Thursday, May 2, 2024
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पुस्तकों की दुनिया की खुशबू से सराबोर काव्य गोष्ठी

समरस संस्थान द्वारा ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन
पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं विषय पर समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत, गांधी नगर के निर्देशन में हाल ही में पुस्तक दिवस पट कोटा में ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।

राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने बताया कि संस्थापक एवं संयोजक मुकेश कुमार व्यास ‘स्नेहिल’ संगोष्ठी से जुड़े। संगोष्ठी की अध्यक्षता राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.शशि जैन ने की। साधना शर्मा के द्वारा सरस्वती वंदना से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।

राधा तिवारी “मेरी नैया लगा दो पर अरे बाबा बाबा” डॉ. शशी जैन ने “मेरे साथी मेरे हमदम मेरी हमनवाज तुम हो” तथा मुकेश कुमार व्यास स्नेहिल “गहनों से भी ज्यादा कीमती है पुस्तकें, अंतरण को उज्जवल करती है पुस्तकें” मुक्तक सुन कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। रीता गुप्ता जी ने “अपनी पुस्तकों से टूटा नाता मैंने जोड़ लिया” कविता सुनाई। अर्चना शर्मा ने “मुझ पर तुम बेशक लिख सकते हो एक किताब” और “जिंदगी खुली किताब है अच्छा है खुली रहे हरदम, इस बहाने से लोग पढ़ेंगे तो सही” सुना कर गदगद कर दिया।

शिवरतन जी ने “मैं तो एक खुली किताब हूं जिसने मुझे पढ़ना चाहा वह मेरा अपना ही है” और रजनी शर्मा ने चीरकर सीना दिखाया हृदय में सिया राम शोभित” हनुमान जी का भजन से सबको मंत्र मुक्त कर दिया। राजेश मित्तल “शाख पर अब न फूल आएंगे अब न तुझको गले लगाएंगे” मुक्तक सुनाया।

डॉ. सुशीला जोशी “मेरी सखी है मेरी किताब अच्छे बुरे का ज्ञान करती मेरी किताब,” ललिता सोनी “जीवन जीने की कला सिखाती है पुस्तक जिंदगी का सबसे अच्छा दोस्त है पुस्तक”, आनंद जैन अकेला “इंसा का सच्चा साथ निभाती है पुस्तक कभी बेटी कभी बहू सी बन जाती है पुस्तक”, राजेंद्र कुमार जैन “सबसे अच्छी मित्र है पुस्तक हर सुख दुख में साथ है पुस्तक”, डॉ ममता पचौरी “आंखों से बहता नीर लगी लक्ष्मण को शक्ति आज, देर करो न हनुमान” बहुत सुंदर भजन सुनाया। कामिनी व्यास रावल “जन्म उत्सव की बेला आई ढोल नगाड़े संग बजी शहनाई”। दशरथ दबंग “किताबें हैं जरूरी पर किताबों की कदर तो हो दीवारे आईने सजे कोई रहगुजर तो हो” और साधना शर्मा “सुबह-सुबह दस्तक दे आऊं” अखबार के ऊपर बहुत सुंदर कविता सुनाई।

कार्यक्रम का संचालन बृजसुंदर सोनी भीलवाड़ा ने किया गया । अंत में मध्य प्रदेश प्रांतीय अध्यक्ष आनंद जैन ‘अकेला’ द्वारा काव्य गोष्ठी में उपस्थित सभी साहित्यकारों का आभार प्रदर्शित किया गया।

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संस्कृत कर्मकांड की ही नहीं रोजगार की भी भाषा है

सागर।अधिकतर भारतीय विद्वान संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी मानते हैं. हालांकि, आम जीवन में अब संस्कृत का न तो इतना प्रभाव है और न ही यह आज की पीढ़ी में उतनी लोकप्रिय. लेकिन, वर्तमान दौर में करियर बनाने के लिहाज से इस भाषा की पढ़ाई करने वाले युवाओं के लिए रोजगार के काफी अवसर हैं. संस्कृत से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी कर्मकांड, भागवत कथाएं, मांगलिक कार्य, ज्योतिष आदि विषयों का अध्ययन कर आय अर्जित कर सकते हैं. इसके अलावा सरकारी नौकरियों में भी काफी अवसर हैं.

धर्मगुरु, शिक्षक और प्रोफेसर बन सकते हैं
अगर संस्कृत में शास्त्री या आचार्य तक की पढ़ाई विद्यार्थी ने कर ली है तो वह आर्मी में धर्मगुरु बन सकता है. स्कूलों में वर्ग एक, दो, तीन का शिक्षक बन सकता है और अच्छा ज्ञान प्राप्त कर ले तो कॉलेज में प्रोफेसर भी बन सकता है. चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहते हैं तो आयुर्वेद की तरफ बढ़ सकते हैं, जिसमें चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, बागभट्ट जैसे विषयों का अध्ययन कर सकते हैं. इसके अलावा वास्तु ज्योतिष शास्त्र, योग, वैदिक गणित, वेद विज्ञान, इतिहास, 18 पुराण के अध्ययन से अलग-अलग क्षेत्र में जाने की अपार संभावनाएं हैं. शास्त्री की पढ़ाई करने के बाद जिस तरह से अभ्यर्थी ग्रेजुएशन करने के बाद कोई भी एसएससी, एमपीपीएससी या अन्य कंपटीशन एग्जाम दे पाते हैं, उसी तरह शास्त्री के अभ्यर्थी भी एग्जाम देने के पात्र होते हैं.

भविष्य में बहुत सी संभावनाएं
सागर के धर्मश्री में स्थित 125 साल पुराने संस्कृत स्कूल में भी छठवीं से लेकर 12वीं तक की वेद पाठों के अध्ययन के साथ संस्कृत की पढाई कराई जाती है. महाविद्यालय के प्राचार्य पंडित उमाकांत गौतम बताते हैं कि संस्कृत में संपूर्ण ज्ञान है, यह नितांत सत्य है. जो संस्कृत पढ़ना चाहते हैं उनके लिए प्राचीन संस्कृत विद्यालय सागर के साथ मध्य प्रदेश में भी अलग-अलग जगह पर खुले हुए हैं.

वास्तु के क्षेत्र में काम
संस्कृत की पढ़ाई करने वाले बच्चों के लिए भविष्य में बहुत सी संभावनाएं हैं. यदि बच्चा वास्तु शास्त्र का सम्यक अध्ययन कर लेता है तो वह भूखंडों में जो आवास स्थल बनाए जाते हैं, उन पर काम कर सकता है. यह विज्ञान की कला है और इसके लिए संस्कृत पढ़ना आवश्यक है. किस प्रकार के वृक्ष हम अपने घर के बाजू से लगाए किस तरह के वृक्ष न लगाएं, किस दिशा के लिए क्या नियम हैं. यह वास्तु ज्ञान से जाना जाता है.

साभार https://hindi.news18.com/ से

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परिवेश और संदर्भों को मुखर करते सुमन लता शर्मा के सृजन स्वर

तुम शीत का उच्छवास हो ,तुम धमनियों का ताप हो
तुम ठिठुरती जिंदगी का हर्ष और उल्लास हो
हो विरह में अगन तुम, प्रेम में आह्लाद हो
ऋतुराज तुम मधुमास हो,संजीवनी अहसास हो
“ऋतुराज”काव्य सृजन में रचनाकार की कल्पना का दरिया बह निकला है। इसका ललित रूप शब्दों में अभिव्यक्त हो उठा है। प्रकृति के अंग-अंग के उल्लास को मणिमाला के मोती की तरह पिरो दिया है। अभिव्यक्ति की सुंदरता अत्यंत मोहक बन पड़ी है। रचना को आगे बढ़ाते हुए लिखती हैं….
तरुवर लता और वल्लरी, बैठे तुम्हारी आस में
नव पात का ओढ़ें  वसन,जब तुम खड़े हो साथ में
हर शाख मद में मस्त हो, झूमे तुम्हारे प्यार में ऋतुराज तुम मधुमास हो,संजीवनी अहसास हो
ओढ़े चुनरिया पीत की ,ज्यों हो शगुन की ताक में
कहीं  दिखती है ये मही, ठाडी खड़ी सी राहमें
सभी के मन मचल रही,फागुनी बयार हो ऋतुराज तुम मधुमास हो ,संजीवनी अहसास हो
प्रकृति सौंदर्य के साथ – साथ स्त्री और बच्चों से संबंधित विषमताओं पर ध्यान आकर्षित कर क्षमताओं से अवगत करवाने के मुख्य ध्येय को लेकर गद्य पद्य दोनों विधाओं में सृजन करने वाली सुमन लता शर्मा ऐसी रचनाकार हैं जो प्रेरक और वर्णात्मक शैली में लिखती हैं। परिस्थिति जन्य विचलन से उठी भाव तरंगों को रचना रूपी सरिता के तट तक पहुंचाती हैं। समाज के किसी दृश्य से उपजे झकझोरने वाले भावों को उजागर करने और समाधान की राह दिखाने की इनकी शैलीगत रचनाओं में सकारात्मकता और दिशा बोध प्रमुख तत्व हैं।
हिंदी और राजस्थानी भाषाओं पर इनका समान अधिकार है। गद्य विधा में कहानी, लघुकथा एवं पत्र लेखन तथा पद्य विधा में कविता ,दोहे एवं गीत लिखना इनकी पसंदीदा विधाएं है। प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार शिवानी से प्रेरित हैं इन्हीं कहानियां। बच्चों की क्षमताऐं, समस्याऐं,प्रकृति ,नारी की विभिन्न भूमिकाऐं, माँ, स्तुति, प्रेम, सामाजिक विषमताएं इनके सृजन के मुख्य विषय हैं, साथ ही लघुकथा ,गीत ,कविताएं स्वयं की सोच और चिंतन के अनुसार भी लिखती हैं। दोनों ही विधाओं की रचनाएं राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में चयनित होना इनके सृजन का प्रभावी पक्ष है।
लेखन का बीजारोपण बचपन में मिले पारिवारिक साहित्यिक माहोल से ही हो गया था। पिता स्व. गौरी शंकर कमलेश राजस्थानी भाषा के रचनाकार थे। कवियों का घर पर आना-जाना, चर्चा, परिचर्चा, गोष्ठियां, इत्यादि देखते-सुनते बचपन बीता। घर में पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का अंबार रहता था। इसी से  पढ़ने  और लिखने  शौक पैदा हुआ । युवावस्था से ही अपने मन  के भाव कच्चे-पक्के से कागज पर उतरने लगी। इनकी माता राजस्थानी भाषा की लेखिका स्व. कमला कमलेश से इन्हें मार्गदर्शन मिला।  राजकीय सेवा से सेवानिवृत्ति के उपरांत 2017 से इनके लेखन में गति आ गई और पूर्णरूप से सक्रिय हो कर सृजन में लग गई ।
पद्य विधा में लिखे इनके “माया मोह” विषयक दोहों की बानगी देखिए की माया मोह को कितनी प्रभावी अभिव्यक्ति देते हुए आध्यात्म की ओर ले गई हैं…………
धन यौवन  संपन्नता,माया के ही रूप
मुग्ध मनुज को मोहती,कनक कुरंगम धूप ।
माया जग की जेवड़ी,बाँधा सब संसार
प्रभु सुमिरन से काटिये,होवें भव से पार ।
माया मन की नर्तकी,मैं मेरा ही बोल
पर संवेदनहीन मनुज ,मरे चाम का ढोल ।
माया इनकी जामिनी, काम क्रोध मद लोभ
तृषित मन की मरीचिका, परिणति होवे क्षोभ।
मोह ग्रस्त ज्ञानी बने, रागी को बेैराग
माया रक्षक भवाटवी, मीठा बोले काग ।
माया ऐसी रूपसी, तृषा तृप्त ना होय
सरिता से सागर भरे ,पुनि पुनि चाहे तोय।
इनके काव्य सृजन के ख़ज़ाने से ” नयन संवाद” विषयक रचना में  प्रेम की मूक अभिव्यक्ति की कितनी सुंदर संयोजना की है यह रचनाकार की कल्पना को दर्शाती हैं………
 भाव उन्मुक्त हुए ,आँखों से निकल पड़े,
नयनों से नयनो के संवाद हो चले ।
भाव उन्मुक्त हुए ।
होठों पर बंधन था, तटबंध तोड़ चले,
नयनों के पहरों में, नयनों से निकल पड़े।
भाव उन्मुक्त हुए ।
नयनो ने बाँच डाली, प्रीत पाती नयनों में ,
मुखड़े को रक्तिम कर,अनुरागी हो चले ।
भाव उन्मुक्त हुए ।
नयनों से पहुँची जब, नेह धार हृदय में,
सिहरन के साथ-साथ,रोम रोम बोल उठे।
भाव उन्मुक्त हुए ।
अधर स्वयं निशब्द रहे,धड़कन में बोल उठे,
मुखरित हो मौन ने , प्रेम गीत छेड़ दिए।
भाव उन्मुक्त हुए ।
वायु की सर सर से, सरगम के बोल उठे,
नयनों में सपनों के, इंद्रधनुष डोल उठे।
भाव उन्मुक्त हुए,आँखों से निकल पड़े,
नयनों से नयनो के, संवाद हो चले।
गद्य विधा में कहानियां, लघु कथाएं और पाती ( पत्र ) लेखन में प्रवीण रचनाकार ने पाती  परिवार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की गई पत्र लेखन प्रतियोगिता में पत्र चयन के पश्चात ‘ माँ की पाती बेटी के नाम’ ‘ यादों के गलियारे से’ ‘गौरैया की पुकार’ इत्यादि पुस्तकों में पत्र प्रकाशित हुए। इस दिशा में ये निरंतर सक्रिय हैं।
इनकी संवेदनाओं पर आधारित एक कहानी “संस्कारों के बंधन “का सार देखिए ….
माननीय मूल्यों  का जो रोपण मोहन की गरीब माँ ने  मोहन में किया है वही उसकी पूँजी है, जिसे वह कभी खोना नहीं चाहता। परेशानियों , दुखों और अभावों में बड़ा हुआ मेधावी मोहन अपनी मेहनत और गुरुजनों की विशेष कृपा के सहारे डॉक्टर बन जाता है, किंतु माँ की मृत्यु के कारण अकेला रह जाता है। एक अमीर माता-पिता कोअकेला डाॅक्टर लड़काअपनी इकलौती बेटी के लिए उसे सुयोग्य वर दिखता है। यह सोचकर कि उसे अपने स्तर और जीवन शैली के अनुरूप ढाल लेंगे, विवाह कर देते हैं। यहीं से डॉक्टर मोहन के जीवन में परेशानियां शुरू होती हैं । नई जीवन शैली उसे माँ की शिक्षाओं के साथ समझौते को मजबूर करती है। जिसे वह स्वीकार नहीं कर पाता।
पति-पत्नी दोनों अपने-अपने अनुसार जीने लगते हैं। पति-पत्नी के बीच दूरी बढ़ती जाती है। एक पुत्र ‘मुकुल’ हुआ। डॉक्टर मोहन अपनी माँ से प्राप्त गुणों की पूँजी से उसे समृद्ध करना चाहते हैं।इसलिए पत्नी के द्वारा होने वाले अपमान सहकर भी उसी घर में रहते हैं ,लेकिन अंतत:  समझ जाते हैं कि वह इसमें असफल रहे हैं। माँ की शह से मुकुल माँ की जीवन शैली अपना लेता है। एक उम्मीद जो उन्हें उस घर में रोके हुए थी, टूट जाती है।वह बिना किसी को बताए ,चुपचाप घर छोड़कर वृंदावन में आकर चैरिटेबल अस्पताल में सेवाएं देने लगते हैं। कहानी में मोड़़ तब आता है जब लगभग पाँच वर्ष बाद उनका मित्र ‘मुरली’वृंदावन यात्रा पर जाकर बीमार होता है और उनके अस्पताल में इलाज हेतु पहुंँचता है।
वह बताता है कि डॉक्टर मोहन की पत्नी सुरभि को पक्षाघात हुआ है। बेटे ने प्रेम विवाह कर लिया है। सुरभि घर में उपेक्षित, दुखी और अपमानित है।डॉ. मोहन निर्लिप्तता से सुन कर ,अविचलित ही रहते हैं। लेकिन जब मुरली कहता है कि “सप्तपदी के दौरान तुमने जो वचन सुरभि भाभी को दिए थे क्या वे झूठे थे? क्या तुमने जीवन भर दुख सुख में साथ निभाने का वचन नहीं दिया था?” डॉ. मोहन के संस्कारों के बंधन इतनी मजबूत हैं कि वे सब कटुता भूल अपनी पत्नी का साथ देने हेतु तैयार हो जाते हैं।
इनकी ज्वलंत समस्या “समलैंगिकता ” को आधार बना कर लिखी गई एक लघु कथा की बानगी देखिए जो समलैंगिक संबंधों की कानूनन अवैधता (धारा 377)समाप्ति पर लिखी है । इसमें एक बेरोजगार,आवारा पुत्र जिसकी शादी नहीं हो पा रही थी,अपनी माँ को इस बात की जानकारी देते हुए खुशी जाहिर करता है और अपने पुरुष मित्र को ही घर मे रखने   की स्वीकृति चाहता है।  माँ अपनी लाठी की फटकार से उसे नैतिकता का पाठ पढाती है…… । ये अब तक करीब 80 लघु कथाएं, 30 कहानियां और डेढ़ सौ कविताओं का सृजन कर चुकी हैं।
परिचय :
सुमन लता शर्मा की रचनाओं का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ऑन लाइन मंचों पर रचनाओं का प्रकाशन और प्रसारण होता रहा है। साहित्य सृजन के साथ-साथ आप समाज सेवा कार्यों से भी जुड़ी हैं। ये शिक्षा विभाग से सेवा निवृत प्रधानाचार्य हैं। वर्तमान में स्वाध्याय और लेखन में सक्रिय हैं।
संपर्क :
सुमन लता शर्मा
महात्मा गांधी हॉस्पिटल
आजाद पार्क के सामने कोटा देवली रोड.
बूंदी -323001(राजस्थान )
मोबाइल : 94140 00102
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भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती उत्पादों की मांग

भारत में आज भी लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है एवं अपने जीवन यापन के लिए मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र पर ही आश्रित रहती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किये जा रहे विकास कार्यों के चलते इन क्षेत्रों में विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत व्यय की जाने वाली राशि में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है। इससे, ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार के नए अवसर निर्मित होने लगे हैं एवं ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कुछ कम हुआ है। विशेष रूप से कोरोना महामारी के खंडकाल में शहरों से ग्रामीण इलाकों की ओर शिफ्ट हुए नागरिकों में से अधिकतर नागरिक अब ग्रामीण क्षेत्रों में ही बस गए हैं एवं अपने विशेष कौशल का लाभ ग्रामीण क्षेत्रों में नागरिकों को प्रदान कर रहे हैं।

हाल ही में जारी किए गए कुछ सर्वे प्रतिवेदनों के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोग की एक नई कहानी लिखी जा रही है क्योंकि अब विभिन्न उत्पादों की मांग ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती दिखाई दे रही है। उपभोक्ता वस्तुओं एवं ऑटो निर्माता कम्पनियों द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में हाल ही के समय में उपभोग की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं एवं दोपहिया एवं चार पहिया वाहनों (ट्रैक्टर सहित) की मांग में तेजी दिखाई दे रही है, जो कि वर्ष 2023 में लगातार कम बनी रही थी। यह संभवत: रबी फसल के सफल होने के चलते भी सम्भव हो रहा है।

उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने भी हाल ही में सम्पन्न अपनी द्विमासिक मोनेटरी पॉलिसी की बैठक में रेपो दर में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं की है, ताकि बाजार, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के बाजार में, उत्पादों की मांग विपरीत रूप से प्रभावित नहीं हो, ताकि इससे अंततः वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश के आर्थिक विकास की दर भी अच्छी बनी रहे।

भारत में पिछले कुछ समय से ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न उत्पादों की मांग, शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध मांग की तुलना में कम ही बनी रही है। परंतु, वित्तीय वर्ष 2023-24 की तृतीय तिमाही के बाद से इसमें कुछ परिवर्तन दिखाई दिया है एवं अब ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग में तेजी दिखाई देने लगी है। यह तथ्य विकास के कुछ अन्य सूचकांकों से भी उभरकर सामने आ रहा है। जनवरी-फरवरी 2024 माह में दोपहिया वाहनों की बिक्री में, पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान की बिक्री की तुलना में, 30.3 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की गई है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान दोपहिया वाहनों की बिक्री में 9.3 प्रतिशत की वृद्धि दर रही है, जो हाल ही के कुछ वर्षों में अधिकतम वृद्धि दर मानी जा रही है। दोपहिया वाहनों की बिक्री ग्रामीण इलाकों (लगभग 10 प्रतिशत) में शहरी इलाकों (लगभग 7 प्रतिशत) की तुलना में अधिक रही है। महात्मा गांधी नरेगा योजना के अंतर्गत प्रदान किए जाने वाले रोजगार के अवसरों की मांग में भी फरवरी-मार्च 2024 माह के दौरान 9.8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में निवासरत नागरिकों को रोजगार के अवसर अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध हो रहे हैं। इसी प्रकार, ट्रैक्टर की बिक्री में भी जनवरी-फरवरी 2024 माह के दौरान 16.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में कुल 892,313 ट्रैक्टर की बिक्री हुई है जो पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 की तुलना में 7.5 प्रतिशत अधिक है।

भारत के मौसम विभाग द्वारा जारी की गई भविष्यवाणी के अनुसार, वर्ष 2024 के मानसून मौसम के दौरान भारत में मानसून की बारिश के सामान्य से अधिक रहने की प्रबल सम्भावना है। इससे भारत के किसानों में हर्ष व्याप्त है क्योंकि मानसून के अच्छे होने से खरीफ की फसल के भी बहुत अच्छे रहने की सम्भावना बढ़ गई है। मौसम विभाग के सोचना है कि इस वर्ष अल नीनो के स्थान पर ला नीना का प्रभाव दिखाई देगा। अल नीनों के प्रभाव में देश में बारिश कम होती है एवं ला नीना के प्रभाव में देश में बारिश अधिक होती है। साथ ही, भारतीय किसान अब तिलहन, दलहन एवं बागवानी की फसलों की ओर भी आकर्षित होने लगे हैं। दालों, वनस्पति, फलों एवं सब्जियों के अधिक उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि दृष्टिगोचर है। केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न खाद्य उत्पादों की बिक्री के लिए ई-पोर्टल के बनाए जाने के बाद से तो भारतीय किसान अपनी फसलों को वैश्विक स्तर पर सीधे ही बेच रहे हैं और अपने मुनाफे में वृद्धि दर्ज कर रहे हैं। भारतीय खाद्य पदार्थों की मांग अब वैश्विक स्तर पर भी होने लगी है एवं खाद्य पदार्थों के निर्यात में भी नित नए रिकार्ड बनाए जा रहे हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग सामान्यतः अच्छे मानसून के पश्चात अच्छी फसल एवं विभिन्न सरकारों, केंद्र एवं राज्य सरकारों, द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यों पर किए जा रहे खर्चो में बढ़ौतरी के चलते ही सम्भव होती है। केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लागू की गई विकास की विभिन्न योजनाओं पर व्यय में लगातार वर्ष दर वर्ष वृद्धि की जा रही है एवं इसके लिए केंद्रीय बजट में भी बढ़े हुए व्यय का प्रावधान प्रति वर्ष किया जा रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर निर्मित हो रहे हैं एवं इन इलाकों में विभिन्न उत्पादों की मांग भी बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।

नीलसन द्वारा किए गए एक सर्वे के यह बताया गया है कि जनवरी एवं फरवरी 2024 माह में भारत में विभिन्न उत्पादों की शहरी क्षेत्रों में मांग 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में मांग 2.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। विशेष रूप से फरवरी 2024 के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग में वृद्धि लगातार बढ़ती दिखाई दे रही है। रबी की फसल के भी अच्छे रहने की सम्भावना बलवती हुई है जिसके कारण किसानों की मनोदशा भी सकारात्मक बन रही है और यह वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश की आर्थिक वृद्धि दर को बलवती करने के मुख्य भूमिका निभाने जा रही है। आज देश की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है यदि ग्रामीण क्षेत्रों में निवासरत नागरिकों की मनोवृत्ति सकारात्मक हो रही है तो निश्चित ही वित्तीय वर्ष 2024-25, आर्थिक विकास की दृष्टि से अतुलनीय परिणाम देने वाला वर्ष साबित होने जा रहा है।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक हैं और विभिन्न विषयों पर लिखते रहते हैं।)

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जितेन्द्र निर्मोही को अमराव देवी पहाड़िया राजस्थानी गद्य का शीर्ष पुरस्कार

कोटा। नेम प्रकाशन डेह राजस्थानी भाषा पुरस्कार 2024 की घोषणा आज विधिवत कर दी गई है। राजस्थानी भाषा साहित्य के उन्नयन एवं संवर्धन हेतु उक्त संस्था द्वारा लगभग चौबीस पुरस्कार विभिन्न विधाओं के अंतर्गत समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के नाम से दिए जाते हैं।

इसके अंतर्गत राजस्थानी भाषा का शीर्ष गद्य पुरस्कार जो अमरा देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार के नाम से दिया जाता है। वर्ष 2024 का अमराव देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार 2024 कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार जितेन्द्र निर्मोही को उनकी आलेख कृति ” राजस्थानी काव्य में सिणगार” के लिए दिया जाएगा।इस कृति में प्राचीन काल से लेकर आज़ तक के श्रृंगार काव्य की विवेचना की गई है। इसमें हाड़ौती अंचल की नई और पुरानी पीढ़ी पर भी आलेख है।

समारोह डेह नागौर में 9 जून को आयोजित किया जाना संभावित है। कार्यक्रम संयोजक पवन पहाडिया ने अवगत कराया कि उक्त पुरस्कार अंतर्गत ग्यारह हजार रुपए शाल श्रीफल और सम्मान पत्र प्रदान किया जाकर साहित्यकार को समादृत किया जाएगा। ज्ञातव्य है कि जितेन्द्र निर्मोही को इससे पूर्व उनके राजस्थानी उपन्यास ” रामजस की आतमकथा” पर रोटरी क्लब बीकानेर से खींवराज मुन्ना लाल सोनी राजस्थानी गद्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।

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फ़िल्म “प्यार के दो नाम” का ट्रेलर रिलीज़

रिलायंस एंटरटेनमेंट प्रस्तुत और दानिश जावेद द्वारा निर्देशित “प्यार के दो नाम” का ट्रेलर रिलीज़ किया गया हैं। फ़िल्म में भव्या सचदेवा और अंकिता साहू मुख्य भूमिका में हैं फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ या ‘एक दूसरे के साथ’ टैग लाइन पर आधारित हैं । इश्क़ सुभानअल्लाह, सूफियाना, प्यार मेरा एवं सन्यासी मेरा नाम जैसे रोमांटिक धारावाहिक एवं फिल्मों के लेखक दानिश जावेद द्वारा निर्देशित फ़िल्म “प्यार के दो नाम” एक आधुनिक प्रेम कहानी हैं जो युवाओं के बीच में प्यार को लेकर आधुनिक सोच को बहुत ही इमोशनल तरीके से प्रस्तुत करती हैं ।

फ़िल्म के ट्रेलर की शुरुआत मुख्य अभिनेत्री के एक संवाद से होती हैं “फ़िल्म की प्यार एक हादसा हैं जो कभी भी किसी से हो सकता हैं । बैकग्राउंड में एक अनाउंसमेंट होती हैं आज के इस मुकाबले में हमे नेल्सन मंडेला और महात्मा गांधी में से किसी एक को पीस लीडर चुनना हैं। ट्रेलर के अगले हिस्से में आर्यन खन्ना कहते हैं मंडेला जी की ज़िंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा, हिंसा के ज़रिए अपनी जंग लड़ने में गया। फिर कयारा सिंह कहती हैं महात्मा गांधी अहिंसा वादी थे उन्होंने कभी भी शांति के लिए हिंसा का समर्थन नहीं किया।

कायरा सिंह की माँ सवाल करती है “कितने सारे लड़के तेरे आगे हाथ बढ़ाते हैं मगर तू किसी का भी हाथ नहीं थामती । तो वह जवाब देती हैं कि मैं बिना सोचे समझे मैं अपना हाथ किसी लड़के नहीं सौपेंगी।

ट्रेलर के दूसरे हिस्से में आर्यन खन्ना कहता हैं “तुम्हारी खूबसूरत आँखें मुझे सोने नहीं देती तुम्हारा यह चेहरा मुझे चैन नहीं लेने देता। एक और प्रेमी जोडे के बीच बहस होती हैं हमारी शादी इम्पॉसिबल हैं कबीर, टीवी डिबेट होगी, कुछ लोग मेरे घर के सामने प्रदर्शन करेंगे और कुछ लोग तुम्हारे घर के सामने धरना देंगे। इस का जवाब देते हुए लड़का कहता हैं “हम इस समाज को छोड़ देंगे कही दूर चले जाएँगे। ट्रेलर के इस हिस्से से दो प्रेमियों के बीच मजहब की दीवार की बात होती हैं। कुछ रोमांटिक विज़ुअल्स के बाद एक संवाद आता हैं मैं तुमसे प्यार करने लगी थी आर्यन। और आर्यन कहता हैं मैं अपने पूरे साथ जन्म तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ।

ट्रेलर के आख़िरी संवाद “अब चाहे एक पाल हो या एक जिंदगी मैं तुमसे प्यार नहीं कर सकती” फ़िल्म का २ मिनट और ३७ सेकंड का ट्रेलर टाइटल ट्रैक के यह ट्रेलर एक फ्रेश लव स्टोरी का एहसास कराता हैं । ट्रेलर में दो मधुर गाने भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

रिलायंस एंटरटेनमेंट और जोकुलर एंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड की फ़िल्म “प्यार के दो नाम” में मुख्य भूमिका में भव्या सचदेवा , अंकिता साहू के साथ कनिका गौतम, अचल टंकवाल , दीप्ति मिश्रा , नमिता लाल प्रमुख भूमिकाओं में नज़र आएँगे । फ़िल्म के निर्माता विजय गोयल और दानिश जावेद है, और सह निर्माता शहाब इलाहाबादी है। फ़िल्म के लेखक निर्देशक दानिश जावेद हैं इस अनोखी लव स्टोरी का संगीत अंजन भट्टाचार्य और शब्बीर अहमद ने तैयार किया है और गीतों को दानिश जावेद और वसीम बरेलवी ने लिखा हैं । गीतों को जावेद अली, ऋतु पाठक, राजा हसन और स्वाति शर्मा ने गाया हैं।

फ़िल्म के लेखक निर्देशक दानिश जावेद ने कहा कि यह फ़िल्म विश्व के दो महान नेताओं के सिद्धांतों पर आधारित आज की प्रेम कहानी हैं। यह पहली प्रेम कहानी हैं जो आज के युवाओं के प्रेम की बात करती हैं ।

फ़िल्म के निर्माता विजय गोयल ने कहा कि ”इस फ़िल्म, प्यार के दो नाम महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला के प्रेम दर्शन के बीच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कैंपस में एक अनोखी लव स्टोरी हैं।

फ़िल्म की शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान के सम्मान में “विश्व शांति नेता” को चुनने के लिए एक सेमिनार की घोषणा के साथ होती हैं। कायरा सिंह और आर्यन खन्ना भी सेमिनार में भाग लेने आए हैं। पहली मुलाकात में दोनों के बीच खट्टी-मीठी लड़ाई शुरू हो जाती है, यहीं से दो विचारधाराओं का टकराव शुरू होता है। जहां कायरा इस बात पर अड़ी है कि अगर प्यार है तो हमें जिंदगी भर साथ रहना होगा, वहीं आर्यन का मानना है कि जब तक प्यार है, हम साथ रहेंगे, प्यार खत्म, साथ खत्म। ३ मई को “प्यार के दो नाम” देशभर के सिनेमागृहों में रिलीज होगी।

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चित्रनगरी संवाद मंच में लेखन और अभिनय की चुनौतियों पर चर्चा

चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई के सृजन संवाद में रविवार को प्रतिष्ठित कथाकार धीरेंद्र अस्थाना अपनी जीवन संगिनी ललिता अस्थाना के साथ पधारे। कथाकार सूरज प्रकाश और देवमणि पांडेय ने उनसे संवाद किया। धीरेंद्र जी ने देहरादून से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई तक के अपने पत्रकारिता कैरियर और रचनात्मक सफ़र को रोचक तरीके से बयान किया। अपनी लेखन यात्रा में उन्होंने अपनी जीवन संगिनी ललिता जी के योगदान को भी रेखांकित किया। कहानी की रचना प्रक्रिया के संदर्भ में धीरेंद्र जी ने कई महत्वपूर्ण बातें साझा कीं।

सूरज प्रकाश ने उनकी कहानी के पात्रों पर सवाल किया। धीरेंद्र जी ने बताया- “अपनी चर्चित कहानी ‘बहादुर को नींद नहीं आती’ लिख तो मैंने कुछ घंटों में ली थी। लेकिन उस पर मेरा होमवर्क पूरे दस साल चला। मैंने अपनी और अन्य अनेक सोसायटी के वाचमैनों से लगभग मित्रता जैसी की। उनके सुख-दुख में शामिल हुआ। उनसे जुड़े हर ब्यौरे का बारीकी से अध्ययन किया। उनके संघर्षों को ही नहीं, उनके सपनों को भी पकड़ा। इस सबमें पूरे दस साल निकल गए और उसके बाद जब कहानी लिखी और फिर छपी तो धमाल हो गया। कम से कम सौ लेखकों पाठकों ने फोन कर कहा कि यह तो उनकी सोसायटी के वाचमैन की कहानी है।”

धीरेंद्र जी ने कई श्रोताओं के सवालों के जवाब दिए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने ने बताया कि दिल्ली बहुत निर्मम और मुंबई बहुत दिलदार शहर है।

दूसरे सत्र में अभिनय की चुनौतियों पर चर्चा करते हुए अभिनेता शैलेंद्र गौड़ ने अपने गृहनगर मुजफ्फरनगर के शैक्षिक माहौल से लेकर दिल्ली में इब्राहिम अलकाज़ी के सानिध्य में अपनी रंगमंचीय सक्रियता को विस्तार से पेश किया। वीर सावरकर फ़िल्म में सावरकर की मुख्य भूमिका के लिए अपने संघर्ष का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अंडमान की जेल में फ़िल्माए गए फ़िल्म के उन दृश्यों को याद किया जब उन्हें सिर्फ़ चड्डी पहन कर कोल्हू चलाना पड़ता था। एक अभिनेता विभिन चरित्रों को कैसे आत्मसात करता है इस पर उन्होंने सलीक़े से अपना पक्ष रखा।

शैलेंद्र गौड़ ने श्रोताओं के कई सवालों के जवाब भी दिए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि सावरकर की भूमिका के कारण उन्हें एक ख़ास विचारधारा का समझ लिया गया और सिने जगत में उनके कैरियर को नुक़सान पहुंचा। शुरुआत में सविता दत्त ने शैलेंद्र गौड़ का परिचय पेश किया। अंत में लोकप्रिय उदघोषक आरजे प्रीति गौड़ ने मंटो की तीन लघुकथाओं का पाठ असरदार ढंग से किया। इस अवसर पर पत्रकारिता और लेखन जगत के कई महत्वपूर्ण क़लमकार उपस्थित थे।

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फिल्मी चकाचौंध के पीछे कला, संस्कृति और भाषा का सौंदर्य बोध

वह कौन सा साल था याद नहीं. दूरदर्शन पर ऋत्विक घटक की फिल्में दिखाई जा रही थीं. रात करीब पौने ग्यारह बजे से ‘मेघे ढाका तारा’ दिखाई जानी थी. उम्र कम थी मगर किताबों-पत्रिकाओं की बदौलत निर्देशक के बारे में थोड़ा-बहुत जान गया था. टीवी की श्वेत-श्याम छवियों की उजास और परछाइयां उस अंधेरे कमरे में फैलती-सिटमती रहती थीं. मां मेरे साथ देखते-देखते जाने कब सो गईं. मुझे फ़िल्म समझ में नहीं आ रही थी मगर जाने किस सम्मोहन में बंधा पूरी फ़िल्म देखता जा रहा था. फिर एक वक्त आया जब खुले श्यामल आकाश के नीचे फ़िल्म की नायिका नीता की आर्त पुकार सुनाई देती है, “दादा, आमी बाचते चाई…”. कुछ समझ में नहीं आया मगर उस अनजान भाषा में उफनती बेचैनी मेरे भीतर घर कर गई. उसके बाद एक लंबा अर्सा गुजर गया. फिल्म भूल गई मगर सालों तक वो आवाज़ मेरे साथ रही, “दादा, आमी बाचते चाई…”.
कुछ आवाज़ें आपका जीवन भर पीछा करती हैं…
भाषाओं से परे, इन आवाज़ों में एक संगीत होता है, एक नाद, एक रिदम… जहां से वे हमारे लिए अर्थ ग्रहण करती हैं. उन अनजान ध्वनियों में कोई नया अर्थ है. यह अर्थ शब्दातीत होता है. ठीक उसी तरह जैसे किसी परिंदे की आवाज, या बादलों की गरज, या भरी दोपहर में मक्खियों की भनभनाहट. बांग्ला भाषा के इस सौदर्य से मेरा सबसे गहरा परिचय निःसंदेह सत्यजीत रे की फिल्मों से हुआ होगा.
जब उन्हें ऑस्कर मिला था तो उनकी एक-दो छोड़कर लगभग सभी फ़िल्में दूरदर्शन पर दिखाई गई थीं. ‘चारुलता’ फिल्म में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया गीत “फुले फुले ढोले ढोले” सुनते हैं जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के एक गीतिनाट्य ‘कालमृगोया’ से लिया गया था. दोपहर की खामोशी में झूले पर गुनगुनाती नायिका की बहुत हल्की अस्पष्ट सी आवाज, उस पंख सी हल्की, जो नीचे घास पर लेटे नायक के हाथों में है. धीरे-धीरे आवाज़ स्पष्ट होती जाती है. जिन्होंने भी ‘चारुलता’ देखी, झूले की लय के साथ वो गुनगुनाहट उन्हें हमेशा के लिए याद रह गई होगी.
इसके बिल्कुल उलट संदर्भ में याद रह जाता है फिल्म ‘प्रतिद्वंद्वी’ का वो दृश्य जब नायक इंटरव्यू देने जाता है. बहुत ही कुशलतापूर्वक संपादित दृश्यों के इस कोलाज़ में अचानक नायक से एक प्रश्न टकराता है, “व्हाट इज़ द वेट ऑफ द मून?” वह हैरत में पड़ जाता है. अंगरेज़ी की बजाय बंगाली में पूछ बैठता है कि इस सवाल का मेरी नौकरी से क्या रिश्ता? इंटरव्यू लेने वाला कहता है कि यह तय करना तुम्हारा काम नहीं है. अंत में नायक का बंगाली में थका-हारा सा जवाब “जानी ना…” भाषा की सीमाओं को तोड़ता-फोड़ता हर दर्शक को छू जाता है.
‘देवदास’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, परिणीता ‘अमानुष’, ‘आनंद आश्रम’, ‘अमर प्रेम’ जैसी सत्तर के दशक की बेहतरीन फ़िल्में बंगाल की कहानियों और वहां के परिवेश पर आधारित हैं. शरतचंद्र और बिमल मित्र तो जैसे किसी दौर में पढ़े-लिखे हिंदी भाषी मध्यवर्ग के घर-घर में पढ़े जाने वाले लेखक थे. दूरदर्शन पर आने वाले टीवी सीरियल में लंबे समय तक बंगाल की कहानियों का जादू छाया रहा. बिमल मित्र और शरत चंद्र के उपन्यासों पर आधारित ‘मुज़रिम हाजिर’ और ‘श्रीकांत’ जैसे सीरियल खूब लोकप्रिय हुए.
बंगाली सिनेमा से अलग मराठी सिनेमा सत्तर और अस्सी के दशक में बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ था. न ही हिंदी के सिनेमा प्रेमियों के बीच मराठी फ़िल्मों पर कोई बात होती थी. सन 2004 में ‘श्वास’ जैसी फिल्म से मराठी सिनेमा ने अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से निकलकर चर्चा पाई. जबकि इसके उलट हिंदी के समानांतर सिनेमा की जड़ें हिंदी और मराठी साहित्य में नज़र आती हैं. जहां एक तरफ राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर और मन्नू भंडारी की कहानियां और उपन्यास इस पैरेलल सिनेमा के लिए कच्ची सामग्री बन रहे थे, वहीं मराठी के जयवंत दलवी, विजय तेंडुलकर और महेश एलकुंचवार जैसे नाटककार हिंदी सिनेमा को समृद्ध कर रहे थे.
श्याम बेनेगल और गोविंद निहलाणी का सिनेमा में मराठी भाषा और संस्कृति की काफी अनुगूंज होती थी. हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘भूमिका’ की सिर्फ भाषा ही हिंदी है मगर उसके सारे स्रोत मराठी भाषा और संस्कृति में मौजूद हैं. गोविंद निहलाणी की ‘अर्ध सत्य’ में मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविता का जितना प्रभावशाली इस्तेमाल हुआ है, वैसी कोई दूसरी मिसाल कम ही मिलती है. दिलचस्प बात यह है कि खुद दिलीप चित्रे ने हिंदी भाषा में ‘गोदाम’ के नाम से एक अनूठी फिल्म बनाई थी, जिसमें केके रैना ने अभिनय किया था. इसी तरह से सिर्फ एक ही फिल्म बनाने वाले रवींद्र धर्मराज ने जयवंत दलवी के नाटक पर बनी फिल्म ‘चक्र’ के जरिए झुग्गी-झोपड़ियों रहने वाले आवारा-उचक्कों के जीवन का बहुत ही यथार्थवादी चित्रण किया था.
भाषाओं ने एक-दूसरे से बहुत कुछ लिया है…
बहुभाषी सिनेमा दिखाने के लिए मुझे अस्सी के दशक के दूरदर्शन को शुक्रिया कहना होगा. किसी अन्य भाषा की पहली फिल्म देखी थी ‘निन्जरे किल्लते’, जिसे तमिल भाषा की बेस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड मिला था. रविवार को दिखाई जाने वाली इन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों में बहुत सी बेहतरीन फ़िल्में देखने को मिलीं. इसमें एक यादगार तेलुगु फिल्म है ‘सागर संगमम’ (1983) जिसमें अद्भुत कंट्रास्ट के साथ मृत्यु और आंसुओं के बीच नृत्य की परिकल्पना की गई थी. इसे कमल हासन और जयाप्रदा के नृत्य से सजाया गया था.
कमल हासन अपनी असाधारण नृत्य प्रतिभा से यहां ‘डांस लाइक अ मैन’ की परिकल्पना साकार करते हैं. दक्षिण की फिल्में अपने परिवेश, सांस्कृतिक संदर्भों और कलात्मक आग्रह की वजह से तो ध्यान खींचती ही थीं, इनके निर्माण में एक अलग किस्म की लय होती थी. खास तौर पर दक्षिण की फिल्मों का संपादन नृत्य और तालबद्ध संगीत के प्रति उनके अनुराग से बहुत मेल खाता था. इस लिहाज से बहुत सी दक्षिण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर लगती हैं. हर भाषा के सिनेमा की अपनी एक अलग पहचान थी. मलयालम सिनेमा के पास ठहराव और कहानी कहने का धैर्य था. तमिल और तेलुगु सिनेमा अपनी कलात्मक उत्कृष्टता और सौंदर्य के कारण प्रभावित करता था. वहीं कन्नड़ सिनेमा का रवैया यथार्थवादी था.
बंगलुरु में हर शुक्रवार एक साथ छह भाषाओं में फिल्में रिलीज़ होती थीं. जिन दिनों मैं वहां नौकरी करता था विभिन्न भाषाओं के पोस्टर मेरा ध्यान खींचते थे. मेरा ऑफिस बीटीएम लेआउट में था और रास्ते में एक लंबी खाली दीवार पर उन फ़िल्मों के पोस्टर चिपके होते थे. धीरे-धीरे मैं उन पोस्टरों को देखकर यह अंदाजा लगाने लगा था कि वह किस भाषा की फ़िल्म होगी. एक बात और जो मेरा ध्यान आकर्षित करती थी, वह थी कि ये पोस्टर कहानी में आपकी रुचि जगाते थे. उत्तर
भारत में 80 और 90 के दशक वाले उबाऊ पोस्टर देखकर बड़े हुए लड़के के लिए यह सुखद आश्चर्य था. हमें तो आदत पड़ी थी हर फिल्म के पोस्टर पर चीखते हुए, थोड़ा सा खून बहाते नायकों के मुखड़े देखने की. मगर दक्षिण भारत के सिनेमा पोस्टरों कोई कहानी सी कहते नज़र आते थे. उन पोस्टरों में कुछ भी हो सकता था- तितली के पीछे भागती नायिका, पगडंडी पर साइकिल चलाते लड़का-लड़की, कार या ट्रक के बोनट पर बैठा हीरो या फिर उसके नायकत्व को ग्लोरीफाई करती उसकी कोई स्टाइल. इन सबसे बढ़कर पोस्टर पर कलात्मक शैली में लिखी गई उन भाषाओं की लिपियां…
भाषाओं का सौंदर्य उनकी ध्वनि और नाद में भी होता है…
शुरू-शुरू में सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं की ध्वनि एक सी लगती थी, मगर बंगलुरु रहने के दौरान उन ध्वनियों में फ़र्क़ समझ में आने लगा. तमिल में ऐसा लगता था कि जैसे अनुस्वार की बहुतायत है, तेलुगु जो बोलते उसकी ध्वनि में मौजूद गीतात्मक लय बहुत सुरीली मालूम पड़ती और मलयालम सबसे अलग, ऐसा लगता मानो कोई अपनी हथेली से थपकियां या हथेली से ताल दे रहा है. जाहिर है इन उपमाओं के जरिए भाषा को अनुभव कर पाना मुश्किल होगा. मगर यही आरंभिक तरीका था. इसी कॉमन सेंस की बदौलत मैं दक्षिण भारतीय भाषाओं के बीच अंतर को पहचानने लगा था.
जब हम सिनेमा की तरफ आते हैं तो यही ध्वनि और नाद काफी हद तक संगीत में सामिल हो जाता है. कर्नाटक संगीत में ताल और पैटर्न का इस्तेमाल होता है जो गणितीय संरचना पर आधारित होता है. वायलीन और मृदंगम के इस्तेमाल को दौर से सुनें तो ऐसा लगता है कि जैसे इन्हीं दोनों वाद्ययंत्रों की संरचना पूरे कर्नाटक संगीत का आधार है. वायलीन की तान और मृदंगम की थाप. इलैया राजा को सबसे पहले सुना जिनके संगीत में आधुनिकता के साथ दक्षिण के परंपरागत शास्त्रीय संगीत की अनुगूँज थी. ‘मालगुड़ी डेज़’ के जरिए देश भर को “ता ना ना ताना नाना ना” की धुन सुनाने वाले एल वैद्यनाथ भी कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में अपनी प्रतिभा के कारण अलग से पहचाने जाते थे. आने वाले समय में एआर रहमान और एमएम क्रीम ने भी भाषाओं की सीमाएं तोड़ीं और हिंदी सिनेमा के दर्शकों को कई लोकप्रिय गीत दिए.
अपनी भाषा में रचा-बसा कोई भी सिनेमा एक अलग गंध लेकर आता है, जो कुछ-कुछ बचपन में मिट्टी या हरी दूब से उठती हुई हमने महसूस की थी. भारतीय सिनेमा में भाषाएं हमें एक गहरे जमीनी सरोकार से जोड़ती हैं. इसकी शाखाएं हर दिशा में फैली हुई हैं. हिंदी क्षेत्र की संभवतः पहली आंचलिक भाषा की फ़िल्म ‘बिदेसिया’ फिल्म में महेंद्र कपूर और मन्ना डे जब गाते हैं –
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में
दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर
इस गीत के फिल्मांकन में ऊंट पर गुजरते गवैये और उनके पीछे आकाश में उमड़ते सफेद बादल एक अलग किस्म का प्रभाव पैदा करते हैं. अगले ही दृश्य में झर-झर पानी गिरने लगता है और नायिका की आँखों से आँसू भी. आँचलिक बोली इस दृश्य में और अधिक करुणा और विश्वसनीयता का संचार करती है. मुंबई के सिनेमा ने अपनी भाषा पारसी थिएटर से उधार ली और उसी को अपना लिया क्योंकि उन फिल्मों देश के हर क्षेत्र में कारोबार करना था. मगर जब उत्तर भारत की मिट्टी से जुड़ने की बात आई तो हिंदी सिनेमा ने हर बार अवधी मिश्रित हिंदी का सहारा लिया और इसने एक ऐसी अलग भाषा रच दी जिसका अस्तित्व दरअसल सिर्फ सिनेमा के स्क्रीन तक ही सीमित है मगर उसकी मिठास ऐसी की बरसों-बरस नहीं भुलाई जाएगी. सरल शब्दों में कही गई अर्थपूर्ण और जीवन में रस घोलती बात. इसके सबसे दिलचस्प और सफल दो उदाहरण आज भी हमारे सामने हैं, ‘गंगा जमुना’ और ‘नदिया के पार’. इन दोनों फ़िल्मों के गीतों और संवादों की मिठास आज भी कायम है. ‘गंगा जमुना’ के गीतों जैसा सुंदर प्रयोग अमूमन भाषा में नहीं मिलता है, जैसे –
मोरा बाला चन्दा का जैसे हाला रे
जामें लाले लाले हाँ,
जामें लाले लाले मोतियन की
लटके माला
दुर्भाग्य से आंचलिक भाषा का सिनेमा सस्ती व्यावसायिकता और अपसंस्कृति में लिपटता-घिसटता अपनी पहचान ही खो बैठा. सिनेमा ने एक बनावटी भोजपुरी भाषा का निर्माण किया जो द्विअर्थी या सीधे कहे गए अभद्र इशारों से भरी हुई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल की सीमा तक के विशाल हरे-भरे इलाके की भाषाई विविधता कभी सिनेमा में आ ही नहीं पाई. जिसमें अवधी, भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका और मैथिली जैसी भाषाएं हैं. अभी इनमें नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली जैसी सीमित क्षेत्रों की बोलियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है, जो शायद ही कभी सिनेमा का हिस्सा बन पाएं. वहीं मुख्यधारा हिंदी सिनेमा में बीते 10 सालों में एक बड़ा बदलाव आया है कि उसने क्षेत्रीय टोन को पकड़ना आरंभ किया है. बुंदेलखंड, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, लखनऊ के आसपास की अवधी बोली के शेड्स अब सिनेमा में ध्वनित होने लगे हैं. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘साहब, बीबी और गैंगस्टर’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘गुलाबो सिताबो’, ‘राम प्रसाद की तेरहवीं’, ‘बहुत हुआ सम्मान’ जैसी कई फ़िल्मों में हिंदी की अलग-अलग ध्वनियां देखी जा सकती है.
भाषा का एक सौंदर्य उसकी ध्वनि में होता है तो एक सौंदर्य उसकी लिखावट में बसता है…
सत्यजीत रे की फिल्मों के पोस्टर और स्क्रीन पर उभरते बंगाली लिपि के शीर्षक स्मृतियों में अंकित होते चले जाते थे. सबसे पहले ‘देवी’ फिल्म में शर्मिला टैगोर की अपलक आँखों और बड़ी बिंदी वाली छवि उभरती है और उसके साथ खूबसूरत बांग्ला कैलीग्राफी में देवी का लिखा होना. इसी तरह से रे की एक अन्य फ़िल्म में कैमरा कार में बैठे कुछ दोस्तों की कैजुअल बातचीत से होते हुए बाहर भागते पेड़ों पर जा ठिठकता है और जब स्क्रीन पर ‘अरण्य दिने रात्रि’ लिखा हुआ उभरता है तो हम हतप्रभ हो जाते हैं. सत्यजीत रे खुद एक आर्टिस्ट थे और उन्हें कैलीग्राफी की भी अच्छी समझ थी. उनकी फिल्मों में लिखावट का एक दृश्यात्मक सौंदर्य अलग से उभरता है जो अन्यत्र दुर्लभ है. कुछ ऐसा ही अनुभव असमिया फ़िल्मों के साथ भी होता है. जानू बरुआ की फिल्म ‘हलोधिया चोराये बोंधन खाये’ का शीर्षक पूरी स्क्रीन पर लिखा आता है और उसके बाद नदी उभरती है. जानू बरुआ से लेकर ‘विलेज़ रॉकस्टार’ वाली रीमा दास तक- असमिया सिनेमा में वहां की जमीन, आसमान, हवा और पानी को हम साफ-साफ महसूस कर सकते हैं. यह अलग बात है कि समय के साथ भाषाओं के बीच आवाजाही और बढ़नी चाहिए थी, समय के साथ सिनेमा की आंचलिक पहचान और गहरानी चाहिए थी, अस्मिताओं का सौंदर्य और निखरना चाहिए था. मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है. सार्वजनिक जीवन में हम भले मल्टीकल्चरलिज़्म की तरफ बढ़ रहे हों, सांस्कृतिक रूप से भाषाओं के बीच दीवारें अभी भी खड़ी हैं.
भाषाएं कब हमारे जीवन दाखिल हो जाती हैं और निजी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती हैं, हमें कभी नहीं पता चलता. सिनेमा में बहुभाषिकता हमें ‘अन्य’ के प्रति संवेदनशील होना सिखाती है. तभी हम ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता की हृदय को बेध देने वाली पुकार सुन पाते हैं.
तभी वह पुकार हमें दिनों, महीनों, बरसों तक याद रहती है…
(लेखक कवि-कथाकार, पत्रकार तथा सिनेमा व लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता हैं। देश की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में फिल्मी दुनिया को लेकर उनके कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं) 
(सदानीरा के बहुभाषिकता पर केंद्रित अंक में प्रकाशित आलेख)
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जियो सिनेमा 29 रुपए प्रतिमाह में फिल्में दिखाएगा

जियो सिनेमा ने अपने ऐड-फ्री सब्सक्रिप्श प्लान में कटौती करते हुए इसे 29 रुपये प्रति माह कर दिया है। यह सुविधा एक बार में केवल एक डिवाइस के लिए है। वहीं, ‘फैमिली’ यानी 4 डिवाइसेस में एक साथ लॉगिन की सुविधा वाले प्लान के लिए यूजर्स को ₹89 प्रति महीना चुकाना होगा। इसे दुनिया का सबसे सस्ता ऐड-फ्री सब्सक्रिप्श प्लान बताया जा रहा है।
अभी तक 4  सदस्यों वाले प्लान के लिए हर महीने ₹99 और एक साल के लिए ₹999 रुपए देने होते थे। नया प्लान 25 अप्रैल 2024 से लागू है। कंपनी ने एक स्टेटमेंट जारी कर इस बात की जानकारी दी है। करीब एक साल पहले जियो सिनेमा ने प्रीमियम सब्सक्रिप्शन प्लान लॉन्च किया था।
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भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग (आईएचआरसी) का नया लोगो और आदर्श वाक्य

भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग (आईएचआरसी), अभिलेखीय मामलों पर एक शीर्ष सलाहकार निकाय है। यह अभिलेखों के प्रबंधन और ऐतिहासिक अनुसंधान के लिए उनके उपयोग पर भारत सरकार को परामर्श देने के लिए रचनाकारों, संरक्षकों और अभिलेखों के उपयोगकर्ताओं के एक अखिल भारतीय मंच के रूप में कार्य करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1919 में हुई थी। इसका नेतृत्व केंद्रीय संस्कृति मंत्री करते हैं।

आईएचआरसी की विशिष्ट पहचान और प्रस्तुत लोकाचार को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने के लिए, लोगो और आदर्श वाक्य के लिए डिज़ाइन आमंत्रित किये गये थे। इसके लिए वर्ष 2023 में MyGov पोर्टल पर एक ऑनलाइन प्रतियोगिता शुरू की गई थी। इस प्रतिक्रिया में कुल 436 प्रविष्टियां प्राप्त हुईं।

इस प्रतियोगिता में श्री शौर्य प्रताप सिंह (दिल्ली) द्वारा प्रस्तुत निम्न लोगो और आदर्श वाक्य प्रविष्टि को विजेता के रूप में चुना गया है:

यह लोगो पूरी तरह से भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग की थीम और विशिष्टता को अभिव्यक्त करता है। कमल की पंखुड़ियों के आकार के पृष्ठ भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग को ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए लचीले नोडल संस्थान के रूप में दर्शाते हैं। मध्य में सारनाथ स्तंभ भारत के गौरवशाली अतीत का प्रतिनिधित्व करता है। रंग थीम के रूप में भूरा रंग भारत के ऐतिहासिक अभिलेखों के संरक्षण, अध्ययन और सम्मान के संगठन के मिशन को सुदृढ़ करता है।

आदर्श वाक्य का अनुवाद इस प्रकार है “जहां इतिहास भविष्य के लिए संरक्षित है।” यह आदर्श वाक्य भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग और उसके कार्य के लिए बहुत महत्व रखता है। भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग ऐतिहासिक दस्तावेजों, पांडुलिपियों, ऐतिहासिक जानकारी के अन्य स्रोतों की पहचान करने, एकत्र करने, सूचीबद्ध करने और बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसा करके आयोग यह सुनिश्चित करता है कि मूल्यवान ऐतिहासिक ज्ञान भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रहे। इसलिए, आदर्श वाक्य ऐतिहासिक दस्तावेजों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए इन्हें सुलभ बनाने की आयोग की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

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