थी हैफा-मुक्ति की कहानी

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<p>किसी ने सच ही कहा है कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने।</p>

<p>और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है।<br />
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भारतीय सेना के इतिहास में अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने सैनिकों के बलिदानों को हमेशा अपमानित ही किया, उनके गौरव को बढ़ाने की जगह आज भी सैनिकों का मनोबल तोड़ने के दुष्चक्र चलाए जा रहे हैं।<br />
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शायद यही कारण है कि भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें इस्रायल के फिलिस्तीन से सटे हैफा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों-जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स- के अप्रतिम योगदान के बारे में पता होगा। ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हैफा को स्वतंत्र कराया था और इस संघर्ष में 900 से ज्यादा भारतीय योद्घाओं ने बलिदान दिया था, जिनके स्मृतिशेष आज भी इस्रायल में सात शहरों में मौजूद हैं और मौजूद है उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इस्रायल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हैफा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है।<br />
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हैफा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है। बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है। ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा को कब्जा लिया था। वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं। उस युद्घ में करीब 150,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इस्रायल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे। भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हैफा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए। तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकडि़यों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हैफा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।</p>

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23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर ठाकुर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इस्रायल के हैफा शहर को आजाद कराया। ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था। उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था।<br />
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ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था, ह्यउनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।ह्ण मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और से़ ले़ सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था। इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे। आज भी हैफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इस्रायल के सात शहरों में उनकी याद बसी हैं।</p>

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इतना ही नहीं, हैफा नगर निगम और उसके उप महापौर के प्रयासों से इस्रायल सरकार वहां की स्कूली किताबों में भी इन वीर बांकुरों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का फैसला कर चुकी है। इसके लिए हैफा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत क्या, दिल्ली के ही बहुत कम निवासी जानते होंगे कि तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हैफा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था।<br />
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इस 23 सितम्बर 2013 को हैफा के साथ ही हांगकांग, नई दिल्ली, जयपुर, जोधपुर और मुम्बई में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और इस देश के विकास में योगदान देने वाले पारसी समाज की सहभागिता से हैफा दिवस मनाया गया। नई दिल्ली के पारसी प्रार्थना गृह जूडाह ह्याम सिनेगॉग में सम्पन्न इस कार्यक्रम में भारत में इस्रायल के राजदूत आलोन उश्पिज, पंजाब के राज्यपाल रहे ले. जनरल जे़ एफ़ आर. जेकब, स्वाड्रन लीडर राणा तेज प्रताप सिंह चिन्ना, राज्य सभा सांसद तरुण विजय, इंडो-इस्रायल फें्रडशिप फोरम के परामर्शदाता रवि अय्यर सहित अनेक विशिष्टजन उपस्थित थे। इस अवसर पर राजदूत आलोन ने बताया कि चूंकि वे खुद हैफा में पले-बढ़े हैं इसलिए बचपन से ही भारतीय सैनिकों के बलिदान की गाथा सुनते आए हैं। उन्होंने बताया कि आज भी उन सैनिकों के प्रति वहां के लोगों में बहुत सम्मान का भाव है। ले. जनरल जेकब ने उस लड़ाई के कुछ अनछुए पहलू सामने रखे। स्वाड्रन लीडर चिन्ना ने इतिहास के पन्नों से उस लोमहर्षक गाथा के कुछ अंश पढ़कर सुनाए।<br />
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तरुण विजय ने भारत-इस्रायल संबंधों को और प्रगाढ़ करने और उन बलिदानी सैनिकों की स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के कुछ कदम उठाने की सलाह दी। रवि अय्यर ने बताया कि 2018 में हैफा मुक्ति के 100 साल खूब धूमधाम से मनाए जाएंगे, विशेष कार्यक्रम किए जाएंगे। उन्होंने पारसी समाज के भारत के विकास में योगदान और उस समाज में भारत के प्रति आदर भाव की जानकारी दी। एचआरडीआई के महासचिव राजेश गोगना ने कहा कि हैफा मुक्ति की कहानी हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जिसे अपने बहादुर सैनिकों पर गर्व है। यह गाथा हमारे दिल-दिमाग पर उन वीरों की अमिट छाप छोड़ जाती है।<br />
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इस मौके पर इंडो-इस्रायल फ्रेंडशिप फोरम और एचआरडीआई की ओर से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि- &#39;हम इन वीर भारतीय सैनिकों की गाथा इस्रायल की स्कूली किताबों में शामिल करने पर हैफा नगर निगम का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। 2018 में शताब्दी समारोह आयोजित&nbsp; किए जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।&#39; प्रस्ताव में हैफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत की याद में एक डाक टिकट जारी करने की मांग की गई। कार्यक्रम के आरम्भ और अंत में कुर्ता-पाजामा पहने और बढि़या हिन्दी बोलने वाले उस पारसी सिनेगॉग के मानद सचिव इजकिल इसाक मालेकर ने हिब्रू भाषा में विश्व बंधुत्व और शांति हेतु<br />
प्रार्थना की।<br />
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स्थानीय लोगों की मदद से ही पक्की होगी ‘जीत’

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सन 1962 के युद्घ में परास्त होने के बावजूद शांति के मोर्चे पर भारत जीत हासिल कर रहा है जबकि चीन जीतने के बावजूद मैकमोहन रेखा के दोनों ओर चुनौतियों का सामना कर रहा है।

सन 1962 के भारत-चीन युद्घ में किसे जीत हासिल हुई? यह सवाल हास्यास्पद प्रतीत होता है, खासतौर पर उन लोगों को जो 20 अक्टूबर 1962 को नामका चू के निकट शुरू हुए उस युद्घ के 50 साल पूरे होने पर आ रहे निराशाजनक आलेखों से जूझ रहे हैं। लेकिन जरा इस तथ्य पर गौर कीजिए : वर्ष 1962 के बाद से अरुणाचल प्रदेश का जबरदस्त भारतीयकरण हुआ है। उसने निरंतर जोर देकर खुद को भारत का हिस्सा बताया है। इस बीच, तिब्बत का मामला धीरे-धीरे सुलग रहा है क्योंकि चीन, साधारण तिब्बती लोगों से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की ताकत के बल पर निपटने की कोशिश कर रहा है। चीन के सैनिक प्रदर्शनकारियों को विरोध प्रदर्शन शुरू करने से भी पहले गिरफ्तार कर लेते हैं। चीन के हान समुदाय के लोग भारी संख्या में तिब्बत में जननांकीय अतिक्रमण कर रहे हैं और इस तरह वे पशुपालन करके जीवन यापन करने वाले स्थानीय लोगों की संस्कृति को नष्टï कर रहे हैं।

ऐसे में क्या कहा जाए, युद्घ में भीषण पराजय के बाद शांतिकाल में भारत को विजय हाथ लग रही है? और चीन, सन 1962 में भारत को ‘सबक सिखाने के बादÓ और तिब्बत को जबरदस्त दमन के साथ कब्जाए रखने के बाद भी मैकमोहन रेखा के दोनों ओर यानी तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश की ओर से चुनौती का सामना कर रहा है।

तिब्बत में वर्ष 2008 के बाद से ही चीन को लगातार भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। भारत की ओर से उसे सेना के बढ़ते जमाव और तिब्बत की निर्वासित सरकार का सामना करना पड़ रहा है जो चीन द्वारा तिब्बत में किए जा रहे दमन पर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित कराने में लगी हुई है।

इसके ठीक विपरीत भारत ने अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) में संवेदनशीलता से काम लिया है और सैन्य बल प्रयोग के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाई है। परिणामस्वरूप वह भारत के एक अंग के रूप में उन स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब रहा है जिनके मन में सन 1962 की हार काफी भीतर तक घर कर गई थी। ताकत के ख्ुाले आम प्रयोग से बचने की प्रवृत्ति सन 1951 में तवांग पर भारत के कब्जे के वक्त ही प्रत्यक्ष नजर आई थी जब असिस्टेंट पॉलिटिकल ऑफिसर आर काथिंग ने सीमा पर स्थित इस कस्बे में अद्र्घसैनिक बल असम राइफल्स की केवल एक प्लाटून (36 जवान) के साथ परेड की थी।

इसके अलावा सन 1853 में अचिंगमोरी में जब तागिन जनजाति के लोगों ने असम राइफल्स की प्लाटून का कत्लेआम किया था तब असम सरकार के तत्कालीन विशेष सलाहकार नरी रुस्तमजी ने प्रख्यात तौर पर नेहरू को इसका विरोध करने से रोका था। नेहरू ने चुनौती दी थी कि वह तागिन को नष्टï कर देंगे। इसके बजाय रुस्तमजी ने भारी नागरिक अभियान की शुरुआत की और दोषियों को न केवल पकड़ा और बकायदा बांस के बने अस्थायी न्यायालय में प्रक्रिया चलाकर उनको दंडित भी किया गया। यह बात बहुत जल्दी सारे क्षेत्र में फैल गई थी।

लेकिन यह ध्यान देना होगा कि स्थानीय संवेदनशीलता को राष्टï्रीय हित से ऊपर स्थान देने के कारण ही वर्ष 1962 में पराजय का सामना करना पड़ा था। सैन्य शक्ति पर निर्भर नहीं रहने की जिस बात ने स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में मदद की उसी के तहत सेना की तैनाती में अनिच्छा और उसकी अपर्याप्त संख्या ने सन 1962 की पराजय में भी अहम भूमिका निभाई। उस वक्त ‘भविष्य की नीतिÓ के रूप में जो अदूरदर्शी तरीका अपनाया गया और जिसके तहत एकतरफा घोषित सीमाओं पर भारतीय चौकियां बनाई गईं, वह भारत की तीखी पराजय की वजह बनी। इस पराजय ने स्थानीय लोगों के मन में भारत की छवि भी धूमिल की।

आज उस घटना के 50 साल बाद जबकि देश अधिक समृद्घ और आक्रामक है, वह सैन्य शक्ति का अधिक इस्तेमाल करने और जवानों की तैनाती को लेकर भी आश्वस्त है। चीन के किसी भी किस्म के आक्रामक रवैये से निपटने की योजना तैयार करने में सन 1950 के दशक के सबक को याद रखना महत्त्वपूर्ण होगा। पहली बात, सेना की मौजूदगी को लेकर अरुणाचल के लोग बहुत अधिक सहज नहीं है। यह हालत तब है जबकि कई बार दूरदराज इलाकों में सेना ही इकलौती ऐसी सरकारी इकाई होती है जिसे लोग देख पाते हैं। सन 1950 और 1960 की तर्ज पर वर्ष 2010 और 2011 में भी अरुणाचल को भारत का अंग बनाए रखने के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग उतना ही आवश्यक है जितना कि सेना का।

बहरहाल, सैनिकों की संख्या बढ़ाकर सैकड़ों किलोमीटर लंबी पहाड़ी घाटियों वाले इलाके में संपूर्ण सुरक्षा नहीं हासिल की जा सकती है। सैनिकों की संख्या में लगातार इजाफा करके भारत खुद पाकिस्तान के जाल में फंसते जाने का जोखिम बढ़ा रहा है। वह एक ऐसे पड़ोसी के खिलाफ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की कोशिश कर रहा है जिसके पास आर्थिक संसाधनों तथा सैन्य शक्ति की कोई कमी नहीं है।

इसके बजाय भारतीय सेना को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। उसे सेना की मौजूदगी बढ़ाने के बजाय सन 1950 के दशक की तर्ज पर स्थानीय स्तर की साझेदारी पर भरोसा करना चाहिए। इसके लिए तीन स्तरीय कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। सबसे पहले स्थानीय जनजातियों की 20 प्रादेशिक बटालियन तैयार की जानी चाहिए जो चीन से अपने मातृ प्रदेश की रक्षा करेगी। बजाय कि सेना के उन जवानों पर निर्भर रहने के जो अपने निवास स्थान से हजारों किलोमीटर दूर अनजानी जगहों पर तैनात रहते हैं। रक्षा की प्रथम पंक्ति इन्हीं स्थानीय जनजातीय सेनाओं के जरिये तैयार की जानी चाहिए।

दूसरी बात, सीमा पर चीन की घुसपैठ रोकने के लिए भारी संख्या में जवानों की तैनाती करने के बजाय हमें ऐसे आक्रामक दस्ते तैयार करने चाहिए जो चीन द्वारा किसी भी तरह की घुसपैठ का जवाब तिब्बत में आकस्मिक हमले या घुसपैठ करके दें। हमारे पास हर वक्त 8 से 10 ऐसी योजनाएं तैयार रहनी चाहिए और साथ ही उनको लागू करने के लिए पूरे संसाधन भी हमारे पास होने चाहिए।

तीसरी बात, अरुणाचल प्रदेश और असम में सड़कों और रेलवे का बुनियादी ढांचा विकसित करना जो ऐसे लड़ाकू समूहों का परिवहन तेज करने के काम आएगा। उनको सीमा पर अधिक तेजी से ले जाने में मदद मिलेगी ताकि चीन की किसी भी नकारात्मक योजना को विफल किया जा सके। मेरे खयाल से यह सबसे अधिक जरूरी कदम है क्योंकि इससे सेना और आम जनता दोनों के हित की पूर्ति होगी। मैकमोहन रेखा के आसपास स्थित गांवों में सड़क सुविधा मुहैया कराकर हम वहां के लोगों को वह जीवनरेखा मुहैया करा रहे हैं जो उनको भारत से जोड़ती है।

साभार-बिज़नेस स्टैंडर्ड से.

पत्रकार राघवेंद्र द्विवेदी को तरुण कला संगम का पुरस्कार

बाजारीकरण के दौर में समाज को सही मार्ग दिखा पाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। मुंबई जैसे शहर में यह कार्य और भी जटिल है। त्रासदी यह है कि लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ मीडिया को भी बाजारीकरण ने अपने चुंगल में ले लिया है।

उक्त उद्गार मुंबई के पुलिस आयुक्त डॉ. सत्यपाल सिंह ने मुंबई के होटल सम्राट में सामाजिक एवं साहित्यिक संस्था तरुण कला संगम द्वारा हमारा महानगर दैनिक के कार्यकारी संपादक राघवेन्द्रनाथ द्विवेदी को विशिष्ट पत्रकारिता सम्मान प्रदान करने के लिए आयोजित कार्यक्रम में बतौर विशिष्ट अतिथि व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि समाचार पत्र हों या खबरिया चैनल, सभी में इन दिनों मानो नकारात्मक खबर समाज के संमुख प्रस्तुत करने की होड़ सी मची हुई है। डॉ. सिंह ने कहा कि मीडिया इन दिनों मुंबई की जो तस्वीर पेश कर रहा है, उससे समाज में भय का माहौल है।

उन्होंने कहा कि पतन का मार्ग चिकना होता है, जिस पर इंसान आसानी से फिसल जाता है, जबकि सच्चाई और सफलता की राह बहुत कठिन होती है। जिसमें समाज को आगे ले जाने का ज्ञान हो, लेखनी में प्रेरणा की धमक हो, बुद्धिजीवी हो, वही सच्चा पत्रकार कहलाने की काबिलियत रखता है, उसमें समाज और राष्ट्र को जोड़कर रखने का माद्दा होना जरूरी है। पत्रकार रत्न से सम्मानित राघवेन्द्रनाथ द्विवेदी को उन्होंने उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं दीं। इस अवसर पर पुलिस आयुक्त डॉ. सत्यपाल सिंह तथा कांग्रेस के सभासद अविनाश पांडे ने मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष प्रा जनार्दन चांदुरकर, वरिष्ठ पत्रकार लालजी मिश्र, शचीन्द्र त्रिपाठी, डॉ. अभयनारायण त्रिपाठी(आईएएम) तथा संस्था अध्यक्ष चित्रसेन सिंह मौजूदगी में राघवेन्द्रनाथ द्विवेदी को पुरस्कार स्वरूप 31 हजार नगद, ट्रॉफी तथा प्रशस्तिपत्र प्रदान कर सम्मानित किया।

मुख्य अतिथि अविनाश पांडे ने कहा कि महज लेखन से ही एक पत्रकार बुद्धिजीवी नहीं हो सकता, उसकी हर क्षेत्र में व्यापक पकड़ होनी चाहिए। अध्यक्षीय भाषण में वरिष्ठ पत्रकार शचीन्द्र त्रिपाठी ने संस्था द्वारा प्रदत्त इस सम्मान की सराहना करते हुए कहा कि इससे नवोदित युवा पत्रकारों को भी सकारात्मक लेखन की प्रेरणा मिलती है। उन्होंने सत्कारमूर्ति राघवेन्द्रनाथ द्विवेदी को मेहनत एवं निष्ठा की प्रतिमूर्ति बताते हुए कहा कि वे इन्हीं गुणों के बलबूते अल्पकाल में ही सर्वोच्च पद तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने कहा कि विकृति समाज का अभिन्न हिस्सा रही है।

बावजूद इसके मीडिया को घृणित चेहरा दिखाने से परहेज करना चाहिए क्योंकि समाज सुरक्षित है तो हम भी सुरक्षित हैं। मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष प्रा जनार्दन चांदुलकर ने येलो जर्नलिज्म को समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए कहा कि मीडिया आज इस्तेमाल और ब्लैकमेलिंग का जरिया बनती जा रही है। उन्होंने कहा कि देश में यंग डेमोक्रेसी महज 65 वर्ष की है लिहाजा मीडिया की भी थिंकिंग प्रोसेस साइंटिफिक होना चाहिए। डॉ. अभयनारायण त्रिपाठी ने कहा कि पत्रकार समाज को दिशा प्रदान करता है लिहाजा जहां तक संभव हो उसे पीत पत्रकारिता से परहेज करना होगा। सम्मान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए राघवेन्द्रनाथ द्विवेदी ने चित्रसेन सिंह तथा समुची टीम को इस सम्मान के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि यह सदैव उनके लिए प्रेरणा का कार्य करेगा और वे सामाजिक दायित्वों का निर्वहन हमेशा करते रहेंगे।

कार्यक्रम में प्रमुख अतिथि के तौर पर लिबोर्ड ग्रुप के चेयरमैन सीए ललित डांगी, भारतीय सद्विचार मंच के अध्यक्ष डॉ. राधेश्याम तिवारी, मुंबई कांग्रेस के महासचिव राजन भोंसले, युवा उद्योगपति गणपत कोठारी(कोठारी ग्रुप ऑफ कंपनीज), कपड़ा व्यापारी एकता एसोसिएशन के अध्यक्ष एसपी आहूजा, राकांपा के मुंबई महासचिव उदयप्रताप सिंह तथा पत्रकारिता क्षेत्र की अनेक गणमान्य हस्तियां मौजूद थीं। संचालन आनंद सिंह तथा आभार तरुण कला संगम के अध्यक्ष श्री चित्रसेन सिंह ने व्यक्त किया।.

27 से 29 तक बठिंडा में ज्योतिष सम्मेलन

सभी वर्गों को ज्योतिष का वैज्ञानिक स्वरूप उदेश्य अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मलेन बठिंडा की और से २७-से २९ सितम्बर तक सेठ भानमल ट्रस्ट नई बस्ती-६ बठिंडा में विशाल ज्योतिष सम्मलेन का आयोजन किया जा रहा हे.

दिली,उतरप्रदेश,उतराखंड,हरियाणा,राजस्थान,मध्यप्रदेश,उड़ीसा,महाराष्ट्र्र आदि प्रदेशो के विश्वविख्यात ज्योतिर्विद ईस सम्मलेन में भाग लेकर फ्री ज्योतिष परामर्श के लिए उपलब्ध होगे सम्मलेन के मुख्य आयोजक व् प्रधान ज्योतिषी पदम् कुमार के अनुसार सम्मलेन में वैदिक ,लालकिताब,हस्त रेखा,वास्तु-विज्ञान अंक-विज्ञान,फेस-रीडिंग आदि के द्वारा सिक्षा ,रोज़गार,विवाहिक,जिवन.सन्तान,प्रमोशन,रोग आदि अनेक समस्याओं के निदान हेतु निबन्ध पढ़े जायेंगे आपसी ज्योतिषीय रामर्ष के साथ-साथ ज्योतिष=प्रेमियों का फ्री मार्गदर्शन भी किया जयेगा.

इस अवसर पर गो-मूत्र आदि पञ्च-गव्यों से तेयार की गयी औषधियों से केंसर ,मोटापा, जिदों का दर्द आदि के उपचार हेतु ओषधि प्रदर्शनी का आयोजन किया जाएगा। रोटरी क्लब बठिंडा केंट की और से नशे की महामारी के बारे में जागरूकता हेतु नशा मुक्ति प्रदर्शनी का आयोजन किया जायेगा लायंस क्लब लेक की और से अमर शहीद स. भगत सिंह जी के जीवन को समर्पित देश के लिए अर्पण ये जीवन का आयोजन किया जयेगा. जिग्यासुओं की सुविधा हेतु मात्र 50 रूपये में जन्म-कुण्डली बनाने की सुविधा भी उपलब्ध रहेगी. प्रश्नकर्ताओं के लिए प्रात १० से १२ बजे तक लंगर-भंडारे की सेवा भी नगर के दानी सजनू के सहयोग से चलेगी सम्मलेन के आयोजन समिति के सदस्यों प. हरीष दत्त,द. रुपिंदर पुरी,प. अविनाश तिवारी ,विजय मितल के.पी. चिमन देव,पवन फखर गुरूजी,बाबा जसपाल सिंह,प. सुखपाल सिंह पिंड गीदड ,गियानी नरेंदर सिंह पिंड झुम्बा ए. शाम लाल गोयल , दी. आर गाँधी. आदि सभी ने नगर तथा आस पास की सभी मंडियों के ज्योतिष -प्रेमियों से अपील की है कि इस सम्मेलन में शामिल हों।

संपर्क
Padam Kumar

+91-9815075493
SHREE DURGA JEWELLERS
Court Road, Bathinda -151001 , [Pb.].

मूवीज़ नाउ पर देखिये एक से एक जांबाज़ हीरों के कारनामें-23 सितंबर से

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लीथल वेपन 2 में कारपेंटर का नाम मैकजी है, जो कि इस भूमिका को निभाने वाले जैक मैकजी का असली सरनेम भी है

 लीथल वेपन 3रू मार्बल स्लैब्स,जो कि फिल्म में तबाह किए गए एक पुराने सिटी हॉल का हिस्सा थीं, आज ओरलैंडो, फ्लोरिडा में एक स्थानीय आउटडोर कैफे में टेबलटॉप्स के तौर पर उपयोग में लाई जा रही हैं

उस समय आपकी क्या हालत होती हैं जब आप ऐसी किसी मुंश्किल परिस्थिति में फंस जाते हैं जिसमें आगे कुंआ और पीछे खाई होती है? इसी तरह के हालात और उनसे बाहर निकलने के संघर्ष की गाथा को देखें सिर्फ मूवीज नॉऊ पर। इस माह फाइनल स्टैंड में बेहद कठिन हालात से भी निपट कर बहादुर योद्धाओं के तौर सामने आने की महान गाथा को देखा जा सकेगा।

23 सितंबर से शुरू हो रही इन फिल्मों को हर सोमवार-गूरूवार को रात 11 बजे से देखा जा सकेगा, जिनमें आदमी के धूल में से उठ खड़े होने और बेहद खतरनाक हालात से भी बच निकलने की गाथाओं को देखा जा सकेगा! इनमें फैंटासटिक फोर 1 और 2, एक्स मैन-फस्र्ट क्लास, ब्लेड 1 और 2, ट्रांसपोर्टर 2, कमांडो, लीथल वेपन 2 और 3 शामिल हैं। इस प्रकार से फाइनल स्टैंड में आपका जोश बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा।

इन सुपरहीरो टीमों के साथ चार लड़ाईयों को देखा जा सकेगा, जो कि फैंटासटिक फोर 1 और 2 में बेहद ताकतवर खलनायकों के साथ लड़ते हुए इस दुनिया को तबाह होने से बचाने की लड़ाई है। वहीं एक्स-मैन फस्र्ट क्लास में दो समूहों के संघर्ष और एक्स-मैन की बहादुरी को देखा जा सकेगा। वहीं ब्लेड 1 और 2 में आप उस समय अपने दिल की धड़कन को भी सुन सकेंगे, जिसमें देखा जा सकेगा कि मानवता और जानलेवा शैतानों की एक पूरी नसल के बीच चल रहे संघर्ष को देखा जा सकता है, जिसमें ब्लेड मानवता को बचाता है।

मर्सनरी फ्रैंक मार्टिन, जो कि खतरनाक सामान को तय जगह पर पहुंचाने का काम करता है, इस बार ट्रांसपोर्टर 2 में फ्लोरिडा में एक खतरनाक आतंकी ग्रुप से भिड़ जाता है। वहीं एक रिटायर्ड ब्लैक ओपीएस, अकेला ही साउथ अमेरिकी अपराधियों के एक गिरोह से भिड़ जाता है जो कि उसकी बेटी का अपहरण कर लेता है। कमांडो को देखना चूक ना जाएं। मेल गिब्सन और डैनी ग्लोवर, लीथल वैपन 2 और 3 में खतरनाक हथियारों के डीलर्स से लड़ाई के दौरान आप का कलेजा भी मुंह में ला सकते हैं।

देखें फाइनल स्टैंड में उन बहादुरों को जो कि हमेशा आपको बचाने के लिए तैयार हैं, सिर्फ मूवीज नॉऊ पर!.