Thursday, July 4, 2024
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ख्यातमान कवि रामस्वरूप मुंदड़ा, शिवप्रसाद शर्मा, स्मृति काव्य रत्न सम्मान से सम्मानित

कोटा। ‘रंगीतिका’ संस्था द्वारा साहित्य पुरोधा एवं शिक्षाविद स्वर्गीय शिवप्रसाद शर्मा की जन्म शताब्दी वर्ष समारोह में मंगलवार को बूंदी के ख्यातमान कवि रामस्वरूप मुंदड़ा को शिवप्रसाद शर्मा स्मृति काव्य रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया । कार्यक्रम का आयोजन राजकीय सार्वजनिक मण्डल पुस्तकालय के सभागार में किया गया।

मुख्य अतिथि उपवन संरक्षक अनुराग भटनागर ने बोलते हुए कहा कि ऐसे साहित्यकार बंधुओं के शताब्दी आयोजन समाज को नई दिशा और दशा देते हैं। मुख्य वक्ता कथाकार – समीक्षक विजय जोशी ने कहा वरिष्ठ कवि रामस्वरूप मूंदड़ा की ये कविताएँ इस बात की साक्षी हैं कि प्रेम की उदात्तता जब दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ प्रकृति के सौन्दर्य को आत्मसात् करती है तो जीवन के विविध सन्दर्भ अनुभूति के पथ से होते हुए वास्तविक रूप में उभर कर कविता में समा जाते हैं।’ वहीं ‘ आस्था के दीप ‘ कविता संग्रह की रचनाओं में कवि शिव प्रसाद शर्मा ने अपने परिवेश को सहजता से उभारकर काव्य की विविध विधाओं में रचित किया है जिनमें शैक्षिक वातावरण और काव्य रसिकता उभर कर रचनाओं में सच्चाई की सरिता सी प्रवाहित होती है।

कार्यक्रम के अध्यक्ष साहित्यकार जितेंद्र निर्मोही ने कहा कि- शिक्षक जब साहित्यकार होता है।तो उनके कथन दिवंगत हो जाने के बाद ज्यादा प्रसांगिक हो जाते हैं। स्व शिव प्रसाद शर्मा जी का शताब्दी वर्ष कितने ही आयामों को सदन में छोड़ गया है। वर्तमान स्थिति बाजारवाद के समय किसी वृहद सारस्वत कर्म नहीं। जो काम राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर नहीं कर पाई वो काम रंगितिका संस्था कोटा ने किया है वरिष्ठ साहित्यकार राम स्वरूप मूंदड़ा को समादृत और पुरस्कृत करके।

विशिष्ट अतिथि भगवती शर्मा ने कहा कि- शिवप्रसाद शर्मा शिक्षा, साहित्य और कला की त्रिवेणी थे। हिन्दी व उर्दू में समान रूप से हस्तक्षेप करते थे। बहुत अच्छे कवि थे और रंग कर्मी भी थे। परंपरा की शुरुआत सरल है किंतु निर्वहन कठिन है । फिर भी विश्वास है कि योजना चलती निर्बाध चलेगी। डॉ. दीपक कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि यह सम्मान सचमुच देश की वरिष्ठ काव्य हस्ती को दिया जाना इस पुरुस्कार का कद बताता है जो आने वाले समय मे और कई साहित्यिक विरासत को हौंसला देने वालो को अवसर देगा |

कार्यक्रम संयोजिका स्नेहलता शर्मा ने स्व. शिवप्रसाद शर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इस पुरुस्कार के लिए कुल 19 प्रविष्ठियां प्राप्त हुई जिसमें से वरिष्ठ कवि रामस्वरूप मुंदड़ा कि कृति “कविताओं के इंद्रधनुष के लिए” को निर्णायक मण्डल ने श्रेष्ठ कृति घोषित कराते हुये रामस्वरूप मुंदड़ा को शिवप्रसाद शर्मा स्मृति काव्य रत्न सम्मान से नवाजा | प्रो. मनीषा शर्मा ने कहा सभी कृतियां एक से बढ़ाकर एक थी इसलिए श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठ का चयन किया गया।

मंच संचालन डॉ. वैदेही गौतम ने किया।, महेश पंचोली साहित्यकार ने सभी का स्वागत किया। शहर गणमान्य साहित्यकार एवं काव्य प्रेमी उपस्थित रहे | इस अवसर पर कौशिकी शर्मा ने अपने दादा की एक कविता का वाचन किया।
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

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पंचम ने 9 साल की उम्र में ऐसी धुनें बनाई की पिता एसडी बर्मन ने चुरा ली

200 तरह की मिर्चियां उगाते थे आर.डी. बर्मन:मां ने कहा था- मेरी लाश पर होगी आशा भोसले से शादी, बैंक लॉकर अनसुलझा रहस्य…
‘पिया तू अब तो आजा..’, ‘महबूबा-महबूबा..’, ‘यम्मा-यम्मा…’, ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को..’ जैसे कई बेहतरीन गाने कंपोज करने वाले लीजेंड्री म्यूजिक डायरेक्टर, कंपोजर और सिंगर आर.डी. बर्मन है। 27 जून 1939 को आर.डी. बर्मन का जन्म अपने जमाने के मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन के घर में हुआ था। 5 सुरों में रोते थे तो अशोक कुमार ने उन्हें पंचम दा नाम दिया था।

संगीत का ज्ञान ऐसा था कि महज 9 साल की उम्र में उन्होंने वो धुन बनाई जो चोरी-छिपे पिता ने अपनी फिल्म में इस्तेमाल कर ली। नाराजगी तो थी, लेकिन सालों बाद एक समय ऐसा भी आया जब आर.डी. बर्मन ने पिता के नाम का फायदा उठाकर अपनी धुनें उनके नाम पर बेची। पहली शादी अपनी एक फैन से की और दूसरी आशा भोसले से। जब आर.डी. बर्मन ने 3 बच्चों की तलाकशुदा मां आशा से शादी करनी चाही तो मां के इनकार के बाद उन्हें कदम पीछे खींचने पड़े। हालांकि, जिंदगी के आखिरी कुछ साल उन्होंने गरीबी और अकेलेपन में गुजारे। जितनी चर्चा जीते जी उनकी रही, उतनी ही मौत के बाद उनके एक लॉकर की भी हुई, उसके अंदर मिला एक नोट आज भी रहस्य ही है।

5 सुरों में रोते थे तो नाम पड़ा पंचम दा, अशोक कुमार ने दिया ये नाम
आर.डी. बर्मन (राहुल देव बर्मन) का जन्म 27 जून 1939 को हिंदी फिल्म के म्यूजिक कंपोजर और सिंगर सचिन देव बर्मन (एस.डी. बर्मन) और मीरा देव बर्मन के घर कोलकाता में हुआ था। उनका नाम तो राहुल था, लेकिन दादी प्यार से उन्हें टुबलू बुलाती थीं।

एस.डी.बर्मन के नक्शे कदम पर आर.डी.बर्मन भी गायिकी में उतरे। बचपन में जब भी रोते थे तो उनके रोने पर 5 सुर निकलते थे। वहीं जब एक बार एस.डी. बर्मन के घर पहुंचे अशोक कुमार ने उन्हें रियाज में प का बार-बार इस्तेमाल करते सुना तो उनका नाम पंचम रख दिया। जब आर.डी. बर्मन हिंदी सिनेमा में आए तो उन्हें पंचम दा नाम से ही पहचाना गया। हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत के मुताबिक पंचम, पांचवे स्केल में गाने को कहा जाता है।

कम उम्र से ही आर.डी. बर्मन का झुकाव पिता की तरह गायिकी की तरफ रहा। वो गायिकी को इतनी तवज्जो देने लगे कि पढ़ाई से ध्यान हट गया। नतीजतन उनके 9 साल की उम्र में नंबर कम आए। जब पिता को ये बात पता चली तो उन्होंने पूछ लिया- क्या तुम्हें पढ़ाई नहीं करनी? आखिर तुम करना क्या चाहते हो?

जवाब मिला- मैं आपसे भी बड़ा संगीतकार बनना चाहता हूं।

पिता, एस.डी. बर्मन- तुमने आज तक कोई धुन भी बनाई है?

पिता के इस सवाल पर आर. डी. बर्मन ने एक- दो नहीं बल्कि 9 ताजी धुन सुना दीं। सिर्फ 9 साल के बच्चे की 9 धुनें सुनकर पिता भी दंग रह गए। उन्होंने कुछ नहीं किया और वहां से चले गए।

कुछ समय बाद एस. डी. बर्मन अपने काम के लिए दोबारा मुंबई लौट आए। सालों बाद फिल्म फंटूश (1956) रिलीज हुई। 17 साल के आर.डी. बर्मन जब कोलकाता में ये फिल्म देखने पहुंचे तो उन्हें जोरदार धक्का लगा। पिता के कंपोजिशन में बने फिल्म के गानों में वही धुन थीं, जो उन्होंने सुनाई थीं। वो गाना था, ‘आई मेरी टोपी पलट के…’।

आर.डी. बर्मन की उम्र कम जरूर थी, लेकिन वो इस बात से काफी नाराज हुए। जब उनकी पिता से मुलाकात हुई तो उन्होंने गुस्से में पूछा- आपने मेरी धुन क्यों चुराई। जवाब मिला- मैं तो ये दख रहा था कि तुम्हारी बनाई धुन लोगों को पसंद आती है या नहीं। 1957 की गुरु दत्त की फिल्म प्यासा के गाने सिर जो तेरा चकराए में भी एस.डी. बर्मन ने अपने बेटे आर.डी. बर्मन की धुनों का इस्तेमाल किया था।

उस्ताद अली अकबर खान, पंडित समता प्रसाद और सलिल चौधरी से संगीत की शिक्षा लेने के बाद आर.डी. बर्मन ने अपने पिता के सहायक बन गए। कई बार बार काम की वजह से दोनों में अनबन हो जाती थी। आर.डी. बर्मन की जिद की वजह से कई बार बर्मन दा स्टूडियो से नाराज होकर चले जाते थे, लेकिन आखिर में बेटे की बात उन्हें माननी ही पड़ती थी।

सबसे पहले 1958 में गुरु दत्त ने आर.डी. बर्मन को फिल्म राज में म्यूजिक कंपोज करने का मौका दिया, लेकिन ये फिल्म कभी बन ही नहीं सकी। इसके बाद उन्होंने 1961 की फिल्म सोलवा साल से बतौर म्यूजिक डायरेक्टर करियर की शुरुआत की थी। दरअसल, महमूद इस फिल्म में एस.डी. बर्मन से गाने कंपोज करवाना चाहते थे। जब इस सिलसिले में वो उनके घर पहुंचे तो एस.डी. बर्मन ने ये फिल्म करने से इनकार कर दिया। इसी समय महमूद की नजर पास के कमरे में तबला बजाते हुए आर.डी. बर्मन पर पड़ गई। फिर गया था, महबूब ने इस फिल्म के गाने कंपोज करने की जिम्मेदारी आर.डी. बर्मन को दे दी।

आर.डी. बर्मन के कंपोजिशन की पहली हिट फिल्म तीसरी मंजिल (1966) थी। इस फिल्म के गाने ‘आजा-आजा मैं हू प्यार तेरा’ और “ओ हसीना जुल्फों वाली’ जबरदस्त हिट रहे। आगे उन्होंने बहारों के सपने, यादों की बारात,और प्रेम पुजारी जैसी फिल्मों के लिए म्यूजिक कंपोज किया।

हिंदी सिनेमा में अपने हुनर के बलबूते कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे आर.डी. बर्मन ने 1966 में रीता पटेल से पहली शादी की थी। दरअसल दोनों का रिश्ता एक मामूली शर्त से शुरू हुआ था। रीता पटेल उनकी बड़ी फैन हुआ करती थीं। एक दिन उन्होंने अपने दोस्तों से शर्त लगाई कि देखना मैं एक दिन आर.डी. बर्मन के साथ डेट पर जाकर दिखाऊंगी। शर्त के अनुसार रीता ने एक दिन मौका पाते ही उनसे डेट का पूछ लिया और वो भी मान गए। एक शर्त से शुरू हुआ किस्सा 1966 में शादी में बदल गया।

पंचम दा के करीबी रहे गुलजार साहब कहते हैं कि वो बेहद बेसब्र रहते थे। जब भी कोई उन्हें गाने की धुन बनाते हुए चाय देता तो वो चाय के ठंडा होने का इंतजार करने की बजाय सीधा उसमें पानी डालकर पी जाया करते थे।

पंचम दा खाने के काफी शौकीन थे। खासतौर पर उन्हें तीखा खाना काफी पसंद था। मिर्ची के वो इतने शौकीन थे कि खुद के घर में कोई 200 तरह की मिर्चियां उगा रखी थीं। दुनियाभर में मिर्ची की कुल 400 जातियां हैं, जिनमें से 200 पंचम दा के होम गार्डन में थीं। उन्हें बागवानी भी पसंद थी।

शादी के 5 साल बाद 1971 में आर.डी. बर्मन और रीता का तलाक हो गया। ये दोनों का मिला-जुला फैसला था। जिस दिन आर.डी. बर्मन का तलाक हुआ, उस दिन वो घर न जाकर एक होटल के कमरे में ठहर गए। यहां अकेलेपन में उन्होंने अपना दर्द समेटकर एक गाना लिख दिया। वो गाना था मुसाफिर हूं यारों, न घर है न ठिकाना… मुझे चलते जाना है। ये गाना एक साल बाद 1972 की फिल्म परिचय में रखा गया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ।

एक तरफ आर.डी. बर्मन की शादी टूट चुकी थी, वहीं दूसरी तरफ उस जमाने की मशहूर गायिकाआशा भोसले अपने सचिव गणपत राव भोसले से अलग होकर तीन बच्चों की जिम्मेदारियां अकेले उठा रही थीं। नाकाम शादियों के गम में डूबे आर.डी. बर्मन और आशा भोसले को एक-दूजे में हमदर्द मिल गया। दोनों की वैसे तो पहली मुलाकात 1956 में फिल्म तीसरी मंजिल के गाने के लिए हुई थी। लगातार साथ काम करते हुए दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे और एक दिन मौका पाते ही आर.डी. बर्मन ने आशा के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया।

आशा तो आर.डी. बर्मन से शादी करने के लिए मान गईं, लेकिन जैसे ही ये बात आर.डी. बर्मन की मां तक पहुंची तो उन्होंने शादी से साफ इनकार कर दिया और कहा, ये शादी मेरी लाश पर ही होगी। इनकार की पहली वजह ये थी कि आशा, आर.डी. बर्मन से 6 साल बड़ी थीं, और दूसरी कि वो 3 बच्चों की मां थीं।

मां के बेटे आर.डी. बर्मन ने भी अपने कदम पीछे खींच लिए। कुछ समय बाद आर.डी. बर्मन के पिता एस.डी. बर्मन का निधन हो गया और मां की मानसिक स्थिति बिगड़ गई। जब मां की हालत में सुधार नहीं दिखा तो आर.डी. बर्मन ने आशा भोसले से 1980 में शादी कर ली।

पिता के गुजरने के बाद आर.डी. बर्मन की मां की मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ गई थी कि उन्होंने अपने बेटे को पहचानने से भी इनकार कर दिया था।

आर.डी. बर्मन के निर्देशन में आशा भोसले ने ‘ओ मेरे सोना ना रे..’, ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को..’, ‘तुम साथ हो जब अपने..’, ‘दम मारो दम..’, ‘दो लफ्जों की है दिल की..’, ‘कह दूं तुम्हें..’, ‘सुन सुन दीदी तेरे लिए..’ जैसे गानों को आवाज दी।

शानदार आवाज के मालिक पंचम दा के पास परफ्यूम का बहुत बड़ा कलेक्शन था। उन्हें सिर्फ मिर्च खाने का ही नहीं बल्कि उगाने का भी शौक था। वो 200 किस्म की मिर्चियां उगाते थे।

आशा भोसले ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में आर.डी. बर्मन से जुड़ा मजेदार किस्सा सुनाया। उन्होंने बताया कि पिता एस.डी. बर्मन के बीमार पड़ने के बाद लोगों ने आर.डी. बर्मन को काम देना लगभग बंद कर दिया था। जब भी वो किसी के पास काम मांगने जाते तो हर कोई बस यही कहता कि यार पंचम तुम्हारी धुनों में वो बात नहीं जो तुम्हारे पिता की धुनों में हुआ करती थी। एक बार जब आर.डी. बर्मन अपनी पत्नी आशा के साथ शक्ति सामंत के पास पहुंचे तो उन्हें फिर यही जवाब मिला कि कुछ नया सुनाओ, जैसा तुम्हारे पिता सुनाया करते थे।

ये सुनकर आर.डी. बर्मन ने पत्नी आशा के कानों में धीरे से कहा, अब तुम मजे देखना। ये कहते ही आर.डी. बर्मन ने शक्ति सामंत से कहा, मेरे पिताजी ने एक धुन बनाई थी, जो आज तक कहीं इस्तेमाल नहीं हुई। क्या वो धुन आपको सुनाऊं। चालाकी से आर.डी. बर्मन ने पिता के नाम से अपनी ही एक धुन सुना दी। वो धुन सुनकर शक्ति सामंत ने तारीफों में कसीदे पढ़ दिए और कहा, मैं कहता हूं ना तुम्हारे पिता की बात ही कुछ और है।

आर.डी. बर्मन की शराब और सिगरेट की लत से परेशान होकर आशा भोसले ने उनका घर छोड़ दिया। आखिरी समय में आर.डी. बर्मन की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। एक समय ऐसा भी रहा जब उन्हें काम मिलना बंद हो गया। सालों बाद विधु विनोद चोपड़ा ने आर.डी. बर्मन की मदद करते हुए उन्हें अपनी फिल्म 1942ः ए लव स्टोरी में म्यूजिक कंपोज करने का मौका दिया।

फिल्म के लगभग सभी गाने सुपरहिट रहे, लेकिन अफसोस कि ये कामयाबी देखने के लिए आर.डी. बर्मन नहीं रहे। 4 जनवरी 1994 को आर.डी. बर्मन 55 साल की उम्र में गुजर गए और फिल्म 15 अप्रैल 1994 को रिलीज हुई। मौत के बाद आर.डी. बर्मन को इस फिल्म के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था।

आर.डी. बर्मन की मौत के कुछ समय बाद आशा भोसले को पता चला कि उन्होंने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बैंक में एक लॉकर ले रखा था। इस लॉकर के लिए आर.डी. बर्मन जीते जी हजारों रुपयों का किराया दिया करते थे। कागजातों के अनुसार आर.डी. बर्मन की मौत के बाद इस लॉकर के हकदार उनके सेक्रेटरी भरत अशर होते। जब भरत से इस बारे में पूछा गया तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। आशा ने अब पूरा घर खंगाला, लेकिन उन्हें भी इसकी चाबी नहीं मिली। ये हाईप्रोफाइल केस था तो हर कोई एक्टिव होकर इसमें लगा हुआ था। पुलिस ने लॉकर सील करवा दिया और जांच शुरू कर दी।

आशा भोसले को भरोसा था कि लॉकर में आर.डी. बर्मन की प्रॉपर्टी के जरूरी पेपर्स, गहने और हीरे की खानदानी अंगूठी मिलेगी। बैंक ने बताया कि आर.डी. बर्मन हर महीने लॉकर का किराया तो देते थे, लेकिन उन्होंने कभी इसे खोला नहीं। आखिरकार 3 मई 1994 को उनका लॉकर खोलने का आदेश जारी हुआ। हर किसी की नजरें उनके लॉकर पर थी। पुलिस, बैंक मैनेजर, आशा मौके पर मौजूद थे।

आखिरकार लॉकर नंबर SBD को चाबी नंबर 1035 से खोला गया। जैसे ही वो लॉकर खुला तो हर कोई हैरान था। उस बड़े से लॉकर में चारों तरफ टॉर्च घुमाया गया, लेकिन उसमें था सिर्फ 5 रुपए का नोट। हर कोई हैरान था कि जिस लॉकर के हजारों रुपए किराए में जाते हैं उसमें कीमती सामान के नाम पर सिर्फ 5 रुपए क्यों हैं। पूरे लॉकर में ये एक ही नोट क्यों था, ये पंचम दा को किसने दिया, इस लॉकर का नॉमिनी उनका सेक्रेटरी ही क्यों था, ऐसे कई सवाल हैं, जिनका आज भी कोई जवाब नहीं मिला है। ये 5 रुपए का नोट आज भी रहस्य है।

साभार- https://www.facebook.com/profile.php?id=61551952226423 से

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प्रयागराज के ऐतिहासिक वृक्ष ‘बाओबाब’ पर डाक विभाग का विशेष आवरण

प्रयागराज के झूंसी में गंगा तट पर अवस्थित ‘बाओबाब वृक्ष’ की आयु 750 से 1350 वर्ष के बीचअफ्रीका के एडानसोनिया डिजिटाटा प्रजाति का दुर्लभ वृक्ष

प्रयागराज में  गंगा तट पर अवस्थित ऐतिहासिक व दुर्लभ वृक्ष बाओबाब‘ अब विशेष डाक आवरण पर

‘बाओबाब वृक्ष’ पर विशेष डाक आवरण से इसकी ऐतिहासिकतावैज्ञानिकता व औषधीय गुणों के बारे में देश-दुनिया में होगा प्रसार- पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव

अपनी विरासत को समृद्ध करने एवं पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहन देने के क्रम में वाराणसी एवं प्रयागराज परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने प्रयागराज प्रधान डाकघर में 30 मई को आयोजित समारोह में ‘बाओबाब वृक्ष’ पर एक विशेष आवरण व विरूपण का विमोचन किया। प्रयागराज के झूंसी में पवित्र गंगा नदी तट पर अवस्थित शेख तकी की मजार के पास मौजूद इस ऐतिहासिक दुर्लभ वृक्ष की आयु 750 से 1350 वर्ष के बीच मानी जाती है और इसके साथ तमाम किवदंतियां और लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। समारोह में निदेशक डाक सेवाएं श्री गौरव श्रीवास्तव और प्रवर अधीक्षक डाकघर श्री अभिषेक श्रीवास्तव भी उपस्थित रहे।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि प्रयागराज और यहाँ का संगम तट सदियों से अपने अंदर तमाम पौराणिक, ऐतिहासिक और समृद्ध विरासतों को सहेजे हुए है। अफ्रीका के एडानसोनिया डिजिटाटा प्रजाति का ‘बाओबाब वृक्ष’ भी उनमें से एक है। ऐसे में इस पर विशेष डाक आवरण और विरूपण के माध्यम से इसकी ऐतिहासिकता, वैज्ञानिकता और औषधीय गुणों के बारे में देश-दुनिया में प्रसार होगा और इसे शोध और पर्यटन से भी जोड़ने में सुविधा होगी। श्री यादव ने कहा कि झूंसी में पवित्र नदी गंगा के बाएं किनारे पर मिट्टी के एक विशाल टीले पर स्थित इस प्राचीन व विशाल वृक्ष को लेकर सदियों से कौतुहल रहा है, जनश्रुति में इसे ‘विलायती इमली’ भी कहा जाता है। गौरतलब है कि झूंसी क्षेत्र का अतीत पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा प्रलेखित है जो ताम्रपाषाण काल से लेकर प्रारंभिक मध्ययुगीन काल तक के पांच सांस्कृतिक चरणों से मेल खाता है।

निदेशक डाक सेवाएं श्री गौरव श्रीवास्तव ने बताया कि ‘बाओबाब’ वृक्ष के तने की मोटाई 17.3 मीटर है और इस वृक्ष का फूल बड़ा तथा फल लंबा और हरे रंग का होता है। ऐसी मान्यता है कि 15वीं शताब्दी में करांची से आए बाबा शेख़ तकी शाह यहाँ रहते थे। इस वृक्ष की छाल को पानी में भिगोकर पीने से पेट का दर्द, सीने की जलन कम होती है, साथ ही यूरिन इन्फेक्शन में भी छाल को लाभकारी माना जाता है।

प्रवर अधीक्षक डाकघर श्री अभिषेक श्रीवास्तव ने बताया कि बाओबाब वृक्ष पर जारी उक्त विशेष आवरण मय विरूपण 25 रुपए में फिलेटलिक ब्यूरो, प्रयागराज प्रधान डाकघर में उपलब्ध होगा।

इस अवसर पर सीनियर पोस्टमास्टर श्री तनवीर अहमद, सहायक निदेशक मासूम रजा रश्दी, राजेश श्रीवास्तव, उपाधीक्षक प्रमिला यादव सहित तमाम अधिकारी-कर्मचारी और फ़िलेटलिस्ट उपस्थित रहे।

 

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निकाह जैसी फिल्म के बाद सलमा आगा कोई पहचान नहीं बना पाई

बहुत से लोगों ने बीआर चोपडा़ से कहा था कि तुम इस लड़की से गीत मत गवाओ। इसकी आवाज़ कुछ अलग ही है। पता नहीं लोगों को पसंद आएगी भी कि नहीं। आशा भोंसले जी से ही निकाह के गीत भी गवाओ। वही तो अब तक तुम्हारी फिल्मों में गीत गाती आई हैं। लेकिन बीआर चोपड़ा ने किसी की नहीं सुनी। उन्हें यकीन था कि इस लड़की और इसकी आवाज़, दोनों को दर्शक पसंद करेंगे। और फाइनली जब 24 सितंबर 1982 के दिन निकाह रिलीज़ हुई तो दर्शक इसे देखकर बहुत खुश हुए। कहा तो ये भी जाता है कि कुछ जगहों पर तो लोगों ने स्क्रीन पर सिक्के भी उछाले थे।

आप समझ ही गए होंगे कि ये लड़की कौन है। ये हैं सलमा आग़ा। जिन्होंने निकाह फिल्म के गीत ‘दिल के अरमां आसुओं में बह गए’ के लिए उस साल फिल्मफेयर बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवॉर्ड अपने नाम किया था। जबकी इसी फिल्म के दो अन्य गीतों ‘दिल की ये आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले’ और ‘फज़ा भी है जवां जवां’ के लिए भी सलमा आग़ा इसी कैटेगरी में नॉमिनेट हुई थी। यूं तो सलमा आग़ा को बेस्ट एक्ट्रेस कैटेगरी में भी नॉमिनेश मिला था। लेकिन वो अवॉर्ड इन्हें ना मिल सका। उस साल बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड राज कपूर की फिल्म प्रेम रोग के लिए एक्ट्रेस पद्मिनी कोल्हापुरे को दिया गया था।

25 अक्टूबर 1962 को सलमा आग़ा का जन्म पाकिस्तान के कराची में हुआ था। सलमा की मां नसरीन एक वक्त की नामी कैरेक्टर आर्टिस्ट अनवरी बाई बेग़म और रफ़ीक गज़नवी की बेटी थी। सलमा आग़ा की मां के जन्म के बाद अनवरी बाई और रफ़ीक गज़नवी का तलाक हो गया और अनवरी बाई ने जुगल किशोर मेहरा से शादी कर ली। जुगल किशोर मेहरा पृथ्वीराज कपूर के सगे साले यानि राज कपूर के सगे मामा थे। तो इस हिसाब से अनवरी बाई राज कपूर की मामी हुई और अनवरी की बेटी नसरीन राज कपूर की सौतेली बहन हुई। यानि इस लिहाज से कहा जा सकता है कि सलमा आग़ा राज कपूर की सौतेली भांजी हैं। सलमा की मां नसरीन भी कुछ फिल्मों में काम कर चुकी थी।

चलिए अब वो कहानी जानते हैं कि कैसे बीआर चोपड़ा की मुलाकात सलमा आग़ा से हुई थी। तो बात कुछ यूं है कि सलमा आग़ा एक दिन संगीतकार नौशाद के लिए एक गाना रिकॉर्ड कर रही थी। वो गाना फिल्म चाणक्य चंद्रगुप्त के लिए था। वही चाणक्य चंद्रगुप्त जिसमें दिलीप कुमार और धर्मेंद्र साथ नज़र आने वाले थे। हालांकि वो फिल्म कभी रिलीज़ नहीं हो सकी। तो सलमा आग़ा नौशाद के निर्देशन में एक गाना रिकॉर्ड कर रही थी। इत्तेफाक से उसी वक्त नौशाद साहब से मिलने बीआर चोपड़ा आ गए। और जैसे ही चोपड़ा साहब ने सलमा आग़ा को देखा, उनके मुंह से निकल पड़ा,”ये तो निलोफर है।”

चोपड़ा साहब के मुंह से निलोफर सुनकर सलमा आगा बोली कि मेरा नाम निलोफर नहीं है। लेकिन चोपड़ा साहब फिर बोले, “नहीं। तुम निलोफर हो।” ये देखकर नौशाद साहब हंसे और उन्होंने बीआर चोपड़ा साहब को बताया कि ये तो एक गायिका हैं। इनका नाम सलमा आग़ा है। तब बीआर चोपड़ा ने बताया कि मैं एक फिल्म बना रहा हूं जिसका नाम निकाह है। और मैं उस फिल्म के लिए एक हीरोइन की तलाश कर रहा हूं। मुझे ये लड़की एकदम निलोफर जैसी लग रही है। मुझे मेरी निलोफर मिल गई है। उस वक्त तक सलमा आग़ा ने ये भी नहीं सोचा था कि वो फिल्मों में काम करेंगी। सलमा आग़ा ने बीआर चोपड़ा से भी कह दिया कि मैं आपकी फिल्म में काम नहीं कर पाऊंगी। मगर आखिरकार बीआर चोपड़ा ने उन्हें मना लिया और सलमा आग़ा सच में उनकी निलोफर साबित हुई।

निकाह ने सलमा आग़ा को बहुत ख्याति दिलाई। लेकिन वो ख्याति बहुत दिनों तक कायम ना रह सकी। और उसकी सबसे बड़ी वजह थी सलमा आग़ा का खुद ही फिल्म इंडस्ट्री से दूर होना। दरअसल, निकाह की रिलीज़ के बाद सलमा आग़ा अपनी पढ़ाई कंप्लीट करने के लिए वापस चली गई। और फिर जब वो दोबारा बॉलीवुड की तरफ लौटी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सलमा आग़ा को फिल्में तो मिली। लेकिन वो फिल्में ऐसी नहीं थी जो उनके करियर को वापस उसी स्तर पर ला सके जिस स्तर पर वो निकाह के बाद छोड़कर गई थी।

साभार-https://www.facebook.com/rjsatwindersinghrajpal से

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पश्चिम रेलवे मुख्‍यालय में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक सम्‍पन्‍न

मुंबई। केंद्रीय सरकारी कार्यालयों की नगर राजभाषा कार्यान्‍वयन समिति की इस वर्ष की प्रथम छमाही बैठक पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक श्री अशोक कुमार मिश्र की अध्‍यक्षता में 27 मई, 2024 को संपन्‍न हुई। बैठक के दौरान नगर राजभाषा कार्यान्‍वयन समिति, मुंबई की गृह पत्रिका ‘राजभाषा प्रवाह ’ के 16वें अंक का विमोचन महाप्रबंधक के कर-कमलों द्वारा किया गया। वर्ष के दौरान राजभाषा में उत्‍कृष्‍ट एवं सराहनीय कार्य करने वाले नगर के तीन सरकारी कार्यालयों- प्रधान मुख्‍य आयकर आयुक्‍त कार्यालय, मुंबई, केंद्रीय विद्यालय क्रमांक-2, कुलाबा मुंबई एवं प्रधान निदेशक, लेखा परीक्षा का कार्यालय, पश्चिम रेलवे, चर्चगेट, मुंबई को राजभाषा शील्‍ड एवं प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर सम्‍मानित किया गया।

पश्चिम रेलवे के मुख्‍य जनसंपर्क अधिकारी श्री सुमित ठाकुर द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार बैठक के प्रारंभ में पश्चिम रेलवे के मुख्‍य राजभाषा अधिकारी श्री रंजन श्रीवास्‍तव ने अध्‍यक्ष एवं सभी सदस्‍यों का स्‍वागत किया। अपने संबोधन में मुख्‍य राजभाषा अधिकारी ने कहा कि भारत एक बहुभाषी देश है, जिसमें हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में सभी को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है क्योंकि हिंदी एक सरल, समृद्ध और आम जनता की भाषा है। हिंदी के गुणों को ध्यान में रखते हुए ही भारतीय संविधान में इसे राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।

अध्‍यक्ष महोदय ने समिति के सभी सदस्‍यों को संबोधित करते हुए कहा कि केंद्रीय सरकारी कार्यालयों की नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति राजभाषा के प्रचार-प्रसार और प्रयोग को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। राजभाषा नियमों के अनुसार सभी सदस्य कार्यालयों के प्रमुखों के लिए इस बैठक में शामिल होना संवैधानिक बाध्‍यता है ताकि सार्थक और नीतिगत निर्णय लिए जा सकें और उनका अनुपालन भी सुनिश्चित किया जा सके। यद्यपि कार्यालयों में राजभाषा को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए राजभाषा विभाग द्वारा कुछ जाँच बिन्दु स्थापित किए गए हैं, लेकिन सदस्य कार्यालय स्वयं भी अपनी कार्यालय पद्धति के अनुसार जाँच बिन्‍दु स्थापित कर सकते हैं।

उन्‍होंने कहा कि जब कार्यालय प्रमुख स्‍वयं हिंदी में कार्य करेंगे तो स्‍वत: ही राजभाषा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा और अन्‍य अधिकारी/कर्मचारी भी अपना अत्‍यधिक कार्य हिंदी में करने हेतु प्रोत्‍साहित होंगे। उन्‍होंने सभी कार्यालयों से अनुरोध किया कि वे अपने कार्यालय की वेबसाइट निश्चित रूप से चेक करें। राजभाषा नियमानुसार वे द्विभाषी में होनी चाहिए और समय-समय पर जो सामग्री उनमें अपलोड की जाती हैं वे भी द्विभाषी में हों।

इस बैठक में मुंबई स्थित केंद्र सरकार के कार्यालयों में अक्‍टूबर-2023 से मार्च-2024 के दौरान राजभाषा कार्यान्‍वयन में हुई प्रगति पर विचार-विमर्श किया गया। बैठक में समिति के सभी सदस्‍य कार्यालयों में अक्‍टूबर-2023 से मार्च-2024 के दौरान राजभाषा कार्यान्‍वयन में हुई प्रगति संबंधी आंकड़ों को समिति की सदस्‍य सचिव डॉ. रोशनी खुबचंदानी द्वारा प्रस्‍तुत किया गया और राजभाषा कार्यान्‍वयन में हुई प्रगति की समीक्षा की गई और कार्यालयों में राजभाषा को लागू करने के लिए कई सार्थक एवं नीतिगत निर्णय लिए गए।

बैठक में मध्‍य रेल, प्रधान कार्यालय, मुंबई सेंट्रल मंडल, पश्चिम रेलवे, मुंबई मंडल, मध्‍य रेल, भौतिक चिकित्‍सा एवं पुनर्वास संस्‍थान, रक्षा लेखा प्रधान नियंत्रक (नौसेना), प्रधान महालेखाकार(लेखा व हकदारी)-1, कर्मचारी राज्‍य बीमा आयोग, केंद्रीय फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड, प्रधान निदेशक, लेखा परीक्षा (नौवहन), मुंबई, वस्‍त्र आयुक्‍त कार्यालय, प्रधान महालेखाकार, लेखा परीक्षा-1, महानिदेशक, लेखा परीक्षा, मध्‍य रेल, अपर महानिदेशक, विदेश व्‍यापार कार्यालय आदि केंद्र सरकार के कार्यालयों के विभागाध्‍यक्ष एवं प्रतिनिधि शामिल हुए। बैठक की समाप्ति पश्चिम रेलवे के वरिष्‍ठ राजभाषा अधिकारी श्री सुरेश चंद्र के धन्‍यवाद ज्ञापन के साथ हुई।

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संविधान तो बदलेगा और उस में लिखा जाएगा कि सरकार जेल से नहीं चलाई जा सकेगी

बहुत हल्ला है इंडिया गठबंधन द्वारा संविधान बदल देने का। कि मोदी सरकार आएगी तो संविधान बदल देगी। आरक्षण हटा देगी। आदि-इत्यादि। तो सच तो यह है कि मोदी क्या किसी सरकार में यह हिम्मत नहीं है कि आरक्षण को हटाए। अगर ऐसा हो गया तो आरक्षण की बैसाखी थामे लोग देश में आग लगा देंगे। और यह आग संभाले नहीं संभलेगी। फिर यह आरक्षण वैसे भी कोढ़ में खाज बराबर ही है। सरकारी नौकरी है ही कितनी ? पढ़ने के लिए आरक्षण की मार से बचने के लिए बच्चे विदेश चले जा रहे हैं। एजूकेशन लोन मिल ही जा रहा है। पढ़-लिख कर बच्चे वहीं नौकरी पा कर सेटल्ड हो जा रहे हैं। बड़े-बड़े पैकेज पर। देश की प्रतिभाएं पलायन कर रही हैं तो आरक्षण की बला से।

वैसे भी ज़्यादातर नौकरियां और पैसा अब प्राइवेट सेक्टर में ही है। मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में एक बार प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण का पासा फेंका था। सारा कारपोरेट सेक्टर एक साथ आंख दिखा कर खड़ा हो गया था। मनमोहन सिंह ख़ामोश हो गए थे। समझ गए थे कि अभी प्रतिभा देश छोड़ रही है। प्रतिभा पलायन हो रहा है। ब्रेन ड्रेन। कहीं यह बड़े-बड़े उद्योगपति भी पलायन कर गए तो देश कंगाल हो जाएगा। मनमोहन सिंह भी ओ बी सी थे। मोदी भी ओ बी सी हैं। देवगौड़ा भी ओ बी सी। तीन-तीन प्रधान मंत्री ओ बी सी होने के बाद भी आरक्षण की आग को ख़त्म नहीं कर पाए। वह आग जो कभी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह लगा गए। तो अब आगे भी किस की हिम्मत है भला जो इसे ख़त्म करने की सोचे भी।

पर हां , मोदी सरकार जो भारी बहुमत से आ रही है , संविधान तो बदलेगी। और कस के बदलेगी। समान नागरिक संहिता , जनसंख्या नियंत्रण , एन आर सी जैसी कई बातें हैं। इन सब में थोड़ा समय भी लगेगा। लेकिन अभी-अभी बिलकुल अभी तो पहला संविधान संशोधन यह होगा कि जेल जाने वाले मुख्य मंत्रियों या मंत्रियों को जेल से काम करने की इजाजत नहीं होगी। वर्क फ्रॉम जेल पर विराम लगेगा। जेल जाने पर इस्तीफ़ा देना बाध्यकारी होगा। इस लिए भी कि इस वर्ष और आगे के वर्षों में ऐसे बहुत से लोगों को जेल जाना ही जाना है। ग़ौरतलब है कि पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया , रंजन गोगोई सिर्फ़ शोभा या शुकराना के एवज में राज्य सभा में नहीं उपस्थित किए गए हैं। इन सब मुद्दों पर वह चुपचाप काम कर रहे हैं। बड़ी ख़ामोशी और गंभीरता से। परिणाम बहुत ही शुभ और हैरतंगेज आने वाले हैं।

एक समय था कि एक रेल दुर्घटना के कारण तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफ़ा दे दिया था। 1956 में महबूब नगर रेल हादसे में 112 लोगों की मौत हुई थी। इस पर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया। इसे तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार नहीं किया। तीन महीने बाद ही अरियालूर रेल दुर्घटना में 114 लोग मारे गए। लालबहादुर शास्त्री ने फिर इस्तीफा दे दिया। नेहरू ने शास्त्री जी का इस्तीफा स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि यह एक नजीर बने। इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं। अलग बात है कि तब तीस से अधिक सांसदों ने नेहरू से अपील की थी कि शास्त्री का इस्तीफ़ा न स्वीकार किया जाए। बाद में यही लालबहादुर शास्त्री नेहरू के निधन के बाद देश के प्रधान मंत्री बने।

तब नैतिकता और शुचिता की राजनीति थी। बाद के समय में नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले में 12 जून, 1975 को अपने फैसले में इंदिरा गांधी के चुनाव को अयोग्य करार दिया था। 12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी की अयोग्यता का फ़ैसला आया था। जस्टिस सिन्हा ने अगले 6 सालों तक इंदिरा गांधी को संसद और राज्य विधानमंडल के चुनावों को लड़ने पर रोक लगा दी थी तो क़ायदे से इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था। लेकिन तब सारी नैतिकता और शुचिता बंगाल की खाड़ी में डुबो कर इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया। देश भर में सभी विरोधियों को जेल में ठूंस दिया। यह लंबी कहानी है। फिर भी राजनीति में नैतिकता और शुचिता के अवशेष शेष रहे हैं। पर अरविंद केजरीवाल की राजनीति ने इन अवशेषों को भी नेस्तनाबूद कर दिया है। निरंतर करते जा रहे हैं। ख़ैर !

तो यह हेकड़ी अब और नहीं चलेगी कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। कि संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा कि जेल से सरकार नहीं चलाई जा सकती। तो पहली व्यवस्था तो यही होगी और कि डंके की चोट पर होगी। संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा कि जेल से सरकार नहीं चलाई जा सकती। न सरकार , न प्रशासन। एक और क़ानून भी साथ ही साथ बनेगा जिस की मोदी चर्चा भी कर रहे हैं कि जिन लोगों के पास से भ्रष्टाचार का धन या ज़मीन , संपत्ति भ्रष्टाचार के तहत मिलेगी , उसे संबंधित व्यक्ति को वापस भी की जाएगी। जिस से कि धन या ज़मीन ली गई है। जैसे पश्चिम बंगाल का शिक्षक भर्ती घोटाला। बिहार का ज़मीन के बदले रेल की नौकरी। और केरल का कोऑपरेटिव बैंक घोटाला। इन मामलों का उल्लेख भी किया है , मोदी ने।

आप को क्या लगता है यह सोनिया गांधी , राहुल , रावर्ट वाड्रा आदि ज़मानत का अमर फल खा कर आजीवन बचे रहेंगे ? अब आने वाले दिनों में या तो अदालतों से क्लीन चिट पा जाएंगे या दोषी साबित हो कर जेल जाएंगे। ज़मानत की अंत्याक्षरी ज़्यादा दिनों तक नहीं चलने वाली। और भी ऐसे कई भ्रष्टाचारी , ज़मानतधारी नेताओं के साथ भी यही सुलूक़ होगा। वह चाहे किसी पार्टी के हों। भाजपा के ही क्यों न हों। अदालतें फास्ट काम करें , ऐसे मामलों पर , ऐसा भी कुछ क़ानून बन सकता है।

भ्रष्टाचार पर केंद्र सरकार की ज़ीरो टालरेंस की नीति है ही , बस भ्रष्टाचार वाली संपत्ति की वसूली के दिन आए समझिए। जगह-जगह छापे जैसे हो रहे हैं , आगे और बढ़ेंगे। 2013 – 2014 में अच्छे दिन आने वाले हैं वाला नारा याद कीजिए। और यह सब बिना अदालतों को सुधारे संभव नहीं है। पैसा ले कर , प्रभाव में आ कर अदालतें कैसे खुदा बन कर क्या से क्या कर जाती हैं , सब के सामने है। तो अदालतों के , ख़ास कर सुप्रीम कोर्ट के कुछ मामलों में हाथ काटने की भी क़वायद संभव है। जैसे कि अभी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप समाप्त किया गया है। आहिस्ता-आहिस्ता कॉलेजियम सिस्टम का कलेजा भी चीरा जा सकता है। न्याय लक्ष्मी की दासी बन कर न रहे , इस का इंतज़ाम अब बहुत ज़रूरी हो चला है। लक्ष्मी से संचालित होने वाली न्याय व्यवस्था पर लगाम बहुत ज़रूरी हो चला है।

कुछ और क़ानूनों में एकरूपता लाए जाने की क़वायद हो सकती है। उदाहरण के लिए सुप्रीम कोर्ट आए दिन जिस तरह न्यायिक अराजकता की मिसाल पेश करने के लिए अभ्यस्त हो गई है। हो सकता है , उस पर भी लगाम लगाने के लिए कोई क़ानून बने। न्यायिक सक्रियता और उस में समाई अराजकता की अनेक मिसालें हैं। मसलन आतंकियों के लिए आधी रात अदालत खोलने की क़वायद लोग भूल गए हैं क्या ? सुप्रीम कोर्ट में राजनीतिज्ञ लोगों की , बड़े-बड़े उद्योगपतियों , व्यापारियों और अपराधियों की जिस तरह खड़े-खड़े ज़मानत हो जाती है , राहत मिल जाती है , सामान्य लोगों , साधारण और ग़रीब आदमी को ऐसी ज़मानत और राहत क्यों नहीं मिलती।

ताज़ा मिसाल है , अरविंद केजरीवाल को मिली अंतरिम ज़मानत। इस बाबत भी कोई क़ानून बनाने की तरफ संसद बढ़ सकती है। आप देखिए कि पी एम एल एक्ट में ही अरविंद केजरीवाल भी ग़िरफ़्तार हुए हैं , हेमंत सोरेन भी। केजरीवाल को अगर अंतरिम ज़मानत दी सुप्रीम कोर्ट ने तो आख़िर किस बिना पर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ज़मानत देने से इंकार कर दिया ? वह एक शेर याद आता है :
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते,
सज़ा ना दे के अदालत बिगाड़ देती है।

तो भ्रष्टाचार को ले कर नरेंद्र मोदी की सरकार बहुत सख़्त होने वाली है। बहुत सख़्त क़ानून बनाने वाली है। ताकि भ्रष्टाचार की नाव में क़दम रखते समय आदमी सौ बार कांप-कांप जाए। भ्रष्टाचार देश का सब से बड़ा दीमक है। इस दीमक को समूल नष्ट किए बिना देश और समाज किसी सूरत तरक़्क़ी नहीं कर सकता। नज़ीर के तौर पर आप उत्तर प्रदेश में योगी सरकार को देख लीजिए। योगी राज में न सिर्फ़ माफिया मिट्टी में मिल चुके हैं , उन की अरबों रुपए की संपत्तियां भी गरीबों के हाथ में जा रही हैं। उन की कब्जाई ज़मीनों को सरकार ज़ब्त कर रही है और गरीबों के लिए आवास बना कर उन्हें गरीबों को दे रही है। पूरी निष्पक्षता के साथ।

याद कीजिए एक समय कुंडा के गुंडा राजा भैया की कई संपत्तियां मायावती सरकार ने ज़ब्त की थीं। मुलायम सरकार आई तो सब राजा भैया को वापस मिल गईं। भाजपा भी आंख मूंदे रही। बल्कि मदद करती रही भाजपा भी। तो क्या फ़ायदा हुआ ? ऐसे अनेक मामले हैं।

आप गौर कीजिए कि उत्तर प्रदेश में एक समय हर साल कुछ नए माफ़िया पैदा हो जाते थे। आतंकियों से कहीं ज़्यादा आतंक इन माफियाओं का हुआ करता था। किसी ठेके के लिए टेंडर होता था , टेंडर खुलते ही या खुलने के पहले भी गोली , बंदूक़ , हत्या का मंज़र आम था। जाने कितने माफिया , जाने कितने सिंडिकेट , जाने कितनी हत्या। कोई हिसाब ही नहीं था। माफ़िया खुल्ल्मखुल्ला ए के सैतालिस लिए घूमते थे। और तो और मुख़्तार अंसारी जैसे हत्यारे लखनऊ की जेल से थोड़ी देर के लिए निकल कर उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक से मिलने उन के आफिस पहुंच जाते थे। कभी कोई तबादला , कभी कोई और काम करवाने के लिए। जेल से ही फोन भी आम था। ठेका , हत्या जैसे शग़ल था उस का। पुलिस महानिदेशक मतलब प्रदेश का सब से बड़ा पुलिस अफ़सर। लखनऊ जेल में वह ताज़ी मछली खाने के लिए तालाब खुदवा लेता था। गाज़ीपुर जेल में जब वह था तब गाज़ीपुर के डी एम , एस पी उस के साथ बैडमिंटन खेलने जाते थे। समाजवादी बयार थी यह।

याद कीजिए जेल में रहते हुए ही मुख़्तार ने फ़ोन पर ही विधायक कृष्णानंद राय की हत्या की न सिर्फ़ प्लानिंग की बल्कि उस का आंखों देखा हाल भी सुनाता रहा था। यह सब आन रिकार्ड है। पुलिस अफसरों , जेल अफसरों का तबादला , हत्या आदि उस के लिए सिगरेट की राख झाड़ने जैसा ही था। नौकरी भी खा जाता था। कई उदाहरण हैं। अतीक़ अहमद के भी एक से एक खूंखार किस्से हैं। अतीक़ और मुख़्तार जैसे अपराधी मुलायम सिंह जैसे धरती पुत्र को डिक्टेट करते थे। डी पी यादव जैसे लोग तो मंत्री भी बने। जैसे कभी बिहार में शहाबुद्दीन और महतो जैसे अपराधी लालू यादव को डिक्टेट करते थे , फोन पर , जेल से ही।

याद कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी ने जब स्वर्णिम चतुर्भुज योजना शुरू की थी। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नै, कोलकाता, अहमदाबाद, बेंगलुरु, भुवनेश्वर, जयपुर, कानपुर, पुणे, सूरत, गुंटुर, विजयवाड़ा, विशाखापत्तनम को इस के जरिए जोड़ना था। तब इस के काम में लगे इंडियन इंजीनियरिंग सेवा के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की बिहार के गया में ठेकेदारी के चक्कर में हत्या कर दी गई थी। उन्होंने स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग निर्माण में भ्रष्टाचार को उजागर किया था। 27 नवंबर , 2003 को एक माफिया ने उनकी हत्या कर दी थी। वे कोडरमा में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में परियोजना निदेशक थे। अटल जी ने सत्येंद्र दुबे की हत्या को बड़ी गंभीरता से लिया। उस ठेकेदार को गिरफ़्तार कर जेल भिजवाया।

पर अब ?

आज की तारीख में किसी ठेकेदार या माफिया की हिम्मत नहीं है कि देश भर में बन रहे सड़कों के संजाल में , भ्रष्टाचार में कूदने की सोच भी सके। एक पैसे के भ्रष्टाचार का कोई आरोप भी नहीं। इस सड़क क्रांति के नायक नितिन गडकरी तो बारंबार चुनौती भी देते रहते हैं कि कोई मुझ पर एक चाय पिलाने की रिश्वत भी देने की नहीं सोच सकता।

उत्तर प्रदेश में भी नए माफ़िया पैदा होना तो छोड़िए पुराने माफ़िया भी जाने किस चूहे के बिल में समा गए हैं। एक से एक दंगाई तौक़ीर रज़ा की नफ़रती आवाज़ उलटे बांस बरेली हो गई है। 2024 का पूरा चुनाव बीतने को है , मौलाना तौक़ीर रज़ा की एक तक़रीर भी नहीं आई है। जो कि हर चुनाव में होती थी। नफ़रत में डूबी हुई। तो जैसे ऐसे-ऐसे लोगों की सिटी-पिट्टी गुम हुई है , भ्रष्टाचारियों की भी गुम होगी। आप सोचिए कि केंद्र सरकार द्वारा देश में विकास के चौतरफा काम हो रहे हैं। चांद से ले कर कश्मीर तक विकास की जगमग रौशनी सब के सामने है। गरीबों के लिए लोक कल्याणकारी योजनाएं सिर चढ़ कर बोल रही हैं। कोरोना काल में लोग कोरोना से भले मरे पर भूख से कोई एक नहीं मरा। वैक्सीन , आक्सीजन आदि की व्यवस्थाएं चटपट हुईं। दुनिया में कहीं भी कोई भारतीय फंसे , उसे सकुशल निकाल कर लाना , आसान नहीं होता। पर युद्ध क्षेत्र हो या कोई अन्य आपदा। सभी सकुशल वापस होते हैं। बिना किसी भेदभाव के।

सड़क , रेल , हवाई अड्डा , मेडिकल कालेज और जाने क्या-क्या ! केंद्र सरकार द्वारा अरबों-खरबों रुपए के ज़्यादातर काम टेंडर के मार्फत ठेके पर ही हो रहे हैं। कहीं भ्रष्टाचार , कहीं गोली-बंदूक़ , हत्या , अपहरण क्यों नहीं हो रहा ? दूसरी तरफ वहीँ दिल्ली में एक से एक शीश महल घोटाला , शराब घोटाला और न जाने कौन-कौन से घोटाले सामने आ रहे हैं। प्रदूषित यमुना ही नहीं है , बहुत सारा प्रदूषण दिल्ली प्रदेश सरकार के सिस्टम में समा गया है।

मुख्य मंत्री आवास में उन्हीं की पार्टी की एम पी स्वाति मालीवाल , उन्हीं के पी ए बिभव कुमार से पिट जाती है। पूरी पार्टी बिभव कुमार के पीछे खड़ी हो जाती है। पूरे कुतर्क के साथ। राहुल गांधी , अरविंद केजरीवाल , अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव टाइप के लोगों को अपने कमीनेपन और धूर्तई पर बहुत नाज़ है। इन लोगों को बड़ी ख़ुशफ़हमी है कि इन से बड़ा कमीना और धूर्त कोई और नहीं। यह लोग नहीं जानते कि नरेंद्र मोदी इन सब से बड़ा कमीना और धूर्त है। बतर्ज़ लोहा , लोहे को काटता है। दिल थाम कर बैठिए। मोदी का तीसरा कार्यकाल शुरू होते ही पंजाब की मान सरकार भी आप को भ्रष्टाचार और अराजकता के मामले में अरविंद केजरीवाल सरकार के कान काटने वाले अनेक प्रसंग ले कर बस उपस्थित ही होना चाहती है। पश्चिम बंगाल में भी भ्रष्टाचार के नित नए अंदाज़ खुलेंगे। बिहार के पुराने गुल भी गुलगुला बन कर छनेंगे।

ऐसे अनेक मामले हैं। अनेक नए काम हैं। नरेंद्र मोदी कहते ही रहते हैं कि यह दस साल तो ट्रेलर था। अब बहुत बड़े-बड़े काम होंगे। तय मानिए मोदी यह सच ही कहते हैं। विकास की यह गंगा मोदी ही बहा सकते हैं। भागीरथी अपनी जनता के लिए बड़ी तपस्या कर गंगा को लाए थे धरती पर। भागीरथी की तरह ही मोदी विकास की गंगा लाए हैं भारत में। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि नरेंद्र मोदी को 2014 की जगह अगर और दस बरस पहले ही प्रधान मंत्री पद देश की जनता ने सौंप दिया होता तो देश की यह तस्वीर और चमकदार , और संपन्न , और विकसित दिखती। अभी भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अगर देश और दस बरस और रह गया तो जैसा कि लगता भी है , देश विकसित देशों में अवश्य शुमार हो जाएगा। 2047 के लक्ष्य से पहले ही। बाक़ी राफेल से लगायत इलेक्टोरल बांड और वैक्सीन आदि-इत्यादि का गाना गाने वालों पर तरस खाइए। कांग्रेस और वामपंथियों की गोद में बैठ कर गोदी मीडिया का भजन गाने वाले छुद्र जनों के गायन का भी मज़ा लीजिए। उन को भी जीने-खाने दीजिए। उन का यह लोकतांत्रिक अधिकार भी , उन से मत छीनिए। आनंद लीजिए। निर्मल आनंद !

क्यों कि जो आदमी कश्मीर का कोढ़ 370 हटा सकता है , कश्मीर को फिर से ज़न्नत बना सकता है। देश को आतंक मुक्त बना सकता है। अयोध्या में सकुशल राम मंदिर बनवा सकता है। विकास की चांदनी में देश को नहला सकता है , वह कुछ भी कर सकता है। बस महंगाई , भ्रष्टाचार और विकराल बेरोजगारी के उन्मूलन का इंतज़ार है। एक समय राजनीतिक पार्टियों का नारा होता था हर हाथ को काम , हर खेत को पानी। हर खेत को पानी तो सुलभ हो गया है। हर हाथ को काम शेष है। यह एक बड़ी चुनौती है। इस से निपटे बिना देश विकसित देश की पंक्ति में कभी खड़ा नहीं हो सकता।

साभार-https://sarokarnama.blogspot.com/ से 

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सैंकड़ों मंदिरों का जीर्णोध्दार कराने वाली महारानी थी अहिल्याबाई होलकर

(अहिल्याबाई होलकर के जन्मदिन 30 जून पर विशेष)

अरब देशों से भारत आए आक्रांता शुरू में तो केवल भारत में लूट खसोट करने के उद्देश्य से ही आए थे, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि भारत सोने की चिड़िया है एवं यहां के नागरिकों के पास स्वर्ण के अपार भंडार मौजूद हैं। परंतु, यहां आकर छोटे छोटे राज्यों में आपसी तालमेल एवं संगठन का अभाव देखकर उनका मन ललचाया और उन्होंने यहीं के राजाओं में आपसी फूट डालकर उन्हें आपस में लड़वाकर अपने राज्य को स्थापित करने का प्रयास प्रारम्भ किया। अन्यथा, आक्रांता तो संख्या में बहुत कम ही थे, उनका साथ दिया भारत के ही छोटे छोटे राज्यों ने। भारत के कुछ राज्यों पर अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद तो आक्रांताओं की हिम्मत बढ़ गई और फिर उन्होंने भारत की भोली भाली जनता पर अपना दबाव बनाना शुरू किया कि या तो वे अपना धर्म परिवर्तित कर इस्लाम मतपंथ को अपना लें अथवा मरने के लिए तैयार हो जाएं।

कई मुस्लिम राजाओं ने तो हिंदू सनातन संस्कृति पर भी आघात किया और हजारों की संख्या में मठ मंदिरों में तोड़ फोड़ कर इन मठ मंदिरों को भारी नुक्सान पहुंचाया। हिंदू सनातन संस्कृति पर कायम भारतीय जनता, आक्रांताओं के जुल्म, वर्ष 712 ईसवी से लेकर 1750 ईसवी तक, लगभग 1000 वर्षों तक झेलती रही। लाखों मंदिरों के साथ ही, मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सोमनाथ आदि मंदिर, जो हजारों वर्षों से भारतीय जनता की आस्था के केंद्र रहे हैं, इन मंदिरों को भी नहीं छोड़ा गया एवं इन मंदिरों में तोड़फोड़ कर इन मंदिरों पर अथवा इनके पास सटे हुए क्षेत्र में मस्जिद बना दी गई ताकि हिंदू सनातन संस्कृति पर सीधे आघात किया जा सके एवं हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायियों के आत्मबल को तोड़ा जा सके जिससे वे इस्लाम मतपंथ को अपना लें।

परंतु, भारत भूमि पर समय समय पर कई महान विभूतियों ने भी जन्म लिया है और अपने सदकार्यों से इस पावन धरा को पवित्र किया है। ऐसी ही एक महान विभूति थीं अहिल्याबाई होलकर, जिन्होंने आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए एवं नष्ट किए गए मंदिरों के उद्धार का कार्य बहुत बड़े स्तर पर किया था। अहिल्याबाई होलकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ स्थित चौंढी गांव में 31 मई 1725 को हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो मराठा साम्राज्य में पाटिल के पद पर कार्यरत थे। अहिल्याबाई का विवाह मालवा में होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव से हुआ था।

वर्ष 1745 में अहिल्याबाई के बेटे मालेराव का जन्म हुआ। इसके करीब 3 साल बाद बेटी मुक्ताबाई ने जन्म लिया। रानी अहिल्याबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनकी शादी के कुछ वर्ष बाद ही 1754 में उनके पति खांडेराव का भरतपुर (राजस्थान) के समीप कुम्हेर में युद्ध के दौरान निधन हो गया। वर्ष 1766 में ससुर मल्हारराव भी चल बसे। इसी बीच रानी ने अपने एकमात्र बेटे मालेराव को भी खो दिया। अंततः अहिल्याबाई को राज्य का शासन अपने हाथों में लेना पड़ा। अपनों को खोने और शुरुआती जीवन के संघर्ष के बाद भी रानी ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। कुशल कूटनीति के दम पर उन्होंने न सिर्फ विरोधियों को पस्त किया बल्कि जीवनपर्यत्न सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में जुटी रहीं।

अहिल्याबाई ने देशभर में कई प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर मंदिरों, घाटों, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया। साथ ही, उन्होंने सडकों का निर्माण करवाया, अन्न क्षेत्र खुलवाये, प्याऊ बनवाये और वैदिक शास्त्रों के चिन्तन-मनन व प्रवचन के लिए मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति भी की। रानी अहिल्याबाई ने बड़ी संख्या में धार्मिक स्थलों के निर्माण कराए। आपने सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे 1024 में गजनी के महमूद ने नष्ट कर दिया था। साथ ही सोमनाथ मंदिर के मुख्य मंदिर के आस-पास सिंहद्वार और दालानों का निर्माण करवाया। अहिल्याबाई ने हरिद्वार स्थित कुशावर्त घाट का जीर्णोंधार कराकर उसे पक्के घाट में परिवर्तित कराया। उन्होंने इसी स्थान के समीप दत्तात्रेय भगवान का मंदिर भी स्थापित कराया। पिंडदान के लिए भी एक उचित स्थान का निर्माण करवाया। वाराणसी में सुप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का निर्माण करवाया।

राजघाट और अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहरा मंदिर है। यह मंदिर 51 फुट ऊंचा और पत्थर का बना हुआ है। मंदिर के पश्चिम में गुंबजदार जगमोहन और इसके पश्चिम में दंडपाणीश्वर का पूर्व मुखी शिखरदार मंदिर है। इन मंदिरों का निर्माण अहिल्याबाई ने ही करवाया था। वाराणसी में ही अहिल्याबाई होल्कर ने अहिल्याबाई घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। उन्होंने बहुत से कच्चे घाटों का जीर्णोद्धार कराया, जिसमें से शीतलाघाट प्रमुख है। इस प्राचीन नगर में महारानी ने हनुमान जी के भी एक मंदिर का निर्माण करवाया। काशी के समीप ही तुलसीघाट के नजदीक लोलार्ककुंड के चारों ओर कीमती पत्थरों से जीर्णोद्धार करवाया। इस कुंड का उल्लेख महाभारत और स्कन्दपुराण में भी मिलता हैं।

इसी प्रकार बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। सन 1818 में कैप्टन स्टुअर्ट नाम का एक व्यक्ति हिमालय की यात्रा पर गया। वहां केदारनाथ के मार्ग पर तीन हजार फुट की ऊंचाई पर अहिल्याबाई द्वारा निर्मित एक पक्की धर्मशाला उसने देखी थी। बद्रीनाथ में तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था। हिंदू धर्म में गंगाजी का व गंगाजल का बड़ा महत्व है। पूरे देश में स्थापित तीर्थस्थान भारत की एकात्मकता व राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। भारत के तीर्थों में गंगाजल पहुंचाने की श्रेष्ठ व्यवस्था द्वारा अहिल्याबाई ने धार्मिकता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकात्मकता की प्राचीन परंपरा को नवजीवन दिया था।

अयोध्या, उज्जैन और नासिक में भगवान राम के मंदिर का निर्माण किया। उज्जैन में उन्होंने चिंतामणि गणपति के मंदिर का भी निर्माण करवाया। एलोरा, महाराष्ट्र में वर्ष 1780 के आस-पास घृणेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। अहिल्याबाई को महेश्वर बहुत प्रिय था। उन्होंने यहां कई प्राचीन मंदिरों, घाटों आदि का जीर्णोद्धार कराया। इसके अलावा, कई नये मंदिर, घाट व मकान बनवाए। उन्होंने महेश्वर में अक्षय तृतीया के शुभ दिन घाट पर भगवान परशुराम का मंदिर बनवाया। जगन्नाथपुरी मंदिर को दान और आंध्र प्रदेश के श्रीशैलम सहित महाराष्ट्र में परली वैजनाथ ज्योतिर्लिंग का भी कायाकल्प करवाया।

आपके शासनकाल में ग्रीष्म ऋतु में कई स्थानों पर प्याऊ का प्रबंध होता था व ठंड में गरीबों को कंबल बांटे जाते थे। इन सारे कार्यो के लिए कई कर्मचारी नियुक्त थे। आपकी सैन्य प्रतिभा के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी सफल कूटनीति का साक्ष्य यह है कि विशाल सैन्य बल से सज्ज आक्रमण की नीयत से आए राघोबा को उन्होंने अकेले पालकी में बैठकर उनसे मिलने आने के लिए उसे विवश कर दिया था। डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।

अहिल्याबाई होलकर परम शिव भक्त थी। उनकी राजाज्ञाओं पर ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। श्री काशीनाथ त्रिवेदी जी कहते है कि “उनका [अहिल्याबाई] मत था कि सत्ता मेरी नहीं, सम्पत्ति भी मेरी नहीं जो कुछ है भगवान का है और उसके प्रतिनिधि स्वरूप समाज का है।“ इस प्रकार उन्होंने समाज को भगवान का प्रतिनिधि माना और उसी को अपनी समूची सम्पदा सौंप दी। वह अपने समय में ही इतनी श्रद्धास्पद बनीं कि समाज ने उन्हें अवतार मान लिया। 8 मार्च 1787 के ‘बंगाल गजट’ ने यह लिखा कि देवी अहिल्या की मूर्ति भी सर्वसामान्य द्वारा देवी रूप से प्रतिष्ठित व पूजित की जाएगी।

महारानी अहिल्याबाई की पहचान एक विनम्र एवं उदार शासक के रुप में थी। उनके ह्रदय में जरूरमदों, गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना भरी हुई थी। उन्होंने समाज सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था। अहिल्याबाई हमेशा अपनी प्रजा और गरीबों की भलाई के बारे में सोचती रहती थी, इसके साथ ही वे गरीबों और निर्धनों की संभव मद्द के लिए हमेशा तत्पर रहती थी। उन्होंने समाज में विधवा महिलाओं की स्थिति पर भी खासा काम किया और उनके लिए उस वक्त बनाए गए कानून में बदलाव भी किया था।

अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि, अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपनी पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया। इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी खासा जोर दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है। अहिल्याबाई कई महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। अहिल्यादेवी ने 13 अगस्त 1795 को अपनी अंतिम सांस ली। भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से खुद को अमर बना लिया। जिस तरह से वह सभी तरह की कठिनाइयों से गुजरीं, वह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।

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मीडिया के लिए ‘वॉचडॉग’ की भूमिका में सोसायटी

(30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस के लिए)

पत्रकारिता के इतिहास में हमें पढ़ाया और बताया जाता है कि पत्रकारिता सोसायटी के लिए ‘वॉच डॉग’ की भूमिका में है लेकिन बदलते समय में अब सोसायटी पत्रकारिता के लिए ‘वॉच डॉग’ की भूमिका में आ गया है। पत्रकारिता के कार्य-व्यवहार को लेकर समाज के विभिन्न मंचों पर चर्चा हो रही है। उनके कार्यों की मीमांसा की जा रही है और जहां पत्रकारिता अपने दायित्व से थोड़ा भी आगे-पीछे होता है तो सोसायटी पत्रकारिता को चेताने का कार्य करता है। इस तरह सोसायटी पत्रकारिता के लिए एक नई भूमिका में है जिसे हम कह सकते हैं कि वह ‘वॉच डॉग’ की भूमिका का निर्वहन कर रहा है। मीडिया के विस्तार के साथ शिकायतों का अंबार बढ़ा है और उसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। मीडिया पर एकपक्षीय होने का आरोप भी लगने लगा है। ऐसे में सोसायटी स्वयं होकर मीडिया की निगरानी करने जुट गया है।

सोसायटी की इस नयी भूमिका का स्वागत किया जाना चाहिए। सवाल यह भी है कि मीडिया अपने हिस्से का काम कर रही है किन्तु उस पर नियंत्रण किसी का नहीं है। नियंत्रण के अभाव में मीडिया अपने निहित उद्देश्यों से भटकने लगे तो कौन उन्हें सजग और सचेत करे? ऐसी स्थिति में मीडिया पर नकेल डालने की जिम्मेदारी स्वयं सोसायटी ने अपने कंधों पर ले ली है। मीडिया की तीसरी आंख से आम-ओ-खास भयभीत रहते हैं, उसे सोसायटी के एक जागरूक टीम ने आगाह कर दिया है कि वह सोसायटी की सुरक्षा और शांति के लिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे किन्तु अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल ना करें।

यह वही मीडिया है जो बरगद के रूप में अपनी जड़ें फैलाये हुए पत्रकारिता कहलाता था। टेलीविजन के आने के बाद टेलीविजन, रेडियो और अखबारों को मिलाकर स्वयंभू मीडिया कहलाने लगा। पत्रकारिता अपनी रफ्तार से कार्य कर रही है और मीडिया बेलाग होती जा रही थी। निश्चित रूप से अखबारों के मुकाबले टेलीविजन का असर ज्यादा होता है और यह लोगों को मोहित कर लेता है। अपनी ताकत दिखाने और टीआरपी जुगाड़ करने के फेर में मीडिया में कई बार नकली और मनगढ़ंत खबरों का प्रसारण भी हो जाता है। खबर सच्ची है या झूठी, यह जानने का कोई बैरामीटर आम आदमी के पास नहीं होता है और वह ऐसी ही खबरों को सच मान लेता है। इन कारणों से समाज में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का भाव उत्पन्न होता है। मीडिया की साख गिरती है। यह वही समय है जब मीडिया नियंत्रण की चर्चा होने लगती है लेकिन स्व-अनुशासन की बात तो दूर की कौड़ी हो गई है।

पूर्व निर्धारित मानदंडों को भी मीडिया अनदेखा कर खबरों का का प्रसारण-प्रकाशन करती है। इसे एक तरह से आप मीडिया का संक्रमण काल भी कह सकते हैं। मीडिया की इस मनमानी के चलते बड़ी संख्या में लोग टेलीविजन से स्वयं को दूर कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया उन्हें गलत खबरें दिखा और बता रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिए मीडिया पर सोसायटी स्वयं होकर निगरानी करने लगा है। जैसे मीडिया के पास सोसायटी की निगरानी करने, अच्छा-बुरा दिखाने और लोकमानस के कुशल मंगल की कामना करने के अलावा कोई अन्य वैधानिक अधिकार नहीं है, ठीक वैसी ही स्थिति में सोसायटी की भी है। लेकिन सोसायटी जब मीडिया के अनियंत्रित व्यवहार को देखती है तो आगे बढक़र वह अपना विरोध दर्ज कराती है और इसके बाद भी मीडिया के कार्य-व्यवहार में सुधार नहीं दिखता तो मीडिया का बहिष्कार करना शुरू कर देती है।

मीडिया के पास तो बहिष्कार का भी अधिकार नहीं है। सोसायटी के पास पराधीन भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक कभी चार पन्ने तो आज 12 और 20 पन्नों का अखबार आता है। सोसायटी का पहले भी भरोसा अखबारों पर था और आज भी उसका यकिन अखबारों पर ही है। आहिस्ता-आहिस्ता सोसायटी अखबारों की दुनिया में लौटने लगी है। सोसायटी का अखबारों पर विश्वास का एक बड़ा कारण है उसकी टाइमिंग को लेकर। 24 घंटे में अखबार का प्रकाशन सामान्य स्थिति में एक बार होता है। इसलिए अखबार के पास खबरों के लिए युद्ध की स्थिति नहीं होती है वहीं टेलीविजन के पास 24 घंटे ताजी और नई खबरें दिखाने का दबाव बना रहता है।

ऐसे में खबरों का दोहराव और कई बार जबरिया खबर गढऩे का उपक्रम जारी रहता है। अखबार और टेलीविजन की भाषा को लेकर भी विरोधाभाष की स्थिति बनी रहती है। भाषा पर भी टेलीविजन का कोई नियंत्रण नहीं होता है जबकि अखबारों की भाषा संयत और सुसंस्कृत होता है। 50 वर्ष पार लोगों में ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जिन्होंने भाषा की मर्यादा अखबार को पढ़ कर सीखा लेकिन आज के 25 वर्ष का युवा टेलीविजन को देखता है लेकिन उसकी भाषा में ना तो संयम है और ना ही सुसंस्कृत। यही कारण है कि आज का युवा अंग्रेजी-हिन्दी को मिलाकर काम चला रहा है। ऐेसे में टेलीविजन से ज्यादा भरोसा लोगों का अखबारों पर है।
मीडिया का एक अनिवार्य हिस्सा रेडियो है। जब हम टेलीविजन और अखबारों की तुलना रेडियो से करते हैं तो पाते हैं कि रेडियो ज्यादा विश्वसनीय, प्रभावी और लोकमंगल के अपने दायित्व की पूर्ति करता है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के तीन निहित उद्देश्यों की पूर्ति रेडियो करता है। वर्तमान समय में रेडियो का भी विस्तार हुआ है और आकाशवाणी के साथ सामुदायिक रेडियो और एफएम रेडियो अस्तित्व में आ चुका है। विस्तार के पश्चात भी रेडियो के इन तीनों प्रभाग पूरी जिम्मेदारी के साथ कार्य कर रहे हैं।

आकाशवाणी के बारे में सभी को ज्ञात है कि उसकी कार्य प्रणाली क्या है किन्तु सामुदायिक रेडियो को सोसायटी ने अभी पूरी तरह नहीं जाना है क्योंकि सामुदायिक रेडियो एक सीमित क्षेत्रफल में कार्य करता है लेकिन उसका संचार प्रभाव व्यापक है। लोक संस्कृति, साहित्य को संरक्षण देने के साथ वह विपदा के समय लोगों को आगाह करता है और बड़े खतरे से बचाता है। समुद्री इलाकों में अक्सर तूफान आते हैं और मौसम विभाग की मदद से अपने प्रसारण क्षेत्र में वह इस सूचना को प्रसारित कर जान-माल के नुकसान से बचाता है। ऐसी और भी कई विपदा के समय सामुदायिक रेडियो अपनी भूमिका का जिम्मेदारी से निर्वहन करता है। एक अन्य एफएम रेडियो बिजनेस मॉडल है। मूल रूप से यह मनोरंजन का कार्य करता है और साथ में समय-समय पर सोसायटी की जरूरत के अनुरूप सूचना का प्रसारण करता है। इस तरह हम मीडिया के स्वरूप का आंकलन करते हैं और यह सुनिश्चत कर पाते हैं कि सोसायटी का नियंत्रण जरूरी है।

पत्रकारिता का संबंध सूचनाओं को संकलितऔर संपादित कर आम पाठकों तक पहुंचाने से है। लेकिन हर सूचना समाचार नहीं है। पत्रकार कुछ ही घटनाओं, समस्याओं और विचारों को समाचार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। किसी घटना को समाचार बनने के लिए उसमें नवीनता, जनरुचि, निकटता, प्रभाव जैसे तत्त्वों का होना शरूरी है। समाचारों के संपादन में तथ्यपरकता, वस्तुपरकता, निष्पक्षता और संतुलन जैसे सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ता है। इन सिद्धांतों का ध्यान रखकर ही पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता अॢजत करती है। लेकिन पत्रकारिता का संबंध केवल समाचारों से ही नहीं है। उसमें सम्पादकीय, लेख, कार्टून और फोटो भी प्रकाशित होते हैं। पत्रकारिता के कई प्रकार हैं। उनमें खोजपरक पत्रकारिता, वॅाचडॉग पत्रकारिता और एडवोकेसी पत्रकारिता प्रमुख है।

पत्रकारिता का हमारा पेशा हमसे असमान्य मेहनत की मांग करता है. इस पेशे में तमाम किस्म के मुद्दों पर गहरी समझ की दरकार होती है और साथ-साथ फौरन से पेशतर फैसले लेने की क्षमता. चूंकि पत्रकारों को समाज के ताकतवर तबकों के दबाव और रोष का भी लगभग सामना करना पड़ सकता है, इसलिए किसी खबर पर काम करने के सभी चरणों के दौरान आपमें ऐसी स्थितियों से निपटने का कौशल और रणनीति होना भी जरूरी है, कहानी के छपने से पहले और छपने के बाद भी। दुश्वारियों से भरे इस पेशे में आपको स्व-रक्षा कवच भी विकसित करने होंगे। इन कवचों को जंग लगने से बचाने और कारगर बनाए रखने के लिए समय-समय पर उनकी साफ-सफाई और देखरेख भी जरूरी है। अधिकांशत: मैं राजनेताओं द्वारा कही गई बातों को घास नहीं डालता, लेकिन पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट का हमारे पेशे को लेकर यह कथन मुझे बहुत माकूल लगता है।

लब्ध प्रतिष्ठित सम्पादक अज्ञेय के अपने निश्चित मानदंड थे, जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अज्ञेय जी की संपादन नीति ही थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके अपने निश्चित मानदंड थे जिन पर वे कार्य करते थे। उन्होंने सम्पादकों एवं पत्रकारों को भी मानदंडों पर चलने को प्रेरित किया। ‘आत्मपरक’ में अज्ञेय नीतिविहीन कार्य को ही उन्होंने पत्रकारों एवं सम्पादकों की घटती प्रतिष्ठा का कारण बताया था। उन्होंने कहा कि-‘‘अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उनके पास मानदंड नहीं है। वहीं हरिशचन्द्रकालीन सम्पादक-पत्रकार या उतनी दूर ना भी जावें तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हमसे अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे। क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे।’’

अज्ञेय जी का मानना था कि पत्रकार अथवा सम्पादक को केवल विचार क्षेत्र में ही बल्कि कर्म के नैतिक आधार के मामले में भी अग्रणी रहना चाहिए। भारतीय लोगों पर उन व्यक्तियों का प्रभाव अधिक पड़ा है जिन्होंने जैसा कहा वैसा ही किया। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की परम्परा पर चलने वाले लोगों को भारत में अपेक्षाकृत कम ही सम्मान मिल पाया है। संपादकों एवं पत्रकारों से कर्म क्षेत्र में अग्रणी रहने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।’

अज्ञेय पत्रकारिता को विश्वविद्यालय से भी महत्वपूर्ण और ज्ञानपरक मानते थे। इसका एक उदाहरण है जब योगराज थानी पीएचडी करने में लगे हुए थे, तब अज्ञेय जी ने उनसे कहा कि-‘पत्रकारिता का क्षेत्र विश्वविद्यालय के क्षेत्र से बड़ा है, आप पीएचडी का मोह त्यागिए और इसी क्षेत्र में आगे बढि़ए।’

पराधीन भारत में अखबारों की भूमिका महती रही है। लेकिन ऋषि परम्परा के सम्पादकों को यह भान हो गया था कि आने वाले समय में अखबारों की आत्मा मर जाएगी। हालांकि तब इन सम्पादकों को यह ज्ञात नहीं था कि भविष्य में पत्रकारिता का स्वरूप मीडिया हो जाएगा। यदि ऐसा होता तो पत्रकारिता के युग पुरुष पराडक़रजी ने अखबारों के बारे में जो लिखा है, वह तो सत्य है लेकिन मीडिया के बारे में वे और जाने क्या भविष्य बांचते। फिलहाल अखबारों के बारे में पराडक़रजी की टिप्पणी आज भी सामयिक है।

1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी, वह आज प्रत्यक्ष हो रही है। पराडक़र जी ने कहा था कि ‘स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूंजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतंत्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही संभव होगा।

पत्र की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा; पर समाचार पत्र प्राणहीन होंगे। समाचार पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जायेंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी।

वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें।

वर्तमान परिवेश में पराडक़र जी की बातें सौफीसदी सच हो रही है। मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में खेल रही है और आम आदमी स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहा है। मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई निश्चित कानून नहीं होने के कारण अनेक बार मीडिया मनमानी करता है। स्व-नियंत्रण की बात अनेक बार आयी लेकिन नतीजा हमेशा सिफर रहा। हालांकि वर्तमान दौर पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक एवं इंटरनेट का है और मीडिया उस पर आश्रित हो गया है। एआई और चैट जीपीटी जैसे प्रोग्राम के सहारे आधी-अधूरी जानकारी के साथ मीडिया आगे बढ़ रहा है।

(लेखक शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं और वर्तमान में माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)

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क्या संगीत और रागों की सहायता से प्राचीन मंदिरों में उकेरी गई महीन कलाकृतियाँ

ध्रुपद गायक बैजू बावरा का काल पंद्रहवीं शताब्दी का माना जाता है। तानसेन से अपने मुकाबले में बैजू ने राग मालकौंस गाया। इसके प्रभाव से पत्थर पिघल गया। पिघले हुए पत्थर में बैजू ने अपना तानपुरा फेंका। पत्थर ठंडा होने पर तानपुरा पत्थर में गड़ा रह गया। तानसेन पत्थर पिघलाकर तानपुरा निकाल नहीं सके। पंद्रहवीं शताब्दी तक पत्थर को राग शक्ति से पिघलाया जा सकता था।

आज ये कथा स्वामी सूर्यदेव जी की पोस्ट से एक क्लू मिलने के बाद लिखी जा रही। गुरुदेव लिखा कि प्राचीन काल में शिल्पकार राग मालकौंस गाते हुए ग्रेनाइट के पत्थरों को काटते थे। जब तक कोई विधि न हो ग्रेनाइट को कलात्मक ढंग से काट नहीं सकते। गुरुदेव ने बहुत अच्छे से अल्केमी को एक्सप्लेन किया। पत्थरों को किसी तरह मुलायम बनाकर फिर सूक्ष्म कारीगरी करने की थ्योरी नई नहीं है। इस पर कई वर्ष से शोध किया जा रहा है। कंबोडिया से भी एक मिथक निकल कर आया है।
कंबोडिया में एक विशेष पत्थर होता था। इसे म्यूजिकल स्टोन कहते थे। संगीत वाले पत्थर विश्व के अनेक भागों में पाए जाते हैं, जो एक विशेष राग उत्सर्जित करते हैं। संभव है कंबोडिया के वे जादुई पत्थर विशेष क्रिया के बाद राग मालकौंस की ध्वनि निकालने लगते होंगे। कंबोडिया मिथक कहता है कि इस विशेष पत्थर से बाकी बड़ी चट्टानों को पिघलाया/मुलायम किया जाता था।

ऋग्वेद में एक पौधे का उल्लेख है। पक्का नाम नहीं पता। American cliff swallow नामक अमेरिकी चिड़िया प्राचीन काल में पथरीली चोटियों में छेद कर घोंसला बना लेती थी। वह पर्टिकुलर स्थान पर इस पौधे की पत्तियों का रस प्रयोग करती थी। स्पष्ट है कि चोंच पत्थर को नहीं छेद सकती। प्राचीन पेरू निवासियों ने इस पक्षी की सहायता से उस पौधे का पता लगाया और उसका प्रयोग अपने अचंभित करने वाले निर्माणों में किया। कुछ कहते हैं वह पौधा विलुप्त हो गया और कुछ कहते हैं कि वह अब भी सर्वाइव कर रहा है।
कर्नाटक के होयसलेश्वर मंदिर में पत्थर को मुलायम बनाकर अविश्वसनीय शिल्प बनाने का जीवंत प्रमाण देखा जा सकता है। कहना मुश्किल है कि वे कौनसी विधि प्रयोग में ला रहे थे। अधिक विश्वास इस बात का है कि वे राग मालकौंस की शक्ति से ऐसा कर रहे थे। विश्व के अन्य भागों में भी ये कार्य हो रहा था।

( चित्र में अचरज से होयसलेश्वर मंदिर का शिल्प देख रहे वृद्ध पर्यटक के मन की गुत्थी सुलझाने का एक प्रयास भर किया है।)
निधि सिंह की वॉल से साभार
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अयोध्या में दशरथ और राम के अलावा भी कई राजा हुए हैं

अयोध्या के सूर्यवंशी राजा हरिशचंद्र के पुत्र का नाम रोहित था। रोहित के पुत्र को हरित के नाम से जाना जाता था, और हरित का पुत्र चम्पा था। चम्पा का पुत्र सुदेव था।  उसका पुत्र विजय था।चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। इसी राजा के कार्यकाल में आदि कवि बाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना की गई थी। रामायण के रचनाकार प्रचेता पुत्र महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि भी कहा जाता है। वो इस कारण कि काव्य का जैसा प्रस्फुटन रामायण में देखने को मिला, वैसा उससे पहले कभी देखने को नहीं मिला था। इसी कारण रामायण को पहला महाकाव्य कहा जाता है। इसी समय महर्षि भारद्वाज भी हुए थे। तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के साथ थे, वाल्मीकि रामायण के अनुसार भारद्वाज महर्षि वाल्मीकि के शिष्य थे। ऋषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। राजा विजय एक कमजोर शासक था । इनकी सूची में नाम तो मिलता है पर ज्यादा गतिविधियां नही मिलता है।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार —
विनय और सुदेव चैम्प के दो पुत्र थे। सुदेव सभी क्षत्रियों के विजेता थे। इसलिए, उन्हें विजय के रूप में याद किया जाता है । वह कोसल का एक राजा था। ब्रह्माण्ड पुराण के अध्याय 73 में कहा गया है कि कोसल के इस राजा विजया ने परशुराम का सामना किया और पराजित हुआ था । एक कोई विजय राजा ने वाराणसी शहर पर शासन किया। विजय ने खांडवी शहर को नष्ट कर दिया और वहां खांडव वन उग आया। बाद में उसने जंगल इंद्र को दे दिया। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा उपरीचर था (कालिका पुराण, अध्याय 92)।
विजय, धुंधु (चैम्प )के दो बेटों में से एक को संदर्भित करता है जो रोहित का पुत्र था , 10 वीं शताब्दी के सौरपुराण के वंशानुचरित खंड के अनुसार : शैव धर्म को दर्शाने वाले विभिन्न उपपुराणों में से एक रहा । तदनुसार,  धुंधुमारी ( चैम्प) के तीन बेटे थे दृढ़ाश्व और अन्य। दृढ़ाश्व का पुत्र हरिश्चंद्र था और रोहित हरिश्चंद्र का पुत्र था। धुंधु रोहिताश्व का पुत्र था। धुंधु के दो बेटे थे- सुदेव और विजय थे । विजय राजा अणु राजा सौवीर के समकालीन था जिन्होंने सौवीर साम्राज्य की स्थापना किया था।
        
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 
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