Monday, November 25, 2024
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हजारों वर्ष पहले सूर्य के रहस्यों को उजागर करने वाला ग्रंथ सूर्य सिध्दांत

सूर्य सिद्धांत प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण खगोलीय ग्रंथ है, जिसे भारतीय खगोलशास्त्र और गणित के क्षेत्र में एक अद्वितीय कृति माना जाता है। इस ग्रंथ में पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों और तारों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। आइए, इस ग्रंथ के मुख्य पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करें:

1. रचना और समयकाल:

  • सूर्य सिद्धांत का सटीक समयकाल निर्धारित करना मुश्किल है, लेकिन माना जाता है कि यह ग्रंथ कम से कम 1500 साल पुराना है।
  • इसे कई विद्वानों द्वारा समय-समय पर संशोधित किया गया है, और इसके वर्तमान स्वरूप में कुछ तत्व 4वीं और 5वीं शताब्दी के आसपास के हो सकते हैं।

2. लेखक और परंपरा:

  • सूर्य सिद्धांत के लेखक के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है, लेकिन यह ग्रंथ वैदिक परंपरा से जुड़ा हुआ माना जाता है।
  • भारतीय खगोलशास्त्र में सूर्य सिद्धांत को एक प्रमुख स्तंभ के रूप में देखा जाता है और इसे आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त जैसे महान खगोलविदों ने भी उद्धृत किया है।

3. मुख्य विषय और सामग्री:

  • खगोलीय गणनाएँ: सूर्य सिद्धांत में ग्रहों की गति, सूर्य और चंद्रमा के उदय और अस्त, और ग्रहण की घटनाओं की गणना के लिए विस्तृत सूत्र दिए गए हैं।
  • समय मापन: इसमें समय के मापन की विभिन्न पद्धतियों का वर्णन है, जिसमें युग, वर्ष, मास, और दिन की गणना शामिल है।
  • त्रिकोणमिति: सूर्य सिद्धांत में त्रिकोणमितीय गणनाओं का भी उल्लेख मिलता है, जिसका उपयोग खगोलीय घटनाओं की सटीक गणना में किया जाता है।
  • पृथ्वी का आकार और गति: इसमें पृथ्वी को गोल बताया गया है और इसकी परिक्रमा के बारे में जानकारी दी गई है, जो उस समय के लिए एक उन्नत धारणा थी।

4. वैज्ञानिक दृष्टिकोण:

  • सूर्य सिद्धांत ने उस समय के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया, जिसमें खगोलीय पिंडों की गति और उनके प्रभावों को गणितीय और खगोलीय गणनाओं के माध्यम से समझाया गया है।
  • इसमें दिए गए गणितीय मॉडल ने आधुनिक खगोलशास्त्र की नींव रखने में मदद की है।

5. प्रभाव और महत्व:

  • सूर्य सिद्धांत का प्रभाव भारतीय खगोलशास्त्र पर अत्यधिक पड़ा और यह ग्रंथ सदियों तक अध्ययन और अनुसंधान का मुख्य स्रोत बना रहा।
  • इसे बाद के खगोलविदों द्वारा संदर्भित और संशोधित किया गया, जिससे यह भारतीय विज्ञान में एक अनमोल धरोहर बन गया।

6. अन्य ग्रंथों से तुलना:

  • सूर्य सिद्धांत को आर्यभट्टीय और पंञ्चसिद्धांतिका जैसे अन्य प्राचीन खगोलीय ग्रंथों के साथ भी तुलना की जाती है। ये सभी ग्रंथ एक-दूसरे से प्रेरित और परस्पर जुड़े हुए हैं, लेकिन सूर्य सिद्धांत अपनी विशेष गणितीय और खगोलीय गहराई के लिए अलग स्थान रखता है।

7. आधुनिक युग में उपयोग:

  • आज भी, सूर्य सिद्धांत का अध्ययन भारतीय खगोलशास्त्र के ऐतिहासिक विकास को समझने के लिए किया जाता है।
  • इसके गणितीय सिद्धांतों और खगोलीय गणनाओं का उपयोग उस समय की वैज्ञानिक समझ को आधुनिक दृष्टिकोण से जांचने में किया जाता है।

सूर्य सिद्धांत भारतीय खगोलशास्त्र और गणित का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसने प्राचीन भारतीय विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका अध्ययन न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह प्राचीन भारत के वैज्ञानिक और गणितीय ज्ञान की गहराई को भी उजागर करता है।

समय का विवरण

सूर्य सिद्धांत के लेखक ने समय को दो प्रकार से परिभाषित किया है: पहला जो निरंतर और अंतहीन है, सभी सजीव और निर्जीव वस्तुओं को नष्ट कर देता है और दूसरा समय जिसे जाना जा सकता है। इस दूसरे प्रकार को आगे दो प्रकारों के रूप में परिभाषित किया गया है: पहला है मूर्त (मापनीय) और अमूर्त (अपरिमेय क्योंकि यह बहुत छोटा या बहुत बड़ा है)। अमूर्त समय वह समय है जो समय के एक अत्यल्प भाग ( त्रुटि ) से शुरू होता है और मूर्त वह समय है जो 4-सेकंड समय स्पंदनों से शुरू होता है जिसे प्राण कहा जाता है जैसा कि नीचे दी गई तालिका में वर्णित है। अमूर्त समय का आगे का विवरण पुराणों में मिलता है जबकि सूर्य सिद्धांत मापनीय समय पर टिका हुआ है।

सूर्य सिद्धांत में कहा गया है कि दो ध्रुव तारे हैं, एक उत्तर और एक दक्षिण आकाशीय ध्रुव पर । सूर्य सिद्धांत अध्याय 12 श्लोक 43 में वर्णन इस प्रकार है:

मेरोरुभयतो मध्ये ध्रुवतारे नभ:स्थिते। निरक्षदेशसंस्थानमुभये क्षितिजाश्रये॥12:43॥

इसका अनुवाद इस प्रकार है “मेरु (अर्थात पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव) के दोनों ओर दो ध्रुवीय तारे आकाश में अपने चरम पर स्थित हैं। ये दोनों तारे विषुवत क्षेत्रों पर स्थित शहरों के क्षितिज में हैं”। [ ४४ ]

साइन तालिका

सूर्य सिद्धांत अध्याय 2 में साइन मानों की गणना करने के तरीके प्रदान करता है। यह 3438 त्रिज्या वाले वृत्त के चतुर्थांश को 24 बराबर खंडों या साइन में विभाजित करता है जैसा कि तालिका में वर्णित है। आधुनिक समय के शब्दों में, इन 24 खंडों में से प्रत्येक का कोण 3.75° है। प्रथम क्रम अंतर वह मान है जिससे प्रत्येक क्रमिक साइन पिछले से बढ़ता है और इसी तरह द्वितीय क्रम अंतर प्रथम क्रम अंतर मानों में वृद्धि है। बर्गेस कहते हैं, यह देखना उल्लेखनीय है कि द्वितीय क्रम अंतर साइन के रूप में बढ़ता है और प्रत्येक, वास्तव में, संबंधित साइन का लगभग 1/225वां हिस्सा होता है। [ 3 ]

पृथ्वी की धुरी के झुकाव (तिरछापन) की गणना

क्रांतिवृत्त का झुकाव 22.1° से 24.5° के बीच बदलता रहता है और वर्तमान में 23.5° है। साइन तालिकाओं और साइन की गणना के तरीकों का अनुसरण करते हुए, सूर्य सिद्धांत समकालीन समय में पृथ्वी के झुकाव की गणना करने का भी प्रयास करता है जैसा कि अध्याय 2 और श्लोक 28 में वर्णित है, पृथ्वी की धुरी की तिरछी स्थिति , श्लोक कहता है “सबसे बड़ी अवनति की साइन 1397 है; इसके द्वारा किसी भी साइन को गुणा करें, और त्रिज्या से विभाजित करें; परिणाम के अनुरूप चाप को अवनति कहा जाता है”।  सबसे बड़ी अवनति क्रांतिवृत्त के तल का झुकाव है। 3438 की त्रिज्या और 1397 की ज्या के साथ, संगत कोण 23.975° या 23° 58′ 30.65″ है जो लगभग 24° है।


ग्रह और उनकी विशेषताएँ

प्रश्न: पृथ्वी गोलाकार कैसे हो सकती है? इस प्रकार स्थलीय ग्लोब (भूगोल) पर हर जगह लोग अपना स्थान ऊंचा मानते हैं, फिर भी यह ग्लोब (गोला) अंतरिक्ष में है जहां न तो ऊपर है और न ही नीचे।

पाठ में पृथ्वी को एक स्थिर ग्लोब के रूप में माना गया है जिसके चारों ओर सूर्य, चंद्रमा और पाँच ग्रह परिक्रमा करते हैं। इसमें यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो का कोई उल्लेख नहीं है।  यह कक्षाओं, व्यासों की गणना करने, उनके भविष्य के स्थानों की भविष्यवाणी करने के लिए गणितीय सूत्र प्रस्तुत करता है और चेतावनी देता है कि विभिन्न खगोलीय पिंडों के लिए सूत्रों में समय के साथ मामूली सुधार आवश्यक हैं। [ ३ ]

पाठ में ” दिव्य-युग ” के लिए बहुत बड़ी संख्याओं के उपयोग के साथ इसके कुछ सूत्रों का वर्णन किया गया है , जिसमें कहा गया है कि इस युग के अंत में , पृथ्वी और सभी खगोलीय पिंड एक ही प्रारंभिक बिंदु पर लौट आते हैं और अस्तित्व का चक्र फिर से दोहराता है। [ ४८ ] दिव्य-युग पर आधारित ये बहुत बड़ी संख्याएँ , जब विभाजित होती हैं और प्रत्येक ग्रह के लिए दशमलव संख्याओं में परिवर्तित होती हैं, तो आधुनिक युग की पश्चिमी गणनाओं की तुलना में यथोचित सटीक नाक्षत्र काल देती हैं

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में जो आचार्य/शिक्षक/अध्यापक

दयानन्द ने आचार्य, गुरु अथवा पण्डित आदि शब्द अध्यापक के लिए समान अर्थ में प्रयुक्त किये हैं। इनके अनेक स्थलों पर अर्थ व परिभाषाएं भी प्रस्तुत की हैं, जो कि द्रष्टव्य हैं:
–जो विद्यार्थियों को अत्यन्त प्रेम से धर्म युक्त व्यवहार की शिक्षा व विद्यावान् बनाने के लिए तन मन और धन से प्रयत्न करे उसको आचार्य कहते हैं। – व्यवहारभानु।
-जो श्रेष्ठ आचार को ग्रहण कराके सब विद्याओं को पढ़ा देवे, उसको आचार्य कहते हैं। – आर्योद्देश्यरत्नमाला।
-जो सांगोपांग वेद विद्याओं का अध्यापक, सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह आचार्य कहता है। – स्वमन्तन्यामन्तव्यप्रकाश।
इन परिभाषाओं को देखने से स्पष्ट है कि अध्यापक में दो प्रकार के गुण व योग्यताएँ होनी अपेक्षित हैं। एक वह पूर्ण विद्वान् हो, अपने विषय का पण्डित हो तथा साथ ही उसमें चरित्रगत व मानवीय गुण भी हों। दयानन्द ने अन्य स्थान पर भी अध्यापक और अध्यापिका कैसे होने चाहिएं, इस विषय प्रकाश डाला है :
– जिसको आत्मज्ञान हो, जो निकम्मा व आलसी कभी न रहे, सुख-दुःख हानि-लाभ, मानापमान, निन्दास्तुति में हर्ष शोक कभी न करे, धर्म ही में नित्य निश्चित रहे, जिनके मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय सम्बन्धी वस्तुएँ आकृष्ट न कर सके, वही पण्डित कहाता है।
– जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके। बहुत काल पर्यन्त शास्त्रों को पढ़े, सुने और विचारे। जो कुछ जाने उसे परोपकार में प्रयुक्त करे। अपने स्वार्थ के लिए कोई काम न करे, बिना पूछे व बिना योग्य समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे, वही प्रथम प्रज्ञान पण्डित को होना चाहिए।
– जिसकी वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तरों के करने में अति निपुण हो, जो विचित्र शास्त्रों के प्रकरणों का वक्ता, यथायोग्य तर्क और स्मृतिमान् ग्रन्थों के यथार्थ अर्थ का शीघ्र वक्ता हो, वही पण्डित कहाता है।
आज जब शिक्षक के गुणों की चर्चा की जाती है तब यह कहा जाता है कि शिक्षक के लिए अपने विषय का पण्डित होना बहुत आवश्यक है। किन्तु उसके चरित्रगत व मानवीय गुणों की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। अध्यापक की नियुक्ति करते हुए केवल परीक्षा में प्राप्त उसके परिणाम को ही दृष्टि में रखा जाता है, उसके किसी मानवीय गुण को नहीं; जबकि आज भी शिक्षक से यह आशा की जाती है कि वह मानवीय गुणों से युक्त हो। भाषणों में और लेखों में अध्यापक को राष्ट्र का निर्माता कहकर उसमें अनेक गुण कल्पित किये जाते हैं, पर व्यवहार में अध्यापक में इन गुणों का अभाव पाया जाता है।
आज का अध्यापक केवल अपनी कक्षा में व्याख्यान देकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेता है, पर कक्षा के बाहर छात्र क्या करता है, इससे उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। पर दयानन्द के अध्यापक को इस बात की चिन्ता है कि उसके पढ़ाए ज्ञान का उसका शिष्य क्या उपयोग करता है ? उसका अपने शिष्य से जीवन भर का सम्बन्ध हो जाता है। दयानन्द लिखते हैं कि परम धन्य वे मनुष्य हैं जो अपने आत्मा के समान सुख में सुख और दुःख में दुःख अन्य मनुष्यों को जानकर धार्मिकता को कदापि नहीं छोड़ते — इत्यादि उत्तम व्यवहार आचार्य लोग नित्य करते जाएँ।’ शिक्षक को सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसी शिक्षा करे वैसी चोरी-जारी, आलस्य, प्रमाद, मादकद्रव्य, मिथ्या-भाषण, हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि दोषों के छोड़ने और सत्याचार को ग्रहण करने की शिक्षा करे क्योंकि जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरी-जारी, मिथ्या-भाषणादि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने सामने मृत्युपर्यन्त नहीं होती।
जैसी हानि प्रतिज्ञा मिथ्या करने वाले की होती है वैसी अन्य किसी की नहीं। इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिए। ……किसी को अभिमान न करना चाहिए। छल, कपट व कृतघ्नता से अपना ही हृदय दुःखित होता है तो दूसरे की क्या कथा कहनी? …..जितना बोलना चाहिए उससे न्यून वा अधिक न बोले। –आदि अनेक बातें दयानन्द अध्यापक में चाहते हैं ताकि उनके इन गुणों से प्रभावित होकर उनका छात्र भी इन गुणों को अपने जीवन में अपनाए।
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स्रोत – जीवन के पांच स्तम्भ।
लेखक – डॉ प्रशान्त वेदालंकार।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।

गुरू की महिमा अनंत है

प्राचीन काल से ही अगर देखा जाए तो गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान-प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य का संरक्षण कार्य भी करता था। उसका उद्देश्य था कि शिष्य को बहुमुखी प्रतिभा प्रदान करना। जीवन की चुनौतियों से लड़ना और सफलता हासिल करवाना ।गुरु उसका कभी अहित सोच ही नहीं सकता है इसी विश्वास के साथ शिष्य गुरु के प्रति अटूट प्रेमका भाव रखता था। शिष्य गुरु का आदर करता और गुरु निःस्वार्थ भाव से शिष्य का मार्ग दर्शन करता। यही भाव दोनों के संबंध को गहरा और प्रगाढ़ बनाता था।
प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता,नैतिक भाव, शिष्यों के प्रति स्नेह का भाव,विद्या देने का निस्वार्थ भाव, तथा गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास,गुरु के प्रति समर्पण का भाव, आज्ञाकारिता का गुण और अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण होता था।द्रोणाचार्य और अर्जुन,राम और विश्वामित्र, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद,चंद्रगुप्तऔर आचार्य चाणक्य अथवा असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ गुरुऔर शिष्य का प्रगाढ़ प्रेम दिखाई देता है। गुरु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से शिष्य के भीतर के अंधकार को मिटाता है और यही कारण है कि भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान देवताओं से भी ऊपर रखा गया है। “स्कंद पुराण”, के “गुरु स्त्रोत” में कहा गया है-
   “गुरुर ब्रह्मा गुरूर  विष्णु: गुरु देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्री गुरुवे नमः।”
 मानव जीवन में गुरु की महिमा को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है। जिन भी महापुरुषों के जीवन दर्शन की ओर प्रकाश डाला जाता है दिखाई देता है कि  सामाजिक अथवा आध्यात्मिक गुरु की महिमा से ही उन्हें ज्ञान का मार्ग मिला है। इतिहास में असंख्य उदाहरण हैं ,जब- जब कोई व्यक्ति अपने जीवन की चुनौतियों से परेशान होकर असमंजस अथवा दुविधा में डूबा है तब- तब गुरु ने ही उसके ज्ञान चक्षु को खोला है-
  ” गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।”
        परंतु गुरु- शिष्य परंपरा के नेपथ्य में जाने से हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में शिक्षा का ह्रास हुआ है। आज गुरु केवल शिक्षकअथवा अध्यापक बन कर रह गया है जो मात्र कक्षा में खड़ा होकर पाठ्यक्रम पढाने को हीअपना धर्म मान चुका है और शिष्य बड़ी मुश्किल से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेता है। अतः हम सबको अपनी सनातन संस्कृति में वर्णित गुरु- शिष्य परंपरा को पुन स्थापित करने के लिए इस “शिक्षक दिवस” पर प्रण लेना होगा और याद रखना होगा कि शिक्षकों को न केवल ज्ञान अपितु संस्कृति एवं समृद्धि का भी केंद्रबिंदु बनना चाहिए। विद्यार्थियों की मन:स्थिति को समझते हुए उन्हें भारतीय सनातनी संस्कृति की अनुरूप बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए।शिक्षकों को शिक्षण से इतर आचरण एवं व्यवहार के माध्यम से गुरु की महिमा को पुनः प्रतिष्ठित करते हुए गुरु- शिष्य परंपरा की अलख जगानी होगी तथा शिष्यों के अंतः स्थल पर यह मंत्र अंकित करना होगा-
“ध्यानमूलम् गुरोर्मूर्ति:पूजा मूलम्     गुरोर्वदम्।
मंत्रमूलं गुरोरवाक्यं मोक्ष मूलं गुरोरकृपा।। “
अर्थात् – ज्ञान का मूल गुरु की मूर्ति( एकलव्य अनुपम उदाहरण है ),पूजा का मूल गुरु के चरण- कमल, मंत्र का मूल गुरु वचन एवं मुक्ति का मूल गुरु कृपा है और यह सनातन धर्म की सभी धाराओं में देखने को मिलता है। गुरु -शिष्य परंपरा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है और इसका चरम उत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति पर जाकर समाप्त होता है! जिसे ईश्वर प्राप्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति भी कहा जाता है। विद्या यानी ज्ञान वही है जो मुक्ति का मार्ग दिखाता है तभी तो कहा गया है-“सा विद्या या विमुक्तये!” मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति है। सामाजिक जीवन से आरंभ होकर आध्यात्मिक जीवन तक, मुक्ति का मार्ग दिखाने तक, जन्म से आरंभ होकर जीवनपर्यंत “गुरु एक मशाल है और शिष्य उसका प्रकाश! “
शिक्षक दिवस पर आज पुनः अपनी प्राचीन गुरू- शिष्य परंपरा को स्थापित करने का प्रण लेना होगा-
” ॐसह नाववतु! सह नौ भुनक्तु! सह वीर्यं करवावहै!तेजस्विनावधीतमस्तु! मा विद्विषावहै!!”
       “कठोपनिषद “के अनुसार हम दोनों( गुरु-शिष्य) अपने धर्म, संस्कृति, ज्ञान- विज्ञान आदि की साथ-साथ मिलकर रक्षा और अर्जन करें! हम दोनों साथ-साथ मिलकर अन्नआदि का भोग करें। हम मिलकर संगठित पराक्रम करें। हमारी साधना, अध्ययन और ज्ञान तेजस्वी हो, दुर्बल नहीं। हम कभी परस्पर द्वेष ना करें। वर्तमान सामाजिक परिवेश में भले ही पठन-पाठन के क्षेत्र में वह प्राचीन गुरु -शिष्य परंपरा विलुप्त हो गई हो परंतु कुश्ती,पहलवानी, साधुओं की संगति तथा संगीत के क्षेत्र में आज भी यह भारतीय परंपरा विद्यमान है जिसकी आज हमें अति आवश्यकता है। भारतवर्ष के समक्ष आज अवसर की खिड़की खुली हुई है। ऐसे में युवा भारत मार्गच्युत न हो, इसके निमित्त गुरु- शिष्य परंपरा को पुनः शक्ति प्रदान करनी होगी। हमें भारत को पुनः परम वैभवशाली बनाना है। विश्वगुरु का हमारा वह सिंहासन, जिस पर बैठकर मां भारती संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करती थी,उसे पुनः स्थापित करना है। ऐसा गुरु- शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना से ही संभव है!
 अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
संत कबीर कहते हैं-‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥’
अर्थात भगवान के रूठने पर तो गुरू की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना सम्भव नहीं है। जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याणमित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है उस श्री गुरू से उपनिषद् की तीनों अग्नियाँ भी थर-थर काँपती हैं। त्रोलोक्यपति भी गुरू का गुणनान करते है। ऐसे गुरू के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते है-
‘सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार,
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावण हार।।
– अर्थात सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए है। उसने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद ऑखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे लिखते है–
‘भली भई जु गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि।
 दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि।
अर्थात अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्यजन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते है। वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको निछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती। अतः सद्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते है । हम जैसे मानुष की बिसात क्या। दुनिया के समस्त गुरुओं को मेरा नमन एवं वंदन है!
    डॉ सुनीता त्रिपाठी”जागृति”
         सांची विश्वविद्यालय,
               (   म .प्र. )

एकल श्री हरि वनवासी विकास ट्रस्ट, भाईंदर क्षेत्रीय समिति द्वारा नंदउत्सव का आयोजन

मुंबई।
भायंदर स्थित माहेश्वरी भवन में धूमधाम से सम्पन्न हुआ, इस आयोजन में बड़ी संख्या में राजस्थानी सम्माज की उपस्थिति रही।कार्यक्रम में मुंबई के प्रसिद्ध उद्योगपतियों एवं समाजसेवियों की सपरिवार उपस्थिति रही। कार्यक्रम का शुभारंभ (मुख्य यजमान) मुंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति रामप्रकाश बूबना एवं उनकी पत्नी शारदा बूबना , एवं अन्य मुख्य अतिथियों सत्यनारायण काबरा, अमरचंद रांधड़,कैलाश अग्रवाल, अरुण गोयल, सतीश अग्रवाल, विमल अग्रवाल,अमृतलाल गोयल के कर कमलों द्वारा बालगोपाल कृष्ण के अभिषेक एवं पूजन से किया गया।


कार्यक्रम के अगले चरण में कलाकारों द्वारा कृष्ण जन्म का सुंदर चित्रण मंच पर किया गया, उसके अलावा सम्पूर्ण कृष्ण लीला, कालिया मर्दन, गोवर्धन पर्वत पूजा, महारास का मनमोहक मंचन किया गया ,बाल कृष्ण द्वारा मटकी फोड़कर नंदउत्सव संपन्न किया गया ,कार्यक्रम में कृष्ण राधिका के नृत्य, सुमधुर भजनों एवं मंच पर कलाकारों की प्रस्तुति ने सम्पूर्ण प्रांगण को कृष्णमय कर दिया, उपस्थित अतिथियों एवं अन्य गणमान्यों ने नंदोत्सव का आनंद लिया।

एकल श्री हरि वनवासी विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष नंदू पोद्दार ने आये हुए सभी अतिथियों एवं समाज बंधुओं का स्वागत किया। संस्था के उपाध्यक्ष रमेश कोठारी, अनिल गोयल, मुकेश मित्तल योगेश राजगढ़िया, ओमप्रकाश गुप्ता ,कार्याध्यक्ष डॉ सुशील अग्रवाल,महासचिव संजय गर्ग, सहसचिव सुधीर सोंथालिया, कमलकिशोर अग्रवाल, कोषाध्यक्ष संपत अग्रवाल, महिला अध्यक्ष सुमन कोठारी ,प्रचार प्रमुख संदीप सराफ आदि ने उत्सव का संयोजन अदभुत कौशल के साथ किया ,संस्था के संरक्षक डॉ निरंजन अग्रवाल एवं डॉ संजीव गुप्ता का योगदान भी सराहनीय रहा। कार्यक्रम में मनोरंजन प्रस्तुतिकरण रचना इवेंट द्वारा किया गया , सभी अतिथियों का स्वागत शाल एवं पुष्पगुच्छ द्वारा किया गया गौरतलब है कि– एकल देश का एक मात्र ऐसा समाजसेवी संगठन है । जिसका मुख्य उद्देश्य एकल अभियान के पंचमुखी शिक्षा में से एक मूल्याधारित संस्कार शिक्षा के द्वारा सुदूर, पर्वतीय , जनजातियों, वनांचलों में बसे वन -बंधुओं के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए कार्य करना है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करना है । कार्यक्रम का मंच संचालन राजेश डिडवानिया ने किया।

इस कार्यक्रम में संस्था के अन्य सभासदों जयकिशन सोमानी, सतीश बंका, रवि गाड़िया, रमाकांत पोद्दार, मनोज तोलम्बिया, अनिल देवड़ा, गौतम सारस्वत,कमल मूंधड़ा,बजरंग चौहान, अजय लालगड़िया,नवलकिशोर अग्रवाल, कैलाश गाड़ोदिया का सहयोग भी सराहनीय रहा। कार्यक्रम में विधायक गीता जैन एवं पूर्व विधायक नरेंद्र मेहता ने भी कृष्ण दर्शन का लाभ लिया। नंदोत्सव का समापन महाप्रसाद के साथ किया गया।

अंग्रेजों ने किया सिखों को सनातन से लड़ाने का षड्यंत्रः डॉ. इकबाल सिंह

सनातन, जैन, बौद्ध और सिख, इन सभी की माँ एक है, लेकिन अंग्रेजों ने सिख और सनातन में फूट डालने का षड्यंत्र कर समाज में भेद पैदा किया। ये बातें  राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष डॉ. इकबाल सिंह लालपुरा जी ने  नई दिल्ली में आयोजित सिख गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि नामक पुस्तक के लोकार्पण में कही। उन्होंने कहा कि गुरुग्रंथ साहिब में लिखा है कि प्रथम गुरु नानक देव जी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इसलिए गुरु केवल सिखों के नहीं, पूरे भारत के हैं।

सिख साहित्य के अनुपम विद्वान रहे स्व. राजेंद्र सिंह जी की लिखी तथा संकलित पुस्तक सिख गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि का लोकार्पण आज बुधवार, 4 सितम्बर 2024 को सरदार दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय में संपन्न हुआ। पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष डॉ. इकबाल सिंह लालपुरा जी, दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमिटी के मुख्य सलाहकार सरदार परमजीत सिंह चंडोक जी ने किया तथा पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. जगबीर सिंह जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।

इस अवसर पर परमजीत सिंह चंडोक जी ने कहा कि गुरुओं ने मानवता का संदेश दिया और खालसा पंथ की स्थापना की। देश में पहली बार ऐसी सरकार आई है, जो गुरुओं के दिवसों का उत्सव आयोजित कर रही है। देश की स्वाधीनता के 75 वर्षों में पहली बार इसी सरकार ने करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलकर वहाँ तक आम जन की पहुँच को सुगम बनाया।

पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. जगबीर सिंह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि बंदा बहादुर और राजा रणजीत सिंह तक हम एक रहे हैं। बाद में अंग्रेजों ने हमें अलग करने का षड्यंत्र किया। उन्होंने काहन सिंह नाभा जैसे लोग खड़े किये, जिन्होंने आधे-अधूरे उद्धरणों से फूट डालने का कार्य किया। यह पुस्तक इन सभी षड्यंत्रों का उन्मूलन करती है।

इस पुस्तक का मूल भाव है कि सिख समाज भारत का एक अभिन्न अंग रहा है। प्रथम गुरु नानकदेव जी ने भारत को एक समग्र इकाई के रूप में प्रस्तुत किया था। वे पूरे भारत को एक समग्र रूप में देखते थे और तदनुरूप ही उन्होंने विधर्मी आक्रांताओं और उनके अत्याचारों का वर्णन किया। आज के विभाजनकारी दौर में गुरु नानकदेव की शिक्षाओं का पुनर्स्मरण करने की आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रख कर ही प्रस्तुत पुस्तक लिखी गई है। पुस्तक के लेखक स्व. राजेंद्र सिंह जी सिख साहित्य के अप्रतिम विद्वान थे और उहोंने श्रीराम जन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय में गवाही देते हुए सिख साहित्य में श्रीराम जन्मभूमि का उल्लेख होने के प्रमाण प्रस्तुत किये थे।

इस लोकार्पण कार्यक्रम में जीवन के विविध आयामों में समाज के लिए उल्लेखनीय योगदान के लिए सिख समाज के 14 महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों को सम्मानित भी किया गया।

.श्री यदविंदर सिंह (शहीद ए आजम भगत सिंह के प्रपौत्र) अध्यक्ष, ऑल इंडिया भगत सिंह ब्रिगेड : इन्होंने शहीद ए आजम भगत सिंह की जेल डायरी का प्रकाशन मै. संधु एंड आर्गेनाइजेशन के प्रयास से प्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण मार्च 2014 में माननीय श्री नरेंद्र मोदी और स्वामी रामदेव की उपस्थिति में किया गया। श्री ए आजम भगत सिंह की जब डायरी का हिंदी अवतरण 2028 में (प्रभात प्रकाशन द्वारा) का विमोचन केंद्रीय मंत्री रवि शंकर द्वारा किया गया।

 श्रीमती रंजीत कौर धर्म पत्नी स्वर्गीय राजेंद्र सिंह जी जिन्होंने अपने पति के साथ गुरुओं की राष्ट्रीय दृष्टि पुस्तक के सृजन में तन, मन, धन से सहयोग किया।

.डॉ. हरबंस कौर निदेशक सिख इतिहास एवं गुरबाणी फोरम (DSGMC) : इन्होंने पंजाबी में 30 पुस्तके लिखी, इनकी 12 पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं इनके 100 शोध लेख प्रकाशित हुए है। लगभग 12 टी वी कार्यक्रमों में इन्होंने भाग लिया है। इन्हे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। कुछ एक के नाम प्रस्तुत हैं पंजाब एकेडमी अवार्ड, बाबा बंदा बहादुर सिंह मेमोरियल अवार्ड और अन्य पुरस्कार।

.श्री इंद्र देव सिंह मुसाफिर, (सुप्रसिद्ध व्यवसायी): आप फुटवियर के व्यवसाई हैं । मुसाफिर फुटवियर से संबंधित सरकारी काउंसिल के सदस्य रह चुके हैं।

.जस्टिस गुरिंदर सिंह (से नि) दिल्ली हाई कोर्ट : आप दिल्ली है कोर्ट में न्यायाधीश रहे हैं। बड़ी निष्ठा और न्याय के पथ पर आपका योगदान स्मरणीय है।

पद्मश्री जितेंद्र सिंह शंटी, संस्थापक शहीद भगत सिंह सेवा दल : शांति जी का जीवन उन सभी की सेवा में तत्पर है जिन्हें उनकी आवश्यकता है। शंटी जी लावारिश मृतकों के अंतिम संस्कार करता के रूप में प्रसिद्ध हैं। कोरिया काल में उनके द्वारा जो पीढ़ित मानवता की सेवा उन्होंने की वह अद्वितीय है। उन्होंने 4400 मृतकों का अंतिम संस्कार कर अपने कर्तव्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।

.श्री आर पी सिंह, पूर्व विधायक एवं समाज सेवी,  श्री बलदेव सिंह ढिल्लो, समाज सेवी: बलदेव सिंह जी समाज के है क्षेत्र में जन हित के कार्यों में हर समय अपना योगदान देते हैं।
श्री गुरमीत सिंह लेखक एवं ज्योतिषी : आप का अंक शास्त्र और ज्योतिष ज्ञान का लाभ आम जनता को बराबर मिलता रहता है।  युवा नेता रणधीर सिंह कालेर : आप संगरूर में बहुत सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए है। अर्जुन पाल सिंह मारवाह: आप एक समाजसेवी हैं तथा लाजपत नगर में पार्षद के रूप में आम जनता को सेवाएं दे रहे हैं।

राजा भोज एवं उनकी भोजशाला अतीत से वर्तमान तक

यह ऐतिहासिक निर्णय है, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ के आदेश पर धार स्थित भोजशाला का आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा सर्वेक्षण किया जा रहा है। प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की आड़ में इतिहास बोध से वंचित नहीं किया जा सकता? पूजा और नमाज के अधिकार पर बहस से पहले यह सत्यापित होना आवश्यक है कि राजाभोज की विरासत पर कमाल मौला का मुलम्मा आखिर चढ़ा कैसे? मैं स्पष्टत: भोजशाला को राजाभोज की विरासत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह सत्य वर्ष 1902 में एएसआई द्वारा किए गए सर्वेक्षण में उजागर हुआ था। एक विशाल हवनकुण्ड और उसके चारों ओर अलंकृति स्तंभों की परिधि के भीतर देवी-देवताओं की अनेक प्रतिमाएं स्वयं देखी परखी जा सकती हैं। यह ऐसा ही है जैसे मंदिर को तोड़ कर औरंगजेब ने केवल गुंबद तान दिए और बन गई ज्ञानवापी मस्जिद। अब सारे साक्ष्य चीख चीख कर कह रहे हैं कि मंदिर ही है, दीवार भी मंदिर की, प्रतिमाएं भी देवी देवताओं की, सामने सदियों से बैठे हुए नंदी भी। प्राप्त तो महादेव भी हुए हैं लेकिन माननीय अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा उचित है, वजूखाने में प्राप्त प्रतिमा यदि महादेव की सिद्ध होती है तो गंगा-जमुनी तहजीब की गंगा और जमुना अलग अलग धाराओं में बह सकती है। जानते बूझते देवी-देवताओं और इतिहास का अनादर क्यों? यह बड़ा प्रश्न है जिसका ज्ञानवापी के संदर्भ में उत्तर देना यही होगा, साथ ही साथ यही वस्तुस्थिति भोजशाला की भी है। आईये राजाभोज की भोजशाला पर थोड़ी चर्चा करते हैं। आज के वक्तव्य में हम तीन उपविषयों की चर्चा करने जा रहे हैं – प्रथम कि कौन थे राजाभोज? द्वितीय कि राजाभोज की वाग्देवी कौन थी, कैसी थी? और तीसरा प्रश्न की भोजशाला विवाद क्या है? विषय के अंत में हम ए.एस.आई. के सर्वेक्षण की महत्ता पर बात करेंगे।

कौन थे राजाभोज?
यह प्रश्न हृदय को द्रवित करता है। आप इतिहास के छात्रों से भी यह प्रश्न करेंगे तो उन्हे खिलजियों-मुगलों का पूरा खानदान रटा होगा लेकिन अधिकांश ठिठक जाएंगे कि भोज कौन थे, कहाँ के शासक थे। राजाभोज मुहावरों और किंवदंतियों तक में इस तरह समाविष्ट हैं कि आज की पीढ़ी उन्हें मिथक और काल्पनिक तक मानने लगी है। इसलिए रेखांकित करें और अपनी पीढ़ी को भी सजग करें कि मध्यभारत के विशाल परिक्षेत्र पर शासन करने वाले राजाभोज परमार या पंवार वंश के नवें शासक थे।

विदित है कि परमार वंशीय राजाओं ने धारानगरी अथवा वर्तमान धार नगर को अपनी राजधानी बनाते हुए आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक गौरवपूर्ण शासन किया था। राजाभोज की प्रतिष्ठा यह भी है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की प्रतिष्ठा उनके ही नाम से है जो क्षेत्र कभी भोजपाल अथवा भूपाल कहा जाता था। राजाभोज ने इसी स्थान पर विशाल कृत्रिम झील का निर्माण कराया था जिसका विस्तार एक समय पर भोजपुर के चर्चित शिव मंदिर तक था। राजाभोज की प्रतिष्ठा केवल गौरवशाली योद्धा की नहीं थी, उन्हें अद्भुत भवनों का निर्माता कह कर भी इति नहीं की जा सकती, वे जल संरक्षण की अवधारणा के आरम्भिक सूत्रधारों में से एक थे, कहना भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं।
 वे सही मायनों में सरस्वती उपासक थे जिनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने चौंसठ प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं साथ ही उन्होंने धर्म, ज्योतिष्य, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि विषयों पर चौरासी ग्रंथ लिखे। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘समरांगण सूत्रधार’, ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘सिद्वान्त संग्रह’, ‘राजमार्तण्ड’, ‘योग्यसूत्रवृत्ति’, ‘विद्या विनोद’, ‘युक्ति कल्पतरु’, ‘चारु चर्चा’, ‘आदित्य प्रताप सिद्धान्त’, ‘आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘कूर्मशतक’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘भोजचम्पू’, ‘कृत्यकल्पतरु’, ‘तत्वप्रकाश’, ‘शब्दानुशासन’, आदि प्रमुख हैं। ”भोज प्रबंधनम्” उनकी आत्मकथा है।

राजा भोज की वाग्देवी
अब दूसरे प्रश्न अर्थात बात राजा भोज की वाग्देवी की कर लेते हैं। जानते हैं कि राजा भोज और विद्या की देवी सरस्वती का सह-सम्बंध कैसा था? मेरुतुंगाचार्य द्वारा विरचित प्रमुख जैन ग्रंथ प्रबंध चिंतामणि के अनुसार धारानगरी में जहाँ वर्तमान भोजशाला स्थित है, राजाभोज ने इसी स्थान पर माता सरस्वती का अनेक बार दर्शन और साक्षात्कार प्राप्त किया है। क्या यही कारण है कि जैसे ही हम भोजशाला के भीतर प्रवेश करते हैं, यह पाते हैं कि मुख्य द्वार के पास दाहिनी दीवार पर काली पाषाण शिला के ऊपर कूर्मशतकम अथवा पारिजात मंजरी नाटक के प्रथम दो अंक खुदे हुए हैं जिनमें पर्यटक आसानी से ओम सरस्वतयै: नम: का अवलोकन कर सकते हैं। राजा भोज और माता सरस्वती के इस भक्तिपूर्ण सम्बंध को इस बात से भी समझा जा सकता है कि भोजशाला के बाहर ही एक छोटा कुँआ है, जिसे अक्लकूप अथवा सरस्वती कूप कहा जाता है। आज भी जनसाधारण की यह धारणा है कि इस कुएं का पानी पीकर जड़बुद्धि व्यक्ति भी विद्वान हो जाते हैं, सरस्वती के उपासक बन जाते हैं। इस जनमान्यता से स्पष्ट भी होता है कि यह परमारवंशीय शासक न केवल स्वयं अध्येता था अपितु विद्यानुरागियों, विद्वानों, कवियों, शोधकर्ताओं, अभियंताओं, वैज्ञानिकों आदि के संरक्षक भी थे।

भोजशाला को कभी भारत के महत्वपूर्ण रहे शिक्षा संस्थानों में गिना जाता है। यह भी प्रामाणित है कि यहाँ कभी भव्य सरस्वती प्रतिमा अथवा वाग्देवी स्थापित रही होंगी। प्राचीन साहित्य में देवी सरस्वती विद्याधारी, वीणावादिनी, भारती, महाविद्या तथा महावाणी आदि सहित वाग्देवी भी पर्याय के रूप में उल्लेखित है। भोजशाला के मुख्य गर्भगृह में वाग्देवी की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा स्थापित थी जो मध्यकाल में आक्रांता द्वारा हटवा दी गई थी। अभी अवशेष स्वरूप एक दीवार पर सफेद संगमरमर का कमल फूल उकेरा देखा जा सकता है।

धार नगरी में वर्ष 1875 में पुरातत्व विभाग के श्री के.के.लेले आदि को खुदाई करते हुए वाग्देवी की खण्डित की गयी जो प्रतिमा प्राप्त हुई थी उसे तत्कालीन भोपावर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड के द्वारा लंदन ले जाया गया। भारतीय विरासत की अंग्रेजों द्वारा की गयी लूट आज भी वहां के रॉयल म्यूजियम में सुरक्षित और प्रदर्शित की जाती है, जहाँ वाग्देवी की संगमरमर की निर्मित इस प्रतिमा को देखा जा सकता है। सरस्वती कंठाभरण जैसे महान ग्रंथ के रचयिता राजा भोज की आराध्या यही वाग्देवी हैं जिन्हें श्रृंगार मंजरी कथा कृति में सौभाग्य तथा यश देने वाली साथ ही स्निग्ध पदों से नर्तन करने वाली बताया गया है।
वाग्देवी स्त्रोत में कहा गया है कि देवी भारती अपने ललित पदों से समूचे जगत के रंगमंच पर नर्तन करती हैं और सबको नचाती हैं – समझा जा सकता है कि राजा भोज द्वारा साकार की गयी वाग्देवी की प्रतिमा इन्हीं ग्रंथों में उल्लेखित विवरणों के अनुरूप होनी चाहिये। पडताल कीजिये तो आपको ज्ञात होगा राजा भोज द्वारा संवत 1091 में वाग्देवी की प्रतिमा की स्थापना भोजशाला में की गई थी। कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका रूपम के 1924, जनवरी अंक में श्री के.एन.दीक्षित के हवाले से उल्लेख मिलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में स्थित प्रतिमा ही राजा भोज की आराध्या वाग्देवी की प्रतिमा है। प्रतिमा के पादपीठ पर संवत 1091 (ईस्वी सन् 1134) का लेख उत्कीर्णित है। इस प्रतिमा में जो उत्कीर्णन है उसके मुख्यांश का अनुवाद है – यह माता वाग्देवी की मनोहारी प्रतिमा है जो कि राजा भोज की धारा नगरी की विद्या को धारण करती है।

राजा भोज की चर्चित वाग्देवी की प्रतिमा अभंगलास्य मुद्रा में है जिसे मकराना के संगमरमर से बनवाया गया था। इस प्रतिमा में उत्तर और दक्षिण भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों का समाहार है। प्राप्त प्रतिमा के चार हाथों में से आगे के दो हाथों का आधा भाग खंडित और लुप्त है। सिर पर मुकुट, कंधे तक लटकते हुए कानों में कुंडल, कंठ में मोतियों का हार, वक्षस्थल पर मुक्ता जट्ट पट्टी और उनकी कटि भी चारों ओर से अलंकृत है। इस प्रतिमा में देवी की सेवा में 5 प्रधान आकृतियां भी उत्कीर्णित हैं विशेष रूप से उनकी बाई ओर अपने हाथों में एक माला लिए हुए एक उड़ती हुई नारी की आकृति गढी गयी है। प्रतिमा रूप में वाग्देवी देवी ध्यान अवस्था में हैं। उनका मुख सुंदर तथा शांत है। यह प्रतिमा चार फुट ऊँची, नौ इंच मोटी तथा दो फीट चार इंच चौडी है जिसके निर्माण व स्वरूप में जैन शिल्पकला का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

इस विवेचना के पश्चात हम तीसरे और महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर आगे बढ़ते हैं कि भोजशाला विवाद क्या है? राजा भोज जिनका कि राज्यकाल वर्ष 1010 1055 ई. माना जाता है, उन्होंने वर्ष 1034 ई. में धार नगर में सरस्वती सदन भोजशाला निर्माण करवाया एवं यहाँ पर वाग्देवी प्रतिमा की स्थापना की थी। समय बदल गया तथा वर्ष 1305 से 1401 ई. के मध्य धार ने सबसे पहले मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी का आघात सहा। राजाभोज की विरासत को नष्ट करने का वृतांत यहीं से आरंभ होता है जबकि वर्ष 1269 में कमाल मौलाना नाम का फ़क़ीर धार आया जोकि यहाँ पर 36 वर्ष तक रहा था।

कमाल मौला ने धार के संबंध में बहुत सी सामरिक महत्व की जानकारियाँ एकत्रित की जिसे उसने खिलजियों से साझा कर दिया। इन्हीं जानकारियों के आधार पर वर्ष 1305 में भोजशाला को नष्ट करने का कार्य मतिमंद आक्रान्ताओं द्वारा किया गया था। सूफी भारत में क्या दे गए इस पर बहस से पहले हमसे क्या क्या छीना और काबिज हो गए यह जानना आवश्यक है। 1305 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय भोजशाला के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी खिलजी की इस्लामिक सेना का विरोध किया था। खिलजी द्वारा लगभग 1,200 छात्र-शिक्षकों को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया लेकिन इन सभी ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इसके बाद इन विद्वानों की हत्या कर दी गई थी और उनके शवों को भोजशाला के ही विशाल हवन कुंड में फेंक दिया गया था।

कमाल मौला की मौत के कई दशकों बाद वर्ष 1456 में महमूद खिलजी द्वारा भोजशाला परिसर में ही मौलाना कमालुद्दीन का मकबरा व दरगाह को बनवा दिया गया। कमाल मौला मस्जिद के बगल में चार इस्लामी मकबरे और हैं। इनमें प्रमुख है कमालुद्दीन चिश्ती धारवी (1238-1330) की दरगाह, जिसको मालवा सल्तनत के दौरान बनवाया गया था। ध्यान रहे कि इन मस्जिदों दरगाहों का निर्माण भारतीय शिक्षा के प्रतिमानों और विरासतों पर हुआ है, बिलकुल वैसे ही जैसे विष्णु स्तम्भ का कुतुबमीनार में परिवर्तन कर पास के सत्ताईस हिन्दू और जैन मंदिरों को नष्ट कर दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम मसजिद बनवाई गई थी। मेरा स्पष्ट मानना है कि धार की भोजशाला का विध्वंस नालंदा विश्वविद्यालय के बख्तियार खिलजी द्वारा किए गए नाश जैसा ही पापपूर्ण और घृणित कार्य था। जिसके बाद सूफी सूफी की रट और उनके योगदानों की पाठ्यपुस्तकों में रेलमपेल, सोचिए कि क्यों है?

गंगा जमूनई तहजीब से गंगा को अलग जमुना को अलग कर के देखेंगे तो ही उस तहजीब को पाएंगे जिसका काम तोडऩा और कब्जा करना रहा है। यही राजा भोज की महान विरासत और विद्या के मंदिर के साथ हुआ है। मुसलमानों ने भारतीय शिक्षा संस्थानों को निर्दयता से नष्ट किया फिर वह चाहे खिलजी हो या औरंगजेब, थाली इनकी एक ही है चट्टे बट्टे अलग अलग दिखते हैं। वर्ष 1732 ई. में मुस्लिम शासन का अभिशाप कटा और धार की भूमि मराठों के अधीन हो गई। भोजशाला से मुसलमान दावे भी मराठा शासन के साथ साथ समाप्त हो गए थे।

जैसा कि वक्तव्य के आरंभ में मैंने बताया था कि धार नगरी में वर्ष 1875 में पुरातत्व विभाग के श्री के.के.लेले आदि को खुदाई करते हुए वाग्देवी की खण्डित की गयी जो प्रतिमा प्राप्त हुई थी उसे तत्कालीन भोपावर स्टेट के पोलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड के द्वारा वर्ष 1880 ई. में लंदन ले जाया गया। वर्ष 1909 ई. में धार रियासत द्वारा एन्शीएंट मान्यूमेंटएक्ट को लागू कर भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। वर्ष 1934 में इस स्थान पर अवैध कब्जे हटवा कर यहाँ भोजशाला नाम की पट्टिका धार प्रशासन द्वारा लगवा दी गई।

 यहाँ पर इतिश्री हो जानी चाहिए थी लेकिन 1935 में अजमेर उर्स के दौरान मुसलमान उग्र हो गए और भोजशाला को कमाल मौला की मस्जिद बताते हुए उस पर अधिकार के लिए हिंसक प्रतिरोध पर उतारू हो गये। इससे डर कर दिनांक 24.08.1935 को धार राज्य के दीवान श्री नाडकर ने शुक्रवार को भोजशाला के भीतर ही मुसलमान समुदाय को नमाज पढने की अनुमति दे दी। इतना ही नहीं भोजशाला के मुख्य द्वार के बाहर बेतरतीब कब्रिस्तान पनपता रहा, भूमि का अतिक्रमण होता रहा और सबकुछ डंके की चोट पर। इतने से भी शांति नहीं थी तो 21 से 23 दिसंबर 1944 को कमालउद्दीन चिश्ती का पहला उर्स हुआ और इसे दंगे में परिवर्तित कर दिया गया।

धार नागरी के जागरूक नागरिकों के इस गुण्डागर्दी के विरोध में अपना स्वर उठाना आरंभ कर दिया था। वर्ष 1952 से इतिहास शोध, साक्ष्य संकलन के माध्यम से सनातन मान्यता ने अपनी विरासत पर दावा किया और भोज उत्सव मनाना आरंभ किया। भोजशाला में सरस्वती जन्मोत्सव की यह शुरुआत केशरीमल सेनापति, प्रेमप्रकाश खत्री, बसंतराव प्रधान, ताराचंद अग्रवाल आदि इतिहास के प्रति जागरुक नागरिकों ने की। 29 नवंबर 1952 को भोजशाला को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया। 1988 को भोजशाला मे एक प्रतिमा पाई गई जो धार संग्रहालय को सौंप दी गई है। 1994 को सनातन मतावलंबियों ने भोजशाला पर अपना दावा प्रस्तुत करते हुए सभी घरों पर केसरिया ध्वज लहरा दिए।

वर्ष 1995 को शिवसेना के जिलाध्यक्ष द्वारा भोजशाला मे झण्डा फहराने का प्रयास किया गया जो प्रशासन ने नहीं होने दिया। फरवरी, 1995 को लगभग पचास व्यक्तियों के एक समूह ने भोजशाला में प्रवेश कर हनुमान चालीसा का पाठ किया। 23 अप्रैल 1995 को हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के मध्य एक आम सहमति बनी कि शुक्रवार को मुसलमान नमाज पढ़ सकते हैं और मंगलवार को हिन्दू सुन्दरकांड का पाठ करेंगे। 11 अगस्त 1996 से 13 दिसंबर 1996 का समय घटनाप्रधान रहा, प्रतिबंधों के बाद भी मुस्लिम समुदाय ने दो बार अपने मृतकों के शवों को भोजशाला परिसर में दफनाया। दोनों ओर से पथराव की घटनाएं हुई और अनिश्चित काल के लिए कफ्र्यू लगा, उर्स को भी स्थगित करना पड़ा।
आंदोलनों का प्रतिफल था कि प्रशासन – भोजशाला के निकट के कब्रिस्तान को 9 मई 1997 को बंद करने का आदेश देना पड़ा। भोजशाला के भीतर ही एक कमरे में मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति का अवैध कब्जा था, उससे प्रशासन ने कक्ष 12 मई 1997 को खाली करावा लिया गया। सोच कर देखिए कि यह जानते हुए भी कि यह स्थान देवी सरस्वती का आराधना स्थल भी माना जाता है, मांस मछली की दूकाने इस स्मारक के साथ लगा कर ही सजा करती थी, इसे भी 20 जनवरी 1997 को हटवाने के लिए प्रशासन बाध्य हुआ।

12 मई 1997 को ही प्रशासन द्वारा यह निर्णय लिया गया कि प्रति शुक्रवार दोपहर एक से तीन बजे तक मुस्लिम समुदाय के लोग नमाज पढ़ सकते है, प्रति वसंत पंचमी को हिन्दू समुदाय के लोग प्रार्थना कर सकते हैं शेष दिन यह स्थान संग्रहालय की तरह जन अवलोकनार्थ सशुल्क खोला जाएगा। विरासत सनातन योद्धा व अध्येता भोज की और साप्ताहिक प्रवेश का अधिकार मुसलमानों को जबकि हिंदुओं के लिए साल का केवल एक दिन? इस निर्णय पर पुरातत्व विभाग द्वारा 5 फरवरी 1998 को मुहर लगा दी गई, यह असंतुलित निर्णय था जिसमें प्राधिकारी को ही बेदखल कर दिया गया था इसलिए असंतोष बढ़ाना ही था।

आंदोलन उग्र होता गया विशेष रूप से वर्ष 2002 से 2003 के बीच आन्दोलन में लाठीचार्ज हुए, गोलियां चली, जाने गयीं। इस बीच रथयात्राएं निकाली गयीं और जैसे जैसे आवाज तीखी हुई प्रशासन को अपनी भूल समझ में आने लगी। 7 अप्रेल 2003 को हिंदुओं को प्रति मंगलवार सूर्योदय से सूर्यास्त तक नि:शुल्क प्रवेश व पूजा अर्चना की अनुमति प्राप्त हो गई। जो फूल चढ़े हमारे सर पर ही चढ़ें की मानसिकता से काजी मोईनुद्दीन ने इस अनुमति के विरोध में याचिका डाली जिसे खारिज कर दिया गया। वर्ष 2013 तथा 2016 में दोनों समुदायों के मध्य अत्यधिक तनाव की स्थिति निर्मित हुई थी जब वसंत पंचमी का दिवस शुक्रवार को पड़ा था। 12 फरवरी 2016 को तो पुलिस ने वसंत पंचमी पर दर्शन करने पहुंचे लोगों को दोपहर में जबरदस्ती बाहर निकाल दिया, इस दौरान लाठीचार्ज हुआ। बाद में पुलिस सुरक्षा में 25 लोगों को पुलिस वाहन में लाकर नमाज पढ़वाई गई। स्वाभाविक था कि यह कदम विवाद उत्पन्न करने वाला था।

इन घटनाक्रमों के दृष्टिगत यह महत्वपूर्ण है कि एएसआई सर्वेक्षण करें और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे। पूजा और नमाज के अधिकार पर तो बाद में निर्णय होता रहेगा, पहले यह तो साफ साफ सामने आ जाए कि राजा भोज की विरासत को कब क्यों और किसने नष्ट किया है? भोजशाला मैं स्वयं गया हूँ, मैंने अनेक यंत्रों, अभिलेखों, स्तंभों और देवी-देवताओं की आकृतियों को स्वयं देखा है और प्रथम दृष्टया ही यह साफ हो जाता है कि भोजशाला राजा भोज की ही विरासत है।

मैंने यह भी पाया कि अनेक प्रतिमाओं और आलेखों को स-प्रयास नष्ट करने का यत्न किया गया है जिससे की साक्ष्य मिट जाये। यदि भोजशाला का आप भ्रमण करेंगे तो स्तंभों पर की कई प्रतिमाओं को आप घिसा हुआ पाएंगे। यह एक मानसिकता है जिसे उजागर करना आवश्यक है। माननीय अदालत के आदेश पर हुए ए.एस.आई. सर्वेक्षण का हृदय से स्वागत और आभार, नीर क्षीर विवेक होगा यह हम जानते हैं। ध्यान रहे भोजशाला धार्मिक विषय है इसमें संदेह नहीं लेकिन उससे पहले यह इतिहास की थाती है इसलिए पूरा सच सामने आना ही चाहिए।
(लेखक एनएचपीसी में इंजीनियर तथा प्रसिद्ध लेखक हैं )

प्राचीन भारतीय गणित जिसने पूरी दुनिया को राह दिखाई

प्राचीन भारतीय गणित एक समृद्ध और महत्वपूर्ण विषय है जिसने आधुनिक गणित के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ कुछ मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है:

1. शून्य और दशमलव प्रणाली का विकास:

  • प्राचीन भारतीय गणितज्ञों ने शून्य (0) का आविष्कार किया, जो गणित में एक क्रांतिकारी कदम था।
  • इसके साथ ही, दशमलव प्रणाली (Decimal System) की खोज भी भारत में हुई, जिसने गणना को सरल और सटीक बना दिया।

2. आयुर्वेद और खगोलशास्त्र में गणित का प्रयोग:

  • भारतीय गणित का उपयोग न केवल गणनाओं के लिए बल्कि आयुर्वेद और खगोलशास्त्र में भी होता था।
  • उदाहरण के लिए, सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ में ग्रहों की गति, समय की गणना और खगोलीय घटनाओं का गणितीय वर्णन किया गया है।

3. प्रसिद्ध गणितज्ञ:

  • आर्यभट्ट: उन्होंने आर्यभटीय नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें पाई (π) के मूल्य का उल्लेख किया गया और त्रिकोणमिति की नींव रखी।
  • ब्रह्मगुप्त: उन्होंने शून्य के उपयोग और ऋणात्मक संख्याओं के नियमों की व्याख्या की।
  • भास्कराचार्य: उनके द्वारा लिखित “लीलावती” और “बीजगणित” ग्रंथों में गणित के कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन है।

4. बीजगणित और त्रिकोणमिति:

  • भारतीय गणितज्ञों ने बीजगणित और त्रिकोणमिति के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • उन्होंने ज्या (Sine) और कोज्या (Cosine) जैसे त्रिकोणमितीय कार्यों का आविष्कार किया, जो आज भी उपयोग में हैं।

5. सिद्धांत और सूत्र:

  • भारतीय गणित में कई महत्वपूर्ण सिद्धांत और सूत्रों का विकास किया गया, जिनका उपयोग आधुनिक गणित में भी होता है।
  • उदाहरण के लिए, आर्यभट्ट ने त्रिभुज के क्षेत्रफल का सूत्र और पाई (π) के सन्निकट मान का वर्णन किया।

6. गणित का समाज पर प्रभाव:

  • प्राचीन भारतीय गणित ने व्यापार, वास्तुकला, और खगोलशास्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • इसके अलावा, भारतीय गणित के सिद्धांतों का उपयोग मध्यकालीन इस्लामी गणितज्ञों और बाद में यूरोपीय गणितज्ञों द्वारा भी किया गया, जिससे वैश्विक गणितीय विकास हुआ।

प्राचीन भारतीय गणित का इतिहास अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है। इसकी समृद्ध धरोहर आज भी विश्व भर के गणितज्ञों के लिए अनुसंधान का विषय है।

शीतल देवी और राकेश कुमार: सफलता पर साधा निशाना

भारत के पैरा-एथलीट वैश्विक मंच पर देश को लगातार गौरवान्वित कर रहे हैं। पेरिस में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले पैरा-एथलीटों में शीतल देवी और राकेश कुमार का प्रदर्शन भी शामिल था, जिन्होंने मिश्रित टीम कंपाउंड ओपन तीरंदाजी स्पर्धा में कांस्य पदक जीता। उनकी जीत पैरा खेलों में भारत की बढ़ती विरासत में एक और अध्याय जोड़ती है!

शीतल देवी का सफर

शीतल देवी का जन्म 10 जनवरी, 2007 को जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में हुआ था। उन्होंने अपने अतुलनीय सफर से दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया है। बिना हाथों के जन्म लेने के बावजूद उन्होंने दिखा दिया है कि महानता हासिल करने की राह में शारीरिक सीमाएं कोई बाधा नहीं हैं। उनका प्रारंभिक जीवन चुनौतियों से भरा था, लेकिन 2019 में उस समय एक महत्वपूर्ण क्षण आया जब भारतीय सेना ने एक सैन्य शिविर में उनकी प्रतिभा की पहचान की। उनकी क्षमता को देखते हुए उन्होंने उन्हें शैक्षिक सहायता और चिकित्सा देखभाल की सुविधा प्रदान की।

जानेमाने कोच कुलदीप वेदवान की देखरेख में शीतल ने कठोर प्रशिक्षण की शुरुआत की और इसने उन्हें दुनिया की एक अग्रणी पैरा-तीरंदाज बना दिया। उनकी उपलब्धियां खुद बयां करती हैं: 2023 के एशियाई पैरा खेलों में व्यक्तिगत एवं मिश्रित टीम स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक, 2023 के विश्व तीरंदाजी पैरा चैम्पियनशिप में रजत पदक और एशियाई पैरा चैम्पियनशिप में कई पुरस्कार। शीतल की कहानी साहस, दृढ़ता और अपनी क्षमताओं में अटूट विश्वास की कहानी है।

राकेश कुमार: प्रतिकूलता से उत्कृष्टता तक

राकेश कुमार का जन्म 13 जनवरी, 1985 को जम्मू-कश्मीर के कटरा में हुआ था। वह लचीलेपन की ताकत का एक अन्य उदाहरण हैं। साल 2010 में एक दु:खद दुर्घटना में राकेश कमर से नीचे के हिस्से में लकवाग्रस्त हो गए, जिससे उन्हें व्हीलचेयर पर रहना पड़ा। उसके बाद के कुछ साल उनके लिए निराशा से भरे रहे। मगर  2017 में उस दौरान उनके जीवन में एक नया मोड़ आया, जब उन्हें श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में तीरंदाजी से परिचित कराया गया।

कोच कुलदीप कुमार के मार्गदर्शन में राकेश को तीरंदाजी के प्रति नया जुनून मिला। आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने खुद को इस खेल के लिए समर्पित कर दिया और जल्द ही रैंक में ऊपर उठते हुए भारत के शीर्ष पैरा तीरंदाजों में शामिल हो गए। उनकी उपलब्धियों में 2023 विश्व तीरंदाजी पैरा चैम्पियनशिप में मिश्रित टीम स्पर्धा में स्वर्ण पदक और 2023 एशियाई पैरा खेलों में शानदार प्रदर्शन शामिल है। राकेश का सफर महानता हासिल करने के लिए दुर्गम बाधाओं को पार करने की कहानी है।

पेरिस 2024 पैरालिंपिक

पेरिस 2024 पैरालिंपिक शीतल देवी और राकेश कुमार दोनों के करियर में एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। मिश्रित टीम कंपाउंड ओपन तीरंदाजी स्पर्धा में भाग लेते हुए इन दोनों को दुनिया के कुछ सर्वश्रेष्ठ पैरा तीरंदाजों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। पोडियम तक का उनका सफर धैर्य, दृढ़ संकल्प और लगातार उत्कृष्टता से ओतप्रोत था।

शीतल और राकेश ने इटली के एलेनोरा सार्टी और माटेओ बोनासिना के खिलाफ कांटे की टक्कर में कांस्य पदक हासिल किया। भारतीय तीरंदाजों ने दबाव के बावजूद काफी संयम दिखाया, अंतिम सेट में चार परफेक्ट 10 लगाए और पीछे से आकर पदक झटक लिया। उनके प्रदर्शन ने न केवल पोडियम पर जगह पक्की की, बल्कि 156 अंकों के पैरालिंपिक रिकॉर्ड की बराबरी भी की। यह उनके कौशल और एकाग्रता का प्रमाण है।

सरकारी सहायता: सफलता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ

पेरिस 2024 पैरालिंपिक में शीतल देवी और राकेश कुमार की सफलता भारत सरकार द्वारा प्रदान किए गए व्यापक समर्थन के बिना संभव नहीं होती। दोनों एथलीटों को टारगेट ओलंपिक पोडियम स्कीम (टीओपीएस) के तहत वित्तीय सहायता मिली। इसमें प्रशिक्षण पर होने वाला खर्च, उपकरणों की खरीद और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं के लिए यात्रा शामिल थी। शीतल को थाईलैंड, यूएई, चेक गणराज्य, चीन और फ्रांस में प्रशिक्षण के लिए विदेश जाने के छह अवसर मिले, जबकि राकेश को विशेष उपकरण एवं व्हीलचेयर जैसी सुविधाओं के साथ मदद मिली। एसएआई सोनीपत में राष्ट्रीय कोचिंग शिविर में इन दोनों एथलीटों ने प्रशिक्षण लिया और उसने उनके कौशल को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रेरणा की विरासत

शीतल देवी और राकेश कुमार द्वारा पेरिस 2024 पैरालिंपिक में कांस्य पदक जीतना न केवल भारत के लिए एक जीत है, बल्कि यह उम्मीद एवं दृढ़ता का एक ताकतवर संदेश भी है। महज 17 वर्ष की उम्र में शीतल भारत की सबसे कम उम्र की पैरालिंपिक पदक विजेता बन गईं, जबकि 39 वर्षीय राकेश ने अपनी उपलब्धियों की प्रभावशाली सूची में पैरालिंपिक पदक भी जोड़ लिया। उनकी कहानियां खेल की दुनिया से परे हैं, जो विपरीत परिस्थितियों का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेरणा के रूप में काम करती हैं। उनकी विरासत एथलीटों की पीढ़ियों को बड़े सपने देखने और हरसंभव उसकी सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करती रहेगी।

वैज्ञानिकों ने शास्त्रीय और क्वांटम गुरुत्व को जोड़ने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है

शोधकर्ताओं ने गुरुत्वाकर्षण और क्वांटम यांत्रिकी के शास्त्रीय सिद्धांत को एकीकृत करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए अपनी गणना के माध्यम से गुरुत्वाणु – गुरुत्वाकर्षण की काल्पनिक मात्रा और गुरुत्वाकर्षण संपर्क के बल की मध्यस्थता करने वाले प्राथमिक कण- के शोर से प्रेरित अनिश्चितता का संबंध पाया। जबकि शास्त्रीय भौतिकी नियमों और समीकरणों का एक समूह है जो बताता है कि सामान्य वस्तुएं कैसे व्यवहार करती हैं और क्वांटम भौतिकी परमाणुओं और छोटी वस्तुओं की दुनिया का वर्णन करती है।

एस.एन. बोस नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंसेज में खगोल भौतिकी (आईआईए) और उच्च ऊर्जा भौतिकी विभाग के श्री सोहम सेन और प्रो. सुनंदन गंगोपाध्याय स्थलीय प्रणालियों में क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के संकेत खोजने में लगे हुए हैं, जो गुरुत्वाकर्षण के पूर्ण क्वांटम सिद्धांत की बेहतर समझ विकसित करेगा। यह वो मौलिक समस्या है जो अल्बर्ट आइंस्टीन के समय से अनसुलझी है।

क्वांटम गुरुत्व (क्यूजी) सैद्धांतिक भौतिकी का एक क्षेत्र है जो क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धांतों के अनुसार गुरुत्वाकर्षण का वर्णन करता है। यह ऐसे वातावरण से संबंधित है जिसमें न तो गुरुत्वाकर्षण और न ही क्वांटम प्रभावों को नजरअंदाज किया जा सकता है, जैसे कि ब्लैक होल या न्यूट्रॉन सितारों जैसी कॉम्पैक्ट खगोलीय वस्तुएं।

यह पहले दिखाया गया है कि जब गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को क्वांटम यांत्रिक रूप से व्यवहार किया जाता है, तो यह एलआईजीओ के इंटरफेरोमीटर जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंग डिटेक्टरों की भुजाओं की लंबाई में उतार-चढ़ाव या शोर उत्पन्न करता है।

इस शोर की विशेषताएं गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की क्वांटम स्थिति पर निर्भर करती हैं। इस मौलिक शोर का पता लगाना गुरुत्वाकर्षण के परिमाणीकरण और गुरुत्वाकर्षण और क्वांटम सिद्धांत के बीच की कड़ी गुरुत्वाणु के अस्तित्व के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण होगा।

इस तरह के कार्यों को आगे बढ़ाते हुए, प्रोफेसर गंगोपाध्याय और श्री सोहम सेन ने क्वांटम गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से गिरने वाले पिंडों के भाग्य की जांच की है। उनकी गणना से गुरुत्वाकर्षण के शोर से प्रेरित स्थिति और गति चर के बीच एक अनिश्चितता संबंध प्राप्त हुआ है।

अनिश्चितता का संबंध एक सच्चे क्वांटम गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को इंगित करता है और गणना स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि परिमाणित गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के साथ कण की स्वतंत्रता की डिग्री का सही युग्मन है।

प्रोफेसर सुनंदन गंगोपाध्याय ने कहा, “सामान्यीकृत अनिश्चितता सिद्धांत की हमारी व्युत्पत्ति इस अर्थ में मजबूत है कि परिणाम गुरुत्वाकर्षण की क्वांटम प्रकृति को ध्यान में रखकर प्राप्त किया गया था।”

जब अपोलो 11 के यात्री चन्द्रमा से धरती पर आकर रहे एल्युमीनियम कोच में!

अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्रियों ने पृथ्वी पर उतरने के बाद 14 दिन एक एल्युमीनियम कोच बिताए। कारण था चंदमा से आए किसी भी संक्रमण से बचाव के लिए अलगाव का।

पांच जुलाई 1969 को चंद्रमा के लिए अपनी उड़ान से ठीक पहले, अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और माइकल कोलिंस, अपनी प्रेस कॉंफ्रेस में खुद को संवाददाताओं से अलग-थलग रखने के लिए एक बॉक्स जैसी संरचना में बैठे। यह संरचना अंतरिक्ष यात्रियों को प्रीफ्लाइट अवधि में किसी भी तरह की संक्रामक बीमारी के संपर्क से बचाने के एक विस्तृत डिजाइन का हिस्सा थी।

चंद्रमा पर पहला मानव मिशन भेजने की तैयारी में जुटे वैज्ञानिक इस बात को लेकर संशय में थे कि चंद्रमा की सतह पर जीवन मौजूद है या नहीं दरअसल, वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे क्योंकि पिछले अपोलो मिशन के चालक दल ने सांस और त्वचा संक्रमण जैसी छोटी-मोटी बीमारियों की शिकायत की थी जिसकी वजह शायद एक्सपोज़र हो सकता था या नहीं भी। और इस तरह से लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई जिसमें चंद्रमा के नमूनों के संपर्क में आए उन तीन अंतरिक्ष यात्रियों, क्रू और वैज्ञानिकों को लंबे और सख्त क्वारेंटीन में रखा जाना था। यह क्वारेंटीन इतना सख्त था कि राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी प्रीफ्लाइट अवधि में अंतरिक्ष यात्रियों की मेजबानी करने से मना कर दिया गया था।

लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट में यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत-से तरीके, उपकरण और सुविधाएं शामिल थीं कि अपोलो अंतरिक्ष यात्रियों, चालक दल और वैज्ञानिकों को जहरीले रसायनों और अज्ञात बायोलॉजिकल जीवों के संपर्क से बचाया सके, भले ही इसके आसार बहुत कम रहे हों।

पहली और सबसे खास बात चंद्रमा के नमूनों को संभालने के लिए जरूरी उपकरण और संसाधन थे। ह्यूस्टन, टेक्सास स्थित मानव अंतरिक्ष यान केंद्र को अब जॉनसन स्पेस सेंटर के रूप में जाना जाता है और यह लूनर रिसीविंग लैब में चंद्रमा से नमूनों को प्राप्त करने का सुविधा केंद्र बन चुका है। इस लैब में क्रू रिसेप्शन क्षेत्र, सैंपल ऑपरेशंस एरिया और प्रशासन और सहायता क्षेत्र शामिल थे। अपोलो 11 अंतरिक्ष यात्रियों, उनके सहायक कर्मचारी और वास्तविक अपोलो कमांड मॉड्यूल को इसी स्वागत क्षेत्र में क्वारेंटीन की समयावधि में सबसे अलग रखा गया था।

अपोलो के अंतरिक्ष यात्री 24 जुलाई 1969 को प्रशांत महासागर में भेजे गए और उन्हें तुरंत ही क्वारेंटीन कर दिया गया। उन्हें राफ्ट और फ्लोटेशन गेयर की मदद से निकाला गया जिन्हें कीटाणुरहित करने के लिए समुद्र में डुबोया गया था। क्रू को हेलीकॉप्टर से उठाया गया था। क्वारेंटीन को सफल बनाने के लिए जरूरी था कि प्रशांत क्षेत्र में कमांड मॉड्यूल से ह्यूस्टन में लूनर रिसीविंग लैब तक पहुंचने के दौरान उन्हें अलग-थलग रखा जाए। इस तरह से एक मोबाइल क्वारेंटीन सुविधा को डिजाइन किया गया।

अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्री क्वारेंटीन सुविधा में उपलब्ध इंटरकॉम के माध्यम से राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से बात करते हुए (दाएं)।  (फोटोग्राफ: साभार नासा)

क्रू के सदस्य हेलीकॉप्टर से सीधे यूएसएस हॉर्नेट पर बने क्वारेंटीन सुविधा केंद्र पर उतरे। यह क्वारेंटीन सुविधा पूरी तरह से एक एल्मुनियम ट्रैवल ट्रेलर था जिसे अलग-थलग रहने की इकाई के रूप में संशोधित किया गया था। यह संरचना एयरटाइट थी जिसे आसानी से सडक़ से ले जाया जा सकता था और इसमें पर्यावरण नियंत्रण प्रणाली को बिजली उपलब्ध कराने के लिए डीजल जनरेटर और बैटरी लगाई गई थी। इससे 27 जुलाई को वायु मार्ग से ह्यूस्टन पहुंचाया गया और फिर इसे लूनर रिसीविंग लैब के क्रू रिसेप्शन एरिया में रखा गया।

क्वारेंटीन सुविधा की रसोई में ट्रेलर के अंदर और बाहर वस्तुओं को लाने ले जाने के लिए परिशोधन यानी डीकंटेमिनेशन लॉक मौजूद था। कमांड मॉड्यूल से कंटेनर, चंद्रमा के नमूने, फिल्म और दूसरे उपकरण ह्यूस्टन के लिए भेजे गए थे। क्वारेंटीन योजना में अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा लाए गए करीब 21.55 किलोग्राम चंद्रमा के नमूने को चंद्रमा की दूसरी सामग्रियों और पृथ्वी के जीवों और सामग्रियों से संदूषित होने के खतरे से बचाने के लिए उसे पूरी तरह से अलग-थलग रखने की जरूरत थी।

अपोलो 11 मिशन 16 से 24 जुलाई यानी आठ दिनों तक चला। अंतरिक्ष यात्रियों को 10 अगस्त को उनके क्वारेंटीन अवधि से मुक्त कर दिया गया। इस दौरान, आर्मस्ट्रॉंग ने पांच अगस्त को क्वारेंटीन में रहते हुए अपना जन्मदिन मनाया।

लूनर क्वारेंटीन प्रोग्राम अपोलो 11 मिशन के साथ शुरू हुआ। इसके बाद के चंद्र मिशनों में न केवल लैंडिंग के बाद बल्कि प्री-लॉंच क्वारेंटीन की व्यवस्था भी की गई जिसे हेल्थ स्टेबलाइजेंशन प्रोग्राम के रूप में जाना गया। इस तरह का पहला प्रोग्राम अपोलो 14 मिशन के साथ लागू किया गया।

समकालीन हेल्थ स्टेबलाइजेशन प्रोग्राम के तहत क्रू के सदस्य और उनके निकट संपर्कों को क्वारेंटीन से गुजरना होता है और रोगजनकों से बचने के लिए लॉंच से पहले उन्हें टीका लगवाना होता है। यह सभी अंतरिक्ष उड़ान मिशनों के लिए अनिवार्य है। उदाहरण के लिए इंटरनेश्नल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) के चालक दल को 14 दिवसीय प्रीफ्लाइट प्रोग्राम से गुजरना होता है जिसमें क्वारेंटीन और टीकाकरण के अलावा गैर चालक दल के सदस्यों के साथ सीमित और नियंत्रित संपर्क शामिल होता है।

अब जबकि मंगल ग्रह की खोज एक प्रमुख लक्ष्य है ऐसे में नासा की ग्रह सुरक्षा नीतियां इस तरह से तैयार की गई हैं जिससे कि जिम्मेदारी के साथ सौर मंडल में आगे की खोज को प्रोत्साहित किया जा सके, साथ ही पृथ्वी और दूसरे अंतरिक्ष निकायों को किसी भी तरह के क्रॉस कटेंमिनेशन से बचाया जा सके। इसके अतिरिक्त, 1958 में गठित एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय, अंतरिक्ष अनुसंधान समिति बाहरी अंतरिक्ष में मानव मिशनों और वैज्ञनिक अनुसंधान के दूसरे क्षेत्रों से संबंधित प्रक्रियाओं के बारे में एक गाइडलाइन प्रस्तुत करती है। समिति के सिद्धांत और गाइडलाइंस, मंगल पर प्रारंभिक मानव मिशनों के बारे में पूर्व स्थापित नजरिए को ही संस्तुत करते हैं जो “मंगल के पर्यावरण और वहां संभावित जीवन के बारे में कम जानकारी के अलावा वहां के माहौल में मानव सहायता प्रणालियों के कामकाज के अनुरूप” निर्धारित की गई हैं। अपोलो 11 मिशन के दौरान प्रक्रियाओं में बरती गई सावधानी और अनुभवों ने भविष्य के मानव मिशनों के लिए दिशानिर्देशों की नींव तैयार की है।

राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 24 जुलाई 1969 को, अंततोगत्वा मध्य प्रशांत के रिकवरी एरिया में यूएसएस हॉर्नेट पर सवार होकर अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्रियों का स्वागत किया। अपोलो 14 के बाद लूनर क्वारेंटीन प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया क्योंकि वैज्ञानिक निष्कर्षों में चंद्रमा से मिले नमूनों में किसी भी तरह की जैविक गतिविधि के सबूत नहीं पाए गए थे और न ही चंद्रमा से लाई गई सामग्री को मानव जीवन या मानव जीवन जैसी दूसरी स्थितियों के लिए नुकसानदेह पाया गया था। अपोलो 15, 16 और 17 के चालक दल के सदस्य इस अनुभव से वंचित रह गए।

(चित्र में –अपोलो 11 के अंतरिक्ष यात्री क्वारेंटीन सुविधा में उपलब्ध इंटरकॉम के माध्यम से राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से बात करते हुए (दाएं)।  (फोटोग्राफ: साभार नासा)
साभार-  https://spanmag.com/hi से