Monday, November 25, 2024
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हमारी हथेलियों में क्या रहस्य छुपा है !

अपनी मातृभूमि तथा राष्ट्र के प्रति भक्ति और प्रेम हमारा प्रथम कर्तव्य है । माता से संस्कारों के रूप में प्राप्त शिक्षा हमें बताती है कि यदि परिवार हमारा लघु रूप है तो हम अपने अग्रजों का अनुकरण करते हैं । उनके गौरव से हमें ऊर्जा और प्रसन्नता की प्राप्ति होती है । मन स्वाभिमान के भाव से भर जाता है। वैसे ही हमारा संपूर्ण भारत देश एक परिवार है और हम सब देशवासी इस भारत माता की संताने हैं —

” उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् !
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:!! ”
यदि वर्तमान संताने हम सब हैं तो दिवंगत महापुरुष या पूर्वज हमारे अग्रज हैं !अतः अपने प्रतापी अग्रजों या पूर्वजों के स्मरण मात्र से हमारे हृदय में स्वाभिमान के पवित्र भाव भर उठते हैं। जिस कारण प्रसन्नता, स्फूर्ति ,उल्लास, दृढ़ता और उत्साह के साथ अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ता हुआ मनुष्य नई-नई सफलताएं अवश्य प्राप्त करता है! सफलता के लिए नित नई-नई उपलब्धियां जितनी जरूरी हैं उतनी ही जरूरी है अपनी खूबियों को जानना अर्थात् स्वयं को जानना, अपने इर्द-गिर्द की विशेषताओं को समझना! अपने देश को जानना !यहां की विशेषताओं का बोध करना और उसे अपने जीवन में उतरना तथा उस पर विश्वास बनाए रखना!

जीवन का शुभारंभ प्रातः काल से होता है और प्रातः काल होते ही कर्मों का शुभारंभ हो जाता है! काम सदैव हाथों से होते हैं !ईश्वर की असीम अनुकंपा है कि उन्होंने हमें दो-दो हाथ काम  करने के लिए दिए हुए हैं जिससे हम अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म करते हैं! इन्हीं हाथों में हमारे कर्म और भाग्य की रेखाएं भी विराजमान है जिसे ईश्वर ने बनाए हैं !अतः प्रातः काल उठकर आत्महित की कामना से प्रातः स्मरण का पाठ करने से सर्वशक्तिमान ईश्वर में हमारा विश्वास और अटूट होता है! हमारा चरित्र उत्तम होता है! हमारा मन दिन भर प्रसन्नता के भावों से भरा रहता है !उमंग की कमी नहीं होती! किसी भी स्थान एवं किसी भी व्यक्तियों के बीच रहने पर भी हमारे मन, मस्तिष्क एवं आत्मा में आत्म गौरव का भाव भरा रहता है! नकारात्मकता के भाव हमारे ऊपर प्रबल नहीं होते और हम अच्छी सोच के साथ दिनभर कार्य करते रहते हैं! ऐसा हमारे संस्कृति में उल्लिखित है! इन्हीं भारतीय परंपरा के ज्ञान को आत्मसात करना भारत बोध कहलाता है!
दिन और रात का निर्धारण प्रकृति करती है लेकिन अपने कर्म द्वारा भाग्य का निर्धारण हम स्वयं करते हैं ! पूर्व जन्म से इस जन्म तक सब कुछ हमारे कर्मों का ही लेखा-जोखा है! विख्यात है कि ‘जैसा करेंगे वैसा ही भरेंगे ‘ इसीलिए पुरुषार्थ का प्रतीक ‘अपना हाथ जगन्नाथ ‘ की भावना से हमें प्रातः काल उठकर बिस्तर पर रहते हुए ही सर्वप्रथम अपने दोनों हाथों को फैलाकर उनका दर्शन करते हुए इस श्लोक का उच्चारण करना चाहिए–
“कराग्रे वसते लक्ष्मी: कर मध्ये सरस्वती !
करमूले तू गोविंद: प्रभाते कर दर्शनम्!! ”
क्योंकि हमारे हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी का निवास है ! हाथ के मध्य भाग में सरस्वती तथा हाथ के मूल में विष्णु देव का निवास है! कोई भी काम यानि पुरुषार्थ हाथों से ही किए जाते हैं और कर्म की मूल में अर्थात् जड़ में संपूर्ण जगत का पालन करने वाले गोविंद भगवान विष्णु का वास होता है! अतः उनका ध्यान करके हाथों के मध्य में ज्ञान- विज्ञान की देवी सरस्वती का वास होता है! जिनका ध्यान करने के परिणाम स्वरुप सभी के सुखों को देने वाली देवी लक्ष्मी की प्राप्ति होगी, यही तात्पर्य लेकर अपने हाथों का दर्शन करके अपने दिन को मंगल बनाने की प्रार्थना की जाती है, जिससे हमारा दिन मंगलमय हो!
 हमारी भारतीय संस्कृति हर कदम पर हमें ऐसा ज्ञान देती है जो विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है ! तीनों लोकों में सृजन,भरण और संहार के तीनों (देवता ब्रह्मा विष्णु महेश) हमारे भाग्य तथा संपूर्ण ब्रह्मांड का संचालन करने वाले ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु, यह सभी ग्रह मेरे प्रभात को शुभ एवं मंगलकारी करें! इस अभिलाषा के साथ हम इस श्लोक से अपने दिन का आरंभ करते हैं  —
” ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरान्तकारी, भानु शशी भूमि सुतो बुधश्च!
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव:, कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्!! ”
 इस प्रकार देव स्मरण के साथ अच्छे कर्मों से हम दिन का शुभारंभ कर अपने भाग्य का मंगलकारी निर्धारण कर सकते हैं! ज्ञान गौरव से युक्त भारतीय संस्कृति तथा अपने कर्मों पर हमें गर्व होना चाहिए! जिसमें सर्वथा मानव कल्याण की भावना निहित है!
डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)

अरब सागर में डूबी पुरातन द्वारका

भारत से सटा समुद्रअपने आप में कई रहस्य समेटे हुए हैं। समुद्र के नीचे आज भी ऐसी कई साइट्स दबी हुई हैं जिनके बारे में कम लोगों को जानकारी है। कुछ वर्षों पहले एक ऐसी ही जगह की खोज हुई थी जिसके बारे में हर कोई हैरान था। ऐसी ही है गुजरात के एतिहासिक द्वारका नगरी । जिसके प्रमाण आज भी गहरे समुद्र में मौजूद है।

सप्त पुरी चार धाम में शामिल
द्वारका धाम हिंदू धर्म के चारों धामों में से एक है। यह गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में अरब सागर के द्वीप पर स्थित है। इस नगरी का धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। ऐसी मान्यता है कि मथुरा छोड़ने के बाद अपने परिजनों एवं यादव वंश की रक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण ने भाई बलराम तथा यादववंशियों के साथ मिलकर द्वारका पुरी का निर्माण विश्वकर्मा से करवाया था। यदुवंश की समाप्ति और भगवान श्रीकृष्ण की जीवनलीला पूर्ण होते ही द्वारका समुद्र में डूब गई मानी जाती है। इस क्षेत्र का प्राचीन नाम कुश स्थली था। धार्मिक दृष्टि से द्वारका को चार धाम और सप्तपुरियों में भी गिना जाता है।

आज की द्वारिका से अलग
आज वर्तमान में स्थित द्वारका, गोमती द्वारका के नाम से जानी जाती है। यहां आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए आदि शंकराचार्य ने द्वारकापीठ की स्थापना की थी। और अनेक मंदिरों वा धर्म स्थलों को निर्मित किया गया। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों में भी इस क्षेत्र में रेत एवं समुद्र के अंदर से प्राचीन द्वारका के अवशेष प्राप्त हुए हैं। द्वारका की स्थिति एवं बनावट समुद्र के बीच द्वीप पर बने किले के समान है।

पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन द्वारका नगरी खुद भगवान श्रीकृष्ण ने बसाई थी. जो एक वक्त के बाद समंदर में समा गई। द्वारकाधीश मंदिर के पुजारी मुरली ठाकर के  अनुसार द्वारका 84 किलोमीटर में फैली दुर्गनुमा सिटी थी, जो गोमती नदी और अरब सागर के संगम के तट पर बसी थी।

पानी में डूबी द्वारका की जानकारी
प्राचीन द्वारका नगरी, कुछ दशक पहले तक काल्पनिक मानी जाती थी। पहली बार भारतीय वायु सेना के पायलटों की नजर, द्वारका के समुद्री अवशेष पर पड़ी, जो समुद्र में बहुत नीचे से उड़ान भर रहे थे। 1970 के जामनगर के गजेटियर में इस बात का उल्लेख मिलता है।आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि बीसवीं सदी के मध्य में पहली बार द्वारका नगरी को ढूंढने का प्रयास हुआ। 1960 के दशक में पहली बार डेक्कन कॉलेज पुणे ने यहां खुदाई की थी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 1979 में एक और खुदाई की। जिसमें कई तरह के पात्र, घड़े, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और कई दूसरे अवशेष मिले हैं ।

पुरातत्व विभाग के मुताबिक इस खुदाई में 500 से ज्यादा चीजें मिलीं, जिनकी डेटिंग से पता लगा कि यह 2000 साल से ज्यादा पुरानी हैं। पानी के अंदर पत्थर के बड़े-बड़े कॉलम, अवशेष जैसी चीजें मिलीं हैं।

2007 की खुदाई से बदला इतिहास
साल 2007 में पहली बार द्वारका में बड़े पैमाने पर खुदाई की गई। 200 मीटर के एरिया में खुदाई शुरू हुई थी ,फिर 50 मीटर का एरिया ऐसा मिला, जहां ज्यादा चीजें मिल रही थीं। इसके बाद दो नॉटिकल मील का हाइड्रोग्राफिक सर्वे किया गया, जिससे पता चला कि उस खास जगह नदी का प्रवाह लगातार बदल रहा है। इसके बाद उस जगह की ग्रेडिंग की गई और बाकायदा एक-एक ग्रेड की खुदाई और सर्वे शुरू हुआ था। इस खुदाई में पिलर, सिक्के, पात्र, बड़े-बड़े कॉलम जैसी चीजें मिलीं हैं। तमाम पत्थरों पर समुद्री घास जम गई थी। जब उन्हें हटाया गया तो वास्तविक आकार का पता चला था।

द्वारका की खुदाई में कई बड़े-बड़े लंगर पाए गए, जिससे यह साफ हो गया कि द्वारका एक ऐतिहासिक बंदरगाह शहर था। कुछ आर्कियोलॉजिस्ट कहते हैं कि संस्कृत में द्वारका शब्द का मतलब ‘द्वार’ या ‘दरवाजा’ होता है। द्वारका की खुदाई में जैसी चीजें मिली हैं, उससे प्रतीत होता है कि यह प्राचीन बंदरगाह शहर भारत आने वाले विदेशी नागरिकों के लिए कभी दरवाजे की तरह प्रयुक्त होता था। इसने 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच अरब देशों से व्यापारिक संपर्क में अहम भूमिका निभाई होगी।

राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पूर्व चीफ साइंटिस्ट डॉ. राजीव निगम के अनुसार   जब यह साफ हो गया कि समुद्र के नीचे शहर का अवशेष है तो हमने यह पता लगाने की कोशिश की कि आखिर यह डूबा कैसे होगा? पिछले 15000 साल के दौरान समुद्र के स्तर की पड़ताल की गई। इससे पता चला कि 15000 साल पहले समुद्र का स्तर, 100 मीटर नीचे हुआ करता था। 7000 साल पहले समुद्र का जल स्तर बढ़ना शुरू हुआ और करीब 3500 साल पहले समुद्र का स्तर, ऐसे लेवल पर पहुंच गया, जहां अभी है और ठीक इसी वक्त द्वारका नगरी डूबी होगी।

गांधारी के श्राप का रहस्य
यह तो हुई साइंस की बात, लेकिन द्वारका नगरी डूबने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। पहली मान्यता गांधारी के श्राप से जुड़ी है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध में पांडवों की जीत हुई और कौरव खत्म हो गए, तब गांधारी ने श्री कृष्ण को महाभारत का दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि उनके कुल का नाश हो जाएगा और यही श्राप द्वारका डूबने की वजह बनी।

महाभारत के 23वें और 24वें श्लोक के अनुसार जिस दिन श्रीकृष्णा 125 साल की आयु के बाद आध्यात्मिक दुनिया में शामिल होने के लिए पृथ्वी छोड़कर गए, उसी दिन द्वारका नगरी अरब सागर में डूब गई थी। यही वह समय था जब कलयुग की शुरुआत हुई थी।

द्वारका के समंदर में डूबने की एक एलियन थ्योरी भी है। एलियन सिद्धांत में विश्वास रखने वाले कुछ वैज्ञानिक ऐसा भी मानते हैं कि प्राचीन द्वारका नगरी पर एक उड़ने वाली मशीन या यूएफओ द्वारा हमला किया गया था।यह लड़ाई तकनीक और शक्तिशाली हथियारों के साथ लड़ी गई थी। एलियन स्पेसशिप ने ऊर्जा हथियारों का इस्तेमाल किया और शहर पर हमला किया था, जो बिजली गिरने जैसा प्रतीत हो रहा था। यह हमला इतना विनाशकारी था कि हमले के बाद शहर का अधिकतर हिस्सा खंडहर में बदल गया। यद्यपि इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पाई है।

आर्कियोलॉजिस्ट और समुद्र विज्ञानी प्राचीन द्वारका नगरी के और राज जानने की कोशिश में जुटे हैं। वैज्ञानिक अब इस प्राचीन शहर की दीवारों की नींव की तलाश के लिए पानी के नीचे खुदाई की तैयारी कर रहे हैं, ताकि इस बात का सही-सही पता लगाया जा सके कि अवशेष कितने पुराने हैं।

पनडुब्बी से लोग करेंगे द्वारका का दर्शन
मिली जानकारी के मुताबिक, गुजरात सरकार पनडुब्बी से लोगों को द्वारका का दर्शन कराएगी। राज्य के पर्यटन विभाग के मझगांव डॉक के साथ किए गए समझौते के मुताबिक. ट्रांसपेरेंट पनडुब्बी से लोग 300 फीट नीचे जाकर द्वारका नगरी के दर्शन कर सकेंगे। हालांकि, अभी करार प्राथमिक चरण में है।


लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )

भगवान कृष्ण की बहन अष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?

द्वापर युग से जुड़ी हुई यह घटना है। भगवान विष्णु की माया कन्या ( अष्टभूजी) के रूप में अपने इष्टदेव के कार्य सिद्धि के लिए अवतरित होती है।अष्टभुजी मां भगवान कृष्ण की बहन के रूप में भी जानी जाती है। पापी कंस ने अपनी मृत्यु के डर से अपनी बहन देवकी को पति सहित कारागार में कैद कर लिया था।अपने विनाश के भय से वह देवकी की कोख से जन्म लेने वाले हर बच्चे को वध करता गया। इसी बीच भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही उनके पालक मां यशोदा के कोख से ज्ञान की देवी अष्टभुजी अवतरित होती है, जो कंस के हाथों से छूट कर विंध्याचल पहाड़ी पर विराजमान होती है और तब से मां अष्टभुजी अपने भक्तों को अभय प्रदान कर रही हैं।

अष्टभुजी देवी की चेतावनी
माँ अष्टभुजी का जन्म नन्द बाबा के घर में हुआ था और वह भगवान कृष्ण की बहन थीं। उस महामाया ने कंस को चेतावनी दी थी-

“तुम्हारे जैसा दुष्ट मेरा क्या बिगाड़ लेगा?” तुम्हें मारने वाला पहले ही पैदा हो चुका है।”

 ऐसा कहकर देवी आकाश की ओर उड़ गईं और विंध्य पर्वत पर उतर गईं, जिसका वर्णन मार्कंडेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती में इस प्रकार किया है – “नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभव, ततस्तो नष्टयिष्यामि विंध्याचल निवासिनी”।

नवरात्रि में विशेष महत्त्व
विंध्य पर्वत पर त्रिकोण मार्ग पर स्थित ज्ञान की देवी मां सरस्वती रूप में मां अष्टभुजी के दर्शन के लिए नवरात्र में देश के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का तांता लगता है।मार्कंडेय पुराण में मिलता है मां के अवतार का वर्णन विंध्याचल में नवरात्रि के आठवें दिन मां विंध्यवासिनी के महागौरी स्वरूप का दर्शन पूजन होता है। असुरों के भय से नर और नारायण को मुक्ति दिलाने वाली मां के विभिन्न रूपों में एक रूप माता अष्टभुजा का भी है। मां अष्टभुजी ज्ञान की देवी हैं। इनके दर्शन करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। नवरात्रि के समय माता के दरबार में मनोकामना लेकर हजारों भक्तों पहुंचते हैं। उन्हें मां की कृपा से असीम सुख मिलता है।

अष्टभुजी देवी का मंदिर की अवस्थिति
अष्टभुजी देवी का मंदिर विंध्याचल मां विंध्यवासिनी की मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। विंध्य पर्वत के 300 फुट ऊंचाई पर स्थित मां अष्टभुजी मंदिर पर जाने के लिए 160 पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई है। देवी की प्रतिमा एक लंबी और अंधेरी गुफा में है।

गुफा के अंदर दीप जलता रहता है, जिसके प्रकाश में श्रद्धालु देवी मां का दर्शन गुफा में करते हैं। प्राकृतिक गोद में बसा हुआ मां का अष्टभुजी मंदिर बड़ा दिव्य और रमणीक है। यह स्थान अपने शांत और सुंदर दृश्यों के कारण भक्तों के साथ-साथ पर्यटकों के बीच भी लोकप्रिय है। तभी से मां विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर निवास कर अपने भक्तों को आशीर्वाद देती आ रही हैं। नवरात्रि के दौरान विंध्यधाम में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ जाती है। अष्टभुजा देवी मंदिर में अष्टभुजा देवी की पूजा और दर्शन के बिना त्रिकोण परिक्रमा अधूरी है। विंध्य क्षेत्र के एक तरफ आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी हैं, जबकि दूसरी तरफ महाकाली और महासरस्वती (अष्टभुजा देवी) हैं, जो इस क्षेत्र को एक पवित्र तीर्थ स्थल बनाती हैं।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम
देशभर में कृष्ण जन्माष्टमी आज धूमधाम से मनाई जा रही है। देश के विभिन्न मंदिरों में खास तैयारियां की गई हैं और सुबह से ही श्रद्धालुजन मंदिर में कान्हा के दर्शन करने के लिए आ रहे हैं। भगवान कृष्ण के जन्मस्थली मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के भव्य तैयारियां की गई हैं और भक्तों के लिए खास व्यवस्था की गई है। लोग अपने घरों को सजाते हैं, दही-हांडी प्रतियोगिता आयोजित करते हैं और भगवान कृष्ण के बाल रूप की पूजा करते हैं।यह त्योहार प्रेम, करुणा और सच्चाई के प्रतीक भगवान कृष्ण की याद में मनाया जाता है। कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर भगवान श्री कृष्ण को छप्पन भोग लगाया जाता है। साथ ही विशेष पोशाक पहनाकर उनका श्रृंगार भी किया जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन व्रत रखने, दान करने और भगवान कृष्ण के मंदिरों में जाने का विशेष महत्व होता है।

नारी की त्रि-शक्तियाँ
नारी (मां) में त्रि-शक्तियाँ होती है – प्रेरक, तारक और मारक। कन्या, बहन, पत्नी, माता ऐसी जीवन की इन चार अवस्थाओं में समाज को प्रेरणा देने वालें कई स्त्री चरित्र हमारे इतिहास के पन्नों पर अंकित है। जब आसुरी वृत्ति का प्रतिरोध करने देवगण असमर्थ सिद्ध हुए। तब उन्होंने आदिशक्ति – मातृशक्ति का आवाहन किया। उसको अपने अच्छे शस्त्र अस्त्र प्रदान किये और इस संगठित सामर्थ्य से युक्त हो कर यह महाशक्ति दुष्टता के विनाश का संकल्प लेकर सिद्ध हुई और देवों को भी असंभव सा लगने वाला कार्य उसने कर दिखाया। आज भी जीवनमूल्यों को नैतिकता के पैरों तले कुचलने वाली अहंमन्य दानवी शक्ति को, जीवन के श्रेष्ठ अक्षय तत्त्वज्ञान को दुर्लक्षित कर क्षणिक भौतिक सुख को शिरोधार्य माननेवाली मानसिकता को तथा श्रद्धा को उखाडने वाली बुद्धि को हमें हटाना है, तो फिर मातृशक्ति को ललकारना होगा, उसे संगठित करना होगा। अतः ऐसी अष्टभुजी का प्रतीक हमेशा हमारे सामने रहे जो हमें अपने कर्तव्य शक्ति का, संगठन का बोध कराते रहेगा।

 

भगवान कृष्ण की सहचरीअष्टभुजी देवी के जन्मोत्सव की उपेक्षा क्यों ?

श्री कृष्णा की सहचरी और उनके लक्ष्य की सहायिका के जन्म के क्षण को देश वह सम्मान नहीं दे रहा है जो मिलना चाहिए ।

“यस्य नार्यस्तु पुजंते रमंते तत्र देवता” वाले देश में इस देवी का जन्मोत्सव भी श्री कृष्णा जन्मोत्सव के समान ही मनाया जाना चाहिए। इसमें तनिक भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। हर श्रीकृष्णा के पंडाल में प्रमुखता के साथ मां अष्टभुजी देवी का जन्मोत्सव बड़ी धूम धाम से मनाया जाना चाहिए।

 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )

स्वच्छ्ता की अलख जगाने में जुटी पीएसआई-इंडिया सम्मानित

संस्था के ईडी मुकेश शर्मा ने ग्रहण किया सीएसआर टाइम्स अवार्ड-2024

लखनऊ। राजधानी लखनऊ में स्वच्छ्ता की अलख जगाने में जुटी पापुलेशन सर्विसेज इंटरनेशनल-इंडिया (पीएसआई-इंडिया) संस्था को 11वें राष्ट्रीय सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) शिखर सम्मेलन में ख्यातिप्राप्त सीएसआर टाइम्स अवार्ड-2024 से सम्मानित किया गया। गोवा के मुख्यमंत्री डॉ. प्रमोद सावंत, राज्यसभा सदस्य सदानंद तनावडे व अन्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति में राजभवन गोवा में आयोजित समारोह में संस्था की तरफ से एक्जेक्युटिव डायरेक्टर मुकेश कुमार शर्मा ने इस गौरवपूर्ण सम्मान को ग्रहण किया।

इस अवसर पर श्री शर्मा ने कहा कि लोगों को स्वस्थ बनाना है तो पहले वहां स्वच्छ्ता की मुहिम चलानी जरूरी है। इसी के तहत ‘स्वच्छ बनेगा तभी तो स्वस्थ बनेगा लखनऊ’ सोच के साथ यह ‘स्वच्छ उदय’ अभियान चलाया जा रहा है। एचसीएल फाउन्डेशन की मदद से लखनऊ के 16 वार्डों में चलायी जा रही इस अनूठी परियोजना ‘स्वच्छ उदय’ को नगर निगम लखनऊ का पूरा सहयोग प्राप्त है। पीएसआई-इंडिया के पर्यावरण प्रबन्धन, वन, नदी व जल संरक्षण, जलवायु कार्रवाई और स्वस्थ भारत-विकसित भारत की दिशा में किये जा रहे सराहनीय प्रयासों के तहत संस्था को इस सम्मान से नवाजा गया है। ज्ञात हो कि पीएसआई इंडिया लखनऊ नगर निगम के सहयोग से मोहल्ला स्वच्छता समितियों का गठन कर मोहल्लों में साफ़-सफाई, पानी के रखरखाव, स्वच्छ पेयजल, सबमर्सिबल वाटर स्टैंड पोस्ट की सुरक्षा, कूड़े का व्यवस्थित तरीके से निवारण और डोर टू डोर आने वाली कूड़ा गाड़ी की सेवाओं के उपयोग, सेप्टिक टैंकर सेवाओं के उपयोग के प्रति जागरूकता में जुटी है। इसके अलावा बच्चों को हाथों की स्वच्छ्ता के लिए हैण्डवाश के सही तरीके सिखाये जा रहे हैं ताकि उनमें शुरुआत से ही इसके प्रति व्यवहार परिवर्तन आ सके। दूषित हाथों से खाना खाने, आँख-नाक छूने से कई संक्रामक बीमारियाँ बच्चों को घेर लेती हैं और कुपोषित बनाती हैं। इसी उद्देश्य से बच्चों को शौच के बाद और खाना खाने से पहले हाथों को अच्छी तरह से धुलने के तरीके सिखाये जा रहे हैं ताकि वह स्वस्थ बन सकें और उनकी शिक्षा प्रभावित न हो सके। महिला आरोग्य समितियों को भी सक्रिय कर इस मुहिम में मदद ली जा रही है। वार्ड के पार्षद भी इस मुहिम को सराह रहे हैं और अपने वार्ड को स्वच्छ व स्वस्थ बनाने में पूरी ताकत के साथ जुटे हैं।

योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि

प्रायः महापुरुषों के तीन रूप हुआ करते हैं। लोक रञ्जक रुप, यथा श्री कृष्ण जी की वृन्दावन की लीलाएं इस रूप का, शस्त्र होता है- वंशी। दूसरा रूप होता है लोक शिक्षक रूप, यथा महाभारत युद्ध में गीतोपदेश तथा उधव को धर्मोपदेश। इस रूप में शंख धारण किया जाता है, यथा युद्ध में ‘पाञ्चजन्यम हृषीकेशं’ भगवान् कृष्ण का पांचजन्य शंख। तीसरा रूप होता है महापुरुषों का लोक रक्षक, यथा दुष्ट संहारक युद्धों में। इसका शस्त्र होता है- चक्र। सुदर्शन चक्र से ही शिशुपालादि असुरों का संहार किया।

भगवान् कृष्ण ने तीनों रूपों में जनता को दर्शन दिये और कल्याण किया। उनके जीवन की घटनाएं, कविताओं में है अतः उनके भाव को समझना कठिन हो जाता है। जैसे वृन्दावन के चरित्र में राजनैतिक भूमिकाएं थीं उन्हें श्रृंगार रस में डुबोकर भक्तों ने आक्षेप योग्य बना डाला है। आनन्द मठ के राष्ट्रीय गान के निर्माता श्री बंकिम चन्द्र जी चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि मैं महाभारत के श्री कृष्ण को तो मान सकता हूं, पर गीत गोबिन्द के श्री कृष्ण को नहीं।

गीत गोबिन्द में जयदेव ने श्री कृष्ण के लोक रञ्जक रूप को श्रृंगार में डुबोकर विकृत कर दिया है। भगवान् के नाम पर अपने मन के श्रृंगारी भावों की भड़ास निकाली है। श्री कृष्ण भगवान् के विषय में ऋषि दयानन्द का विचार कितना उच्च भावों से भरा है-
“देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।” (सत्यार्थप्रकाश ११ वां समु०)

वास्तव में श्री कृष्ण भगवान् वैदिक आर्य थे। यह उनकी उपासना विधि से विदित हो जाता है। यदि कोई मनुष्य नमाज पढ़ता हो तो मुसलमान माना जाएगा। मूर्तिपूजक हैं तो जैन, बुद्ध, पौराणिक या कैथोलिक, ईसाई ठहरेगा। इसी प्रकार सन्ध्या, अग्निहोत्र, गायत्री जप करने वाले को वैदिकधर्मी आर्य कहा जायेगा।

अब देखिये, श्रीमद्भागवत् में श्री कृष्ण भगवान् की दिनचर्या- दशम स्कन्ध, अध्याय ७० में-
ब्राह्मो मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्यमाधव:।
दध्यौ प्रसन्नकरण: आत्मानं तमस: परम्।।४।।
एकं स्वयं ज्योतिरनन्तमव्ययं स्व संस्थ्या नित्य निरस्त कल्मषम्।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाश हेतुभि: स्व शक्तिभिलर्क्षितभाव निर्वृतिम्।।५।।
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथा विधि क्रिया कलापं परिधाय वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग् यत:।।६।।
अर्थ- श्री कृष्ण जी ब्रह्म मुहूर्त (उषा काल में) उठे और शौच आदि से निवृत हो प्रसन्न अन्तःकरण से तमस से परे आत्मा अर्थात् परमात्मा का ध्यान किया।।४।।

परमात्मा के विशेषण
जो एक है, स्वयं ज्योति स्वरूप है, अनन्त है, अव्यय परिवर्तन रहित है, अपनी स्थिति से भक्तों के पापों को नष्ट करता है, उसका नाम ब्रह्म है, इस संसार की रचना और विनाश के हेतुओं से अपने अस्तित्व का प्रमाण दे रहा है और भक्तों को सुखी करता है।।५।।

और निर्मल जल में स्नान करके यथा विधि क्रिया के साथ दो वस्त्र धारण करके सन्ध्या की विधि की और श्रेष्ठ श्री कृष्ण ने हवन किया और मौन होकर गायत्री का जाप किया।।६।।

श्लोक में आये ब्रह्म शब्द का अर्थ श्रीमद्भागवत् की संस्कृत टीका में श्रीधर स्वामी ने गायत्री जाप इत्यर्थः- गायत्री किया है। गीताप्रेस की हिन्दी टीका में भी ऐसे ही अर्थ हैं। श्रीमद्भागवत् में कहीं भी श्री कृष्ण द्वारा मूर्तिपूजा करना नहीं मिलता है और वाल्मीकि रामायण में कहीं श्री राम द्वारा मूर्तिपूजा का नाम नहीं।
अब ईश्वर के नाम के विषय में देखिये- गीता के ८वें अध्याय का श्लोक है-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामऽनुस्मरन्
य: प्रयाति त्यजनदेहं स याति परमां गतिम्।
अर्थ- ओ३म् इस एक अक्षर ब्रह्म (शब्द) बार-बार जपता हुआ और मेरा अनुस्मरण करता हुआ जो शरीर को छोड़कर परलोक को जाता है, वह मोक्ष को पाता है।

प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

आपातकाल के पहले का घटनाक्रम

ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान : इन्दिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ का एक अंश जिसमें आपातकाल लगने से ठीक पहले देश में घट रही अनेक घटनाओं का वर्णन है।

सन् 1973 की शुरुआत तक पहुँचते-पहुँचते चुनावों में अभूतपूर्व बहुमत हासिल कर, 1971 के युद्ध में चिरशत्रु पाकिस्तान को नाकों चने चबवाकर, कांग्रेस पार्टी को अपनी मुट्ठी में दबा और न्यायपालिका को अपने वश में कर श्रीमती गांधी ने जैसे हर मोर्चा फ़तेह कर लिया था। लेकिन यह विजयी भाव अल्पकालिक रहा। लगातार दो मानसून पर्याप्त बारिश नहीं हुई, जिसने कृषि उपज को सीधे प्रभावित किया और वैश्विक स्तर पर उभरे तेल संकट ने क़ीमतों में आग लगा दी। एकदम से ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा एक भद्दा मज़ाक़ लगने लगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की ग़रीबी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। सारे आर्थिक सूचकांक डूब की दिशा में थे।

 शहरी बेरोज़गारी की दर ऊँचाई पर थी, औद्योगिक उत्पादन ठहरा हुआ था, योजनाबद्ध विकास कार्य रुके पड़े थे और भूमि सुधार अपने लक्ष्य से पिछड़ रहा था। पर असल दुष्परिणाम तो खाद्यान्न व्यापार में राज्य की घोर नाकामयाबी से निकला। सरकार ने गेहूँ और चावल की थोक सरकारी ख़रीद का फ़ैसला किया। ऐसे में उत्पादकों के लिए सरकार के तय किये दामों पर उत्पाद बेचना एकमात्र विकल्प रह गया। निजी व्यापारी और आढ़तिये थोक बिक्री से बाहर कर दिये गए। इसका जैसा नतीजा निकलना था, वही निकला। योजना को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। समृद्ध खेतिहरों और निजी व्यापारियों ने इसकी राह में ख़ूब फंदे डाले। एक नाकाम मानसून के बाद उत्पादन वैसे ही मन्दा था, ऐसे में क़ीमतें ख़ूब ऊपर चढ़ीं और उनके मुक़ाबले सरकार द्वारा तय मूल्य बहुत पीछे छूट गया।

उत्पादकों और व्यापारियों ने अपने गोदाम भर लिये। कालाबाज़ारियों की चाँदी हो गई। इधर व्यापारी समुदाय जनसंघ के पीछे हो लिया, जिसके वे पहले से ही पारम्परिक समर्थक रहे थे। उधर बड़े किसान विपक्ष की अन्य किसान समर्थक पार्टियों के पीछे खड़े हो गए। कांग्रेस में तो ग़ैर-ज़मीनी नेताओं की भरमार थी जो निरन्तर गुटबाज़ी में उलझे रहते थे। उनके पास ऐसा कोई साधन ही नहीं था कि वे गाँवों के स्तर पर हस्तक्षेप कर इस सरकारी ख़रीद की परियोजना को पटरी पर ला पाते। सरकार खाद्यान्न ख़रीदने में ही नाकामयाब नहीं हो रही थी, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा रही थी।

भारत के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सुधारों को गति देना अब इन्दिरा के एजेंडा में कहीं पीछे छूट गया था। वाम क्रान्तिकारी छवि तभी तक अच्छी थी जब तक वो राजनीतिक विरोधियों को उखाड़ फेंकने में मदद दे रही थी। एक बार वो मिशन पूरा होने के बाद इन्दिरा ने अपने ‘युवा तुर्कों’ के पर कतरते देर नहीं लगाई। उन्होंने पार्टी के भीतर समाजवादी धड़े द्वारा बनाए ‘कांग्रेस फोरम’ के प्रत्युत्तर में ‘नेहरू फोरम’ के गठन को प्रोत्साहन दिया। जब इन दोनों गुटों के बीच आपसी तूतू-मैंमैं ने विवाद का रूप लिया तो इसे ही बहाने के बतौर इस्तेमाल करते हुए इन्दिरा ने दोनों फोरम को भंग कर दिया।

मई, 1973 में इंडियन एयरलाइन्स की विमान दुर्घटना में कुमारमंगलम की असमय मृत्यु ने वाम धड़े को और कमज़ोर बना दिया। इन्दिरा अब पार्टी पर एकछत्र शासन करने को तैयार थीं। उस दौर के ब्योरे बताते हैं कि उनके समाजवादी लक्ष्य अब पार्टी और प्रशासन पर सम्पूर्ण नियंत्रण के लक्ष्य में बदल चुके थे। लेकिन ऊपर से सम्पूर्ण दिखनेवाली यह सर्वशक्तिशाली सत्ता भीतर से खोखली होती जा रही थी। एक अभूतपूर्व ‘शासकीय संकट’ मुँह बाये सामने खड़ा था।

इन्दिरा के दौर में पार्टी और लोकतांत्रिक संस्थाओं का जिस तरह ‘संस्थागत ह्रास’ हुआ, उसने संविधान में रचे नाज़ुक सन्तुलन को हिला दिया। और माहौल में तारी ‘अराजक अभिव्यक्तियों’ ने मामले को विस्फोट की कगार पर ला दिया।

5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में हुई ऐतिहासिक सार्वजनिक सभा में जेपी ने इन्दिरा को चेतावनी देते हुए हिन्दी के चर्चित जनकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘जनतंत्र का जन्म’ से ये पंक्तियाँ दोहराईं :सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने यह कविता 1950 में भारत के एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के उपलक्ष्य पर लिखी थी। ‘वीर रस’ से ओतप्रोत यह कविता सदियों से शोषण की ज़ंजीरों में जकड़े इस मुल्क के लोगों के अन्तत: राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने का जयघोष है। लेकिन जब 1974 में जेपी ने इसे भरी सभा के सामने मंच से उद्धृत किया, संविधान से परे जाकर आज़ादी हासिल करने का यह उद्घोष मारक स्वर लिये था। नाटकीय अन्दाज़ में की गई ‘सिंहासन ख़ाली करो’ की उद्घोषणा इन्दिरा की निरंकुश सत्ता के ताबूत में आख़िरी कील ठोके जाने की आवाज़ सरीखी सुनाई पड़ी थी।

‘जनता’ को अपने पाले में करने की होड़ शुरू हो चुकी थी। इस होड़ में इन्दिरा की कोशिश थी कि वे मध्यस्थ संस्थाओं को एक किनारे कर जनता तक सीधी अपनी पैठ बनाएँ। उधर जेपी जनजागरण के अस्त्र का इस्तेमाल कर इन्दिरा की सत्ता को डिगाना चाहते थे। जब जेपी ने बिहार विधानसभा को भंग करने की माँग उठाई, तो चुने हुए सदन को कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करने को इन्दिरा ने अलोकतांत्रिक बताकर ख़ारिज कर दिया। इस निर्णय पर उन्हें अपनी पार्टी और समर्थक सीपीआई से बाहर भी समर्थन मिला। अख़बार ‘दि पायनियर’ ने लिखा कि जेपी द्वारा ‘क़तई बलात् और ग़ैर-लोकतांत्रिक’ तरीक़ों का सहारा लेकर विधानसभा भंग करने की माँग करना ‘साक्षात आग से खेलने’ बराबर है।

 ‘दि हिन्दू’ ने सवाल पूछा कि क्या जेपी अपने भव्य नैतिक क़द का सहारा लेकर “क़ानून व्यवस्था एवं पूरे लोकतांत्रिक ढाँचे के प्रति अवमानना और अव्यवस्था का द्वार नहीं खोल रहे?” पर इस लोकतांत्रिक रीति पर निष्ठा के समर्थन में दिक़्क़त ये थी कि ख़ुद उत्तर-औपनिवेशिक राज्य बार-बार राष्ट्रपति शासन के इस्तेमाल द्वारा और निवारक नज़रबन्दी जैसे क़ानूनों द्वारा लगातार इसकी साख को धक्का पहुँचाता रहा था। इन्दिरा के सत्ता में आने से बहुत पहले ही राज्य कितने ही औपनिवेशिक क़ानूनों को झाड़-पोंछकर अपने इस्तेमाल में ला चुका था। 1958 में लाए ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’ को ही देख लीजिए, जिसे असम और मणिपुर के ‘अशान्त क्षेत्रों’ पर नियंत्रण के लिए सन्दूक़ में से निकाला गया। या फिर 1962 के ‘डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स’, जिनका इस्तेमाल भारत-चीन युद्ध के समय चीनी मूल के भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ किया गया।

कश्मीर को चुनावों में धाँधली और पुलिस के बल पर इकट्ठा रखा गया। इन्दिरा ने इन तमाम असामान्य कार्यकलापों को और गति दी, जिससे वे अपनी ही हुकूमत द्वारा पैदा किये गए इस संकट से किसी तरह निपट सकें। उधर जेपी ने लोकतंत्र की परिभाषा को विस्तार देते हुए उसे ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ में बदलने की कोशिश शुरू की। लेकिन इसे उम्मीद के मुताबिक समर्थन न मिलते देख वे पीछे हट गए और इन्दिरा को सत्ता से हटाने के सीमित लक्ष्य के साथ चल रहे अन्य विपक्षी पार्टियों के आन्दोलन में ख़ुद को झोंक दिया। इस तरह दोनों में से किसी भी पक्ष का लक्ष्य लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में फलीभूत करना या सामाजिक बदलाव लाने के उद्देश्य से इसके संस्थानों को ज़्यादा अर्थवान बनाना नहीं था। सत्ता हासिल करने को आतुर दोनों पक्ष तमाम नियम-क़ायदों को धता बताते हुए अखाड़े में कूद पड़े।

जनवरी, 1975 में बिहार में एक बम धमाके में हुई एल.एन. मिश्रा की मृत्यु के साथ इस युद्ध ने एक भयावह मोड़ ले लिया। मिश्रा को राजनीतिक हलक़ों में इन्दिरा गांधी की पार्टी का भ्रष्ट दलाल समझा जाता था। बस फिर क्या था, आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। विपक्ष ने आरोप लगाया कि हुकूमत के भ्रष्ट सौदों को लेकर कहीं उनका वो कुशल दलाल मुँह न खोल दे, इसलिए उसे पहले ही ठिकाने लगा दिया गया है। इन्दिरा ने पलटवार करते हुए जवाबी आरोप लगाया कि यह बम धमाका दरअसल उनके ख़िलाफ़ साजिश था और जेपी ने जिस हिंसा को हवा दी है, यह सब उसी का नतीजा है। इन्दिरा का आरोप था कि यह दरअसल उनकी हत्या किये जाने की ‘ड्रेस रिहर्सल’ है। “जब मेरी हत्या होगी, तब भी ये लोग कहेंगे कि इसके पीछे ख़ुद मेरा हाथ था।”

कहते हैं कि दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता। 12 जून, 1975 इन्दिरा गांधी के लिए कुछ ऐसी ही तारीख़ बन गई। दिन की शुरुआत हुई मनहूस ख़बर से। सुबह-सुबह दिल का दौरा पड़ने से गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल में डी.पी. धर की मृत्यु की सूचना आई। सत्तावन साल की आयु में असमय चले गए धर मूलत: कश्मीरी थे, इन्दिरा के पुराने दोस्त थे और उनकी सरकार में कभी मंत्री रह चुके थे। मृत्यु के समय वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत के पद पर कार्यरत थे। इस ख़बर की मनहूसी उतरी भी नहीं थी कि अगली ख़बर ने दस्तक दी। गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों में पाँच पार्टियों के संयुक्त गठबन्धन के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी को चुनावी हार मिली थी।

विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण द्वारा दायर मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय  न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्दिरा की चुनावी जीत को निरस्त करते हुए उन्हें दो पैमानों पर भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी पाया। पहले मामले में उन्होंने पाया कि इन्दिरा के निजी सचिव रहे यशपाल कपूर सरकारी सेवा से इस्तीफ़ा देने से पहले ही उनके चुनावी एजेंट बन गए थे। दूसरा मामला उत्तर प्रदेश राज्य सेवा के अधिकारियों द्वारा इन्दिरा के चुनाव प्रचार अभियान में मदद किये जाने का था। ऐसा पाया गया कि सरकारी अधिकारियों ने उनकी सभा के लिए बिजली उपलब्ध करवाने से लेकर भाषण देने के लिए ऊँचा मंच बनवाने तक का कार्य अंजाम दिया। न्यायाधीश सिन्हा ने इन्दिरा के चुनाव को निरस्त करते हुए उनके चुनाव लड़ने पर छह साल की रोक लगा दी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए इन्दिरा गांधी को बीस दिन का समय मिला।

विपक्ष के मुँह ख़ून लग चुका था। विपक्षी सांसद पीलू मोदी ने घोषणा की कि इन्दिरा अब विधिसम्मत प्रधानमंत्री नहीं रही हैं : “हमें तो यह देखना होगा कि इस ढोंगी से अब कैसे निपटा जाए।” बाक़ी तमाम ग़ैर-सीपीआई दलों ने भी एक स्वर में उनके इस्तीफ़े की माँग उठाई। जेपी ने भी फ़ौरन बयान जारी करते हुए न्यायाधीश सिन्हा के निर्णय की दाद दी और इन्दिरा के इस्तीफ़े की माँग की। कुछ ही दिनों बाद जेपी ने अपनी माँग को और विस्तार से दोहराया और कहा कि इन्दिरा का कहना कि ये तो बस ‘तकनीकी’ भूल है, निरर्थक बात है। उन्होंने फिर ज़ोर दिया कि इन्दिरा ने क़ानून तोड़ा है और उन्हें इस्तीफ़ा देना चाहिए। इलाहाबाद के निर्णय ने एक झटके में इन्दिरा के ख़िलाफ़ लिखे जा रहे राजनीतिक आरोपपत्र को क़ानूनी अभियोग में बदल दिया था।

इन्दिरा इस सबसे चकित थीं। उनके निजी सचिव पी.एन. धर लिखते हैं कि वे एकान्तप्रिय हो गई थीं और सबसे खिंची-खिंची सी रहने लगी थीं। हक्सर के योजना आयोग में चले जाने और डी.पी. धर की मृत्यु के बाद अब उनके योग्य कश्मीरी सहयोगियों की टोली में से सिर्फ़ पी.एन. धर ही उनके साथ बचे थे। धर लिखते हैं कि इन्दिरा का आवास उन दिनों सलाहकारों, मंत्रियों, क़ानूनी विशेषज्ञों एवं अन्य मददगारों से भरा रहता था। धर बताते हैं कि उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफ़ा दे देने की रही।

ऐसे में आर.के. धवन (यशपाल कपूर के सम्बन्धी, जो पी.एन. धर के बाद इन्दिरा के निजी सचिव की जगह ले आपातकाल के दौरान बहुत ख़ास भूमिका निभानेवाले थे) ने संजय गांधी और पी.एन. धर से लम्बे विचार-विमर्श के बाद धड़ाधड़ फ़ोन कॉल करना शुरू किया और इन्दिरा के समर्थन में विशाल प्रदर्शन की तैयारी में जुट गए। पड़ोसी राज्यों हरियाणा और उत्तर प्रदेश से बसों में भर-भरकर जनता को दिल्ली लाया जाने लगा और एक के बाद एक रैलियाँ निकाली जाने लगीं। संजय गांधी और उनके सिपहसालारों धवन, बंसीलाल (हरियाणा के मुख्यमंत्री) और ओम मेहता (गृह राज्य मंत्री) ने मोर्चा सँभाल लिया और इन्दिरा को अन्त तक लड़ने की नसीहत देने लगे। क़ानूनी जानकारों का भी कहना था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला क़ानून की कच्ची ज़मीन पर खड़ा है और उच्चतम न्यायालय में अपील करने पर यह पलट जाएगा।

कुछ दूसरे लोग उन्हें सलाह दे रहे थे कि जब तक ये क़ानूनी पचड़ा सुलझ नहीं जाता, वे इस्तीफ़ा देकर फ़ौरी तौर पर यह ज़िम्मा अपने कैबिनेट सहयोगी जगजीवन राम को सौंप दें। लेकिन इन्दिरा महसूस कर रही थीं कि यह मामला इतना फ़ौरी भी नहीं। उन्हें अब यक़ीन हो चला था कि यह उनके ख़िलाफ़ किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। उन्होंने चिली के सल्वाडोर अलेंदे के तख़्तापलट की ओर इशारा करते हुए सीआईए और अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर अपना शक जताया। पर संजय गांधी, सिद्धार्थ शंकर राय (पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री), बंसीलाल, अन्य पार्टी सदस्य और सीपीआई उन्हें लगातार इस्तीफ़ा नहीं देने के लिए मना रहे थे।

इस बीच संजय के सिपहसालार आज्ञाकारी मंत्रियों की मदद से पड़ोस के राज्यों से ट्रेनों, बसों और ट्रकों में भर-भरकर ख़ूब नारा लगानेवाली भीड़ को इकट्ठा करते रहे। उधर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ इन्दिरा की अपील उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन थी, इधर उन्होंने 20 जून को बोट क्लब के बगीचे में एक महा जनसभा को सम्बोधित किया। उनके बाज़ुओं के पीछे उनके दोनों बेटे संजय और राजीव और साथ में बहू सोनिया खड़े थे। उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार की महती परम्परा को याद करते हुए ‘मरते दम तक’ अपनी हर साँस देशसेवा में क़ुर्बान करने की क़सम खाई। 24 जून को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी.के. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर रोक लगा दी।

न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि इन्दिरा द्वारा किये चुनावी दुराचार उच्च न्यायालय के फ़ैसले में उल्लेखित क़ानून में दर्ज ‘अति गम्भीर चुनावी दुराचारों’ की श्रेणी में नहीं आते हैं, और इसलिए यह फ़ैसला आगे सम्भवत: टिक नहीं पाएगा। लेकिन फ़ैसले पर रोक कुछ शर्तों के साथ थी। इन्दिरा प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती थीं और संसद की कार्यवाही में शामिल हो सकती थीं लेकिन जब तक उच्चतम न्यायालय की पूर्ण खंडपीठ उनकी अपील पर फ़ैसला न सुना दे, उनके सांसद के तौर पर वेतन लेने और वोट डालने के अधिकार पर रोक लगाई गई थी। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ अख़बार के सम्पादकीय ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा, “ ‘ए’ माइनस ‘बी’ बराबर ‘सी’ जैसे किसी बीजगणित के फ़ॉर्मूले को लागू करते हुए जस्टिस अय्यर ने निष्कर्ष निकाला कि सशर्त रोक (जैसी वे चाहें) में प्रधानमंत्री के संसद के किसी भी सदन की कार्यवाही में भागीदारी के अधिकार को जोड़ें तो नतीजा पूर्ण रोक में से मतदान का अधिकार घटाकर निकलता है।” इससे धेला कुछ स्पष्ट नहीं हुआ।

जोश से भरे विपक्ष ने अगले ही दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया। जेपी ने भरी सभा में भाषण देते हुए इन्दिरा पर सत्ता में बने रहने के लिए फासीवादी तौर-तरीक़ों के इस्तेमाल का इल्ज़ाम लगाया। उन्होंने पुलिस और सैन्य बलों का आह्वान करते हुए कहा कि वे संविधान विरोधी नीतियों की अवज्ञा करें सरकार को चुनौती दी कि वो चाहे तो उन पर राजद्रोह का मुक़दमा कर दे। साथ ही उन्होंने 29 जून से प्रधानमंत्री के घर के बाहर हफ़्ता भर चलनेवाले प्रदर्शनों की भी घोषणा की, जिसका उद्देश्य इन्दिरा पर इस्तीफ़े के लिए दबाव बनाना होगा।

युद्ध की रेखाएँ खिंच चुकी थीं। इलाहाबाद का फ़ैसला तात्कालिक कारण तो बना, लेकिन इस संकट के पीछे दोनों पक्षों का इकसार क़िस्म के हथकंडे अपनाना भी रहा : “इकसार लोक-लुभावन अदाएँ, संवैधानिक उपचारों को ठुकराने की इकसार आदत, प्रतिकूल जनाक्रोश की सवारी करने की भविष्य में भारी पड़नेवाली इकसार ग़लती और विपक्ष की हार को अपनी जीत समझने की इकसार भूल।” इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने भी इस ओर इशारा किया है कि यह इन्दिरा और जेपी का साथ मिलकर खड़ा किया संकट था, क्योंकि दोनों ही पक्ष “प्रतिनिधि संस्थाओं में ज़रा भी विश्वास नहीं” जता रहे थे। लेकिन पक्ष-विपक्ष के इस अन्दाज़े-बयाँ में समानताओं को रेखांकित करने के साथ ही हमें ‘निष्क्रिय क्रान्ति’ से उपजी आज़ादी और राज्य की परियोजना के असफल हो जाने के चिह्नों को भी यहाँ नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए।

आंबेडकर ने पहले ही चेताया था कि सामाजिक बदलाव लाए बिना सिर्फ़ राजनीतिक स्वतंत्रता की स्थापना अन्तत: लोकतंत्र को जोखिम में डालनेवाली साबित होगी। ‘अंकुर’ और ‘निशान्त’ में हम इस चेतावनी की शुरुआती अनुगूँजें सुन चुके थे। सड़क पर उमड़ता आक्रोश किस ओर जा रहा है, सबको दिखाई दे रहा था। इन्दिरा ने इस संकट का सामना सत्ता के केन्द्रीकरण द्वारा करना ठीक समझा, और उम्मीद करने लगीं कि इस तरह वे जनता और राज्य के बीच एक दूरगामी तारतम्य कायम कर पाएँगी। जेपी ने दिनकर की कविता के माध्यम से इन्दिरा को गद्दी छोड़ने का सीधा सन्देश दिया।

संकट का समय था और भारतीय राजनीति अपनी क्षुद्रता को प्रदर्शित कर रही थी। यह इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस और उनके विपक्षी दल दोनों ही आंबेडकर की कही बातों का मान नहीं रख पाए। आंबेडकर ने कहा था कि अगर भारत को अपने लोकतंत्र को सँवारना है तो लोकतंत्र के पौधे को सतह से नीचे उतरकर जड़ों तक जाना होगा। इसे सबके लिए समता के अधिकार को ज़मीन पर मुकम्मल करना ही होगा। लेकिन भारतीय नेताओं ने राजनीति में नैतिकता का दामन बहुत पहले छोड़ दिया और इसे केवल सत्ता हासिल करने के संघर्ष तक सीमित कर दिया। 1975 में जो हुआ, उसकी जड़ें इस नाकामी में छिपी थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने इस वृहत्तर संकट पर परदा डालते हुए बात राजनीतिक द्वंद्व से हटाकर क़ानूनी दायरे में पहुँचा दी। विपक्ष भी अब इन्दिरा को हराने के लिए बड़बोले क़ानूनी विमर्शों में रास्ता तलाशने लगा। इसके जवाब में इन्दिरा ने उसी क़ानून का सहारा लेते हुए क़ानून के राज को ही मुल्तवी कर दिया। यह इन्दिरा का आख़िरी मोर्चा था, ख़ुद के रचे इस दलदल से निकलने और अपनी सत्ता बचाने का।

साभार-  https://rajkamalprakashan.com/blog से

साहित्य-सेवी व्यास मणि त्रिपाठीजी

अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट-ब्लेयर की आबादी लगभग डेढ़ लाख है। साफ-सुन्दर शहर है और हर तरह की आधुनिकतम सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कुछेक वर्ष पूर्व इन्टरनेट की सुविधा यहाँ आजाने से यह अलग-थलग पड़ा द्वीप मेनलैंड से जुड़ गया है। पर्यटन स्थल होने के कारण होटलों और विश्राम गृहओं की बहुतायत है। लगभग हर प्रदेश और जाति-धर्म के लोग यहाँ प्रेमभाव से रहते हैं। बंगला-भाषियों की संख्या कुछ ज़्यादा बताई जाती है।
हिंदी भाषा हर कोई समझता है और हिंदी के साइनबोर्ड यत्रतत्र देखने को मिल जाते हैं।  आज कुछ ऐसा योग बना कि यहाँ पोर्ट ब्लेयर के सरकारी जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. व्यासमणि त्रिपाठीजी से मुलाक़ात हुयी। मुझे पहले से जानते थे और जैसे ही उन्हें यह ज्ञात हुआ कि मैं इन दिनों पोर्ट ब्लेयर में हूँ तो समय निकल कर मुझ से मिलने आए। कृष्ण-भक्त कवि “परमनंद” पर लिखी और साहित्य अकादमी, दिल्ली से हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक की एक प्रति मुझे भेंट की।
त्रिपाठीजी की  कविता, कहानी, निवन्ध, आलोचना, लोक-कथा आदि की 34 पुस्तकें प्रकाशित ही चुकी हैं। जिनमें साहित्य अकाडेमी, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित “जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’”, “नन्ददास”, “अण्डमान का हिन्दी साहित्य” और “अण्डमान तथा निकोबार की लोक कथाएँ” तथा प्रकाशन विभाग, नयी दिल्ली से प्रकाशित “भारतीय स्वाधीनता-संग्राम और अण्डमान” विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
सम्मान भी इन्हें खूब मिले हैं। यथा: दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में ‘विश्व हिन्दी सम्मान’। मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आलोचना’ पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का ” रामविलास शर्मा सर्जना’ पुरस्कार। हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज का ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी आलोचना’ पुरस्कार। विद्या वाचस्पति और विद्यावारिधि की मानद उपाधियों सहित अन्य दर्जनों पुरस्कार एवं सम्मान इन्हें प्राप्त हैं।
DR.S.K.RAINA
2/537 Aravali Vihar(Alwar)
Rajasthan 301001
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समाज को आईना दिखाता उद्भ्रांत शर्मा का सृजन

राजस्थान के नवलगढ़ में जन्म ले कर कवि के रूप में देशव्यापी पहचान बनाने वाले रचनाकार रमाकांत शर्मा जो उदभ्रांत नाम से प्रसिद्ध हैं । आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ऐसे बहुत कम साहित्यकार हैं जो जनता की भावनाओं को समझ कर लिखते हैं। इनके रचनाकर्म पर लेनिन की कही बात सटीक बैठती है जब उन्होंने कहा था कि सच्चा साहित्य वह है जो जनता की भाषा बोले। ये एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा समाज को आइना दिखाया है। सीधे सरल शब्दों में कविता के माध्यम से लोगों तक अपना मंतव्य पहुंचाने में इनका कोई सानी नहीं है। करीब 11 वर्ष की आयु में लिखना शुरू कर दिया और लेखन के क्षेत्र में  वर्ष 1959 से कदम रख कर परिस्थितियों से कभी हार नही मानने वाले
रचनाकार  जीवन के 75 बसंत देखने के बाद भी जिंदादिली के साथ पूर्ण रूप से सृजन में सक्रिय हैं। सृजन की विशेषता है कि विरोध से कभी डरे नहीं और भ्रष्टाचार का खंडन एवं उसका घोर विरोध किया है। समाज में होने वाली घटनाओं पर वे बिना किसी पक्षपात के तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं फिर चाहे वह सरकार के पक्ष में हो या विरोध में । इनकी एक कविता “
स्पंद ” के भाव देखिए….
कहीं कुछ
अघटित हुआ घटित
शक्तिशाली
सूक्ष्मदर्शी की पकड़ से भी अदृश्य रहने वाले
लघुतम परमाणु के भीतर
हुआ कोई
भूतो न भविष्यत्
ऐसा विस्फोट
आवाज़ तो सुनाई नहीं दी
पर अध्ययन-कक्ष में
प्रकृति के स्टैंड पर घूमता पृथ्वी का ग्लोब
अचानक हिल गया
अपने केंद्र से
अनादि-क्षेत्रीय ब्रह्मांड के
अनंत-खंडीय भवन में
पैदा करते हुए
एक सार्थक स्पंद!
 वे ‘ हिंदी के उन श्रेष्ठ कवियों मे से एक हैं जिनकी कविताएं अपने समय और समाज के सारे सवालो से हमे रू-ब-रू कराती हैं । जीवन का कोई ऐसा पक्ष नही है जो इनकी कविताओं में चित्रित न हुआ हो। कह सकते हैं  कि कविताएं बहुआयामी है , जिसमें मानववादी दृष्टिकोण समाहित है। इनकी कविता कल्पना से लेकर यथार्थ की और असाधारण से लेकर साधारण तक विकसित हुई है । हालांकि ये हिंदी साहित्य में कवि के रूप में विख्यात हैं परंतु इन्होंने कविताओं के साथ – साथ गद्य विधा में नाटक कहानी ,उपन्यास,निबंध आलोचना ,संस्मरण ,आत्मकथा जीवनी यात्रावृत्तांत, रेखाचित्र, को पढ़ा और लिखा है।  देखा जाए तो इनका गद्य साहित्य मानव जीवन के विशाल पक्षों को भी स्पर्श करता है ।
ये  हरिवंश राय बच्चन को अपना काव्य गुरु मानते हैं  और उन्होंने ही इन्हें ” उदभ्रांत” नाम दिया।         भारतीय संस्कृति,साहित्य और दर्शन में इनकी  गहरी रुचि हैं । वे त्रेता युग के रामराज्य की सारी नारियों को एक धरातल पर खड़ा कर उनके वैचारिक दृष्टिकोण की समरूपता की तुलना करते हैं तथा ‘गीता’ जैसे संस्कृतनिष्ठ महाकाव्य का हिन्दी  रूपान्तरण ‘प्रज्ञावेणु’  के नाम से गीत के रूप में जन-साधारण को सुलभ कराकर अपने आप में हिन्दी साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की हैं ।
प्रसिद्ध आलोचक और अनुवादक दिनेश कुमार माली कहते हैं, “उनका मानना यह था ,कोई भी ब्लॉगर अपने ब्लाग मेँ जो चाहे,वह लिख सकता हैं । न व्याकरण का ध्यान ,न भाषा-शैली, न वाक्य-विन्यास का ख्याल,  अधकचरी भाषा का प्रयोग, हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित  क्या साहित्य की भाषा यही होती हैं ? साहित्य मेँ भाषा के प्रयोग का खास ध्यान रखा जाता हैं , यह भाषा मार्जित होनी चाहिए पूरी तरह से । एक प्रवाह होता हैं, जो पाठक को खींचते ले जाता हैं । केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह तो नहीं हैं, कि जो मन मेँ आए कह दो ,ब्लॉग और अपने आपको श्रेष्ठ लेखक मानकर स्थापित कर लो, उंचें दर्जे के लेखकों मेँ “।
इनकी पुस्तक ” मुठभेड़ ” एक रियल साहित्यिक इनकाउंटर का दस्तावेज़ हैं। साहित्य और असाहित्य ,प्रेम-नफरत और खरी-खोटी की सीमा पर होने वाली लड़ाई का। जिसमें एक सैनिक अपने चारों तरफ चक्रव्यूह में फँसकर लगातार साहित्य-अकादमियों  ,संपादकों ,लेखकों  के  साथ लगभग पांच दशकों से अभिमन्यु की तरह लड़ रहा हो, कलम के  रथ का पहिया निकाल कर और लड़ते-लड़ते क्लांत हो गया हो, बचा रह गया तो केवल क्रोध में भरकर जवाबी हमले के लिए। जब एक महान लेखक अपने ईद-गिर्द होने वाली अव्यवस्थाओं व अलोकतंत्र से जूझता हैं, तो उसका अंतस प्रतिक्रियास्वरूप तीखे हमले की तैयारी कर रहा होता हैं । लेखक का उद्देश्य दुर्भावना फैलाना नहीं होता हैं , वरन साहित्यिक खेमों में फैल रही गंदगी, भ्रष्टाचार,स्वेच्छाचार व स्वतंत्र मनोवृति पर कुछ हद तक अंकुश लगाना होता हैं कि किसी की नजर तो हैं उनके दुराचरण पर ।
इनका ‘स्वयंप्रभा ‘  खंडकाव्य 9 सर्ग में लिखी गई  रचना है जिसमे कवि ने रामायण की स्वयंप्रभा जैसी पात्र जिस पर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया है पर अपनी रचना करते हुए पर्यावरण प्रदूषण और आसुरी प्रवृत्तियां दोनों पर गंभीर चिंता व्यक्त की है । इसे मुंबई विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। इसके एक गीत ‘ कांटों का प्रतिवेदन ‘ को महाराष्ट्र शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रकाशित महाराष्ट्र के 12 वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में रखा गया है । “रुद्रावतार ”  इनकी  बहुचर्चित कविताओं में से एक है ।  यह कविता अपने प्रकाशन के समय से ही चर्चा में रही है । मुंबई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय के निर्देशन मे रुद्रावतार पर एक लघु शोध भी लिखा गया है। इनके एक लघु उपन्यास ‘ नक्सल में उन्होंने नक्सली और उनकी जीवन शैली का सटीक चित्रण किया है। उपन्यास में ये दिखाने की  कोशिश की है कि अगर कोई इस तंत्र  के चक्कर में फंस जाता है तो वह चाहकर भी इससे नहीं निकल पाता है।
 प्रकाशन 
आपकी अब तक प्रकाशित 145 पुस्तकों में कुछ की विशेषताओं को ऊपर बताया गया है। प्रकाशित पुस्तकों पर एक नजर डालें तो इनकी प्रमुख पुस्तकों में त्रेता – ’अभिनव पांडव’, ’राधामाधव’ एवं ’वक्रतुण्ड’ (महाकाव्य) के क्रमशः 3,4,2 एवं 2 संस्करण प्रकाशित (पाठकों की भारी माँग के बाद आया ’त्रेता’ का पेंगुइन संस्करण जबर्दस्त चर्चा में), ’अनाद्यसूक्त’ (आर्ष काव्य), ’ब्लैकहोल’ (काव्यनाटक), ’प्रज्ञावेणु’ (मुक्तछन्द में गीता), ’अस्ति’, ’इस्तरी’, ’हँसो बतर्ज रघुवीर सहाय’, ’शब्दकमल खिला है’, ’नाटकतन्त्र तथा अन्य कविताएँ’ (सभी समकालीन कविताएं), ’लेकिन यह गीत नहीं’ (नवगीत), ’मैंने यह सोचा न था’ ( ग़ज़ल) इसका उर्दू संस्करण भी प्रकाशित, ’सदी का महाराग’ (सं. रेवतीरमण) और ’शेष समर’ (सं. बली सिंह) काव्य संचयन, ’नक्सल’ (लघु उपन्यास), ’  उदभ्रांत: श्रेष्ठ कहानियाँ’ (कहानी), ’कहानी का सातवां दशक’ (संस्मरणात्मक समीक्षा), ’आलोचना का वाचिक’ (वाचिक आलोचना), ’आलोचक के भेस में’ एवं ’मुठभेड़’ (आलोचना), ’शहर-दर-शहर उमड़ती है नदी’ और ’स्मृतियों के मील-पत्थर’ (संस्मरण), ’चंद तारीखें’ (डायरी), ’मेरे साक्षात्कार’ (इंटरव्यूज)। ’ब्लैकहोल’, ’ अनाद्यसूक्त’, ’अभिनव पाण्डव’ और ’राधामाधव’ के अंग्रेजी अनुवाद तथा ’राधामाधव’ के ओड़िया, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, मैथिली एवं डोगरी भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित । ’मैंने जो जिया’ (आत्मकथा)- दो खण्ड शामिल हैं।
 संपादनः 
लेखन के साथ – साथ इन्होंने संपादक के रूप में भी कार्य किया। इन्होंने लघु पत्रिका आंदोलन और युवा की भूमिका, पत्र ही नहीं बच्चन मित्र हैं, पत्र भी इतिहास भी, हम गवाह चिड्डियों के उस सुनहरे दौर के, ’क्षणों के आख्यान’ (फेसबुक डायरी) दो खण्ड, युवा तथा युग प्रतिमान (पाक्षिक) एवं पोइट्री टुडे का संपादन भी किया है। आप कानपुर के दैनिक पत्र ” आज ” में तीन वर्षों तक वरिष्ठ संपादक रहे।
विद्वान कवि और  गद्यकार उदभ्रांत की रचनाओं पर मूल्यांकन कार्य भी बड़े परिमाण में किया गया है जो इनके सृजन कौशल और लेखन शैली की गुणवत्ता का प्रतीक कह सकते हैं। डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित, नित्यानंद तिवारी, कर्णसिंह चौहान, सेवाराम त्रिपाठी, करुणाशंकर उपाध्याय, कँवल भारती, लक्ष्मीकांत पांडेय, द्वारिकाप्रसाद चारुमित्र, बली सिंह, महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, दिनेश कुमार माली आदि विद्वानों द्वारा लिखित और संपादित लगभग दो दर्जन से अधिक पुस्तकें इनके साहित्य के मूल्यांकन को ले कर प्रकाशित हुई हैं।
उदभ्रांत जी को मिले मान – सम्मान की कथा भी इनके सृजन साहित्य के समान व्यापक है।  महत्वपूर्ण सम्मानों में प्रियदर्शनी अकादमी का ’प्रियदर्शनी’ सम्मान (त्रेता), मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का भवानीप्रसाद मिश्र पुरस्कार (अनाद्यसूक्त), हिंदी अकादमी का ’साहित्यिक कृति पुरस्कार’ (लेकिन यह गीत नहीं), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ’जयशंकर प्रसाद पुरस्कार’ (स्वयंप्रभा) और ’निराला पुरस्कार’ (देह चांदनी) उल्लेखनीय हैं। रूस की राजधानी मास्को में ’राधामाधव’ (महाकाव्य) पर ’प्रथम गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मान’ से सम्मानित हुए।
 परिचय : वर्तमान दौर के सशक्त साहित्यिक हस्ताक्षर । देश में हिंदी के प्रसिद्ध कवि ,लेखक,समीक्षक एवं आलोचक उदभ्रांत शर्मा का जन्म 4 सितम्बर, 1948 को  राजस्थान के नवलगढ़ में पिता पंडित उमा शंकर शर्मा एवं माता  गंगा देवी रावत के आंगन में हुआ। उस समय  पिता पोद्दार कॉलेज में अर्थशास्त्र और कॉमर्स के प्रोफेसर थे। दो वर्ष बाद वे उत्तर प्रदेश सूचना आयोग द्वारा सहायक श्रम अधिकारी/श्रम निरीक्षक के पद पर चयनित हुए।
श्रम विभाग का मुख्यालय कानपुर में था। कानपुर, आगरा रहे। कानपुर में अपना मकान बनाया। उदभ्रांत ने कानपुर में ही कक्षा 8 से एम. ए. तक शिक्षा प्राप्त की। आप 1975 से 1978 तक कानपुर में दैनिक आज में पत्रकार तथा श्रम विभाग में वरिष्ठ पत्रकार / प्रभारी प्रचार अधिकारी के रूप में काम करने के बाद 1979 से 1981 के मध्य तक ई. एस. आई. के पटना कार्यालय में हिंदी अधिकारी और 1981 से 1987 के अंत तक एलिम्को कानपुर में हिंदी – सह – प्रचार अधिकारी रहे। इसके बाद मार्च 1991 तक अपना प्रकाशन कार्य किया। अप्रैल 1992 से लोक संघ सेवा आयोग द्वारा भारतीय प्रसारण सेवा के सहायक केंद्र निरीक्षक के रूप में दूरदर्शन के पटना कार्यालय में नियुक्त हो कर इंफाल, पुणे, मुंबई और गोरखपुर होते हुए 1995 में उप निदेशक के रूप में पदोन्नत होते हुए 2010 में सेवा निवृत हुए। वर्ष 1999 से नोएडा में रहते हुए साहित्य सृजन में लगे हैं।
 
 
संपर्क :
’अनहद’, बी – 463, केन्द्रीय विहार, 
सेक्टर-51, नोएडा -201303, 
मोबाइल :  09818854678/ 8178910658
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(लेखक , स्तंभकार, संपादक और पत्रकार हैं)
फोटो –  उदभ्रांत

लंदन में हिन्दी युवा संगम का आयोजन

लंदन ।यहाँ की सामाजिक संस्था “संगम” द्वारा आज “हिन्दी युवा संगम” का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में ब्रिटेन के युवाओं ने बढ़-चढ़ कर भागीदारी की, किसी ने कविता सुनाई, किसी ने छोटी कहानी, किसी ने गीत सुनाए तो किसी ने अनोखे विषयों पर भाषण दिया.

कार्यक्रम का संचालन आशीष मिश्रा और इशिका पांडेय ने संयुक्त रूप से किया। कार्यक्रम के संयोजक डॉ ज्ञान शर्मा ने बताया कि  कार्यक्रम की दो श्रेणियाँ थीं –  कनिष्ठ वर्ग और वरिष्ठ वर्ग । कनिष्ठ वर्ग की टीमों के नाम थे गंगा, यमुना और गोदावरी। वहीं वरिष्ठ वर्ग  के समूहों के नाम प्राचीन शिक्षण संस्थानों पर नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला पर थे । हर टीम में दो-दो युवाओं को रखा गया।

निर्णायक मंडल में तेजिंदर शर्मा, अरुणा अजितसारिया, शिखा वार्ष्णेय और परवीन रानी शामिल थे मण्डल ने बहुत ही बारीक़ी से विभिन्न कारकों के आधार पर प्रस्तुतियों का मूल्यांकन किया। निर्णायक मंडल ने कनिष्ठ वर्ग के प्रतियोगियों में से प्रथम स्थान वेदिका गुप्ता को और द्वितीय स्थान मान्या मिश्रा को घोषित किया।  वरिष्ठ वर्ग के प्रतियोगियों में से प्रथम स्थान हैदी पाठक को और द्वितीय स्थान मोहित शर्मा को प्राप्त हुआ।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पूर्व सांसद श्री वीरेन्द्र शर्मा जी एवं श्री तेजेंद्र शर्मा जी ने संगम संस्था द्वारा आयोजित युवा केंद्रित कार्यक्रम की भरपूर सराहना की।

कार्यक्रम में भारतीय उच्च आयोग  से मिनिस्टर इकोनॉमिक्स निधिमणि त्रिपाठी जी एवं पूर्व कमिश्नर व जानी मानी साहित्यकार संगीता गुप्ता जी की गरिमामयी उपस्थिति रही।

कार्यक्रम में  कथा यूके, IDUK, UPCA , मध्यप्रदेश एसोसिएशन यूके , अंतरराष्ट्रीय कवि संगम, बिहारी कनेक्ट, गुरुकुल यूके ने भी भागीदारी की.

कार्यक्रम में धन्यवाद प्रस्ताव डिप्टी मेयर परवीन रानी ने प्रस्तुत  किया।

कृष्ण अतीत के नहीं भविष्य के देवता हैं

ओशो की पुस्तक  “कृष्ण स्मृति’   में ओशो ने विचार-शृंखला में कृष्ण का मात्र फोटो नहीं खींचा है बल्कि एक सधे हुए चिंतक-कलाकार की तरह अपने विचार-रंगों से कृष्ण के जीवन के उन पहलुओं को छुआ है, आकार दिया है, जो कैमरे की आंख से नहीं देखे जा सकते। सिर्फ कूची के स्पर्श से उभारे जा सकते हैं। कैमरा सिर्फ मूर्त आकृतियों की प्रतिकृति देता है पर कलाकार की कूची अमूर्तता को रेखांकित करती है। “कृष्ण स्मृति’ ऐसी ही अनदेखी, अनजानी अमूर्त छटाओं का एक संपूर्ण संकलन है, जो ओशो की एक लंबी-प्रवचन-शृंखला से उभरा है। श्रोताओं की जिज्ञासाओं, कुतूहलों और कृष्ण व्यक्तित्व से उठनेवाले उन तमाम प्रश्नों के उत्तर में, झरने-सा कल-कल बहता हुआ, कांच की तरह पारदर्शी विचार-चिंतन इस पुस्तक में प्रवाहित हुआ है।

जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।

आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। कृष्ण एक ऐसा नाम है, जिसने जीवन को पूर्णता दी। एक ओर नाचना-गाना, रास-लीला तो दूसरी ओर युद्ध और राजनीति, सामान्यतः परस्पर विरोधी बातों को अपने में समेटकर आनंदित हो मुरली बजाने जैसी सहज क्रियाओं से जुड़े कृष्ण सचमुच चौंकानेवाले चरित्र हैं। ऐसे चरित्र को रेखांकित करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। व्याख्याएं कभी-कभी दिशाएं मोड़ देती हैं, कभी-कभी भटका भी देती है।

ओशो ने कृष्ण को अपनी दृष्टि से हमारे सामने रखा है, अपनी दार्शनिक और चिंतनशील पारदर्शी दृष्टि से हम तक इस पुस्तक के माध्यम से पहुंचाया है। व्यक्तित्व जब बड़ा हो, विशाल हो तब मूर्ति बनाना आसान नहीं। सिर्फ बाहरी छबि उभारना पर्याप्त नहीं होता। व्यक्तित्व के सभी पहलू भी उभरने चाहिए। श्रेष्ठ कलाकार वही है जो मूर्ति में ऐसी बातों को भी उभार सके जो सामान्य आंखें देख नहीं पातीं।

कृष्ण भारतीय जन-मानस के लिए नए नहीं हैं। कृष्ण की छबि, मुद्रा परिचित है। चाहे यह बाल्यकाल की छबि सूरदास की हो  या महाभारत की विभिन्न मुद्राएं हों या विभिन्न कवियों के कृष्ण हों, लोककथाओं या आख्यायिकाओं के कृष्ण हों–चिर-परिचित हैं। कृष्ण का चित्र स्टील फोटोग्राफी की तरह हमारे मन में रच-बस गया है।

कृष्ण यथार्थवादी हैं। वे राग, प्रेम, भोग, काम, योग, ध्यान और आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों को उनके यथार्थ रूप में ही स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर युद्ध और राजनीति को भी उन्होंने वास्तविक अर्थों में स्वीकार किया है। ओशो कहते हैं कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व पूर्वाग्रही नहीं है। यदि युद्ध होना ही हो तो भागना ठीक नहीं है। यदि युद्ध होना ही है और मनुष्य के हित में अनिवार्य हो जाए तो युद्ध को आनंद से स्वीकार करना चाहिए। उसे बोझ की तरह ढोना उचित नहीं। क्योंकि बोझ समझकर लड़ने में हार निश्चित है।

ओशो युद्ध और शांति के द्वंद्व को समझाते हुए कृष्ण के व्यक्तित्व को अधिक सरलता से प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि कृष्ण जीवन को युद्ध और शांति दोनों द्वारों से गुजरने देना चाहते हैं। शांति के लिए युद्ध की सामर्थ्य हो।

मनुष्य की युद्ध की मानसिकता को ओशो ने बड़ी सहजता से उजागर किया है। वे कहते हैं सतगुणों और दुर्गुणों से ही मनुष्य आकार लेता है। अनुपात कम-अधिक हो सकते हैं। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर, जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो। इसलिए सवाल सदा अनुपात और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी। कृष्ण इसी चेतना के प्रतीक हैं।

ओशो ने कृष्ण पर बोलने का बड़ा सुंदर आधार दिया है–कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्त्ति में इतना ही फर्क है। और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं। ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता। उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है। ओशो ने कितना सुंदर कहा है कि जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते, तब हम उसकी पूजा करना शुरू कर देते हैं। या तो हम उसका विरोध करते हैं। या तो हम गाली देते हैं या हम प्रशंसा करते हैं। दोनों पूजाएं हैं–एक शत्रु की है, एक मित्र की है।

ओशो की एक प्रखर आंखों ने कृष्ण को अपने वर्तमान के लिए देखा। दुख, निराशा, उदासी, वैराग्य, जैसी बातें कृष्ण ने पृथ्वी पर नहीं कीं। पृथ्वी पर जीनेवाले, उल्लास, उत्सव, आनंद, गीत, नृत्य, संगीत को कृष्ण ने विस्तार दिया। कृष्ण ने इस संसार की सारी चीजों को उनके वास्तविक अर्थों में ही स्वीकार किया।

कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व और रहस्यपूर्ण कृतित्व की व्याख्या ओशो ने सहजता और सरलता से की है। कृष्ण को देखने की उनकी दृष्टि सचमुच ऐसा विस्तार देती है, जो मात्र तुलना नहीं है। कृष्ण कुशलता से चोरी कर सकते हैं, महावीर एकदम बेकाम चोर साबित होंगे। कृष्ण कुशलता से युद्ध कर सकते हैं, बुद्ध न लड़ सकेंगे। जीसस की हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि वे बांसुरी बजा सकते हैं, लेकिन कृष्ण सूली पर चढ़ सकते हैं। कृष्ण को क्राइस्ट के व्यक्तित्व में सोचा ही नहीं जा सकता।

यह पूरा सिलसिला लंबे प्रवचनों के माध्यम से प्रश्नों के उत्तरों के रूप में है। इसमें मानव मन से उठनेवाली तमाम जिज्ञासाओं और कुतूहलों की आतुरता शांत की गई है। प्रेम, नैतिकता, पत्नी, प्रेमिका, स्त्री-पुरुष, विवाह, आध्यात्मिक संभोग, राधा-कृष्ण संबंधों और हजार-हजार प्रश्नों के रेशों को इसमें कुशलता से सहेजा गया है, समाधान किया गया है। प्रतीकों और यथार्थ की तराजू पर तौलते हुए मानवीय संवेदनाओं और शरीर की जैविक आवश्यकताओं तथा मन, बुद्धि और शरीर की यात्राओं में स्त्री-पुरुष की पूर्णता का युक्तिसंगत ऊहापोह ठोस मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया गया है। राधा और कृष्ण, कृष्ण और सोलह हजार गोपिकाएं, इनके बीच नैतिक-अनैतिक की परिभाषाएं उदाहरणों से इतनी पारदर्शी हो उठी हैं कि तर्कों की डोर बहुत शिथिल पड़ जाती है। कृष्ण की पृष्ठभूमि में विवाह, स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम और सामाजिक पृष्ठभूमि में ये विचार देशकाल की सीमाओं को तोड़कर व्यक्ति को एक नया अर्थ देते हैं। इन सारे संबंधों में निकटता, आकर्षण, ऊर्जा, बहाव, तृप्ति, हल्कापन और सृजन को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है।

इन विस्तृत चर्चाओं में कृष्ण के इर्द-गिर्द जुड़े समस्त पात्रों के अलावा कृष्ण से फ्रॉयड तक की मनोवैज्ञानिक बातें और गांधी तक का दर्शन समाहित किया गया है।

कृष्ण को एक विस्तृत “कैनवास’ के रूप में उपयोग कर हमारे वर्तमान जीवन के रंग और भविष्य के चित्र बड़ी खूबसूरती से उभरे हैं। कोई भी बात बाहर से थोपी नहीं गई है। अपनी विशिष्ट शैली में ओशो ने मन तक पहुंचाई हैं। कृष्ण के पक्ष या विपक्ष में ले जाने का कोई आग्रह नहीं है। पर ओशो की दृष्टि में आए कृष्ण को जानने, देखने, समझने और अनुभव करने की जिज्ञासा इस पुस्तक से जहां एक ओर शांत होती है, वहीं उस अनंत व्यक्तित्व के बारे में मौलिक चिंतन की शुरुआत का एक छोर भी अनायास ही हाथ लग जाता है।

ओशो ने अपनी इस पुस्तक में कहीं भी पुजारी की भूमिका नहीं की। सिर्फ विविध छटाओं को विस्तार दिया है। जिसको जो छटा भाती है, वह उसको सोचकर आनंद को प्राप्त होता है। कृष्ण का जीवन अन्य आराध्यों-सा सपाट और आदर्श के शिखर पर विराजमान नहीं है। बल्कि अत्यंत अकल्पनीय ढंग से उतार-चढ़ाव और रहस्यों से भरपूर होते हुए भी हमारी आपकी पृथ्वी पर खड़ा है। इसकी सिर्फ पूजा नहीं इसे जीया भी जा सकता है। संसार के बंधन और मन की गांठ खुल सकती है।

यह सब बताते हुए ओशो यह भी आगाह करते हैं कि अनुकरण से सावधान रहना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक का जीवन मौलिक होता है और अनुकरण से उसका पतन हो सकता है।

कृष्ण संपूर्णता के प्रतीक हैं। मानव-समाज के आनंद के लिए सुंदर आविष्कार के रूप में उभरते हैं, जहां किसी भी बात को पूर्वाग्रह से नकारा नहीं गया है। एक सहज, सकारात्मक, रागात्मक, प्रेमपूर्ण जीवन को उत्सव की तरह संपन्न करने वाले कृष्ण इस पुस्तक में जो चित्र उभरकर निखरता है, वह सर्वथा नया और आनंददायी है।

कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।

इसके कुछ कारण हैं।

सबसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए वयक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।

जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी-चित्त लोगों को बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में इस जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के–एक वह जो स्वीकार योग्य है और एक वह जो इनकार के योग्य है।

कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए, इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया है।

अल्बर्ट श्वीत्ज़र ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी कीमत की बात कही है, और वह यह कि भारत का धर्म जीवन-निषेधक, “लाइफ निगेटिव’ है। यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। और यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है। और श्वीत्ज़र यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दुख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे-से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास और निषेध और दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरूद्यान हैं। वह हमारे पूरे जीवन की धारा को नहीं प्रभावित कर पाए। हम ही इस योग्य न थे, हम उन्हें आत्मसात न कर पाए।

मनुष्य ाका मन अब तक तोड़कर सोचता रहा, द्वंद्व करके सोचता रहा। शरीर को इनकार करना है, आत्मा को स्वीकार करना है। तो आत्मा और शरीर को लड़ा देना है। परलोक को स्वीकार करना है, इहलोक को इनकार करना है। तो इहलोक और परलोक को लड़ा देना है। स्वभावतः, यदि हम शरीर का इनकार करेंगे, तो जीवन उदास हो जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे रस-स्रोत और सारा स्वास्थ्य और जीवन का सारा संगीत और सारी संवेदनाएं शरीर से आ रही हैं। शरीर को जो धर्म इनकार कर देगा, वह पीतवर्ण हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा। उस पर से लाली खो जाएगी। वह पीले पत्ते की तरह सूखा हुआ धर्म होगा। उस धर्म की मान्यता भी जिनके मन में गहरी बैठेगी, वे भी पीले पत्ते की तरह गिरने की तैयारी में संलग्न, मरने के लिए उत्सुक और तैयार हो जाएंगे।

कृष्ण अकेले हैं जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वीकार कर लेते हैं, उसकी “टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर…कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते से हंसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्य-जाति के इतिहास में जन्म लेकर हंसा। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हंसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हंसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है। फ्रायड-पूर्व धर्म की जो दुनिया थी, वह फ्रायड-पश्चात नहीं हो सकती है। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है, और एक बड़ी दरार पड़ गई है मनुष्य की चेतना में। हम जहां थे फ्रायड के पहले, अब हम वहीं कभी भी नहीं हो सकेंगे। एक नया शिखर छू लिया गया है और एक नई समझ पैदा हो गई है। वह समझ समझ लेनी चाहिए।

पुराना धर्म सिखाता था आदमी को दमन और “सप्रेशन’। काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सभी को दबाना है और नष्ट कर देना है। और तभी आत्मा उपलब्ध होगी और तभी परमात्मा उपलब्ध होगा। यह लड़ाई बहुत लंबी चली। इस लड़ाई के हजारों साल के इतिहास में भी मुश्किल से दस-पांच लोग हैं जिनको हम कह पाए कि उन्होंने परमात्मा को पा लिया। एक अर्थ में यह लड़ाई सफल नहीं हुई। क्योंकि अरबों-खरबों लोग बिना परमात्मा को पाए मरे हैं। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल थी। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई माली करोड़ हजार पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाएं, और फिर भी हम उस माली के शास्त्र को मानते चले जाएं, और हम कहें कि देखो एक पौधे में फूल आए! और हम इस बात का खयाल ही भूल जाएं कि पचास करोड़ पौधे में अगर एक पौधे में फूल आते हैं, तो यह माली की वजह से न आए होंगे, यह माली से किसी तरह बच गया होगा पौधा, इसलिए आ गए हैं। क्योंकि माली का प्रमाण तो बाकी पचास करोड़ पौधे हैं जिनमें फूल नहीं आते, पत्ते नहीं लगते, सूखे ठूंठ रह जाते हैं।

एक बुद्ध, एक महावीर, एक क्राइस्ट अगर परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के बावजूद भी, तो यह कोई धर्मों की सफलता का प्रमाण नहीं हैं। धर्मों की सफलता का प्रमाण तो तब होगा, माली तो तब सफल समझा जाएगा, जब पचास करोड़ पौधों में फूल लगें और एक में न लग पाएं, तो क्षमा योग्य है। कहा जा सकेगा कि यह पौधे की गलती हो गई। इसमें माली की गलती नहीं हो सकती। पौधा बच गया होगा माली से, इसलिए सूख गया है, इसलिए फूल नहीं आते हैं।

भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है। जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व-भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा। और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए। कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। कठिन है इस बात को समझना कि एक आदमी संसार को छोड़कर चला जाए और शांत हो जाए। कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो। आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति से संबंध तोड़कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो। कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अलिप्त, जीवन के सारे धूल-धवांस के कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दिया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो–कठिन है यह समझना। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते हैं। लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है। ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके, और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे। और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दिया मन से न बुझे।

इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है। सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे। वह बाल कृष्ण को ही…। क्योंकि बाल कृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ देता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन युवा-कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं। हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा। गीता को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे, क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। इसलिए कृष्ण की एक-एक शकल लोगों ने पकड़ लिया। है। जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शकल को उसने इनकार कर दिया है।

ओशो