Monday, November 25, 2024
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तंगलान : उपनिवेशवाद का सच खोदती एक फिल्म

चियान विक्रम दक्षिण भारत के ऐसे अभिनेता है जिन्हे हमेशा लीक से हटकर काम करने के लिए जाना जाता है। इस समय उनकी तमिल भाषा में बनी फिल्म ‘तंगलान’ बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही है। तमिल में मिल रही सफलता को देखते हुए फिल्म को अब  30 अगस्त को हिंदी  में भी रिलीज़ किया जाएगा।

पारंपरिक लिखित इतिहास के हाशिए पर रहे समूहों को केंद्र में रखकर बनाई गई पा. रंजीत की नई फिल्म ‘तंगलान’ भारत के अतीत और उसके ज़रिए उसके वर्तमान को समझने के नए रास्ते प्रदान करती है। इसका प्रभाव केवल सिनेमा हॉल तक सीमित नहीं रहने वाला है, बता रहे हैं शिवरामकृष्णन एस.

एक ऐसा देश, जिसमें सिनेमा चिकनी और चमकदार फंतासी परोसता आया है, में पा. रंजीत की ‘तंगलान’ का एकदम खुरदुरा और विशुद्ध यथार्थ हमें चौंका देता है। ऐसा लगता है कि पा. रंजीत ने हाथों में कैमरा और दिमाग में किसी तरह का समझौता न करने के दृढ़ निश्चय से लैस होकर भारत के अतीत में गोता लगाया और उसकी गहराईयों से एक चमकदार कहानी ढूंढ़ लाए हैं। मगर यह कहानी इसलिए चमकदार नहीं है, क्योंकि वह अतीत को रूमानी चश्मे से नहीं देखती है, बल्कि सच्चाई की चमक उसे चमकदार बनाती है।

फिल्म की पृष्ठभूमि में है– कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स (केजीएफ)। इसकी शुरुआत किसी धमाकेदार सीक्वेंस से नहीं, बल्कि एक निःशब्द ललकार से होती है। तंगलान एक पात्र का नाम है, जो एक अछूत है, और सब कुछ उसके खिलाफ होते हुए भी, वह ज़मीन के एक छोटे-से टुकड़े का मालिक बना हुआ है। इस ज़मीन की कीमत कुछ भी नहीं है। मगर एक ऐसी दुनिया में, जिसमें उसका जिंदा बना रहना ही सामाजिक व्यवस्था पर आक्षेप हो, ज़मीन का वह छोटा-सा टुकड़ा तंगलान की आज़ादी का क्रांतिकारी उद्घोष बन जाता है।

मगर इस आज़ादी की उम्र ज्यादा नहीं है। स्थानीय जमींदार, जिसे मिरासीदार कहा जाता है और जो दमितों के श्रम पर जीता है, उसे यह छोटी-सी चुनौती भी चुभती है। वह कई कुटिल चालें चलता है और अंततः तंगलान से ज़मीन का वह टुकड़ा छीनने में सफल हो जाता है। तंगलान और उसके परिवार के सात सदस्य पन्नैयल प्रणाली का हिस्सा बनने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। पन्नैयल, बंधुआ मजदूरी की एक प्रथा है, जो सिर्फ नाम में ही गुलामी से भिन्न है।

दिल को द्रवित करने वाली इस शुरुआत के साथ यह फिल्म हमें आगे के जटिल नॅरेटिव की ओर ले जाती है। रंजीत, जो जातिगत दमन की कटु सच्चाईयों को दिखाने से कभी पीछे नहीं हटते, इस व्यक्तिगत त्रासदी का उपयोग हमारे इतिहास के एक व्यापक सत्य को उद्घाटित करने के लिए करते हैं – और वह सत्य यह है कि करोड़ों भारतीयों, जिन्हें ‘अछूत’ मानागया, को योजनाबद्ध ढंग से गरिमा, संसाधनों और आज़ादी से वंचित रखा गया।

रंजीत केवल दमन को परदे पर दिखाने तक सीमित नहीं रहते। वे इतिहास की उन जटिल परतों को उघाड़ते हैं, जिन्हें अधिकांश लोग ढंके ही रहने देना चाहेंगे। तंगलान के गांव में लार्ड क्लेमेंट नाम का एक ब्रिटिश अधिकारी पहुंचता है और लोगों से सोने की खोज के अपने अभियान में मदद मांगता है। यह तंगलान के जीवन का एक निर्णायक मोड़ तो साबित होता ही है, यह औपनिवेशिक भारत की हमारी समझ को भी एक नया परिप्रेक्ष्य देता है। उसके परिवार की अनिच्छा के बावजूद, तंगलान अंग्रेजों के साथ जुड़ने के लिए तैयार हो जाता है, क्योंकि मिरासीदार का गुलाम बने रहना उसे मंज़ूर नहीं है। आज़ादी और एक बेहतर भविष्य की उम्मीद में वह सोना खोजने के अभियान से जुड़ जाता है। तंगलान के जीवन में यह परिवर्तन, ब्रिटिश उपनिवेशवाद और दलित इतिहास, दोनों के पारंपरिक निरूपण को चुनौती देता है।

फिल्म के सबसे प्रभावी दृश्यों में से एक में तंगलान जब अपने गांव लौटता है, तो वह पूरी तरह बदला हुआ होता है। वह अंग्रजों की तरह की पोशाक पहने, घोड़े का सवार होता है और उसके बगल में एक बंदूक होती है। उसका यह स्वरुप दर्शकों को चकित कर देता है और हमें विचार करने के लिए एक मुद्दा भी देता है। क्या होता यदि अछूतों (आज के अनुसूचित जाति) और शूद्रों (आज के ओबीसी), जिन्हें मनु की संहिता के कारण कभी हथियारों तक पहुंच नहीं मिली, को हथियार और सत्ता के प्रतीक हासिल हो जाते? अंग्रेजों को इन प्राचीन निषेधों से कोई मतलब नहीं था और इसलिए उन्होंने तंगलान को सत्ता और शक्ति के इन सभी प्रतीकों को अपनाने दिया, जो पारंपरिक रूप से उसे हासिल नहीं हो सकते थे। तंगलान का बदला हुआ स्वरूप, हाशियाकृत समुदायों पर लंबे समय तक लगाए गए प्रतिबंधों को चुनौती देता है और हमें औपनिवेशिक काल में उनके सशक्तिकरण के निहितार्थों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है।

रंजीत की किस्सागोई की सफलता यही है कि वह एक ऐतिहासिक सच को उघाड़ती है, जिस पर कभी-कभार ही चर्चा होती है और वह सच यह है कि अंग्रेजों ने अछूतों को बंदूकें दीं और अछूतों ने भारत में अंग्रेजों के राज की स्थापना और उसे बनाए रखने में महती भूमिका निभायी।

यद्यपि रंजीत की फिल्म इस मसले को नहीं छूती, मगर इस संदर्भ में क्या हम भीमा-कोरेगांव युद्ध को भूल सकते हैं, जिसमें महार (दलित) सिपाहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ते हुए ब्राह्मण पेशवा को हराया था और क्या हम 1857 के विद्रोह, जिसे ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ भी कहा जाता है, को कुचलने में परिया और महार रेजिमेंटों की भूमिका को भुला सकते हैं? रंजीत ऐतिहासिक जटिलताओं से दूर नहीं भागते और अपने दर्शकों को सत्ता और प्रतिरोध की पेचीदा प्रकृति पर विचार करने का आह्वान करते हैं।

ये ऐतिहासिक संदर्भ दो उद्देश्यों को पूर्ण करते हैं। वे भारतीय इतिहास के उस हिस्से को प्रकाशित करते हैं, जिसे मुख्यधारा के आख्यानों में अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है और दूसरे, वे ब्रिटिश उपनिवेशवाद और दलित इतिहास की हमारी समझ को समृद्ध और परिष्कृत करते हैं। रंजीत के कथानक में ब्रिटिश न तो खलनायक हैं और न ही मुक्तिदाता। वे तो केवल अवसरवादी हैं, जिन्होंने देश पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया में अनजाने में सख्त जातिगत पदक्रम में दरारें डाल दीं।

इस सूक्ष्म भेद को एक अहम दृश्य रेखांकित करता है, जिसमें लार्ड क्लेमेंट दलित श्रमिकों को संबोधित कर रहा है। जब वह अवसर और उचित पारिश्रमिक की बात करता है तो दुभाषिया, जो कि एक ऊंची जाति का है, उसके शब्दों का जान-बूझकर गलत अनुवाद करता है। यह दृश्य औपनिवेशिक भारत में दमन की बहुस्तरीय प्रकृति को स्पष्ट करता है और यह भी बताता है कि दलित किस जटिल परिस्थिति में फंसे हुए थे – एक तरफ थी शोषक मगर कुछ हद तक योग्यता को सम्मान देने वाली ब्रिटिश प्रणाली तो दूसरी ओर थीं पारंपरिक जातिगत पदक्रम की जंजीरें।

जैसे-जैसे तंगलान के जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती है, वह व्यक्तिगत मुक्ति की तलाश की यात्रा एक और गहरी तलाश बन जाती है – अपनी पहचान की तलाश। सोने की तलाश में खुदाई एक रूपक बन जाती है खुद के इतिहास और विरासत को खोद निकालने के जद्दोजहद की। यही वह हिस्सा है, जहां रंजीत की कहानी सुनाने की कला अपने चरम पर पहुंचती है और वे सोने की व्यक्तिगत खोज को संस्कृति की खोज की व्यापक थीम से जोड़ पाते हैं।

‘तंगलान’ की प्रतीकात्मकता समृद्ध और बहुआयामी है। सिर कटी हुई बुद्ध की मूर्ति, भारत में बौद्ध धर्म के दमन का रूपक है। यह रूपक तब एक एकदम नया अर्थ ले लेता है, जब तंगलान का लड़का, जिसका नाम महान बौद्ध सम्राट अशोक के नाम पर अशोकन रखा गया है, मूर्ति का सिर फिर से उसमें जोड़ देता है। यह कार्य न केवल बौद्ध धर्म की उसके जन्मभूमि में पुनःप्रवर्तन की संभावना का प्रतीक है वरन् वह उस दार्शनिक परंपरा के पुनरुत्थान का भी प्रतीक है, जिसने एक समय भारत की जाति-व्यवस्था के आधार को चुनौती दी थी।

सोने के खदानों की रक्षा करता काला तेंदुआ एक अन्य प्रभावी प्रतीक है, जो आधुनिक प्रतिरोध आंदोलनों, विशेषकर ब्लैक पैंथर पार्टी, की याद दिलाता है। रंजीत द्वारा इस बिंब का इस्तेमाल, भारत के दलितों के संघर्ष को अत्यंत परिष्कृत ढंग से नस्लीय न्याय के वैश्विक आंदोलनों से तो जोड़ता ही है, साथ ही महाराष्ट्र और तमिलनाडु में ‘दलित पैंथर’ (तमिलनाडु में अब विदुथलाई चिरुथिगल काची – वीसीके – कहा जाता है) से भी जोड़ता है, जिन्होंने तेंदुआ को अपने प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में चुना। यह जुड़ाव बताता है कि दमन के खिलाफ संघर्ष एक सार्वभौमिक परिघटना है और विभिन्न संदर्भों में संघर्षों की साझा प्रकृति को रेखांकित करता है।

सबसे दिलचस्प यह है कि ‘तंगलान’, भारत के हाशियाकृत समुदायों की साझा विरासत की परिकल्पना की भी पड़ताल करती है। जब तंगलान को अपनी नागवंशी पहचान का पता चलता है तब फिल्म बहुजन विचारधारा के राजनीतिक दर्शन के इस विचार को भी छूती दिखती है, जिसके अनुसार अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों की साझी वंशावली है। पहचान की यह पड़ताल आज के भारत में अत्यंत प्रासंगिक है, जहां ऐतिहासिक आख्यानों और कौन किसका वंशज है, से संबंधित विवाद और बहस, और गंभीर और कटु होते जा रहे हैं।

जो बात ‘तंगलान’ को अन्य फिल्मों से अलग करती है, वह यह है कि यह बौद्धिक ऊर्जा और सिनेमाई मनोरंजन दोनों का स्त्रोत है। जो लोग रोमांच-प्रेमी हैं, उनके लिए कई शानदार एक्शन सीन हैं और जो इतिहास में रूचि रखते हैं, उनके लिए चर्चा और विवेचना के कई बिंदु हैं। फिल्म के मुख्य पात्र की अदाकारी, तंगलान की जीवन यात्रा को गहराई देती है और एक दमित मजदूर से अपनी विरासत पर दावा करने वाले एक व्यक्ति के रूप में उसका रूपांतरण प्रभावी और बहुत हद तक व्यक्तिगत, दोनों लगता है।

सहायक कलाकारों का प्रदर्शन भी किसी मायने में कम नहीं है, विशेषकर अंग्रेज़ पात्रों के रूप में। विदेशी पात्रों को कार्टून-नुमा दिखाने के जाल में रंजीत नहीं फंसते। इन पात्रों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो सब कुछ जानते-समझते हैं, मगर औपनिवेशिक मशीनरी में फंसे हुए हैं। वे फिल्म के जटिल नॅरेटिव को और स्पष्ट बनाने में अपना योगदान देते हैं। यही बात ऊंची जातियों के भारतीय पात्रों के बारे में भी सही है। वे एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो बदल रहा है, जिसके सत्ता समीकरण बदल रहे हैं और जिसका पारंपरिक पदानुक्रम कमज़ोर हो रहा है।

भारतीय फिल्म उद्योग से सतत यह अपेक्षा की जा रही है कि वह अधिक विविधतापूर्ण और विचारशील फिल्में बनाए। ‘तंगलान’ इस संदर्भ में एक नई शुरुआत हो सकती है। यह एक बड़े बजट की फिल्म है जो असहज करने वाली सच्चाईयों से परहेज नहीं करती। यह एक ऐतिहासिक फिल्म है, जो हमारे आज के लिए बहुत प्रासंगिक है। पारंपरिक रूप से लिखित इतिहास के हाशिये पर रहे समूहों को केंद्र में रख कर बनाई गई यह फिल्म भारत के अतीत और उसके ज़रिये उसके वर्तमान को समझने के नए रास्ते प्रदान करती है।

‘तंगलान’ का प्रभाव केवल सिनेमा हॉल तक सीमित नहीं रहने वाला है। हो सकता है कि इस फिल्म से प्रेरित होकर इतिहासविद औपनिवेशिक काल में दलितों की भूमिका का नए सिरे से अध्ययन करें। यह भी हो सकता है कि सामाजिक कार्यकर्ता, इस फिल्म से प्रभावित होकर जातिगत भेदभाव पर चर्चा करें। यह फिल्म, भारतीय सिनेमा जगत में देश के इतिहास और सामाजिक ढांचे के बारे में अप्रिय सच्चाईयों को उद्घाटित करने के नए सिलसिले का हिस्सा है।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ‘तंगलान’ हमें यह याद दिलाती है कि सिनेमा हमें हमारे इतिहास की जटिलताओं को समझने में मदद कर सकता है, वह हमारी स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे सकता है और मूक बना दिए गए लोगों को आवाज़ दे सकता है। एक ऐसे समय में जब लोक आख्यानों पर एकांगी और साधारणीकृत नॅरेटिव हावी हैं, रंजीत की यह फिल्म बारीकियों और जटिलताओं के महत्व को रेखांकित करती है।

‘तंगलान’ के अंत में दर्शकों के पास उत्तर कम होते हैं और प्रश्न ज्यादा। और यह शायद इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। वह हमारे समक्ष हमारे अतीत, हमारी पहचान और हमारे भविष्य के बारे में कई प्रश्न उपस्थित करती है। हो सकता है कि कुछ दर्शक इस फिल्म को देखकर एक नई समझ से लैस हो जाएं और कुछ अन्य फिल्म के संदेश को समझने की तलाश में लग जाएं। मगर एक बात तो तय है कि पा. रंजीत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वे उस जमीन को जोतने को तैयार हैं, जिसमें दूसरे पैर रखने से भी डरते हैं।

‘तंगलान’ केवल इतिहास का पुनर्लेखन नहीं करती है, वरन् वह बताती है कि भारतीय सिनेमा क्या कर सकता है, कैसा हो सकता है। यह फिल्म इतिहास भी है, रोमांच भी है और नए प्रश्न पैदा करने वाली भी है। एक ऐसे समय में, जिसमें हमें संतुष्ट और प्रसन्न रखने वाले मिथकों का बोलबाला है, रंजीत हमें यह मौका देते हैं कि हम अपने साझा अतीत के जटिल और दुखद सत्यों का साक्षात्कार कर सकें। और अगर ऐसा होता है तो यह कोलार के सोने के पूरे खजाने से ज्यादा कीमती उपलब्धि होगी।

(लेखक के बारे में  – शिवरामकृष्णन एस. पेशे से बैंककर्मी हैं और सामाजिक बदलाव के लिए सामाजिक आंदोलनों के प्रति निष्ठा रखते हैं। इसके अलावा उनकी रूचि इस शोध में है कि सिनेमा जाति के विमर्श के प्रति किस तरह का रूख रखता है। )
 
साभार- https://www.forwardpress.in/ से 

एक ऐतिहासिक मुकदमा युवराज के मुंडन का

सीमा-विवाद तो उन दिनों भी चलते थे, जब भारत पर अंग्रेज़ों का पूर्ण प्रभुत्व और शासन था.

बंबई के उच्च न्यायालय में एक महत्त्वपूर्ण मामला विचारधीन था, जिसमें एक छोटे और एक बड़े रजवाड़े का सीमा-विवाद था. न तो बड़े को छोटे रजवाड़े के लघु आकार आदि पर कोई दया आयी, और न छोटे रजवाड़े ने ही अपने लघु आकार आदि के कारण अपने मान-सम्मान को कभी कम समझा. इसलिए मामला घिसटता रहा और अकिंचन छोटा राज्य कानूनी और अन्य व्ययों पर होने वाले खर्चों के निमित्त धीरे-धीरे अपनी धन-संपत्ति को पानी की तरह बहाता रहा.

वहां की जनता भी उतनी राजनिष्ठ पहले कभी न थी, जितनी इस विवाद के समय हो गयी. लोग अपने राज्य की सीमा का एक इंच भाग भी बड़े राज्य द्वारा हड़पा जाना सहन करने को तैयार नहीं थे. अतः उन्होंने करों की भरपूर अदायगी की. एक वर्ष के कर तो प्रायः सभी ने अग्रिम रूप में भुगता दिये. और जब कर-अधिकारी उनकी देशभक्ति की भावना को उकसाते, तो कई लोग दो वर्षों की कर-राशि भी अग्रिम देने को तैयार हो जाते थे. इसी प्रकार गांजा, भांग, मद्य आदि वस्तुओं की आबकारी भी अग्रिम रूप में दे दी जाती थी. राज्य-कर्मचारी जनता से जो भी राशि जमा कर सकते थे, कर चुके थे, और प्रशंसनीय बात यह थी कि यह सभी कार्य बिना किसी हील-हुज्जत, शिकवा-शिकायत के ही हुआ था.

मगर इस प्रकार जुटायी गयी सारी धन-राशि भी खर्च हो चुकी थी और उस छोटे राज्य का राजकोष लगभग रीता हो चुका था. बस कुछ ही हजार रुपये उसमें शेष रह गये थे. किंतु वह निर्णायक दिन आ पहुंचा था, जिस दिन सीमा-विवाद की अंतिम सुनवाई होनी थी.

यह कैसे हो सकता था कि छोटे राज्य का नरेश उस सुनवाई में अनुपस्थित रहे और अपना सलाहकार वकील भी न भेजे! किंतु इसके लिए तो लगभग बीस हजार रुपयों की आवश्यकता थी. नरेश इस बात से अत्यंत चिंतित था. उसने अपने दीवान को बुलाया. परस्पर बातचीत से राज्य के खजाने की वास्तविक स्थिति का दोनों को पूरा-पूरा ज्ञान हो गया. अब और अधिक धन उगाहा नहीं जा सकता था. प्रजा जितना भी दे सकती थी, दे चुकी थी, अब उस पर और अधिक कर लगाने का अर्थ उसे स्पष्ट करना ही था.

दीवानजी ने तो बिलकुल अविवेकियों की-सी राय दी. रानी साहिबा के आभूषण गिरवी धन उधार ले लिया जाये, तो कैसा रहे? किंतु कोई नरेश उधार लेने की बात कैसे सोच सकता था?

‘क्या इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए जनता से बीस हजार रुपये उगाहे नहीं जा सकते?’

‘नहीं, यह तो नहीं हो सकेगा हुजूर.’

‘तो जाइये, राजपुरोहित को ले आइये.’

थोड़ी ही देर में राजपुरोहित वहां उपस्थित हुए. नरेश ने उनसे परामर्श किया और अपने राज्य के उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र का चूड़ाकर्म-संस्कार एक शुभ दिन के लिए निर्धारित कर दिया गया. यों भी सात वर्षीय युवराज इस संस्कार के योग्य हो गया था और नरेश ताड़ गया कि अब उपयुक्त समय आ गया है.

सारे प्रबंध चटपट किये गये. सभी लोगों को निमंत्रण-पत्र भेज दिये गये, विशेषतः राजकुमार के मामा को. बड़े उल्लास का अवसर था, सभी प्रसन्न थे. सभी के मन से सीमा-विवाद का मामला ओझल हो गया.

ऐसे अवसरों पर परम्परा के अनुसार नरेश को भेंट प्रस्तुत करने का काम युवराज के मामा को करना होता था. उसने बहुमूल्य वेश-भूषा रजत-पात्र आदि के अतिरिक्त 2,000 रुपये नकद की भेंट स्वयं प्रस्तुत की. जनता ने भी मुक्त हृदय से उपहार दिये. भला ऐसा कौन होगा, जो वर्तमान नरेश के पुत्र और राज्य के उत्तरा-धिकारी युवराज को, मात्र सात वर्ष की आयु में मुंडन के समय देखना न चाहे!

कोषाध्यक्ष दूसरे ही कार्य में व्यस्त था. उसने आकर सूचित किया कि उपहारों व भेंटों का मूल्य रु.21,000 जमा हो चुका है.

नरेश निश्चित तारीख को अपने कानूनी सलाहकार के साथ बंबई रवाना हो गया. सुनवाई उसी दिन पूरी हो गयी और निर्णय उसी के पक्ष में सुनाया गया. नरेश को उसकी भूमि वापस मिल गयी, और उसने अपनी प्रिय प्रजा को रुष्ट नहीं किया था, जिसने अपने भावी शासक के चूड़ाकर्म के लिए 21,000 रु. सहर्ष उपहार-स्वरूप भेंट कर दिये थे. राजपुरोहित ने सचमुच संस्कार के लिए अत्यंत शुभ घड़ी चुनी थी.

लेखक स्वतंत्रता के बाद केंद्रीय मंत्री और पंजाव हरियाणा के राज्यपाल रहे हैं। वे संविधान सबा, लोकसबा व राज्यसभा के भी सदस्य रहे) 
 
(हिंदी मासिक नवनीत डाइजेस्ट के मार्च 1971 के अंक से साभार)

शब्दों से मुस्कान बिखेरने वाले प्रभात गोस्वामी

राजस्थान के बीकानेर शहर में जन्में प्रभात गोस्वामी आज देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं।  देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकारों की वर्तमान पीढ़ी में बीकानेर के बुलाकी शर्मा, वासु आचार्य, कोटा के अतुल चतुर्वेदी के साथ – साथ इनका नाम व्यंग्य लेखकों में सम्मान से लिया जाता है। व्यंग्य लेख के बारे में गोस्वामी बताते हैं,  ” व्यंग्य रचनाएं जहां पाठकों का मनोरंजन कर उन्हें गुदगुदाती  हैं वहीं समाज की वास्तविकताओं और सवालों को भी सामने रखती हैं। ये रचनाएं समाज में व्याप्त सामाजिक पाखंड, भ्रटाचार, रूढ़िवादी पर कटाक्ष कर जीवन–मूल्यों को स्थापित करने में भी अपना योगदान करती हैं। ” बताते है हरिशंकर परसाई पहले व्यंग्य लेखक हुए जिन्होंने इस विधा को साहित्य में दर्जा दिलवाया। आज बड़ी संख्या में लेखक व्यंग्य विधा में लिख रहे हैं।
ॉव्यंग्यकार प्रभात के व्यंग्य लेखन में इनकी भाषा–शैली में खास किस्म के अपनेपन से पाठक को लगता है जैसे लेखक उसके सामने ही बैठ कर बात कर रहा हो। इनके व्यंग्य संग्रह इनके अनुभवों पर आधारित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक,राजनीतिक और आसपास बिखरी अन्य अनेक विसंगतियों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण कर, समस्याओं की गहराई से पड़ताल कर जिम्मेदारी के साथ  विवेक से लिखे गए हैं और सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करना इनका मूल ध्येय है। इनके एक व्यंग्य लेख  की बानगी देखिए………….
” बहुमत की बकरी”
 ” भोलूराम सचमुच बहुत ही भोला है। वर्ना आजकल सब लोग अपने नाम के विपरीत होते जा रहे हैं । एक दिन सुबह-सुबह वह अपनी बकरी के गुम हो जाने की रपट लिखवाने थाने पहुँच गया । ऊँघते हुए कांस्टेबल ने उसे अल सुबह आने के ज़ुर्म में काम पर लगा दिया । टेबल से लेकर बाथरूम तक की सफाई करनी पड़ी । स्टाफ के लिए चाय बनाने के बाद उसे उम्मीद बंधी थी कि अब शायद उसकी एफ़आईआर यानि  प्रथम रिपोर्ट लिख ली जाएगी ! पर, उसे प्रथम रिपोर्ट के लिए दसवें नंबर पर धकिया दिया गया । थानेदार जी के आदेश थे कि पहले नौ रिपोर्ट जो कुछ दिनों से पेंडिंग चल रहीं थी , उनको दर्ज किया जाए । क्योंकि बीती रात ही उन पर ‘पेपर वेट’ रखा गया था ।
 वैसे भी हमारे यहाँ ग़रीब लोगों को इंतजार ही करना पड़ता है । लाइन तोड़ने का अधिकार केवल धनवानों और रसूखदारों के पास ही है । भरी दुपहरी में खाना खाने के बाद कांस्टेबल जी कुछ सुस्ताए । कहीं थाने पर गरीब विरोधी लेबल चस्पा न हो इस डर से बड़े अनमने होकर बकरी की गुमशुदगी का मामला दर्ज किया । भोलू ने बड़ी मासूमियत से पूछा,” जनाब, कल तक तो मिल जाएगी मेरी बकरी ? कांस्टेबल ने बड़ी बेरुखी से ज़वाब दिया,” पागल हो क्या ? ये किसी अधिकारी का कुत्ता या मंत्रीजी की गाय थोड़े ही है जो सारा थाना उसे ढूँढने में लग जाएगा ?  बड़े मामलों में हम इतने चाक-चौबंद रहते हैं कि कोई चीज़ खोने से पहले ही ढूँढ लेते हैं ! अगले हफ्ते आना ।
और, हाँ सुबह-सुबह खाली हाथ मत आना । बोवनी ख़राब होने से हमको पूरे दिन ख़ाली रहना पड़ता है ।”
एक सप्ताह बाद भोलू फिर थाने पहुंचा । पहाड़- सा इंतजार करने के बाद उसने थानेदार से हिम्मत कर पूछा ,”हुज़ूर गए सप्ताह बकरी की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई थी , कुछ पता चला क्या ? थानेदार ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए पूछा,” दुधारू थी या बाखड़ी ? गोलू ने दुखी होते हुए बताया,” हुजूर बाखड़ी थी”। थानेदार,” अबे क्यों समय ख़राब कर रहा है । यहाँ केवल ‘दुधारूओं’ की तलाश ही की जाती है । चल भाग जा , अगले हफ्ते आना ।”
कई-कई हफ्ते बीत जाने के बाद जब भोलू का धैर्य किसी ग़रीब के कच्चे मकान की तरह ढह गया तब वह सीधे एसपी साहब के दरबार में पहुँच गया । ग़रीब की व्यथा सुनकर साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया . … उन्होंने थाने को आदेश दिए । भोलूराम की बकरी की तलाश मंथर गति से ‘मंथरा’, गति-सी शुरू हो गई। रातों-रात सब कुछ बदल गया ! अगले ही दिन तपती दुपहरी में पसीने-पसीने होता हुआ थाने का सिपाही बकरी मिलने का शुभ समाचार देने भोलू के घर गया ।
भोलूराम बड़े उत्साह से थाने पहुंचा । उसने वहां एक मरियल , हांफती हुई कुतिया देखी । जैसे बुरी तरह पिटा हुआ कोई आरोपी किसी बाहरी व्यक्ति के थाने में आने पर उसे जमानातिये होने की उम्मीद भरी नज़रों से देखता है । ठीक वैसे ही कुतिया ने बड़े यकीन से भोलू को देखकर पूंछ हिलाई . और, प्यार से उसके तलुए चाटने लगी । कुछ देर भोलू भाव-विभोर हो गया। भला इतने समर्थ लोगों के बीच में किसी गरीब किसान के तलुए चाटने वाला भी कोई है इस दुनिया में ?
भोलू ने फिर बड़े आश्चर्य से पूछा,” जनाब, कहाँ है मेरी बकरी ?”  थानेदार ने मरियल कुतिया की ओर इशारा करते हुए कहा,”कमाल है ये सामने ही तो बैठी है। कितना निर्लज्ज है तू , इसे नहीं पहचान पाया पर इसने तो तुझे देखते ही पहचान लिया । चल , ले जा इसे और हमारा पिंड छोड़. कल पूरी रात ख़राब कर दी कमबख्त इस बकरी को ढूंढने में.”
 भोलू (आश्चर्य से) ” पर, जनाब ये तो कुतिया है !”  थानेदार,” लो कल्लो बात । अरे मनहूस, ये आदमी की दृष्टि का फर्क होता है । चाँद को देखकर आशिक को महबूबा नज़र आती है , छोटे बच्चों को चंदा मामा और नेताजी को कड़कते नोटों- सा चंदा नज़र आता है , अब तेरी दृष्टि ख़राब है तो अपुन के पास इसका ईलाज नहीं है .।”  तभी पीछे सीखचों में बंद एक आरोपी कराहते हुए भोलू को कहता है,” अबे , तू किस्मतवाला है जो थानेदार जी प्यार से समझा रहे हैं. जब ये अपने हथियार (मोटे डंडे) से समझाते हैं तब अपराध नहीं करने वाले भी अपराध स्वीकार कर लेते हैं , मुझे भी इतनी दूर से ये बकरी नज़र आ रही है.”
थानेदार गोलू से फिर प्यार से बोला कि,” भगवान का आभार प्रकट कर के मेरे सिपाही इसे ढूढ लाए यहाँ करोड़ों के वारे-न्यारे करने वाले गुमशुदा भी ढूँढे नहीं जा रहे हैं !  ये कमबख्त समझता ही नहीं कि भूख और प्यास से बड़े-बड़ों के हुलिए बदल जाते हैं । आज जब इन्सान खुद को ही नहीं पहचान पा रहा तो पशु क्या खाक पहचानेगा ?”
एसपी साहब के आदेश के नीचे दबे थानेदार ने भोलू को पुचकारते हुए कहा,” चल न तेरी न मेरी . थाने में मौजूद सारे लोगों से तस्दीक करवा लेते हैं कि ये बकरी है या कुतिया ?” सारे लोग एकमत ,एक स्वर में कहते हैं,” हुज़ूर ये बकरी ही है.”
थानेदार मूंछों पर ताव दे कर चेहरे पर विजयी भाव लाते हुए,” अब बोल ? बहुमत से फैसला हो गया है । लोकतंत्र में घर से दिल्ली  तक बहुमत का ही सम्मान होता है । राज्यों में भी सारे फैसले बहुमत से ही होते हैं । जिसके पास बहुमत होता है  तो वह जो दिखाता है, देश वही देखता है । जहाँ बहुमत नहीं होता वहां अन्याय और ब्लैकमेलिंग होती है , बहुमत का सम्मान कर और अपनी इस बकरी को ले कर निकल ले पतली गली से. और, हाँ इसे बहुमत की दृष्टि से ही देखना सुखी रहेगा …नहीं तो ?” थानेदार अपने मोटे डंडे पर हाथ फेरता है ।
 भोलूराम,” सरकार आपने मेरी आँखें खोल दी । अनपढ़ और ग़रीब हूँ इसलिए समझ नहीं सका कि देश व्यवस्था से नहीं बहुमत से चलता है । अब तक तो शेखावाटी, मारवाड़ी ,अलवरी नस्लों की बकरी ही देखीं थी । आज बहुमत की बकरी की ये नई नस्ल भी देख ली । ” थानेदार को हाथ जोड़कर वह कुतिया ..नहीं ..नहीं बकरी को लेकर निकल जाता है ।
 इनका यह व्यंग्य लेख आइना है समाज व्यवस्था का। गरीब की कोई सुनवाई नहीं, शिफारिश के बिना काम नहीं, रसूखदारों का बोलबाला और बहुमत का असर। ऐसे की पाठक को गुदगुदा कर समाज की सच्चाई को सामने लाती हैं  इनकी व्यंग्य रचनाएं। साहित्य पर्यटन में आनंद के झूले (साहित्य) और एक क्रिकेटर का प्रेम पत्र (हास्य) इनकी बहुचर्चित रचनाएं हैं।
प्रकाशन :
व्यंग्य लेखन पर आपकी पांच व्यंग्य संग्रह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें  “बहुमत की बकरी”  “चुगली की गुगली”, “ऐसा भी क्या सेल्फियाना”, “पुस्तक मेले में खोई भाषा ” और ‘प्रभात गोस्वामी के चयनित व्यंग्य” शामिल हैं। आपकी की दो पुस्तकें ” लिखने छपने के टोटके” एवं “कानों देखी” प्रकाशनाधीन है।
इनकी व्यंग्य रचनाएं 11 साझा संकलनों के साथ – साथ देश के प्रमुख समाचार पत्रों – पत्रिकाओं अमर उजाला,नई दुनिया ,राजस्थान पत्रिका ,दैनिक नवज्योति , सुबह सवेरे,इंदौर समाचार,व्यंग्य यात्रा,अट्टहास,राजस्थान डायरी ,विजय दर्पण,जनसंदेश टाइम्स,हिमाचल दस्तक,जनवाणी ,दैनिक युगपक्ष, हिमाचल एक्सप्रेस, वेब पत्रिका प्रतिलिपि, रचनाकार, पुष्पांजली सहित  देश-प्रदेश के विभिन्न समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में व्यंग्य रचनाओं का नियमित प्रकाशन होता है। देश के लोकप्रिय न्यूज़ चैनल- आज तक के ,’साहित्य तक’, चैनल में व्यंग्य विडियोज का  प्रसारण । बॉक्स एफएम रेडियो,जयपुर पर हर बुधवार ‘ व्यंग्य के रंग-प्रभात के संग,’ व्यंग्यकारों से साक्षात्कार कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं । पहली व्यंग्य रचना वर्ष 1976 में  ‘मुक्ता’ पत्रिका में प्रकाशित  हुई थी ,तब से आज तक निरंतर व्यंग्य लेख लिखते आ रहे हैं।
 
 कार्टून :
रचनाकार के कार्टून मुंह बोलते हैं। किशोरवय में कार्टून कला से जुड़ाव हो गया। सामाजिक, राजनीतिक,हास्य-व्यंग्य  आदि विषयों पर वर्ष 1972-75 के बीच कई राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में लगभग 88 कार्टून  प्रकाशित हुए हैं। कहते हैं एक समय था जब बीकानेर में घर – घर कार्टून बनते थे बस इनको भी यह शोक लग गया।
लेखन :
व्यंग्य लेखन के साथ – साथ ये साहित्यिक, सामाजिक, कला – संस्कृति, पर्यटन ,खेल और विकासात्मक आदि विषयों पर विगत 40 वर्षों से नियमित लिख रहे हैं। लेखन ,संपादन और प्रकाशन की लंबी श्रृंखला है। दैनिक युगपक्ष ,बीकानेर में ‘ये जो है ज़िन्दगी’, ‘ रिपोर्ताज़, ‘सप्ताह का व्यंग्य’, सांध्य दैनिक न्यूज़ टुडे, जयपुर में टी-20 विश्वकप और एक दिवसीय विश्वकप क्रिकेट के दौरान प्रतिदिन ‘मिडिल स्टंप’, शीर्षक से दैनिक कॉलम के स्थाई स्तंभकार हैं। इन्होंने उरमूल समाचार’,डेयरी की मासिक पत्रिका, ‘आखर उजास’, साक्षरता बुलेटिन, ज़िला दर्शन,चुनावी बुलेटिन,संकल्प से सिद्धि तक पुस्तक, राजस्थान विकास पत्रिका, सहित अनेक राजकीय प्रकाशनों का संपादन,सह संपादन किया। आकाशवाणी ,दूरदर्शन पर कार्यक्रमों की उद्घोषणा, स्क्रिप्ट लेखन, प्रस्तुति के साथ पार्श्व स्वर देने का लम्बा अनुभव है। आकाशवाणी से फीचर,हास्य झलकियों ,साक्षात्कारों ,वार्ताओं के प्रसारण के अलावा करीब सात सालों तक बीकानेर कर आकाशवाणी केंद्र में अस्थायी उद्घोषक रहे।
यूट्यूब पर क्रेडेंट टीवी,जयपुर के डियर साहित्यकार कार्यक्रम में देश के प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कारों का प्रसारण किया गया।
क्रिकेट कमेंटरी,सरकारी कार्यक्रमों एवं पर्यटन आदि विभिन्न प्रयोजनों से आपने  श्रीलंका,अमेरिका,ब्रिटेन,बेल्जियम, हॉलैंड,जर्मनी,स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस सहित देश केअनेक राज्यों की यात्राएं की हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री कार्यालय में कार्य के दौरान राजस्थान के सभी जिलों की यात्राएं की है।
सूचना एवं जनसंपर्क के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य और लेखन के लिए वर्ष 2017 में राजस्थान के प्रतिष्ठित ‘माणक अलंकरण’, वर्ष 2019 में पब्लिक रिलेशन सोसायटी ऑफ़ इंडिया के जयपुर स्कंध द्वारा ‘जनसंपर्क उत्कृष्टता’ अवार्ड, वर्ष 2020 में खुशाल चंद रंगा स्मृति खेल पत्रकारिता पुरस्कार और व्यंग्य की प्रतिष्ठित व्यंग्ययात्रा पत्रिका में श्रेष्ठ व्यंग्य का पुरस्कार , व्यंग्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए सियाराम अवस्थी साहित्य भूषण सम्मान ,तैलंग कुलम सम्मान,खरे स्मृति खेल पत्रकारिता पुरस्कार, महाराजा करणी सिंह खेल फेलोशिप,बीकानेर आपको मिले प्रमुख पुरस्कार और सम्मान में शामिल हैं। साथ ही आपको राज्य और जिला स्तर पर अन्य अनेक सम्मान व पुरस्कार से नवाजा गया है।
परिचय :
व्यंग्य लेखन और कार्टून विधा सहित पत्रकार, स्तंभकार, संपादन में पहचान बनाने वाले रचनाकर प्रभात गोस्वामी का जन्म  5 मार्च 1959 को बीकानेर में पिता स्व. जगदीश चंद्र गोस्वामी एवं माता स्व. प्रभा गोस्वामी के आंगन में हुआ। आपने  बीकॉम,हिंदी साहित्य से एम.ए. तथा स्नातकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता एवं जनसंचार  की शिक्षा प्राप्त की। लेखन के अलावा खेलों में विशेष कर क्रिकेट खेल में रुचि होने से प्रमुखत: क्रिकेट की अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मैचों में आकाशवाणी से कमेंटरी  की है। साथ ही टेस्ट मैच, एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैचों, टी- 20, रणजी ट्राफी,दिलीप ट्राफी,ईरानी ट्रॉफी,देवधर एवं विल्स ट्रॉफी सहित अनेक राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं की कमेंटरी भी की है।
मंच संचालन का विशेष अनुभव होने से आपने  उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री,राज्यपाल,मुख्यमंत्रियों ,केन्द्रीय एवं राज्य सरकार के मंत्रीगण, प्रशासनिक अधिकारियों के आतिथ्य में आयोजित कार्यक्रमों के मंच संचालन का दायित्व निभाया। आप राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से संयुक्त निदेशक पद से सेवा निवृत हैं और जयपुर में निवास कर लेखन में सक्रिय हैं।

संपर्क :
प 15/27, मालवीय नगर ,
जयपुर-302017 (राजस्थान)
मोबाइल – 9829600567
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवम् पत्रकार, कोटा

गुलामी के प्रतीकों और परंपराओं से मुक्ति का दौर

पराधीन राष्ट्र अपनी संस्कृति और सभ्यता का आनंद नहीं प्राप्त कर सकते। भारत के लिए यह बात और भी महत्वपूर्ण है। देश दीर्घकाल तक पराधीन रहा है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस देश की सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने का अभियान चला। भारत ने विदेशी सत्ता से संघर्ष किया। गुलामी खत्म हुई। तब से 77 साल हो गए। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के तमाम प्रतीक अभी भी बने हुए हैं। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय से शुभ सूचना आई है।
देश के तमाम शिक्षण संस्थानों खासतौर से मेडिकल कॉलेजों में होने वाले दीक्षांत समारोह में अब विद्यार्थियों को काला गाउन और हैट पहनने की जरूरत नहीं होगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बाबत आदेश जारी कर दिया है। दीक्षांत समारोह में गाउन और हैट पहनना औपनिवेशिक काल की देन है। देश में इस घोषणा से प्रसन्नता है। संप्रभु राष्ट्र राज्य में गुलामी के प्रतीकों का महिमामंडन नहीं होता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव में पंच प्रणों का दृष्टिकोण रखा था। एक संकल्प में गुलामी की मानसिकता के त्याग का आवाहन है और अपनी विरासत पर गर्व करने का संदेश भी।
गुलामी के प्रतीक देश के स्वाभिमान को आहत करते रहते हैं। इसलिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर कर्तव्य पथ का उद्घाटन हुआ था। इसे अंग्रेजी राज के समय से किंग्सवे (राजपथ) कहा जा रहा था। राजपथ (किंग्सवे) भी पराधीनता का प्रतीक था। गुलामी के समय से यहां ब्रिटिशराज के प्रतिनिधि जॉर्ज पंचम की प्रतिमा थी। अब इसी इंडिया गेट पर सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा लगाई गई है। अंग्रेजी सत्ता के प्रतीक राष्ट्र के दीर्घकालीन अपमानों की याद दिलाते हैं।
जनमानस दुखी होता है। इस मानसिकता में राष्ट्र का मनोबल क्षीण होता है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सभ्यता की निंदा की थी। गांधी जी की लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज में कहा गया है कि, ‘‘भारत को इंग्लैंड का कोई भी सत्ता प्रतीक या सत्ता उपकरण स्वीकार्य नहीं है।‘‘ तब ब्रिटिश संसद अंग्रेजी सत्ता का महत्वपूर्ण उपकरण थी। गांधी जी ने ब्रटिश संसद की भी आलोचना की थी। संविधान सभा में संसदीय विशेषाधिकारों पर चर्चा हो रही थी। संविधान निर्माताओं ने विशेषाधिकारों का प्रावधान (अनुच्छेद 105) दिया है। अनुच्छेद 105 का खण्ड 3 मजेदार है और विस्मय करने वाला है।
संविधान में प्रावधान किया गया है कि सदस्य या समितियों की शक्तियां व विशेषाधिकार वही होंगे जो संसद समय समय पर विधि द्वारा निश्चित करे और जब तक वे इस प्रकार निश्चित होंगे तब तक वह वही होंगे जो संविधान के प्रारंभ 26 जनवरी 1950 के दिन उसके सदस्यों और समितियों के है। अर्थात ब्रिटिश संसद के विशेषाधिकार भारतीय संसद के भी हैं। संविधान में भारतीय संसद के लिए ब्रिटिश संसद के विशेषाधिकारों के अनुसरण का उल्लेख आलोचना का विषय बना। संप्रभु राष्ट्र के संविधान में ब्रिटिश संसद के प्रावधानों के उल्लेख का कोई औचित्य नहीं था। इसलिए 44वें संविधान संशोधन में यह भूल सुधारी गई। संविधान में संशोधन किया गया कि वे वही होंगे जो इस संशोधन के ठीक पहले थे। यानी वही हैं जो ब्रिटिश संसद के हैं। क्या इसमें ब्रिटिश परंपरा और संसद के प्रति अतिरिक्त सम्मोहन नहीं है?
भारतीय दण्ड विधान, दण्ड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम ब्रिटिश प्राधिकार में ब्रिटिश संसद ने बनाए थे। इसके तमाम प्रावधान अपनी उपयोगिता खो चुके थे लेकिन लगभग 150 साल बूढ़े कानूनों पर कोई चर्चा नहीं हुई। अब औपनिवेशिक काल के इन कानूनों का अध्ययन विश्लेषण हुआ। कालवाह्य का निरसन हुआ। अब उनके स्थान पर तीन नई संहिता बन चुकी  हैं। अपनी जड़ों से जीवन रस प्राप्त करना आनंद देने वाला होता है, लेकिन गुलामी के दीर्घ काल में ब्रिटिश सत्ता ने भारतीय विरासत पर गर्व करने के प्रतीकों को पीछे ढकेल दिया था।
अंग्रेजी विद्वानों और ब्रिटिश राज को श्रेष्ठ मानने वाले लेखकों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को भाववादी बताया। प्रचार किया गया कि भारत के लोग अपना इतिहास भी ठीक से नहीं लिख पाते। यह बात सही नहीं है। भारत में ज्ञान, विज्ञान और दर्शन पर विपुल लेखन हुआ था। जर्मनी के विद्वान मैक्समूलर ने भारतीय ज्ञान व संस्कृति की प्रशंसा की थी। मैक्समूलर के संपादकत्व में भारतीय धर्म परंपरा और संस्कृति को समझाने के लिए 50 खण्डों में ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट‘ नाम से ग्रंथ छपे थे।
अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति आग्रही राष्ट्रभाव का विकास जरूरी था और है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय ज्ञान परंपरा पर तमाम आक्रमण किए थे। तो भी भारतीय राजनेताओं में ब्रिटिश परंपरा के प्रति आकर्षण था। भारतीय बजट का समय ब्रिटिश संसद के समय का अनुसरण कर रहा था। प्रशंसनीय है कि केन्द्र ने उसकी तारीख और समय का परिवर्तन कर दिया। रेल बजट को आम बजट के साथ जोड़ दिया गया है। 26 जनवरी को बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में ‘एबाइड विद मी‘ गीत बजाया जाता था। इसे हटा दिया गया है। इसकी जगह कवि प्रदीप का लिखा ‘ऐ मेरे वतन के लोगों‘ गीत बजाया जाता है। मातृभाषा में अध्ययन करने का फैसला राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भाग बन गया है। विरासत महत्वपूर्ण संपदा है। विरासत में ज्ञान परंपरा भी आती है। पूर्वजों ने राष्ट्र जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनेक प्रयास किए थे। संस्कृति, दर्शन, कला, विज्ञान और विश्व को ठीक से समझने के उनके प्रयास अनुकरणीय हैं। भारतीय विरासत समृद्ध है।
विरासत में करणीय व अनुकरणीय विषयों की सूची होती है। विरासत से जुड़कर हम सब पूरे समाज के सक्रिय घटक बन जाते हैं। हम पूर्वजों से जुड़ जाते हैं। बेशक विरासत की संपदा भूतकाल की है। इसमें इतिहास के तत्व ज्यादा हैं। इतिहास और वर्तमान का मिलन जरूरी है। हजारों वर्ष प्राचीन देश होने के कारण यहां भिन्न-भिन्न प्रकार की विरासतें हैं। सब मिलकर राष्ट्र का सामर्थ्य बढ़ाती हैं। पेड़ अपनी जड़ों से कट कर सूख जाते हैं। जड़ों से मजबूती से जुड़े पेड़ दीर्घजीवी होते हैं। जड़ें महत्वपूर्ण हैं। जड़ें पृथ्वी से रस लेती हैं और पूरे वृक्ष को जीवन मिलता है। राष्ट्रों की जीवनऊर्जा भी विरासत से मजबूत होती है। ज्ञान विज्ञान में भारत की जड़ें वैदिक काल से भी प्राचीन हैं। विरासत की जड़ें देश के समूचे हिस्से को प्रभावित करती हैं। दीक्षांत समारोहों में विदेशी वेशभूषा सारा आनंद बेकार कर देती है।
 सत्ताधीश अंग्रेज चले गए। औपनिवेशिक ज्ञान और बेकार के प्रतीक छोड़ गए। इनसे मुक्ति समय का आह्वान है।
न्यायपालिका के प्रति देश में आदर भाव है। न्यायालयों में भी विद्वान अधिवक्ता अपने तर्क देते समय न्यायमूर्ति को ‘माई लॉर्ड‘ और ‘योर लॉर्डशिप‘ कहते हैं। यह कथन ब्रिटिश परंपरा की उधारी है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने इसे उचित नहीं माना था। अधिवक्ता भी काला कोट पहन कर आते हैं। वह एक कमरे में ही नहीं बैठे रहते। भारत गर्म जलवायु का देश है। व्यावहारिक दृष्टि से वकीलों की वेशभूषा मौसम के विपरीत है। यह वेशभूषा भी स्वदेशी नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा है कि, ‘‘विदेशी को राष्ट्रानुकूल बनाना और राष्ट्र के प्राचीन वैभव को युगानुकूल बनाना होगा।‘‘ विरासत से जुड़ाव स्वाभाविकता है। इसलिए विरासत का सम्मान और संरक्षण हम सबका राष्ट्रीय कर्तव्य भी है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष हैं व राष्ट्रीय व सामाजिक विषयों पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं) 

मुगल बादशाह औरंगजेब के इशारे पर मिर्जा राजा जयसिंह को जहर दिया गया था

28 अगस्त 1667 : मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु बुरहानपुर में हुई। 
मिर्जा राजा जयसिंह की बहादुरी के प्रसंग भारत के हर कौने में है । अफगानिस्तान से लेकर दक्षिण भारत तक उन्होंने हर युद्ध जीता । पर ये लड़ाइयाँ उन्होंने अपने लिये नहीं मुगलों के लिये लड़ीं थीं। पर एक दिन ऐसा आया जब  मुगल बादशाह औरंगजेब की योजना से उन्हें जहर देकर मार डाला गया ।
मुगल बादशाह औरंगजेब अपनी क्रूरता के लिये ही नहीं कुटिलता के लिये भी जाना जाता है । वह अपने भाइयों की हत्या करके और पिता को जेल में डालकर गद्दी पर बैठा था । उसने अपनी एक पुत्री को जेल में डाला और एक पुत्र जान बचाकर भागा था । औरंगजेब द्वारा राजपूत राजाओं के साथ की गई कुटिलता की भी कई कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। जोधपुर के राजा महाराज जसवंतसिंह की भी हत्या की गई थी । उन्हें युद्ध अभियान के लिये पहले काबुल भेजा गया और उनके शिविर में किसी अज्ञात ने उनकी हत्या कर दी थी । ठीक इसी प्रकार मिर्जा राजा जयसिंह की मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में विष देकर हत्या की गई।
 राजा जयसिंह आमेर रियासत के शासक थे । उन्होंने केवल ग्यारह वर्ष की आयु में गद्दी संभाली‌‌ थी । वे 1621 से 1667 तक आमेर के शासक रहे । उनके पूर्वजों ने अपनी रियासत को विध्वंस से बचाने के लिये बादशाह अकबर के समय मुगल सल्तनत से समझौता कर लिया था । इस समझौते के तहत आमेर के राजा को मुगल दरबार में सेनापति पद मिला और आमेर की सेना ने हर सैन्य अभियान में मुगल सल्तनत का साथ दिया । मुगल दरबार में यह सेनापति पद आमेर के हर उत्तराधिकारी को रहा । इसी के अंतर्गत राजा जयसिंह जब मुगल सेनापति बने बने तब जहांगीर की बादशाहत थी । फिर शाहजहाँ की । और अंत में औरंगजेब के शासन काल में भी वे सेनापति रहे ।
उन्हें 1637 में शाहजहाँ ने “मिर्जा राजा” की उपाधि दी थी । राजा जयसिंह ने मुगलों की ओर से 1623 में अहमदनगर के शासक मालिक अम्बर के विरुद्ध’, 1625 में दलेल खां पठान के विरुद्ध, 1629 में उजबेगों के विरुद्ध, 1636 में बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध तथा 1937 में कंधार के सैन्य अभियान में भेजा और राजा जयसिंह सफल रहे । उन्होंने हर अभियान में मुगल सल्तनत की धाक जमाई । उनकी बहादुरी और लगातार सफलता के लिये अजमेर क्षेत्र इनाम में मिला और 1651 में तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ ने अपने पौत्र सुलेमान की साँझेदारी में कंधार की सूबेदारी दी ।
इसके बाद 1651 ई. में शाहजहां ने इन्हें सदुल्ला खां के साथ में कंधार के युद्ध में नियुक्त किया ।
बादशाह जहांगीर और शाहजहाँ के कार्यकाल में तो सब ठीक रहा पर राजा जयसिंह औरंगजेब की आँख की किरकिरी पहले दिन से थे । इसका कारण 1658 में हुआ मुगल सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था । यह युद्ध शाहजहाँ के बेटों के बीच हुआ था । बादशाह शाहजहाँ के कहने पर राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के समर्थन में युद्ध किया था । पहला युद्ध दारा शिकोह और शुजा के बीच बनारस के पास बहादुरपुर में हुआ हुआ था । इसमें जयसिंह की विजय हुई । इस विजय से प्रसन्न होकर बादशाह शाहजहाँ ने इनका मनसब छै हजार का कर दिया था ।
बादशाहत के लिये दूसरा युद्ध मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 15 अप्रैल 1658 को हुआ। यह युद्ध दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच हुआ । इस युद्ध में भी राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के पक्ष में युद्ध किया । लेकिन इस युद्ध में औरंगजेब का पलड़ा भारी रहा । मुगल सेना पीछे हटी और आगरा की सुरक्षा के लिये तगड़ी घेराबंदी की गई। बादशाह ने इस सुरक्षा कवच का नेतृत्व करने के लिये भी राजा जयसिंह को ही चुना । औरंगजेब ने एक रणनीति से काम किया । उसने सीधे आगरा पर धावा बोलने की बजाय अपनी एक सैन्य टुकड़ी को  राजस्थान के उन हिस्सों में उत्पात मचाने भेज दिया जो राजा जयसिंह के अधिकार में थे ।
 राजा जयसिंह के सामने एक विषम परिस्थिति बनी । आमेर के राजाओं ने अपने क्षेत्र की सुरक्षा के लिये ही तो मुगलों से समझौता किया था लेकिन अब संकट में आ  गया था । औरंगजेब ऐसा करके राजा जयसिंह को समझौते के लिये तैयार करना चाहता था । राजा जयसिंह ने भी भविष्य की परिस्थिति का अनुमान लगाया और बातचीत के लिये तैयार हो गये । 25 जून 1658 को मथुरा में दोनों की भेंट हुई और राजा जयसिंह ने औरंगजेब को अपना समर्थन देने का वचन दे दिया । मार्च 1659 में देवराई के पास हुये निर्णायक युद्ध में राजा जयसिंह ने औरंगजेब की ओर दारा शिकोह के विरूद्ध अहरावल दस्ते का नेतृत्व किया ।
औरंगजेब ने सत्ता संभालने के बाद राजा जयसिंह को मनसब तो यथावत रखा पर पूर्ण विश्वास न कर सका । वह राजा जयसिंह को ऐसे युद्ध अभियानों पर भेजता  जो कठिन होते । पर राजा सभी अभियानों में सफल रहे । औरंगजेब ने उन्हे दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के विरुद्ध भी भेजा । औरंगजेब की ओर से शिवाजी महाराज के साथ पुरन्दर की संधि राजा जयसिंह ने ही की थी । और राजा पर विश्वास करके ही शिवाजी महाराज औरंगजेब से चर्चा के लिये आगरा आये थे । जहाँ बंदी बना लिये गये । शिवाजी महाराज को इस प्रकार बंदी बना लेने से राजा जयसिंह भी आश्चर्यचकित हुये और सावधान भी ।
औरंगजेब शिवाजी महाराज को विष देकर मारना चाहता था । लेकिन शिवाजी महाराज समय रहते सुरक्षित निकल गये । यह घटना अगस्त 1666 की है । शिवाजी महाराज के इस प्रकार सुरक्षित निकल जाने पर औरंगजेब को राजा जयसिंह पर संदेह हुआ । बादशाह को लगा कि इसमें राजा जयसिंह का हाथ हो सकता है । चूँकि शिवाजी महाराज की निगरानी में राजा जयसिंह का भी एक सैन्य दस्ता लगा था । इसलिए बादशाह को राजा जयसिंह पर गहरा संदेह होना स्वाभाविक भी था । पर बादशाह ने सीधे और तुरन्त कार्रवाई करने की बजाय मामले टालने का निर्णय लिया ।
अंततः जून 1667 में राजा जयसिंह को दक्षिण के अभियान पर भेजा गया । बरसात के चलते राजा बुरहानपुर में रुके थे । मुगल सेना की प्रत्येक सैन्य टुकड़ी में भोजन बनाने वाली खानसामा टीम सीधे बादशाह के आधीन सामंतों के नियंत्रण में होती थी । इस अभियान में भी यही व्यवस्था थी । 28 अगस्त 1667 को भोजन में विष देकर राजा जयसिंह की हत्या कर दी गई । बुरहानपुर में राजा जय सिंह की 38 खम्बों की छतरी बनी है जो राजा जयसिंह के पुत्र राम सिंह ने अपने पिता की स्मृति में बनवाई थी ।
(लेखक राजनीतिक व ऐतिहासक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं )

पर्युषण महापर्व 1 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे 8 सितंबर को “मिच्छामि दुक्कड़म्” के साथ होगी पूर्णाहुति

जैन धर्म के पर्युषण पर्व मनुष्य को उत्तम गुण अपनाने की प्रेरणा हैं। इन दिनों जैन धर्मावलंबी व्रत, तप, साधना कर आत्मा की शुद्धि का प्रयास करते हैं और स्वयं  के पापों की आलोचन करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। इस पर्व का मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। जैन धर्म में सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है पर्युषण महापर्व। श्वेतांबर व दिगंबर समुदाय के धर्मावलंबी भाद्रपद मास में “पर्युषण महापर्व” की साधना – आराधना करते है।
श्वेतांबर समुदाय के आठ दिवस को “पर्युषण” के नाम से जाना जाता है जो कि दिनांक 1 सितम्बर से प्रारम्भ होंगें तथा 8 सितम्बर को “संवत्सरी महापर्व” (क्षमापर्व) के दिवस के साथ पूर्ण होगें। वहीं दिगम्बर समुदाय के दस दिवसों को “दस लक्षण पर्व” के नाम से जाना गया हो जो कि 8 सितंबर से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी 17 सितंबर को समाप्त होंगे।

श्रमण डॉ पुष्पेन्द्र ने बताया कि चातुर्मास प्रारम्भ के उनपचास(49) या पचासवें (50) दिवस पर संवत्सरी पर्व की साधना की जाती है। इसी क्रम में देश के विविध अंचलों चातुर्मासरत श्रमण – श्रमणियों के पावन सान्निध्य में जैन धर्मावलम्बि तप – त्याग – साधना – आराधना पूर्वक इस महापर्व को मनाएगें। इन दिवसों में जैन अनुयायियों के मुख्यतया पांच प्रमुख अंग हैं स्वाध्याय, उपवास, प्रतिक्रमण, क्षमायाचना और दान।

पर्युषण पर्व के दौरान प्रतिदिन जैन स्थानकों में स्वाध्याय के रूप में निरंतर धार्मिक प्रवचन होंगे। जो कि प्रातःकाल होगें। इसमें सर्वप्रथम जैन आगम सूत्र “अन्तकृत दशांग सूत्र” का प्रतिदिन मूल व भावार्थ के साथ वाचन पश्चात् स्वाध्याय के विशिष्ट गुणों, सेवा, संयम, साधना, ध्यान, सद्व्यवहार पर प्रवचन होंगे। प्रतिदिन सुबह व सांयकाल प्रतिक्रमण होंगे जो आत्मशुद्धि के लिए नितांत आवश्यक हैं। आठवें दिवस संवत्सरी महापर्व पर विस्तृत स्व आलोचना का पाठ होगा जिसमें जीवन भर के अंदर होने वाली पाप प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए आत्मालोचना कर “मिच्छामि दुक्कड़म्” किया जाएगा।

सादा भोजन व सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे –

पर्युषण महापर्व के दौरान जैन धर्मावलम्बि  सादे भोजन पर जोर देते है है जो कि बिना हरी सब्जियों के बनाया जाएगा। इसका मुख्य कारण यह है कि स्वाद आसक्ति का त्याग जैन धर्म में प्रमुख तौर पर बताया गया है उसी के अनुरूप जैन अनुयायी इसका पालन करते है। सूर्यास्त होने के बाद भोजन भी नहीं करेंगे। अधिक से अधिक सादगी – त्याग पूर्वक जीवन यापन करेगें।

पर्युषण का अर्थ आत्मचिंतन और नवीनीकरण का उत्सव –

श्रमण डॉ. पुष्पेन्द्र ने बताया कि पर्युषण पर्व जिसे क्षमा पर्व के नाम से भी जाना जाता है, पर्युषण का अर्थ दो शब्दों परि (स्वयं को याद करना) और वासन (स्थान) से लिया गया है. इसका मतलब है कि इस उत्सव के दौरान सभी जैन एक साथ आते हैं और अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए एक साथ उपवास और ध्यान करते हैं. जैन धर्म में अहिंसा एवं आत्मा की शुद्धि को सर्वोपरि स्थान दिया गया है. मान्यता है कि प्रत्येक समय हमारे द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कार्यों से कर्म बंध होता है, जिनका फल हमें भोगना पड़ता है. शुभ कर्म जीवन व आत्मा को उच्च स्थान तक ले जाते हें, वही अशुभ कर्मों से हमारी आत्मा मलिन होती है. जिसको पवित्र व स्वच्छ करने के लिए पर्युषण पर्व की आराधना की जाती है।

उल्लेखनीय है कि श्वेतांबर जैन समुदाय में पर्युषण पर्व का आरंभ भादौ के कृष्ण पक्ष से ही होता है जो भादौ के शुक्ल पक्ष पर संवत्सरी से पूर्ण होता है। यह इस बात का संकेत है कि कृष्ण पक्ष यानी अंधेरे को दूर करते हुए शुक्ल पक्ष यानी उजाले को प्राप्त कर लो। हमारी आत्मा में भी कषायों अर्थात क्रोध – मान – माया – लोभ का अंधेरा छाया हुआ है। इसे पर्युषण के पवित्र प्रकाश से दूर किया जा सकता है।

केंद्र सरकार ने 234 नए शहरों में एफएम रेडियो के 730 चैनलों की स्वीकृति दी

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने निजी एफएम रेडियो चरण-3 नीति के अंतर्गत 234 नए शहरों में 730 चैनलों के लिए 784.87 करोड़ रुपये के अनुमानित आरक्षित मूल्य के साथ तीसरे बैच की आरोही (बढ़ती हुई बोली) ई-नीलामी करवाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है।

शहरों/कस्बों की राज्यवार सूची और नई नीलामी के लिए स्वीकृत निजी एफएम चैनलों की संख्या अनुलग्नक के रूप में यहां संलग्न है।

केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को छोड़कर एफएम चैनल के वार्षिक लाइसेंस शुल्क (एएलएफ) के रूप में सकल राजस्व का 4 प्रतिशत लेने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी। ये 234 नए शहरों/कस्बों के लिए लागू होगा।

234 नए शहरों/कस्बों में निजी एफएम रेडियो की शुरुआत से उन शहरों/कस्बों में एफएम रेडियो की अधूरी मांग पूरी होगी, जो अभी भी निजी एफएम रेडियो प्रसारण से अछूते हैं और मातृभाषा में नए/स्थानीय कंटेंट पेश करेंगे।

इससे नए रोजगार के अवसर पैदा होंगे, स्थानीय बोली और संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा तथा ‘वोकल फॉर लोकल’ पहल को बढ़ावा मिलेगा। अनुमोदित किए गए ऐसे कई शहर/कस्बे आकांक्षी जिलों और वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में हैं। इन क्षेत्रों में निजी एफएम रेडियो की स्थापना से इन क्षेत्रों में सरकारी पहुंच और सुदृढ़ होगी।

नालंदा में गुरु पद्मसंभव के जीवन और विरासत पर दो दिवसीय सम्मेलन

अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ बिहार के नालंदा में नव नालंदा महाविहार के सहयोग से गुरु पद्मसंभव के जीवन और उनके जीवंत विरासत पर 28 और 29 अगस्त, 2024 को दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करेगा। गुरु रिनपोछे नाम से भी प्रसिद्ध गुरु पद्मसंभव आठवीं शताब्दी में प्राचीन भारत में रहते थे। बुद्ध धम्म में आज सबसे सम्मानित लोगों में से एक गुरु पद्मसंभव को हिमालय क्षेत्र में बुद्ध धम्म के प्रसार का श्रेय दिया जाता है।

बिहार के राज्यपाल श्री राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर मुख्य अतिथि के रूप में इस कार्यक्रम की शोभा बढ़ाएंगे। लुंबिनी डेवलपमेंट ट्रस्ट, नेपाल के उपाध्यक्ष परम श्रद्धेय खेनपो चिमेद और रॉयल भूटान मंदिर, सेंट्रल मोनास्टिक बॉडी, भूटान के सचिव/मुख्य भिक्षु खेनपो उगयेन नामग्याल सम्मेलन में सम्मानित अतिथि होंगे। दूसरे बुद्ध के रूप में माने जाने वाले गुरु पद्मसंभव को गुरु रिनपोछे भी कहा जाता है, वे हिमालय के प्रसिद्ध ऋषि रहे जो प्राचीन भारत में आठवीं शताब्दी में रहते थे।

इस सम्मेलन के प्रमुख विषयों में उनका जीवन और शिक्षाएं, हिमालय भर में उनकी यात्राएं और, सबसे खास, वर्तमान समय में उनकी प्रासंगिकता शामिल होगी। गुरु पदमसंभव योगिक और तांत्रिक प्रथाओं से लेकर ध्यान, कला, संगीत, नृत्य, जादू, लोककथाओं और धार्मिक शिक्षाओं तक संस्कृति के कई पहलुओं के एकीकरण का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। सम्मेलन में पांडुलिपियों, अवशेषों, चित्रों और स्मारकों के माध्यम से उनकी धम्म विरासत का जश्न मनाने का एक ठोस प्रयास किया जाएगा।

सम्मेलन के प्रमुख विषयों में शामिल हैं:

1. जीवनी संबंधी अंतर्दृष्टि और पौराणिक कथाएं

2. वज्रयान बुद्ध धम्म और तंत्र की शिक्षाएं

3. सांस्कृतिक एवं कलात्मक योगदान

4. यात्राएं और क्षेत्रीय प्रभाव

5. विरासत और समसामयिक प्रासंगिकता

बुद्ध धम्म के मूल सिद्धांतों को फैलाने का प्रयास करते हुए गुरु पदमसंभव ने एक स्थान की विशिष्टताओं और लोगों की संवेदनाओं को समझा। इस प्रकार, उन्होंने अपनी शिक्षाओं को स्थानीय मुहावरे और संस्कृति में ढाला, जिससे आस्था को आत्मसात करना बहुत आसान हो गया। उनके जीवन और समय को याद करते हुए, सम्मेलन में भगवान बुद्ध के उत्कृष्ट संदेश को प्रसारित करने के लिए स्थानीय प्रतीकों और यहां तक कि अनुष्ठानों को माध्यम के रूप में उपयोग कर विभिन्न संस्कृतियों और धार्मिक परंपराओं के साथ उनके तालमेल बिठाने का जो दृष्टिकोण था, उसकी अंतर्दृष्टि मिलने की उम्मीद है।

वैदिक वाङ्मय में नारी का स्थान

हर साल 26 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय महिला समानता दिवस मनाया जाता है। स्वघोषित लिबरल, नारीवादी और अंबेडकरवादी हमेशा चिल्लाते रहते हैं कि सनातन धर्म मे नारी का सम्मान नहीं है। जबकि सत्य तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है। सनातन धर्म का मूल वेद है। वेद मे कन्या, महिला, पत्नी, माँ, बेटी, बहन व गृहणी के विषय मे अनेक मंत्र हैं। उनमे से कुछ देखिए —
वेद में पत्नी के अधिकार
यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुदे वृषा।
एथा त्वं सम्राज्ञ्‌येधि पत्युरस्तं परेत्य।। (अथर्ववेद 14.1.43)
(यथा) जैसे (वृषा) वर्षा करने मे सामर्थ्यवान /बलवान्‌ (सिन्धुः) बादलों और सागरों के जल समूह (नदीनाम्‌) जल धाराओं का (साम्राज्यं) साम्राज्य- चक्रवर्ती राज्य उत्पन्न / प्रेरित किया है। हे वधू! (एव) वैसे (त्वम्‌) तू (पत्युः) पति के (अस्तम्‌) घर (परेत्य) पहुँचकर (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो।
सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्‌‌युत देवृषु।
ननान्दुः सम्राज्ञ्‌येधि सम्राज्ञ्युत श्वश्रवाः।। (अथर्ववेद 14.1.44)
हे वधू ! तू (श्वशुरेषु) अपने ससुर आदि गुरुजनों के बीच (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (उत) और (देवृषु) अपने देवरों आदि कनिष्ठ जनों के बीच (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो। (ननान्दुः) अपनी ननद की (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो (उत) और (श्वश्रवाः) अपनी सास की (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो।
यहाँ साम्राज्ञी शब्द बताता है कि घर मे नव विवाहिता का सम्मान हो और कोई उसे कम ना समझे।
एक गृहणी कह रही है –
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी |
ममेदनुक्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत || (ऋग्वेद 10/159/ 2 )
मैं घर की ध्वजा हूँ, मैं घर का मस्तक/सिर हूँ। मैं तेजस्विनी वाणी वाली हूँ । उत्साह और सहनशीलता के साथ मैं पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी हूँ।
मम पुत्राः शत्रुहणो, अथो मे दुहिता विराट्।
उताहमस्मि संजया, पत्यौ मे श्लोक उत्तमः। -(ऋग्वेद 10/159/ 3 )
मेरे पुत्र शत्रुहन्ता हैं, मेरी पुत्री विशेष तेजस्विनी है और मैं भी विजयी मनोबल वाली हूँ। मेरे बारे मे पति के मन में उत्तम कीर्ति का वास है।
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वैदिक विवाह संस्कार मे विवाह में सप्तपदी मे वधू के आगे एक पत्थर रखा जाता है और वधू को कहा जाता है कि इस पत्थर को लांघ जा।
एक वेद मन्त्र यह भाव है –
‘स्योनं ध्रुवं प्रजायै धारयामि तेऽश्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे
तमा तिष्ठानुमाद्या सुवर्चा दीर्घ त आयुः सविता कृणोतु ॥ -अथर्व० १४।१।४७
हे नारी! तू राष्ट्रभूमि की प्रजा है। तेरी लिए इस दिव्य भूमि के पृष्ठ पर मैं सुखदायक अचल शिलाखण्ड को रखता हूँ। इस शिलाखण्ड के ऊपर तू खड़ी हो, यह तुझे दृढ़ता का पाठ पढ़ाएगा। इस शिलाखण्ड के अनुरूप तू भी वर्चस्विनी बन, जिससे संसार में आनन्दपूर्वक रह सके। सविता परमेश्वर और सूर्य तेरे अन्दर तेज का आधान करके तेरी आयु को सुदीर्घ करें।
आजकल यह वेदमन्त्र तो नहीं बोला जाता परंतु इसके स्थान पर सप्तपदी मे यह वाक्य बोलने की परम्परा है –
अश्म भव, परशु भव, हिरण्यस्त्रात भव –
अर्थात पत्थर की तरह दृढ़ बन, कुल्हाड़े की तरह बाधाओं को काट दे और सोने की तरह चमकती रह ।
कोई कोई पुरोहित पारस्कार गृह्यसूत्र का यह श्लोक बोलते हैं।
आरोहेममश्मानम् अश्मेव त्वं स्थिरा भव
अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः॥ – पारस्कर गृ० सू० १।७।१
तू इस शिला पर आरोहण कर। जैसे यह शिला स्थिर और सुदृढ़ है, ऐसे तू भी स्थिर और सुदृढ़गात्री बन । बाधाओं को परास्त कर।
मंहीमू षु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम।
तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्॥ -यजु० २१।५
हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती पुत्रों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू मुसीबतों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू शुभ कल्याण करनेवाली है। तू शुभ-प्रकृष्ट नीति का अनुसरण करनेवाली है।

अंतरिक्ष से कैसे हल होगी हमारी स्वास्थ्य समस्याएँ

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और नासा ने आपसी सहयोग से, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर ऐसी बायोमेडिकल तकनीक विकसित करने और उसका परीक्षण करने का बीड़ा उठाया है जिसका इस्तेमाल पृथ्वी पर भी किया जा सके।

नासा अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के लाइफ साइंसेज ग्लोवबॉक्स में कार्य करती हैं। वह इस पर शोध कर रही हैं कि माइक्रोग्रेविटी और अंतरिक्ष यात्रा के अन्य पहलुओं से गुर्दों की सेहत पर क्या असर पड़ता है। (फोटोग्राफ साभार: नासा /निक हेग)

सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी दवाओं को बनाने और इंसानों पर उसके असर को परखने के लिए दशकों के अनुसंधान और जांच परीक्षणों की जरूरत पड़ती हैं। टिशू चिप्स एक तरह का बायोमेडिकल उपकरण है जो समयावधि को वर्षों से घटा कर महीनों तक लेकर आ सकता है।

टिशू चिप्स को ऑर्गन- ऑन- चिप (ओसीसी) भी कहा जाता है। ये शारीरिक स्थितियों की नकल करने वाली मानव कोशिकाओं से तैयार इंजीनियर्ड डिवाइस है। नेशनल सेंटर फॉर एडवांसिंग ट्रांसलेशनल साइंसेज़ (एनसीएटीएस) द्वारा विकसित इन चिप्स को माइक्रोग्रेविटी (लगभग शून्य ग्रेविटी) के वातावरण में मानव शरीर पर इसके प्रभावों का अध्ययन करने के लिए इसे इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन स्थित यूएस नेशनल लैब में भी भेजा जा रहा है।

दिसंबर 2005 में, अमेरिका ने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के अपने हिस्से को नेशनल लैब के रूप में नामित कर दिया। ऐसा करने का उद्देश्य नेशनल हेल्थ इंस्टीट्यूट (एनआईएच) जैसी एजेंसियों के अनुसंधान मिशनों को गति देना है। नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के अंतरिक्ष यात्रियों ने एक दशक से अधिक समय तक अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोग करने के लिए एनआईएच के शोधकर्ताओं के साथ काम किया है।

स्वास्थ्य और अंतरिक्ष जैसे विषय क्षेत्रों पर केंद्रित दो अमेरिकी सरकारी एजेंसियों के बीच सहयोग के माध्यम से टिशू चिप्स जैसी प्रौद्योगिकी का विकास और अध्ययन संभव हो पाया है।

अमेरिकी कांग्रेस ने बुनियादी वैज्ञानिक खोजों के निदान, उपचार और इलाज़ में इस्तेमाल में आने वाली दिक्कतों को दूर करने के लिए 2012 में एनसीएटीएस की स्थापना की। स्पेशल इनीशिएटिव कार्यालय के निदेशक डैनिलो टैगले ने टिशू चिप्स कार्यक्रम को शुरू किया।

हालांकि, लगभग 10,000 बीमारियों की पहचान हो चुकी है लेकिन केवल पांच प्रतिशत बीमारियां ही ऐसी हैं जिनका प्रभावी उपचार उपलब्ध है। टैगले के अनुसार, “बुनियादी तौर पर नई खोजों की बीमारियों की पहचान, निदान, उपचार और इलाज़ में उपयोग की प्रक्रिया बहुत धीमी रही  है।” उनका कहना है कि, टिशू चिप्स तकनीक को मानव शारीरिक प्रक्रियाओं का अनुकरण करके परिणाम में सुधार करने के लिए विकसित किया गया है। उन्होंने कहा कि, “चिप्स को मिनिएचर आकार दिया जाता है और इनमें मानव इंसानों के लिए प्रासंगिक कोशिकाएं और टिशू होते हैं।”

कार्यक्रम के तहत चिप पर कई तरह के टिशू और अंगों जैसे, किडनी, लीवर, रक्त-मस्तिष्क बैरियर और हृदय मांसपेशियों को विकसित किया गया है। ये टिशू चिप्स पारंपरिक पशु परीक्षण मॉडल की तुलना में इंसानी प्रतिक्रिया को सटीक तरह से पकडऩे में सक्षम साबित हुए हैं।

टैगले स्पष्ट करते हैं कि, समय के साथ वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के उन क्षेत्रों में टिशू चिप्स के उपयोग के बारे में खोज शुरू कर दी जिनका मॉडल बनाना मुश्किल है जैसे कि उम्र बढऩा। उनका कहना है कि, इसका अध्ययन आमतौर पर चूहों, कुत्तों और बंदरों जैसे पशु मॉडलों में किया जाता है। हालांकि, जानवरों के बूढ़े होने का इंतजार करने में दशकों नहीं तो लेकिन कई साल लग सकते हैं। टैगले का कहना है कि, उनके अध्ययन से पता चला  है कि लंबे समय तक-कुछ महीनों से लेकर एक वर्ष से कम समय में ही, माइक्रोग्रेविटी के संपर्क में रहने पर अंतरिक्ष यात्रियों को तेजी से उम्र बढऩे का अनुभव होता है। इसी खोज के कारण एनआईएच और नासा के बीच आपसी सहयोग की शुरुआत हुई। तब से, एनसीएटीएस ने लगभग 15 पेलोड के साथ नौ मिशन लॉंच किए हैं जिसमें हृदय,  मांसपेशियों की हड्डी के जोड़ और फेफड़ों जैसी विभिन्न स्थितियों के समरूप टिशू चिप्स शामिल हैं।

उम्र बढऩे की प्रक्रिया में टिशू चिप्स के तेजी के साथ मॉडल करने को लेकर नतीजे उत्साहवर्धक रहे हैं। इसी कारण अब यह प्रोग्राम जटिल जैविक क्रियाओं के बारे में समझ को बढ़ाते हुए मल्टी ऑर्गन चिप्स के इस्तेमाल से परस्पर जुड़ी अंग प्रणालियों के अध्ययन तक विस्तारित हो रहा है।

टैगल बताते हैं कि, टिशू चिप्स अनुसंधानकर्ताओं को यह समझने में मदद करते हैं कि इंसानी कोशिकाएं और टिशू विशेषतौर पर बाहरी अंतरिक्ष जैसे वातावरण में रियल टाइम में किस तरह से प्रतिक्रिया करते हैं। परंपरागत रूप से वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष यात्रियों से नमूने एकत्र करने होंगे और उन्हें अध्ययन के लिए वापस पृथ्वी पर भेजना होगा। वह स्पष्ट करते हैं कि, “टिशू चिप्स में बिल्ट-इन सेंसरों के कारण अब हम अंतरिक्ष में होने वाली इन प्रतिक्रियाओं का रियल टाइम में पृथ्वी पर भी अध्ययन कर सकते हैं।”

सितंबर 2007 में, नासा ने एनआईएच के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया। इसका उद्देश्य “पृथ्वी और अंतरिक्ष में उपयोग के लिए बायोमेडिकल रिसर्च के विस्तार और क्लीनिकल तकनीक के विकास के अलावा पृथ्वी पर एवं अंतरिक्ष में इंसानी सेहत को बेहतर बनाने के लिए इन स्थानों पर उपलब्ध सुविधाओं में शोध को बढ़ावा देना था।” यह नासा और किसी दूसरी एजेंसी के बीच अपनी तरह का पहला समझौता था।

एनआईएच और नासा के बीच इस समझौते और इसके बाद के दूसरे समझौतों ने आपसी सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया जिसके नतीजे में एनआईएच बायोमेड-आईएसएस प्रोग्राम के तैयार किया गया। इस कार्यक्रम ने वैज्ञानिकों को माइक्रोग्रेविटी और रेडिएशन युक्त आईएसएस के अनोखे वातावरण में बायोमेडिकल रिसर्च से संबंधित नए विचारों के परीक्षण को प्रोत्साहित किया जिससे पृथ्वी पर मानव स्वास्थ्य को फायदा पहुंच सके।

एनआईएच के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्थराइटिस एंड मस्कुलोस्केलेटल एंड स्किन डिज़़ीज (एनआईएएममएस) में वैज्ञानिक योजना, नीति और विश्लेषण शाखा के उप प्रमुख डॉ. जोनेल ड्रगन के अनुसार, “एनआईएच ने 2010 में इस कार्यक्रम के पहले तीन अनुप्रयोगों और 2011 में चौथे के लिए पैसे का इंतजाम किया।” आईएसएस पर अंतरिक्ष यात्रियों ने वित्तपषित अनुदानों में से तीन पर अनुसंधान किया, जिनमें ओस्टियोब्लास्ट जीनोमिक्स और मेटाबोलिज्म के

ग्रेविटेशनल रेगुलेशन, ऑस्टियोसाइट्स और मैकनो-ट्रांसडक्शन एवं अंतरिक्ष उड़ानों और एजिंग की प्रक्रिया में प्रतिरक्षा का दमन संबंधी विषय शामिल हैं।

मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के डॉ. पाओला डिविटी पाजेविक द्वारा विकसित ऑस्टियोसाइट्स और मैकेनो-ट्रांसडक्शन अध्ययन ने सेलुलर और मॉलिक्युलर मैकेनिज्म का अध्ययन किया जो हड्डियों को गुरुत्वाकर्षण जैसी तनाव की स्थिति में प्रतिक्रिया करने का मौका देता है। इसका मकसद ऐसी थैरेपी को विकसित करना था जो बीमारी या चोट के कारण सीमित शारीरिक गतिविधि वाले व्यक्तियों में नुकसान को कम कर सके।

2021 में, डॉ. पाजेविक ने निष्कर्ष प्रकाशित किया जिसमें बताया गया था कि आईएसएस पर माइक्रोग्रेविटी ने हड्डी की प्रमुख यांत्रिक संवेदी कोशिकाओं, ऑस्टियोसाइट्स की जीन अभिव्यक्ति को बदल दिया है। निष्कर्षों से यह भी पता चला कि आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले कुछ सतह-आधारित सिमुलेटेड माइक्रोग्रेविटी उपकरण अंतरिक्ष जैसी स्थितियों की सटीक नकल नहीं करते हैं। इन निष्कर्षों का न सिर्फ अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रमों के लिए महत्व है बल्कि इनका महत्व कम चलने फिरने के कारण कम दबाव की स्थिति में हड्डियों के क्षरण को समझने और उसके इलाज की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है।

साभार- spanmag.com/hi/ से