Thursday, July 4, 2024
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आशा रानी जैन ‘आशु’ की कविताएं देती हैं बच्चों को सार्थक सन्देश

बच्चे की मुस्कान।
जड़ी बूटी के समान ।।
कितनी गहरी बात को छोटे से शब्दों में अभिव्यक्त कर बच्चे का महत्व प्रतिपादित किया जिनकी की मुस्कान सभी के दिलों को हर्षित कर जड़ी बूटी का काम करती है, एक नैबुर्जा का संचार करती है। रचनाकार के सृजन कौशल का ही कमाल है कम शब्दों में सार्थक सन्देश देना। आशा रानी जैन ” आशु ” ऐसी ही रचनाकर हैं जिन्होंने बच्चों के मनोविज्ञान को समझ कर सहज और सरल शब्दों में बाल रचनाओं का सृजन कर बाल साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई।
इनके द्वारा सृजित कुछ बाल गीतों की बानगी देखिए…………
1. फर फर फर फर उड़े कबूतर कितने सुंदर लगते हैं।
गुटर गुटरगूं गुटर गुटरगूं बातें करते रहते हैं।

2. वर्षा पर……..
छपाक छम भई छपाक छम
पानी बरसा छम छम छम
दौड़ लगाइ जम जम जम
पैर फिसल गया गिर गए हम।
मां ने धोया धम धम धम
आं आं ऊं ऊं रोए हम।

3. चुहिया पर……….
टमरक टूं भई टमरक टूं
चुहिया बोली चूं चूं चूं
सारे घर में दौड़ लगाए
कुतर कुतर सब काटे खाए

4. तकिया पर……..
तकिया मेरा गोलम गोल
लगता जैसे छोटा ढोल

5. तारे पर…….
टिम टिम टिम टिम कितने सारे।
आसमान में दिखते तारे।।
चम चम चम चम चमक रहे हैं।
मोती जैसे दमक रहे हैं ।

6. देशभक्ति पर……….
भिन्न-भिन्न है भाषा वेश।
एक मगर है भारत देश ।।
बाइबल गीता और कुरान ।
यहां सभी को मिलता मान।।

7. धरती माता पर……….
काट -काट कर वृक्ष, धरा को जो सुना कर जाएंगे ।
ठंडी हवा फूल फल मेंवे कहो कहाँ से पाएंगे।।अभी प्रतिज्ञा करें आज हम हरे वृक्ष नहीं काटेंगे ।
खूब करेंगे वृक्षारोपण जग में खुशियां बाटेंगे।।

ऐसे सहज सरल और मनोरंजक शब्दों के माध्यम से शिशु गीत की पुस्तकों में बच्चों को विभिन्न पशु पक्षियों की बोलियां और दिशाओं की जानकारी भी दी गई है ,साथ ही किस पशु पक्षी के शिशु को क्या कहा जाता है इसके बारे में भी जानकारी दे ने वाले अनेक छोटे-छोटे से शिशु गीत हैं। अनेक मनोरंजक और संदेश प्रधान अनेक बाल कविताएं लिखने वाली रचनाकार की अब तक 5 कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें गुंजन– बाल कविता संकलन, कलरव — शिशु गीत संग्रह , छू लो गगन -बाल गीत संग्रह, चीं चीं चूं चूं – शिशु गीत संग्रह और उड़ते पंछी — बाल गीत संग्रह शामिल हैं। इनकी कृति उड़ते पंछी राजस्थान बाल साहित्य अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित है।

अनेक साझा संकलनों भी इनकी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। इनका बाल साहित्य समाज में बालकों के माता-पिता और छोटी कक्षा में पढ़ने वाले अध्यापकों तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं हेतु बहुत ही उपयोगी साबित हुआ है कई आंगनबाड़ियों में कार्यकर्ता महिलाएं शिशु गीत की पुस्तकों के माध्यम से बालकों को सिखाने का प्रयास कर रही हैं।

हिंदी ,हाड़ौती एवं मालवी भाषाओं पर इनका समान अधिकार है। ये पद्य विधा में बाल एवं शिशु गीत के साथ-साथ छंद,गीत, ग़ज़ल,मुक्तक लिखती हैं। स्वत: प्रेरणा से इनका लेखन का मर्म सामाजिक समरसता में वृद्धि और समाज के हर वर्ग की कोमल भावनाओं के अभिव्यक्त कर समाज को शांति, ,सद्भावना, त्याग व प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और करुणा के भाव का संदेश देना है । इनके लेखन में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व है विशेष कर नारी के अंतर्मन में झांक कर नारी संबंधी विषयों को छुआ है। एक बानगी देखिए जिसमें नारी मन की पीड़ा को उभारा है…..
शब्द कहां से लाऊं रे मैं शब्द कहां से लाऊं।
पीर घनेरी इतनी है मैं भावों से भर जाऊं।।
युगों युगों से मुझको छलता आया है येजमाना।
आंखों में पानी आंचल में दूध मुझे बस माना ।।
तोड़ पगों की बेडी क्यों न नील गगन तक जाऊं ।
शब्द कहां से लाऊं रे मैं शब्द कहां से लाऊं।।

सुमित्रानंदन पंत जयशंकर प्रसाद महादेवी वर्मा और निराला आदि का साहित्य इन्हें बेहद पसंद है और कई बार इनकी रचनाएं सुन कर साथी रचनाकर इन्हें सहज ही में हाडोती की महादेवी वर्मा भी कह देते हैं । अध्ययन में इनकी सदैव से बहुत रुचि रही है। वनस्थली विद्यापीठ के पुस्तकालय से साहित्य पढ़ने के शौक को बखूबी पूरा किया। मुंशी प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन, मन्नू भंडारी आदि आदि के साहित्य का अध्ययन किया है। प्रकृति प्रेमी होने के कारण आशु के पद्य साहित्य में छायावादी कवियों का विशेष प्रभाव रहा है। जैन पूजा पद्धति और तुलसीदास जी के साहित्य ने छंद लेखन में विशेष मार्गदर्शन किया है। इनकी हिंदी ग़ज़लें भी बहुत ही उम्दा है। कविता, ग़ज़ल या गीत लिखना मन की स्व अनुभूति और अंतरात्मा की आवाज़ होती है जिनमें एक सम्मोहन और गहराई होती हैं। चाहे प्रेम हो, विरह, प्रकृति, सौंदर्य बोध, श्रृंगार या और कोई विषय जिस पर कविता होगी वह सुनने वालों को अपने आकर्षण में बांध लेगी। ग़ज़ल के कुछ अंश की बानगी देखिए……..
किसी की आरजू और कोई मन की आस लिखती है।
किसी के नेह का अनमोल ये विश्वास लिखती है।।
कभी आँसू हैं सीता के कभी राधा की है तड़पन।
कभी ये वेदना गहरी कभी ये रास लिखती है।।
‘ आशू’ ये बड़ी कोमल हवा सी सबको छू लेती।
कलम हर दिल की धड़कन है ,सभी की श्वास लिखती है।

इनका एक ग़ज़ल संग्रह “सैलाब” राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के प्रकाशन सहयोग से प्रकाशित हुआ है। इसे पढ़ने वाले को लगता है जैसे उसके ही मन की बात कह दी है । हर ग़ज़ल का एक- एक शेर हृदय स्पर्शी है । समरसता पर केंद्रित ग़ज़ल की बानगी देखिए……….
सारी खुशियां सारे गम साझा करें।
आओ मिलकर एक नया सौदा करें।।
जाति भाषा धर्म के झगड़े भूला।
आदमी को आदमी समझा करें।।

मां और बेटी दोनों से इनका का विशेष लगाव रहा है। ग़ज़ल संग्रह में तीन गजलें मां को और तीन गजलें बेटियों को समर्पित हैं, देखिए बानगी………
तेरी मुस्कान मेरा हौसला है हिम्मत है।
तेरे आशीष की हर पल मुझे जरूरत है।।
तुझसा पाया न कोई आसरा ऐ मां मेरी।
तेरे आंचल की छांव सबसे खूबसूरत है।।
मैं तेरा कर्ज भला कैसे चुका पाऊँगा।
तूने जो मुझपे लुटाई दुआ की दौलत है।।
न जाने कितने बड़े दिल की तू है मां मेरी ।
बांटना प्यार ही तेरी रही इबादत है।।
तू है करुणा का कलशऔर क्षमा की देवी ।
तूने ही माफ की मेरी हरिक शरारत है।।
तूने नींदें गंवाईं मेरे लिये रातों की।
कभी बयाँ न किया दर्द न शिकायत है।।
‘ आशू’ ममता का हरिक फर्ज निभाया दिल से। कभी मांगी न छुट्टी और न की बगावत है।।

परिचय :
बाल साहित्य में पहचान बनाने वाली रचनाकार आशा रानी ‘आशु ‘ का जन्म 28 नवंबर 1961 को अजमेर में हुआ। आपने हिंदी साहित्य और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। वनस्थली विद्यापीठ से शिक्षा में बी एड किया। आपकी “कलिकाएं” – मुक्तक संग्रह प्रकाशनाधीन है। आपने कई मंचों पर काव्य पाठ किया और दूरदर्शन राजस्थान एवं आकाशवाणी झालावाड़ से कई बार आपके काव्य पाठ का प्रसारण किया गया। विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं और काव्य पाठ करती हैं। समय – समय राजस्थान की विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको बाल साहित्य भूषण ,ग़ज़ल साधक,छंद गौरव , साहित्य साधक, काव्य साधक, शतकवीर, और लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मानों से सम्मानित किया गया है। आपको विभिन्न संस्थाओं में उत्प्रेरक उद्बोधन हेतु भी आमंत्रित किया जाता है। विश्व हास्य योग महासंघ इंदौर और यूपी प्रतापगढ द्वारा आयोजित “राम पर गीत प्रतियोगिता” में विजेता रही। पिछले 20 वर्षों से गरबा नृत्य प्रशिक्षक के रूप में सक्रिय हैं। आप राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय डोला, जिला झालावाड से द्वितीय श्रेणी अध्यापिका पद से सेवानिवृत्त हुई हैंऔर वर्तमान में साहित्य साधना में लगी हुई हैं।
चलते – चलते………
इंसानियत से बढ़कर क्यों हो गया है पैसा।।
क्यूं दर्द में किसी के हम आंख फेर लेते।
क्या भाई वो हमारा अब है न पहले जैसा।।
झगड़ों को देख घायल मां भारती सिसकती।
दामन किया है बेटों ने तार तार ऐसा।।
इंसान हों सभी बस इंसानियत को पूजें।
या रब तू ही बना दे मजहब कोई तो ऐसा।।
किस मोड़ पे खड़ा है आकर ये देश मेरा।
हो जाए फिर से ‘ आशु ‘ यहां रामराज्य वैसा।।

 

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ईरान के बारे में वो 17 तथ्य जो आप नहीं जानते हैं

1. ईरान दुनिया के सबसे पुराने लगातार बसे हुए शहरों में से एक है, सुसा, जो 6,000 वर्षों पहले का है।
2. ईरान में प्रति व्यक्ति दुनिया की सबसे अधिक नाक की नौकरियां दर्ज की गई हैं, जिससे कॉस्मेटिक सर्जरी आश्चर्यजनक रूप से आम है।
3. ईरान दुनिया के सबसे पुराने एकाेश्वरवादी धर्मों में से एक का दावा करता है, जोरोस्ट्रियनवाद, जो 3,500 वर्षों पहले का है और अन्य प्रमुख धर्मों के विकास को प्रभावित करता है।
4. ईरान में तब्रिज शहर 13 वीं शताब्दी में मंगोल इलखनेट की राजधानी था और सिल्क रोड पर एक प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करता था।
5. ईरान दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है जहां कुछ अपराधों के लिए सजा के रूप में हाथ काटने का उपयोग अभी भी किया जाता है।
6. तेहरान, ईरान की राजधानी, इस्तांबुल के बाद पश्चिमी एशिया में दूसरा सबसे बड़ा शहर है।
7. ईरानी भोजन अविश्वसनीय रूप से विविध है, प्रत्येक क्षेत्र में अपनी अलग पाक परंपराओं का दावा है, जैसे कि उत्तर में गिलान का मसालेदार और सुगंधित भोजन।
8. ईरान में फ़ारसी तेंदुए की दुनिया की सबसे बड़ी आबादी है, जो लुप्तप्राय हैं और मुख्य रूप से अल्बोर्ज़ और ज़गरोस पर्वत पर रहते हैं।
9. ईरान दुनिया के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक का घर है, कौम में अल-कारवियिन विश्वविद्यालय, 859 ईस्वी में स्थापित किया गया था।
10. अपने बड़े पैमाने पर रेगिस्तानी जलवायु के बावजूद, ईरान 7,000 से अधिक पौधों की प्रजातियों का घर है, जिनमें से कई इस क्षेत्र के लिए स्थानिक हैं।
11. ईरान में कविता की एक समृद्ध परंपरा है, जिसमें हाफिज और रूमी जैसे कवियों को उनके गहन और गीत के छंदों के लिए दुनिया भर में मनाया जाता है।
12. मध्य ईरान में प्राचीन शहर यज़द अपने अद्वितीय पवन टावरों के लिए जाना जाता है, जिनका उपयोग सदियों से इमारतों में प्राकृतिक वेंटिलेशन प्रदान करने के लिए किया जाता है।
13. ईरान दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है जहां उच्च शिक्षा में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है, पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने विश्वविद्यालयों में दाखिला लिया है।
14. पारंपरिक फारसी नव वर्ष, नौरूज़, वसंत विषुव पर मनाया जाता है और 3,000 से अधिक वर्षों से मनाया जाता है।
15. विश्व के किसी भी अन्य देश की तुलना में ईरान में स्नातक स्तर पर इंजीनियरिंग और विज्ञान की पढ़ाई करने वाली महिला छात्रों की संख्या सबसे अधिक है।
16. ईरानी शहर इस्फ़हान कभी दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक था और सफविड राजवंश के तहत फारसी साम्राज्य की राजधानी के रूप में कार्य करता था।
17. ईरान दुनिया के सबसे पुराने बाज़ारों में से एक है, तेहरान का ग्रांड बाज़ार, जो 200 साल पहले का है और 10 किलोमीटर की भूलभुलैया गलियों और हलचल बाजार स्टालों में फैला है।

साभार- https://www.facebook.com/binodbhaiji से 

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जगजीवनपुर का ताम्रपत्र

शुक्रवार, दिनांक १३ मार्च, १९८७ को बंगाल के मालदा शहर से लगभग ४० किलोमीटर दूर, ‘जगजीवनपुर’ इस गांव में बारीश हो रही थी. इस क्षेत्र मे ‘वैशाख काला’ के दिनों मे वैसे भी वर्षा और तूफान आते जाते रहते हैं. किंतू यह वर्षा कुछ तेज थी. वर्षा का पानी घर मे न घुसे, इसलिए उसे दुसरी दिशा में प्रवाहित करने के लिए, जगदीश गाईन, घर के सामने जमीन मे खोद रहे थे. खोदते – खोदते उन्हे अचानक धातू की एक पट्टी मिली.

उस पट्टिका को साफ कर के देखा तो वह तांबे की बडी सी पट्टिका थी. इस के उपर पीतल की एक मुद्रा थी, जो राजमुद्रा लग रही थी. इस पट्टिका पर कुछ लिखा गया था. ठीक से देखा, तो आगे – पीछे मिलकर कुल ७२ पंक्तियां थी. लिपि कुछ अलग थी. बाद मे जब पुरातत्व विभाग ने इस पट्टिका को जांचा, तो पता चला, यह नवमी शताब्दी का ताम्रपत्र हैं, जो संस्कृत भाषा में, किंतू ‘सिध्दमात्रिका’ लिपि (देवनागरी लिपि का प्रारंभिक स्वरुप) में लिखा गया हैं।

_(यह ताम्रपत्र लगभग १२ किलो का हैं. इस ताम्रपत्र के उपर पीतल की जो राजमुद्रा बनी हैं, उसके बीचोंबीच धर्मचक्र हैं. उपर कमल का फूल तथा धर्मचक्र के दोनो ओर हिरन हैं. विक्रम संवत ९११ के वैशाख व्दितीया को यह ताम्रपत्र लिखा गया हैं)_

इस ताम्रपत्र ने भारत के पूर्व भाग के (विशेषतः बंगाल के) अज्ञात इतिहास को जीवंत कर दिया. यह ताम्रपत्र, इस बात की घोषणा करता है कि ‘पाल राजवंश के राजा महेंद्रपाल (सन ८४५ से ८६० के बीच राज्य किया) ने अपने ‘महासेनापती वज्रदेव’ को यह स्थान दिया हैं, बौध्द विहार के निर्माण के लिए. इस बौध्द विहार मे प्रवासी बौध्द भिख्खूओं के रुकने, रहने और पांडुलिपीयों की प्रतियां तैयार करने की व्यवस्था रहेगी.’

इस ताम्रपत्र ने इतिहासविदों मे भ्रम की स्थिति निर्माण कर दी. कारण, इतिहास मे, पाल राजवंश मे ‘राजा महेंद्रपाल’ नाम का कोई राजा था, इसका कही भी भी उल्लेख नही था. सन ८४५ मे राजा धर्मपाल के पुत्र, ‘राजा देवपाल’ की मृत्यू के पश्चात सीधा उल्लेख आता हैं, राजा सूरपाल (प्रथम) का. मानो, भारत के, विशेषतः बंगाल के, इतिहास के सन ८४५ से ८६०, यह पंद्रह वर्ष गुम हो गए थे, जो इस ताम्रपत्र ने ढूंढ निकाले> (बाद के शोध ने यह सत्य सामने लाया की राजा महेंद्रपाल की माताजी का नाम ‘महोटा देवी’ था. वे तत्कालिन तमिल राज्य के गुर्जर प्रतिहार राजा की इकलौती कन्या थी. सन ८६० मे उनके पिता की मृत्यू के बाद राजा महेंद्रपाल, उस गुर्जर प्रतिहार राज्य के राजा बने तथा यहां गौर मे उनके राज्य को उनके छोटे भाई, राजा सूरपाल (प्रथम) ने सम्भाला.)_

इस ताम्रपत्र के मिलने के बाद, इसी स्थान पर, भारत के पुरातत्व विभाग ने सन १९९२ से उत्खनन प्रारंभ किया. दुसरे फेज मे १९९५ – २००५ मे फिर से उत्खनन हुआ. इससे सामने आया, एक परिपूर्ण बौध्द विहार – ‘नंददीर्घिका’. बारह सौ वर्ष पुराना. अत्यंत सुव्यवस्थित, सुरचित, सारी व्यवस्थाओं से पूर्ण.

इस बौद्ध विहार मे बीच मे बराबर चौकोन के आकार मे खाली जगह हैं. खाली जगह के बाद, चारो ओर बरामदा हैं. बरामदे के बाद, उत्तर मे गर्भगृह हैं, पश्चिम मे भिख्खूओं के लिये कमरे हैं. पूर्व मे विद्यार्थियों के लिये कक्ष और उसके बाद सभी के लिये, पंक्तियों मे, सात शौचालय हैं. पानी के निकास की व्यवस्था हैं. उत्तर मे, बरामदे और गर्भगृह के बीच, गुरुजनों के कक्ष हैं.

कल इतिहास के इस विस्मृत स्थान को देखने का सौभाग्य मिला. यह स्थान पुरातत्व विभाग के स्वामित्व मे हैं. वहां एक संग्रहालय भी बन रहा हैं. किंतू यह स्थान पूरी तरह उपेक्षित हैं. न नाम की पट्टिका, और न ही साफ-सफाई. इतिहास का इतना महत्वपूर्ण स्थान यदि युरोप के किसी देश मे होता, तो इस जगजीवनपुर का भाग्य कुछ और ही होता.

इसी प्रवास मे श्री जगदीश गाईन की भी भेंट हुई, जिन्हे वह ताम्रपत्र मिला, जिसके कारण इतिहास का अज्ञात हिस्सा हम सबके सामने आया. जगजीवनपुर के शाला मे बंगाली पढाने वाले वाले एक शिक्षक ने अत्यंत रोचक शैली मे इस बौध्द विहार का और इस के पिछे के इतिहास को बताया.

पुरातत्व के यह स्थान, हम सब के, हमारे समाज के, हमारे देश के गौरव स्थान हैं।

(लेखक एतिहासिक व पुरातात्विक महत्व के विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं और इनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है)
# प्रशांत पोळ
#Jagjivanpur  #जगजीवनपुर #पुरातत्व
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तीन मूर्ति भवन का इतिहास

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के तीन मूर्ति भवन परिसर में स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी का नाम बदल दिया गया था। इसका नाम ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय सोसाइटी’ कर दिया गया था। केंद्र सरकार के इस फैसले की कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने तब आलोचना भी की थी । नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय (एनएमएमएल) के भवन को 1929-30 में सर एडविन लुटियंस ने डिजाइन किया था। यह अंतिम ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ का आधिकारिक घर था और इसे तीन-मूर्ति हाउस के नाम से जाना जाता था। अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद यह भवन देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का आवास बन गया था।

जवाहरलाल नेहरू यहां 16 वर्षों तक रहे और उनकी मृत्यु के बाद सरकार ने उनके सम्मान में तीन मूर्ति हाउस को एक संग्रहालय और पुस्तकालय में बदलने का फैसला लिया। इसका उद्घाटन 14 नवंबर 1964 को तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था। इसके प्रबंधन के लिए 1966 में नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और लाइब्रेरी सोसाइटी का गठन किया गया था। यह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्तशासी संस्थान है, जहां देश के पत्रकार, लेखक,शोधार्थी आदि ऐतिहासिक-सामाजिक विषयों से जुड़ी सामग्री का अध्ययन करने के लिए आते हैं। समसामयिक विषयों पर समय-समय पर उच्च स्तरीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार भी होते हैं। बहुत पहले दो-एक संगोष्ठियों में भाग लेने का अवसर मुझे भी मिला है।

एनएमएमएल की कार्यकारी परिषद ने 2016 में ‘नेहरू स्मारक संग्रहालय’ के स्थान पर सभी प्रधानमंत्रियों को समर्पित एक वृहत संग्रहालय स्थापित करने की मंजूरी दी थी। 16 जून 2023 को इसका नाम बदलने का फैसला लिया गया था। दरअसल, नाम बदलने के पीछे सरकार की मंशा संभवतः यह थी कि जब दूसरे प्रधानमंत्रियों ने भी देश की सेवा की है और देश-निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है तो मात्र एक ही प्रधानमंत्री के नाम पर संग्रहालय क्यों हो?अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के लिए अलग-अलग स्मारक बनाने की परम्परा डालने से अच्छा है कि देश के सभी प्रधानमंत्रियों को एक ही म्यूजियम में सम्मानजनक स्थान दिया जाय ताकि दर्शकों,शोधकर्त्ताओं और अध्येताओं को हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों से जुडी सारी सूचनाएं और सामग्री एक ही जगह पर मिल जाय।अगर प्रत्येक प्रधानमंत्री के लिए अलग से एक-एक स्मारक अथवा संग्रहालय बनाया गया तो जगह की कमी तो रहेगी ही,राजकोष पर व्यय भी बढ़ेगा।

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दोषी प्रिंसिपल के खिलाफ कार्रवाई करने में संस्थान के प्रबंधन बोर्ड की अनिच्छा

मुंबई।
तकनीकी शिक्षा निदेशालय द्वारा आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली को सूचित किया गया है कि तकनीकी शिक्षा निदेशालय को पिछले 5 वर्षों में सरकारी, सहायता प्राप्त और अनुदानित अल्पसंख्यक संस्थानों में प्रिंसिपल और अन्य लोगों के खिलाफ 2 शिकायतें मिली हैं और उन पर कार्रवाई करने के लिए संस्थान का प्रबंधन बोर्ड अनिच्छुक है।

आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने तकनीकी शिक्षा निदेशालय को आवेदन देकर पिछले 5 वर्षों में सरकारी, सहायता प्राप्त और अनुदान प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों में प्रिंसिपलों और अन्य लोगों के खिलाफ प्राप्त शिकायतों और कार्रवाई की जानकारी मांगी थी। तकनीकी शिक्षा निदेशालय के जन सूचना अधिकारी और सहायक निदेशक प्रकाश भंडारवार ने अनिल गलगली को प्राप्त 2 शिकायतों के बारे में जानकारी दी।

इन शिकायतों में अंजुमन इस्लाम के एम. एम.एच. मुंबई में साबू सिद्दीकी पॉलिटेक्निक (सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान) के प्राचार्य डाॅ. ए.के. कुरेशी और औरंगाबाद में कमला नेहरू तंत्र निकेतन के प्रिंसिपल आर कटारिया के मामले में, शिकायतों को कार्रवाई के लिए संयुक्त निदेशक को भेज दिया गया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। डॉ. आर कटारिया की जांच के लिए एक जांच कमेटी बनाई गई, लेकिन जांच में शामिल एक अन्य प्रिंसिपल डॉ. ग़ालिब हुंडेकरी के असहयोग के कारण बाधा उत्पन्न हुई। तो डीटीई ने डाॅ. हुंडेकरी के खिलाफ भी कार्रवाई का आदेश दिया गया है। डॉ कटारिया पर सरकारी धन का दुरुपयोग करने और अपनी उच्च शैक्षणिक योग्यता के फर्जी दस्तावेज बनाने का आरोप है।

प्राचार्य एमएच साबू सिद्दीकी पॉलिटेक्निक, डाॅ. ए.के. कुरेशी के मामले में, ट्रस्ट अंजुमन इस्लाम ने अभी तक उनके खिलाफ शिकायत की जांच शुरू नहीं की है। डॉ. ए.के. क़ुरैशी पर अपनी पत्नी की बीमारी की छुट्टी के अधिकार के बारे में सरकार को गुमराह करने का आरोप है, लेकिन उन्होंने सरकार को धोखा दिया और मालेगांव मंसूरा कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में प्रिंसिपल के रूप में एक पद स्वीकार कर लिया।

अनिल गलगली ने कमला नेहरू तंत्र निकेतन और अंजुमन-ए-इस्लाम के प्रबंधन के तहत संस्थानों द्वारा जवाबदेही और अनुपालन की कमी की आलोचना की है। उन्होंने सुझाव दिया है कि उनके पद का दुरुपयोग रोकने के लिए उनकी मान्यता रद्द कर दी जानी चाहिए।

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मर गई चिड़िया बच गई कविता

(जन्म:21 मई 1931, उज्जैन – निधन :5 सितंबर 1991, मुंबई)

‘च’ ने चिड़िया पर कविता लिखी।
उसे देख ‘छ’ और ‘ज’ ने चिड़िया पर कविता लिखी।
तब त, थ, द, ध, न, ने
फिर प, फ, ब, भ और म, ने
‘य’ ने, ‘र’ ने, ‘ल’ ने

इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने
चिड़िया पर कविता लिखी।
चिड़िया बेचारी परेशान
उड़े तो कविता
न उड़े तो कविता।
तार पर बैठी हो या आँगन में
डाल पर बैठी हो या मुंडेर पर
कविता से बचना मुश्किल

मारे शरम मरी जाए।
एक तो नंगी,
ऊपर से कवियों की नज़र
क्या करे, कहाँ जाए
बेचारी अपनी जात भूल गई
घर भूल गई, घोंसला भूल गई

कविता का क्या करे
ओढ़े कि बिछाए, फेंके कि खाए
मरी जाए कविता के मारे
नासपीटे कवि घूरते रहें रात-दिन।

एक दिन सोचा चिड़िया ने
कविता में ज़िंदगी जीने से तो मौत अच्छी
मर गई चिड़िया
बच गई कविता।
कवियों का क्या,
वे दूसरी तरफ़ देखने लगे।

(शरद जोशी अपने समय के अनूठे व्यंग्य रचनाकार थे जो कवि सम्मेलनों के मंच पर अपने व्यंग्य पढ़कर वाहवाही लूट लेते थे। व्यंग्य संग्रह के रूप में उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है।

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उम्मीद है कि एनटीओ 3.0 पे टीवी इकोसिस्टम को मजबूत बनाएगा: पुनीत गोयनका

जी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड (ZEEL) के एमडी व सीईओ पुनीत गोयनका ने कहा है कि टेलीविजन इंडस्ट्री को उम्मीद है कि न्यू टैरिफ ऑर्डर (NTO 3.0) का कार्यान्वयन और टैरिफ पे टीवी इकोसिस्टम को मजबूत करेगी और सब्सक्रिप्शन रेवेन्यू निरंतर वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगी।

श्री पुनीत गोयनका ने कहा, इस साल ऐडवर्टाइजिंग और सब्सक्रिप्शन में सिंगल डिजिट की वृद्धि देखी जाएगी, लेकिन इस बिंदु पर ध्यान इस बात पर है कि पे टीवी इकोसिस्टम को कैसे बढ़ाया जाए।

भारत में पे टीवी सब्सक्रिप्शन में गिरावट देखी जा रही है, अधिकांश परिवार कनेक्टेड टीवी या फ्री-टू-एयर (एफटीए) के जरिए डिजिटल की ओर पलायन कर रहे हैं। साइलेंट प्लेयर कई घरों को मुफ्त टेलीविजन का उपभोग करने के लिए लुभा रहा है। इंडस्ट्री में इस बदलाव के चलते ब्रॉडकास्टर्स पे टीवी को बनाए रखने को लेकर चिंतित हैं।

उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि इंडस्ट्री खुद से ही सब्सक्रिप्शन व ऐडवर्टाइजिंग दोनों के लिए हाई सिंगल डिजिट में अच्छी ग्रोथ देखेगा। लेकिन जब भी इंडस्ट्री में अपने साथियों के साथ मेरी बातचीत होती है, तो हर किसी का ध्यान इस बात पर होता है कि हम पे टीवी इकोसिस्टम को कैसे विकसित करें।”

गोयनका ने सुझाव दिया कि पे टीवी में सही ग्रोथ सुनिश्चित करने के लिए इंडस्ट्री को मिलकर काम करना चाहिए।

“विज्ञापन, बेशक, हर नेटवर्क के लिए एक जरूरी है, लेकिन पे टीवी इकोसिस्टम के लिए हम एक इंडस्ट्री के तौर पर ट्राई के साथ मिलकर काम कर सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमें सही ग्रोथ मिले। सब्रस्क्रिप्शन रेवेन्यू संतुलित गति से बढ़ रहा है। आगे बढ़ते हुए, इंडस्ट्री के तमाम प्लेयर्स का फोकस पे टीवी इकोसिस्टम को बेहतर तरीके से विकसित करने करने पर होगा।

उन्होंने कहा, “हमें उम्मीद है कि न्यू टैरिफ ऑर्डर (NTO 3.0) का कार्यान्वयन और टैरिफ पे टीवी इकोसिस्टम को मजबूत करेगी और सब्सक्रिप्शन रेवेन्यू निरंतर वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगी।”

दूरसंचार (प्रसारण और केबल) सेवाओं (आठवें) (एड्रेसेबल सिस्टम) टैरिफ (तीसरा संशोधन) ऑर्डर या NTO 3.0 के निष्पादन ने ब्रॉडकास्टर्स को अपने लीनियर टीवी चैनलों की कीमतों में 10-15% की बढ़ोतरी करने की अनुमति दी हुई है।

बता दें कि ट्राई द्वारा नवंबर 2022 में संशोधित न्यू टैरिफ ऑर्डर (NTO 3.0) जारी किया गया था, जिसके बाद ब्रॉडकास्टर्स ने कीमतों में बढ़ोतरी की घोषणा की थी। यह 1 फरवरी, 2023 को लागू हुआ था।

हालांकि, केबल इंडस्ट्री द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद ट्राई ने लोकसभा चुनाव के अंत तक कीमतों में बढ़ोतरी पर रोक लगा दी थी।

गोयनका, जिनका एमडी व सीईओ के तौर पर कार्यकाल इस साल दिसंबर में समाप्त हो रहा है, ने यह भी कहा कि उन्होंने अपनी पुनर्नियुक्ति के लिए कंपनी में किसी भी शेयरधारक के साथ बातचीत नहीं की है।

उन्होंने कहा, ”मैंने अपनी पुनर्नियुक्ति के लिए किसी शेयरहोल्डर से संपर्क नहीं किया है। मै इसे लेकर बात करने में विश्वास नहीं रखता, क्योंकि वे तय करेंगे कि मुझे कंपनी चलानी चाहिए या नहीं।’ मैंने फरवरी में अपने टार्गेट पहले ही दे दिए हैं। और अंत में, शेयरहोल्डर्स ही तय करेंगे कि मैं सही व्यक्ति हूं या नहीं।”

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मोहन भैया की सीख को उज्जैन के लोगों ने दिल से मान लिया

महाकाल की नगरी उज्जैन हमेशा से अपने शहर के प्रति संवेदनशील रहा है. उज्जैन का हर नागरिक इस बात को लेकर चिंता करता है कि उसके शहर का विकास कितनी दु्रत गति से हो. विकास के इस सिलसिले में वे बिना किसी राग-द्वेष और आपसी मनमुटाव के सब एक हो जाते हैं. साम्प्रदायिक सौहाद्र्र इस शहर की पहचान है. यह शहर मोहन भैया का शहर है. आज मोहन भैया मध्यप्रदेश के मुखिया बन गए होंं लेकिन उज्जैन के हर एक नागरिक के लिए वे हमेशा उपलब्ध हैं. मोहन भैया मंत्री रहें हो, संगठन में काम करते रहे हों या छात्र जीवन में कॉलेज का नेतृत्व करते रहे हों, उन्होंने सबको एक ही मैसेज दिया है कि सबसे ऊपर आपसी मेल-जोल और साम्प्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल बन जाना.
इस महीने उज्जैनवासियों के लिए इम्तहान का समय आ गया था जब शहर के केडी मार्ग चौड़ीकरण के लिए धार्मिक स्थलों को हटाया जाना जरूरी हो गया था. उज्जैन ही नहीं, पूरा प्रदेश हैरान था कि शहर के विकास के लिए सभी धर्मों के लोग एकत्रित होकर स्वेच्छा से हटाना मंजूर कर लिया. रत्तीभर कोई आवाज विरोध में नहीं उठा बल्कि उठे तो हजारों हाथ उज्जैन के विकास के लिए.  केडी मार्ग चौड़ीकरण के लिए आपसी सामंजस्य एवं समन्वय से शांतिपूर्वक धार्मिक स्थलों को लोगों द्वारा स्वेच्छा से हटाना विकास की दिशा में सांप्रदायिक सौहार्द का उल्लेखनीय उदाहरण प्रस्तुत करता हैं। सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह रहा कि एकाध धार्मिक स्थल को हटाने का मसला होता तो बात कुछ और होती, यहां तो 18 धार्मिक स्थलों को हटाया जाना था. मोहन भैया का गुरुमंत्र काम आ गया और लोगों ने शांति और सामंजस्य से एक अनुकरणीय पहल की. यह पहल उज्जैन ही नहीं, पूरे देश के लिए नजीर बन गया.
ऐसा नहीं है कि धार्मिक स्थलों को हटाने के लिए पहुंचे जिला प्रशासन, पुलिस एवं नगर निगम की संयुक्त टीम की पेशानी पर शिकन ना हो लेकिन उन्हें भी उज्जैनवासियों पर पूरा भरोसा था. प्रशासन की इस कार्यवाही में केडी गेट तिराहे से तीन इमली चौराहे के जद में आने वाले 18 धार्मिक स्थलों को जनसहयोग से शांतिपूर्वक ढंग से हटाने की कार्रवाई की गई है। इस कार्य में धार्मिक स्थलों के व्यवस्थापकों, पुजारियों और लोगों द्वारा दिल से सहयोग किया गया। जिन 18 धार्मिक स्थलों को हटाया गया उनमें 15 मंदिर, 2 मस्जिद, एक मजार हैं। केडी चौराहे से  पीछे करने और अन्यत्र स्थापित करने की कार्यवाही की गई हैं। हटाई गई प्रतिमाओं को प्रशासन द्वारा धार्मिक स्थलों के व्यवस्थापकों द्वारा बताए गए निर्धारित स्थान पर विधि विधान से स्थापित किया गया। साथ ही 20 से अधिक भवन जिनका गलियारा आगे बढ़ा लिया गया था। ऐसे भवनों के उस हिस्से को भी भवन स्वामियों द्वारा स्वेच्छा से तोडऩे की कार्यवाही की गई।
यह कार्यवाही में प्रशासन ने भी संवेदनशीलता का परिचय दिया और किसी की भावना को ठेस ना पहुंचे, इस बात का खास खयाल रखा गया। कलेक्टर नीरज कुमार सिंह और पुलिस अधीक्षक प्रदीप शर्मा के निर्देशानुसार धार्मिक स्थलों को हटाने से पूर्व और दौरान प्रत्येक संप्रदाय के व्यस्थापकों और प्रमुख लोगों से चर्चा की गई और समन्वय स्थापित किया गया। इस सहमति के बाद ही धार्मिक स्थलों को हटाने और अन्यत्र स्थापित करने की कार्यवाही की गई. इतनी बड़ी संख्या में धार्मिक स्थलों को हटाए जाने पर सुई पटक सन्नाटा ने लोगों और प्रशासन के भीतर यह भाव भर दिया कि सूझबूझ से काम किया जाए तो सब संभव है और अपने शहर के विकास के प्रति लोगों की चिंता और लगाव देखने को मिला.
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जब डाकू का घर गिराने माधो राव सिंधिया ने भेज दी तोप, मगर डाकू का कुछ नहीं बिगाड़ पाए

माधो राव सिंधिया (Madho Rao Scindia) को आधुनिक ग्वालियर का निर्माता कहा जाता है. वह साल 1886 से लेकर 1925 तक सिंहासन पर रहे. करीब 39 साल के कार्यकाल में उनका सबसे ज्यादा जोर अपनी सेना को मॉडर्न बनाने पर था. सैनिकों की संख्या बढ़ाई और आधुनिक हथियारों से लैस किया. हालांकि माधो राव का यह कदम अंग्रेजों को खास पसंद नहीं आया और टकराव की वजह बना. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक रशीद किदवई अपनी किताब ‘द हाउस ऑफ सिंधियाज’ में लिखते हैं कि अपने चाहने वालों के बीच माधो महाराज के नाम से माधो राव की अंग्रेजों से अच्छी बनती थी. इसके बावजूद जब वह अपनी सेना के लिए हथियार खरीदने या उनकी संख्या बढ़ाने की कोशिश करते तो अंग्रेज अड़ंगा लगा देते.

1857 के विद्रोह के बाद तो अंग्रेज और सतर्क हो गए. माधो महाराज (Madho Rao Scindia) की हर कोशिश में अड़ंगा लगाने लगे. हालांकि माधो महाराज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने सैनिकों की संख्या बढ़ाना जारी रखा. एक वक्त ऐसा आया जब सिंधिया रियासत की सेना में 7000 से ज्यादा सैनिक हो गए. इन पर सालाना 40 लाख रुपये खर्च होता था. हालांकि अच्छे हथियारों और गोला-बारूद की कमी बड़ा मुद्दा थी. इस वजह से एक दफा माधो राव को शर्मिंदा भी होना पड़ा.

ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया (MAHARAJA JAYAJIRAO SCINDIA) की एक उम्र तक कोई संतान नहीं थी. महाराजा की उम्र जैसे-जैसे बढ़ने लगी, उन्हें चिंता सताने लगी कि उनके बाद सिंधिया रियासत की गद्दी कौन संभालेगा. जयाजीराव ने 40 साल की उम्र में 13 साल की एक लड़की से दूसरी शादी रचाई. आगे चलकर उस शादी से उन्हें एक बेटा हुआ. साल 1886 में जब जयाजीराव का निधन हुआ, तो वही लड़का गद्दी पर बैठा. उस वक्त उसकी उम्र सिर्फ 10 साल थी और नाम था माधो राव सिंधिया.

माधो राव सिंधिया (Maharaja Madho Rao Scindia) सही मायने में सिंधिया खानदान के ऐसे पहले महाराजा थे, जिन्होंने अपनी रियासत को नई ऊंचाइयां दी. उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एलएलडी की डिग्री हासिल की. सिंधिया परिवार से विदेश जाने वाले पहले व्यक्ति थे. माधो राव की मिलिट्री से लेकर इंजीनियरिंग में खासी दिलचस्पी थी. एक तरफ उन्होंने अपनी सेना को मॉडर्न बनाने में ताकत झोंकी. तो दूसरी तरफ रियासत में डाक से लेकर नहर जैसी सुविधाएं ले आए.

किदवई लिखते हैं कि माधो राव सिंधिया जब लंदन में पढ़ रहे थे, उसे वक्त उनकी बड़ौदा की राजकुमारी से करीबी की खबरें सुर्खियां बनी. बाद में जब महाराजा की शादी की बात आई तो बड़ौदा राज परिवार पहली पसंद था. रिश्ता तय भी हो गया, पर शादी से ऐन पहले बड़ौदा की राजकुमारी ने मना कर दिया और रिश्ता टूट गया. हालांकि राजकुमारी ने रिश्ता तोड़ने के पीछे कोई खास वजह नहीं बताई.

बड़ौदा की राजकुमारी से रिश्ता टूटने के बाद माधो राव सिंधिया (Maharaja Madho Rao Scindia) को बहुत गहरा धक्का लगा. उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ा. डायबिटीज की बीमारी ने घेर लिया. महाराजा ने पहले की तरह किसी भी खेल में भाग लेना बंद कर दिया और ग्वालियर जिमखाना क्लब भी कभी-कभार जाने लगे.

महाराजा की हालत देखकर उनके करीबी चिंतित हो गए. इस बीच उनके दरबार के कुछ मराठा सरदार एक नया रिश्ता लेकर आए. जो गोवा के राणे परिवार का था. राणे परिवार की राजकुमारी गजरा राजे अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर थीं. उनकी माधो राव सिंधिया से शादी हो गई. किदवई लिखते हैं कि गजरा राजे अकेले नहीं आईं, बल्कि अपने साथ अपनी पांच बहनों को भी लेकर ग्वालियर आईं.

माधो राव सिंधिया (Maharaja Madho Rao Scindia) साल 1886 में जब ग्वालियर रियासत की गद्दी पर बैठे तो उनकी उम्र सिर्फ 10 साल थी. बाद में के सालों में उन्हें ऐसे कारनामे किये, जिसके अंग्रेज भी मुरीद हो गए. माधो राव ने सिंधिया रियासत की सेना को आधुनिक बनाने पर बेतहाशा पैसा खर्च किया. जब पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ तो ग्वालियर की इंपीरियल आर्मी ब्रिटिश फौज की तरफ से फ्रांस, ईस्ट अफ्रीका, मिस्र, फिलिस्तीन जैसे देशों में लड़ी.

लेखक रशीद किदवई लिखते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक फर्स्ट वर्ल्ड वॉरमें सिंधिया परिवार को उस जमाने में 25 मिलियन (करीब 2.5 करोड़) रुपये खर्च करने पड़े थे.

माधो राव सिंधिया ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से LLD की डिग्री हासिल की. जब वह ग्वालियर लौटे तो उन्होंने अपनी रियासत में अलग से सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट बनाया. जो खासतौर से बड़े-बड़े स्टोरेज टैंक और नहर जैसी चीजें बनाया करता था. किदवई लिखते हैं कि माधो राव थोड़ा अंधविश्वासी किस्म के व्यक्ति थे. एक बार एक-एककर तीन ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे वह दहल गए. उनका पसंदीदा हाथी किले से तोप ले जाते हुए मर गया. इसके ठीक बात उनकी पसंदीदा कोट ”माही मारताब” पता नहीं कैसे खराब हो गई. यहां तक तो ठीक था, लेकिन तीसरी घटना के बाद महाराजा बुरी तरह डर गए.

उन दिनों ग्वालियर के इमामबाड़े से मोहर्रम का ताजिया निकलता था, जिसकी अगुवाई सिंधिया परिवार करता था. एक दफा मोहर्रम के दौरान जब ताजिया निकला तो शॉर्ट सर्किट की वजह से उसमें आग लग गई. हालांकि थोड़ी देर में ही आग बुझा ली गई, लेकिन माधो राव को इससे तगड़ा सदमा लगा. उन्हें लगने लगा कि कोई अनहोनी होने वाली है.

उस वक्त माधो महाराज की कोर्ट में रहे कौड़ीकर बाबूजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि ‘महाराजा ने कहा की सिर्फ ताजिया नहीं जला है, बल्कि मैं जल गया हूं…’ उस दिन जब वह ग्वालियर की सड़कों पर निकले तो उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे थे. इन घटनाओं के बाद माधो सिंधिया बेतहाशा सिगरेट पीने लगे. उनके हाथ में हर वक्त सिगरेट दिखती थी. हालांकि उनके हकीम उन्हें बार-बार सिगरेट से दूर रहने की सलाह दिया करते थे, क्योंकि उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही थी.

माधो राव सिंधिया का जानवरों से खास लगाव था. खासकर अपने पालतू कुत्ते हुस्सू से बहुत प्यार करते थे. साल 1925 में जब महाराजा पेरिस में बीमार पड़े तो उन्हें सबसे ज्यादा चिंता अपने कुत्ते की थी. उन्होंने सबसे सीनियर महारानी चिनकू राजे को बुलाया और कहा कि मेरी मौत के बाद हुस्सू की देखभाल में कोई कमी नहीं आनी चाहिए. माधो राव ने अपनी वसीयत लिखी तो इसमें हुस्सू की देखरेख के लिए खास तौर से एक रकम छोड़ी.

उल्लेखनीय है कि सिंधिया घराने के पहले शासक राणोजी राव सिंधिया पेशवा बाजीराव के अर्दली थे. पेशवा उनका नाम भी नहीं जानते थे. मगर एक दिन पेशवा ने देखा कि उनका अर्दली उनके जूते सीने से लगाये सो रहा है. नाराज होकर उन्होंने उसे जगाया तो रानोजी राव ने बताया कि हुजूर आपके जूते में कोइ जहर ना डाल दे इसलिये मैं इनको अपने साथ सीने से लगाकर सो गया. पेशवा इससे खुश हुये और फिर रानो जी राव को सामंत बना दिया. रानोजी ने पहले उज्जैन फिर ग्वालियर को अपनी राजधानी बनाया और शिंदे से सिंधिया बन गये. इस बात को किसी सिंधिया शासक ने छिपाया नहीं और वो मानते रहे कि कैसे उनके पूर्वज यहां तक पहुंचे.

सिंधिया परिवार से राजमाता विजया राजे सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1957 में कांग्रेस के टिकट पर इस सीट से लड़ा और जीत हासिल की। उन्होंने 1967 में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और फिर 1989 में भाजपा से चुनाव लड़ा। स्व माधवराव सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1971 में भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के टिकट पर गुना से लड़ा था और 2001 में नयी दिल्ली के पास एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु से पहले उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 1999 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में लड़ा था।

माधवराव सिंधिया ग्वालियर से पांच बार चुने गए। राजमाता सिंधिया की बेटी यशोधरा राजे ने भी भाजपा के लिए दो बार लोकसभा में ग्वालियर सीट का प्रतिनिधित्व किया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने2002 से 2014 के बीच चार बार गुना सीट का प्रतिनिधित्व किया है, जिसमें उपचुनाव में जीत भी शामिल है। वह अपनी हार के एक साल बाद मार्च 2020 में 22 कांग्रेस विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए, जिससे मध्य प्रदेश में कमल नाथ के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई थी।

वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार सिंधिया परिवार के लिए दूसरा झटका थी। इससे पहले 1984 में केंद्रीय मंत्री की बुआ और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भिंड लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार के तौर पर हार का सामना करना पड़ा था। वह कांग्रेस उम्मीदवार कृष्णा सिंह जूदेव से हार गईं, जो दतिया के पूर्व शाही परिवार से हैं।

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किस्सा ठाकरे परिवार की राजनीति के उत्थान और विघटन का

धवल कुलकर्णी की किताब ‘ठाकरे भाऊ’ का एक अंश, जिसमें महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे और उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई है। इस किताब के जरिए लेखक ने इन दोनों भाइयों के राजनीतिक उतार-चढ़ाव और पहचान की महाराष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण प्रस्तुत किया है।

‘उद्धव में एक बहुत अच्छा गुण था कि वह लगातार काम करते रहते थे। राज ऐसा नहीं कर पाते थे। वे कुछ समय के लिए ध्यान खींचते फिर ग़ायब हो जाते, जिसके कारण उद्धव लम्बी रेस का घोड़ा हो गए’

2014 तक धीरे-धीरे छोटे भाई बहुत तेज़ी से चल रहे थे लेकिन उनकी चाल ढुलमुल लग रही थी। जिस तरह ऐसोप की कहानी में ख़रगोश को अपनी लापरवाही और अति आत्मविश्वास के कारण भुगतना पड़ता है, राज को भी उसी तरह उद्धव के हाथों मात मिली।

2009 में मनसे ने विधानसभा में 13 सीटें जीत कर शिवसेना के ऐतिहासिक पथ को बहुत पीछे छोड़ दिया था। पीछे देखते हुए मनसे के नेता अब कहते हैं कि इस शानदार प्रदर्शन ने ही शायद पार्टी के अंत की ज़मीन तैयार कर दी।1

शिशिर शिंदे के अनुसार जीत के पहले झोंके ने राज को प्रभावित किया। ‘ऐसा समय भी था जब दूरदराज़ के अमरावती और अकोला जिलों से लोग राज से मिलने के लिए आते थे। राज उनसे घंटों इंतज़ार करवाते थे। आकर हाथ मिलाते थे और कहते कि बाद में आना। लोगों के साथ उनका जो तार जुड़ा था वह टूट गया’, शिंदे का कहना था। ‘वैसे तो राजनीतिक दल में अपने कार्यकर्ताओं को कुछ हद तक रुतबा देते हैं, लेकिन कार्यकताओं के कारण पार्टी का रुतबा भी तो बढ़ता है।’

‘मनसे लिफ़्ट से सबसे ऊपरी मंज़िल पर पहुँची और वहाँ से नीचे छलाँग लगा ली। इसका उभार और पतन दोनों इतना नाटकीय था’, हाजी अशरफ़ शेख़ ने कहा।

मनसे के एक और विधायक, जो बाद में भाजपा में शामिल हो गए, ने यह दावा किया कि राज अपने आसपास के एकाध विधायक को छोड़कर शायद ही किसी विधायक से मिलते थे।

राज ने शिवसेना इसलिए छोड़ी थी क्योंकि उनके चाचा के आसपास दरबारी जुट गए थे। उनके सहयोगियों का कहना था कि वे भी उसी तरह के लोगों से घिरे रहते थे।

आरम्भिक सफलता के बाद मनसे के पतन का एक कारण यह भी था कि ज़मीनी स्तर पर इसका संगठन नहीं था। शिवसेना के पास अपनी एक विरासत थी, लेकिन मनसे नई ज़मीन पर खड़ी हुई पार्टी थी। शिवसेना अपने प्रमुख की मृत्यु के बाद भी मोटे तौर पर उनकी छवि से बंधी हुई थी, और मनसे भी अपने प्रमुख की छवि से बंधी हुई पार्टी थी। हालाँकि इसके पास वह नहीं था जो शिवसेना के पास था—दूसरी पीढ़ी का मज़बूत नेतृत्व जिसने छगन भुजबल, मनोहर जोशी और नारायण राणे जैसे नेता दिए थे।

मनसे कमज़ोर थी और वह शिवसेना की तरह शाखा के माध्यम से विस्तार नहीं कर पाई। मेरी फेंसोड कटजेंस्टाइन ने इन शाखाओं के महत्त्व को पहले ही लिखकर दर्शाया है, जो इस तरह की गतिविधियों का आयोजन करती हैं जिसके कारण पार्टी के सदस्यों को ठोस भौतिक लाभ होता है। शाखा सेना और स्थानीय समुदाय के बीच महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करती है, ख़ासकर झुग्गियों और कम आय वर्ग समूह के लोगों के बीच, यह नागरिकों की सहायता करती है तथा पुलिस और जन सेवा से जुड़े अधिकारियों के साथ उनके काम करवाने में मदद करती है।

छगन भुजबल ने बताया कि शिवसेना का जो आरम्भिक शाखा ढाँचा था उसको दत्ता प्रधान ने बदल दिया, जिनकी पृष्ठभूमि आरएसएस की थी और जो कुछ समय के लिए शिवसेना के संगठन प्रमुख भी बने थे। पहले शाखा बहुत बड़े भूभाग में होती थी। उदाहरण के लिए, जब भुजबल पहले दौर में शिवसेना के शाखा प्रमुखों में एक बने थे तो उनका क्षेत्र डोंगरी से लालबाग तक था।

प्रधान ने इस बात को निश्चित किया कि प्रत्येक शाखा के अंतर्गत एक नगर निगम वार्ड आए और एक विभाग के अंतर्गत एक लोकसभा क्षेत्र आए, जिससे यह निश्चित हो गया कि ज़मीनी स्तर पर इसका एक मज़बूत संगठन बने। प्रधान ने 1977 में शिवसेना छोड़ दी क्योंकि कहा जाता है कि उनके अधिकार कम कर दिए गए थे।

मनसे नेताओं को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि पार्टी का संगठन ऊपर से चलाया जाता था जिसमें स्थानीय नेताओं को किसी तरह के अधिकार नहीं दिए गए थे। इस कमी को राज का ढीला-ढाला नेतृत्व और उनकी छापामार शैली की राजनीति और भी बढ़ा देती थी, जिसके कारण पथ-कर आंदोलन की तरह बहुत से मुद्दों पर पार्टी को अपने रुख़ से पलटना पड़ गया, जिसके कारण पार्टी की विश्वसनीयता प्रभावित हुई।

उदाहरण के लिए, अगस्त 2012 में मनसे की फ़िल्म शाखा की प्रभारी अमेय खोपकर ने आशा भोंसले तथा दो मनोरंजन चैनलों पर इस बात के लिए निशाना साधा कि गाने के एक रियलिटी शो में पाकिस्तान के कलाकार और जज दिखाई दे रहे थे। खोपकर ने चेतावनी दी कि अगर शो को वापस नहीं लिया गया तो वे चैनल को महाराष्ट्र में कहीं भी शूटिंग नहीं करने देंगे।

उस शो की जज आशा भोंसले ने जब अतिथिदेवो भव के ऊपर ज़ोर दिया तो राज ने यह सवाल उठाया कि यह कहीं पैसादेवो भव तो नहीं है। हालाँकि एक सप्ताह के बाद जब चैनल के उच्चाधिकारी राज से मिले तो आंदोलन वापस ले लिया गया। खोपकर ने अपने रुख़ से वापसी करते हुए कहा कि वे इस शो का विरोध नहीं करेंगे क्योंकि इसकी पंद्रह सप्ताह की शूटिंग पूरी हो चुकी है और उनको इस बात का आश्वासन दिया गया है कि चैनल पर ऐसे कार्यक्रम अब नहीं दिखाए जाएँगे जिनमें पाकिस्तान के कलाकार हों।

इस ‘पल में रत्ती पल में माशा’ वाले रवैए के कारण जनता में मनसे की छवि के ऊपर असर पड़ा, निजी बातचीत में मनसे के एक नेता ने स्वीकार किया।

मनसे के पास वह नहीं था जो इसको चलाने के लिए मायने रखता था—जिसको विश्लेषक डॉक्टर दीपक पवार ने कहा है ‘पुरस्कार वाली अर्थव्यवस्था’। जबकि शिवसेना ने बीएमसी पर नियंत्रण बनाकर अपने लिए वह अर्थव्यवस्था बना ली थी। शिवसेना के कार्यकताओं का अपना मज़बूत जाल था जो नगर निगम पर आधारित राजनीतिक लाभ के सहारे चलते थे। जैसा कि बीवीएस के कार्यकर्ता से पत्रकार बने एक व्यक्ति ने कहा शिवसेना के बहुत से नेता मनसे के गठन के बाद उसमें शामिल होना चाहते थे लेकिन इसी कारण से उन लोगों ने अपना इरादा त्याग दिया।

‘शिवसेना के लिए एक समांतर अर्थव्यवस्था काम करती थी। शिव सैनिकों को इससे आय होती थी। राज को यह लाभ नहीं था। कम्युनिस्ट और समाजवादी भी इसी वजह से पिछड़ गए क्योंकि उनके पास कार्यकर्ताओं के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। उनके नेताओं को लगता था कि संगठन को विचारधारा के आधार पर चलाया जाना चाहिए’, पत्रकार निखिल वागले ने कहा।

‘राज से बहुत उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हो पाईं। विकास को लेकर उनके जो विचार थे वे उतने ही स्पष्ट थे जितने बग़ीचे बनाना और झीलों को सुंदर बनाना। उनके पास कोई बड़ी दृष्टि नहीं थी’, वागले ने कहा। ‘जहाँ तक प्रदर्शन की बात है तो मनसे के पास कुछ ख़ास दिखाने के लिए था नहीं। यहाँ तक कि नगरपालिका के स्तर पर भी उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिसे दिखाया जा सके।’

शिवसेना के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि 2008 से 2014 के बीच शिवसेना पिछड़ती हुई लग रही थी क्योंकि मीडिया और कार्यकर्ताओं के एक वर्ग की सहानुभूति राज के साथ थी क्योंकि उनको वह अपने चाचा का स्वाभाविक उत्तराधिकारी लगता था। उद्धव ने संगठन को मज़बूत करने के लिए बहुत काम किया। वह राजनीति के मामले में अपने पिता से सलाह लेते थे, उनसे बोलने की शैली सीखते थे और उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे किसानों से जुड़े मुद्दे उठाएँ और इस तरह उन्होंने किसानों को जोड़ने की कोशिश की।

दिसम्बर 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के एक महीने बाद उद्धव राज्यव्यापी दौरे पर निकल गए। बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद उन्होंने शिवसेना प्रमुख नियुक्त किए जाने का विरोध किया, बल्कि उन्होंने पार्टी अध्यक्ष बनना पसंद किया।

सचिन परब ने बताया कि बालासाहेब और राज का करिश्मा दुधारी तलवार की तरह था। ‘वे वृहत मुंबई के बाहर अपना संगठन मज़बूत नहीं बना पाए लेकिन वे लोगों तक अपने संदेश को पहुँचाने में यक़ीन रखते थे। इसके विपरीत, उद्धव का व्यक्तित्व उन दोनों से भिन्न था। उन्होंने अपने अंदर की इस कमी को दूर करने के लिए शिवसेना को उन इलाक़ों में मज़बूत बनाने के लिए भी काम किया जो पारम्परिक रूप से उसके इलाक़े नहीं माने जाते थे।’

2011 में राज ने बहुत बड़ी रणनीतिक ग़लती कर दी।

कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, महाराष्ट्र से भाजपा के कुछ नेता शिवसेना को सबक़ सिखाने के लिए राज के साथ बातचीत कर रहे थे। उनसे कह रहे थे कि वे नरेंद्र मोदी से नज़दीकी बनाएँ, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मोदी और राज दोनों में एक बात सामान्य थी— दोनों सत्तावादी विकास में यक़ीन रखते थे।

2007 में जब मनसे की कोई पहचान भी नहीं बनी थी तब शिशिर शिंदे ने कहा कि वे राज के दूत बनकर मोदी से मिलने के लिए गए थे और उनको अपने नेता का शुभकामना पत्र दिया।

अगस्त 2011 में राज ने विशेषज्ञों के दल के साथ राज्य अतिथि के रूप में नौ दिन तक गुजरात का दौरा किया, जिस दौरान वह कई परियोजनाओं को देखने के लिए गए, जिनमें टाटा नैनो की इकाई भी थी और साथ ही उन्होंने बहुत तरह के प्रेजेंटेशन देखे। उन्होंने मोदी के विकास ढाँचे की ख़ूब तारीफ़ की और यह भी कहा कि गुजरात की जनता भाग्यशाली है कि उसको मोदी जैसा मुख्यमंत्री मिला।

सबसे बड़ी बात यह कि राज सबसे पहले नेता थे जिन्होंने यह कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री में प्रधानमंत्री बनने की कूवत है। एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने ध्यान दिलाया कि जब राज ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिया था तब तक भाजपा में भी इसके लिए औपचारिक रूप से इसकी माँग नहीं हुई थी।
संजय निरुपम के अनुसार इसकी वजह से महाराष्ट्रीय मतदाताओं का एक हिस्सा राज की पार्टी से छिटक गया क्योंकि गुजरातियों के बढ़ते प्रभाव से वे ख़ुश नहीं थे।

जब यह साफ़ दिखाई देने लगा कि ऊपरी मध्य वर्ग के जो मतदाता मनसे की तरफ़ चले गए अब उसकी तरफ़ वापस आ गए तो राज ने नरेंद्र मोदी के ऊपर आक्रमण करना शुरू कर दिया, जो तब तक प्रधानमंत्री बन चुके थे। उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि उन्होंने जो वादे किए थे उन वादों को पूरा नहीं कर पाए तथा वे गुजरात को लेकर पूर्वाग्रही थे।

राज ने नोटबंदी की भी आलोचना की और मुंबई से अहमदाबाद के बीच 500 किलोमीटर की उच्च गति से चलने वाली ट्रेन, जिसे बुलेट ट्रेन भी कहा जाता है, की योजना की निंदा की। उन्होंने यह आरोप लगाया कि बुलेट ट्रेन उनके षड्यंत्र का हिस्सा थी ताकि अहमदाबाद के लोग मुंबई आसानी से आने लगें और मुंबई को महाराष्ट्र से अलग कर दिया जाए।

शिवसेना शायद इस बात को स्वीकार करना पसंद न करे लेकिन यह नरेंद्र मोदी की लहर थी जिसके कारण 2014 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना का प्रदर्शन अच्छा हुआ। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से शिवसेना उनको लेकर असहज रहती थी। शिवसेना की तरह ही हिंदुत्व को लेकर मोदी की आक्रामक छवि थी।

भाजपा के पुराने नेताओं एल. के. आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी यहाँ तक कि उनके युवा नेताओं में प्रमोद महाजन का बाल ठाकरे के साथ निजी रिश्ता था, और वे उनको महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन का नेता मानते थे। ठाकरे भी ख़ुद को राज्य में वरिष्ठ सहयोगी के रूप में देखते थे। सेना के नेतृत्व के साथ मोदी का वैसा रिश्ता नहीं था।

बाल ठाकरे इस बात का दावा करते थे कि गोधरा दंगों के बाद जब उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे यह राय ली कि क्या मोदी को हटा दिया जाए तो उन्होंने चेतावनी दी थी: मोदी गया तो गुजरात गया। उन्होंने इस तरह से इस बात को पक्का किया कि गुजरात के मुख्यमंत्री आगे भी संघर्ष करने के लिए बने रहें। 2012 में भाजपा की तरफ़ से जब तक मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया गया था तब तक बाल ठाकरे नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को अपनी पसंद बताते थे।

मोदी के नेतृत्व में और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अध्यक्षता में भाजपा अधिक आक्रामक हो चुकी थी और वह शिवसेना की पिछलग्गू बनकर नहीं रहना चाहती थी। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब भाजपा कांग्रेस का मुक़ाबला करने की तैयारी कर रही थी तब भाजपा आलाकमान ने राज के पास यह संदेश भिजवाया था कि वह मतों के बँटवारे को रोकें क्योंकि उनके कारण 2009 की तरह की स्थिति बन सकती थी। भगवा गठबंधन अपने साथ छोटे-छोटे कई नेताओं को जोड़ चुका था, जैसे राजू शेट्टी, विनायक मेटे, जिनका मराठों में कुछ प्रभाव था, और धनगर नेता महादेव जानकर और दलित नेता रामदास आठवले को, जिनका अपना प्रभाव था।

एक वरिष्ठ भाजपा मंत्री ने बताया कि भाजपा चाहती थी कि दोनों भाई राजनीतिक रूप से एक हो जाएँ। ‘हालाँकि हम लोगों को अंदर से इस बात को लेकर शंका भी थी क्योंकि दोनों के बीच की कड़वाहट बहुत अधिक थी। गोपीनाथ मुंडे चाहते थे कि यह हो जाए, लेकिन असली गोपीनाथ (भगवान कृष्ण) जब महाभारत नहीं रोक पाए तो यहाँ कैसे कुछ होता? वह भी भाइयों के आपसी मतभेदों के कारण ही हुआ था।’

लोकसभा चुनाव के पहले नितिन गडकरी ने राज से कहा कि वे भगवा गठबंधन के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार न उतारें। मार्च 2014 में दोनों एक फ़ाइव स्टार होटल में मिले भी। वसंत गीते उस समय पार्टी के महासचिव और विधायक थे, उन्होंने बताया कि भाजपा ने राज को आकर्षक न्योता दिया था : विधानसभा की तीस सीटें और राज्यसभा की दो सीटें।

उद्धव ने मनसे को शामिल किए जाने का विरोध किया और उन्होंने भाजपा को चेतावनी दी कि भाजपा को अगर राज या शरद पवार से किसी तरह का समर्थन मिला तो इसका असर गठबंधन के ऊपर पड़ेगा।

‘पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि हम लोगों को प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए था क्योंकि हम क्षेत्रीय पार्टी थे और राष्ट्रीय स्तर पर हमारा कुछ दाँव पर नहीं था। मनसे लोकसभा चुनाव लड़ने से दूर रह सकती थी। हालाँकि हमारे नेताओं का एक गुट ऐसा था जिनके संबंध एनसीपी-कांग्रेस से अच्छे थे, उन्होंने ऐसा नहीं सोचा और उनकी राय मान ली गई’, गीते ने कहा।

आख़िरकार, मनसे ने नौ उम्मीदवार मैदान में उतारे। ज़्यादातर शिवसेना के ख़िलाफ़ थे। राज प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का समर्थन कर रहे थे लेकिन उन्होंने पुणे और भिवंडी दो ऐसी सीटों से अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे जहाँ से भाजपा चुनाव लड़ रही थी।

‘मोदी के साथ फ़्लर्ट करना राज की बहुत बड़ी ग़लती थी। उनको शायद ऐसा लगा कि भाजपा अगर शिवसेना को छोड़ने का मन बनाती तो वह उनके साथ गठबंधन कर सकती थी’, राजनीतिक विश्लेषक दीपक पवार का कहना था। उन्होंने आगे कहा कि भाजपा के मतदाताओं और संघ परिवार के समर्थक कुछ नेता मनसे की तरफ खिंच गए थे क्योंकि वे भाजपा से ऊब गए थे लेकिन वे कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के साथ नहीं जा सकते थे।

पुणे और कल्याण-डोंबिवली जैसे शहरों में मनसे की सफलता में यह बात दिखाई भी देती थी क्योंकि वहाँ ब्राह्मण बड़ी संख्या में थे जो भाजपा के मतदाता माने जाते थे। ‘लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी आ गए तो ये मतदाता वापस भाजपा में चले गए’, पवार का कहना था।

शिशिर शिंदे ने माना कि मराठी मानुस इस बात से दुखी था कि राज ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का समर्थन कर दिया था लेकिन लोकसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार भी उतार रहा था।

नतीजे मनसे के लिए बहुत बड़ी आपदा की तरह थे क्योंकि उनके उम्मीदवारों को धूल चाटनी पड़ी। शिवसेना ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसको 18 सीटों पर जीत मिली, जो 2009 से अधिक थी, और भाजपा 23 सीटों पर विजयी रही। उस समय भाजपा-शिवसेना गठबंधन के साथ चुनाव में खड़े होने वाले राजू शेट्टी पश्चिम महाराष्ट्र में अपनी हातकणंगले सीट को बचा पाने में कामयाब रहे। 2010 में अशोक चव्हाण को आदर्श सोसाइटी घोटाले के कारण मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में वह और युवा कांग्रेस के अध्यक्ष राजीव सातव ही कांग्रेस की इज़्ज़त बचा पाए। उन्होंने क्रमशः नांडेड और हिंगोली सीटों से जीत दर्ज की।

चार सीटों पर एनसीपी को भी जीत मिली। शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले अपने पारिवारिक गढ़ बारामती से सत्तर हज़ार से भी कम मतों से जीत पाई। उसका मुक़ाबला किया था राष्ट्रीय समाज पार्टी के महादेव जानकर ने। एनसीपी के समर्थक भी यह मान रहे थे कि जानकर को उस चुनाव क्षेत्र में कम ही लोग जानते थे, लेकिन अगर वे भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े होते तो शायद बड़ा उलटफेर कर देते।

उस समय महाराष्ट्र की सरकार में मंत्री रहे एनसीपी के एक नेता का कहना था कि मोदी की लहर धीरे-धीरे उठी, धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ती गई और देखते-देखते सुनामी बन गई, जो रास्ते में आया सबको उखाड़ती-पछाड़ती। इसके कारण ऐसे लोग भी जीत गए जो नहीं जीत सकते थे।

उदाहरण के लिए, पश्चिमी महाराष्ट्र में भाजपा के एक उम्मीदवार की जीत, जिसको कांग्रेस के एक बड़े नेता के ख़िलाफ़ उतारा गया था। ‘वह आदमी समझ रहा था कि वह हारी हुई लड़ाई लड़ रहा था। वह दोपहर के खाने तक प्रचार करता था और फिर शरीर में दर्द का बहाना बनाकर घर जाता और बीयर पीकर सो जाता। लेकिन हैरानी की बात यह रही कि वह चुनाव जीत गया। मोदी लहर में इसी तरह से हो रहा था। लेकिन जो लोग चुनाव हारे उनके लिए नतीजे अप्रत्याशित थे, उसी तरह विजेताओं के लिए भी!’

1984 में राजीव गांधी को मिले बहुमत के बाद पहली बार नरेंद्र मोदी और भाजपा ने 282 सीटों के साथ लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। कांग्रेस को महज़ 44 सीटें मिलीं।

शिवसेना पार्टी प्रमुख की मृत्यु के बाद अपना पहला चुनाव लड़ रही थी। उसके लिए ये नतीजे जैसे वरदान थे। मुंबई में उसने तीनों सीटों पर जीत दर्ज की, जहाँ मनसे ने उसके उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारे थे, जिन उम्मीदवारों में मुंबई उत्तर-पश्चिम से फ़िल्म निर्देशक महेश माँजरेकर भी थे।

कॉस्मोपोलिटन मुंबई दक्षिण चुनाव क्षेत्र, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है, से शिवसेना के उम्मीदवार अरविंद सावंत ने सभी अनुमानों को धता बताते हुए कांग्रेस के क़द्दावर उम्मीदवार, केंद्रीय राज्य मंत्री मिलिंद देवड़ा को एक लाख से अधिक मतों के अंतर से पराजित कर दिया। बाला नांदगांवकर ने 2009 में कांग्रेस के मिलिंद देवड़ा के ख़िलाफ़ शिवसेना के उम्मीदवार को पीछे छोड़ते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था, और उनको एक लाख साठ हज़ार के करीब मत मिले थे। इस बार उनको महज़ 84 हज़ार मतों से संतोष करना पड़ा।

ऐसा लग रहा था कि कछुआ धीरे-धीरे ख़रगोश के पास आता जा रहा था।

इस समय भाजपा के लिए काम करने वाले शिवसेना के एक नेता ने यह दावा किया कि उद्धव ने काम करने की अपनी शैली में जो बदलाव किए थे और संगठन को मज़बूत बनाने के ऊपर ध्यान दिया था उसके नतीजे अब सामने आ रहे थे।

‘कांग्रेस और एनसीपी ने सहकारिता क्षेत्र में संस्थाओं का निर्माण किया जिसके कारण ग्रामीण इलाक़ों पर उनका नियंत्रण बना रहा। इसी तरह शिवसेना ने परिवारों की इसमें मदद की कि मराठी मानुस को बैंकों, बीमा क्षेत्र, पाँच सितारा होटलों में काम मिल सके। सौभाग्य से, ज़मीनी स्तर पर शिवसेना के साथ कार्यकर्ताओं का भावनात्मक जुड़ाव था, जो मनसे के साथ नहीं हो पाया। ‘यह ऐसा नहीं है जो रातोरात हो जाता हो, इसमें समय लगता है’, उस नेता ने कहा। उन्होंने यह भी कहा कि मतदाताओं की ऊब को दूर करने के लिए शिवसेना ने दिन-रात काम किया, जो नहीं करने के कारण 2009 में उसके परिणाम अच्छे नहीं रहे थे, जबकि मनसे आरंभिक सफलता के बाद ही संतुष्ट हो गया।

संदीप प्रधान के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के उभार का मनसे को नुक़सान हुआ क्योंकि इसके कारण संभ्रांत उच्च और मध्यवर्गीय मतदाता भाजपा की तरफ़ चले गए।

‘मनसे के साथ जो युवा पीढ़ी जुड़ी हुई थी वह अधीर थी। वे जल्दी से जल्दी नतीजे चाहते थे और इसके लिए तैयार नहीं थे कि दस साल तक जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाते रहें। उनको यह लगने लगा था कि शुरू में कुछ उम्मीद जगाने के बाद मनसे अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही थी। मनसे के विपरीत शिवसेना का बीएमसी पर शासन था जिसके कारण वह अपने समर्थकों को लाभ पहुँचाती रहती थी’, प्रधान ने कहा।

मनसे के नेताओं का दावा था कि बाल ठाकरे के बाद के दौर में शिवसेना के समर्थक और मतदाता राज की तरफ़ आ जाएँगे लेकिन मनसे की योजना साफ़ तौर पर असफल होने लगी। ‘2012 में हमारे 28 पार्षद निर्वाचित हुए। लेकिन हमारे लोगों को सत्ता और सुविधाओं की आदत बहुत जल्दी पड़ने लगी थी, जिसके कारण कार्यकर्ता और मतदाता उलझन में पड़ गए’, मनसे के एक पूर्व विधायक ने कहा।

पूर्व कांग्रेस मंत्री के अनुसार 2014 के विधानसभा चुनावों में उद्धव की सफलता के कई कारण थे। एक, राज का करिश्मा उतार पर था। दूसरे, शिवसेना को जब 2009 में मनसे के कारण नुक़सान उठाना पड़ा था, तब से उसने अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं के बीच काफ़ी काम किया था। मनसे के पास यह नहीं था क्योंकि वह राज के करिश्मे के ऊपर ही निर्भर थी। ‘लोगों को राज का भाषण और उनका आक्रामक रुख़ अच्छा लगता था। लेकिन वह भीड़ को वोट में बदल नहीं पाए’, उन्होंने कहा।

‘उद्धव में एक बहुत अच्छा गुण था कि वह लगातार काम करते रहते थे। राज ऐसा नहीं कर पाते थे। वे कुछ समय के लिए ध्यान खींचते फिर ग़ायब हो जाते, जिसके कारण उद्धव लम्बी रेस का घोड़ा हो गए’, शिवसेना के एक सूत्र ने कहा।

2012 में जब बाल ठाकरे का देहांत हो गया तो कांग्रेस नेता कृपाशंकर सिंह के अनुसार मनसे के बुलबुले फूटने लगे थे। यह बात साफ़ हो गई कि वह शिवसेना की जगह नहीं ले सकती थी। ‘बाल ठाकरे का अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर जादुई प्रभाव था जो उनके मरने के बाद भी क़ायम रहा’, शिवसेना के एक पूर्व नेता ने बताया।

बाद में सोचते हुए राज ने यह माना कि लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका फ़ैसला बहुत बड़ी ग़लती थी। उन्होंने कहा कि ‘कई बार आप ऐसे फ़ैसले भी करते हैं जिनसे आप सहमत नहीं होते।

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साभार- https://rajkamalprakashan.com/blog/  से 

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