Tuesday, April 22, 2025
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पंचगव्य चिकित्सा को बनाया जाए चिकित्सा पद्धति का अंग.

भोपाल. गौ सेवा गतिविधि भोपाल विभाग द्वारा वनवासी कल्याण आश्रम, भोपाल में “पंचगव्य के चिकित्सकीय महत्व” पर एक प्रबोधन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता, वैद्य हितेश जानी (भूतपूर्व प्राचार्य, गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय, जामनगर) ने पंचगव्य के चिकित्सकीय लाभों पर शोध-आधारित और तथ्यपरक जानकारी साझा की।

वैद्य हितेश जानी ने देशी गौ वंश और जर्सी गाय के बीच वैज्ञानिक अंतर को सरल शब्दों में समझाते हुए, पंचगव्य पर हो रहे विभिन्न अनुसंधानों की जानकारी दी। उन्होंने विशेष रूप से गौ घृत के चिकित्सकीय लाभों पर प्रकाश डाला, जिसमें अपस्मार (Epilepsy), नेत्र रोग और गुड कोलेस्ट्रॉल पर इसके सकारात्मक प्रभावों की व्याख्या की। वैद्य जानी ने बताया कि आधुनिक विज्ञान भी अब पंचगव्य के महत्त्व और इसके वैज्ञानिक पहलुओं को मान्यता देने लगा है। उन्होंने वैद्यों से आग्रह किया कि वे शास्त्र का अध्ययन करने के साथ-साथ अनुसंधान की दृष्टि भी विकसित करें।

उल्लेखनीय है कि वैद्य हितेश जानी पिछले आठ वर्षों से पाकिस्तान सीमा से लगे कच्छ क्षेत्र के जिलों में पंचगव्य के उपयोग पर स्थानीय नागरिकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। इस अभियान के अंतर्गत अब तक 1800 से अधिक नागरिक लाभान्वित हो चुके हैं।

कार्यक्रम में गौ सेवा गतिविधि के क्षेत्र संयोजक, श्री विलास गोले जी ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चल रही गौ सेवा गतिविधियों पर विस्तार से जानकारी दी।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वैद्य मधुसूदन देशपांडे ने कहा कि, “पंचगव्य का आयुर्वेद में प्राचीन काल से व्यापक उपयोग रहा है, किंतु इसके प्रति जागरूकता का अभाव वैद्यों में देखा जाता है। पंचगव्य को अपनी चिकित्सा पद्धति का अनिवार्य अंग बनाना चाहिए।”

कार्यक्रम का संचालन गौ सेवा गतिविधि के पंचगव्य चिकित्सा प्रमुख, वैद्य शैलेश मानकर ने किया और आभार गौ सेवा गतिविधि भोपाल विभाग संयोजक, डॉ. अजय गोदिया ने व्यक्त किया। इस अवसर पर श्री राधे श्याम मालवीय, श्री सोमकान्त उमालकर, श्री राम रघुवंशी, डॉ. अनिल शुक्ला, श्री वेदपाल झा, डॉ. बी.एस. राठौर सहित भोपाल एवं आसपास के जिलों से आए 150 से अधिक वैद्य, आयुर्वेद महाविद्यालयों के प्राध्यापक और विद्यार्थी उपस्थित रहे।


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114 वर्ष पहले प्रयाग कुंभ के दौरान आरंभ हुई थी दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा

डाक सेवाओं ने पूरी दुनिया में एक लम्बा सफर तय किया है। भारत को यह सौभाग्य प्राप्त है कि दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा यहीं से आरम्भ हुई। उत्तर गुजरात परिक्षेत्र, अहमदाबाद के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि यह ऐतिहासिक घटना 114 वर्ष पूर्व 18 फरवरी, 1911 को प्रयागराज में हुई थी। संयोग से उस साल कुंभ का मेला भी लगा था। उस दिन दिन  फ्रेंच पायलट मोनसियर हेनरी पिक्वेट ने एक नया इतिहास रचा था। वे अपने विमान में प्रयागराज से नैनी के लिए 6500 पत्रों को अपने साथ लेकर उड़े। विमान था हैवीलैंड एयरक्राफ्ट और इसने दुनिया की पहली सरकारी डाक ढोने का एक नया दौर शुरू किया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव के अनुसार प्रयागराज में उस दिन डाक की उड़ान देखने के लिए लगभग एक लाख लोग इकट्ठे हुए थे जब एक विशेष विमान ने शाम को साढ़े पांच बजे यमुना नदी के किनारों से उड़ान भरी और वह नदी को पार करता हुआ 15 किलोमीटर का सफर तय कर नैनी जंक्शन के नजदीक उतरा जो प्रयागराज के बाहरी इलाके में सेंट्रल जेल के नजदीक था। आयोजन स्थल एक कृषि एवं व्यापार मेला था जो नदी के किनारे लगा था और उसका नाम ‘यूपी एक्जीबिशन’ था। इस प्रदर्शनी में दो उड़ान मशीनों का प्रदर्शन किया गया था। विमान का आयात कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने किया था। इसके कलपुर्जे अलग अलग थे जिन्हें आम लोगों की मौजूदगी में प्रदर्शनी स्थल पर जोड़ा गया।  प्रयागराज से नैनी जंक्शन तक का हवाई सफ़र आज से 114  साल पहले मात्र  13 मिनट में पूरा हुआ था।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि हालांकि यह उड़ान महज छह मील की थी, पर इस घटना को लेकर प्रयागराज में ऐतिहासिक उत्सव सा वातावरण था। ब्रिटिश एवं कालोनियल एयरोप्लेन कंपनी ने जनवरी 1911 में प्रदर्शन के लिए अपना एक विमान भारत भेजा था जो संयोग से तब प्रयागराज आया जब कुम्भ का मेला भी चल रहा था। वह ऐसा दौर था जब जहाज देखना तो दूर लोगों ने उसके बारे में ठीक से सुना भी बहुत कम था। ऐसे में इस ऐतिहासिक मौके पर अपार भीड होना स्वाभाविक ही था। इस यात्रा में हेनरी ने इतिहास तो रचा ही पहली बार आसमान से दुनिया के सबसे बडे प्रयाग कुंभ का दर्शन भी किया।

भारतीय डाक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी  श्री कृष्ण कुमार यादव के अनुसार कर्नल वाई विंधाम ने पहली बार हवाई मार्ग से कुछ मेल बैग भेजने के लिए डाक अधिकारियों से संपर्क किया जिस पर उस समय के डाक प्रमुख ने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेल बैग पर ‘पहली हवाई डाक’ और ‘उत्तर प्रदेश प्रदर्शनी, इलाहाबाद’ लिखा था। इस पर एक विमान का भी चित्र प्रकाशित किया गया था। इस पर पारंपरिक काली स्याही की जगह मैजेंटा स्याही का उपयोग किया गया था। आयोजक इसके वजन को लेकर बहुत चिंतित थे, जो आसानी से विमान में ले जाया जा सके। प्रत्येक पत्र के वजन को लेकर भी प्रतिबंध लगाया गया था और सावधानीपूर्वक की गई गणना के बाद सिर्फ 6,500 पत्रों को ले जाने की अनुमति दी गई थी। विमान को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 13 मिनट का समय लगा।

भारत में डाक सेवाओं पर तमाम लेख और एक पुस्तक ‘इंडिया पोस्ट : 150 ग्लोरियस ईयर्ज़’ लिख चुके श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया  कि इस पहली हवाई डाक सेवा का विशेष शुल्क छह आना रखा गया था और इससे होने वाली आय को आक्सफोर्ड एंड कैंब्रिज हॉस्टल, इलाहाबाद को दान में दिया गया। इस सेवा के लिए पहले से पत्रों के लिए खास व्यवस्था बनाई गई थी। 18 फरवरी को दोपहर तक इसके लिए पत्रों की बुकिंग की गई। पत्रों की बुकिंग के लिए ऑक्सफोर्ड कैंब्रिज हॉस्टल में ऐसी भीड लगी थी कि उसकी हालत मिनी जी.पी.ओ सरीखी हो गई थी। डाक विभाग ने यहाँ तीन-चार कर्मचारी भी तैनात किए थे। चंद रोज में हॉस्टल में हवाई सेवा के लिए 3000 पत्र पहुँच गए। एक पत्र में तो 25 रूपये का डाक टिकट लगा था। पत्र भेजने वालों में प्रयागराज की कई नामी गिरामी हस्तियाँ तो थी हीं, राजा महाराजे और राजकुमार भी थे।

आज दुनिया भर में संचार के तमाम माध्यम हैं, परंतु पत्रों की जीवंतता का अपना अलग स्थान है। ये पत्र अपने समय का जीवंत दस्तावेज हैं। इन पत्रों में से न जाने कितने तो साहित्य के पन्नों में ढल गए। आज हवाई जहाज के माध्यम से देश-दुनिया में डाक पहुँच रही हैं, परंतु इसका इतिहास कुंभ और प्रयागराज से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इन पत्रों ने भूमंडलीकरण की अवधारणा को उस दौर में परिभाषित किया, जब विदेश जाना भी एक दु:स्वप्न था। हवाई डाक सेवा ने न सिर्फ पत्रों को पंख लगा दिए, बल्कि लोगों के सपनों को भी उड़ान दी। देश-विदेश के बीच हुए तमाम ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ी बातों और पहलुओं को एक-जगह से दूसरी जगह ले जाने में हवाई डाक सेवा का योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

(कृष्ण कुमार यादव वरिष्ठ डाक आधिकारी हैं और विभिन्न विषयों पर लिखते रहते हैं) 

नाथद्वारा में दो दिवसीय पाटोत्सव बृजभाषा समारोह 20 फरवरी से

नाथद्वारा  / देश की प्रतिष्ठित संस्था साहित्य मंडल द्वारा नाथद्वारा में दो दिवसीय पाटोत्सव  बृजभाषा समारोह 20 एवं 21 फरवरी को भगवती प्रसाद प्रेक्षागृह में आयोजित किया जाएगा। संस्था के प्रधानमंत्री श्याम प्रकाश देवपुरा ने जानकारी देते हुए बताया कि यह समारोह किसी एक भाषा के लिए नहीं वरन बृज संस्कृति, बृज कला और बृज की आराधना को समर्पित है जिसमें बृज भाषा का माधुर्य, भक्ति और प्रेम का अनूठा संगम है जिस से श्रोता सुधा तत्वों की प्राप्ति कर श्रीनाथ जिनकी कृपा प्राप्त करते हैं। संस्था द्वारा विगत 40 वर्षों से आयोजित समारोह में इस बार उपनिषद,  समस्या पूर्ति ,सांस्कृतिक कार्यक्रम, पुस्तक विमोचन, अखिल भारतीय बृजभाषा कवि सम्मेलन और विभिन्न क्षेत्रों सहित सर्वोत्तम अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को विविध अलंकरणों से सम्मान किया जाएगा।
  देवपुरा ने बताया कि बृजभाषा उपनिषद् में  बृजभाषा कहानी में स्त्री विमर्श, पर्यावरण चेतना, सामाजिक परिवेश, परंपरागत मूल्य, ग्रामीण परिवेश और मनोविज्ञान विषयों पर विद्वानों के व्याख्यान आयोजित किए जाएंगे। राजस्थान बृजभाषा अकादमी के सहयोग से इस उपनिषद के साथ समस्यापूर्ति सत्र भी आयोजित किया गया है। संगीत – नृत्य की प्रस्तुतियों के साथ – साथ रात्रि में अखिल भारतीय बृजभाषा कवि सम्मेलन आयोजित किया जाएगा।
 संस्था के अनिरुद्ध देवपुरा ने बताया कि दो दिवसीय समारोह में उत्तरप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, गुजरात राज्यों से साहित्य, संस्कृति, समाज सेवा, पत्रकारिता आदि अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय सेवाओं के लिए विविध अलंकरणों से 34 प्रतिभाओं और सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले राजस्थान के 21 विद्यार्थियों की सम्मानित किया जाएगा।
समारोह में शिवसागर शर्मा , देवनारायण शर्मा, सोहनलाल शर्मा, हरिओम शर्मा, बिजेंद्रसिंह वर्मा, प्रकाश सृजन, लोकेश कुमार गोस्वामी एवं अनीता सिंह ‘  सुरभि ‘ को ब्रजभाषा भूषण अलंकरण से सम्मानित किया जाएगा। डॉ. शिवओम अम्बर फर्रुखाबाद को काव्य मर्मज्ञ अलंकरण के साथ 5100 रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। अरविंद तिवारी, फिरोजाबाद, डॉ. के. प्रिया, चेन्नई और कमल रंगा, बीकानेर को हिंदी साहित्य शिरोमणि अलंकरण सम्मान से सम्मानित किया जाएगा।
तथा राम खिलाड़ी स्वदेशी, मथुरा को ब्रजभाषा मनीषी अलंकरण सम्मान के साथ 3100 रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। डॉ. शतीश चतुर्वेदी, डॉ. शोभा सिंह, डॉ.दिलीप मेहरा, सतीन देसाई परवेज दीप्ति गुरु को हिंदी साहित्य शिरोमणि, मामा हाथरसी, महेंद्र जोशी को ब्रजभाषा मनीषी अलंकरण सम्मान, ओम प्रकाश डांगुर, डॉ. आंशवना  सक्सेना और कुमुद बेन धांधा को लोक कला – संगीत – प्रभुदेवा मर्मज्ञ अलंकरण सम्मान के साथ 2100 रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा।
पत्रकारिता के क्षेत्र में नंद किशोर गंधी डीग और राकेश शर्मा राजदीप उदयपुर को पत्रकार प्रवर तथा डॉ. खुशहाल सिंह पुरोहित ,रतलाम और अवधेश उपाध्याय, आगरा को संपादक रत्न अलंकरण सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। अन्य सम्मानित होने वालों में जतिन शर्मा, ने दिल्ली, डॉ. मंजुलता भट्ट, जयपुर, डॉ. मधु खंडेलवाल, अजमेर, साकार श्रीवास्तव जयपुर, श्रीनाथ मौर्य , संगम लाल त्रिपाठी प्रतापगढ़( उत्तरप्रदेश ), डॉ. गोविन्द सेन धार एवं डॉ. शिखा रानी अग्रवाल नोएडा को विविध अलंकरण सम्मान से सम्मानित किया जाएगा।
समारोह में विशिष्ठ प्रतिभा और उच्च माध्यमिक, शास्त्री, स्नातक, अधिस्नातक परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाले 21 विद्यार्थियों को सम्मानित किया जाएगा। सम्मानित होने वाले विद्यार्थियों में तन्मय जोशी, फरजाना छीपा, पार्थ शर्मा, दीपक बाग़ोरा, मीनाक्षी शर्मा, निरंजन पुरोहित, ज्योति पालीवाल, साक्षी जोशी, संजय पुरोहित, विभु पालीवाल, हर्षिता चौधरी, भूमिका सुधार, नंदनी सोनी, कृष्णकांत टाक, धीरज गुप्ता, हर्षिका मेहरा, गोमती सुधार, प्रियांशी सेन, मजस्वी सुधार और लालसिंह राठौर शामिल हैं।
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विकिपीडिया का हिंदुओं और भारत के खिलाफ षड्यंत्र का काला सच

इस विस्तृत दस्तावेज को तैयार करने के पीछे उद्देश्य यह है कि लोग जान सकें – (1) विकिपीडिया स्वतंत्र नहीं है (2) संपादकीय हस्तक्षेप-मुक्त विश्वकोश नहीं है (3) जैसा विकिमीडिया फाउंडेशन दावा करता है कि उसके लिए दुनिया भर के हजारों अवैतनिक (खुद से काम करने के इच्छुक) काम करते हैं – यह दावा गलत है।

यह डोज़ियर (दस्तावेज) यह प्रदर्शित करने और निर्णायक रूप से स्थापित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है कि विकिपीडिया, एक स्वतंत्र, संपादकीय हस्तक्षेप से मुक्त विश्वकोश नहीं है, जैसा कि विकिमीडिया फाउंडेशन दावा करता है। विकिमीडिया फाउंडेशन दावा करता है कि विकिपीडिया दुनिया भर के हजारों अवैतनिक, उत्साही स्वयंसेवकों के स्वैच्छिक कार्य पर निर्भर करता है।

यह डोज़ियर विशेष रूप से भारत, भारतीय कानूनों और भारत से संबंधित सामग्री पर केंद्रित है, ताकि विकिपीडिया को एक ‘प्रकाशक’ के रूप में मानने के बारे में सिफारिशें तैयार की जा सकें, जो अपने प्लेटफ़ॉर्म पर प्रकाशित सामग्री के लिए सीधे जिम्मेदार है। ‘प्रकाशक’ शब्द से यहाँ मतलब है भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 में तय किए गए दिशा-निर्देश। इसके तहत वेबसाइट को दो कैटेगिरी में रखा गया है – इंटरमीडियरी और प्रकाशक।

यह डोज़ियर विकिपीडिया और इसकी मूल कंपनी, विकिमीडिया फाउंडेशन के विभिन्न पहलुओं का संक्षेप में विश्लेषण करता है, ताकि विकिपीडिया को “सभी के लिए स्वतंत्र रूप से संपादन योग्य विश्वकोश” के रूप में प्रस्तुत करने के फाउंडेशन के दावों, विश्वसनीय स्रोतों का उपयोग करने, तटस्थ दृष्टिकोण बनाए रखने, और दान पर निर्भर रहने जैसे दावों को समझा जा सके।

डोज़ियर यह भी जाँच करता है कि विकिमीडिया फाउंडेशन को मिलने वाले अनुदान, इन्हें देने वाली संस्थाएं, और एनजीओ व अन्य इकाइयों को दिए गए अनुदानों का विवरण क्या है। इसके अलावा, यह समझने का प्रयास करता है कि भारत में अपनी भौतिक उपस्थिति बनाए बिना, विकिमीडिया फाउंडेशन कैसे भारत में कार्यरत है और अपने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए विभिन्न संस्थाओं को वित्तपोषण कर रहा है।

यह डोज़ियर सबसे पहले विकिपीडिया के स्पष्ट वामपंथी झुकाव पर मौजूदा शोधों की जाँच करता है और उन तत्वों का विश्लेषण करता है जो इस झुकाव में योगदान देते हैं। उद्धृत किए गए सभी चार शोध-पत्रों में स्पष्ट निष्कर्ष है कि विकिपीडिया में एक अंतर्निहित वामपंथी झुकाव है। विकिपीडिया के “NPOV” (तटस्थ दृष्टिकोण) दिशा-निर्देश का अर्थ यह नहीं है कि विचारों के पूरे स्पेक्ट्रम को समान या उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा। “NPOV” का परिणाम केवल इतना है कि “विश्वसनीय स्रोत” में उल्लेखित विवरणों को शामिल किया जाएगा। लेकिन “विश्वसनीय स्रोत” का चयन ही पक्षपातपूर्ण है, क्योंकि विकिपीडिया में अत्यधिक शक्तिशाली संपादक और प्रशासक “दक्षिणपंथी” (गैर-वामपंथी) स्रोतों को हतोत्साहित या ब्लैकलिस्ट कर देते हैं, जिससे वे स्रोत विकिपीडिया लेखों में संदर्भ सामग्री के रूप में शामिल नहीं किए जा सकते।

विकिपीडिया के सह-संस्थापक लैरी सैंगर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि विकिपीडिया में एक स्पष्ट वामपंथी झुकाव है। कई साक्षात्कारों और वार्ताओं में उन्होंने यह बताया है कि विकिपीडिया कैसे संतुलन के पैमाने को विकृत करता है, जिससे जानकारी वास्तविकता का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं करती और वामपंथी पक्षपात से ग्रस्त होती है।

यह डोज़ियर और शोध-पत्र यह पाता है कि विकिपीडिया की संरचना ही कुछ व्यक्तियों, जिन्हें ‘प्रशासक’ कहा जाता है, को अनियंत्रित शक्ति देती है। पूरी दुनिया में केवल 435 सक्रिय प्रशासक हैं, जिनके पास संपादकों को प्रतिबंधित करने, स्रोतों को ब्लैकलिस्ट करने, योगदानकर्ताओं पर प्रतिबंध लगाने और लेखों पर किए गए संपादन को स्वीकृत या अस्वीकार करने की शक्ति है। ये प्रशासक विकिपीडिया पर सामग्री के संबंध में असीमित शक्ति रखते हैं।

इस शोध में यह भी पाया गया है कि इनमें से कई संपादक और प्रशासक विकिमीडिया फाउंडेशन द्वारा विकिमीडिया से संबंधित परियोजनाओं के लिए अनुदानों के रूप में भुगतान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह निर्णायक रूप से सिद्ध होता है कि विकिपीडिया वह “सभी के लिए स्वतंत्र रूप से संपादन योग्य मॉडल” नहीं है, जैसा कि यह दावा करता है। स्वयं जिमी वेल्स ने भी स्वीकार किया है कि वह विकिपीडिया पर सामग्री का अंतिम मध्यस्थ है।

यह शोध विकिमीडिया फाउंडेशन को मिलने वाले धन और उसके व्यय के विश्लेषण पर केंद्रित है, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में। यह पाया गया कि विकिमीडिया फाउंडेशन को ओपन सोसाइटी फाउंडेशन, रॉकफेलर फाउंडेशन, टाइड्स फाउंडेशन और इनके ही जैसे अन्य प्रेरित-निर्देशित फंडों से करोड़ों डॉलर प्राप्त होते हैं। गूगल भी विकिमीडिया फाउंडेशन को लाखों डॉलर दान करता है और विकिपीडिया सामग्री को बढ़ावा देता है, जिसमें “एब्सट्रैक्ट विकिपीडिया” जैसी परियोजनाओं का वित्तपोषण शामिल है, जिसका उद्देश्य इंटरनेट पर वर्चस्व स्थापित करना है।

विकिमीडिया फाउंडेशन के वित्तीय संबंध टाइड्स फाउंडेशन के साथ गहरे हैं, जिस पर जॉर्ज सोरोस के साथ मिलकर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हमास के समर्थन में विरोध-प्रदर्शन का वित्तपोषण करने का आरोप है।

विकिमीडिया और टाइड्स फाउंडेशन कई ऐसी संस्थाओं को भी फंड करते हैं, जो विशेष रूप से भारत के हितों के खिलाफ कार्य करती हैं और विभिन्न स्तरों पर इसकी संप्रभुता को कमजोर करती हैं।

विकिमीडिया फाउंडेशन और टाइड्स फाउंडेशन के संबंध संदिग्ध संगठनों जैसे हिंदूज़ फॉर ह्यूमन राइट्स, इक्वालिटी लैब्स, आर्ट+फेमिनिज्म, एक्सेस नाउ और भारतीय उद्योगपतियों के खिलाफ ‘हिंडनबर्ग हिट जॉब’ जैसे मामलों के साथ जुड़े पाए गए हैं।

भारत में, विकिमीडिया फाउंडेशन की कोई भौतिक उपस्थिति नहीं है। इसकी पंजीकृत सोसायटी, जो पहले भारत में थी, 2019 में बंद हो गई थी। भारत में उपस्थित न होते हुए भी विकिमीडिया फाउंडेशन दान के रूप में लाखों रुपये एकत्र करता है और भारत में एनजीओ को फंड करता है, जो विकिमीडिया फाउंडेशन के व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाते हैं। इन संगठनों में सभी वामपंथी झुकाव वाले हैं।

विकिपीडिया पर सामग्री के संदर्भ में, यह पाया गया कि संपादकों और प्रशासकों का एक छोटा समूह भारत में सामग्री को विकृत करता है। इसमें एक वो संपादक भी शामिल है, जिस पर मणिपुर राज्य में असंतोष फैलाने और कलह उत्पन्न करने के लिए केस दर्ज किया गया है। ये संपादक अक्सर विकिपीडिया लेखों में तथ्यों (जिनसे उन्हें असुविधा हो) और वैकल्पिक दृष्टिकोण जोड़ने के प्रयासों को बाधित करते हैं। इसके अलावा, गूगल और विकिमीडिया फाउंडेशन की साझेदारी के कारण सामग्री में विशिष्ट हिंदू-विरोधी और भारत-विरोधी पक्षपात देखा गया है।

यह डोज़ियर शोधकर्ता द्वारा सुझाई गई सिफारिशों की सूची के साथ समाप्त होता है। इन सिफारिशों का उद्देश्य विकिमीडिया फाउंडेशन को जवाबदेह बनाना है, जो भारतीय कानूनों का पालन किए बिना एक संपादकीय दिशा निर्धारित करता है। जबकि विकिमीडिया फाउंडेशन का दावा है कि विकिपीडिया केवल एक मध्यस्थ है, यह पाया गया कि विकिपीडिया “प्रकाशकों” के लिए निर्धारित सभी मानकों को पूरा करता है, जैसा कि आईटी दिशा-निर्देशों में परिभाषित है। इसका अर्थ यह होगा कि विकिमीडिया फाउंडेशन को विकिपीडिया पर सभी सामग्री के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए और भारतीय कानूनों के अधीन रहने के लिए भारत में अपनी उपस्थिति स्थापित करनी चाहिए, जिसमें एफसीआरए, एनजीओ, आईटी दिशा-निर्देश, वित्तीय प्रकटीकरण मानक और अन्य कानून शामिल हैं।

रिसर्च पेपर में सिफारिशें
विकिमीडिया फाउंडेशन और विकिपीडिया पर किए गए शोध के आधार पर निम्नलिखित सिफारिशें दी गई हैं:

विकिपीडिया को एक प्रकाशक घोषित करना

विकिपीडिया ने खुद को एक मध्यस्थ (intermediary) के रूप में दावा किया है, जो ‘विश्वसनीय स्रोतों’ पर आधारित किसी सामग्री या संपादकीय नीति के हस्तक्षेप के बिना एक समुदाय की बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है तथा तटस्थ दृष्टिकोण बनाए रखता है। हालाँकि, जैसा कि शोध में प्रमाणित हुआ है, यह सच नहीं है। विकिपीडिया प्रकाशकों के मानकों को पूरा करता है। वे वर्तमान घटनाओं और ऐतिहासिक घटनाओं पर जानकारी संकलित करते हैं, वे अपने संपादकों और व्यवस्थापकों को भुगतान करते हैं और वे इंटरनेट पर आम लोगों द्वारा आसानी से उपलब्ध हैं। चूँकि विकिपीडिया का एक संपादकीय दृष्टिकोण है, जो संपादकों और व्यवस्थापकों पर आधारित है, इससे यह प्रमाणित होता है कि वे अब एक मध्यस्थ माने जाने के योग्य नहीं हैं। एक प्रकाशक के रूप में घोषित होने के बाद, विकिमीडिया को भारत में अपने कार्यालय स्थापित करने होंगे, एक शिकायत निवारण प्रणाली स्थापित करनी होगी और भारतीय कानूनों के तहत अवैध सामग्री जो भारत की संप्रभुता को कमजोर करती है या असंतोष उत्पन्न करती है, के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा।

वित्तीय लेन-देन की जाँच
विकिमीडिया फाउंडेशन भारत में कई वित्तीय लेन-देन करता है ताकि अपने व्यापारिक हितों को बढ़ावा दे सके और उन वामपंथी संगठनों और व्यक्तियों को वित्तीय सहायता दे सके जो अंततः भारत की संप्रभुता को कमजोर करते हैं और असंतोष उत्पन्न करते हैं। भारत में किसी भी वित्तीय लेन-देन, भुगतान और भारत से धन संग्रह भारतीय कानूनों के अंतर्गत आता है, जिनमें आईटी कानून, एफसीआरए, एनजीओ को नियंत्रित करने वाले कानून और आईटी दिशा-निर्देश आदि शामिल हैं। सरकार को विकिमीडिया फाउंडेशन पर यह दबाव डालना चाहिए कि उन्हें कानूनी रूप से भारत में अपनी आधिकारिक उपस्थिति स्थापित करनी चाहिए और भारतीय कानूनों के अनुसार वित्तीय जाँच के अधीन होना चाहिए।

विकिपीडिया लेखों में पक्षपात चिह्नित करने के लिए ब्राउज़र एक्सटेंशन
इस शोध में जैसी चर्चा की गई है, विकिमीडिया फाउंडेशन ने विकिपीडिया के व्यवस्थापक ‘न्यूज़लिंगर’ को हजारों डॉलर का भुगतान किया है, ताकि एक ऐप और ब्राउज़र एक्सटेंशन तैयार किया जा सके, जो विकिपीडिया के पक्षपाती स्रोतों को टेम्पलेटाइज कर सके – इसका मतलब है कि जब भी कोई व्यक्ति इंटरनेट पर किसी वेबसाइट को पढ़ेगा, तो विकिपीडिया संपादकों के पक्षपाती विचार सामने आएँगे, जो यह तय करेंगे कि कौन सा स्रोत विश्वसनीय है और कौन सा नहीं। विकिमीडिया फाउंडेशन और गूगल के सहयोग से, इसमें कोई संदेह नहीं कि इस परियोजना को लागू किया जा सकता है। भारत सरकार को एक ब्राउज़र एक्सटेंशन पर काम करना चाहिए जो विकिपीडिया लेखों में, कम से कम भारत से संबंधित, पक्षपाती विचारों, गलत जानकारी, फर्जी खबरों और मिथ्या सूचना को चिन्हित कर सके।

विकिपीडिया को प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 के तहत जाँचना
प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002, भारत में एंटीट्रस्ट समस्याओं से निपटने के लिए मुख्य कानून है। यह कानून बाजारों में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, गलत प्रतिस्पर्धात्मक प्रथाओं को रोकने और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के लिए लागू किया गया था। गूगल और विकिमीडिया फाउंडेशन के सहयोग से विकिपीडिया सामग्री और जानकारी के पक्ष में लाभ उठाते जा रहा है, जिससे भारतीय मीडिया और सामग्री स्रोतों को नुकसान हो रहा है। स्रोतों की उपेक्षा और गूगल तथा विकिमीडिया फाउंडेशन द्वारा पक्षपाती जानकारी को प्रमाणित करने से भारतीय वेबसाइटों की राजस्व और रैंकिंग पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, जिनसे वे संपादकीय रूप से सहमत नहीं होते हैं। गूगल और विकिमीडिया फाउंडेशन की प्रतिस्पर्धा-विरोधी प्रथाओं की जाँच की जानी चाहिए।

केसर काव्य मंच की मासिक बैठक में केसर साहित्यश्री सम्मान का निर्णय

कोटा /  केसर काव्य मंच की अध्यक्ष डॉ प्रीति मीणा की अध्यक्षता में केसर काव्य मंच की मासिक बैठक का आयोजन आकाशवाणी कॉलोनी में किया गया। मंच की सचिव पुष्पा आर्यन ने बताया कि बैठक में हर वर्ष अखिल भारतीय स्तर पर किसी श्रेष्ठ  साहित्यकार को ‘केसर साहित्यश्री सम्मान’  से सम्मानित करने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया।  डॉ पुष्पा आर्यन के अनुसार इस वर्ष का साहित्यिक सम्मान समारोह मई माह में आयोजित किया जाएगा। बैठक में केसर काव्य मंच के सभी पदाधिकारी उपस्थित रहे।
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अद्भुत संगठक, विलक्षण व्यक्तित्व और साधना की विभूति गुरूजी

 कुधारणाओं के निवारण और सही मार्गदर्शन के लिये प्रकृति समय-समय पर दिव्य विभूतियाँ को संसार में अवतरित करती है जो विषमताओं और विपरीत परिस्थियों में व्यथित मानवता को एक निश्चित दिशा का संकेत करते हैं।  ऐसी ही दिव्य विभूति थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर जी । जो “परमपूज्य गुरुजी” के संबोधन से जाने जाते हैं।
उनका जन्म 19 फ़रवरी 1906)  को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था । उनके पिता श्री सदाशिव राव उपाख्य ‘भाऊ जी’ पहले डाकघर में कार्यरत थे फिर 1908 में शिक्षक बने । माता लक्ष्मीबाई उपाख्य ‘ताई’ धार्मिक, आध्यात्म और साँस्कृतिक परंपराओं की वाहक थीं । परिवार ने उनका नाम माधव रखा । पर वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। परिवार का वातावरण भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के साथ आधुनिक शिक्षा का था । इसलिये बालक मधु की जीवन धारा इन दोनों दिशाओं के समन्वय के साथ संवाहित हुई ।
जो दिव्य और विशिष्ट विभुतियाँ संसार में आतीं हैं उनके जन्म के प्रथम दिन से ही असाधारणता लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। यही असाधारण झलक बालक मधु में भी थी । माता पिता से उनकी यह विलक्षण प्रतिभा छुपी न रह सकी । जब दो वर्ष के थे पिता ने तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ कर दी थी । पिता स्वयं पढ़ाते और बालक की जिज्ञासाओं का समुचित समाधान करते थे । बालक मधु की स्मरण शक्ति अद्भुत थी । वे एक बार सुनकर या पढ़कर कंठस्थ कर लेते थे । ज्ञान की लालसा और उसका स्वयं विश्लेषण करने का स्वभाव ठीक वैसा ही था जैसे बचपन में स्वामी दयानन्द सरस्वती या स्वामी विवेकानंद का पढ़ने को मिलता है ।
समय के साथ शिक्षा और आयु आगे बढ़ी । 1922 में प्रथम श्रेणी में’हाई स्कूल परीक्षा’ उत्तीर्ण की। सन् 1924 में नागपुर के ईसाई मिशनरी ‘हिस्लाप कॉलेज’ से इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण की। इन दोनों परीक्षाओं में उन्होंने केवल प्रथम श्रेणी ही प्राप्त नहीं की अपितु विशेष योग्यता भी अर्जित की जिससे छात्रवृत्ति एवं पारितोषिक भी प्राप्त किया । उनके विषय अंग्रेजी और विज्ञान रहे । छात्र जीवन में वे पढ़ाई के साथ अन्य गतिविधियों में भी भाग लेते थे । बौद्धिक गतिविधियों के साथ उनकी खेलों में भी रुचि थी । कबड्डी, हाकी और टेनिस जैसे खेल उन्हे अति प्रिय थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम,  कुश्ती मलखम्ब के करतबों में भी वे बहुत कुशल थे।
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की शिक्षा के लिये माधव 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आये । उन्होने 1926 में बी.एससी. और 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं। महाविद्यालयीन परीक्षा में उनके विषय प्राणी विज्ञान था । ये परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। उनकी खेल वाद विवाद और बौद्धिक गतिविधियाँ महाविद्यालयीन जीवन में भी उत्कृष्ट रहीं।  इस प्रकार वे अपने महाविद्यालयीन जीवन में एक सर्वप्रिय छात्र रहे ।
परिवार की पृष्ठभूमि संस्कृत और साँस्कृतिक थी । ये दोनों विधायें उनके जीवन में सदैव साथ चलीं।  महविद्यालयीन जीवन में अपने निर्धारित विषयों के साथ उन्होंने इन दोनों विधाओं का भी अन्वेषण निरंतर रखा । “संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक ‘विचार सम्पदा’, भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन पाठन किया । यह परिवार के संस्कार और अध्ययन की रुचि का प्रभाव था कि महाविद्यालयीन जीवन से ही उनके जीवन में आध्यात्मिक ज्योति जागृत हो गई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में ‘मत्स्य जीवन’ पर शोध कार्य हेतु चेन्नई  के मत्स्यालय से जुड़ गये। पर यहाँ एक वर्ष के भीतर ही उनके समक्ष दो समस्याएँ सामने आईं।  एक तो पिताश्री सेवानिवृत्त हो गये । इसके परिवार में कुछ आर्थिक समस्या आई दूसरे स्वयं माधल चैन्नई में बीमार हो गये । उनका उपचार दो माह चला । यह एक प्रकार से उनका पुनर्जीवन था ।
आर्थिक कठिनाई के चलते अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस आ गये ।नागपुर आकर भी ये दोनों समस्याएँ उनके सामने रहीं।  एक स्वास्थ्य और दूसरी पारिवार की आर्थिक समस्या । उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। उनकी आत्मशक्ति और व्यायाम आदि से स्वास्थ्य सामान्यता की ओर बढ़ रहा था । आर्थिक स्थिति सुधारने कै लिये उन्होंने स्थानीय स्तर पर अध्ययन अध्यापन का कार्य आरंभ किया । इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शन  पद का प्रस्ताव मिला। जिसे उन्होने  स्वीकार किया और 16 अगस्त  1931 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पदभार ग्रहण कर लिया। यहाँ अपने निर्धारित कार्य के साथ वे युवाओं को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सक्षमता पर भी ध्यान देते बातें करते । और यहीं से उन्हें गुरुजी संबोधन या उपाख्य मिला । उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-शास्त्र था । पर उनकी रुचि और सक्रियता देखकर विश्वविद्यालय ने उन्हें बी.ए.कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का दायित्व भी सौंप दिया।।
माधव राव जी का विषय यद्यपि प्राणी विज्ञान था पर वे अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय में भी मार्ग दर्शन करते थे । पुस्तकों के लिये वे केवल पुस्तकालय के भरोसे नहीं रहते थे । स्वयं भी पैसे बचाकर पुस्तकें क्रय कर लिया करते थे । बहुत कम समय में उनके पास निजी पुस्तकों का एक बड़ा संग्रह बन गया । स्थिति यह थी कि उनके वेतन का एक बड़ा भाग अपने  छात्रों और मित्रों की फीस भरने अथवा उन्हे पुस्तकें देने में ही व्यय हो जाया करता था। बनारस में रहते हुये 1934 में श्रीगुरूजी ने अखंडनानंद जी से विधिवत दीक्षा ली और उनके शिष्य बने । इस प्रकार उनके जीवन की यात्रा में एक नया आयाम जुड़ा।
गुरु जी ने अपने नागपुर जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के संस्थापक डा हेडगेवार के के बारे में सुन लिया था । पर संघ को समझने का बीजारोपण बनारस में ही हुआ । बनारस में उनका संपर्क भैय्याजी दाणी से हुआ । भैय्या जी दाणी नागपुर के स्वयंसेवक थे  डॉ॰ हेडगेवार ने उन्हें  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजा था । श्री गुरूजी का संपर्क उनसे बना । और गुरुजी संघ के सम्पर्क में आये । संघ की शाखा प्रारंभ हुई और उस शाखा के संघचालक गुरुजी बने। गुरुजी ने बनारस में  संघ कार्य का विस्तार किया और 1937 में नागपुर वापस आ गए।
नागपुर लौटकर श्री गुरूजी को डॉ हेडगेवार का  सानिध्य मिला । यह 1938 का वर्ष था । यह सानिध्य मानों राष्ट्र और संस्कृति के गौरव की रक्षा के लिये मानों प्रकृति ने नियत किया था । श्री गुरुजी ने डा हेडगेवार ने एक कुशल मार्ग दर्शक देखा तो डा हेडगेवार ने श्री गुरूजी के भीतर एक प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। और इस घड़ी के बाद श्री गुरूजी का जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन विस्तार के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित हो गया । डॉ हेडगेवार के साथ निरन्तर रहते हुवे श्रीगुरूजी ने अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित कर लिया ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के  संस्थापक डॉ हेडगेवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्मसंयम होने के कारण से 1939 में श्री गुरूजी को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में डॉ हेडगेवार अस्वस्थ हुये । काफी उपचार के बाद भी जब स्वास्थ्य सुधार न हुआ तो डा हेडगेवार ने अपने जीवन का अन्त समय जाना और  उन्होंने वहाँ उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने श्रीगुरूजी अर्थात माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ कार्य विस्तार का दायित्व सौप दाया । 21 जून 1940 को डाॅ हेडगेवार अनन्त में विलीन हो गए और श्री गुरूजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने । श्री गुरूजी ने देस भर की यात्राएँ की । लाहौर कश्मीर से लेकर सागर तट पर कन्याकुमारी तक यात्राएँ की । संघ कार्य का विस्तार किया और उस समय की राजनैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिस्थियों का सामना करने केलिये समाज को तैयार किया ।
इसी तैयारी के बीच 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन का वातावरण बना । श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों से इस आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने के निर्देश दिये पर कहा का संघ के बैनर का उपयोग न हो । जहाँ जिस बैनर से आंदोलन चल रहा हो उसी के नेतृत्व में भाग लिया जाये । उनके इस निर्देश के दो कारण थे । एक तो श्रीगुरुजी चाहते थे कि आंदोलन में एक रूपता रहे और दूसरा यह कि वे संघ को पूरी तरह समाज संस्कृति और राष्ट्र सेवा का निमित्त ही बनाना चाहते थे । श्रीगुरुजी की भावना के अनुरुप स्वयं सेवकों ने भारत छोड़ो आँदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनर का उपयोग न करके जहाँ जो बैनर सामने था उसी के अंतर्गत योगदान दिया । विदर्भ और महाकौशल के अनेक ऐसे स्थान थे जहाँ इस आंदोलन में गोली चली और स्वयं सेवकों के बलिदान हुये । विदर्भ के चंद्रपुर और महाकौशल के जबलपुर में इस आदोलन के दौरान गोली चालन से बलिदान होने वाले नौजवान संघ के स्वयं सेवक थे । इस आन्दोलन के दौरान मध्यप्रदेश के सीहोर में बंदी बनाए गये भाई उद्धवदास मेहता भोपाल राज्य के संघ चालक थे तो ग्वालियर में बंदी बनाये गये किशोर वय अटल बिहारी बाजपेई  भी स्वयंसेवक थे ।
मुस्लिम लीग अपनी स्थापना के दिन से ही मुसलमानों के लिये पृथक राष्ट्र का अभियान चला रही थी । 1930 में मुस्लिम लीग ने बाकायदा पाकिस्तान का नाम और पूरी योजना ही घोषित कर दी थी। अपनी इसी योजना के अंतर्गत मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यवाही करने की घोषणा कर दी । इस दिन मुस्लिम लीग के प्रभावी क्षेत्रों विशेषकर पंजाब और बंगाल में  हिन्दुओं की हत्या का मानों ताण्डव मच गया। उस पीडित मानवता की सेवा के लिये संघ के स्वयंसेवक ही सामने आये । इस भीषण हत्याकांड के बाद एक ओर मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना यदि विभाजन के लिये जनमत बना रहे थे तो दूसरी ओर श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में भारत विभाजन के विरुद्ध डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान कर रहे थे । किन्तु अंग्रेज सरकार का समर्थन मुस्लिम लीग के साथ था और तत्कालीन अन्य वरिष्ठ नेता भी अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। अंततः 3 जून 1947 को भारत विभाजन की घोषणा कर दी गई। एकाएक पूरे देश का वातावरण बदल गया ।
 इस कठिन समय में संघ के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंजाब ही नहीं आसपास के सभी क्षेत्र के स्वयंसेवक पाकिस्तान केलिये घोषित भू भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजने का कार्य में लग गये । संघ का प्रयास था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। उन कठिन दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय साहस, सेवा, समर्पण, पराक्रम, कार्यकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य है। श्री गुरूजी भी भारत के उसी भाग में घूमते रहे जो १५ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान बना दिया गया था। जितना संभव हो सकी गुरूजी के मार्गदर्शन में सकी संघ के स्वयंसेवकों ने सेवा और सहायता की ।
 भारत  विभाजन के उस कालखंड में मुस्लिम लीग के प्रभाव वाले क्षेत्र में हिन्दुओं की सुरक्षा की जितनी बड़ी चुनौती थी उतना ही महत्वपूर्ण था उन राज्यों को भारत से जोड़ना जो सीमा पर थे । इसमें कश्मीर सबसे महत्वपूर्ण राज्य था । मोहम्मद अली जिन्ना तरह तरह के प्रलोभन और भय दिखाकर कश्मीर के राजा को अपनी ओर मिलाने का कार्य करने में लगा था । ऐसे में तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर रियासत के दीवान मेहरचन्द महाजन से भारत के साथ विलीनीकरण करने के लिए कश्मीर-नरेश श्री हरि सिंह जी को तैयार करने के लिए कहा था। और श्री मेहरचन्द महाजन ने मध्यस्थता के लिये श्रीगुरुजी का नाम सुझाया । श्रीगुरुजी के पास संदेश भिजवाया कि वे कश्मीर-नरेश से मिलकर उन्हें विलीनीकरण के लिए तैयार करें। श्रीगुरूजी तैयार हुए। सरदार पटेल और  महाजन जी के प्रयास से कश्मीर के राजा हरिसिंह और श्रीगुरुजी की भेंट की तिथि निश्चित हो गई ।
श्रीगुरुजी 17 अक्तूबर 1947 को विमान द्वारा श्रीनगर पहुँचे। भेंट 18 अक्टूबर को प्रातः हुई। भेंट के समय 15-16 वर्षीय युवराज कर्ण सिंह जांघ की हड्डी टूटने से प्लास्टर में बंधे वहीं लेटे हुए थे। श्री मेहरचन्द महाजन भी भेंट के समय उपस्थित थे। कश्मीर-नरेश का कहना था – मेरी रियासत पूरी तरह से पाकिस्तान से घिरी है । सारे रास्ते सियालकोट तथा रावलपिण्डी की ओर से है। रेल सियालकोट की ओर से है। अनेक व्यवहारिक कठिनाइयाँ हैं।
श्रीगुरुजी ने समझाया कि आप हिन्दू राजा हैं। पाकिस्तान में विलय करने से आपको और आपकी हिन्दू प्रजा को भीषण संकटों से संघर्ष करना होगा। यह ठीक है कि अभी हिन्दुस्थान से रेल के रास्ते और हवाई मार्ग का कोई सम्पर्क नहीं है, किन्तु इन सबका प्रबन्ध शीघ्र ही हो जायेगा। आपका और जम्मू-कश्मीर रियासत का भला इसी में है कि आप हिन्दुस्थान के साथ विलीनीकरण कर लें। श्री गुरूजी के समझाने पर अन्ततः कश्मीर नरेश सहमत हो गये । वे 23 अक्टूबर को दिल्ली आये और  जम्मू-कश्मीर राज्य का भारतीय गणतंत्र में विलय हो गया ।
1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया । वह समय पूरे देश के लिये क्षोभ और शोक का था । भारतीय सेना अपने सीमित साधनों से उस आक्रमण का उत्तर देने में जुट गई।  पर समाज का मनोबल बढ़ाना, भारतीय सैनिकों को सहायता पहुँचाना और युद्ध प्रभावित क्षेत्र सें सेवा सहायता का काम बड़ी चुनौती का था । इन चुनौतियों से निबटने का काम संघ ने संभाला और श्रीगुरु जी के मार्गदर्शन में संघ के स्वयंसेवक सेवा सहायता के कार्य में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू नेषभी स्वीकारा और सन् 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में के संघ के स्वयंसेवकों को भी आमंत्रण भिजवाया। संघ के तीन सौ गणवेषधारी स्वयंसेवकों का घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
 श्री गुरुजी के जीवन का समापन  रांची में ही हुआ । वहाँ  बिहार प्राँत के कार्यकर्ताओं  के एक दो दिवसीय वर्ग  का आयोजन था । वह 10-11 मार्च 1973 की तिथि थी । आयोजन में लगभग एक हजार स्वयंसेवक उपस्थित थे। कार्यक्रम में बौद्धिक दर्शन देने के बाद श्रीगुरू जी कोलकाता जाने के लिए रांची रेल्वे स्टेशन पहुंचे ।  कार से उतरते ही लड़खड़ा गए। और अस्वस्थ हो गये । वे लगभग तीन माह अस्वस्थ रहे । रांची का आयोजन उनके जीवन का अंतिम सार्वजनिक आयोजन था । 5 जून 1973 को वे देह त्याग कर परम ज्योति में विलीन हो गये ।
श्रीगुरूजी ने बंच ऑफ थॉट्स तथा वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तकें लिखीं। ‘बंच ऑफ थॉट्स’ का हिन्दी में “विचार नवनीत” नाम से अनुवाद हुआ ।
उनके विचारों पर आधारित संघ द्वारा प्रकाशित “गुरूजी : दृष्टि एवं लक्ष्य” नामक पुस्तक में “हिन्दू – मातृभूमि का पुत्र” नामक एक अध्याय में लिखा है कि ‘भारतीय’ वही है जिनकी दृष्टि व्यापक है और भारतीय धर्मों के मानने वाले सभी मानते हैं कि ईश्वर एक ही है उसे पाने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं ।
इस प्रकार श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य परम् पूज्य गुरुजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पौधे को एक विशाल वटवृक्ष का स्वरूप देकर और भारत राष्ट्र में राष्ट्र भाव प्रबल करने के लिये एक सशक्त संगठन और विचार देकर अमृत्तव को प्राप्त हुये । आज वे संसार भर में फैले लाखों करोड़ों स्वयंसेवकों श्रृद्धा और आदर्श जीवन का केन्द्र हैं।
कोटिशः नमन्
(लेखक स्तंभकार  हैं व भारतीय इतिहास और राजनिति से जुड़े विषयों पर शोधपूर्ण लेखन करते हैं)
 

शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य की सोच से ही भारत और हिंदुत्व बचेगा

जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत १७३१, तदनुसार अंग्रेजी दिनांक ६ जून १६७४, बुधवार को छत्रपति शिवाजी महाराज का, स्वराज्य की राजधानी रायगड में राज्याभिषेक हुआ. वे सिंहासनाधीश्वर हुए. हिन्दूपदपादशाही की स्थापना हुई. सैकड़ों वर्षों के बाद इस देश में पुनः शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य की नींव रखी गई.

यह साधारण घटना नहीं थी. इस देश का भाग्य बदलने वाला इतिहास, रायगड में लिखा जा रहा था. यह स्वराज्य यूं ही नहीं प्राप्त हुआ था. ‘मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त कर, अपना एक राज्य स्थापन करना’, इतना सीमित उद्देश इसका नहीं था. हजारों वर्षों से अक्षुण्ण ऐसी एक समृध्द संस्कृति को, उस संपन्न विरासत को, पुनः प्रस्थापित करने का यह सफल प्रयास था. हिन्दूपदपादशाही, या शिवशाही का अर्थ था, ‘सभी को उचित न्याय मिलने वाला, प्रजा के सुख की चिंता करने वाला, बहू / बेटियों को, बुजुर्गों को उचित सम्मान देनेवाला, लोक कल्याणकारी राज्य.‘ शिवाजी महाराज ने इसके अंतर्गत राज्यव्यवहार के, कुशल प्रशासन के तथा कठोर व निष्पक्ष न्याय के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए.

किसी व्यक्ति का आकलन, उसने किए हुए कार्य पर तो होता ही हैं. किन्तु उस व्यक्ति के जाने के बाद, उस व्यक्ति के सिध्दांतों का, विचारों का समाजमन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह महत्वपूर्ण होता हैं. शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई सन १६८० में. अगले ही वर्ष, मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी पांच लाख की चतुरंग सेना लेकर स्वराज्य पर आ धमका. सारी जोड़-तोड़ करने के बाद, वह संभाजी महाराज से मात्र २ – ४ दुर्ग (किले) ही जीत सका. आखिरकार छल कपट कर के, ११ मार्च १६८९ को औरंगजेब ने संभाजी महाराज को तड़पा तड़पा के, अत्यंत क्रूरता के साथ समाप्त किया. उसे लगा, अब तो हिंदुओं का राज्य, यूं मसल दूंगा. लेकिन मराठों ने, शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र – राजाराम महाराज के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा. आखिर ३ मार्च १७०० को राजाराम महाराज भी चल बसे. औरंगजेब ने सोचा, ‘चलो, अब तो कोई नेता भी नहीं बचा इन मराठों का. अब तो जीत अपनी हैं.‘

किन्तु शिवाजी महाराज की प्रेरणा से सामान्य व्यक्ति, मावले, किसान… सभी सैनिक बन गए. मानो महाराष्ट्र में घास की पत्तियां भी भाले और बर्छी बन गई. आलमगीर औरंगजेब इस हिंदवी स्वराज्य को जीत न सका. पूरे २६ वर्ष वह महाराष्ट्र में, भारी भरकम सेना लेकर मराठों से लड़ता रहा. इन छब्बीस वर्षों में उसने आग्रा / दिल्ली का मुंह तक नहीं देखा. आखिरकार ८९ वर्ष की आयु में, ३ मार्च १७०७ को, उसकी महाराष्ट्र में, अहमदनगर के पास मौत हुई, और उसे औरंगाबाद के पास दफनाया गया. जो औरंगजेब हिंदवी स्वराज्य को मिटाने निकला था, उसकी कब्र उसी महाराष्ट्र में खुदी.

यह सब कैसे संभव हुआ..? छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात, जो सत्ताईस वर्ष का संघर्ष चला, उस संघर्ष की प्रेरणा थे, शिवाजी महाराज. उन्होने जो विचार दिया, वह सामान्य जनता के हृदय में जा बसा – “यह ईश्वरी कार्य हैं. अपने स्वराज्य का निर्माण यह तो ईश्वर की इच्छा हैं. यह धर्म का कार्य हैं.“

औरंगजेब के पहले तक के लगभग सारे मुगल बादशाहों के नाम, या तो हमे रटे हैं, या फिर उनका उल्लेख बार बार आता हैं. अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ…. वगैरा. लेकिन औरगजेब के बाद..? किसी मुगल बादशाह का कोई नाम स्मरण आता हैं, आपको ? नहीं आयेगा. क्यूंकी औरंगजेब के दफन होने के बाद, मुगल सल्तनत इतनी कमजोर हो गई, की उसको मराठे चलाने लगे. जिस दिन रायगड पर शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हो रहा था, उसी दिन मुगल साम्राज्य की उलटी गिनती प्रारंभ हो चुकी थी.

सन १७१९ में मराठों ने दिल्ली पर धावा बोला. तत्कालीन बादशाह ने घबराकर शरणागति स्वीकार की. उसने मराठों को ‘दिल्ली की सल्तनत का रक्षक’ कहा. वैसा करार (समझौता) उनके साथ किया. बाद में, पानीपत के तीसरे युध्द के बाद भी, सन १८०३ तक दिल्ली के लाल किले पर, हिंदवी साम्राज्य का भगवा ध्वज गर्व के साथ लहरा रहा था.

शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य की एक परिपूर्ण व्यवस्था तैयार की थी. अपने देश में मुस्लिम आक्रांताओं के आने से पहले, राज – काज संस्कृत में, या संस्कृत प्रचुर स्थानिक भाषाओं में होता था. किन्तु मुस्लिम आक्रांताओं ने इस देश के व्यवहार की भाषा को फारसी में बदल दिया. ऐसी भाषा, जो जन-सामान्य को समझती ही नहीं थी. सारे आज्ञापत्र फारसी में ही निकलते थे.

शिवाजी महाराज ने इसको बदला. राज्याभिषेक के समय, उन्होने रघुनाथ पंडित ‘अमात्य’ और धुंडीराज़ व्यास, इन दोनों के माध्यम से ‘राज व्यवहार कोश’ बनवाया. इसमे, दैनंदिन उपयोग में आने वाले सभी फारसी शब्दों के पर्यायवाची संस्कृत और प्राकृत (मराठी) शब्द दिये हुए हैं. स्वराज्य की सभी सूचनाएं और आज्ञापत्र, इस कोश की सहायता से संस्कृत और प्राकृत में लिखे जाने लगे.

इस हिंदवी साम्राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए शिवाजी महाराज ने अष्ट प्रधानों की योजना की. एक प्रकार से मंत्रिमंडल जैसा इसका स्वरूप था. इनके माध्यम से कार्यों का बटवारा और जिम्मेदारियों का विकेन्द्रीकरण अच्छे से होता था. अधिकारियों की जिम्मेदारियां (accountability) भी बनती थी. ये अष्ट प्रधान थे –
१. पंतप्रधान (जिन्हे पेशवा भी कहा जाता था) २. पंत अमात्य (वित्त मंत्री)
३. पंत सचिव (कार्यालय प्रमुख)  ४. मंत्री (शिवाजी महाराज के व्यक्तिगत सचिव)
५. सेनापति (सेना प्रमुख)    ६. पंत सुमंत (विदेश मंत्री)
७. न्यायाधीश      ८. पंडितराव दानाध्यक्ष (धर्मविभाग के प्रमुख)

इन सभी प्रधानों को मिलने वाला वेतन अच्छा खासा होता था. इनको औसत दस हजार से पंद्रह हजार सोने के ‘होन’ (शिवाजी महाराज के समय की मुद्रा. १ होन लगभग ३ ग्राम का होता था.) यह वार्षिक वेतन था. शिवाजी महाराज अपने लोगों की बहुत चिंता करते थे. किन्तु इसी के साथ वे बड़े कठोर अनुशासन की अपेक्षा रखते थे. पन्हालगड (कोल्हापुर) के युध्द के समय, सेनापति नेतोजी पालकर विलंब से पहुंचे. शिवाजी महाराज की रणनीति गड़बड़ा गई. एक हजार मराठे मारे गए. शिवाजी महाराज ने तत्काल प्रभाव से नेतोजी पालकर को बर्खास्त किया.

मिर्झा राजे जयसिंग से पराभव और बाद में उनसे समझौता करना और फिर आग्रा जाना, यह शिवाजी महाराज के जीवन का दुखद अध्याय रहा. इस समझौते में, उन्होने अपने ‘प्राणों से प्यारे’, २३ दुर्ग (किले) मुगलों को दे दिये. ५ मार्च १६६६ को शिवाजी महाराज आग्रा जाने के लिए निकले. १२ मई को वे आग्रा पहुंचे और १७ अगस्त १६६६ को शिवाजी महाराज आग्रा से निकल चुके थे. स्वराज्य में वापस आने के बाद, शिवाजी महाराज ने अपनी इस त्रासदी पर गहन चिंतन किया. आज की भाषा में जिसे SWOT Analysis (Strength, Weakness, Opportunity, Threats) कहते हैं, उसपर विचार किया. आग्रा जाते समय शिवाजी महाराज के पास मात्र १७ दुर्ग (किले) शेष बचे थे. उनके आग्रा प्रवास के दरम्यान, जीजाबाई ने एक किला और जीत लिया था. याने संख्या हुई १८. आने के बाद, पूरे सवा तीन वर्ष शिवाजी महाराज ने इस विषय पर, तथा स्वराज्य की मजबूती पर मनन – चिंतन किया. दुर्ग यह स्वराज्य की सुरक्षा के आधारस्तंभ हैं, यह बात एक बार फिर उन्होने अधोरेखित की.

इसके बाद, शिवाजी महाराज ने कई निर्णय लिए. तब तक स्वराज्य की राजधानी राजगढ़ थी. इसके पास तक शत्रु सेना पहुंच जाती थी. इसलिए, राजधानी की सुरक्षा के लिए, उन्होने दुर्गम पहाड़ पर बनाएं हुए रायगड दुर्ग को अपनी राजधानी बनाया. सवा तीन वर्ष के बाद, उन्होने कोंडाणा (सिंहगड) लेने के लिए तानाजी को कहा. यह उनका १९ वा किला था.

इसके बाद शिवाजी महाराज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अगले मात्र ८ वर्षों में, अर्थात १६७८ तक, उन्होने २६० दुर्ग (किले) जीत लिए थे. हिंदवी स्वराज्य, एक मजबूत आकार ले रहा था…!

शिवाजी महाराज यह शक्तिशाली, समृध्द और परिपूर्ण ऐसी हिन्दू संस्कृति के संवाहक थे. अखिल हिंदुस्तान को आक्रांताओं से मुक्त करने का, काशी – मथुरा – अयोध्या को पुनः प्राचीन वैभव दिलाने का उनका स्वप्न था.

१९६१ में, महाराष्ट्र राज्य की स्थापना होने के पश्चात, मुंबई में ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ पर शिवाजी महाराज की भव्य अश्वारूढ़ प्रतिमा का अनावरण हुआ. अध्यक्षता कर रहे थे, तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण. उन्होने अपने भाषण में कहा, “यदि शिवाजी महाराज नहीं होते, तो पाकिस्तान की सीमा, महाराष्ट्र के अंदर होती…”

इसी बात को कविराज भूषण ने बड़े ही प्रखरता से कहा है –
देवल गिरावते फिरावते निसान अली ऐसे डूबे राव राने सबी गये लबकी,
गौरागनपति आप औरन को देत ताप आप के मकान सब मारि गये दबकी.
पीरा पयगम्बरा दिगम्बरा दिखाई देत सिद्ध की सिधाई गई रही बात रबकी,
कासिहू ते कला जाती, मथुरा मसीद होती, सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥

सांच को न मानै देवीदेवता न जानै अरु ऐसी उर आनै मैं कहत बात जबकी,
और पातसाहन के हुती चाह हिन्दुन की अकबर साहजहां कहै साखि तबकी.
बब्बर के तिब्बर हुमायूं हद्द बान्धि गये दो मैं एक करीना कुरान बेद ढबकी,
कुम्भकर्न असुर औतारी अवरंगज़ेब कीन्ही कत्ल मथुरा दोहाई फेरी रबकी,
खोदि डारे देवी देव सहर मोहल्ला बांके लाखन तुरुक कीन्हे छूट गई तबकी.
भूषण भनत भाग्यो कासीपति बिस्वनाथ और कौन गिनती मै भूली गति भव की,
चारौ वर्ण धर्म छोडि कलमा नेवाज पढि सिवाजी न होतो तौ सुनति होत सबकी॥
अगर सिवाजी न होते, तो सुन्नत होत सबकी…!
–  प्रशांत पोळ

कोटा को साहित्य सुरभि से महका रहे हैं डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

कोटा साहित्यिक गतिविधियों के समन्वयक बने डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने साहित्यिक गतिविधियों को मित्रता प्रतिस्पर्द्धा के साथ नई हौसलों की उड़ान देकर बुलंदियां तक पहुंचाया दिया है। जी हां ! साहित्यिक मित्रों, राज्य स्तरीय भाषाई ,साहित्यिक अकादमियों के मुखिया शिक्षा मंत्री मदन दिलावर की शिक्षा नगरी और देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा के अध्यक्ष कोटा के सांसद ओम  बिरला के भाईजान राजेश बिरला की अध्यक्षता वाली  कोटा की सबसे पुरानी साहित्यिक संस्था भारतेन्दु समिति कोटा की होते हुए भी, यहां साहित्यिक गतिविधियों की रस्म अदायगी के चलते, साहित्यिक गतिविधियों के पंखों के  हौसलों को  बुलन्दियों की उड़ान  देने के लिये  विख्यात लेखक  जनसम्पर्क प्रचार समन्वयक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने खुद को कोटा की साहित्यिक गतिविधियों से जोड़कर साहित्यिक समन्वयक का काम किया ।
यही वजह है कि साहित्यिक गतिविधियों के मामले सूना – सूना सा दिखने वाली इस शैक्षणिक नगरी के गली कूंचों में  आज फिर से विभिन्न नेतृत्व में साहित्यिक गतिविधियों की शुरुआत हुई है और कोटा शैक्षणिक नगरी के साथ –  साथ साहित्यिक गतिविधियों में भी मुखर हो चला है।
यूँ तो कोटा में राज्य और राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार है लेकिन साहित्यकरों में से कुछ साहित्यकार  अव्वल,  तो कुछ खुद तक खुद को  सीमित रखते हैं । खुद की पुस्तक, खुद की परिचर्चा , एक दूसरे की वाहवाही एक दूसरे का समर्थन , एक दूसरे का प्रोत्साहन , कोटा साहित्यिक गतिविधियों में बहुत कम सा था । लेकिन विख्यात लेखक डॉ.  प्रभात कुमार सिंघल  जो इतिहास , पर्यटन , जन सम्पर्क , पत्रकारिता सहित कई विषयों पर बेहतरीन पुस्तकों का लेखन प्रकाशन कर चुके हैं ने  इस कमी को महसूस किया । उन्होंने  साहित्यकारों से सरोकार शुरू कर  साहित्यिक गतिविधियों के विषय के मुख्य समन्वयक बन गए । कोटा के प्रसिद्ध साहित्यकारों को  राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर पुरस्कृत होने पर  उनकी हौसला अफ़ज़ाई करना , उन्हें सम्मानित करना ,गोष्ठियां ,सम्मान समारोह आयोजित करना को इन्होंने अपनी दिनचर्या का विषय बना लिया ।
 जनसम्पर्क समन्वय में पारंगत डॉ.सिंघल ने  साहित्यिक समन्वयक  की मोर्चा बंदी शुरू की , साहित्यकारों का दर्द जाना , उन्हें रोज़ मर्रा एक दूसरे के साथ , एक दूसरे के प्रोत्साहन , एक दूसरे के सम्मान की  गतिविधियों से ,जोड़ा ।  साहित्य में  उस्तादों के उस्ताद , शागिर्दों और समकक्ष साथियों को साथ बिठाया और उनके अनुभवों का लाभ लिया ।  मंचों के ज़रिये  कार्यक्रमों की गतिविधियों को सोशल मिडिया , प्रिंट मीडिया के ज़रिये चर्चा में लाये ।
सभी जानते है कि कोटा साहित्यिक समृद्धि , साहित्यिक लेखन में अव्वलीन नहीं तो किसी दूसरे शहरों से कम भी नहीं है।  यहां राष्ट्रीय , राज्य , स्थानीय स्तर के कवि , शायर , लेखक , अतुकांत कवि है  जो हर भाषा में प्रमुखता से अव्वल हैं ।  हिंदी , उर्दू , राजस्थानी , हाड़ोती में इन साहित्यकारों के लेखन से देश भर के लोग लाभान्वित है ।  डॉक्टर प्रभात कुमार सिंघल ने गद्य लेखन,  पद्य लेखन , कविता लेखन , गज़लकार , पत्रकार , शृंगार लेखन ,जिनमें हर आयु वर्ग  के लेखक , शामिल किये । बाल साहित्य लेखक,, महिला लेखिकाएं , युवा लेखक , अधेड़ , बुज़ुर्ग लेखक ,चिंतक  और विचारक सभी को तो एक सूत्र में पिरोकर इन्होंने प्रतिभाओं को निखारने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्द्धा के साथप्रतियोगिताओं का आयोजन किया , विजेताओं को उत्सावर्धन के लिए समारोह में पुरस्कृत कर उनका मान और उत्साह भी बढ़ाया । महिला लेखिकाओं को एक  जुट कर उनके लेखन में समन्वय स्थापित किया  और पृथक से एक पुस्तक ” नारी चेतना की साहित्यिक उड़ान ” का प्रकाशन कर सभी लेखिकाओं के लेखन को उक्त पुस्तक में संजो लिया ।  शृंगार लेखन पर प्रतियोगिता आयोजित की , बाल साहित्यकारों के लेखन की प्रतियोगिताएं हुई , जबकि , गांधी जी, वन्यजीव, होली  जैसे कई ऐसे विषय है , जिन पर इन्होंने सबकी साहित्यिक खबर ली और सभी को साहित्यिक खबर दी ।
ख़ुशी की बात यह है कि  इनके  इस साहित्यिक समवन्य कृत्य से  कोटा , हाड़ोती , राजस्थान में साहित्यिक गतिविधियों से जुडी महिलाओं , बच्चों ,पुरुषों में उत्साह और जागरूकता का माहौल बना । कोटा के वरिष्ठ  साहित्यकारों को राष्ट्रीय , राज्य स्तर पर पुरस्कृत किया गया , सम्मानित किया गया । जिन्हें कोटा के डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त कई दर्जन प्रोफेसर , लेक्चरर , स्कूली लेचरर , आम लेखकों , लेखिकाओं ने अपनी लेखनी के ज़रिये ,सम्मान दिया , बैठकों में लगातार उपस्थित रहीं । डॉ. सिंघल की गोष्ठियों , कार्यक्रमों में जाने वालों को अहसास हुआ कि कोटा तो साहित्यिक दुनिया के उस्ताद , उस्तादों के उस्ताद और खासकर महिला लेखिकाओं को लेकर सबसे समृद्ध शहर है ।
यक़ीनन कोटा साहित्यिक गतविधियों में अव्वल रहा है  चाहे कोटा मेला दशहरे में  राजस्थानी भाषा का गला काटने के लिए , राजस्थानी भाषा कवि सम्मेलन की हत्या हुई हो , इसके लिए साहित्यकारों को संघर्ष करना पड़ा हो , स्थानीय कवियों , शायरों , साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने के लिए प्रतिस्पर्द्धा गोष्ठियों , कार्यक्रमों , पुरस्कार  समारोह व्यवस्थाओं पर भारतेन्दु समिति के कई वर्षों से सार्वजनिक व्यवस्था के साथ चुनाव नहीं होने , साहित्यिक लोगों को  इस संस्था के बारे में जानकारी नहीं होने के कारण,  देश की सबसे पुरानी भारतेन्दु हरीश चंद्र के नाम पर बनी इस संस्था का जहाँ संवैधानिक व्यवस्था के तहत  चुनाव का नियम ,है  अपना खुद का भवन है , साहित्यिक सभागार है , वहां की गतिविधियों के ठप्प होने पर , चाहे ऊर्जावान , साहित्यकारों , पत्रकारों ने कोई आवाज़ नहीं उठाई हो , लेकिन कोटा में राज्य स्तरीय  हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ ।
कोटा के साहित्यकार जितेंद्र निर्मोही ,  विजय जोशी , डॉ. प्रभात कुमार सिंघल , डॉ. कृष्ण कुमारी,  अतुल कनक , अतुल चतुर्वेदी , ओम जी , कुंवर जावेद , शकूर अनवर , बशीर अहमद मयूख, नरेंद्र नाथ चतुर्वेदी, क्षमा चतुर्वेदी, हरिचरण अहरवाल,   अम्बिका दत्त, दुर्गादान सिंह गौड़, ओम नागर, ,मुकुट मणिराज,,विश्वामित्र दाधीच,,कवि कल्याण सिंह शेखावत, किशन रत्नानी , हलीम आयना , चाँद शेरी , महेश पंचोली , पुरुषोत्तम पंचोली , सुरेश अलबेला, जगदीश सोलंकी,   सहित बीस दर्जन से भी अधिक कवि , शायर , साहित्यकार शामिल है  जिनमें  महिलाओं में बहुत उत्साह नज़र आया है । महिलाएं  जो डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त है , उनका लेखन , यक़ीनन , दिल को छूने वाला है , सारगर्भित लेखन , कोटा की कई महिला लेखिकाओं की पहचान है । जबकि कई बाल साहित्यकार  उभर कर सामने आये है ।
यक़ीनन , कोटा में साहित्यिक गतिविधियों को पंख लगे हैं, उन्हें हौसलों की उड़ान मिली है। चाहे साहित्यिक संस्थाएं अपनी ज़िम्मेदारी से दूर हो चली हों , चाहे भारतेन्दु के नाम पर , भारतेन्दु समिति की साहित्यिक गतिविधियों को लेकर साहित्यकार चुप्पी साधे बैठे हों , चाहे , शिक्षा मंत्री कोटा के ही होने के बावजूद भी , कोटा के कवियों , साहित्यकारों को , स्कूली शिक्षा से नहीं जोड़ा गया हो , चाहे , हिंदी साहित्य  एकेडमी , उर्दू साहित्य  एकेडमी , सिंधी साहित्य एकेडमी , राजस्थानी साहित्य एकेडमी ,, पंजाबी साहित्य एकेडमी , संस्कृत साहित्य एकेडमी में शिक्षा मंत्री कोटा के इस शहर से  उच्च सम्मान नहीं मिलने , साहित्यिक लेखन में सहयोग नहीं मिलने , अकादमियों में उनकी नामजदगी के प्रयास नहीं होने पर  कोटा के साहित्यकार आवाज़ बनकर उभारने  के मामले में बेबस  और  लाचार से नज़र आते हों , लेकिन  यह कड़वा सच है कि डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने  इनकी साहित्यिक सम्वन्यक समझ , साहित्यिक जागरूक कार्यक्रमों के आयोजनों , गोष्ठियों , सम्मान समारोह ने , कोटा को फिर से साहित्यिक गतिविधियों में पुनर्जीवित कर दिया है । यहां फिर से दोस्ताना लेखन प्रतिस्पर्द्धा का माहौल बना है , हर वर्ग , हर आयु वर्ग , पुरुष , महिलाओं,  सभी साहित्यकारों में , लेखन के प्रति , बहतरीन लेखन के प्रति , रूचि बढ़ी है। गुणवत्ता लेखन के प्रति  वाहवाही कर उत्साहवर्धन की परम्परा शुरू हुई है । इसके लिए डॉ. प्रभात कुमार सिंघल  और उनकी साहित्यिक टीम , उनके पुस्तक लेखन कार्यों , प्रकाशित पुस्तक संग्रहों को सेल्यूट , सलाम,  बधाई ।
अख्तर खान ‘ अकेला ‘
( लेखक पिछले 50 वर्षों से पत्रकारिता और लेखन से जुड़े है और एडवोकेट हैं )
कोटा राजस्थान
 संपर्क : 9829086339

मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार का परिवारः: पिता डॉक्टर, बहनोई आईपीएस, बड़ी बेटी आईएएस, छोटी बेटी आईआरएस

मुख्य निर्वाचन आयुक्त  1988 बैच के केरल कैडर के आईएएस अधिकारी  हैं. वह कुछ समय तक केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर रहे. उन्होंने केंद्रीय गृह विभाग और सहकारिता विभाग में भी कार्य किया. वह सहकारिता विभाग के सचिव पद से रिटायर हुए, जिसके बाद वह चुनाव आयुक्त बने. अब मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के रिटायरमेंट के बाद उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया है. आइए जानते हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के परिवार में कौन-कौन हैं?

ज्ञानेश कुमार गुप्ता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के आगरा के रहने वाले हैं. उनके पिता सुबोध कुमार गुप्ता पेशे से डॉक्टर हैं और वह चीफ मेडिकल ऑफिसर के पद से रिटायर हुए हैं. सरकारी नौकरी में होने के कारण उनके पिता सुबोध कुमार का अक्सर ट्रांसफर होता था, लिहाजा ज्ञानेश कुमार की पढ़ाई-लिखाई कई शहरों में हुई. ज्ञानेश कुमार ने गोरखपुर, लखनऊ और कानपुर आदि शहरों से पढ़ाई पूरी की. उन्होंने 12वीं लखनऊ के काल्विन तालुकेदार कॉलेज से की और इस स्कूल के टॉपर भी रहे. इसके बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज से भी पढ़ाई की. 12वीं के बाद उनका एडमिशन IIT कानपुर में हो गया. यहां से उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक किया. इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज परीक्षा की तैयारी की और 1988 में आईएएस बन गए.

ज्ञानेश कुमार के परिवार में उनके छोटे भाई मनीष कुमार आईआरएस अधिकारी हैं, तो उनकी बहन रोली इंदौर में स्कूल चलाती हैं. उनके पति उपेंद्र कुमार जैन आईपीएस अधिकारी हैं. , उपेंद्र कुमार जैन 1992 बैच के मध्य प्रदेश कैडर के एडीजी रैंक के आईपीएस अधिकारी हैं.

स्ट्रीट लाइट में पढ़े, 6 विवाह किए और देश के सबसे बड़े उद्योगपति बने रामकृष्ण डालमिया

रामकृष्ण डालमिया ( ७ अप्रैल १८९३ — २६ सितम्बर १९७८) भारत के उद्योगपति थे जिन्होंने अपने भाई जयदयाल डालमिया के साथ डालमिया समूह की स्थापना की थी। उन्होंने स्वामी करपात्री के साथ मिलकर गौ हत्या एवं हिंदू विवाह अधिनियम के मुद्दे पर जवाहरलाल नेहरू से कड़ी टक्कर ली थी। देश के सभी बड़े नेताओं से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे और वे उनकी खुले हाथ से आर्थिक सहायता किया करते थे।

व्यक्तिगत जीवन में डालमिया बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. उन्होंने अच्छे दिनों में करोड़ों रुपये धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए दान में दिये. इसके अतिरिक्त उन्होंने यह संकल्प भी लिया था कि जबतक इस देश में गोवध पर कानूनन प्रतिबंध नहीं लगेगा वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे. उन्होंने इस संकल्प को अंतिम सांस तक निभाया. गौवंश हत्या विरोध में 1978 में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

सेठ रामकृष्ण डालमिया  को नेहरू ने झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया तथा कौड़ी-कौड़ी का मोहताज़ बना दिया । दरअसल डालमिया जी ने स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ मिलकर गौहत्या एवम हिंदू कोड बिल पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर नेहरू से कड़ी टक्कर ले ली थी । लेकिन नेहरू ने हिन्दू भावनाओं का दमन करते हुए गौहत्या पर प्रतिबंध भी नही लगाई तथा हिन्दू कोड बिल भी पास कर दिया और प्रतिशोध स्वरूप हिंदूवादी सेठ डालमिया को जेल में भी डाल दिया तथा उनके उद्योग धंधों को बर्बाद कर दिया ।

डालमिया एक कट्टर सनातनी हिन्दू थे और उनके विख्यात हिन्दू संत स्वामी करपात्री जी महाराज से घनिष्ट संबंध थे.

करपात्री जी महाराज ने 1948 में एक राजनीतिक पार्टी राम राज्य परिषद स्थापित की थी. 1952 के चुनाव में यह पार्टी लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी और उसने 18 सीटों पर विजय प्राप्त की.

हिन्दू कोड बिल और गोवध पर प्रतिबंध लगाने के प्रश्न पर डालमिया से नेहरू की ठन गई. पंडित नेहरू हिन्दू कोड बिल पारित करवाना चाहते थे जबकि स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया सेठ इसके खिलाफ थे.

नेहरू के इशारे पर डालमिया के खिलाफ कंपनियों में घोटाले के आरोपों को लोकसभा में जोरदार ढंग से उछाला गया. इन आरोपों के जांच के लिए एक विविन आयोग बना. बाद में यह मामला स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिसमेंट को जांच के लिए सौंप दिया गया.

नेहरू ने अपनी पूरी सरकार को डालमिया के खिलाफ लगा दिया. उन्हें हर सरकारी विभाग में प्रधानमंत्री के इशारे पर परेशान और प्रताड़ित करना शुरू किया. उन्हें अनेक बेबुनियाद मामलों में फंसाया गया.

नेहरू की कोप दृष्टि ने एक लाख करोड़ के मालिक डालमिया को दिवालिया बनाकर रख दिया. उन्हें टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अनेक उद्योगों को औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा. अदालत में मुकदमा चला और डालमिया को तीन साल कैद की सज़ा सुनाई गई.

1933 में एक चीनी मिल से इनका उदय हुआ था। भाग्य ने डटकर डालमिया का साथ दिया और कुछ ही वर्षों के बाद वे देश के सबसे बड़े उद्योगपति बन गए। उन्होंने सभी तरह के ब्यापार मे हाथ डाला और उसे सफलता के शिखर पर ले गये। उनका औद्योगिक साम्राज्य अविभाजित भारत के सभी भागों में फैला हुआ था जिसमें समाचारपत्र, बैंक, बीमा कम्पनियां, विमानसेवाएं, सीमेंट, वस्त्र उद्योग, खाद्य पदार्थ आदि सैकड़ों उद्योग शामिल थे।

डालमिया नगर में 3,800 एकड़ में फैले परिसर में सीमेंट, चीनी, कागज, रसायन, वनस्पति, एस्बेस्टस शीट बनाने वाली इकाइयाँ थीं। इस समूह का अपना बिजली घर और रेलवे भी था। इसके अलावा इस समूह के पास त्रिची, चरखी दादरी (दिल्ली के पास), डंडोट (लाहौर) और कराची में सीमेंट के कारखाने भी थे। इसके अलावा पटियाला में एक बिस्किट कारखाना और बिहार के झरिया और बंगाल के रानीगंज क्षेत्रों में कोयला खदानें थीं।

राम कृष्ण डालमिया ने 18 साल की उम्र में जब कारोबार की दुनिया में कदम रखा, तो पिता विरासत में उनके लिए कुछ भी छोड़कर नहीं गए थे. इसके बाद अगले कुछ सालों में उन्होंने बड़ा उद्योग खड़ा कर लिया. जबकि उनकी शैक्षणिक योग्यता के बारे में बात करें तो प्राइमरी के बाद उनके स्कूल या कॉलेज जाने के कोई सबूत नहीं मिलते. लेकिन इन्होंने डालमिया ग्रुप की स्‍थापना की।

रामकृष्ण डालमिया का जन्म राजस्थान के चिड़ावा नामक एक कस्बे में एक गरीब अग्रवाल घर में हुआ था। यहीं उन्होंने मामूली शिक्षा प्राप्त की और मूलभूत अंकगणित, अंग्रेजी तथा महाजनी सीखी। जब वे केवल १८ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। इसके बाद पूरे परिवार को पालने का भार उनके कन्धों पर आ गया। उनके घर में उनकी पत्नी, उनकी माँ, दादी और छोटा भाई थे।

इस स्थिति में वे अपने मामा मोतीलाल झुनझुनवाला के पास कोलकाता चले गए थे। उनके मामा ने वहां पर बुलियन मार्केट में एक विक्रेता (सेल्समैन) का कार्य दिया। वे लन्दन के बुलियन एजेन्टों द्वारा भेजे गये टेलीग्राम को अपनी मामूली शिक्षा के वावजूद पढ़ लेते थे। इन कूट सन्देशों को पढ़ने का प्रभाव यह हुआ कि रामकृष्ण डालमिया में बुलियन व्यवसाय की बारीकियों से सम्बन्धित अन्तर्दृष्टि पैदा हो गयी। इससे उत्साहित होकर वे चाँदी के सट्टा बाजार में कूद पड़े। दुर्भाग्य से उन्हें इसमें वे सफल नहीं हुए। इसी के चलते उनके मामा से भी सम्बन्ध टूट गये।

डालमिया ने दलाली का काम शुरू कर दिया। उनके पास व्यापार के लिए अंतर्निहित मारवाड़ी कौशल और कुछ संपर्कों के अलावा कुछ नहीं था। हताश और यह जानने के लिए उत्सुक कि भाग्य ने उनके लिए क्या रखा है, वह एक दिन पंडित मोतीलाल बियाला (फतेहपुर, राजस्थान) के पास गए, जो एक संत स्वभाव के व्यक्ति थे, जो एक महान ज्योतिषी भी थे। उनकी कुंडली का अध्ययन करने के बाद, पंडित ने भविष्यवाणी की कि डेढ़ महीने के भीतर वह एक लाख रुपये कमा लेंगे। सच में, किस्मत ने वैसा ही किया जैसा कि भविष्यवाणी की गई थी और भाग्य के अजीब मोड़ से उन्होंने एक सर्राफा सौदे से 1,56,000 रुपये का लाभ कमाया, जो रद्द होने वाला था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई दिव्य हाथ खेल रहा था, जिसने उन्हें यह उदारता प्रदान की। इसके बाद वे अन्य वस्तुओं के सट्टे में भी हाथ आजमाने लगे। अपनी ईमानदारी और लगन से इन्होंने बहुत से कारोबारियों का हृदय जीत लिया। इसी समय उन्होंने कलकत्ता शेयर और स्टोक एक्सचेंज के बालदेव दासजी नाथानी के साथ साझेदारी की। नाथानी के आदर्शों ने डालमिया के व्यापार तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

सट्टा बाजार में सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने अपने व्यवसाय का विविधीकरण करने की सोची। इसी तारतम्य में वे एक दिन बिहार के दिनापुर गये और वहाँ ट्रेडिंग का काम शुरू किया। इसी समय उनकी दृष्टि उस क्षेत्र में एक चीनी मिल चालू करने की तरफ गयी जिसमें उनको अपार सम्भावना दिखी। इस विचार को कार्यरूप में बदलने के लिये उन्होंने आरा के प्रसिद्ध जमींदार निर्मल कुमार जैन के साथ हाथ मिला लिया। सन १९३२ में यह मिल बनकर तैयार हो गयी। यह मिल दिनापुर के निकट बिहटा में स्थापित हुई और इसका नाम ‘साउथ बिहार सुगर मिल्स लिमिटेड’ रखा गया। यह उस समय भारत की सबसे बड़ी चीनी मिल थी।

इसी बीच रामकृष्ण अपनी पुत्री रमा के लिये एक योग्य वर की तलाश में थे। अन्त में सन १९३२ में साहू शान्ति प्रसाद जैन से रमा का विवाह तय हुआ जो तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (यूपी) के नजीबाबाद के एक प्रसिद्ध जमींदार और वित्तपोषक थे। शान्ति प्रसाद वित्त, अर्थशास्त्र और वाणिज्य के मामलों में पारंगत थे। विवाह के बाद शान्ति प्रसाद ने ही एक साझेदार के रूप में रामकृष्ण डालमिया के बंगाल, बिहार और उड़ीसाके उद्योंगों का प्रबन्धन किया। इनके मध्यप्रान्त, बाम्बे प्रेसिडेन्सी और दक्षीणी भारत में फैले उद्योगों का प्रबन्धन श्रियान्स प्रसाद जैन ने किया जो शान्ति प्रसाद के बहनोई थे।

यह भी जान लें कि साहू शांति प्रसाद जैन, टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह के मालिक साहू जैन परिवार के सदस्य थे। वे रामकृष्ण डालमिया के दामाद थे. उन्होंने डालमिया-जैन समूह को भारत के सबसे बड़े व्यापारिक घरानों में से एक बनाने में मदद की. वे बेनेट कोलमैन कंपनी जिसके अंतर्गत टाईम्स ऑफ इंडिया समूह आता है उसके असली मालिक थे।

रामकृष्ण डालमिया ने अपने विकसित हो रहे व्यवसाय में अपने छोटे भाई जयदयाल डालमिया को भी लगा लिया। जयदयाल ने संसार भर से अद्यतन प्रौद्योगिकी और मशीनरी अपनी कम्पनियों में लगाया।

कुछ ही समय बाद रोहतास जिले के डेहरी-ऑन-सोन में एक दूसरी चीनी मिल आरम्भ की गयी। इसके बाद और कई चीनी मिलें आरम्भ की गयीं, जैसे सारण की ‘एस के जी सुगर लिमिटेड’, रामपुर की ‘राजा सुगर कम्पनी लिमिटेड’ (१९३२ में), रामपुर में ही ‘बुलन्द सुगर कम्पनी लिमिटेड’ , चम्पारन की एस के जी सुगर लिमिटेड आदि।

वे अत्यधिक आध्यात्मिक और दार्शनिक व  साहित्य सृजन से जुड़े रहना चाहते थे। उन्होंने सड़क के साइनबोर्डों को पढ़ने के बाद बंगाली सीखी और कलकत्ता की स्ट्रीट लाइटों के नीचे  अंग्रेजी सीखी, उन्होंने ए गाइड टू ब्लिस, फियरलेसनेस एंड डिवाइन लॉ जैसी कई किताबें लिखीं। उन्होंने सुशिक्षित महिलाओं से 6 विवाह किए।  उनमें से एक सरस्वती थी, जो उनकी छह पत्नियों में से चौथी थी, जिसके साथ उन्होंने अपना अधिकांश जीवन बिताया। उनकी अन्य पत्नियाँ, नर्बदा देवी, दुर्गा देवी, प्रीतम, आशा और दिनेश नंदिनी थीं, जिनमें से नर्बदा देवी और दुर्गा देवी गाँव की महिलाएँ थीं। नर्बदा देवी की मृत्यु तब हुई जब वे मात्र 16 वर्ष के थे।

उनके उद्योग के विस्तार का अगला चरण १९३० के दशक के मध्य में हुआ जब उन्होंने देश के विभिन्न भागों में सीमेन्ट के कारखाने स्थापित किये। भारत के विकास में यह उनकी सबसे बड़ा योगदान है। उनका उद्देश एसीसी लिमिटेड के एकाधिकार को समाप्त करना था जिसका उस समय सीमेन्ट के निर्माण में एकछत्र राज्य था। इनका सबसे बड़ा कारखाना डालमियानगर में था। दूसरा कारखाना कराची के शान्तिनगर में था। डाल्मिया सीमेन्ट के पास कुछ छोटे सीमेन्ट कारखाने भी थे, जिसमें से एक ड्न्डोट (अब पाकिस्तान में) में था और दूसरा मद्रास प्रेसिडेन्सी में डालमियापुरम नामक स्थान पर था। एक और कारखाना डालमिया दादरी (अब हरियाणा में) में था।

1936 में भारत इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के अधिग्रहण से शुरू करते हुए, डालमिया ने 1937 में नेशनल सेफ डिपॉजिट एंड कोल्ड स्टोरेज लिमिटेड (कलकत्ता, लखनऊ और कानपुर में विशाल लोहे की तिजोरियों और भंडारण सुविधाओं के साथ मजबूत कमरों की एक श्रृंखला) और बाद में 1943 में भारत फायर एंड जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड की स्थापना की, जो एक अग्रणी सामान्य बीमा कंपनी थी। उसी वर्ष उन्होंने भारत बैंक लिमिटेड की स्थापना की, जो स्थानीय बाजारों और उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वतंत्रता मिलने तक 292 शाखा कार्यालयों तक पहुंच गया।

1956 में, विवियन बोस जांच आयोग (नेहरू सरकार द्वारा नियुक्त) के निष्कर्षों के आधार पर, रामकृष्ण डालमिया पर धन के दुरुपयोग और शेयर बाजार में हेरफेर का आरोप लगाया गया और उन्हें जेल भेज दिया गया। नतीजतन, उनकी कुछ कंपनियां जो विवादों में उलझी हुई थीं, उन्हें नुकसान हुआ। इससे भी बदतर, उन्होंने अपने स्टार प्रदर्शन करने वाले बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड और सवाई माधोपुर में सीमेंट फैक्ट्री खो दी – उन्हें उन्हें शांति प्रसाद जैन को बेचना पड़ा – जिसने एक उद्योगपति के रूप में उनके भविष्य को एक गंभीर झटका दिया।

कहा जाता था कि वो जिस कारोबार में हाथ डालते थे, वहां सफलता उनके कदम चूमती थी. डालमिया के पास अकूत संपत्ति थी और ताकत भी थी. महात्मा गांधी से लेकर मोहम्मद अली जिन्ना तक से उनके अच्छे संबंध थे।