Sunday, April 13, 2025
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सर्वोच्च न्यायालय को 25 साल लगे ये पता लगाने में कि आरोपी नाबालिग है

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसे शख्स को रिहा किया है जो लगभग 25 वर्ष से ही जेल में बंद था। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जब उसने अपराध किया था तब वह नाबालिग था और जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उसके नाबालिग होने की बात को पहले नहीं स्वीकार किया गया। उसे पहले मौत की सजा मिली थी लेकिन राष्ट्रपति ने इसे उम्रकैद में बदल दिया था। अब उसकी उम्र को लेकर सच्चाई पता चलने के बाद उसे आजादी मिली है। वहीं उत्तर प्रदेश में पुलिस ने एक ऐसे शख्स को ढूँढा है, जिसकी हत्या के आरोप में 4 लोग जेल भी काट चुके हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (8 जनवरी, 2025) को ओम प्रकाश नाम के शख्स को लगभग 25 वर्ष की जेल के बाद रिहा किया है। ओम प्रकाश को 1994 में उसके मालिक और परिवार की हत्या करने के दोष में यह जेल की सजा हुई थी। ओम प्रकाश को 2001 में पुलिस ने पकड़ा था। उसने बताया था कि 2001 में वह 20 वर्ष का था। इस मामले में निचली अदालत ने उसे बालिग़ के तौर पर सजा दी थी। निचली अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। हाई कोर्ट ने भी उसकी सजा बरकरार रखी। हालाँकि, ओमप्रकाश ने दावा किया कि वह नाबालिग था।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी सजा बरकरार रखी और नाबालिग वाले दावे को नहीं माना। उसकी पुनर्विचार याचिका भी ठुकराई गई। यहीं यह मामला नहीं रुका। ओम प्रकाश ने इसके बाद इस मामले में राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर की। यहाँ भी उसकी याचिका ठुकरा दी गई। जब उसने दूसरी बार राष्ट्रपति को यह याचिका दी तो उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया और कहा कि जब तक वह 60 साल का नहीं हो जाता, तब तक उसे रिहा नहीं किया जाएगा।

ओमप्रकाश थक हार कर फिर नाबालिग वाला दावा लेकर सुप्रीम कोर्ट के पास पहुँचा लेकिन इस बार उसका कोर्ट ने उसका केस लेने से ही इनकार कर दिया। खुद के नाबालिग होने का 2019 में उसने फिर हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन फिर याचिका ख़ारिज कर दी गई। इसी दौरान उसकी हड्डियों का एक टेस्ट किया गया जिसमें साफ़ हुआ कि घटना के समय वह लगभग 14 वर्ष का रहा होगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में उसे 7 जनवरी, 2025 को रिहा करने का आदेश दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “यह एक ऐसा मामला है जिसमें व्यक्ति कोर्ट गई गलती के कारण पीड़ित है। हमें बताया गया है कि जेल में उसका आचरण सामान्य रहा है, उसके खिलाफ कोई रिपोर्ट नहीं है। उसने समाज में फिर से घुलने-मिलने का अवसर खो दिया। उसने जो समय खोया है, वह उसकी किसी गलती के बिना कभी वापस नहीं आ सकता।” 2001 में पकड़े जाने और सजा दिए जाने के बाद ओम प्रकाश ने 7-8 बार अलग-अलग कोर्ट के सामने खुद के नाबालिग होने का दावा किया, लेकिन सिस्टम की गलती के चलते उसे 25 वर्ष बाद न्याय मिला।

जिसे पुलिस ने पकड़ा उसकी हत्या में 4 लोगों पर मुकदमा चल रहा है

सिस्टम की विफलता से नुकसान सिर्फ ओम प्रकाश को ही नहीं हुआ बल्कि बिहार में भी 4 लोग इसका शिकार हुए। बिहार के एक शख्स को हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस ने झाँसी में रात को पेट्रोलिंग के दौरान देखा। पुलिस की पूछताछ में पता चला कि यह शख्स नथुनी पाल बिहार के देवरिया का रहने वाला है और वह बीते डेढ़ दशक से उत्तर प्रदेश में अलग-अलग जगह रह रहा है। जब पुलिस ने स्थानीय थाने से जानकारी ली तो पता चला कि जिस शख्स को उन्होंने ढूँढा है, उसके मर्डर के लिए बिहार में 4 लोगों पर मुकदमा चल रहा है।

यह मुकदमा नथुनी पाल के चाचा और तीन चचेरे भाइयों के खिलाफ ही दर्ज करवाया गया था। मुकदमा नथुनी पाल के मामा ने दर्ज करवाया था। इस मामले में चारों लोग 8 माह की जेल भी काट चुके हैं। अभी वह जमानत पर बाहर हैं। अब इस खबर के बाद उन्होंने हत्या का दाग धुलने पर ख़ुशी जताई है। वहीं दोनों जगह की पुलिस अब मामले को लेकर आगे कार्रवाई में जुटी है।

साभार-  https://hindi.opindia.com/ से

तीन नदियों के संगम और आध्यात्मिक धरोहर का केंद्र छत्तीसगढ़ का सांकरदाहरा

रायपुर । छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के डोंगरगांव विकासखंड में स्थित प्रसिद्ध सांकरदाहरा, आज न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल बन चुका है, बल्कि इसे छत्तीसगढ़ का दूसरा राजिम भी कहा जाने लगा है। शिवनाथ, डालाकस और कुर्रूनाला नदियों के संगम पर स्थित यह स्थान, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्व के कारण श्रद्धालुओं और पर्यटकों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।

सांकरदाहरा में शिवनाथ नदी के संगम के साथ डालाकस और कुर्रू नाला नदियां मिलती हैं। यहां नदी तीन धाराओं में बंट जाती है और फिर सांकरदाहरा के नीचे आपस में मिलती हैं। इस संगम पर स्थित मंदिर और नदी तट पर बनी भगवान शंकर की 32 फीट ऊंची विशालकाय मूर्ति हर आने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है। मंदिर का रमणीय दृश्य और नौका विहार की सुविधा इस स्थल को और भी खास बनाती है।

सांकरदाहरा में हर वर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर तीन दिवसीय भव्य मेला लगता है। यहां न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु अपने पूर्वजों की अस्थि विसर्जन, मुण्डन और पिंडदान के लिए आते हैं। सांकरदाहरा के मंदिर परिसर में अनेक देवी-देवताओं के मंदिर हैं। नदी के बीचों-बीच शिवलिंग की स्थापना सांकरदाहरा विकास समिति द्वारा की गई है। इसके अलावा सातबहिनी महामाया देवी, अन्नपूर्णा देवी, संकट मोचन भगवान, मां भक्त कर्मा, मां शाकंभरी देवी, राधाकृष्ण, भगवान बुद्ध, दुर्गा माता और अन्य देवी-देवताओं के मंदिर श्रद्धालुओं के आस्था के केंद्र हैं। इन मंदिरों को ग्राम देवरी के ग्रामीणों के सहयोग से स्थापित किया गया है।

सांकरदाहरा के नामकरण के पीछे कई लोक कथाएं प्रचलित हैं। मान्यता है कि नदी के मध्य स्थित गुफा में शतबहनी देवी का निवास है। यह गुफा दो चट्टानों के बीच स्थित दाहरा (गहरा जलभराव) में है। कहा जाता है कि इस क्षेत्र में लोहे के सांकर (लोहे का सामान) का बार-बार अदृश्य होना और चट्टान के पास पुनः प्रकट होना, इस स्थान के नामकरण का आधार बना।

यह स्थान कई अद्भुत घटनाओं का भी साक्षी है। वर्ष 1950 की एक घटना आज भी जनमानस के बीच प्रचलित है। कहा जाता है कि बरसात के मौसम में लकड़ी इकट्ठा करने गई एक गर्भवती महिला बाढ़ में फंस गई। उसे शतबहनी देवी का स्मरण करने का सुझाव दिया गया, और देवी की कृपा से वह सुरक्षित बच निकली। उस महिला ने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम संकरु रखा गया। इस घटना ने इस स्थान की आध्यात्मिक महिमा को और भी बढ़ा दिया।

शासन द्वारा सांकरदाहरा में विकास कार्यों पर विशेष ध्यान दिया गया है। यहां धार्मिक आयोजन के लिए दो बड़े भवनों का निर्माण किया गया है। यहां एनीकट के निर्माण से हमेशा जलभराव रहता है, जिससे मुण्डन और पिंडदान जैसे धार्मिक अनुष्ठानों के लिए सुविधाएं बेहतर हुई हैं। पूजन सामग्री और अन्य दुकानों के संचालन से स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल रहा है।

सांकरदाहरा न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि आसपास के राज्यों के लोगों के लिए भी एक प्रमुख आध्यात्मिक और पर्यटन स्थल बन चुका है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक महत्व और लोक कथाएं इसे अद्वितीय बनाती हैं। यह स्थान न केवल श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है, बल्कि स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने का माध्यम भी है।

वर्ष 2025 के हिन्दी गौरव अलंकरण के लिए नीरजा माधव व शिव कुमार विवेक चयनित

23 फ़रवरी को इन्दौर में आयोजित समारोह में होंगे अलंकृत
इंदौर । हिन्दी भाषा के विस्तार और प्रसार के लिए मातृभाषा उन्नयन संस्थान द्वारा वर्ष 2025 का हिन्दी गौरव अलंकरण सुप्रसिद्ध साहित्यकार नीरजा माधव (सारनाथ) और वरिष्ठ पत्रकार शिव कुमार विवेक  (भोपाल) को प्रदान किया जाएगा। यह समारोह 23 फ़रवरी को इंदौर में आयोजित होगा एवं इसमें विभूतियों को अलंकृत किया जाएगा।
संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ ने बताया कि ‘अलंकरण का यह छठवाँ वर्ष है। संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष दो हिन्दी साधकों को ‘हिन्दी गौरव अलंकरण’ से विभूषित किया जाता है। चयन समिति द्वारा चयनित वर्ष 2025 के लिए डॉ. नीरजा माधव व शिवकुमार विवेक के हिन्दी के प्रति समग्र अवदान को रेखांकित करते हुए हिन्दी गौरव अलंकरण प्रदान किया जाएगा।’
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अनेक विधाओं में सिद्धहस्त लेखन करने वाली डॉ. नीरजा माधव प्रमुख रूप से अपने अनछुए राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों पर कथा-लेखन के लिए पूरे देश एवं विदेश में चर्चित हैं। आप देश की सबसे पहली लेखिका हैं जिन्होंने तिब्बती शरणार्थियों, उनकी अहिंसक मुक्ति साधना तथा भारत-चीन सीमा विवाद को लेकर कई किताबें लिखी हैं। डॉ. नीरजा माधव ने 13 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, 6 कविता संग्रह एवं 15 अन्य विधाओं में कुल 46 किताबों का लेखन किया है।
ख़्यात पत्रकार व मीडिया शिक्षक शिव कुमार विवेक जी वर्तमान में मीडिया शिक्षक व दैनिक अख़बार के सलाहकार सम्पादक हैं। आप 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकारिता कर रहे हैं।
संस्थान द्वारा वर्ष 2020 में पद्मश्री अभय छजलानी एवं वरिष्ठ कवि राजकुमार कुम्भज को, वर्ष 2021 में वरिष्ठ साहित्यकार कैलाश चंद्र पंत व साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे को, वर्ष 2022 में कहानीकार डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री व वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण कुमार अष्ठाना को एवं वर्ष 2023 में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. भगवती लाल राजपुरोहित व सुप्रसिद्ध मीडिया शिक्षक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी को अलंकृत किया जा चुका है।

कुम्भ मेले का आध्यात्मिक व धार्मिक ही नहीं आर्थिक महत्व भी है

हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार कुंभ मेला एक धार्मिक महाआयोजन है जो 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का भौगोलिक स्थान भारत में चार स्थानों पर फैला हुआ है और मेला स्थल चार पवित्र नदियों पर स्थित चार तीर्थस्थलों में से एक के बीच घूमता रहता है, यथा, (1) हरिद्वार, उत्तराखंड में, गंगा के तट पर; (2) मध्य प्रदेश के उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर; (3) नासिक, महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर; एवं (4) उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक अदृश्य सरस्वती के संगम पर।

प्रत्येक स्थल का उत्सव, सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की ज्योतिषीय स्थितियों के एक अलग सेट पर आधारित है। उत्सव ठीक उसी समय होता है जब ये स्थितियां पूरी तरह से व्याप्त होती हैं, क्योंकि इसे हिंदू धर्म में सबसे पवित्र समय माना जाता है। कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है जो आंतरिक रूप से खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, अनुष्ठानिक परंपराओं और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के विज्ञान को समाहित करता है, जिससे यह ज्ञान में बेहद समृद्ध हो जाता है।

कुम्भ मूल शब्द कुम्भक (अमृत का पवित्र घड़ा) से आया है। ऋग्वेद में कुम्भ और उससे जुड़े स्नान अष्ठान का उल्लेख है। इसमें इस अवधि के दौरान संगम में स्नान करने से लाभ, नकारात्मक प्रभावों के उन्मूलन तथा मन और आत्मा के कायाकल्प की बात कही गई है। अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी कुम्भ के लिए प्रार्थना लिखी गई है। इसमें बताया गया है कि कैसे देवताओं और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन से निकले अमृत के पवित्र घड़े (कुम्भ) को लेकर युद्ध हुआ। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर कुम्भ को लालची राक्षसों के चंगुल से छुड़ाया था। जब वह इस स्वर्ग की ओर लेकर भागे तो अमृत की कुछ बूंदे चार पवित्र स्थलों पर गिरीं जिन्हें हम आज हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज के नाम से जानते हैं। इन्हीं चार स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष पर बारी बारी से कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ मेला दुनिया में कहीं भी होने वाला सबसे बड़ा सार्वजनिक समागम और आस्था का सामूहिक आयोजन है। लगभग 45 दिनों तक चलने वाले इस मेले में करोड़ों श्रद्धालु गंगा, यमुना और रहस्यमयी सरस्वती के पवित्र संगम पर स्नान करने के लिए आते हैं। मुख्य रूप से इस समागन में तपस्वी, संत, साधु, साध्वियां, कल्पवासी और सभी क्षेत्रों के तीर्थयात्री शामिल होते हैं।

कुंभ मेले में सभी धर्मों के लोग आते हैं, जिनमें साधु और नागा साधु शामिल हैं, जो साधना करते हैं और आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग का अनुसरण करते हैं, संन्यासी जो अपना एकांतवास छोड़कर केवल कुंभ मेले के दौरान ही सभ्यता का भ्रमण करने आते हैं, अध्यात्म के साधक और हिंदू धर्म का पालन करने वाले आम लोग भी शामिल हैं।

कुंभ मेले के दौरान अनेक समारोह आयोजित होते हैं; हाथी, घोड़े और रथों पर अखाड़ों का पारंपरिक जुलूस, जिसे ‘पेशवाई’ कहा जाता है, ‘शाही स्नान’ के दौरान चमचमाती तलवारें और नागा साधुओं की रस्में, तथा अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां, जो लाखों तीर्थयात्रियों को कुंभ मेले में भाग लेने के लिए आकर्षित करती हैं।

महाकुंभ मेला 2025 प्रयागराज में 13 जनवरी, 2025 से 26 फरवरी, 2025 तक आयोजित होने जा रहा है। यह एक हिंदू त्यौहार है, जो मानवता का एक स्थान पर एकत्र होना भी है। 2019 में प्रयागराज में अर्ध कुंभ मेले में दुनिया भर से 15 करोड़ पर्यटक आए थे। यह संख्या 100 देशों की संयुक्त आबादी से भी अधिक है। यह वास्तव में यूनेस्को द्वारा अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में सूचीबद्ध है।

कुंभ मेला कई शताब्दियों से मनाया जाता है। प्रयागराज कुंभ मेले का सबसे पहला उल्लेख वर्ष 1600 ई. में मिलता है और अन्य स्थानों पर, कुंभ मेला 14वीं शताब्दी की शुरुआत में आयोजित किया गया था। कुंभ मेला बेहद पवित्र और धार्मिक मेला है और भारत के साधुओं और संतों के लिए विशेष महत्व रखता है। वे वास्तव में पवित्र नदी के जल में स्नान करने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। अन्य लोग इन साधुओं के शाही स्नान के बाद ही नदी में स्नान कर सकते हैं। वे अखाड़ों से संबंधित हैं और कुंभ मेले के दौरान बड़ी संख्या में आते हैं। घाटों की ओर जाते समय जब वे भजन, प्रार्थना और मंत्र गाते हैं, तो उनका जुलूस देखने लायक होता है।

कुंभ मेला प्रयागराज 2025 पौष पूर्णिमा के दिन शुरू होता है, जो 13 जनवरी 2025 को है और 26 फरवरी 2025 को समाप्त होगा। यह पर्यटकों के लिए भी जीवन में एक बार आने वाला अनुभव है। टेंट और कैंप में रहना आपको एक गर्मजोशी भरा एहसास देता है और रात में तारों से भरे आसमान को देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। कुंभ मेले में सत्संग, प्रार्थना, आध्यात्मिक व्याख्यान, लंगर भोजन का आनंद सभी उठा सकते हैं। महाकुंभ मेला 2025 में गंगा नदी में पवित्र स्नान, नागा साधु और उनके अखाड़े से मिलें। बेशक, यह कुंभ मेले का नंबर एक आकर्षण है। कुंभ मेले के दौरान अन्य आकर्षण प्रयागराज में घूमने लायक जगहें हैं जैसे संगम, हनुमान मंदिर, प्रयागराज किला, अक्षयवट और कई अन्य। वाराणसी भी प्रयागराज के करीब है और हर पर्यटक के यात्रा कार्यक्रम में वाराणसी जाना भी शामिल है।

महाकुम्भ 2025 में आयोजित होने वाले कुछ मुख्य स्नान पर्व निम्न प्रकार हैं –

मुख्य स्नान पर्व  13.01.2025
मकर संक्रान्ति  14.01.2025
मौनी अमावस्या  29.01.2025
बसंत पंचमी  03.02.2025
माघी पूर्णिमा  12.02.2025
महाशिवरात्रि  26.02.2025

प्रयागराज का अपना एक एतिहासिक महत्व रहा है। 600 ईसा पूर्व में एक राज्य था और वर्तमान प्रयागराज जिला भी इस राज्य का एक हिस्सा था। उस राज्य को वत्स के नाम से जाना जाता था और उसकी राजधानी कौशाम्बी थी, जिसके अवशेष आज भी प्रयागराज के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। गौतम बुद्ध ने भी अपनी तीन यात्राओं से इस शहर को सम्मानित किया था। इसके बाद, यह क्षेत्र मौर्य शासन के अधीन आ गया और कौशाम्बी को सम्राट अशोक के एक प्रांत का मुख्यालय बनाया गया। उनके निर्देश पर कौशाम्बी में दो अखंड स्तम्भ बनाए गए जिनमें से एक को बाद में प्रयागराज में स्थानांतरित कर दिया गया। प्रयागराज राजनीति और शिक्षा का केंद्र रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था। इस शहर ने देश को तीन प्रधानमंत्रियों सहित कई राजनौतिक हस्तियां दी हैं। यह शहर साहित्य और कला के केंद्र के साथ साथ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केंद्र रहा है।

प्रयागराज में आयोजित हो रहे महाकुम्भ का आध्यात्मिक महत्व तो है ही, साथ ही, आज के परिप्रेक्ष्य में इस महाकुम्भ का आर्थिक महत्व भी है। प्रत्येक 3 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने वाले कुम्भ के मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु ईश्वर की पूजा अर्चना हेतु प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक एवं उज्जैन में पहुंचते हैं। प्रयग्राज में आयोजित तो रहे महाकुम्भ की 44 दिनों की इस इस पूरी अवधि में प्रतिदिन एक करोड़ श्रद्धालुओं के भारत एवं अन्य देशों से प्रयागराज पहुंचने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है, इस प्रकार, कुल मिलाकर लगभग 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुगण उक्त 44 दिनों की अवधि में प्रयागराज पहुंचेंगे।

करोड़ों की संख्या में पहुंचने वाले इन श्रद्धालुगणों द्वारा इन तीर्थस्थलों पर अच्छी खासी मात्रा में खर्च भी किये जाने की सम्भावना है। जिससे विशेष रूप से स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो बल मिलेगा ही, साथ ही करोड़ों की संख्या में देश में रोजगार के नए अवसर भी निर्मित होंगे एवं होटल उद्योग, यातायात उद्योग, पर्यटन से जुड़े व्यवसाय, स्थानीय स्तर के छोटे छोटे उद्योग एवं विभिन्न उत्पादों के क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यापारियों के व्यवसाय में भी अतुलनीय वृद्धि होगी। इस प्रकार, देश की अर्थव्यवस्था को भी, महाकुम्भ मेले के आयोजन से बल मिलने की भरपूर सम्भावना है।

(केंद्र सरकार एवं उत्तरप्रदेश सरकार की महाकुम्भ मेले से सम्बंधित वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग इस लेख में किया गया है।)

प्रहलाद सबनानी
प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009

मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

प्रिय ग्लप: बंगला कहानियों का हिंदी अनुवाद

कोटा की साहित्यकार डॉ. अपर्णा पांडेय द्वारा अनुवाद कृति ” प्रिय ग्लप ” बांग्लादेश के कहानीकार बंदे अली मियां की 14 कहानियों का हिंदी भाषा में अनुवाद कृति है। भारत सरकार की ओर से इन्हें बांग्लादेश में हिंदी टीचर के रूप में भेजा गया था। प्रवास के दौरान इन्होंने बांग्ला कहानियों का हिंदी अनुवाद किया। जिन शब्दों में कठिनाई आई  अपने विद्यार्थियों से पूछने में कोई संकोच नहीं किया। कहानियों के अनुवाद की विशेषता है कि  उनके मूल स्वरूप में बदलाव नहीं हो और रोचकता भी बनी रहे। अधिकांश कहानियां बच्चों की मनोभावना को लेकर ज्ञान वर्धक हैं वहीं सभी के लिए संदेश परक है।
कहानियां   बच्चों को कोई न कोई सीख देती हैं और मनोरंजन भी करती हैं। शब्दों का चयन और वाक्यों का गठन सहज और सरल होने के साथ मूल कहानी के निकट है।
 संग्रह की  कहानी ” चाँद मामा का देश”, शीर्षक से ऐसी कहानी है जिसमें पिंटू चाँद मामा के देश की सपने में यात्रा करता है। इस रोचक बाल कहानी में दो बच्चों पिंटू और मंटू का आत्मविश्वास झलकता है जब वे  चाँद पर पहुंचे रॉकेट से भेजी चाँद की एक अखबार में छपी फोटो देख कर चर्चा करते हैं हम भी चाँद पर जाएंगे। मंटू कहता हैं देश विदेश के बड़े – बड़े वैज्ञानिकों ने मिल कर यह रॉकेट तैयार किया है, कहाँ वैज्ञानिक और कहां हम। जवाब में पिंटू आत्मविश्वास से कहता है हम को भी कम नहीं समझे। जिन वैज्ञानिकों ने कई खोजें की वे भी कभी हमारे जैसे ही बच्चें थे। हम भी जब बड़े हो जाएंगे ,तो निश्चित ही कुछ करेंगे।
 हम में से ही कोई वैज्ञानिक, दार्शनिक, शिल्पी, कवि, गायक और साहित्यकार बनेगा। उसी रात पिंटू  चाँद मामा लेने आते हैं। वह हवा में उड़ता हुआ चाँद के घर पहुंचता है। चाँद से पिंटू की रोचक वार्तालाप, चाँद का जो पक्ष हमें धरती से दिखाई देता है, चाँद पिंटू की उसका दूसरा पक्ष दिखता है तो वह आश्चर्य में पड़ जाता है। सब कुछ पृथ्वी जैसा लगा बस वहां के लोगों और खाने पीने की वस्तुओं के नाम बड़े अटपटे थे, समझ में न आने वाले। चाँद पर एक बच्चा पिंटू को अपने घर खाने के लिए ले जाता है। पिंटू उसके साथ चलते हुए ता ना ना ना – ता ना ना ना कहते हुए चल पड़ता है। पिता – अरे पिंटू उठो, नींद में क्या बडबडा रहे हो। पिंटू – उमा,  मैं नींद में था, चाँद मामा के देश में, चाँद मामा का देश – वो क्या सब स्वप्न था !! पिता उठो उठो, किताब पढ़ने बैठो।
  ” शहजादी का भाग्य ” भारत में प्रचलित कहानी की तरह है जिसमें जीवन में नमक का महत्व प्रतिपादित किया गया है। एक राजा अपनी तीन बेटियों राजकुमारियों से पूछता है तुम मुझे कितना प्रेम करती हो। बड़ी राजकुमारी कहती है वह शहद जैसा, बीच वाली कहती है शक्कर जैसा और छोटी कहती है नामक जैसा। राजा यह सुनकर छोटी राजकुमारी से क्रोधित हो उसे दूर गहन जंगल में भेज देता है। वहां एक लकड़हारा उसे अकेले देख अपनी बेटी अपने घर ले जाता है और अपनी बेटी की तरह परवरिश करता है। राजकुमारी दिन भर मोर पंख जमा करती है उन्हें खूबसूरत बनती है।
एक दिन वह पिता को कहती है इन्हें बाज़ार में बेच आओ कुछ रुपए आ जाएंगे। उधर से एक राजकुमार आता है और उसे ये पसंद आ जाते हैं। जब उसे पता चलता है यह उनकी बेटी ने बनाए है तो वह उस से मिलने लकड़हारे के साथ उसके घर चला जाता है। उसे राजकुमारी पसंद आती है और वह उसे अपने साथ ले जा कर विवाह कर आराम से रहने लगता है। एक दिन राजकुमारी अपने पिता को खाने पर बुलाती है। पिता सही समय पर पहुंच जाता है। राजकुमारी अपने पिता को पहले शहद में फिर शक्कर मिला भोजन देती है। जिसे राजा चख कर छोड़ देता है। अब वह नामक का भोजन देती है जिसे वह बड़े चाव से खाता है। राजकुमारी ओट से खड़ी यह सब देखती रहती है। जब पिता चाव से नामक वाला भोजन कर रहा था वह ओट से बाहर आई और बोली मैंने कहा था न मैं आपको नमक जितना प्यार करती हैं। राजा खुद ही कर दामाद और बेटी को अपने साथ ले जाता है, जहां वे आराम से रहने लगते है।
संदेश यही है कि जीवन में सब चीजों का अपना – अपना महत्व है। मीठे का मजा भी नामक के साथ है, दुख है तब ही सुख का महत्व है।
कहानी ” तीन मित्र” का संदेश है कि उतने पैर पसारिए जितनी चादर हो। कुछ भी खर्च करने से पहले अपनी जेब टटोल ले, ऐसा नहीं हो संकट में पड़ जाएं। दिन भर ट्राम में घूमने का टिकट ले कर तीन दोस्त जब किसी होटल पर खाना खाने बैठते हैं तो बिल चुकाने जितने पैसे किसी के पास नहीं होते। योजना बना कर वे बेरे की आंख पर पट्टी बांध देते हैं और उसे कहते हैं जिसे वह छू लेगा वहीं भुगतान करेगा। बेरा टकराता टकराता मैनेजर को छू लेता है। जब मैनेजर को वह यह बात बताता है तब तक तीनों मित्र रफूचक्कर हो जाते हैं।
ऐसे ही ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद और जीवनोपयोगी संदेश लिए हैं आदेश का पालन, विपत्ति का साथी, परियों का देश, विचार, चलो आम इक्कठा करें, अतिथि पारायणता, सोच कर कार्य करो, लोभ का परिणाम, बेवकूफ बाघ और धूर्त शृंगाल, विजय वीर और स्वप्न बूढ़ा का देश कहानियां।
कृति की ” भूमिका ” में ढाका के एक समाचार पत्र के संपादक सैयद मेहंदी हसन लिखते हैं यह अनुवाद उत्कृष्ट ही नहीं है वरन दो देशों के साहित्य प्रेमियों के लिए सेतु का कार्य करेगा। इस संग्रह की कहानियां परियों का देश, चलों आम इक्कठा करें और चाँद मामा का देश कहानियां बाल मनोविज्ञान की प्रतिनिधि कहानियां हैं। लेखिका में एक शिक्षक ही नहीं वरन श्रेष्ठ अनुवादक भी नजर आता है। लेखिका ने मूल कथा की गहराई को संवेदनशीलता से समझा है और तब ही वे इनका भावात्मक अनुवाद कर पाई हैं। उनकी ये टिप्पणी निश्चित ही लेखिका की समझ, संवेदनशीलता और लेखन के शिल्प कौशल को इंगित करने को पर्याप्त है।
सभी सहयोगियों और शुभकामनाएं भेजने वालों का आभार व्यक्त करते हुए लेखिका ” मेरी कलम से ” में कृति की उपादेयता पर  लिखती है कि आदिकाल से ही कथा, ग्लप, आख्यायिका न केवल बच्चों वरन सभी के मनोरंजन के साधन रहे हैं वरन समय व्यतीत करने, चारित्रिक गुणों का विकास करने,नैतिक मूल्यों की स्थान और सामाजिक समस्याओं के निरूपण और समाधान का, कभी उपदेशात्मक तो कभी माँ की तरह ऊंगली  पकड़ कर राह दिखाने का कार्य समय – समय पर करती रही हैं। अनुवाद जहां एक देश की भाषा के साहित्य को दूसरे भाषा के साहित्य प्रेमियों को सुलभ करता है , वहीं उस देश की संस्कृति, विचारधारा और चिंतन से भी अवगत करता है। अनुवाद में अनुवादक को अपनी तरफ से कुछ भी कहने की अनुमति नहीं होती फिर भी रोचकता और सरसता बनाए रखने का प्रयास किया है।
 कृति का आरंभ बांग्लादेश में भारत के उच्चायुक्त रहे हर्ष वर्धन श्रृंगला के पत्र से होती है जिसमें उन्होंने इनके अक्टूबर 2013 से 27 फरवरी 2017 के प्रवास के दौरान हिंदी टीचर के रूप में दी गई सेवाओं और उपलब्धियों की मुक्त कंठ से सराहना की है। इसके उपरांत साउथ एशिया के डायरेक्टर जनरल का संदेश पत्र है जिसमें उन्होंने शुभकामनाएं देते हुए लिखा कि आपकी हिंदी सेवाओं को यहां के विद्यार्थी लंबे समय तक याद रखेंगे।
इंदिरा गांधी  सांस्कृतिक केंद्र ढाका की निदेशक जयश्री  कंडू, एवं  इंटीग्रेटेड डिफेंस सर्विसेज के डायरेक्टर एम. एन, कंडू के साथ – साथ ग्वालियर और मैनपुरी के शिक्षाविदों के शुभकामना पत्र शामिल हैं। कहानियों की 78 पृष्ठ वाली कृति का रंगीन आवरण पृष्ठ आकर्षक और कलात्मक है।
पुस्तक : प्रिय ग्लप ( बंगला कहानियों का हिंदी अनुवाद)
अनुवादक : डॉ. अपर्णा पाण्डेय, कोटा
प्रकाशक : पंख प्रकाशन,मेरठ
प्रकार : पेपर बैक
मूल्य : 120

जीवन मूल्यों से साक्षात्कार कराती बाल कहानियां

बादल और बिजली’ लेखिका डॉ.  अर्चना प्रकाश द्वारा लिखित एक प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद पुस्तक है। पुस्तक में कुल 11 बाल-कहानियां हैं जिनके शीर्षक इंद्रधनुष, झोला और पालिथीन बैग, बादल और बिजली, सच्चा प्यार, उड़ान, डबल गिफ्ट, असली सुंदरता,सैर में सीख,अहिल्याबाई होल्कर ,पीर पराई ,अनोखी बात हैं।  लेखिका ने  विभिन्न स्थितियों से मुकाबले, साहस, आत्मविश्वास और नैतिक शिक्षा पर आधारित हैं।

लेखिका डॉ.  अर्चना प्रकाश साहित्य में कहानी , बाल कहानी-विधा की अनवरत प्रकाशित होने वाली कथाकार हैं।

प्रथम कहानी ‘इंद्रधनुष बच्चों को डर और शरारतों से बचने का संदेश देती है। यह कहानी आसमान में ‘इंद्रधनुष बनने की जानकारी देती है। झोला और पॉलिथीन बैग कहानी पर्यावरण संरक्षण सिखाती है बादल और बिजली कहानी किसी भी बात को बिना जानकारी के न मानें और न ही दूसरों को डराएं। कहानी में महत्वपूर्ण संदेश दिया गया है।

‘अहिल्याबाई होल्कर कहानी शिक्षा देती है कि सही नेतृत्व सहानुभूति, सेवाभाव और समर्पण के आधार पर संभव होता है।इस पुस्तक में बाल मन के अनुरूप लिखी ग्यारह कहानियों में जादुई आकर्षण है।‘बादल और बिजली’ बाल कहानी-संग्रह संवेदना सहानुभूति और समानुभूति जैसी भावनाओं का संचार करने में सक्षम है।

कुल मिलाकर, इन सभी बाल कहानियों में लेखक ने सरल, प्रभावशाली और बच्चों की समझ में आने वाली भाषा का उपयोग किया है। जीवन मूल्यों से साक्षात्कार कराती बाल कहानियां निश्चय ही बच्चों के लिए प्रेरणा प्रदान करेगीं।

पुस्तक : ‘बादल और बिजली’ (बाल कहानी-संग्रह) कहानीकार : डॉ. अर्चना प्रकाश प्रकाशक : शतरंग प्रकाशन, लखनऊ पृष्ठ : 32 मूल्य : रु. 100.

 सुरेन्द्र अग्निहोत्री 

ए-305, ओ.सी.आर.
विधान सभा मार्ग;लखनऊ-226001

दृष्टिबाधित बच्चों के लिए ’एनी डिवाइस’

दंतेवाड़ा प्रशासन की एक क्रांतिकारी पहल

रायपुर / दंतेवाड़ा जिला प्रशासन ने दृष्टिबाधित बच्चों के जीवन को सरल और आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नया कदम उठाते हुए ’एनी डिवाइस’ नामक विशेष उपकरण प्रदान किया है। यह डिवाइस बच्चों को ब्रेल लिपि को सीखने और पढ़ने में मददगार है। जिला प्रशासन द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय ’सक्षम’ के दृष्टिबाधित बच्चों को यह डिवाईस दिया गया है। ’एनी डिवाइस’ एक स्मार्ट लर्निंग टूल है, जो बच्चों को ब्रेल अक्षरों को पहचानने और लिखने में मदद करता है। यह डिवाइस टच और ऑडियो फीचर्स से लैस है। बच्चे अपनी उंगलियों से डिवाइस पर ब्रेल अक्षरों को छूते हैं, और डिवाइस तुरंत ऑडियो में अक्षर का नाम और उसकी ध्वनि सुनाता है। इसमें इंटरएक्टिव गेम्स और क्विज भी शामिल हैं, जो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को रोचक और प्रभावी बनाता है।

दंतेवाड़ा जिले के ’सक्षम’ विद्यालय में 16 दृष्टिबाधित बालिकाएं और 12 बालक पढ़ाई कर रहे हैं। इस नई डिवाइस के आने से न केवल उनकी पढ़ाई आसान हुई है, बल्कि आत्मनिर्भरता भी बढ़ी है। शिक्षक श्री अमित यादव ने बताया कि ब्रेल लिपि पढ़ाने का अनुभव पहले भी था, लेकिन ’एनी डिवाइस’ ने बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ अन्य डिजिटल सुविधाओं का अनुभव दिया है। ’एनी डिवाइस’ से बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ा है। यह उपकरण बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें गेम, गानों और अन्य गतिविधियों से भी जोड़ता है। डिवाइस वॉइस असिस्टेंस जैसी तकनीक से लैस है। दंतेवाड़ा प्रशासन का यह प्रयास दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा और तकनीक का समावेश करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। 2013 में ’सक्षम’ विद्यालय की स्थापना से लेकर ’एनी डिवाइस’ के उपयोग तक, यह पहल दृष्टिबाधित बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह शिक्षा में समावेशिता और तकनीकी विकास का प्रतीक बनकर समाज के उन वर्गों के उत्थान है, जिन्हें विशेष सहयोग की आवश्यकता है।

मास्टर मदन: सुरों की दुनिया का सम्राट जो बचपन में ही चल बसा

मास्टर मदन- जिनकी ज़िन्दगी ही मात्र साढ़े चौदह साल थीं और मौसिकी में अमर 1942 से आज भी एक ऐसी आवाज़ है कि जिनको एक बार सुन लिया जाए तो फिर बार-बार सुनाने को जी करे है! अपनी छोटी-सी आयु में उन्होनें संगीत सुननेवालों पर अमिट छाप छोड़ी है!
मास्टर मदन का जन्म 28 दिसम्बर, 1927 को पंजाब के जालंधर ज़िले के खानखाना गाँव में हुआ था, उनके जीवन में केवल 8 गाने ही रिकॉर्ड हो पाये जो आज उपलब्ध है। जिनमें से सार्वजनिक रूप से केवल दो ही गानों की रिकॉर्डिंग सब जगह मिल पाती है, तीन साल की उम्र में जब बोलियों की कोपलें फूटती हैं तब उनकी तान फूट गई थी. बच्चा बस दिखने में बच्चा था, उनकी आवाज अपनी प्रकृति में कच्ची थी लेकिन प्रस्तुति में प्रौढ़, नैसर्गिक प्रभा से प्रदीप्त. पांच साल की उम्र में एक बार उन्होंने गुरु तेग बहादुर का शबद गाया था, चेतना है तो चेत ले, विडंबना देखिए कि सुनने वाले अपनी सुध-बुध खो बैठे. तब उनकी दीदी ने कहा था कि मास्टर गुरु नानक की छवि सदैव अपने साथ लिए चलते थे.
1 यूँ न रह-रह कर हमें तरसाइये
2 हैरत से तक रहा है
अन्य छ: गाने बहुत ही कम मिल पाते है, जब वह एक युवा लड़का था तब मास्टर मदन ने राजाओं के दरबार में गायन शुरू कर दिया था, आठ साल की उम्र में उन्हें संगीत सम्राट कहा जाता था,
आज़ादी से पहले के एक प्रतिभाशाली ग़ज़ल और गीत गायक थे, मास्टर मदन के बारे में बहुत कम लोग जानते है, मास्टर मदन एक ऐसे कलाकार थे जो 1930 के दशक में एक किशोर के रूप में ख्याति प्राप्त करके मात्र 15 वर्ष की उम्र में 1940 के दशक में ही स्वर्गवासी हो गए, ऐसा माना जाता है कि मास्टर मदन को आकाशवाणी और अनेक रियासतों के दरबार में गाने के लिए बहुत ऊँची रकम दी जाती थी, मास्टर मदन उस समय के प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल के बहुत क़रीब थे जिसका कारण दोनों का ही जालंधर का निवासी होना था।
सिर्फ साढ़े चौदह साल जीने वाले उस कलाकार की तान, टीस की एक टेर है, एक कोमल, बाल्यसुलभ स्वर जिसमें हर पहर की पीड़ा है, उफ! कैसा आलाप! कैसे सुर! कैसा अदभुत नियंत्रण!’ मास्टर मदन की ख्याति और लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1940 में जब एक बार गांधीजी शिमला गए थे तो उनकी सभा में बहुत कम लोग उपस्थित हुए, बाद में पता चला कि ज्यादातर लोग मास्टर मदन की संगीत-सभा में गाना सुनने चले गए थे, ऐसी प्रसिद्धि थी मास्टर मदन की, तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते मास्टर मदन का नाम और उनकी ख्याति भारत के कोने-कोने तक पहुँच चुकी थी, उनके जीवन का आखिरी संगीत-कार्यक्रम कोलकता में हुआ था।
उन्होंने राग बागेश्वरी में “विनती सुनो मोरी अवधपुर के बसैया” को भावविभोर और पूर्ण तन्मयता के साथ गाया, श्रोता मंत्र-मुग्ध हुए, उन्हें नकद पुरस्कार के अलावा शुद्ध सोने के नौ पदकों से सम्मानित किया गया। दिल्ली लौटने पर अगले तीन महीनों तक आकाशवाणी के लिए गाना जारी रखा, इस बीच उनकी तबीयत खराब रहने लगी, ज्वर टूट नहीं रहा था, 1942 की गर्मियों में वे शिमला लौटे और 5 जून को उनकी मृत्यु हो गई, कहते हैं कि उस दिन शिमला बंद रहा और श्मशान घाट तक की उनकी अंतिम-यात्रा में हजारों की संख्या में उनके प्रशंसक शामिल हुए, तेरह साल की उम्र तक आते-आते वे मशहूर हो चुके थे और इस प्रसिद्धि में चुपके से उन्हें एक बीमारी घेर रही थी. समृद्ध होते सुरों को सन्नाटे में संभालने वाला शरीर खाली हो रहा था. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उन्हें थकान रहने लगी थी और हल्का बुखार घेरे रहता था. बाद में नीम-हकीम और वैद्य अस्पताल कुछ काम नहीं आया, उनकी असमय मौत शक के घेरे में है.
लोगों का कहना है कि मास्टर को ईर्ष्या में ज़हर दिया गया> कहते हैं, कलकत्ता में एक मंत्रमुग्ध कर देने वाली ठुमरी, बिनती सुनो मेरी, सुनने के बाद उऩ्हें किसी ने धीमा जहर दे दिया. ऑल इंडिया रेडियो की कैंटीन से लेकर मास्टर मदन दूध पिया करते थे. सुगबुगाहटें रहीं कि एक दूसरे गायक ने उन्हें दूध में मर्करी मिलाकर दे दिया, इस बात का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि अगर मास्टर मदन जवानी की उम्र तक भी जिंदा रहते, तो जाने उनकी गायिकी किस मुकाम तक उनको पहुंचा देती! अपनी अद्भुत और हृदयग्राही गायिकी की वजह से बालक मदन ‘मास्टर’ कहलाने लगा था।
मास्टर मदन के गाए दुर्लभ गाने
 
साभार https://www.facebook.com/sunilgajani के फेसबुक पेज से

राजस्थानी कहानियाँ एक विवेचना

सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से वर्ष 2025 में प्रकाशित पुस्तक “राजस्थानी  कहानियाँ  एक विवेचना” में समालोचक जितेन्द्र निर्मोही जी ने बत्तीस कहानीकारों के राजस्थानी कहानी संग्रहों को गहनता से विवेचित करते हुए समकालीन परिवेश में उनके महत्व को प्रतिपादित किया है।
आरम्भ में लेखक- समालोचक जितेन्द्र निर्मोही ने पूर्व पीठिका के अन्तर्गत राजस्थानी कहानी की परम्परा को विस्तार देते हुए मुख्य रूप से आलोचक डॉ. नीरज दइया और प्रो. कुंदन माली के वैचारिक भाव और उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों को उल्लेखित करते हुए विश्लेषण तो किया ही है साथ ही राजस्थानी कहानी जगत में सृजित कहानियों में होते रहे परिवर्तन को उजागर करने का प्रयास भी किया है जो लेखक की समकालीन  राजस्थानी कहानी के सृजन सन्दर्भों पर प्रति दृष्टि को परिलक्षित करता है।
पूर्व पीठिका के पश्चात् लेखक ने क्रमशः जिन कहानीकारों को लिया है उनके कहानी सृजन को प्रमुखता से शीर्षित करते हुए उनकी  कहानियों के बारे में सारगर्भित चर्चा की है।
पुस्तक में मुरली धर व्यास : अपने समय के युगीन बिम्ब रूपायित करती कहानियाँ , श्रीलाल नथमल जोशी : विषय वैविध्य कथ्य से भरी कहानियाँ ,अन्नाराम सुदामा : एक लम्बी यात्रा का कथाकार , ओम प्रकाश भाटिया : जैसलमेर की मिट्टी के अप्रतिम कथाकार ,  पूर्ण शर्मा पूरण : ज़िन्दगी को नजदीक से देखता रचनाकार , माधव नागदा : मेवाड़ कथा क्षेत्र का निलकंठी कथाकार , सावित्रि चौधरी : अपने समय की बानगी का अनुभव से प्रस्तुतिकरण ,संतोष चौधरी : अपनी कहानियों में नवाचार और समकाल का बोध ,नंद भारद्वाज : अपने समय की हरावल पीढ़ी के कथाकार , सत्यनारायण सोनी : नायको के रेखाचित्र रूपायित करते कथाकार ,बसंती पंवार : अपनी कहानियों में जोधपुरिया मटेट, किरण राजपुरोहित : अनूठे राजस्थानी शब्दों से रूपायित कहानियाँ ,अशोक जोशी “क्रांत” :  राजस्थानी कथा जगत का प्रतिनिधि कथाकार, जेबा रशीद : विषय वैविध्य और नारी जीवन संघर्ष से भरी कहानियाँ , राजेंद्र शर्मा “मुसाफिर ” : अपने आस पास जमीन से जुड़ी संवेदनशील कहानियाँ, डॉ. कृष्ण कुमार आशु : अपने जीवन अनुभवों का सच सामने रखता कथाकार, मधु आचार्य आशावादी : अपनी कहानियों से समकाल को शिद्दत से सामने रखता कथाकार, कमला कमलेश : जिंदगानी होम करता कथा परिवेश, उम्मेद धनियां : अपनी कहानियों में ढलता दलित जीवन,कुमार अजय : वर्तमान परिवेश को उकेरती कहानियाँ , मेहर चंद धामू : ठेठ गंवई राजस्थानी के कथाकार, जितेन्द्र निर्मोही : राजस्थानी कहानियों में नवाचार और संस्कार, विजय जोशी : लोक संवेदनाओं के कथानक ,राजेंद्र जोशी : अपने आसपास की कहानियाँ, मदन गोपाल लढ़ा : कथा सन्दर्भों में नवाचार और नवशिल्प , राजू सारसर राज : दलित संघर्ष की कहानियाँ  , ऋतु शर्मा : स्त्री संघर्ष की कहानियों का रचाव  ,सांवर दइया : राजस्थानी कथा नवयुग के प्रणेता ,हरीश बी. शर्मा : अपनी कथाओं में नवल रंग भरते कथाकार ,  मनोहर सिंह राठौड़ : मरुधरा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक रंग की कथाएँ , रीना मेनारिया : स्त्रैण मर्म को प्रकट करती कहानियाँ ,
करणीदान बारहठ : प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु की परम्परा का कथाकार की कहानियां सम्मिलित हैं।
    इन विवेचित कहानीकारों की कहानियों को विश्लेषित करते हुए समालोचक जितेन्द्र निर्मोही ने कथानक को उभारते हुए उसमें समाहित कहानी के उद्देश्य को तो उकेरा है साथ ही जहाँ – जहाँ पात्रों के संवाद अथवा कहानी के प्रमुख उल्लेखनीय अंश को समालोचित करना हो वहाँ – वहाँ मूल स्वरूप अर्थात् राजस्थानी में ही उद्धरित किया है। यही नहीं इन विवेचित कहानीकारों की कहानियों के बारे में जिन विद्वानों ने अपना मंतव्य किसी भी रूप में प्रकट किया है ; उसे भी लेखक ने  प्रमुखता से सन्दर्भित करते हुए कहानियों की विशेषता और प्रासंगिकता को दर्शाया है।
लेखक : जितेंद्र निर्मोही
प्रकाशक : सूर्य मंदिर , बीकानेर
मूल्य : 350
संस्करण : 2025
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विजय जोशी,
कथाकार और समीक्षक, कोटा

आलोक के नाम का वलय भी भला कब कहीं जा सकता है

अपनी सरकती उम्र इन दिनों मुझे यह भी अहसास कराने लगी है कि मेरी ही नहीं, मुझसे उम्र में बड़े सबकी उम्र सरक रही है। अब कुछ भी टालने की स्थिति, गुंजाइश या समय ही मेरे पास नहीं है। यह निराशा से उपजी मनोदशा नहीं है, यथार्थ  है। इस यथार्थ का साबका मंगलवार सुबह कुछ और गहरा हुआ। सोशल मीडिया पर खबर आने लगी रंगकर्मी आलोक चटर्जी नहीं रहे। कोई कह रहा था सोमवार देर रात उनका निधन हुआ, कोई कह रहा था मंगलवार तड़के। समय जो भी हो, सच तो यह था कि वे गुज़र गए। उनसे मुलाकात हुए ज़माना हो गया और बिल्कुल कुछ दिनों पहले ही मैंने तय किया था कि इस बार भोपाल गई तो उनसे ज़रूर मिलकर आऊँगी। पिछली बार गई थी, तब क्यों नहीं मिली या उससे पिछली बार? या इतने साल जब इंदौर में थी तब भोपाल की दूरी क्यों नहीं तय कर पाई? इतना भरोसा कैसे था कि आज नहीं तो कल मिल लेंगे। क्यों लगता रहा कि वे कहाँ भागे जा रहे हैं, भोपाल में ही तो हैं, कभी भी मिल लेंगे। अब…अब, अब क्या मैं यह लिखने की स्थिति में हूँ कि कभी भी मिल लेंगे? वे प्रस्थान कर गए हैं, उनके जीवन के रंगमंच से पर्दा गिर गया है, उनके जीवन का नाटक और उनका नाट्यपूर्ण जीवन हमेशा के लिए समाप्त हो गया है।
उनका जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा, आर्थिक रूप से कभी टूटा, कभी सँभला रहा। पर हर स्थिति में उन्होंने नाटक चलने दिया। जितना भी कमाया उसमें से आधा हिस्सा घर खर्च के लिए रखा और आधा नाटक को अर्पित कर दिया। ऐसे लोग सच में अब बिरले होते जा रहे हैं, जिनके लिए मैटीरियलस्टिक चीज़ें मायने नहीं रखती हों। शायद हमारी पीढ़ी के पास कहने को ये कहानियाँ तो हैं कि हमने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने अपने जज़्बे के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया हो। उनके नाम का आलोक उनके वलय के साथ चलता था। नब्बे के दशक की बात होगी। इंदौर के रवींद्रनाट्य गृह में मृत्युंजय नाटक खेला जाना था। मुख्य पात्र की भूमिका में थे-आलोक चटर्जी।
लगभग 1987 में वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि), नईदिल्ली से उत्तीर्ण हुए थे और 1990-91 में यह नाटक आया था। वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र कर्ण की भूमिका में थे। मेरे किशोरवयीन मन पर यह छवि अंकित हो गई कि उनसे बेहतर कर्ण का पात्र और कोई कर ही नहीं सकता है। रवींद्र नाट्य गृह की दर्शक दीर्घा से उन्होंने मंच पर प्रवेश किया था। इस तरह का प्रयोग मैंने पहली बार देखा था। उस तरह का कोई नाटक भी। कर्ण मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था। उसके बाद शिवाजी सावंत के मूल उपन्यास मृत्युंजय को दोनों भाषाओं मराठी और हिंदी में पढ़ डाला। कर्ण की गहरी छाप आलोक चटर्जी ने मुझ पर छोड़ी थी। साल बीतते न बीतते रानावि ने इंदौर में ग्रीष्मकालीन शिविर आयोजित किया। शहर के युवाओं के चयन की प्रक्रिया हुई। मेरा चयन निर्धारित आयु सीमा से कम होने के बावजूद हो गया। तब तक मुझे पता भी नहीं था कि मेरी थाली में कितना शानदार भोज आने वाला है।
गोविंद नामदेव, आशीष विद्यार्थी, सुधा शिवपुरी, आलोक चटर्जी एक से बढ़कर एक कलाकार हमें तालीम देने वाले थे। सुबह सात बजे से शाम तक सेंट रेफियल्स स्कूल का प्रांगण हमारा घर बन गया था। बीच में भोजन अवकाश होता था। हम अपने-अपने घर जाते थे। कुछ प्रशिक्षणार्थी स्कूल में रुक जाते, कुछ प्रशिक्षक भी। मुझसे उम्र, अनुभव और कद में कितने ही बड़े मेरे सहपाठी हो गए थे। हम सब कितना सारा समय साथ बिताते और हम सबके चहेते थे आलोक चटर्जी सर। उनके बाद उनकी जगह आशीष विद्यार्थी ने ली थी। उन दोनों ने हम सबको इतना कुछ सिखाया कि भूले नहीं भूलता। दोनों युवा थे इसलिए भी उनकी हम सबसे अच्छी दोस्ती हो गई थी। वे आलोक सर से हमारे आलोक दा हो गए थे। की क्लास में कई प्रयोग भी होते। वे हमारे मन की गाँठें खोलते। कभी-कभी हम सब समूह में आलोक दा जहाँ रुके थे वहाँ चले जाते। कभी साथ में सब प्रशिक्षण स्थल पर ही दोपहर का भोजन करते। तब तक मुझे केवल इतना पता था कि वे रानावि से निकले हैं, लेकिन वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं, बाद में पता चला।
उनके भोपाल लौटने के बाद उनके बारे में हम बातें किया करते थे। चूँकि शेष प्रशिक्षणार्थी उम्र में मुझसे बड़े थे इसलिए शिविर समाप्ति के बाद वे भोपाल जाकर उनसे मिल आया करते। हम प्रशिक्षणार्थी उस शिविर के बाद कुछ अरसे तक आपस में मिलते रहे थे इसलिए आलोक सर के हालचाल पता चलते रहे। आलोक दा का जादू हम सब पर था। वे व्यक्तिगत तौर पर सबसे जुड़े थे। उनकी दमोह की स्कूली पढ़ाई, उनका मेडिकल कॉलेज में हुआ चयन, उनका मेडिकल की पढ़ाई न कर, नाटक करने का निर्णय (वह भी उस जमाने में) हमें बड़ा रोमांचित करता। उसके बाद संपर्क टूटता गया, उनके नाटकों के शो निरंतर जारी थे। भोपाल के रंगमंडल की रेपेटरी में वे शिक्षक थे। मृत्युंजय का नाम तक अब उनके द्वारा अभिनीत प्रमुख नाटकों में नहीं होता। नट सम्राट नाटक ने उन्हें नई पहचान दी। लेकिन मेरे लिए तो वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र थे, जो आज मृत्यु से हार गए थे…उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। अभिनेता के लिए उसका शरीर ही उसका माध्यम उसका साज़ होता है, वह साज़ थम गया…पर किसी का आलोक तो बिना शरीर के भी रह सकता है न…आलोक तो मृत्यु पर विजय पाकर मृत्युंजय होता है, अमर होता है…
(स्वरांगी साने स्वतंत्र लेखिका व पत्रकार हैं और साहित्य, कला संस्कृति के साथ ही सामाजिक विषयों पर लेखन करती है)
स्वरांगी साने का परिचय