भुवनेश्वर। 26 अगस्त को स्थानीय श्रीश्याममंदिर,झारपाड़ा में मंदिर सेवा समिति ट्रस्ट के सौजन्य से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हर्षोल्लास के साथ मनाई गई। समिति के अध्यक्ष पवन गुप्ता,महासचिव सुरेश कुमार अग्रवाल,ट्रस्टी चेतन टेकरीवाल,शिवकुमार अग्रवाल तथा मारवाड़ी सोसायटी भुवनेश्वर के अध्यक्ष संजय लाठ समेत अनेक श्रीकृष्ण भक्तों ने आयोजन में हिस्सा लिया। भक्तों ने नंद के लाल को चांदी के झूले पर झुलाया।गौरतलब है कि मंदिर के खाटू नरेश भगवान समेत सभी देवी-देवियों के मंदिरों को फूलों से सजाया गया था।
श्रीश्याम मंदिर,झारपाड़ा में मनाई गई श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
हमारी हथेलियों में क्या रहस्य छुपा है !
” उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् !
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:!! ”
यदि वर्तमान संताने हम सब हैं तो दिवंगत महापुरुष या पूर्वज हमारे अग्रज हैं !अतः अपने प्रतापी अग्रजों या पूर्वजों के स्मरण मात्र से हमारे हृदय में स्वाभिमान के पवित्र भाव भर उठते हैं। जिस कारण प्रसन्नता, स्फूर्ति ,उल्लास, दृढ़ता और उत्साह के साथ अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ता हुआ मनुष्य नई-नई सफलताएं अवश्य प्राप्त करता है! सफलता के लिए नित नई-नई उपलब्धियां जितनी जरूरी हैं उतनी ही जरूरी है अपनी खूबियों को जानना अर्थात् स्वयं को जानना, अपने इर्द-गिर्द की विशेषताओं को समझना! अपने देश को जानना !यहां की विशेषताओं का बोध करना और उसे अपने जीवन में उतरना तथा उस पर विश्वास बनाए रखना!
“कराग्रे वसते लक्ष्मी: कर मध्ये सरस्वती !
करमूले तू गोविंद: प्रभाते कर दर्शनम्!! ”
क्योंकि हमारे हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी का निवास है ! हाथ के मध्य भाग में सरस्वती तथा हाथ के मूल में विष्णु देव का निवास है! कोई भी काम यानि पुरुषार्थ हाथों से ही किए जाते हैं और कर्म की मूल में अर्थात् जड़ में संपूर्ण जगत का पालन करने वाले गोविंद भगवान विष्णु का वास होता है! अतः उनका ध्यान करके हाथों के मध्य में ज्ञान- विज्ञान की देवी सरस्वती का वास होता है! जिनका ध्यान करने के परिणाम स्वरुप सभी के सुखों को देने वाली देवी लक्ष्मी की प्राप्ति होगी, यही तात्पर्य लेकर अपने हाथों का दर्शन करके अपने दिन को मंगल बनाने की प्रार्थना की जाती है, जिससे हमारा दिन मंगलमय हो!
” ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरान्तकारी, भानु शशी भूमि सुतो बुधश्च!
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव:, कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्!! ”
अरब सागर में डूबी पुरातन द्वारका
भारत से सटा समुद्रअपने आप में कई रहस्य समेटे हुए हैं। समुद्र के नीचे आज भी ऐसी कई साइट्स दबी हुई हैं जिनके बारे में कम लोगों को जानकारी है। कुछ वर्षों पहले एक ऐसी ही जगह की खोज हुई थी जिसके बारे में हर कोई हैरान था। ऐसी ही है गुजरात के एतिहासिक द्वारका नगरी । जिसके प्रमाण आज भी गहरे समुद्र में मौजूद है।
सप्त पुरी चार धाम में शामिल
द्वारका धाम हिंदू धर्म के चारों धामों में से एक है। यह गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में अरब सागर के द्वीप पर स्थित है। इस नगरी का धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। ऐसी मान्यता है कि मथुरा छोड़ने के बाद अपने परिजनों एवं यादव वंश की रक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण ने भाई बलराम तथा यादववंशियों के साथ मिलकर द्वारका पुरी का निर्माण विश्वकर्मा से करवाया था। यदुवंश की समाप्ति और भगवान श्रीकृष्ण की जीवनलीला पूर्ण होते ही द्वारका समुद्र में डूब गई मानी जाती है। इस क्षेत्र का प्राचीन नाम कुश स्थली था। धार्मिक दृष्टि से द्वारका को चार धाम और सप्तपुरियों में भी गिना जाता है।
आज की द्वारिका से अलग
आज वर्तमान में स्थित द्वारका, गोमती द्वारका के नाम से जानी जाती है। यहां आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए आदि शंकराचार्य ने द्वारकापीठ की स्थापना की थी। और अनेक मंदिरों वा धर्म स्थलों को निर्मित किया गया। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों में भी इस क्षेत्र में रेत एवं समुद्र के अंदर से प्राचीन द्वारका के अवशेष प्राप्त हुए हैं। द्वारका की स्थिति एवं बनावट समुद्र के बीच द्वीप पर बने किले के समान है।
पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन द्वारका नगरी खुद भगवान श्रीकृष्ण ने बसाई थी. जो एक वक्त के बाद समंदर में समा गई। द्वारकाधीश मंदिर के पुजारी मुरली ठाकर के अनुसार द्वारका 84 किलोमीटर में फैली दुर्गनुमा सिटी थी, जो गोमती नदी और अरब सागर के संगम के तट पर बसी थी।
पानी में डूबी द्वारका की जानकारी
प्राचीन द्वारका नगरी, कुछ दशक पहले तक काल्पनिक मानी जाती थी। पहली बार भारतीय वायु सेना के पायलटों की नजर, द्वारका के समुद्री अवशेष पर पड़ी, जो समुद्र में बहुत नीचे से उड़ान भर रहे थे। 1970 के जामनगर के गजेटियर में इस बात का उल्लेख मिलता है।आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि बीसवीं सदी के मध्य में पहली बार द्वारका नगरी को ढूंढने का प्रयास हुआ। 1960 के दशक में पहली बार डेक्कन कॉलेज पुणे ने यहां खुदाई की थी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 1979 में एक और खुदाई की। जिसमें कई तरह के पात्र, घड़े, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और कई दूसरे अवशेष मिले हैं ।
पुरातत्व विभाग के मुताबिक इस खुदाई में 500 से ज्यादा चीजें मिलीं, जिनकी डेटिंग से पता लगा कि यह 2000 साल से ज्यादा पुरानी हैं। पानी के अंदर पत्थर के बड़े-बड़े कॉलम, अवशेष जैसी चीजें मिलीं हैं।
2007 की खुदाई से बदला इतिहास
साल 2007 में पहली बार द्वारका में बड़े पैमाने पर खुदाई की गई। 200 मीटर के एरिया में खुदाई शुरू हुई थी ,फिर 50 मीटर का एरिया ऐसा मिला, जहां ज्यादा चीजें मिल रही थीं। इसके बाद दो नॉटिकल मील का हाइड्रोग्राफिक सर्वे किया गया, जिससे पता चला कि उस खास जगह नदी का प्रवाह लगातार बदल रहा है। इसके बाद उस जगह की ग्रेडिंग की गई और बाकायदा एक-एक ग्रेड की खुदाई और सर्वे शुरू हुआ था। इस खुदाई में पिलर, सिक्के, पात्र, बड़े-बड़े कॉलम जैसी चीजें मिलीं हैं। तमाम पत्थरों पर समुद्री घास जम गई थी। जब उन्हें हटाया गया तो वास्तविक आकार का पता चला था।
द्वारका की खुदाई में कई बड़े-बड़े लंगर पाए गए, जिससे यह साफ हो गया कि द्वारका एक ऐतिहासिक बंदरगाह शहर था। कुछ आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि संस्कृत में द्वारका शब्द का मतलब ‘द्वार’ या ‘दरवाजा’ होता है। द्वारका की खुदाई में जैसी चीजें मिली हैं, उससे प्रतीत होता है कि यह प्राचीन बंदरगाह शहर भारत आने वाले विदेशी नागरिकों के लिए कभी दरवाजे की तरह प्रयुक्त होता था। इसने 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच अरब देशों से व्यापारिक संपर्क में अहम भूमिका निभाई होगी।
राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पूर्व चीफ साइंटिस्ट डॉ. राजीव निगम के अनुसार जब यह साफ हो गया कि समुद्र के नीचे शहर का अवशेष है तो हमने यह पता लगाने की कोशिश की कि आखिर यह डूबा कैसे होगा? पिछले 15000 साल के दौरान समुद्र के स्तर की पड़ताल की गई। इससे पता चला कि 15000 साल पहले समुद्र का स्तर, 100 मीटर नीचे हुआ करता था। 7000 साल पहले समुद्र का जल स्तर बढ़ना शुरू हुआ और करीब 3500 साल पहले समुद्र का स्तर, ऐसे लेवल पर पहुंच गया, जहां अभी है और ठीक इसी वक्त द्वारका नगरी डूबी होगी।
गांधारी के श्राप का रहस्य
यह तो हुई साइंस की बात, लेकिन द्वारका नगरी डूबने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। पहली मान्यता गांधारी के श्राप से जुड़ी है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध में पांडवों की जीत हुई और कौरव खत्म हो गए, तब गांधारी ने श्री कृष्ण को महाभारत का दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि उनके कुल का नाश हो जाएगा और यही श्राप द्वारका डूबने की वजह बनी।
महाभारत के 23वें और 24वें श्लोक के अनुसार जिस दिन श्रीकृष्णा 125 साल की आयु के बाद आध्यात्मिक दुनिया में शामिल होने के लिए पृथ्वी छोड़कर गए, उसी दिन द्वारका नगरी अरब सागर में डूब गई थी। यही वह समय था जब कलयुग की शुरुआत हुई थी।
द्वारका के समंदर में डूबने की एक एलियन थ्योरी भी है। एलियन सिद्धांत में विश्वास रखने वाले कुछ वैज्ञानिक ऐसा भी मानते हैं कि प्राचीन द्वारका नगरी पर एक उड़ने वाली मशीन या यूएफओ द्वारा हमला किया गया था।यह लड़ाई तकनीक और शक्तिशाली हथियारों के साथ लड़ी गई थी। एलियन स्पेसशिप ने ऊर्जा हथियारों का इस्तेमाल किया और शहर पर हमला किया था, जो बिजली गिरने जैसा प्रतीत हो रहा था। यह हमला इतना विनाशकारी था कि हमले के बाद शहर का अधिकतर हिस्सा खंडहर में बदल गया। यद्यपि इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पाई है।
आर्कियोलॉजिस्ट और समुद्र विज्ञानी प्राचीन द्वारका नगरी के और राज जानने की कोशिश में जुटे हैं। वैज्ञानिक अब इस प्राचीन शहर की दीवारों की नींव की तलाश के लिए पानी के नीचे खुदाई की तैयारी कर रहे हैं, ताकि इस बात का सही-सही पता लगाया जा सके कि अवशेष कितने पुराने हैं।
पनडुब्बी से लोग करेंगे द्वारका का दर्शन
मिली जानकारी के मुताबिक, गुजरात सरकार पनडुब्बी से लोगों को द्वारका का दर्शन कराएगी। राज्य के पर्यटन विभाग के मझगांव डॉक के साथ किए गए समझौते के मुताबिक. ट्रांसपेरेंट पनडुब्बी से लोग 300 फीट नीचे जाकर द्वारका नगरी के दर्शन कर सकेंगे। हालांकि, अभी करार प्राथमिक चरण में है।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )
भगवान कृष्ण की बहन अष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?
द्वापर युग से जुड़ी हुई यह घटना है। भगवान विष्णु की माया कन्या ( अष्टभूजी) के रूप में अपने इष्टदेव के कार्य सिद्धि के लिए अवतरित होती है।अष्टभुजी मां भगवान कृष्ण की बहन के रूप में भी जानी जाती है। पापी कंस ने अपनी मृत्यु के डर से अपनी बहन देवकी को पति सहित कारागार में कैद कर लिया था।अपने विनाश के भय से वह देवकी की कोख से जन्म लेने वाले हर बच्चे को वध करता गया। इसी बीच भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही उनके पालक मां यशोदा के कोख से ज्ञान की देवी अष्टभुजी अवतरित होती है, जो कंस के हाथों से छूट कर विंध्याचल पहाड़ी पर विराजमान होती है और तब से मां अष्टभुजी अपने भक्तों को अभय प्रदान कर रही हैं।
अष्टभुजी देवी की चेतावनी
माँ अष्टभुजी का जन्म नन्द बाबा के घर में हुआ था और वह भगवान कृष्ण की बहन थीं। उस महामाया ने कंस को चेतावनी दी थी-
“तुम्हारे जैसा दुष्ट मेरा क्या बिगाड़ लेगा?” तुम्हें मारने वाला पहले ही पैदा हो चुका है।”
ऐसा कहकर देवी आकाश की ओर उड़ गईं और विंध्य पर्वत पर उतर गईं, जिसका वर्णन मार्कंडेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती में इस प्रकार किया है – “नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभव, ततस्तो नष्टयिष्यामि विंध्याचल निवासिनी”।
नवरात्रि में विशेष महत्त्व
विंध्य पर्वत पर त्रिकोण मार्ग पर स्थित ज्ञान की देवी मां सरस्वती रूप में मां अष्टभुजी के दर्शन के लिए नवरात्र में देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का तांता लगता है।मार्कंडेय पुराण में मिलता है मां के अवतार का वर्णन विंध्याचल में नवरात्रि के आठवें दिन मां विंध्यवासिनी के महागौरी स्वरूप का दर्शन पूजन होता है। असुरों के भय से नर और नारायण को मुक्ति दिलाने वाली मां के विभिन्न रूपों में एक रूप माता अष्टभुजा का भी है। मां अष्टभुजी ज्ञान की देवी हैं। इनके दर्शन करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। नवरात्रि के समय माता के दरबार में मनोकामना लेकर हजारों भक्तों पहुंचते हैं। उन्हें मां की कृपा से असीम सुख मिलता है।
अष्टभुजी देवी का मंदिर की अवस्थिति
अष्टभुजी देवी का मंदिर विंध्याचल मां विंध्यवासिनी की मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। विंध्य पर्वत के 300 फुट ऊंचाई पर स्थित मां अष्टभुजी मंदिर पर जाने के लिए 160 पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई है। देवी की प्रतिमा एक लंबी और अंधेरी गुफा में है।
गुफा के अंदर दीप जलता रहता है, जिसके प्रकाश में श्रद्धालु देवी मां का दर्शन गुफा में करते हैं। प्राकृतिक गोद में बसा हुआ मां का अष्टभुजी मंदिर बड़ा दिव्य और रमणीक है। यह स्थान अपने शांत और सुंदर दृश्यों के कारण भक्तों के साथ-साथ पर्यटकों के बीच भी लोकप्रिय है। तभी से मां विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर निवास कर अपने भक्तों को आशीर्वाद देती आ रही हैं। नवरात्रि के दौरान विंध्यधाम में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ जाती है। अष्टभुजा देवी मंदिर में अष्टभुजा देवी की पूजा और दर्शन के बिना त्रिकोण परिक्रमा अधूरी है। विंध्य क्षेत्र के एक तरफ आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी हैं, जबकि दूसरी तरफ महाकाली और महासरस्वती (अष्टभुजा देवी) हैं, जो इस क्षेत्र को एक पवित्र तीर्थ स्थल बनाती हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम
देशभर में कृष्ण जन्माष्टमी आज धूमधाम से मनाई जा रही है। देश के विभिन्न मंदिरों में खास तैयारियां की गई हैं और सुबह से ही श्रद्धालुजन मंदिर में कान्हा के दर्शन करने के लिए आ रहे हैं। भगवान कृष्ण के जन्मस्थली मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के भव्य तैयारियां की गई हैं और भक्तों के लिए खास व्यवस्था की गई है। लोग अपने घरों को सजाते हैं, दही-हांडी प्रतियोगिता आयोजित करते हैं और भगवान कृष्ण के बाल रूप की पूजा करते हैं।यह त्योहार प्रेम, करुणा और सच्चाई के प्रतीक भगवान कृष्ण की याद में मनाया जाता है। कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर भगवान श्री कृष्ण को छप्पन भोग लगाया जाता है। साथ ही विशेष पोशाक पहनाकर उनका श्रृंगार भी किया जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन व्रत रखने, दान करने और भगवान कृष्ण के मंदिरों में जाने का विशेष महत्व होता है।
नारी की त्रि-शक्तियाँ
नारी (मां) में त्रि-शक्तियाँ होती है – प्रेरक, तारक और मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देने वालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जब आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति – मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामर्थ्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभव सा लगने वाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरों तले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिरोधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडने वाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजी का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा।
भगवान कृष्ण की सहचरीअष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?
श्री कृष्णा की सहचरी और उनके लक्ष्य की सहायिका के जन्म के क्षण को देश वह सम्मान नहीं दे रहा है जो मिलना चाहिए ।
“यस्य नार्यस्तु पुजंते रमंते तत्र देवता” वाले देश में इस देवी का जन्मोत्सव भी श्री कृष्णा जन्मोत्सव के समान ही मनाया जाना चाहिए। इसमें तनिक भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। हर श्रीकृष्णा के पंडाल में प्रमुखता के साथ मां अष्टभुजी देवी का जन्मोत्सव बड़ी धूम धाम से मनाया जाना चाहिए।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )
स्वच्छ्ता की अलख जगाने में जुटी पीएसआई-इंडिया सम्मानित
संस्था के ईडी मुकेश शर्मा ने ग्रहण किया सीएसआर टाइम्स अवार्ड-2024
लखनऊ। राजधानी लखनऊ में स्वच्छ्ता की अलख जगाने में जुटी पापुलेशन सर्विसेज इंटरनेशनल-इंडिया (पीएसआई-इंडिया) संस्था को 11वें राष्ट्रीय सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) शिखर सम्मेलन में ख्यातिप्राप्त सीएसआर टाइम्स अवार्ड-2024 से सम्मानित किया गया। गोवा के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत, राज्यसभा सदस्य सदानंद तनावडे व अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति में राजभवन गोवा में आयोजित समारोह में संस्था की तरफ से एक्जेक्युटिव डायरेक्टर मुकेश कुमार शर्मा ने इस गौरवपूर्ण सम्मान को ग्रहण किया।
इस अवसर पर श्री शर्मा ने कहा कि लोगों को स्वस्थ बनाना है तो पहले वहां स्वच्छ्ता की मुहिम चलानी जरूरी है। इसी के तहत ‘स्वच्छ बनेगा तभी तो स्वस्थ बनेगा लखनऊ’ सोच के साथ यह ‘स्वच्छ उदय’ अभियान चलाया जा रहा है। एचसीएल फाउन्डेशन की मदद से लखनऊ के 16 वार्डों में चलायी जा रही इस अनूठी परियोजना ‘स्वच्छ उदय’ को नगर निगम लखनऊ का पूरा सहयोग प्राप्त है। पीएसआई-इंडिया के पर्यावरण प्रबन्धन, वन, नदी व जल संरक्षण, जलवायु कार्रवाई और स्वस्थ भारत-विकसित भारत की दिशा में किये जा रहे सराहनीय प्रयासों के तहत संस्था को इस सम्मान से नवाजा गया है। ज्ञात हो कि पीएसआई इंडिया लखनऊ नगर निगम के सहयोग से मोहल्ला स्वच्छता समितियों का गठन कर मोहल्लों में साफ़-सफाई, पानी के रखरखाव, स्वच्छ पेयजल, सबमर्सिबल वाटर स्टैंड पोस्ट की सुरक्षा, कूड़े का व्यवस्थित तरीके से निवारण और डोर टू डोर आने वाली कूड़ा गाड़ी की सेवाओं के उपयोग, सेप्टिक टैंकर सेवाओं के उपयोग के प्रति जागरूकता में जुटी है। इसके अलावा बच्चों को हाथों की स्वच्छ्ता के लिए हैण्डवाश के सही तरीके सिखाये जा रहे हैं ताकि उनमें शुरुआत से ही इसके प्रति व्यवहार परिवर्तन आ सके। दूषित हाथों से खाना खाने, आँख-नाक छूने से कई संक्रामक बीमारियाँ बच्चों को घेर लेती हैं और कुपोषित बनाती हैं। इसी उद्देश्य से बच्चों को शौच के बाद और खाना खाने से पहले हाथों को अच्छी तरह से धुलने के तरीके सिखाये जा रहे हैं ताकि वह स्वस्थ बन सकें और उनकी शिक्षा प्रभावित न हो सके। महिला आरोग्य समितियों को भी सक्रिय कर इस मुहिम में मदद ली जा रही है। वार्ड के पार्षद भी इस मुहिम को सराह रहे हैं और अपने वार्ड को स्वच्छ व स्वस्थ बनाने में पूरी ताकत के साथ जुटे हैं।
योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि
प्रायः महापुरुषों के तीन रूप हुआ करते हैं। लोक रञ्जक रुप, यथा श्री कृष्ण जी की वृन्दावन की लीलाएं इस रूप का, शस्त्र होता है- वंशी। दूसरा रूप होता है लोक शिक्षक रूप, यथा महाभारत युद्ध में गीतोपदेश तथा उधव को धर्मोपदेश। इस रूप में शंख धारण किया जाता है, यथा युद्ध में ‘पाञ्चजन्यम हृषीकेशं’ भगवान् कृष्ण का पांचजन्य शंख। तीसरा रूप होता है महापुरुषों का लोक रक्षक, यथा दुष्ट संहारक युद्धों में। इसका शस्त्र होता है- चक्र। सुदर्शन चक्र से ही शिशुपालादि असुरों का संहार किया।
भगवान् कृष्ण ने तीनों रूपों में जनता को दर्शन दिये और कल्याण किया। उनके जीवन की घटनाएं, कविताओं में है अतः उनके भाव को समझना कठिन हो जाता है। जैसे वृन्दावन के चरित्र में राजनैतिक भूमिकाएं थीं उन्हें श्रृंगार रस में डुबोकर भक्तों ने आक्षेप योग्य बना डाला है। आनन्द मठ के राष्ट्रीय गान के निर्माता श्री बंकिम चन्द्र जी चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि मैं महाभारत के श्री कृष्ण को तो मान सकता हूं, पर गीत गोबिन्द के श्री कृष्ण को नहीं।
गीत गोबिन्द में जयदेव ने श्री कृष्ण के लोक रञ्जक रूप को श्रृंगार में डुबोकर विकृत कर दिया है। भगवान् के नाम पर अपने मन के श्रृंगारी भावों की भड़ास निकाली है। श्री कृष्ण भगवान् के विषय में ऋषि दयानन्द का विचार कितना उच्च भावों से भरा है-
“देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।” (सत्यार्थप्रकाश ११ वां समु०)
वास्तव में श्री कृष्ण भगवान् वैदिक आर्य थे। यह उनकी उपासना विधि से विदित हो जाता है। यदि कोई मनुष्य नमाज पढ़ता हो तो मुसलमान माना जाएगा। मूर्तिपूजक हैं तो जैन, बुद्ध, पौराणिक या कैथोलिक, ईसाई ठहरेगा। इसी प्रकार सन्ध्या, अग्निहोत्र, गायत्री जप करने वाले को वैदिकधर्मी आर्य कहा जायेगा।
अब देखिये, श्रीमद्भागवत् में श्री कृष्ण भगवान् की दिनचर्या- दशम स्कन्ध, अध्याय ७० में-
ब्राह्मो मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्यमाधव:।
दध्यौ प्रसन्नकरण: आत्मानं तमस: परम्।।४।।
एकं स्वयं ज्योतिरनन्तमव्ययं स्व संस्थ्या नित्य निरस्त कल्मषम्।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाश हेतुभि: स्व शक्तिभिलर्क्षितभाव निर्वृतिम्।।५।।
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथा विधि क्रिया कलापं परिधाय वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग् यत:।।६।।
अर्थ- श्री कृष्ण जी ब्रह्म मुहूर्त (उषा काल में) उठे और शौच आदि से निवृत हो प्रसन्न अन्तःकरण से तमस से परे आत्मा अर्थात् परमात्मा का ध्यान किया।।४।।
परमात्मा के विशेषण
जो एक है, स्वयं ज्योति स्वरूप है, अनन्त है, अव्यय परिवर्तन रहित है, अपनी स्थिति से भक्तों के पापों को नष्ट करता है, उसका नाम ब्रह्म है, इस संसार की रचना और विनाश के हेतुओं से अपने अस्तित्व का प्रमाण दे रहा है और भक्तों को सुखी करता है।।५।।
और निर्मल जल में स्नान करके यथा विधि क्रिया के साथ दो वस्त्र धारण करके सन्ध्या की विधि की और श्रेष्ठ श्री कृष्ण ने हवन किया और मौन होकर गायत्री का जाप किया।।६।।
श्लोक में आये ब्रह्म शब्द का अर्थ श्रीमद्भागवत् की संस्कृत टीका में श्रीधर स्वामी ने गायत्री जाप इत्यर्थः- गायत्री किया है। गीताप्रेस की हिन्दी टीका में भी ऐसे ही अर्थ हैं। श्रीमद्भागवत् में कहीं भी श्री कृष्ण द्वारा मूर्तिपूजा करना नहीं मिलता है और वाल्मीकि रामायण में कहीं श्री राम द्वारा मूर्तिपूजा का नाम नहीं।
अब ईश्वर के नाम के विषय में देखिये- गीता के ८वें अध्याय का श्लोक है-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामऽनुस्मरन्
य: प्रयाति त्यजनदेहं स याति परमां गतिम्।
अर्थ- ओ३म् इस एक अक्षर ब्रह्म (शब्द) बार-बार जपता हुआ और मेरा अनुस्मरण करता हुआ जो शरीर को छोड़कर परलोक को जाता है, वह मोक्ष को पाता है।
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
आपातकाल के पहले का घटनाक्रम
ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान : इन्दिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ का एक अंश जिसमें आपातकाल लगने से ठीक पहले देश में घट रही अनेक घटनाओं का वर्णन है।
सन् 1973 की शुरुआत तक पहुँचते-पहुँचते चुनावों में अभूतपूर्व बहुमत हासिल कर, 1971 के युद्ध में चिरशत्रु पाकिस्तान को नाकों चने चबवाकर, कांग्रेस पार्टी को अपनी मुट्ठी में दबा और न्यायपालिका को अपने वश में कर श्रीमती गांधी ने जैसे हर मोर्चा फ़तेह कर लिया था। लेकिन यह विजयी भाव अल्पकालिक रहा। लगातार दो मानसून पर्याप्त बारिश नहीं हुई, जिसने कृषि उपज को सीधे प्रभावित किया और वैश्विक स्तर पर उभरे तेल संकट ने क़ीमतों में आग लगा दी। एकदम से ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा एक भद्दा मज़ाक़ लगने लगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की ग़रीबी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। सारे आर्थिक सूचकांक डूब की दिशा में थे।
उत्पादकों और व्यापारियों ने अपने गोदाम भर लिये। कालाबाज़ारियों की चाँदी हो गई। इधर व्यापारी समुदाय जनसंघ के पीछे हो लिया, जिसके वे पहले से ही पारम्परिक समर्थक रहे थे। उधर बड़े किसान विपक्ष की अन्य किसान समर्थक पार्टियों के पीछे खड़े हो गए। कांग्रेस में तो ग़ैर-ज़मीनी नेताओं की भरमार थी जो निरन्तर गुटबाज़ी में उलझे रहते थे। उनके पास ऐसा कोई साधन ही नहीं था कि वे गाँवों के स्तर पर हस्तक्षेप कर इस सरकारी ख़रीद की परियोजना को पटरी पर ला पाते। सरकार खाद्यान्न ख़रीदने में ही नाकामयाब नहीं हो रही थी, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा रही थी।
भारत के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सुधारों को गति देना अब इन्दिरा के एजेंडा में कहीं पीछे छूट गया था। वाम क्रान्तिकारी छवि तभी तक अच्छी थी जब तक वो राजनीतिक विरोधियों को उखाड़ फेंकने में मदद दे रही थी। एक बार वो मिशन पूरा होने के बाद इन्दिरा ने अपने ‘युवा तुर्कों’ के पर कतरते देर नहीं लगाई। उन्होंने पार्टी के भीतर समाजवादी धड़े द्वारा बनाए ‘कांग्रेस फोरम’ के प्रत्युत्तर में ‘नेहरू फोरम’ के गठन को प्रोत्साहन दिया। जब इन दोनों गुटों के बीच आपसी तूतू-मैंमैं ने विवाद का रूप लिया तो इसे ही बहाने के बतौर इस्तेमाल करते हुए इन्दिरा ने दोनों फोरम को भंग कर दिया।
मई, 1973 में इंडियन एयरलाइन्स की विमान दुर्घटना में कुमारमंगलम की असमय मृत्यु ने वाम धड़े को और कमज़ोर बना दिया। इन्दिरा अब पार्टी पर एकछत्र शासन करने को तैयार थीं। उस दौर के ब्योरे बताते हैं कि उनके समाजवादी लक्ष्य अब पार्टी और प्रशासन पर सम्पूर्ण नियंत्रण के लक्ष्य में बदल चुके थे। लेकिन ऊपर से सम्पूर्ण दिखनेवाली यह सर्वशक्तिशाली सत्ता भीतर से खोखली होती जा रही थी। एक अभूतपूर्व ‘शासकीय संकट’ मुँह बाये सामने खड़ा था।
इन्दिरा के दौर में पार्टी और लोकतांत्रिक संस्थाओं का जिस तरह ‘संस्थागत ह्रास’ हुआ, उसने संविधान में रचे नाज़ुक सन्तुलन को हिला दिया। और माहौल में तारी ‘अराजक अभिव्यक्तियों’ ने मामले को विस्फोट की कगार पर ला दिया।
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने यह कविता 1950 में भारत के एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के उपलक्ष्य पर लिखी थी। ‘वीर रस’ से ओतप्रोत यह कविता सदियों से शोषण की ज़ंजीरों में जकड़े इस मुल्क के लोगों के अन्तत: राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने का जयघोष है। लेकिन जब 1974 में जेपी ने इसे भरी सभा के सामने मंच से उद्धृत किया, संविधान से परे जाकर आज़ादी हासिल करने का यह उद्घोष मारक स्वर लिये था। नाटकीय अन्दाज़ में की गई ‘सिंहासन ख़ाली करो’ की उद्घोषणा इन्दिरा की निरंकुश सत्ता के ताबूत में आख़िरी कील ठोके जाने की आवाज़ सरीखी सुनाई पड़ी थी।
‘जनता’ को अपने पाले में करने की होड़ शुरू हो चुकी थी। इस होड़ में इन्दिरा की कोशिश थी कि वे मध्यस्थ संस्थाओं को एक किनारे कर जनता तक सीधी अपनी पैठ बनाएँ। उधर जेपी जनजागरण के अस्त्र का इस्तेमाल कर इन्दिरा की सत्ता को डिगाना चाहते थे। जब जेपी ने बिहार विधानसभा को भंग करने की माँग उठाई, तो चुने हुए सदन को कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करने को इन्दिरा ने अलोकतांत्रिक बताकर ख़ारिज कर दिया। इस निर्णय पर उन्हें अपनी पार्टी और समर्थक सीपीआई से बाहर भी समर्थन मिला। अख़बार ‘दि पायनियर’ ने लिखा कि जेपी द्वारा ‘क़तई बलात् और ग़ैर-लोकतांत्रिक’ तरीक़ों का सहारा लेकर विधानसभा भंग करने की माँग करना ‘साक्षात आग से खेलने’ बराबर है।
कश्मीर को चुनावों में धाँधली और पुलिस के बल पर इकट्ठा रखा गया। इन्दिरा ने इन तमाम असामान्य कार्यकलापों को और गति दी, जिससे वे अपनी ही हुकूमत द्वारा पैदा किये गए इस संकट से किसी तरह निपट सकें। उधर जेपी ने लोकतंत्र की परिभाषा को विस्तार देते हुए उसे ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ में बदलने की कोशिश शुरू की। लेकिन इसे उम्मीद के मुताबिक समर्थन न मिलते देख वे पीछे हट गए और इन्दिरा को सत्ता से हटाने के सीमित लक्ष्य के साथ चल रहे अन्य विपक्षी पार्टियों के आन्दोलन में ख़ुद को झोंक दिया। इस तरह दोनों में से किसी भी पक्ष का लक्ष्य लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में फलीभूत करना या सामाजिक बदलाव लाने के उद्देश्य से इसके संस्थानों को ज़्यादा अर्थवान बनाना नहीं था। सत्ता हासिल करने को आतुर दोनों पक्ष तमाम नियम-क़ायदों को धता बताते हुए अखाड़े में कूद पड़े।
जनवरी, 1975 में बिहार में एक बम धमाके में हुई एल.एन. मिश्रा की मृत्यु के साथ इस युद्ध ने एक भयावह मोड़ ले लिया। मिश्रा को राजनीतिक हलक़ों में इन्दिरा गांधी की पार्टी का भ्रष्ट दलाल समझा जाता था। बस फिर क्या था, आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। विपक्ष ने आरोप लगाया कि हुकूमत के भ्रष्ट सौदों को लेकर कहीं उनका वो कुशल दलाल मुँह न खोल दे, इसलिए उसे पहले ही ठिकाने लगा दिया गया है। इन्दिरा ने पलटवार करते हुए जवाबी आरोप लगाया कि यह बम धमाका दरअसल उनके ख़िलाफ़ साजिश था और जेपी ने जिस हिंसा को हवा दी है, यह सब उसी का नतीजा है। इन्दिरा का आरोप था कि यह दरअसल उनकी हत्या किये जाने की ‘ड्रेस रिहर्सल’ है। “जब मेरी हत्या होगी, तब भी ये लोग कहेंगे कि इसके पीछे ख़ुद मेरा हाथ था।”
कहते हैं कि दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता। 12 जून, 1975 इन्दिरा गांधी के लिए कुछ ऐसी ही तारीख़ बन गई। दिन की शुरुआत हुई मनहूस ख़बर से। सुबह-सुबह दिल का दौरा पड़ने से गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल में डी.पी. धर की मृत्यु की सूचना आई। सत्तावन साल की आयु में असमय चले गए धर मूलत: कश्मीरी थे, इन्दिरा के पुराने दोस्त थे और उनकी सरकार में कभी मंत्री रह चुके थे। मृत्यु के समय वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत के पद पर कार्यरत थे। इस ख़बर की मनहूसी उतरी भी नहीं थी कि अगली ख़बर ने दस्तक दी। गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों में पाँच पार्टियों के संयुक्त गठबन्धन के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी को चुनावी हार मिली थी।
विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण द्वारा दायर मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्दिरा की चुनावी जीत को निरस्त करते हुए उन्हें दो पैमानों पर भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी पाया। पहले मामले में उन्होंने पाया कि इन्दिरा के निजी सचिव रहे यशपाल कपूर सरकारी सेवा से इस्तीफ़ा देने से पहले ही उनके चुनावी एजेंट बन गए थे। दूसरा मामला उत्तर प्रदेश राज्य सेवा के अधिकारियों द्वारा इन्दिरा के चुनाव प्रचार अभियान में मदद किये जाने का था। ऐसा पाया गया कि सरकारी अधिकारियों ने उनकी सभा के लिए बिजली उपलब्ध करवाने से लेकर भाषण देने के लिए ऊँचा मंच बनवाने तक का कार्य अंजाम दिया। न्यायाधीश सिन्हा ने इन्दिरा के चुनाव को निरस्त करते हुए उनके चुनाव लड़ने पर छह साल की रोक लगा दी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए इन्दिरा गांधी को बीस दिन का समय मिला।
विपक्ष के मुँह ख़ून लग चुका था। विपक्षी सांसद पीलू मोदी ने घोषणा की कि इन्दिरा अब विधिसम्मत प्रधानमंत्री नहीं रही हैं : “हमें तो यह देखना होगा कि इस ढोंगी से अब कैसे निपटा जाए।” बाक़ी तमाम ग़ैर-सीपीआई दलों ने भी एक स्वर में उनके इस्तीफ़े की माँग उठाई। जेपी ने भी फ़ौरन बयान जारी करते हुए न्यायाधीश सिन्हा के निर्णय की दाद दी और इन्दिरा के इस्तीफ़े की माँग की। कुछ ही दिनों बाद जेपी ने अपनी माँग को और विस्तार से दोहराया और कहा कि इन्दिरा का कहना कि ये तो बस ‘तकनीकी’ भूल है, निरर्थक बात है। उन्होंने फिर ज़ोर दिया कि इन्दिरा ने क़ानून तोड़ा है और उन्हें इस्तीफ़ा देना चाहिए। इलाहाबाद के निर्णय ने एक झटके में इन्दिरा के ख़िलाफ़ लिखे जा रहे राजनीतिक आरोपपत्र को क़ानूनी अभियोग में बदल दिया था।
इन्दिरा इस सबसे चकित थीं। उनके निजी सचिव पी.एन. धर लिखते हैं कि वे एकान्तप्रिय हो गई थीं और सबसे खिंची-खिंची सी रहने लगी थीं। हक्सर के योजना आयोग में चले जाने और डी.पी. धर की मृत्यु के बाद अब उनके योग्य कश्मीरी सहयोगियों की टोली में से सिर्फ़ पी.एन. धर ही उनके साथ बचे थे। धर लिखते हैं कि इन्दिरा का आवास उन दिनों सलाहकारों, मंत्रियों, क़ानूनी विशेषज्ञों एवं अन्य मददगारों से भरा रहता था। धर बताते हैं कि उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफ़ा दे देने की रही।
कुछ दूसरे लोग उन्हें सलाह दे रहे थे कि जब तक ये क़ानूनी पचड़ा सुलझ नहीं जाता, वे इस्तीफ़ा देकर फ़ौरी तौर पर यह ज़िम्मा अपने कैबिनेट सहयोगी जगजीवन राम को सौंप दें। लेकिन इन्दिरा महसूस कर रही थीं कि यह मामला इतना फ़ौरी भी नहीं। उन्हें अब यक़ीन हो चला था कि यह उनके ख़िलाफ़ किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। उन्होंने चिली के सल्वाडोर अलेंदे के तख़्तापलट की ओर इशारा करते हुए सीआईए और अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर अपना शक जताया। पर संजय गांधी, सिद्धार्थ शंकर राय (पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री), बंसीलाल, अन्य पार्टी सदस्य और सीपीआई उन्हें लगातार इस्तीफ़ा नहीं देने के लिए मना रहे थे।
इस बीच संजय के सिपहसालार आज्ञाकारी मंत्रियों की मदद से पड़ोस के राज्यों से ट्रेनों, बसों और ट्रकों में भर-भरकर ख़ूब नारा लगानेवाली भीड़ को इकट्ठा करते रहे। उधर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ इन्दिरा की अपील उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन थी, इधर उन्होंने 20 जून को बोट क्लब के बगीचे में एक महा जनसभा को सम्बोधित किया। उनके बाज़ुओं के पीछे उनके दोनों बेटे संजय और राजीव और साथ में बहू सोनिया खड़े थे। उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार की महती परम्परा को याद करते हुए ‘मरते दम तक’ अपनी हर साँस देशसेवा में क़ुर्बान करने की क़सम खाई। 24 जून को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी.के. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर रोक लगा दी।
न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि इन्दिरा द्वारा किये चुनावी दुराचार उच्च न्यायालय के फ़ैसले में उल्लेखित क़ानून में दर्ज ‘अति गम्भीर चुनावी दुराचारों’ की श्रेणी में नहीं आते हैं, और इसलिए यह फ़ैसला आगे सम्भवत: टिक नहीं पाएगा। लेकिन फ़ैसले पर रोक कुछ शर्तों के साथ थी। इन्दिरा प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती थीं और संसद की कार्यवाही में शामिल हो सकती थीं लेकिन जब तक उच्चतम न्यायालय की पूर्ण खंडपीठ उनकी अपील पर फ़ैसला न सुना दे, उनके सांसद के तौर पर वेतन लेने और वोट डालने के अधिकार पर रोक लगाई गई थी। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ अख़बार के सम्पादकीय ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा, “ ‘ए’ माइनस ‘बी’ बराबर ‘सी’ जैसे किसी बीजगणित के फ़ॉर्मूले को लागू करते हुए जस्टिस अय्यर ने निष्कर्ष निकाला कि सशर्त रोक (जैसी वे चाहें) में प्रधानमंत्री के संसद के किसी भी सदन की कार्यवाही में भागीदारी के अधिकार को जोड़ें तो नतीजा पूर्ण रोक में से मतदान का अधिकार घटाकर निकलता है।” इससे धेला कुछ स्पष्ट नहीं हुआ।
जोश से भरे विपक्ष ने अगले ही दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया। जेपी ने भरी सभा में भाषण देते हुए इन्दिरा पर सत्ता में बने रहने के लिए फासीवादी तौर-तरीक़ों के इस्तेमाल का इल्ज़ाम लगाया। उन्होंने पुलिस और सैन्य बलों का आह्वान करते हुए कहा कि वे संविधान विरोधी नीतियों की अवज्ञा करें सरकार को चुनौती दी कि वो चाहे तो उन पर राजद्रोह का मुक़दमा कर दे। साथ ही उन्होंने 29 जून से प्रधानमंत्री के घर के बाहर हफ़्ता भर चलनेवाले प्रदर्शनों की भी घोषणा की, जिसका उद्देश्य इन्दिरा पर इस्तीफ़े के लिए दबाव बनाना होगा।
युद्ध की रेखाएँ खिंच चुकी थीं। इलाहाबाद का फ़ैसला तात्कालिक कारण तो बना, लेकिन इस संकट के पीछे दोनों पक्षों का इकसार क़िस्म के हथकंडे अपनाना भी रहा : “इकसार लोक-लुभावन अदाएँ, संवैधानिक उपचारों को ठुकराने की इकसार आदत, प्रतिकूल जनाक्रोश की सवारी करने की भविष्य में भारी पड़नेवाली इकसार ग़लती और विपक्ष की हार को अपनी जीत समझने की इकसार भूल।” इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने भी इस ओर इशारा किया है कि यह इन्दिरा और जेपी का साथ मिलकर खड़ा किया संकट था, क्योंकि दोनों ही पक्ष “प्रतिनिधि संस्थाओं में ज़रा भी विश्वास नहीं” जता रहे थे। लेकिन पक्ष-विपक्ष के इस अन्दाज़े-बयाँ में समानताओं को रेखांकित करने के साथ ही हमें ‘निष्क्रिय क्रान्ति’ से उपजी आज़ादी और राज्य की परियोजना के असफल हो जाने के चिह्नों को भी यहाँ नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए।
आंबेडकर ने पहले ही चेताया था कि सामाजिक बदलाव लाए बिना सिर्फ़ राजनीतिक स्वतंत्रता की स्थापना अन्तत: लोकतंत्र को जोखिम में डालनेवाली साबित होगी। ‘अंकुर’ और ‘निशान्त’ में हम इस चेतावनी की शुरुआती अनुगूँजें सुन चुके थे। सड़क पर उमड़ता आक्रोश किस ओर जा रहा है, सबको दिखाई दे रहा था। इन्दिरा ने इस संकट का सामना सत्ता के केन्द्रीकरण द्वारा करना ठीक समझा, और उम्मीद करने लगीं कि इस तरह वे जनता और राज्य के बीच एक दूरगामी तारतम्य कायम कर पाएँगी। जेपी ने दिनकर की कविता के माध्यम से इन्दिरा को गद्दी छोड़ने का सीधा सन्देश दिया।
संकट का समय था और भारतीय राजनीति अपनी क्षुद्रता को प्रदर्शित कर रही थी। यह इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस और उनके विपक्षी दल दोनों ही आंबेडकर की कही बातों का मान नहीं रख पाए। आंबेडकर ने कहा था कि अगर भारत को अपने लोकतंत्र को सँवारना है तो लोकतंत्र के पौधे को सतह से नीचे उतरकर जड़ों तक जाना होगा। इसे सबके लिए समता के अधिकार को ज़मीन पर मुकम्मल करना ही होगा। लेकिन भारतीय नेताओं ने राजनीति में नैतिकता का दामन बहुत पहले छोड़ दिया और इसे केवल सत्ता हासिल करने के संघर्ष तक सीमित कर दिया। 1975 में जो हुआ, उसकी जड़ें इस नाकामी में छिपी थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने इस वृहत्तर संकट पर परदा डालते हुए बात राजनीतिक द्वंद्व से हटाकर क़ानूनी दायरे में पहुँचा दी। विपक्ष भी अब इन्दिरा को हराने के लिए बड़बोले क़ानूनी विमर्शों में रास्ता तलाशने लगा। इसके जवाब में इन्दिरा ने उसी क़ानून का सहारा लेते हुए क़ानून के राज को ही मुल्तवी कर दिया। यह इन्दिरा का आख़िरी मोर्चा था, ख़ुद के रचे इस दलदल से निकलने और अपनी सत्ता बचाने का।
साभार- https://rajkamalprakashan.com/
साहित्य-सेवी व्यास मणि त्रिपाठीजी
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समाज को आईना दिखाता उद्भ्रांत शर्मा का सृजन
लंदन में हिन्दी युवा संगम का आयोजन
लंदन ।यहाँ की सामाजिक संस्था “संगम” द्वारा आज “हिन्दी युवा संगम” का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में ब्रिटेन के युवाओं ने बढ़-चढ़ कर भागीदारी की, किसी ने कविता सुनाई, किसी ने छोटी कहानी, किसी ने गीत सुनाए तो किसी ने अनोखे विषयों पर भाषण दिया.
कार्यक्रम का संचालन आशीष मिश्रा और इशिका पांडेय ने संयुक्त रूप से किया। कार्यक्रम के संयोजक डॉ ज्ञान शर्मा ने बताया कि कार्यक्रम की दो श्रेणियाँ थीं – कनिष्ठ वर्ग और वरिष्ठ वर्ग । कनिष्ठ वर्ग की टीमों के नाम थे गंगा, यमुना और गोदावरी। वहीं वरिष्ठ वर्ग के समूहों के नाम प्राचीन शिक्षण संस्थानों पर नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला पर थे । हर टीम में दो-दो युवाओं को रखा गया।
निर्णायक मंडल में तेजिंदर शर्मा, अरुणा अजितसारिया, शिखा वार्ष्णेय और परवीन रानी शामिल थे मण्डल ने बहुत ही बारीक़ी से विभिन्न कारकों के आधार पर प्रस्तुतियों का मूल्यांकन किया। निर्णायक मंडल ने कनिष्ठ वर्ग के प्रतियोगियों में से प्रथम स्थान वेदिका गुप्ता को और द्वितीय स्थान मान्या मिश्रा को घोषित किया। वरिष्ठ वर्ग के प्रतियोगियों में से प्रथम स्थान हैदी पाठक को और द्वितीय स्थान मोहित शर्मा को प्राप्त हुआ।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पूर्व सांसद श्री वीरेन्द्र शर्मा जी एवं श्री तेजेंद्र शर्मा जी ने संगम संस्था द्वारा आयोजित युवा केंद्रित कार्यक्रम की भरपूर सराहना की।
कार्यक्रम में भारतीय उच्च आयोग से मिनिस्टर इकोनॉमिक्स निधिमणि त्रिपाठी जी एवं पूर्व कमिश्नर व जानी मानी साहित्यकार संगीता गुप्ता जी की गरिमामयी उपस्थिति रही।
कार्यक्रम में कथा यूके, IDUK, UPCA , मध्यप्रदेश एसोसिएशन यूके , अंतरराष्ट्रीय कवि संगम, बिहारी कनेक्ट, गुरुकुल यूके ने भी भागीदारी की.
कार्यक्रम में धन्यवाद प्रस्ताव डिप्टी मेयर परवीन रानी ने प्रस्तुत किया।