Wednesday, January 15, 2025
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जीवन मूल्यों से साक्षात्कार कराती बाल कहानियां

बादल और बिजली’ लेखिका डॉ.  अर्चना प्रकाश द्वारा लिखित एक प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद पुस्तक है। पुस्तक में कुल 11 बाल-कहानियां हैं जिनके शीर्षक इंद्रधनुष, झोला और पालिथीन बैग, बादल और बिजली, सच्चा प्यार, उड़ान, डबल गिफ्ट, असली सुंदरता,सैर में सीख,अहिल्याबाई होल्कर ,पीर पराई ,अनोखी बात हैं।  लेखिका ने  विभिन्न स्थितियों से मुकाबले, साहस, आत्मविश्वास और नैतिक शिक्षा पर आधारित हैं।

लेखिका डॉ.  अर्चना प्रकाश साहित्य में कहानी , बाल कहानी-विधा की अनवरत प्रकाशित होने वाली कथाकार हैं।

प्रथम कहानी ‘इंद्रधनुष बच्चों को डर और शरारतों से बचने का संदेश देती है। यह कहानी आसमान में ‘इंद्रधनुष बनने की जानकारी देती है। झोला और पॉलिथीन बैग कहानी पर्यावरण संरक्षण सिखाती है बादल और बिजली कहानी किसी भी बात को बिना जानकारी के न मानें और न ही दूसरों को डराएं। कहानी में महत्वपूर्ण संदेश दिया गया है।

‘अहिल्याबाई होल्कर कहानी शिक्षा देती है कि सही नेतृत्व सहानुभूति, सेवाभाव और समर्पण के आधार पर संभव होता है।इस पुस्तक में बाल मन के अनुरूप लिखी ग्यारह कहानियों में जादुई आकर्षण है।‘बादल और बिजली’ बाल कहानी-संग्रह संवेदना सहानुभूति और समानुभूति जैसी भावनाओं का संचार करने में सक्षम है।

कुल मिलाकर, इन सभी बाल कहानियों में लेखक ने सरल, प्रभावशाली और बच्चों की समझ में आने वाली भाषा का उपयोग किया है। जीवन मूल्यों से साक्षात्कार कराती बाल कहानियां निश्चय ही बच्चों के लिए प्रेरणा प्रदान करेगीं।

पुस्तक : ‘बादल और बिजली’ (बाल कहानी-संग्रह) कहानीकार : डॉ. अर्चना प्रकाश प्रकाशक : शतरंग प्रकाशन, लखनऊ पृष्ठ : 32 मूल्य : रु. 100.

 सुरेन्द्र अग्निहोत्री 

ए-305, ओ.सी.आर.
विधान सभा मार्ग;लखनऊ-226001

दृष्टिबाधित बच्चों के लिए ’एनी डिवाइस’

दंतेवाड़ा प्रशासन की एक क्रांतिकारी पहल

रायपुर / दंतेवाड़ा जिला प्रशासन ने दृष्टिबाधित बच्चों के जीवन को सरल और आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नया कदम उठाते हुए ’एनी डिवाइस’ नामक विशेष उपकरण प्रदान किया है। यह डिवाइस बच्चों को ब्रेल लिपि को सीखने और पढ़ने में मददगार है। जिला प्रशासन द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय ’सक्षम’ के दृष्टिबाधित बच्चों को यह डिवाईस दिया गया है। ’एनी डिवाइस’ एक स्मार्ट लर्निंग टूल है, जो बच्चों को ब्रेल अक्षरों को पहचानने और लिखने में मदद करता है। यह डिवाइस टच और ऑडियो फीचर्स से लैस है। बच्चे अपनी उंगलियों से डिवाइस पर ब्रेल अक्षरों को छूते हैं, और डिवाइस तुरंत ऑडियो में अक्षर का नाम और उसकी ध्वनि सुनाता है। इसमें इंटरएक्टिव गेम्स और क्विज भी शामिल हैं, जो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को रोचक और प्रभावी बनाता है।

दंतेवाड़ा जिले के ’सक्षम’ विद्यालय में 16 दृष्टिबाधित बालिकाएं और 12 बालक पढ़ाई कर रहे हैं। इस नई डिवाइस के आने से न केवल उनकी पढ़ाई आसान हुई है, बल्कि आत्मनिर्भरता भी बढ़ी है। शिक्षक श्री अमित यादव ने बताया कि ब्रेल लिपि पढ़ाने का अनुभव पहले भी था, लेकिन ’एनी डिवाइस’ ने बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ अन्य डिजिटल सुविधाओं का अनुभव दिया है। ’एनी डिवाइस’ से बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ा है। यह उपकरण बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें गेम, गानों और अन्य गतिविधियों से भी जोड़ता है। डिवाइस वॉइस असिस्टेंस जैसी तकनीक से लैस है। दंतेवाड़ा प्रशासन का यह प्रयास दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा और तकनीक का समावेश करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। 2013 में ’सक्षम’ विद्यालय की स्थापना से लेकर ’एनी डिवाइस’ के उपयोग तक, यह पहल दृष्टिबाधित बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह शिक्षा में समावेशिता और तकनीकी विकास का प्रतीक बनकर समाज के उन वर्गों के उत्थान है, जिन्हें विशेष सहयोग की आवश्यकता है।

मास्टर मदन: सुरों की दुनिया का सम्राट जो बचपन में ही चल बसा

मास्टर मदन- जिनकी ज़िन्दगी ही मात्र साढ़े चौदह साल थीं और मौसिकी में अमर 1942 से आज भी एक ऐसी आवाज़ है कि जिनको एक बार सुन लिया जाए तो फिर बार-बार सुनाने को जी करे है! अपनी छोटी-सी आयु में उन्होनें संगीत सुननेवालों पर अमिट छाप छोड़ी है!
मास्टर मदन का जन्म 28 दिसम्बर, 1927 को पंजाब के जालंधर ज़िले के खानखाना गाँव में हुआ था, उनके जीवन में केवल 8 गाने ही रिकॉर्ड हो पाये जो आज उपलब्ध है। जिनमें से सार्वजनिक रूप से केवल दो ही गानों की रिकॉर्डिंग सब जगह मिल पाती है, तीन साल की उम्र में जब बोलियों की कोपलें फूटती हैं तब उनकी तान फूट गई थी. बच्चा बस दिखने में बच्चा था, उनकी आवाज अपनी प्रकृति में कच्ची थी लेकिन प्रस्तुति में प्रौढ़, नैसर्गिक प्रभा से प्रदीप्त. पांच साल की उम्र में एक बार उन्होंने गुरु तेग बहादुर का शबद गाया था, चेतना है तो चेत ले, विडंबना देखिए कि सुनने वाले अपनी सुध-बुध खो बैठे. तब उनकी दीदी ने कहा था कि मास्टर गुरु नानक की छवि सदैव अपने साथ लिए चलते थे.
1 यूँ न रह-रह कर हमें तरसाइये
2 हैरत से तक रहा है
अन्य छ: गाने बहुत ही कम मिल पाते है, जब वह एक युवा लड़का था तब मास्टर मदन ने राजाओं के दरबार में गायन शुरू कर दिया था, आठ साल की उम्र में उन्हें संगीत सम्राट कहा जाता था,
आज़ादी से पहले के एक प्रतिभाशाली ग़ज़ल और गीत गायक थे, मास्टर मदन के बारे में बहुत कम लोग जानते है, मास्टर मदन एक ऐसे कलाकार थे जो 1930 के दशक में एक किशोर के रूप में ख्याति प्राप्त करके मात्र 15 वर्ष की उम्र में 1940 के दशक में ही स्वर्गवासी हो गए, ऐसा माना जाता है कि मास्टर मदन को आकाशवाणी और अनेक रियासतों के दरबार में गाने के लिए बहुत ऊँची रकम दी जाती थी, मास्टर मदन उस समय के प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल के बहुत क़रीब थे जिसका कारण दोनों का ही जालंधर का निवासी होना था।
सिर्फ साढ़े चौदह साल जीने वाले उस कलाकार की तान, टीस की एक टेर है, एक कोमल, बाल्यसुलभ स्वर जिसमें हर पहर की पीड़ा है, उफ! कैसा आलाप! कैसे सुर! कैसा अदभुत नियंत्रण!’ मास्टर मदन की ख्याति और लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1940 में जब एक बार गांधीजी शिमला गए थे तो उनकी सभा में बहुत कम लोग उपस्थित हुए, बाद में पता चला कि ज्यादातर लोग मास्टर मदन की संगीत-सभा में गाना सुनने चले गए थे, ऐसी प्रसिद्धि थी मास्टर मदन की, तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते मास्टर मदन का नाम और उनकी ख्याति भारत के कोने-कोने तक पहुँच चुकी थी, उनके जीवन का आखिरी संगीत-कार्यक्रम कोलकता में हुआ था।
उन्होंने राग बागेश्वरी में “विनती सुनो मोरी अवधपुर के बसैया” को भावविभोर और पूर्ण तन्मयता के साथ गाया, श्रोता मंत्र-मुग्ध हुए, उन्हें नकद पुरस्कार के अलावा शुद्ध सोने के नौ पदकों से सम्मानित किया गया। दिल्ली लौटने पर अगले तीन महीनों तक आकाशवाणी के लिए गाना जारी रखा, इस बीच उनकी तबीयत खराब रहने लगी, ज्वर टूट नहीं रहा था, 1942 की गर्मियों में वे शिमला लौटे और 5 जून को उनकी मृत्यु हो गई, कहते हैं कि उस दिन शिमला बंद रहा और श्मशान घाट तक की उनकी अंतिम-यात्रा में हजारों की संख्या में उनके प्रशंसक शामिल हुए, तेरह साल की उम्र तक आते-आते वे मशहूर हो चुके थे और इस प्रसिद्धि में चुपके से उन्हें एक बीमारी घेर रही थी. समृद्ध होते सुरों को सन्नाटे में संभालने वाला शरीर खाली हो रहा था. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उन्हें थकान रहने लगी थी और हल्का बुखार घेरे रहता था. बाद में नीम-हकीम और वैद्य अस्पताल कुछ काम नहीं आया, उनकी असमय मौत शक के घेरे में है.
लोगों का कहना है कि मास्टर को ईर्ष्या में ज़हर दिया गया> कहते हैं, कलकत्ता में एक मंत्रमुग्ध कर देने वाली ठुमरी, बिनती सुनो मेरी, सुनने के बाद उऩ्हें किसी ने धीमा जहर दे दिया. ऑल इंडिया रेडियो की कैंटीन से लेकर मास्टर मदन दूध पिया करते थे. सुगबुगाहटें रहीं कि एक दूसरे गायक ने उन्हें दूध में मर्करी मिलाकर दे दिया, इस बात का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि अगर मास्टर मदन जवानी की उम्र तक भी जिंदा रहते, तो जाने उनकी गायिकी किस मुकाम तक उनको पहुंचा देती! अपनी अद्भुत और हृदयग्राही गायिकी की वजह से बालक मदन ‘मास्टर’ कहलाने लगा था।
मास्टर मदन के गाए दुर्लभ गाने
 
साभार https://www.facebook.com/sunilgajani के फेसबुक पेज से

राजस्थानी कहानियाँ एक विवेचना

सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से वर्ष 2025 में प्रकाशित पुस्तक “राजस्थानी  कहानियाँ  एक विवेचना” में समालोचक जितेन्द्र निर्मोही जी ने बत्तीस कहानीकारों के राजस्थानी कहानी संग्रहों को गहनता से विवेचित करते हुए समकालीन परिवेश में उनके महत्व को प्रतिपादित किया है।
आरम्भ में लेखक- समालोचक जितेन्द्र निर्मोही ने पूर्व पीठिका के अन्तर्गत राजस्थानी कहानी की परम्परा को विस्तार देते हुए मुख्य रूप से आलोचक डॉ. नीरज दइया और प्रो. कुंदन माली के वैचारिक भाव और उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों को उल्लेखित करते हुए विश्लेषण तो किया ही है साथ ही राजस्थानी कहानी जगत में सृजित कहानियों में होते रहे परिवर्तन को उजागर करने का प्रयास भी किया है जो लेखक की समकालीन  राजस्थानी कहानी के सृजन सन्दर्भों पर प्रति दृष्टि को परिलक्षित करता है।
पूर्व पीठिका के पश्चात् लेखक ने क्रमशः जिन कहानीकारों को लिया है उनके कहानी सृजन को प्रमुखता से शीर्षित करते हुए उनकी  कहानियों के बारे में सारगर्भित चर्चा की है।
पुस्तक में मुरली धर व्यास : अपने समय के युगीन बिम्ब रूपायित करती कहानियाँ , श्रीलाल नथमल जोशी : विषय वैविध्य कथ्य से भरी कहानियाँ ,अन्नाराम सुदामा : एक लम्बी यात्रा का कथाकार , ओम प्रकाश भाटिया : जैसलमेर की मिट्टी के अप्रतिम कथाकार ,  पूर्ण शर्मा पूरण : ज़िन्दगी को नजदीक से देखता रचनाकार , माधव नागदा : मेवाड़ कथा क्षेत्र का निलकंठी कथाकार , सावित्रि चौधरी : अपने समय की बानगी का अनुभव से प्रस्तुतिकरण ,संतोष चौधरी : अपनी कहानियों में नवाचार और समकाल का बोध ,नंद भारद्वाज : अपने समय की हरावल पीढ़ी के कथाकार , सत्यनारायण सोनी : नायको के रेखाचित्र रूपायित करते कथाकार ,बसंती पंवार : अपनी कहानियों में जोधपुरिया मटेट, किरण राजपुरोहित : अनूठे राजस्थानी शब्दों से रूपायित कहानियाँ ,अशोक जोशी “क्रांत” :  राजस्थानी कथा जगत का प्रतिनिधि कथाकार, जेबा रशीद : विषय वैविध्य और नारी जीवन संघर्ष से भरी कहानियाँ , राजेंद्र शर्मा “मुसाफिर ” : अपने आस पास जमीन से जुड़ी संवेदनशील कहानियाँ, डॉ. कृष्ण कुमार आशु : अपने जीवन अनुभवों का सच सामने रखता कथाकार, मधु आचार्य आशावादी : अपनी कहानियों से समकाल को शिद्दत से सामने रखता कथाकार, कमला कमलेश : जिंदगानी होम करता कथा परिवेश, उम्मेद धनियां : अपनी कहानियों में ढलता दलित जीवन,कुमार अजय : वर्तमान परिवेश को उकेरती कहानियाँ , मेहर चंद धामू : ठेठ गंवई राजस्थानी के कथाकार, जितेन्द्र निर्मोही : राजस्थानी कहानियों में नवाचार और संस्कार, विजय जोशी : लोक संवेदनाओं के कथानक ,राजेंद्र जोशी : अपने आसपास की कहानियाँ, मदन गोपाल लढ़ा : कथा सन्दर्भों में नवाचार और नवशिल्प , राजू सारसर राज : दलित संघर्ष की कहानियाँ  , ऋतु शर्मा : स्त्री संघर्ष की कहानियों का रचाव  ,सांवर दइया : राजस्थानी कथा नवयुग के प्रणेता ,हरीश बी. शर्मा : अपनी कथाओं में नवल रंग भरते कथाकार ,  मनोहर सिंह राठौड़ : मरुधरा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक रंग की कथाएँ , रीना मेनारिया : स्त्रैण मर्म को प्रकट करती कहानियाँ ,
करणीदान बारहठ : प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु की परम्परा का कथाकार की कहानियां सम्मिलित हैं।
    इन विवेचित कहानीकारों की कहानियों को विश्लेषित करते हुए समालोचक जितेन्द्र निर्मोही ने कथानक को उभारते हुए उसमें समाहित कहानी के उद्देश्य को तो उकेरा है साथ ही जहाँ – जहाँ पात्रों के संवाद अथवा कहानी के प्रमुख उल्लेखनीय अंश को समालोचित करना हो वहाँ – वहाँ मूल स्वरूप अर्थात् राजस्थानी में ही उद्धरित किया है। यही नहीं इन विवेचित कहानीकारों की कहानियों के बारे में जिन विद्वानों ने अपना मंतव्य किसी भी रूप में प्रकट किया है ; उसे भी लेखक ने  प्रमुखता से सन्दर्भित करते हुए कहानियों की विशेषता और प्रासंगिकता को दर्शाया है।
लेखक : जितेंद्र निर्मोही
प्रकाशक : सूर्य मंदिर , बीकानेर
मूल्य : 350
संस्करण : 2025
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विजय जोशी,
कथाकार और समीक्षक, कोटा

आलोक के नाम का वलय भी भला कब कहीं जा सकता है

अपनी सरकती उम्र इन दिनों मुझे यह भी अहसास कराने लगी है कि मेरी ही नहीं, मुझसे उम्र में बड़े सबकी उम्र सरक रही है। अब कुछ भी टालने की स्थिति, गुंजाइश या समय ही मेरे पास नहीं है। यह निराशा से उपजी मनोदशा नहीं है, यथार्थ  है। इस यथार्थ का साबका मंगलवार सुबह कुछ और गहरा हुआ। सोशल मीडिया पर खबर आने लगी रंगकर्मी आलोक चटर्जी नहीं रहे। कोई कह रहा था सोमवार देर रात उनका निधन हुआ, कोई कह रहा था मंगलवार तड़के। समय जो भी हो, सच तो यह था कि वे गुज़र गए। उनसे मुलाकात हुए ज़माना हो गया और बिल्कुल कुछ दिनों पहले ही मैंने तय किया था कि इस बार भोपाल गई तो उनसे ज़रूर मिलकर आऊँगी। पिछली बार गई थी, तब क्यों नहीं मिली या उससे पिछली बार? या इतने साल जब इंदौर में थी तब भोपाल की दूरी क्यों नहीं तय कर पाई? इतना भरोसा कैसे था कि आज नहीं तो कल मिल लेंगे। क्यों लगता रहा कि वे कहाँ भागे जा रहे हैं, भोपाल में ही तो हैं, कभी भी मिल लेंगे। अब…अब, अब क्या मैं यह लिखने की स्थिति में हूँ कि कभी भी मिल लेंगे? वे प्रस्थान कर गए हैं, उनके जीवन के रंगमंच से पर्दा गिर गया है, उनके जीवन का नाटक और उनका नाट्यपूर्ण जीवन हमेशा के लिए समाप्त हो गया है।
उनका जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा, आर्थिक रूप से कभी टूटा, कभी सँभला रहा। पर हर स्थिति में उन्होंने नाटक चलने दिया। जितना भी कमाया उसमें से आधा हिस्सा घर खर्च के लिए रखा और आधा नाटक को अर्पित कर दिया। ऐसे लोग सच में अब बिरले होते जा रहे हैं, जिनके लिए मैटीरियलस्टिक चीज़ें मायने नहीं रखती हों। शायद हमारी पीढ़ी के पास कहने को ये कहानियाँ तो हैं कि हमने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने अपने जज़्बे के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया हो। उनके नाम का आलोक उनके वलय के साथ चलता था। नब्बे के दशक की बात होगी। इंदौर के रवींद्रनाट्य गृह में मृत्युंजय नाटक खेला जाना था। मुख्य पात्र की भूमिका में थे-आलोक चटर्जी।
लगभग 1987 में वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि), नईदिल्ली से उत्तीर्ण हुए थे और 1990-91 में यह नाटक आया था। वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र कर्ण की भूमिका में थे। मेरे किशोरवयीन मन पर यह छवि अंकित हो गई कि उनसे बेहतर कर्ण का पात्र और कोई कर ही नहीं सकता है। रवींद्र नाट्य गृह की दर्शक दीर्घा से उन्होंने मंच पर प्रवेश किया था। इस तरह का प्रयोग मैंने पहली बार देखा था। उस तरह का कोई नाटक भी। कर्ण मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था। उसके बाद शिवाजी सावंत के मूल उपन्यास मृत्युंजय को दोनों भाषाओं मराठी और हिंदी में पढ़ डाला। कर्ण की गहरी छाप आलोक चटर्जी ने मुझ पर छोड़ी थी। साल बीतते न बीतते रानावि ने इंदौर में ग्रीष्मकालीन शिविर आयोजित किया। शहर के युवाओं के चयन की प्रक्रिया हुई। मेरा चयन निर्धारित आयु सीमा से कम होने के बावजूद हो गया। तब तक मुझे पता भी नहीं था कि मेरी थाली में कितना शानदार भोज आने वाला है।
गोविंद नामदेव, आशीष विद्यार्थी, सुधा शिवपुरी, आलोक चटर्जी एक से बढ़कर एक कलाकार हमें तालीम देने वाले थे। सुबह सात बजे से शाम तक सेंट रेफियल्स स्कूल का प्रांगण हमारा घर बन गया था। बीच में भोजन अवकाश होता था। हम अपने-अपने घर जाते थे। कुछ प्रशिक्षणार्थी स्कूल में रुक जाते, कुछ प्रशिक्षक भी। मुझसे उम्र, अनुभव और कद में कितने ही बड़े मेरे सहपाठी हो गए थे। हम सब कितना सारा समय साथ बिताते और हम सबके चहेते थे आलोक चटर्जी सर। उनके बाद उनकी जगह आशीष विद्यार्थी ने ली थी। उन दोनों ने हम सबको इतना कुछ सिखाया कि भूले नहीं भूलता। दोनों युवा थे इसलिए भी उनकी हम सबसे अच्छी दोस्ती हो गई थी। वे आलोक सर से हमारे आलोक दा हो गए थे। की क्लास में कई प्रयोग भी होते। वे हमारे मन की गाँठें खोलते। कभी-कभी हम सब समूह में आलोक दा जहाँ रुके थे वहाँ चले जाते। कभी साथ में सब प्रशिक्षण स्थल पर ही दोपहर का भोजन करते। तब तक मुझे केवल इतना पता था कि वे रानावि से निकले हैं, लेकिन वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं, बाद में पता चला।
उनके भोपाल लौटने के बाद उनके बारे में हम बातें किया करते थे। चूँकि शेष प्रशिक्षणार्थी उम्र में मुझसे बड़े थे इसलिए शिविर समाप्ति के बाद वे भोपाल जाकर उनसे मिल आया करते। हम प्रशिक्षणार्थी उस शिविर के बाद कुछ अरसे तक आपस में मिलते रहे थे इसलिए आलोक सर के हालचाल पता चलते रहे। आलोक दा का जादू हम सब पर था। वे व्यक्तिगत तौर पर सबसे जुड़े थे। उनकी दमोह की स्कूली पढ़ाई, उनका मेडिकल कॉलेज में हुआ चयन, उनका मेडिकल की पढ़ाई न कर, नाटक करने का निर्णय (वह भी उस जमाने में) हमें बड़ा रोमांचित करता। उसके बाद संपर्क टूटता गया, उनके नाटकों के शो निरंतर जारी थे। भोपाल के रंगमंडल की रेपेटरी में वे शिक्षक थे। मृत्युंजय का नाम तक अब उनके द्वारा अभिनीत प्रमुख नाटकों में नहीं होता। नट सम्राट नाटक ने उन्हें नई पहचान दी। लेकिन मेरे लिए तो वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र थे, जो आज मृत्यु से हार गए थे…उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। अभिनेता के लिए उसका शरीर ही उसका माध्यम उसका साज़ होता है, वह साज़ थम गया…पर किसी का आलोक तो बिना शरीर के भी रह सकता है न…आलोक तो मृत्यु पर विजय पाकर मृत्युंजय होता है, अमर होता है…
(स्वरांगी साने स्वतंत्र लेखिका व पत्रकार हैं और साहित्य, कला संस्कृति के साथ ही सामाजिक विषयों पर लेखन करती है)
स्वरांगी साने का परिचय

मस्तानों की टोली ( बाल कहानी संग्रह )

बाल सोच को नई दृष्टि प्रदान करती बाल कहानियां
बालमन की जिद्द पर आधारित कहानी ” कच्ची पौध” एक अत्यंत शिक्षा प्रदान है । कभी भी जीव जंतुओं को पालतू बना कर उनके प्राकृतिक वातावरण का हनन नहीं करना चाहिए। उन्हें प्रकृति के बीच रहना ही अच्छा लगता है। यह जन्म दिन पर उपहार के जिद्द से शुरू हुई कहानी है जिसमें मीहू कछुआ उपहार में लेने की ठान लेती है और अपने दादा से कछुआ लाने को कहती है, जो श्रीनाथद्वारा गए हैं। वह उनसे फोन पर कहती है वहां एक कुंड में बहुत सारे कछुए हैं, मेरे जन्म दिन पर उपहार के लिए एक कछुआ लेकर आना। इधर वह और उसके तीन दोस्त सभी आने वाले कछुए के रहने के लिए ईंट का ढांचा बना कर उसके लिए पीने का पानी और खाने की व्यवस्था में जुट जाते हैं।
 दादा आ कर बताते हैं ,पुलिस वाले ने उन्हें कछुआ नहीं लाने दिया। उसने कहा ये प्राकृतिक वातावरण में जल और थल दोनों पर रहते हैं। इन्हें पालतू बनाना उचित नहीं है। मेहू उदास हो कहती है और कहती है कि उसने तो कछुए को रखने का पूरा प्रबंध कर लिया है। तब दादा अपने मोबाइल में लाए कछुओं के चित्र उन्हें दिखा कर पूछते हैं क्या तुम इनके लिए पानी में रहने की व्यवस्था कर सकती थी ? तब मेहू कहती है ” सही है, इतनी व्यवस्था तो हम नहीं कर सकते ।” दादा कहते हैं ” तो उसे पालने की बात भूल जाओ । तुम्हारा पालना उसे कैदी बना देगा। क्या तुम कछुए के साथ ऐसा करना पसंद करोगे। चारों दोस्त अब चुप, टकटकी लगाए बनाए गए ईंट के घर को देख रहे थे।
बच्चों को दिशा देती देश की प्रसिद्ध बाल साहित्यकार सलूंबर निवासी डॉ. विमला भंडारी द्वारा लिखित बाल कहानी संग्रह ” मस्तानों की टोली ” बारह बाल कहानियों की एक ऐसी कृति है जो बातों – बातों में बच्चों को कोई न कोई सीख दे कर उनकी सोच को एक नई दृष्टि प्रदान करती है। एक कहानी के शीर्षक  मस्तानो की टोली के नाम पर कृति का नाम रखा गया है। भाषा और शब्द शिल्प इतना सहज और सरल है कि बच्चों के दिल और मन पर आसानी से उतर जाए। कहानियां बाल मनोविज्ञान पर खरी उतरती हैं। बुधवार 8 जनवरी को इस पुस्तक सहित कुछ और बाल पुस्तकें डाक से प्राप्त हुई। इस पुस्तक को हाथों हाथ पढ़ डाली।
कृति की विशेषता है लेखिका के विचार। वे अपने लेखकीय में कहानियों का संकेत कुछ इस प्रकार देती हैं कि बच्चों को उन्हें पढ़ने की स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है। वे कहानियों के प्रसंग लिख कर एक प्रश्न बच्चे के सामने उछाल देती है, जो पूरी कहानी पढ़ने के लिए बाल मन में एक ललक पैदा कर देता है। उनका प्रस्तुतिकरण कृति की आत्मा कह सकते हैं।
संग्रह की कहानी “लापता हुआ पैकेट ” एक बच्चे रोहित की समझ और उनके चिंतन की ऐसी कहानी है जो बच्चों को एक दिशा बोध देती है कि खाने की चीजों को बेकार कचरे में न फेंक कर, किसी भूखे को खाने के लिए दें। यह दिशा बोधक कहानी रसोई में कागज में लपेट कर रखी गई रोटी के पैकेट के इर्दगिर्द लिखी गई है। रसोई से गायब हुए इस पैकेट की जब कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेता तो लता एक तरकीब निकालती है।
वह खाना बनाने के बाद एक रोटी का कागज में लपेट कर पैकेट बना कर फिर से रखी है। अब वह इस पर नजर रखती है।  बेटे रोहित ने अपने स्कूल का टिफिन ले कर अपने स्कूल बैग की जेब में रोटी का पैकेट रखने वाला ही था ,तब ही मम्मी ने उसका हाथ पकड़ लिया। रोहित अपनी माँ को कहता है मैं देखता था कि आप यह रोटी कई बार डस्टबिन में फेंक देती थी। मेरा एक दोस्त है जो टिफिन नहीं लाता। उसे भूख लगती है, वह भूखा रहता है। कल वह रोटी ले जाकर मैंने उसे दे दी, वह बहुत संतुष्ट हुआ। मैंने गलत तो नहीं किया मॉ ? लता ने अपने बेटे को गले से लगा लिया । कानों में रोहित के स्वर गूंज रहे थे , रोटी कचरे में बेकार जा रही थी। मैंने उसका अच्छा उपयोग किया। भूखे को रोटी दे कर ठीक किया ना !
कहानियों की इन कतिपय बानगी के साथ – साथ डोसा ने बदली आदत, बदलती तस्वीर , चमत्कारी पीला पत्थर, मस्तानों की टोली, एक के बाद एक, नेकी की राह, जेजू मैं आई, कुएं का मेढक, सांप की केचुली और सर्पराज की कुई  कहानियां इस कृति की दिशा बोधक कहानियां हैं।
कृति के शीर्षक के अनुरूप का रंगीन आवरण पृष्ठ पर बच्चों की मस्ती खूब भाती है। आरंभ में बाल बुद्धि की मस्कत के लिए “आइस्क्रीम किस को मिलेगी” और “तितली को फूलों तक पहुंचाओं” मनोरंजनपूर्ण हैं। ” नए जगत के इस कहानी संसार में ” लेखिका ने बाल मन में कृति को पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न की हैं। कृति के 64 पृष्ठों में आकर्षक रेखा चित्रों से सजी कहानियां निश्चित ही लेखिका की बाल मनोविज्ञान पर गहरी समझ का प्रतीक हैं।
पुस्तक : मस्तानों की टोली ( बाल कहानी संग्रह)
लेखक : डॉ. विमला भंडारी, सलूंबर, राजस्थान
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली
मूल्य : 160 ₹
संपर्क : मोबाइल
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समीक्षक : डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

गुरुगोबिंद सिंह के ग्रंथ योजनापूर्वक ग़ायब किए जा रहे हैं

भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन ऐसे शबद बोलने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी केवल सिक्ख समुदाय के प्रेरणापुंज व आदर्शों ही नहीं अपितु समूचे हिंदू समुदाय हेतु प्रेरणापुंज रहें हैं। वे सिक्ख समुदाय की गुरु पीठ पर दसवें गुरु के रूप में विराजे थे। उन्होंने श्री गुरुग्रंथ साहिब  को पूर्ण किया व उसे ही गुरु मानने की सीख अपने अनुयायियों को दी थी।
पटना में वर्ष 1666 की पौष शुक्ल सप्तमी को जन्में गुरु गोबिंदसिंह का मूल नाम गोबिंद राय था। नानकशाही कैलेंडर के अनुसार ही पौष मास, शुक्ल पक्ष, सप्तमी को गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश परब  मनाया जाता है।
गुरु गोबिंदसिंह जी ने वर्ष 1699 की बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना थी। इसके पूर्व गुरु गोबिंद सिंह ने अपने सभी अनुयायियों को आनंदपुर साहिब में एकत्रित होनें का आदेश दिया था। उस सभा में उन्होंने सभी अनुयायियों के समक्ष अपनी तलवार म्यान से निकाली और अपनी उस चमकदार तलवार को लहराते हुए कहा – “वो पाँच लोग सामने आयें जो धर्म की रक्षा के लिए अपनी गर्दन भी कटवा सकते हों”। गुरु के इस आदेश पर सर्वप्रथम दयाराम आगे बढ़कर गुरुजी के पास आए तो गुरु गोबंदसिंग उन्हें अपने तंबू में ले गए, और जब गुरुजी बाहर आए तो उनके हाथों में रक्त सनी, रक्त टपकती हुई तलवार थी। इस प्रकार शेष चारो शिष्य भी रक्त टपकती तलवार देखकर भयभीत नहीं हुए व तंबू के भीतर क्रमशः निडर होकर जाते रहे। उनके ये वीर शिष्य थे, हस्तिनापुर के धरमदास, द्वारका के मोहकम चंद, जगन्नाथ के हिम्मतसिंग  और बीदर के साहिब चंद। सभा में उपस्थित अन्य शिष्यों को लगा कि उन पांचों का बलिदान दे दिया गया है। किंतु, कुछ मिनिटों बाद ही ये पांचों शिष्य तंबू से भगवा पगड़ी व भगवा वेश धारण करके बाहर निकल आए। खालसा पंथ की स्थापना के दिन गुरु की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए इन शिष्यों को ही “पंज प्यारे” का नाम दिया गया। इस प्रकार खालसा पंथ की स्थापना हुई थी।
हिंदू समुदाय के अलग-अलग मत, पंथ, संप्रदाय के इन वीर हिंदू युवकों को गुरु साहब जी ने एक कटोरे में कृपाण से शक्कर मिलाकर उसका जल पिलाया और एक समरस, सर्वस्पर्शी व भेदभावरहित हिंदू समाज का प्रतीक उत्पन्न किया। इन पंज प्यारों के नाम के आगे गुरुजी ने सिंह उपनाम लगाकर इन्हें दीक्षित किया था। इस सभा में ही उन्होंने यह जयघोष भी प्रथम बार बोला था – “वाहे गुरुजी का खालसा वाहे गुरुजी की फ़तह”। गुरुसाहब ने खालसा पंथ की स्थापना हिंदू समाज को विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने व अपने सनातन धर्म की रक्षा करने हेतु की थी। इतिहास साक्षी है कि खालसा पंथ ने अपने इस लक्ष्य के अनुरूप ही सनातन की रक्षा के लिए अनगिनत युद्ध लड़े, असंख्य प्राणों की आहुतियाँ दी, अनहद मुस्लिम विरोधी अभियान संचालित किए थे।
 मात्र नौ वर्ष की आयु में गुरु गोबिंद सिंग ने मुगलों द्वारा काटे गए, अपने पिता के सिर को देखने की भीषण व दारुण घटना को भोगा था।
गुरु गोबिंद सिंह केवल धार्मिक गुरु नहीं थे, वे एक उद्भट योद्धा, अद्भुत साहित्यकार, अनुपम समाजशास्त्री व रणनीतिज्ञ भी थे।
गुरु गोबिंद सिंह के सैन्य अभियानों व चुनौतियों से घबराकर क्रूर मुगल शासक औरंगज़ेब ने गुरु जी को एक संदेश भेजा – “आपका और मेरा धर्म एकेश्वरवादी है, तो भला हमारें मध्य क्यों शत्रुता होनी चाहिए? हिंदु रक्तपिपासु औरंजेब ने लिखा – “आपके पास मेरी प्रभुसत्ता मानने के अलावा कोई चारा नहीं है जो मुझे अल्लाह ने दी है। आप मेरी सत्ता को चुनौती न दें वर्ना मैं आप पर हमला करूँगा”। उत्तर देते हुए, गुरु साहब जी ने लिखा “सृष्टि में मात्र एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके मैं और आप दोनों आश्रित हैं किंतु आप इसको नहीं मानते और अन्यायपूर्ण भेदभाव करते हैं। आप हम हिंदुओं का संहार करते हैं। ईश्वर ने मुझे न्याय स्थापित करने व हिंदुओं की रक्षा हेतु जन्म दिया है। हमारें व आपके मध्य शांति नहीं हो सकती है, हमारे रास्ते अलग हैं?” इस पत्र के बाद औरंगज़ेब भड़क उठा और उसने अपनी समूची शक्ति गुरु गोबिंद सिंह के पीछे लगा दी।
‘फ़ाउंडर ऑफ़ खालसा’ के लेखक अमरदीप दहिया लिखते हैं – “गुरु ने अपने सभी सेना प्रमुखों को आदेश दिया – “मुग़ल सेना की  संख्या बहुत बड़ी होने के कारण हमने क़िले में रहकर छापामार युद्ध ही करना होगा”।
इस ऐतिहासिक संघर्ष में गुरु साहब जी ने खालसा पंथ के भाई मुखिया व भाई परसा को घुड़सवारों, पैदल सैनिकों और साहसी युवाओं के साथ आनंदपुर पहुंचने के लिए कहा। युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र व अफ़ग़ानिस्तान से घोड़े बुलवाये गए। रात-दिन सैन्य प्रशिक्षण होने लगा। खालसा सेना छः भागों में जमाई गई। पाँच टुकड़ियां पाँच किलों की रक्षा के लिए कूच कर गई और छठी को आपद स्थिति हेतु सुरक्षित रखा गया।

 इस पृष्ठभूमि में अत्यंत भीषण युद्ध हुआ। मुगलों ने भयंकर हमला किया। इस युद्ध के संदर्भ में इतिहासकार मैक्स आर्थर मौकॉलिफ़ अपनी पुस्तक ‘द सिख रिलीजन’ में लिखते हैं, “इन पाँचों गढ़ों  से सिख तोपचियों ने मुगलों को बड़ी संख्या में मार गिराया। मुगल सैनिक खुले में लड़ रहे थे इसलिए सिक्ख  सैनिकों की अपेक्षा उन्हें अधिक हानि हुई। मुगलों की दुर्बल होती स्थिति  देखकर उदय सिंह और दया सिंह के नेतृत्व में सिक्ख सैनिक किले से बाहर निकल आए और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े। मुगल सेनापति वज़ीर ख़ाँ और ज़बरदस्त ख़ाँ ये देखकर दंग रह गए कि किस तरह एक छोटी सी सेना मुगलों के दाँत खट्टे कर रही थी।” गुरुजी की सेना, सेनापति, उनके घोड़े, उनकी सैन्य चमक-दमक, भव्यता, वीरता का बड़ा अच्छा वर्णन इस पुस्तक में है।
आर्थर ने लिखा “बड़ी संख्या में हताहत हो रहे ये मुस्लिम आक्रमणकारी अपनी रणनीति परिवर्तित करने को विवश ही गए व सीधे युद्ध करने के स्थान पर उन्होंने इस सनातनी सेना को उनके किलों के भीतर घेर-बाँधकर रखने की रणनीति अपनाई। सिक्ख सैनिक अपने किलों से बाहर ही न निकल पाएँ और उन्हें खाद्य सामग्री व अन्य साधन न मिल पाएँ, इस प्रकार की योजना मुग़लों ने बनाई।” इस युद्ध में कुछ संधियाँ भी हुई और उन संधियों को मुस्लिम आक्रामकों ने किस प्रकार बेईमानी पूर्वक भंग किया इसका विवरण भी इस पुस्तक में है। गुरु गोबिंद सिंह के सेनापति, माता जी, पुत्र, परिजन, सहयोगी किस प्रकार छद्मपूर्ण हताहत किया गए यह दुखद तथ्य भी स्मरणीय है। गुरु जी के दोनों पुत्रों द्वारा इस्लाम स्वीकार करने के स्थान पर दीवार में चुनकर भीषण मृत्यु का वरण करने का भी उल्लेख आता है। गुरु जी की हत्या भी छद्दमपूर्वक उन्हें अकेला पाकर की गई थी। सात अक्टूबर, वर्ष 1708 को गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथसाहिब को नमन करते हुए कहा – “आज्ञा भई अकाल की, तभी चलाया पंथ, सब सिखन को हुकम है गुरु मान्यो ग्रंथ।” इसके बाद उन्होंने 7 अक्टूबर, 1708 लो अपने प्राण छोड़ दिए, तब गुरु गोबिंद सिंह मात्र 42 वर्ष के युवा थे।
महत्वपूर्ण बात है कि आज सिक्ख समुदाय के कुछ मुट्ठी भर अराष्ट्रीय तत्व गुरु गोबिंद सिंह जी की सीख, उनके साहित्य व उनके सनातन की रक्षा के मूल भाव की उपेक्षा कर रहें हैं व सिक्खिज्म के नाम पर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। गुरु जी का साहित्य कई गुरुद्वारों से योजनाबद्ध नीति से ग़ायब करा दिया गया है। गुरु गोबिंद रचित  जापु साहिब, दशम ग्रन्थ, अकाल स्तुति, बिचित्तर नाटक, चंडी चरित्र, ज्ञान प्रबोध, चौबीस अवतार, शस्त्रमाला, अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते, आदि ग्रंथ जो कि सनातन का महिमागान करते हैं उन्हें, हिंदू-सिक्ख में भेद उत्पन्न करने हेतु पठन-पाठन से हटा दिया जाना एक गहरा षड्यंत्र है। देवी की आराधना करते हुए गुरु जी कहते हैं –
पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ।
प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥
अरूपं अनूपं अनामं अठामं ।
अभीतं अजीतं महां धरम धामं ll
आज आवश्यकता इस बात की है कि सर्व साधारण सिक्ख समाज अलगाववादी तत्त्वों से बचे व गुरु साहब जी के लेखन का हृदयपूर्वक मनन करे।
( प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में सलाहकार (राजभाषा)  हैं )
संपर्क -9425002270

गुजरात के बलिदानी संत ‘वीर मेघमाया’ पर डाक टिकट जारी हुआ

अहमदाबाद। भारतीय डाक विभाग द्वारा  गुजरात के बलिदानी संत ‘वीर मेघमाया’ पर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। उत्तर गुजरात परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने वीर मेघमाया विश्व मेमोरियल फाउंडेशन एंड रिसर्च सेंटर के चेयर मैन एवं पूर्व सांसद डॉ. किरीट सोलंकी एवं निदेशक डाक सेवाएं सुश्री मीता बेन संग उक्त डाक टिकट क्षेत्रीय कार्यालय, अहमदाबाद में 31 दिसंबर, 2024 को जारी किया। 5 रूपये का यह डाक टिकट और इसके साथ जारी प्रथम दिवस आवरण और विवरणिका देश भर के डाकघरों में स्थित फिलेटलिक ब्यूरो में बिक्री के लिए उपलब्ध रहेंगे। ई-पोस्ट ऑफिस के माध्यम से इसे ऑनलाइन भी मँगाया जा सकता है।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि भारत की ऐतिहासिक विरासत संतों की कहानियों से समृद्ध है। गुजरात में धोलका के निकट रनोडा गांव के एक दलित बुनकर परिवार में लगभग 1000 वर्ष पूर्व जन्में वीर मेघमाया ने जन कल्याण के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। वे बत्तीस गुण सम्पन्न थे। गुजरात की तत्कालीन राजधानी अन्हिलपुर पाटन में सहस्त्रलिंग सरोवर में पानी लाने के लिए दिया गया उनका स्व बलिदान आज भी त्याग की एक नई मिसाल कायम करता है। इसे मानवाधिकारों की स्थापना और दलित व वंचित वर्गों के उद्धार के महान उद्देश्य से किए गए बलिदान के रूप में याद किया जाता है। ऐसे में डाक विभाग, वीर मेघमाया पर स्मारक डाक टिकट जारी करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करता है और दलितों तथा वंचित वर्गों के कल्याण के निमित्त उनके बलिदान को नमन करता है।  पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि डाक टिकट अतीत को वर्तमान से जोड़ते हैं। डाक टिकट वास्तव में एक नन्हा राजदूत है, जो विभिन्न देशों का भ्रमण करता है एवम् उन्हें अपनी सभ्यता, संस्कृति और विरासत से अवगत कराता है। हर डाक टिकट के पीछे एक कहानी छुपी हुई है और इस कहानी से आज की युवा पीढ़ी को जोड़ने की जरूरत है।

इस अवसर पर पूर्व सांसद डॉ. किरीट सोलंकी ने कहा कि संत वीर मेघमाया का जीवन जन कल्याण, सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता का प्रतीक है। शाहू महाराज, महात्मा ज्योतिबाफुले, डॉ. अंबेडकर के समय काल से बहुत पहले हजार वर्ष पूर्व वीर मेघमाया ने समाज में छुआछूत ख़त्म करने के लिए पहल की। उन पर डाक टिकट जारी होने से देश-विदेश में उनके बलिदान और जन कल्याण के बारे में जानकारी मिलने के साथ ही नव आशा का संचरण होगा। आधुनिक समय में, दलित वंचित और कमजोर तबके के लोग वीर मेघमाया को श्रद्धाजंलि देने के लिए पाटन स्थित उनकी बलिदान स्थली पर जाते हैं। संत वीर मेघमाया पर डाक टिकट जारी होने से उनकी प्रसिद्धि और भी बढ़ेगी एवं युवा पीढ़ी उनके बलिदान और कार्यों के बारे में जान सकेगी।

डॉ. किरीट सोलंकी ने कहा कि उन्होंने ही सांसद के रूप में पहल करके संत वीर मेघमाया पर डाक टिकट जारी करने का प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा था। आज इस स्मारक डाक टिकट के जारी होने से लोगों को प्रेरणा मिलेगी। उन्होंने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी और डाक विभाग का हार्दिक आभार भी व्यक्त किया।

इस अवसर पर वीर मेघमाया विश्व मेमोरियल फाउंडेशन एंड रिसर्च सेंटर के महामंत्री श्री नरेंद्र वोरा, प्रवर डाक अधीक्षक अहमदाबाद श्री विकास पाल्वे, प्रवर डाक अधीक्षक गांधीनगर श्री पियूष रजक, डाक अधीक्षक पाटन श्री एच सी परमार, सहायक निदेशक एम एम शेख, भाविन प्रजापति, योगेंद्र राठौड, सौरभ कुमावत सहित तमाम लोग उपस्थित रहे।

नीरजा माधव को राष्ट्रीय मैथिली शरण गुप्त सम्मान

भोपाल। राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार डॉ. नीरजा माधव (वाराणसी) को मध्य प्रदेश शासन, संस्कृति विभाग की ओर से वर्ष 2023 के लिए राष्ट्रीय मैथिली शरण गुप्त सम्मान प्रदान किया जाएगा। इस सम्मान के तहत उन्हें ₹5,00000 (पांच लाख)की राशि, सम्मान पट्टिका और शाल- श्रीफल प्रदान किया जाएगा। इस सम्मान का अलंकरण समारोह आगामी 26 जनवरी 2025 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर रवीन्द्र भवन भोपाल में आयोजित किया जाना सुनिश्चित हुआ है।

ज्ञातव्य है कि यह पुरस्कार मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति विभाग द्वारा दिया जाने वाला राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार है जो प्रति वर्ष पूरे देश में किसी एक साहित्यकार को दिया जाता है। इसके पूर्व भी डॉ. नीरजा माधव को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण और यशपाल सम्मान, मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान, डॉक्टर हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान, राष्ट्रीय साहित्य सर्जक सम्मान, तथा सर्वोच्च महिला नागरिक सम्मान “नारी शक्ति पुरस्कार” प्राप्त हो चुके हैं।

उनके उपन्यास और कहानियां विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में पढ़ाए जाते हैं। अभी हाल में ही भारत सरकार द्वारा डॉ. नीरजा माधव को शिक्षा मंत्रालय के लेखक सदस्य के रूप में नामित किया गया है। डॉ नीरजा माधव उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कबीर अकादमी की सदस्य भी नामित की गई हैं।

मलौली का चतुर्वेदी कविकुल घराना

पूर्वांचल उत्तर प्रदेश के महान शिक्षाविद राष्ट्रपति शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित स्मृतिशेष माननीय डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘ सरस’ कृत : “बस्ती के छन्दकार” शोध ग्रन्थ के आधार पर बस्ती मंडल ( बस्ती , सिद्धार्थ नगर और सन्तकबीरनगर जिलो) में कई कविकुल परम्परायें मिलती हैं। जिसमें मलौली का चतुर्वेदी कविकुल घराना अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

     मलौली गाँव उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर के घनघटा तालुका में स्थित है । यह धनघटा से 2 किमी तथा संत कबीर नगर जिला मुख्यालय से 28 किमी दूर स्थित है। हैसर धनघटा नगर पंचायत में गांव सभा मलौली शामिल हुआ है । इसे वार्ड नंबर 6 में रखा गया है। यह पूरे नगर पंचायत क्षेत्र के बीचोबीच स्थित है। यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर स्थित है । इस गांव ने सर्वाधिक  6 – 7 कवियों को जन्म दिया है।

 

1.राम गरीब चतुर्वेदी ‘गंगाजन’

प्रथम कुल पुरुष

 

    पंडित राम गरीब चतुर्वेदी ‘गंगाजन’ श्रावण कृष्ण 11 संवत् 1822 विक्रमी को संत कबीर नगर के घनघटा तालुका के मलौली गाँव में पैदा हुए थे। हैसर बाजार धनघटा नगर पंचायत में गांव सभा मलौली शामिल हुआ है । इसे वार्ड नंबर 6 में रखा गया है। यह पूरे नगर पंचायत क्षेत्र के बीचोबीच स्थित है। यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर स्थित है। यहां हॉस्पिटल और कईअन्य व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी बने हुए हैं। यहां पर नगर पंचायत का कार्यालय भी बन रहा है।

पंडित राम गरीब चतुर्वेदी इस वंश के उत्तरवर्ती ज्ञात छः कवियों के मूल पुरुष रहे। इनके पिता ईश्वर प्रसाद धनघटा के पास मनौली के मूल निवासी थे,जो महसों राज के अन्दर आता था। ये ज्योतिष, संस्कृत और आयुर्वेद के विद्वान थे। सशक्त छंदकार होने के साथ साथ वे कवियों का बहुत आदर और सम्मान करते थे। पंडित राम गरीब जी ‘गंगाजन’ उप नाम अपने लिए प्रयुक्त करते थे। उनके छंदों पर रीति कालीन साहित्य का पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है। सवैया और मनहरन उनके प्रिय छंद थे। इनके कुछ छंद इनके वंश परम्परा के कवि ‘ ब्रजेश’ जी के संकलन से ज्ञात हुआ है –

सुन्दर सुचाली ताली रसना रसीली वाली,

द्विजन प्रणाली लाली हेमवान वाली है।

लोचन विशाली मतवाली विरुद वाली,

चेत पर नाली वरदान वाली काली है।

दास अघ घाली खरसाली मुंडमाली,

संघ सोहत वैताली दुखभे की कह ब्याली है।

गंगाजन पाली करूं कृपा मातु हाली,

कार्य साधिए उताली तोहि शपथ कपाली हैं ।।

‘गंगाजन’ काली मां के भक्त थे। उन्होंने काली मां की अर्चना में 105 छंदों वाली ‘काली शतक’ लिखा है जो अप्राप्य है। इनका एक अन्य छंद डा. ‘सरस’ जी ने अपने शोध ग्रन्थ ‘बस्ती के छंदकार’ नामक ग्रन्थ के भाग 1 के 11वें पृष्ठ पर इस प्रकार उद्धृत किया है –

उमड़ी घुमड़ी गरजै बरसै,

गिरि मन्दिर ते झरनाय झरें।

पिक दादुर मोरन सोरन सो,

विरही जन होत न चित्तथिरै।

युत वास कदम्ब के वात चलें,

गंगाजन हिय विच भाव घिरें।

झक केतु के पीरते आली पिया,

बिनु शीश जटा लटकाय फिरें।।

    पंडित राम गरीब रईस परम्परा के कवि थे। उनके समकालीन कवि राम लोचन भट्ट आदि बड़ा आदर पाते थे। इलाहाबाद, वाराणसी और विंध्याचल जाने के अलावा बस्ती जिले के महसों राजा के यहां इनका बड़ा आदर था। भवानी बक्श और बल्दी कवि का ‘गंगाजन’ के यहां बड़ा आदर होता था। कार्तिक सुदी दशमी संवत 1913 विक्रमी में 91 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। इन्होंने अपने पीछे अब तक ज्ञात छ: कवियों की एक श्रृंखला जोड़ रखी है।

 

2. रीतिकालीन कवि

श्री बलराम चतुर्वेदी

रीति कालीन परम्परा के सुकवि बलराम चतुर्वेदी श्रावण शुक्ल 5 संवत् 1922 विक्रमी को संत कबीर नगर के घनघटा तालुका के मलौली गाँव में बलराम चतुर्वेदी के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे।

बलराम चतुर्वेदी श्री रामगरीब चतुर्वेदी ‘गंगाजन’ के गाँव में पैदा हुए थे। ये  राम गरीब चतुर्वेदी ‘गंगाजन’ के प्रपौत्र रहे हैं । इनके पिता का नाम बेनी दयाल चतुर्वेदी था। ये तीन भाई थे – घनश्याम, ईशदत्त और बेनीशंकर इनके छोटे भाई थे। इनके छंदों पर रीति कालीन परम्परा का प्रभाव था। फुटकर छंदों के अतिरिक्त हनुमान शतक इनका बहु चर्चित कृति थी। उन्होंने 111 छंदों में हनुमान जी की स्तुति की है। उनकी भाषा ओजपूर्ण ब्रज भाषा है। छंदों में लालित्य है और काव्य में ओज। सभी छंद भक्ति से परिपूर्ण थे, परन्तु पांडुलिपि गायब हो गई है। कवि बलराम चतुर्वेदी मृत्यु संवत् 1997 विक्रमी को हुई थी।

जीवन में कभी-कभी ऐसी परेशानियां आ जाती हैं कि व्यक्ति बिल्कुल निराश हो जाता है। उसे समझ नहीं आता किआखिर किस तरह से अपनी मुसीबतों से छुटकारा पाया जाया। ज्योतिष के मुताबिक घर में हनुमान जी की पंचमुखी तस्वीर लगाने से घर पर किसी तरह की विपत्ति नहीं आती है। हनुमान जी को संकटमोचन कहा जाता है। उनके स्मरण मात्र से हर तरह की समस्या से मुक्ति मिल जाती है। पंचमुखी हनुमान के पांचों मुख का अलग-अलग महत्व है। इसमें भगवान के सारे मुख अलग-अलग दिशाओं में होते हैं। पूर्व दिशा की ओर हनुमान जी का वानर मुख है जो दुश्मनों पर विजय दिलाता है। पश्चिम दिशा की तरफ भगवान का गरुड़ मुख है जो जीवन की रुकावटों और परेशानियों को खत्म करते हैं। उत्तर दिशा की ओर वराह मुख होता है जो प्रसिद्धि और शक्ति का कारक माना जाता है। दक्षिण दिशा की तरफ हनुमान जी का नृसिंह मुख जो जीवन से डर को दूर करता है।आकाश की दिशा की ओर भगवान का अश्व मुख है जो व्यक्ति की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।

पंचमुखी हनुमान जी के विग्रह से संबंधित सुकवि बलराम चतुर्वेदी का  एक छंद द्रष्टव्य है –

पूरब बिकट मुख मरकट संहारे शत्रु

दक्षिण नरसिंह जानें दानव वपुश को।

पश्चिम गरुण मुख सकल निवारै विष

उत्तर बाराह आनें सर्प दर्प सुख को।

ऊर्ध्व है ग्रीव पर यंत्र मंत्र तन्त्रन को

करत उच्चांट बलराम दीह दुख को।

बूत करतूत सुनि भागे जगदूत भूत

बंदों सो सपूत पवन पूत पंच मुख को।।

 

3.शृंगार रस के कवि

भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी ‘दिनेश’

    भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1930 विक्रमी में  हैसर बाजार धनघटा नगर पंचायत के गांव सभा मलौली में हुआ है ।भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी ‘दिनेश’ के पिता का नाम कृष्ण सेवक चतुर्वेदी था। भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी ‘दिनेश’ जी के पिता कृष्ण सेवक चतुर्वेदी के छः पुत्र थे – प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं। राम नारायण उच्च स्तर के छंदकार रह चुके हैं। उनका रंग परिषद में बड़ा सम्मान था। भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी श्री नारायण चतुर्वेदी और राम नारायण चतुर्वेदी के भाई थे।

भास्कर प्रसाद शृंगार रस के कवि

      साहित्य के अनुसार नौ रसों में से एक रस जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है और प्रधान माना जाता है । जब पति-पत्नी या प्रेमी- प्रेमिका के मन में रति नाम का स्थायी भाव जागृत होकर आस्वादन के योग्य हो जाता है, तो इसे शृंगार रस कहते हैं. शृंगार रस को रसराज भी कहा जाता है. यह नौ रसों में से एक है।

जाको थायी भाव रस,

सो शृंगार सुहोत।

मिलि विभाव अनुभाव पुनि

संचारिन के गोत।

   इसमें नायक – नायिका के परस्पर मिलन के कारण होने वाले सुख की परिपुष्टता दिखलाई जाती है । इसका स्थायी भाव रति है । आलंबन विभाव नायक और नायिका हैं । उद्दीपन विभाव सखा, सखी, वन, बाग आदि, विहार, चंद्र- चंदन, भ्रमर, झंकार, हाव भाव, मुसक्यान तथा विनोद आदि हैं । यही एक रस है जिसमें संचारी विभाव, अनुभाव सब भेदों सहित होता है; और इसी कारण इसे रसराज कहते हैं । इसके देवता विष्णु अथवा कृष्ण माने गए हैं और इसका वर्ण श्याम कहा गया है । यह दो प्रकार का होता है- एक संयोग और दूसरा वियोग या विप्रलंभ । नायक नायिका के मिलने को संयोग और उनके विछोह को वियोग कहते हैं ।

शृंगार रस की प्रधानता मुख्यतः रीतिकाल में है। हिंदी साहित्य में कविवर बिहारीलाल जी शृंगार रस के प्रसिद्ध कवि थे। शृंगार रस के लोकप्रिय कवि बिहारी लाल का नाम हिन्दी साहित्य के रीति काल के कवियों में महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने अपनी रचनाओं में अधिकांशतः शृंगार रस का प्रयोग किया है । इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने अपनी कृतियों में गागर में सागर भर दिया है। उनकी लिखी हुई शृंगार रस कविता इस प्रकार है –

तुम बिन हम का हो सजनी,

तुम बिन हम का हो सजनी।

परुष समान पुरुष में तुमने,

भर दी अपनी कोमलता।

बेतरतीब पड़े जीवन में,

लाई तुम सुगढ सँरचना।

छोड्के निज घर बार सजाया,

दूर नया सन्सार हो सजनी।

तुम बिन हम का हो सजनी।

तुम बिन हम का हो सजनी।।

बिहारी का शृंगार रस से परिपूर्ण एक और दोहा दृष्टव्य है  –

“बतरस लालच लाल की

मुरली धरी लुकाय।

सौंह करै भौंहनु हँसे ,

दैन कहै नटि जाय।”

“कहत, नटत, रीझत, खिझत,

मिलत, खिलत, लजियात।

भरे भौन में करत हैं,

नैननु ही सों बात।”

“पतरा ही तिथी पाइये,

वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौई रहे,

आनन-ओप उजास।”

” अंग अंग नग जगमगत

दीपसिखा सी देह।

दिया बुझाय ह्वै रहौ,

बड़ो उजेरो गेह।”

” तंत्रीनाद, कवित्त-रस,

सरस राग, रति-रंग।

अनबूड़े बूड़े तिरे

जे बूड़े सब अंग।”

 मलौली धनघटा सन्त कबीर नगर निवासी भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी शृंगार रस के बड़े कवि थे। 52 छंदों की शृंगार बावनी इनकी रचना बताई जाती है। यह ब्रज भाषा में लिखा गया है। सभी मनहरन और घनाक्षरी छंद में लिखे गए हैं। एक छंद (डा. मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ कृत ‘बस्ती के छंदकार’ भाग 1, पृष्ठ 13 के अनुसार ) द्रष्टव्य है –

प्यारी सुकुमारी की बड़ाई मै कहां लौ करौ, रति तन कोटिन निकाई परयो हलके।

सुन्दर गुलाब कंज मंजुल सुपांखुरिन

धोए पद कंजन में जात परे झलके।

कंच कुच भार को सम्हारि न सकत अंग चौंकि चौंकि उठति सुरोज कंज दल के।

ऐसी सुकुमारता दिनेश जी कहां लौ कहूं, गड़िजात पांव में बिछौना मखमल के।।

इस छंद में अतिशयोक्ति बिहारी जी की नायिकाओं से भी बढ़कर है। दिनेश जी रईस परम्परा के कवि थे जहां रीतिशास्त्र के भरमीआचार्यों का सम्पर्क बड़ी सुगमता से उपलब्ध हो जाता रहा। यही कारण रहा है कि इनके अधिकांशतः छंद शृंगार की वल्लरी में भौतिक शृंगार की अभिव्यंजना तक सीमित रह सके।

शृंगार बावनी की तरह शिवा बावनी भूषण द्वारा रचित बावन (52) छन्दों का काव्य है जिसमें छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है। रतन बावनी (लगभग 1581) केशवदास की सबसे पहली रचना रही है। इसी से मिलता जुलता शृंगार मंजरी को केशव दास ने लिखा था। श्री नागरी देव जी ने श्रृंगार रस का पद इस प्रकार लिखा है –

विहरत विपिन भरत रंग ढुरकी।

हरषि गुलाल उडाइ लाडिली,

सम्पति कुसमाकरकी।

कसुंभी सारी सोधें भीनी,

ऊपर बंदन भुरकी।

चोली नील ललित अञ्चल चल,

झलक उजागर उरकी।

मृदुल सुहास तरल दृग कुंडल,

मुख अलकावलि रुरकी।

श्रीनागरीदासि केलि सुख सनि रही,

मैंन ललक नहिं मुरकी।

 

4. मलौली के श्रीनारायण चतुर्वेदी

पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी उत्तर प्रदेश के सन्तकबीर नगर के मलौली गाँव में प्रसिद्ध साहित्यिक कुल में भी हुआ था जिसमें अभीतक ज्ञात सात उच्चकोटि के छंदकार अवतरित हुए हैं।इस पं.श्रीनारायणचतुर्वेदी का जन्म कार्तिक कृष्ण 15,संवत् 1938 विक्रमी को दीपावली के दिन हैसर बाजार धनघटा नगरपंचायत के गांव सभा मलौली में हुआ था ।

श्रीनारायण चतुर्वेदी के पिता का नाम कृष्ण सेवक चतुर्वेदी था।  जिनके छः पुत्र थे – प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं। ये सभी भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी ‘दिनेश’ के भाई थे। श्री नारायण बचपन में बड़े प्रतिभाशाली थे। अपने छः भाइयों में श्रीनारायण इतने कुशाग्र थे कि कोई भी भाई इनसे तर्क- वितर्क नहीं कर पाता था। संस्कृत,फारसी, आयुर्वेद और ज्योतिष पर इनका पूर्ण नियंत्रण था। वे महीनों सरयू नदी और गंगा नदी के तट पर कल्पवास किया करते थे।

 पदमाकर जी के गंगा लहरी की भांति श्री नारायण जी ने 109 छंदों की सरयू लहरी लिखा था जो दुर्भाग्य बस गायब हो गया। इससे पहले महाकवि सूरदास ने साहित्य लहरी नामक 118 पदों की एक लघु रचना लिखी है। पंडित जगन्नाथ मिश्र द्वारा संस्कृत में रचित गंगा लहरी में 52 श्लोक हैं। इसमें उन्होंने गंगा के विविध गुणों का वर्णन करते हुए उनसे अपने उद्धार के लिए अनुनय किया गया है। इसी प्रकार त्रिलोकी नाथ पाण्डेय ने प्रेम लहरी, जम्मू के जाने-माने साहित्यकार प्रियतम चंद्र शास्त्री की शृंगार लहरी रचना है। बद्री नारायण प्रेमधन की लालित्य लहरी आदि लहरी रचनाएँ रही हैं। मूलतः लहरियों में धारा प्रवाह या भाव प्रभाव रचनाओं की अभिव्यंजना मिलती है। इसी तरह

भारतेंदु हरिश्चंद्र’ ने भी “सरयूपार की यात्रा” नामक एक यात्रा वृतांत लिखा है है। जिसका रचनाकाल 1871 ईस्वी के आसपास माना जाता है।

रीतिकालीन शृंगार का प्रस्फुटन श्री नारायण चतुर्वेदी रीति शास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने देव बिहारी और चिन्तामणि के छंदों को कंठस्थ कर लिया था। लोग घण्टों उनके पास बैठ कर श्रृंगार परक रचना का रसास्वादन किया करते थे। उन्हें भाषा ब्रज, छंद मनहरन और सवैया प्रिय था। उनका श्रृंगार रस का एक छंद (डा मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ कृत ‘बस्ती के छंदकार’ भाग 1, पृष्ठ 13 – 14 के अनुसार ) द्रष्टव्य है –

कंज अरुणाई दृग देखत लजाई खंग

समता न पायी चपलायी में दृगन की।

वानी सरसायी दीन धुनिको लजायी पिक,

समता न पायी वास किन्हीं लाजवन की।

जंघ चिकनाई रम्भा खम्भ हू न पायीनाभि,

भ्रमरी भुलाई मन नीके मुनिजन की।

बुद्धि गुरुवायी श्री नारायण की जाती फंसि

देखि गुरुवायी बाल उरज सूतन की।।

      एक अन्य छंद भी द्रष्टव्य है –

बाल छबीली तियान के बीच

सो बैठी प्रकाश करै अलगै।

चंद विकास सो हांसी हरौ

उपमा कुच कंच कलीन लगै।

दृग की सुधराई कटाछन में

श्रीनारायण खंज अली बनगै।

मृदु गोल कपोलन की सुषमा

त्रिवली भ्रमरी ते मनोज जगै।

श्रीनारायण कवि का यह छंद शृंगार की अभिव्यक्ति का प्रतीक है। ये मलौली के कवि परम्परा के प्रथम चरण के अंतिम कवि थे।

5.शृंगार रस के कवि

पण्डित राम नारायण चतुर्वेदी

पंडित राम नारायण चतुर्वेदी का जन्म बैसाख कृष्ण 12, संवत् 1944 विक्रमी को उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर के हैसर बाजार-धनघटा नगर पंचायत के ग्राम सभा मलौली में हुआ था।इनके पिता पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी जी थे। यह बस्ती मण्डल का एक उच्च कोटि का कवि कुल घराना रहा है। पंडित कृष्ण सेवक चतुर्वेदी के छः पुत्र थे – प्रभाकर प्रसाद, भास्कर प्रसाद, हर नारायण, श्री नारायण, सूर्य नारायण और राम नारायण। इनमें भास्कर प्रसाद , श्री नारायण और राम नारायण उच्च कोटि के छंदकार हो चुके हैं।

पंडित राम नारायण जी का रंग परिषद में भी बड़ा आदर और सम्मान हुआ करता था। घनाक्षरी और सवैया छंदों की दीक्षा उन्हें रंगपाल जी से मिली थी। वे भास्कर प्रसाद चतुर्वेदी श्री नारायण चतुर्वेदी और राम नारायण चतुर्वेदी के भाई थे। राम नारायण की शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनके चार पुत्र बांके बिहारी, ब्रजबिहारी, वृन्दावन बिहारी और शारदा शरण थे। जिनमें ब्रज बिहारी ‘ब्रजेश’ और शारदा शरण ‘मौलिक’ अच्छे कवि रहे।

पंडित राम नारायण जी अंग्रेजी राज्य में असेसर (फौजदारी मामलों में जज / मजिस्ट्रेट को सलाह देने के लिए चुना गया व्यक्ति) के पद पर कार्य कर रहे थे। एक बार असेसर पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ये छंद लिखा था जिस पर जज साहब बहुत खुश हुए थे –

दण्ड विना अपराधी बचें कोऊ,

दोष बड़ों न मनु स्मृति मानी।

दण्ड विना अपराध लहे कोऊ,

सो नृप को बड़ा दोष बखानी।

राम नारायण देत हैं राय,

असेसर हवै निर्भीक है बानी।

न्याय निधान सुजान सुने,

वह केस पुलिस की झूठी कहानी।।

ब्रज भाषा और शृंगार रस:-

 कवि राम नारायण जी ब्रज भाषा के शृंगार रस के सिद्धस्थ कवि थे। सुदृढ़ पारिवारिक पृष्ठभूमि और रंगपाल जी का साहश्चर्य से उनमें काव्य कला की प्रतिभा खूब निखरी है। उनका अभीष्ट विषय राधा- कृष्ण के अलौकिक प्रेम को ही अंगीकार किया है। शृंगार की अनुपम छटा उन्मुक्त वातावरण में इस छंद में देखा जा सकता है। एक छंद द्रष्टव्य है –

कौन तू नवेली अलबेली है अकेली बाल,

फिरौ न सहेली संग है मतंग चलिया।

फूले मुख कंज मंजुता में मुख नैन कंज,

मानो सरकंज द्दव विराजे कंज कलिया।

करकंज कुचकंज कंजही चरण अरु

वरन सुकन्ज मंजु भूली कुंज अलियां।

तेरे तनु कंज पुंज मंजुल परागन के,

गंध ते निकुजन की महक उठी गालियां।।

घनाक्षरी का नाद-सौष्ठव:-

    सुकवि रामनारायण की एक घनाक्षरी का नाद सौष्ठव इस छंद में देखा जा सकता है-

मंद मुस्काती मदमाती चली जाती कछु,

नूपुर बजाती पग झननि- झननि- झन ।

कर घट उर घट मुख ससीलट मंजु,

पटु का उडावै वायु सनन- सनन- सन।

आये श्याम बोले वाम बावरी तु बाबरी पै,

खोजत तुम्हें हैं हम बनन- बनन- बन।

पटग है झट गिरे घट-खट सीढ़िन पै,

शब्द भयो मंजु अति टनन-टनन- टन।।

वैद्यक शास्त्रज्ञ:-

   सुकवि राम नारायण जी कविता के साथ साथ वैद्यक शास्त्र के भी ज्ञाता थे। उनके द्वारा रचित आवले की रसायन पर एक छंद इस प्रकार देखा जा सकता है –

एक प्रस्त आमले की गुठली निकल लीजै,

गूदा को सुखाय ताहि चूरन बनाइए।

वार एक बीस लाइ आमला सरस पुनि,

माटी के पात्र ढालि पुट करवाइए।

अन्त में सुखाद फेरि चुरन बनाई तासु,

सम सित घृत मधु असम मिलाइये।

चहत जवानी जो पै बहुरि बुढ़ापा माँहि,

दूध अनुपात सो रसायन को खाइये।।

ज्योतिष के मर्मज्ञ:-

    सुकवि राम नारायण जी को कविता , वैद्यकशास्त्र के साथ साथ ज्योतिष पर भी पूरा कमांड था। उनके द्वारा रचित एक छंद नमूना स्वरूप देखा जा सकता है-

कर्क राशि चन्द्र गुरु लग्न में विराजमान,

रूप है अनूप काम कोटि को लजावती।

तुला के शनि सुख के समय बनवास दीन्हैं

रिपु राहु रावन से रिपुवो नसावाहि।

मकर के भौम नारि विरह कराये भूरि,

बुध शुक्र भाग्य धर्म भाग्य को बढ़ावहीं ।

मेष रवि राज योग रवि के समान तेज,

राम कवि राज जन्म पत्रिका प्रभावहीं।।

ब्रजभाषा की प्रधानता :-

    इस परम्परागत कवि से तत्कालीन रईसी परम्परा में काव्य प्रेमी रीतिकालीन शृंगार रस की कविता को सुन-सुन कर आनंद लिया करते थे।कवि रामनारायण भोजपुरी क्षेत्र में जन्म लेने के बावजूद भी ब्रजभाषा में ही कविता किया करते थे। उनका रूप- सौंदर्य और नख-सिख वर्णन परंपरागत हुआ करता था। उन्होंने पर्याप्त छंद लिख रखें थे पर वे उसे संजो नहीं सके। कविवर ब्रजेश जी के अनुसार पंडित रामनारायण जी चैत कृष्ण नवमी सम्बत 2011 विक्रमी को अपना पंचभौतिक शरीर को छोड़े थे ।

    बस्ती के छंदकार शोध ग्रन्थ के भाग 1 के पृष्ठ 122 से 126 पर स्मृतिशेष डॉक्टर मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ जी ने पंडित राम नारायण जी के जीवन वृत्त और कविता कौशल पर विस्तार से चर्चा किया है।

 

    6. ब्रज बिहारी चतुर्वेदी ‘ब्रजेश’

 

    ब्रज बिहारी चतुर्वेदी ‘ब्रजेश’ संवत् 1974 विक्रमी और मृत्यु संवत् 1947 विक्रमी को सन्त कबीर नगर के मलौली गांव में हुआ था। ब्रज बिहारी चतुर्वेदी ‘ब्रजेश’ मलौली का चतुर्वेदी कविकुल परम्परा के कवि पंडित श्रीराम नारायण चतर्वेदी के पुत्र थे।उन्होंने अपने बारे में खुद लिखा है-

सम्बत सन् उन्नीस सौ

अरु चौहत्तर मान।

ज्येष्ठ त्रयोदस कृष्ण शनि

जन्म ब्रजेश सुजान।

चौबे वुल सुपुनीत भू

ग्राम मलौली खास।

रामनरायण सुकवि के

पूर्व किए अभिनाश।।

     ये बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाले थे। ये रंगपाल जी के घर हरिहरपुर बराबर आया जाया करते थे। मैथिलीशरण गुप्त तुलसी बिहारी और देव,कलाधर, द्विजेश बद्री प्रसाद पाल, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, जगदम्बा प्रसाद हितैषी तथा रीवा के बृजेश कवि से प्रभावित रहें हैं। जमींदारी टूटने से परेशान होते हुए भी वे साहित्य के लिए समय निकल लेते थे। अंधे होते हुए भी वह लिखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। वे 40 वर्षों तक जिले के छंद परम्परा के विकास में जुड़े रहे।

रचनाएं :-

इन्होंने तीन रचनाएं लिखी थीं।

कवित्त मंजूषा :-

इसमें 1000 छंद होना कहा जाता है। दोहा, सवैया, मनहरन, कुण्डली, रोला तथा मधुरा आदि में रचनाएं लिखी गई हैं।

प्राकृतिक वर्णन, सरयू वर्णन , केवट प्रसंग, व्यंग्य रमोमा, लंका दहन, बबुआ अष्टक आदि प्रसंगों का मनोहारी निरूपण किया गया है। ब्रजेश सतसई दो भाग में लिखी गई है।

ब्रजेश सतसई भाग 1:-

सतसई के प्रथम भाग में श्रृंगार परक, भक्ति परक और नीति परक दोहों की रचना की गई है। श्रृंगार में वियोग परक दोहे मिलते हैं। पौराणिक प्रसंग के दोहे मन को आह्लादित करती हैं।

ब्रजेश सतसई भाग 2 में नीति , वैराग्य और गंगा जी पर भक्ति परक दोहे आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

राम चरितावली :-

इसमें राम चरित मानस की तरह वृहद रूप राम कथा लिखने का प्रयास किया गया है। विविध छंदों में नैनी जेल में बन्द स्वतंत्रता सेनानियों को लक्ष्य करके पण्डित मदन मोहन मालवीय जी के मुख से राम कथा कहलवाई गई है। कालिदास से प्रेरित रघुवंश के इच्छाकु से लेकर राम जी सम्पूर्ण चरित्र को उजागर किया गया है।भारत महिमा से ग्रन्थ का श्री गणेश किया गया है।

श्रृंगार और नीति के कवि:-

     ब्रजेश जी मूलतः श्रृंगार और नीति के कवि थे। ब्रज भाषा के पक्षधर थे। संस्कृत के ज्ञान के शब्दों में लालित्य अपने आप आता गया है। अलंकारों में उत्प्रेक्षा उपमा रूपक संदेह भ्रतिमान अनन्वय तदगुण श्लेष आदि का प्रयोग इनके दोहों में बड़ी उत्कृष्टता के साथ हुआ है। शब्दों की सफाई के साथ भावों का अभिव्यक्ति करण बड़ा ही प्रवाहमय है। शब्दों में विषयबोध के प्रति पर्याप्त शालीनता है।

शोधकर्ता स्मृति शेष डॉ. सरस ने पृष्ठ 170 पर ब्रजेश जी का मूल्यांकन इन शब्दों में किया है –

     “ब्रजेश जी का बस्ती मंडल के छंदकारों में अपना एक विशिष्ट स्थान है।विद्वानों के बीच में ब्रजेश जी अपने पांडित्य के लिए सदैव सम्मादृत रहे हैं।— उनकी ब्रजेश मंजूषा और ब्रजेश सतसई हिन्दी की अनूठी निधि है। यह प्रकशित होते ही मंडल की छंद परम्परा को ये गौरव शाली कृतियां महत्व ही नहीं प्रदान करेगी अपितु इस चरण के साहित्यिक गौरव को बढ़ाने में सक्षम होगी।छंद परम्परा के विकास में ब्रजेश जी के कई पीढ़ी की कवियों ने जो गौरव दिया है उसके स्थाई स्तम्भ के रूप में ब्रजेश जी सदैव सम्मादृत रहेंगे।”

लेखक का परिचय

 

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास   करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर + 91 9412300183)