Tuesday, April 22, 2025
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भारत को पुनः विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने हेतु सांस्कृतिक संगठनों को भी विशेष भूमिका निभानी होगी

प्राचीनकाल में भारत विश्व गुरु रहा है इस विषय पर अब कोई शक की गुंजाईश नहीं रही है क्योंकि अब तो पश्चिमी देशों द्वारा पूरे विश्व के प्राचीन काल के संदर्भ में की गई रिसर्च में भी यह तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं। भारत क्यों और कैसे विश्व गुरु के पद पर आसीन रहा है, इस संदर्भ में कहा जा रहा है कि भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के नियमों के आधार पर भारतीय नागरिक समाज में अपने दैनंदिनी कार्य कलाप करते रहे हैं। साथ ही,  भारतीयों के डीएनए में आध्यतम पाया जाता रहा है जिसके चलते वे विभिन्न क्षेत्रों में किए जाने वाले अपने कार्यों को धर्म से जोड़कर करते रहे हैं। लगभग समस्त भारतीय, काम, अर्थ एवं कर्म को भी धर्म से जोड़कर करते रहे हैं।

काम, अर्थ एवं कर्म में चूंकि तामसी प्रवृत्ति का आधिक्य बहुत आसानी से आ जाता है अतः इन कार्यों को तासमी प्रवृत्ति से बचाने के उद्देश्य से धर्म से जोड़कर इन कार्यों को सम्पन्न करने की प्रेरणा प्राप्त की जाती है। जैसे, भारतीय शास्त्रों में काम में संयम रखने की सलाह दी जाती है तथा अर्थ के अर्जन को बुरा नहीं माना गया है परंतु अर्थ का अर्जन केवल अपने स्वयं के हित के लिए करना एवं इसे समाज के हित में उपयोग नहीं करने को बुरा माना गया है। इसी प्रकार, दैनिक जीवन में किए जाने वाले कर्म भी यदि धर्म आधारित नहीं होंगे तो जिस उद्देश्य से यह मानव जीवन हमें प्राप्त हुए है, उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकेगी।

प्राचीनकाल में भारत में राजा का यह कर्तव्य होता था कि उसके राज्य में निवास कर रही प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो और यदि किसी राज्य की प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट होता था तो वह नागरिक अपने कष्ट निवारण के लिए राजा के पास पहुंच सकता था। परंतु, जैसे जैसे राज्यों का विस्तार होने लगा और राज्यों की जनसंख्या में वृद्धि होती गई तो उस राज्य में निवास कर रहे नागरिकों के कष्टों को दूर करने के लिए धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन भी आगे आने लगे एवं नागरिकों के कष्टों को दूर करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगे। समय के साथ साथ धनाडय वर्ग भी इस पावन कार्य में अपनी भूमिका निभाने लगा। फिर, और आगे के समय में एक नागरिक दूसरे नागरिक की परेशानी में एक दूसरे का साथ देने लगे। परिवार के सदस्यों के साथ पड़ौसी, मित्र एवं सह्रदयी नागरिक भी इस प्रक्रिया में अपना हाथ बंटाने लगे। इस प्रकार प्राचीन भारत में ही व्यक्ति, परिवार, पड़ौस, ग्राम, नगर, प्रांत, देश एवं पूरी धरा को ही एक दूसरे के सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा। “वसुधैव कुटुंबकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव भी प्राचीन भारत में इसी प्रकार जागृत हुआ है।  “व्यक्ति से समष्टि”  की ओर, की भावना केवल और केवल भारत में ही पाई जाती है।

वर्तमान काल में लगभग समस्त देशों में चूंकि समस्त व्यवस्थाएं साम्यवाद एवं पूंजीवाद के नियमों पर आधारित हैं, जिनके अनुसार, व्यक्तिवाद पर विशेष ध्यान दिया जाता है और परिवार तथा समाज कहीं पीछे छूट जाता है। केवल मुझे कष्ट है तो दुनिया में कष्ट है अन्यथा किसी और नागरिक के कष्ट पर मेरा कोई ध्यान नहीं है। जैसे यूरोपीयन देश उनके ऊपर किसी भी प्रकार की समस्या आने पर पूरे विश्व का आह्वान करते हुए पाए जाते हैं कि जैसे उनकी समस्या पूरे विश्व की समस्या है परंतु जब इसी प्रकार की समस्या किसी अन्य देश पर आती है तो यूरोपीयन देश उसे अपनी समस्या नहीं मानते हैं। यूरोपीयन देशों में पनप रही आतंकवाद की समस्या पूरे विश्व में आतंकवाद की समस्या मान ली जाती है।

 परंतु, भारत द्वारा झेली जा रही आतंकवाद की समस्या यूरोप के लिए आतंकवाद नहीं है। यह पश्चिमी देशों के डीएनए में है कि विकास की राह पर केवल मैं ही आगे बढ़ूँ, जबकि भारतीयों के डीएनए में है कि सबको साथ लेकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ा जाय। यह भावना भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों में भी कूट कूट कर भरी है। इसी तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। संघ के लिए राष्ट्र प्रथम है, और भारत में निवास करने वाले हम समस्त नागरिक हिंदू हैं, क्योंकि भारत में निवासरत प्रत्येक नागरिक से सनातन संस्कृति के संस्कारों के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है। भले ही, हमारी पूजा पद्धति भिन्न भिन्न हो सकती है, परंतु संस्कार तो समान ही रहने चाहिए। इसी विचारधारा के चलते आज संघ देश के कोने कोने में पहुंचने में सफल रहा है।
संघ ने न केवल राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया है, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं के समय तथा उसके बाद राहत एवं पुनर्वास कार्यों में भी अपनी सक्रिय भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है। इस वर्ष संघ अपना शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है परंतु संघ इसे अपनी उपलब्धि बिल्कुल नहीं मानता है बल्कि संघ के लिए तो शताब्दी वर्ष भी जैसे स्थापना वर्ष है और उसी उत्साह से अपने कार्य को विस्तार तथा सुदृढीकृत करते हुए आगे बढ़ने की बात कर रहा है। संघ का अपनी 100 वर्षों की स्थापना सम्बंधी उपलब्धि को उत्सव के रूप में मनाने का विचार नहीं है बल्कि इस उपलक्ष में संघ के स्वयंसेवकों से अपेक्षा की जा रही है कि वे आत्मचिंतन करें, संघ कार्य के लिए समाज द्वारा दिए गए समर्थन के लिए आभार प्रकट करें एवं राष्ट्र के लिए समाज को संगठित करने के लिए स्वयं को पुनः समर्पित करें। शताब्दी वर्ष में समस्त स्वयंसेवकों से अधिक सावधानी, गुणवत्ता एवं व्यापकता से कार्य करने का संकल्प लेने हेतु आग्रह किया जा रहा है।

आज संघ कामना कर रहा है कि पूरे विश्व में निवास कर रहे प्राणी शांति के साथ अपना जीवन यापन करें एवं विश्व में लड़ाई झगड़े का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः हिंदू सनातन संस्कृति का पूरे विश्व में फैलाव, इस धरा पर निवास कर रहे समस्त प्राणियों के हित में है। इस संदर्भ में आज हिंदू सनातन संस्कृति को किसी भी प्रकार का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब तो विकसित देशों द्वारा की जा रही रिसर्च में भी इस प्रकार के तथ्य उभर कर सामने आ रहे हैं कि भारत का इतिहास वैभवशाली रहा है और यह हिंदू सनातन संस्कृति के अनुपालन से ही सम्भव हो सका है। अतः आज विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से हिंदू सनातन संस्कृति को पूरे विश्व में ही फैलाने की आवश्यकता है।

परम पूज्य डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने भी संघ की स्थापना के समय कहा था कि संघ कोई नया कार्य शुरू नहीं कर रहा है, बल्कि कई शताब्दियों से चले आ रहे काम को आगे बढ़ा रहा है। संघ का यह स्पष्ट मत है कि धर्म के अधिष्ठान पर आत्मविश्वास से परिपूर्ण संगठित सामूहिक जीवन के आधार पर ही हिंदू समाज अपने वैश्विक दायित्व का निर्वाह प्रभावी रूप से कर सकेगा। अतः हमारा कर्तव्य है कि सभी प्रकार के भेदों को नकारने वाला समरसता युक्त आचरण, पर्यावरण पूरक जीवनशैली पर आधारित मूल्याधिशिष्ठ परिवार, स्व बोध से ओतप्रोत और नागरिक कर्तव्यों के लिए प्रतिबद्ध समाज का निर्माण करें एवं इसके आधार पर समाज के सब प्रश्नों का समाधान, चुनौतियों का उत्तर देते हुए भौतिक समृद्धि एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण समर्थ राष्ट्र्जीवन खड़ा करें। संघ का यह भी स्पष्ट मत है कि हिंदुत्व की रक्षा और उसका सशक्तिकरण ही विश्व में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 99 वर्षों की साधना के बाद संघ का प्रभाव देश में स्पष्ट रूप से दिख रहा है, और राष्ट्र का कायाकल्प हो रहा है। राष्ट्रीयता, स्व-पहचान, स्वदेशी भावना और हिंदू संस्कृति को ऊर्जा के स्त्रोतों के रूप में पुनर्परिभाषित करने के प्रयास तेज हो चुके हैं।

उक्त संदर्भ में संघ द्वारा नवम्बर 2025 से जनवरी 2026 के दौरान किन्हीं तीन सप्ताह तक बड़े पैमाने पर घर घर सम्पर्क अभियान की योजना बनाई गई है, इसका विषय “हर गांव, हर बस्ती, हर घर” होगा। साथ ही, संघ द्वारा समस्त मंडलों और बस्तियों में हिंदू सम्मेलन आयोजित किए जाएंगे। इन सम्मेलनों में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के जीवन में एकता और सद्भाव, राष्ट्र के विकास में सभी का योगदान और पंच परिवर्तन में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी, का संदेश दिया जाएगा। प्रत्येक खंड एवं नगर स्तर पर सामाजिक सद्भाव बैठकें भी आयोजित की जाएंगी, इन बैठकों में एक साथ मिलकर रहने पर बल दिया जाएगा। इन बैठकों का उद्देश्य सांस्कृतिक आधार और हिंदू चरित्र को खोए बिना आधुनिक जीवन जीने का संदेश देना होगा। प्रयागराज में हाल ही में सम्पन्न महाकुम्भ में समस्त क्षेत्रों में लोग एक साथ आए थे, किसी को भी किसी नागरिक की जाति, मत, पंथ, आदि की जानकारी नहीं थी। विभिन्न नगरों के संभ्रांत नागरिकों के साथ संवाद कार्यक्रम भी आयोजित किए जाने की योजना बनाई जा रही है। इसी प्रकार, युवाओं के लिए भी राष्ट्र निर्माण, सेवा गतिविधियां एवं पंच परिवर्तन पर केंद्रित विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाने की योजना विभिन्न प्रांतों द्वारा तैयार की जा रही है।

आज भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह अन्य धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों को भी आगे आकर मां भारती को एक बार पुनः विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने में अपना योगदान देने की आवश्यकता है।

प्रहलाद सबनानी
सेवानिवृत्त उपमहाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

मुंबई, बेंगलुरु व गुरुग्राम में टेक एग्ज़िक्यूटिव के लिए एम & ए सेमिनार

सिएटल, वाशिंगटन, संयुक्त राज्य अमेरिका।

वर्तमान वैश्विक आर्थिक घटनाओं के कारण टेक सीईओज़ के लिए बाजार को समझने का यह सबसे महत्वपूर्ण समय बन गया है। Corum तकनीकी रुझानों, मूल्यांकन, विकास रणनीतियों और टेक एम एंड ए के बारे में दुनिया का अग्रणी शिक्षण संस्थान है। Corum के अध्यक्ष Rob Griggs और उपाध्यक्ष Elie Youssef अप्रैल में मुंबई, बेंगलुरु और गुरुग्राम में तीन मर्ज ब्रीफिंग सेमिनार की मेजबानी करेंगे।

 

मर्ज ब्रीफिंग 90 मिनट का एक कार्यकारी सेमिनार है जो वर्तमान टेक एम एंड ए बाजार रुझानों पर एक अपडेट प्रदान करता है – साथ ही एक सफल एम एंड ए प्रक्रिया को चलाने के बारे में सूचना प्रदान करता है। रजिस्टर करने के लिए विज़िट करें corumgroup.com/events.

प्रस्तुति की मुख्य बातें:

  • टेक एम एंड ए अवलोकन: बाजार परिप्रेक्ष्य
  • 10 प्रमुख टेक्नोलॉजी रुझान
  • बेहतर परिणाम प्राप्त करना: एम एंड ए प्रक्रिया के 8 आवश्यक चरण
  • डील में गड़बड़ी से बचना
  • वरिष्ठ एम एंड ए सलाहकारों के साथ प्रश्नोत्तर

15 अप्रैल – मुंबई – जेडब्ल्यू मैरियट मुंबई सहार

17 अप्रैल – बेंगलुरु – हयात सेंट्रिक एमजी रोड

29 अप्रैल-गुरुग्राम-हिल्टन गुरुग्राम बानी सिटी सेंटर

 

*कार्यक्रम स्थल में प्रवेश सुबह 9:30 बजे शुरू होगा। प्रस्तुति सुबह 10:00 बजे शुरू होती है। पूर्व पंजीकरण आवश्यक है।

 

Corum Group के बारे में
Corum समूह विलय और अधिग्रहण सेवाओं में वैश्विक नेता है, जो दुनिया भर में सॉफ्टवेयर और संबंधित प्रौद्योगिकी कंपनियों के विक्रेताओं की सेवा में महारत रखता है। विश्व स्तर पर कार्यालयों के साथ, Corum ने लगभग 40 वर्षों में 500 से अधिक सॉफ्टवेयर एम एंड ए लेनदेन पूरे किए हैं। Corum के एम एंड ए सलाहकार अत्यधिक अनुभवी पूर्व तकनीकी सीईओ हैं, जो उद्योग के अग्रणी शोधकर्ताओं, लेखकों और मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा समर्थित हैं। अधिक जानकारी के लिए विज़िट करें corumgroup.com.

Media Contact Details

 

Heidi Owen
Corum Group
+1 425-526-3107
Best Regards,
Deepika Guleria 
Senior Executive – Media Relations

अथ अंगुलीकरण कथा

प्रिय नित अंगुली कीजिए,मार्निंग हो या नून
मिलता सबको अप्रतिम सुख,खिलते नवल प्रसून ।।

आज मैं यह कैसी विधा पर चर्चा करने जा रहा हूं जिसे अंगुलीकरण की विधा कहा जा सकता है।
यह विधा न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं वरन् अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली विधा है।

 इस विधा का अब तक कोई दस्तावेजी प्रमाण तो नहीं है परंतु आम जिंदगी से कन्वेंशनल और न्यू मीडिया के माध्यम से सनसनी फैलाने वाली  विधा है। इसलिए हम चर्चा कर रहे हैं।
तो चलिए हम करते हैं अंगुलीकरण विधा पर एक रोचक वार्ता तो कृपया अपनी  पेटी बांध लीजिए। और एक विद्यार्थी की तरह हमारी बातें सुनिए समझिए और स्वयं का परीक्षण कीजिए कि आप कहां हैं इस विधा में कितने पारंगत हैं…..
हमें हर मामले में उंगली करने में महारत हासिल है। अंगुली करने में हम भारत वालों की कोई तोड़ नहीं। हमें हर मुद्दे में उंगली करने में मज़ा आता है—ये सब हमने कृष्ण जी से सीखा। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाया, और हमने उनकी तर्ज़ पर हर मामले को उंगली पर उठाना शुरू कर दिया।
मेरे बारे में आप कम  ही जानते हैं, पर उंगली करने के  संदर्भ में बात हो तो आप सबसे आगे कूद पड़ेंगे।
आपकी अनावश्यक एंट्री पर कोई पूछेगा तो आप साफ कह दोगे – “बस मौज ले रहा था।”
अंगुली करने की वृत्ति पर शोध करो या ब्रह्म की खोज—बस एक ही आवाज़ गूंजती है, “नयाति-नयाति” यानी “नेति-नेति।”
तो अब जान लिया न , जो आपको  सीखना है वो सब उंगली कर-कर के सीखा जा सकता है।
मैंने तो कीबोर्ड पर उंगली कर करके कंप्यूटर सीख लिया, अब तो  डिजिटल अघोरी बन चुका हूं ।
पर एक बात है कि मेरी उंगली को आज तक कुछ नहीं हुआ—हाँ, कंप्यूटर फोन, रिश्ते नाते, दोस्ती  मैं जरूर बिगाड़ा हुआ है।
शिक्षा यही कि चाहे जितनी उंगली करो, उंगली का एक बाल भी बांका नहीं होगा। इतिहास गवाह है—कृष्ण जी की उंगली ने इंद्र की बोलती बंद कर दी, उनकी उंगली को कुछ हुआ क्या?
बीमार ने मनुष्य को बना कर उंगलियों को ऐसा अभयदान दिया कि कुछ भी कर लो, अंगुली का रत्ती भर नुकसान नहीं होगा।
आज देखो, कितने लोग उंगली उठाकर जीवन यापन कर रहे हैं।
टीवी चैनल वाले उंगली दिखा-दिखा कर आपकी हालत खराब करते हैं, आप इनकी उंगली पर उंगली नहीं उठा सकते।
कुछ  करना ही है तो अपने ही कानों में उंगली डाल लीजिए।
सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े धुरंधर उंगलीबाजी में बिज़ी हैं। स्टेडियम किंग्स में महारथी देर रात तक उंगली का खेल खेलते हैं। जित्तू भैया, तुमने तो बड़े-बड़े उंगलीबाजों को धंधे पर लगा दिया। एक उंगली से एम्पायर खिलाड़ी को आउट कर देता है। बिपाशा बसु से लेकर उर्फी ज़ावेद तक कम कपड़े पहनकर उंगली उठा उठा कर नाचती हैं —इनके दीवाने भी  थिरकते हैं, उधर संस्कारी बूढ़े कम कपड़े पहनने पर उंगली उठाकर कोसते तो हैं, पर डांस पूरा देखते हैं।
सड़क से सदनों तक यहां तक कि यू एन सहित पूरे विश्व के कई गठबंधनों जैसे यूरोपीय यूनियन, सार्क, आदि में कोई न कोई उंगली करू  होता ही है।
यू एन में तो आज़ादी के बाद  से ही पाकिस्तान कश्मीर को लेकर जब तब उंगली करता रहता है। बावजूद इसके कि हमने उसका पश्चिम हिस्सा काट दिया पर सब उंगली उठाने की आदत गई नहीं उसकी।
खैर छोड़ो  अंगुली अनंत अंगुली की कथा अनंता….!

नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर : माहेश्वर तिवारी ‘शलभ’

प्रसिद्ध कवि माहेश्वर तिवारी’ का जन्म 22 जुलाई, 1939 को उत्तर प्रदेश के बस्ती मण्डल के जिला संत कबीर नगर के मलौली गाँव में हुआ था।जो संत कबीर नगर के घनघटा तालुका में स्थित है । यह धनघटा से 2 किमी तथा संत कबीर नगर जिला मुख्यालय से 28 किमी दूर स्थित है। हैसर धनघटा नगर पंचायत में गांव सभा मलौली शामिल हुआ है । यह एक प्रसिद्ध चौराहा भी है जो राम जानकी रोड पर स्थित है । इस गांव ने सर्वाधिक अभी तक ज्ञात आठ कवियों (सात तो चतुर्वेदी परम्परा के हैं) ,को जन्म दिया है। मलौली के मूलनिवासी तथा मुरादाबाद को अपना कर्मक्षेत्र के रूप में चयन करने वाले नवगीत के सुप्रसिद्ध कवि श्री माहेश्वर तिवारी हिंदी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि थे। उनके पिता का नाम श्री श्याम बिहारी तिवारी है। वे राष्ट्रीय स्तर के गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। बस्ती जिले के महान साहित्यकार और राष्ट्रपति महोदय से शिक्षक सम्मान प्राप्त अवकाश प्राप्त स्मृति शेष प्रधानाचार्य डॉ मुनि लाल उपाध्याय ‘सरस’ ने अपने अप्रकाशित शोध ग्रन्थ बस्ती मण्डल के छन्दकार की पांडुलिपि के पृष्ठ पर “शलभ”जी को पृष्ठ 592 पर स्थान दिया है।

श्री माहेश्वर तिवारी का निधन 16 अप्रैल 2024 को हुआ था। हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव श्री संजय कुमार गर्ग द्वारा ‘शलभ’ जी के अविस्मरणीय साहित्यिक योगदान का स्मरण करते हुए इस प्रकार विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित किया था।  –

“हिन्दी की नवगीत धारा के प्रतिनिधि रचनाकार एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. माहेश्वर तिवारी जी जो उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद में और मुरादाबाद के साहित्यिक पर्याय थे। श्री माहेश्वर तिवारी जी का सृजन-संसार अपने समकालीन परिवेश एवं लोक मानस से निरंतर जुड़ा रहा है। उनके नवगीत अपनी विशेष रचना-दृष्टि अछूते बिम्बों और स्वस्थ कथ्यों के चलते पाठकों और श्रोताओं के मन को भीतर तक छूते हैं। माहेश्वर जी हिन्दी गीतिकाव्य परम्परा के उन गीतकारों में से एक थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन गीतों को समर्पित किया। उनके गीतों को पढ़कर, उनकी शैली से न जाने कितने कवि तैयार हुए। वे गीत को मंत्र की भांति मारक बनाने में निष्णात थे। नवगीतों का प्रकृति चित्रण इतना सजीव है कि जैसे प्रकृति स्वयं देह धारण करके वार्तालाप कर रही है। मंचों पर गीत धारा को निष्कलुष और जीवंत रखने में उनका योगदान अतुलनीय है।”

कुछ प्रमुख कृतियाँ :-

नवगीत-संग्रह

  1. हरसिंगार कोई तो हो,

  2. नदी का अकेलापन,

      3.   सच की कोई शर्त नहीं,

      4.   फूल आए हैं कनेरों में

“कविता कोश” से प्रकाशित गीत:-

कविता कोश असंख्य हिंदी कवियों को खोज खोज करके अपने मंच पर लाकर हिन्दी जगत को समृद्ध किया है। कोश ने ‘शलभ’ की जीवन परिचय के साथ उनके चयनित 25 गीत तथा एक बाल गीत को अपने प्रकाशन से जोड़कर आम जन मानस के करीब लाने का स्तुतय प्रयास किया है –

सोये हैं पेड़

झील का ठहरा हुआ जल

याद तुम्हारी

आओ हम धूप-वृक्ष काटें

सारे दिन पढ़ते अख़बार

गहरे गहरे-से पदचिन्ह

मन है

हसो भाई पेड़

जिन्दगी अपनी हुई है मैल कानों की

बहुत दिनों के बाद

 कुहरे में सोए हैं पेड़

 गर्दन पर, कुहनी पर, जमी हुई मैल सी

मुड़ गया इतिहास फिर

छोड़ आए हम अजानी घाटियों में

 भरी-भरी मूँगिया हथेली पर

एक तुम्हारा होना

 मुड़ गए जो

टूटे खपरैल-सी

 फागुन का रथ

 चिरंतन वसंत

गया साल

चिट्ठियाँ भिजवा रहा है गाँव

 आज गीत गाने का मन है

याद तुम्हारी जैसे कोई कँचन-कलश भरे।

बाल कविताएं

पत्ते झरने लगे

विविध कृतियां :-

नवगीतों का विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेज़ी में अनुवाद तथा कैसेट काव्यमाला (वीनस कम्पनी)।

सम्मान:-

उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान सहित शताधिक संस्थाओं से सम्मानित।

प्रकाशन :-

प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओं तथा अनेक समवेत संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन।

प्रसारण : –

दूरदर्शन दिल्ली,लखनऊ व आकाशवाणी रामपुर व बरेली से अनेक बार कविता- कार्यक्रम प्रसारित।

व्यवसाय:-

लगभग दो दशक तक प्राध्यापन तथा पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद स्वतंत्र लेखन मुरादाबाद से किया।

स्थायी पताः-

1.ग्राम पोस्ट मलौली, धनघटा, जिला सन्त कबीर नगर उत्तर प्रदेश।

 2.पत्राचार एवं स्थायी पताः ‘हरसिंगार’,ब/म- 48, नवीन नगर, काँठ रोड, मुरादाबाद-244001 (उ०प्र०)

माहेश्वर तिवारी की काव्य यात्रा

इस पोस्ट में प्रसिद्ध कवि ‘महेश्वर तिवारी’ को काव्य यात्रा के कुछ प्रमुख पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

इस सदी का गीत हूँ मैं , गुन गुनाकर देखिए ; एक आलेख

हिन्दी नवगीत के महत्वपूर्ण और अद्भुत हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त आंचलिक शब्द, मुहावरे और जीवन-जगत से जुड़े अनूठे प्रयोग उन्हें अन्य नवगीत- कारों में एक अलग विशेष पहचान दिलाते हैं।

उनके नवगीतों में भारतीयता की सांस्कृतिक सुगंध अपने समय के युगबोध और मूल्यबोध के साथ उपस्थित है, कथ्य और शिल्प में प्रयोगवादी स्वर है तो नवता के साथ। उन्होंने अपने नवगीतों में वर्तमान परिवेश के लगभग हर पहलू को सार्थक अभिव्यक्ति दी है, चाहे राजनीति का विद्रूप चेहरा हो, व्यवस्थाओं की अव्यवस्थित स्थिति हो, आम-आदमी की विवशताओं का चित्रण हो या फिर सामाजिक विषमताएं हों-

‘बर्फ होकर

जी रहे हम तुम

मोम की जलती इमारत में

इस तरह

वातावरण कुहरिल

धूप होना

हो रहा मुश्किल

जूझने को

हम अकेले हैं

एक अंधे महाभारत में’।

सुन रहा हूँ शेर की खालें दिखाकर

नवगीत ने हमेशा अपने समय केअधुनातन संदर्भों के यथार्थ को मुक्तछंद की कविताओं के समांतर ही उजागर किया है। कविता में यथार्थ का अर्थ सपाटबयानी या समाचार-वाचन नहीं होता, सच्ची कविता में यथार्थ की उपस्थिति भी अपनी संवेदनशीलता और काव्यत्व की ख़ुशबू के साथ होती है।

माहेश्वर तिवारी के नवगीतों में यथार्थ का चित्रण इसी काव्यत्व की ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह आम धारणा के साथ-साथ कड़वी सच्चाई भी है कि आज के समय में राजनीति के क्षेत्र में वही व्यक्ति सफल है या हो सकता है जो छल-छंद, मक्कारी, दबंगई और अनैतिक चातुर्य में निपुण हो। राजनीति के ऐसे ही विद्रूप पक्ष को अपनी पंक्तियों में माहेश्वर तिवारी प्रभावी रूप से व्यक्त करते हुए मंथन करने पर विवश करते हैं-

‘सुन रहा हूँ

शेर की खालें दिखाकर

मेमने कुछ फिर किसी

मुठभेड़ में मारे गए

फिर हवा ने

मुखबिरी की चंद फूलों की

और बन आई

खड़े काले बबूलों की

कई कागज लिए बादामी

गाँव को जब

चंद हरकारे गए’

आने वाले हैं ऐसे दिन आने वाले हैं।

    एक अन्य नवगीत में भी माहेश्वर तिवारी अपने मन की इन्हीं पीड़ाओं को प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त करते हुए साम्राज्यवादी नीतियों के ख़तरों के प्रति आगाह करते हैं-

‘आने वाले हैं

ऐसे दिन आने वाले हैं

जो आँसू पर भी

पहरे बैठाने वाले हैं

आकर आसपास भर देंगे

ऐसी चिल्लाहट

सुन न सकेंगे हम अपने ही

भीतर की आहट

शोर-शराबे ऐसा

दिल दहलाने वाले हैं’।

आज तथाकथित कुछ सुख-सुविधाओं की तलाश में आदमी का वास्तविक सुख- चैन ख़त्म हो गया है। कभी किसी कारण से तो कभी किसी कारण से दिन-रात तनावग्रस्त रहना और चिन्ताओं की भट्टी में पल-पल गलते रहना उसकी नियति बन गई है। चिट्ठियां भिजवा रहा है गाँव

महानगरीय जीवन में व्याप्त इन्हीं विद्रूपताओं और विसंगतियों से व्यथित माहेश्वर तिवारी गांव वापस लौटने की आत्मीयता से लबालब गुहार लगाते हैं क्योंकि कवि को लगता है कि शहर की तुलना में गांव का जीवन अधिक सरल और सुकून भरा है-

‘चिट्ठियां भिजवा रहा है गाँव

अब घर लौट आओ

थरथराती गंध

पहले बौर की कहने लगी है

याद माँ के हाथ

पहले कौर की कहने लगी है

थक चुके होंगे सफर में पाँव

अब घर लौट आओ’।

 माहेश्वर तिवारी हिन्दी नवगीत के एक समर्थ रचनाकार हैं। उनके रचना कर्म का कैनवास बहुत विस्तृत है, मुझे नहीं लगता कि उनकी लेखनी से कोई भी विषय छूटा हो। सामान्य सी बात है कि प्रेम का हर व्यक्ति से गहरा नाता होता है।

उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर अपने समय के यथार्थ को बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ महसूस करते हुए उकेरा है वहीं दूसरी ओर काग़ज के कोरेपन की तरह पवित्र प्रेम को भी मिठास की खुशबू भरे शब्द दिए हैं।

प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। माहेश्वर तिवारी के प्रेम की चाशनी में पगे गीतों में भी वही परंपरागत स्वर अपनी चुम्बकीय शक्ति के साथ विद्यमान है लेकिन नवता की मिठास के साथ-

‘डायरी में

उँगलियों के फूल से

लिख गया है

नाम कोई भूल से

सामने यह खुला पन्ना

दिख गया हो

कौन जाने आदतन ही

लिख गया हो

शब्द जो

सीखे कभी थे धूल से’।

माहेश्वर तिवारी का एक गीत जो रचा तो गया सन् 1964 में लेकिन आज आधी सदी बीत जाने बाद भी उतना ही ताज़गी भरा लगता है जितना रचे जाने के समय होगा। यह गीत केवल चर्चित ही नहीं हुआ बल्कि उनकी पहचान का गीत भी बना-

‘याद तुम्हारी जैसे कोई

कंचन-कलश भरे

जैसे कोई किरन अकेली

पर्वत पार करे।

लौट रही गायों के संग-संग

याद तुम्हारी आती

और धूल के संग-संग मेरे।

माथे को छू जाती

दर्पण में अपनी ही छाया-सी

रह-रह उभरे।

जैसे कोई हंस अकेला

आंगन में उतरे’।

 लगभग सभी विषयों सन्दर्भों को उनके नवगीत आत्मसात करते हुए श्रोताओं से, पाठकों से सीधा संवाद करते हैं। उनके नवगीत ज़मीन से जुड़कर तो बात करते ही हैं, हमें ऐसे दिवालोक में भी ले जाते हैं –

जहां ‘खिलखिलाते हैं । नदी में/ जंगलों के गेह’, ‘दूर तक फैला हुआ तट/चाँदनी में सो गया है’, ‘डालों से उलझी है शाम/कनेरों वाली मुंडेरों पर’, ‘किसी स्वेटर की तरह/बुनकर/दिशाएं खुल गई हैं’, ‘मटर की ताज़ी फलियों से दिन’ और ‘कच्ची अमियां की फांकों-सी आँखें’ हैं।

शायद ही किसी ने पत्तियों को ताली बजाते देखा हो,  माहेश्वर तिवारी के नवगीतों में पत्तियां भी ताली बजाती हैं-

‘पेड़ का

गाना सुना है क्या

पत्तियां

ताली बजाती हैं

और

सुर में सुर मिलाती हैं

यह कभी

हमने गुना है क्या’

गीतों की मिठास में हम झूम-झूम जाते हैं । विख्यात साहित्यकार दयानन्द पाण्डेय के शब्दों में कहें ‘माहेश्वर तिवारी के गीतों की मिठास में हम झूम-झूम जाते हैं। फिर जब इन गीतों को माहेश्वर तिवारी का सुरीला कंठ भी मिल जाता है तो हम इन में डूब-डूब जाते हैं। इन गीतों की चांदनी में न्यौछावर हो-हो जाते हैं। माहेश्वर तिवारी हम में और माहेश्वर तिवारी में हम बहने लग जाते हैं। माहेश्वर तिवारी के गीतों की तासीर ही ऐसी है। करें तो क्या करें?’ स्वयं  तिवारी जी भी कहते हैं-

‘सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए-

इस सदी का गीत हूँ मैं, गुनगुनाकर देखिए’।।

हर नवगीत पर तैयार हो सकता है आलेख :-

श्री माहेश्वर तिवारी के रचना-संसार में नवगीतों के अनेकानेक बहुमूल्य रत्न हैं। उनके एक-एक नवगीत के संदर्भ में बात की जाए तो हर नवगीत पर एक आलेख तैयार हो सकता है। उनके रचनाकर्म के संदर्भ में कुछ भी लिख पाना विख्यात शायर स्व. कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के इस शे’र जैसा ही है-

लब क्या बतायें कितनी

अज़ीम उसकी जात है।

सागर को सीपियों से

उलीचने की बात है।’

  एक सुदीर्घ यात्रा में उन्होंने जीवन को जैसे गीत-संगीत की तरह साधा है. छोटी बहार के गीतों में भी वे जान फूँक देते हैं.

कभी जब नई कविता और गीत में फॉंक न थीं, नई कविता के साथ गीत की संगत चलती थी. अनेक नए कवियों ने गीत लिखे, सप्तवक परंपरा के कवि इस बात के प्रमाण हैं कि नई कविता के साथ नए गीतों का कोई वैर था. नवगीतों पर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की छंद परंपरा का वरदहस्त रहा तो प्रयोगवादी कविता के प्रवर्तक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के मन में भी गीतों को लेकर एक सकारात्मक भाव विद्यमान था. लेकिन धीरे-धीरे सप्तक के बाद गीतकारों को लगा कि एक अलग राह हमें चुननी चाहिए. नई कविता में हमारी समाई नहीं है. कभी अज्ञेय ने जिस भाव से कहा था छंद में मेरी समाई नहीं है, कुछ-कुछ उसी भाव बोध से नए गीतकारों ने अपनी राह तलाशी।

माहेश्वार तिवारी के तमाम गीत इन पत्रिकाओं में छपे. ‘धूप में जब भी जले हैं पांव घर की याद आई’ जैसे संवेदनशील गीत के माध्यम से माहेश्वर तिवारी ने गीत को नए स्थापत्य की संरचना में बांधने का यत्न किया-

आज गीत

गाने का मन है

अपने को

पाने का मन है।

अपनी छाया है

फूलों में

जीना चाह रहा

शूलों में।

मौसम पर

छाने का मन है।

नदी झील

झरनों सा बहना

चाह रहा

कुछ पल यों रहना।

चिड़िया हो

जाने का मन है।

याद तुम्हारी’

उनकी सबसे प्रिय रचना है- ‘याद तुम्हारी’. उसका हर अंतरा जैसे दिल की भीतरी सतहों को छूता हुआ रचा गया है-

याद तुम्हारी जैसे कोई

कंचन-कलश भरे।

जैसे कोई किरन अकेली

पर्वत पार करे।

लौट रही गायों के

संग-संग

याद तुम्हारी आती

और धूल के

संग-संग

मेरे माथे को छू जाती

दर्पण में अपनी ही छाया-सी

रह-रह उभरे,

जैसे कोई हंस अकेला

आंगन में उतरे।

जब इकला कपोत का

जोड़ा

कंगनी पर आ जाए

दूर चिनारों के

वन से

कोई वंशी स्वर आए

सो जाता सूखी टहनी पर

अपने अधर धरे।

लगता जैसे रीते घट से

कोई प्यास हरे।

बाल गीत में भी महारत

पत्ते झरने लगे

पत्ते झरने लगे डाल से।

एक-एक कर-

दाँत गिर रहे जैसे-

बूढ़ी दादी के,

बर्फ पड़े तो लगते

जैसे, बिखरे

टुकड़े चाँदी के।

धीरे चलने वाला सूरज

राह नापता तेतज चाल से।

दिन छिलके उतारकर, लगते-

रक्खे उबले आलू से,

रातें लगतीं, जैसे हों-

निकलीं नदियों के बालू से!

मौसम से डर लगता

जैसे, इम्तहान वाले सवाल से।

(साभार: पराग, फरवरी, 1980, 54)

तीन कविताएं :-

एक

हमारे सामने

एक झील है

       नदी बनती हुई

एक नदी है

महासागर की अगाधता की

खोल चढ़ाए हुए

एक समुद्र है

      द्विविधा के ज्वार-भाटों में

                 फँसा हुआ

हमें अपनी भूमिका का चयन करना है ।

दो

आया है जबसे

           यह सिरफिरा वसन्त

सारा वन

थरथर काँप रहा है

ऋतुराज भी शायद डरावना होता है

ऐसा ही होता होगा

               तानाशाह ।

तीन

नया राजा आया

जैसे वन में आते हैं नए पत्ते

और फूल

पियराये झरे पत्तों की

सड़ांध से निकलकर

सबने ख़ुश होकर बजाए ढोल, नगाड़े।

अब वह ढोल और नगाड़े राजा के

पास हैं

जिनके सहारे वह

हमारी चीख़ और आवाज़ों से

बच रहा है ।

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

चित्रनगरी संवाद मंच पर लेखिका मधु काँकरिया ने बताया से रोचक संवाद

आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
अदम गोंडवी के इस शेर के हवाले से कथाकार मधु कांकरिया ने कहा कि लेखन के साथ ही लेखक की यात्रा शुरू हो जाती है। वह जो देखता है वही दिखाता है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। मैंने भी जो देखा अपने लेखन में वही दर्ज किया। रविवार 13 अप्रैल 2025 को केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव के मृणालताई हाल में आयोजित चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई के सृजन संवाद में डॉ मधुबाला शुक्ल ने मधु कांकरिया से विस्तृत बातचीत की।
झारखंड के आदिवासियों पर बात करते हुए मधु जी ने कहा कि उनका जीवन बहुत कठोर है। भारत मंदिरों का देश है लेकिन वहां कोई मंदिर नहीं है। वृक्ष और पहाड़ ही उनके देवता हैं। किसी के मरने पर भी वे पेड़ नहीं काटते। सूखी लड़कियां इकट्ठा करके ही दाह कर्म करते हैं। मधु कांकरिया ने कश्मीर के आतंकवाद पर भी बात की और महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या पर भी। उन्होंने जालना जिले के गांवों में कुछ किसानों की आत्महत्या की मार्मिक दास्तान सुना कर सबको विचलित कर दिया। कोलकाता के रेड लाइट एरिया की औरतों की अंधेरी ज़िंदगी पर भी मधु जी ने रोशनी डाली।
कार्यक्रम के संचालक देवमणि पांडेय ने मधु कांकरिया का परिचय दिया। ‘मेरी ढाका डायरी’ पर लिखी चार लेखकों की टिप्पणी के अंश भी उन्होंने पेश किए। इनमें शामिल थे- डॉ विजय कुमार, ओमा शर्मा, गंगा शरण सिंह और प्रज्ञा रोहिणी। जाने माने उदघोषक आनंद सिंह ने ‘मेरी ढाका डायरी’ के एक अंश का पाठ किया जिसमें प्रेम में टूटी हुई एक स्त्री फ़ौजिया की अद्भुत दास्तान थी।
अपनी किताब पर चर्चा करते हुए मधु कांकरिया ने बताया कि पहले ढाका में सूफ़ियाना इस्लाम था। अब मज़हबी रंग दिखाई देता है। बाहरी मुल्कों से पैसा आ रहा है। पिछले दस सालों में ढेर सारी मस्जिदें बनी हैं मगर स्कूल और थिएटर नहीं बने। कल्चर और रिलीज़न के बीच युवा कंफ्यूज़ हैं। मज़हब मजबूत हो रहा है और संस्कृति कमज़ोर हो रही है। पहले हिंदू लोग सड़कों पर बिंदास होली खेलते थे। अब घर के अंदर खेलते हैं। लोगों के मन में एक अनजाना डर बैठ गया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों ने तस्लीमा नसरीन की किताब ‘लज्जा’ नहीं पढ़ी है वे भी तसलीमा नसरीन का विरोध करते हैं।
हिंदी एवं उर्दू बोलने के कारण बिहारी और पंजाबी मुसलमानों को सन् 1971 में किस यातना से गुज़रना पड़ा था मधु कांकरिया ने उसका भी चित्र पेश किया और उनकी मौजूदा स्थिति पर भी प्रकाश डाला। अशोक राजवाड़े, आनंद सिंह, कृपा शंकर मिश्र, प्रदीप गुप्ता आदि कई लेखकों ने मधु कांकरिया से सवाल पूछे। उन्होंने सबका समुचित जवाब दिया। एक सवाल के जवाब में मधु जी ने कहा कि जैसे मुंबई में कई मुंबई हैं इसी तरह ढाका में कई ढाका हैं। अमीर बहुत ज़्यादा अमीर हैं और ग़रीब बहुत ज़्यादा ग़रीब। कुल मिलाकर सृजन सम्वाद में ढाका के समाज, साहित्य, भाषा, संस्कृति, मज़हब और इतिहास पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई।
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार श्रीकांत आप्टे ने ‘धरोहर’ के अंतर्गत कालजयी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की चर्चित कविता ‘चार कौवे’ का पाठ किया। कवि कृपा शंकर मिश्र ने देश भक्ति की रचना सुनाई। न्यूयॉर्क से पधारी गायिका अरुणा गुप्ता के गायन से कार्यक्रम का समापन हुआ।

कोटा की विज्ञान कथा लेखिका प्रज्ञा गौतम मिलेगा राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार

कोटा/ कोटा की विज्ञान कथा लेखिका प्रज्ञा गौतम को विज्ञान परिषद् प्रयाग, इलाहाबाद द्वारा उनके विज्ञान कथा संग्रह ”  ” धरती छोड़ने के बाद” कृति पर 10 हजार रुपए के “श्रीमती उमा प्रसाद विज्ञान लेखन पुरस्कार ” से सम्मानित करने की घोषणा की गई है। यह पुरस्कार विज्ञान की किसी भी विधा पर लिखी पुस्तक पर दिया जाता है। देश भर से प्राप्त महिला विज्ञान लेखिकाओं की पुस्तकों में से इस पुस्तक पर निर्णय लिया गया। इस कृति पर ही इन्हें पिछले वर्ष सलूंबर की संस्था सलिला ने  पुरस्कृत किया था।
इस विज्ञान कथा संग्रह में  11 विज्ञान कथाएं हैं जिनका  कलेवर बहुत विस्तृत है। कहानियां रोबोटिक्स, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उदय, विचित्र रोगों और पर्यावरण संदर्भों से लेकर भविष्य के मानव समाज के विभिन्न परिदृश्यों को प्रस्तुत करती हैं। कहानियां भविष्य के तकनीकी रूप से समुन्नत समाज में मानव के संघर्ष और द्वंद्व को दर्शाती ये कहानियां विज्ञान के प्रति तो अभिरुचि जगाती ही हैं, वरन् युवाओं को संदेश भी देती हैं।
     प्रज्ञा कई वर्षों से विज्ञान कथाएं लिख रही हैं । यह हाड़ोती में एक मात्र और राजस्थान की श्रेष्ठ विज्ञान कथा लेखकों में शामिल हैं।
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प्रेषक : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
स्वतंत्र अधिस्वीकृत पत्रकार, कोटा

डॉ. कृष्णा कुमारी को मिलेगा मायड़ भाषा पुरस्कार

कोटा  / कोटा की साहित्यकार डॉ. कृष्णा कुमारी को आगामी 20 अप्रैल को डेह ( नागौर ) में ” मायड़ भाषा पुरस्कार – 2025″ से सम्मानित किया जायेगा। उन्हें यह पुरस्कार उनकी राजस्थानी भाषा की कृति “अस्यो छै म्हारो गाँव ” के लिए प्रदान किया जाएगा।
इनके द्वारा लिखी पुस्तक’अस्यो छ म्हारो गांव’ पर डॉ. हरिकृष्ण शर्मा कहते हैं, ” बहुत शानदार भावों की पकड़ व भावाभिव्यक्ति सुंदर व्यंजना हृदय को छूते विषय । क्या ही भाषा मुक्तछंद में भी सुंदर लालित्य । ज्वांईसा ,संकर्यात,सख्यो सोमार, धरमकरम,थां ई जांणों सबसे पहले ये कविताएं जब पढ़ी तो राजस्थानी  मंचीय कवियों को सुनकर जो मेरी धारणा बनी थी वह बिल्कुल बदल गई। मुझे लगा राजस्थानी में भी बहुत कुछ भावपरक लिखा जा रहा है। शब्द और अर्थ से परे जो ध्वनि आपके काव्य की है वह बहुत कबीले तारीफ है। कविता के विषय आंखों के आगे चित्रित से हो जाते है,आपकी हर कविता जन – मन के भावों की अभिव्यक्ति है। एक श्रेष्ठ कवि की पहचान भी यही है कि जो कोई भी उसके काव्य को पढ़ें तो उसे लगे कि ऐसा तो हम भी लिख सकते है परन्तु लिखने बैठे तो एक कदम भी आगे न बढ़ सके। यहीं सादगी ही आपकी कविताओं का अलंकार है। “

संवैधानिक वैविध्य के विषयोपासक बाबा साहब आंबेडकर

14 अप्रैल जयंती विशेष

मालवा की धरती ने अपने रत्नगर्भा होने के प्रमाण न केवल वर्तमान के आलोक में दिया बल्कि सनातनकाल से इस धरणी ने कोटिशः रत्नों को जन्म देकर, उनका पल्लवन और पोषण कर देश और दुनिया को दिया है। वैसे तो मालवा में इंदौर के समीप महू मुख्यतः ‘सैन्य युद्ध मुख्यालय (मिलेट्री हेडक्वॉर्टर ऑफ़ वार) के नाम से पहचाना जाता है। इसी महू में 14 अप्रैल 1891 को सूबेदार रामजी शकपाल एवं भीमाबाई की चौदहवीं संतान के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म हुआ। भारत को जातिगत विषमताओं से मुक्त करने के लिए  इस महामकार्य किया जिनके करना ही आज वह लोगों की आस्था का केंद्र भी बने हुए है। राष्ट्र की वैचारिक और बौद्धिक सम्पदा में अकूत परिमार्जन करने वाले ऐसे महामानव शताब्दियों में एक आध जन्म लेते है।

बाबा साहब का मूल उपनाम अम्बावाडेकर था। लेकिन उनके शिक्षक, महादेव अम्बेडकर, जो उन्हें बहुत मानते थे, ने स्कूल के समस्त दस्तावेज़ों में उनका नाम अम्बावाडेकर से अंबेडकर कर दिया। डॉ. अंबेडकर के पूर्वज काफ़ी समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी में कर्मचारी थे और उनके पिता ब्रिटिश इंडियन आर्मी में तैनात भी थे। परिवार की आर्थिक परिस्थितियों पर पार पाते हुए बाबा साहब ने उच्च शिक्षा हासिल भी की और विदेश जाकर अर्थशास्त्र डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाले पहले भारतीय बाबासाहेब थे। शासकीय नौकरियाँ करते हुए मुंबई के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में दो साल तक प्रिंसिपल पद पर भी उन्होंने कार्य किया।

आज़ादी के पहले तक बाबा साहेब अंबेडकर भले ही पूर्ण रूप से राजनीति से नहीं जुड़े किंतु समाज में दलितों के उत्थान के लिए वे लगातार संघर्षशील रहे, बावजूद इसके बाबा साहेब की तत्कालीन सियासत और वक्त दोनों पर पूरी नज़र थी। दलितों के साथ तात्कालिक समाज छुआछूत का व्यवहार करता था इस कारण बाबा साहब को समाज सुधार का विचार आया। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘वेटिंग फॉर वीज़ा’ में लिखा है कि ‘स्कूल में मैं यह भी जानता था कि ऊँची जाति के लड़कों को जब प्यास लगती तो वे मास्टर से पूछकर नल पर जाते और अपनी प्यास बुझा लेते थे। पर मेरी बात अलग थी। मैं नल को छू नहीं सकता था। इसलिए मास्टर की इजाजत के बाद चपरासी का होना जरूरी था। अगर चपरासी नहीं है तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था। घर में भी कपड़े मेरी बहन धोती थी। सतारा में धोबी नहीं थे, ऐसा नहीं था। हमारे पास धोबी को देने के लिए पैसे नहीं हो, ऐसी बात भी नहीं थी। हमारी बहन को कपड़े इसलिए धोने पड़ते थे क्योंकि हम अछूतों का कपड़ा कोई धोबी धोता नहीं था। हमारे बाल भी मेरी बड़ी बहन काटती थी क्योंकि कोई नाई हम अछूतों के बाल नहीं काटता था। मैं यह सब जानता था। लेकिन उस घटना से मुझे ऐसा झटका लगा जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। उसी से मैं छुआछूत के बारे में सोचने लगा। उस घटना के पहले तक मेरे लिए सब कुछ सामान्य-सा था, जैसा कि सवर्ण हिंदुओं और अछूतों के साथ आम तौर पर होता है।’

8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसकी सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है। वे लगातार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उनके बड़े नेताओं महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू की ग़लत और सही नीतियों की आलोचना करते थे। यहाँ तक कि मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना को भी उन्होंने नहीं बख़्शा था। वैसे तो अंबेडकर की इन तीनों ही नेताओं से कई मुद्दों पर विरोध और असहमति थी, लेकिन सबसे बड़ा और अहम विरोध था भारत के विभाजन का। दरअसल, अंबेडकर का भारत को देखने का बिल्कुल ही अलग नज़रिया था। वे पूरे राष्ट्र को अखंड देखना चाहते थे, इसलिए वे भारत के टुकड़े करने वालों की नीतियों के आलोचक रहे। भारत को दो टुकड़ों में बांटने की ब्रिटिश हुक़ूमत की साजिश और अंग्रेज़ों की हाँ में हाँ मिला रहे इन तीनों ही भारतीय नेताओं से वे इतने नाराज़ थे कि उन्होंने बाकायदा पाकिस्तान के विभाजन को लेकर एक पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ लिखी थी, जो बहुत ही चर्चा में आई।

बाबा साहब जिन मुद्दों पर अडिग थे, कांग्रेस उन मुद्दों पर आज भी सहमत नहीं है। मसलन, समान नागरिक संहिता एवं अनुच्छेद 370 की समाप्ति, संस्कृत को राजभाषा बनाने की माँग एवं आर्यों के भारतीय मूल का होने का समर्थन आदि। बाबा साहब देश में समान नागरिक संहिता चाहते थे और उनका दृढ़ मत था कि अनुच्छेद 370 देश की अखंडता के साथ समझौता है।

अपने विवादास्पद विचारों और गांधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा एक गंभीर विद्वान और विधिवेत्ता की थी, जिसके कारण जब 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अंबेडकर को देश के पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। 26 नवंबर,1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया।

बाबा साहब वामपंथियों के विरोधी भी थे। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए बाबा साहब ने कहा था कि ‘वामपंथी इसलिए इस संविधान को नहीं मानेंगे क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नही हैं’, बाबा साहब के इस वक्तव्य ने वामपंथ के प्रति विरोध ही दर्शा दिया, सोचने की बात है कि बाबा साहब जैसा लोकतांत्रिक समझ का व्यक्तित्व वामपंथियों के प्रति कितना विरोध रखता होगा! यह बात अलग है कि बाबा साहब के सपनों को सच करने का ढोंग आजकल वामपंथी भी रचने लगे हैं।

14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में अंबेडकर ने ख़ुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 1948 से अंबेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे, इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमज़ोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। 6 दिसंबर 1956 को काल के चक्र ने बाबा साहब अंबेडकर के शरीर को छीन लिया और बाबा साहब अक्षर देह में परिवर्तित होकर आज भी प्रासंगिक और प्रामाणिक होने के साथ-साथ संवैधानिक वैविध्य के विषयोपासक हैं।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
पता: 204, अनु अपार्टमेंट, 21-22 शंकर नगर, इंदौर (म.प्र.)
संपर्क: 9893877455 | 9406653005
अणुडाक: drarpanjainvichal@gmail.com
अंतरताना: www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

सुखराज नाहर बने नाकोड़ा दर्शन धाम के अध्यक्ष

राष्ट्रसंत चन्द्रानन सागर ने की नियुक्ति की घोषणा, तीर्थ का होगा तेज विकास 
मुंबई। देश के प्रसिद्ध डेवलपर और नाहर ग्रुप के चेयरमेन सुखराज नाहर को नाकोड़ा दर्शन धाम का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। नाकोड़ा दर्शन धाम के संस्थापक राष्ट्रसंत आचार्य चन्द्रानन सागर सूरीश्वर महाराज द्वारा यह घोषणा की गई है। मुंबई के पास  अहमदाबाद हाईवे पर विरार के आगे ढेकाले विलेज में स्थित है। जैन धर्म के इस तेजी से उभरते तीर्थ की मुंबई एमएमआर रीजन एवं दक्षिण गुजरात में काफी बड़ी प्रतिष्ठा है और यहां तीर्थयात्रियों का भी रोजाना बड़ी संख्या में आवागमन होता है। नाकोड़ा दर्शन धाम का विकास तेजी से अग्रसर है और अब यह काम नए अध्यक्ष सुखराज नाहर के नेतृत्व में संपन्न होगा।
नाहर ग्रुप के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक सुखराज नाहर देश के प्रमुख रियल एस्टेट डेवलपर है। सन 1975 में रियल एस्टेट क्षेत्र में शुरूआत करने वाले सुखराज नाहर ने 20 मिलियन वर्ग फुट से अधिक के प्राइम रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स विकसित किए हैं।  परिवारों के लिए उपयुक्त उच्च गुणवत्ता वाली परियोजनाओं का विकास नाहर ग्रुप की विशेषता है। उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया समूह द्वारा ‘वननेस ऑफ महावीर एंड महात्मा अवार्ड’, नवभारत टाइम्स द्वारा ‘हिंदी भाषी अचीवर्स अवार्ड’ और एकोमोडेशन टाइम्स द्वारा ‘मैन ऑफ द ईयर अवार्ड’ मिले है। नाहर ग्रुप ने राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल, अस्पताल और चैरिटेबल संस्थानों की स्थापना की है। उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए छात्रवृत्ति कार्यक्रम भी शुरू किए हैं।
नाहर ग्रुप ने मुंबई में बाढ़ के दौरान राहत शिविरों का भी आयोजन किया और जरूरतमंद लोगों की मदद की और मुंबई में नाहर इंटरनेशनल स्कूल की स्थापना की है, जो अंतरराष्ट्रीय शिक्षा के उच्च मानकों को पूरा करता है। मंदिरों के निर्माण और विकास तथा संस्थापन के क्षेत्र में भी सुखराज नाहर का लंबा अनुभव रहा है। उन्होंने मुलुंड के सर्वोदय नगर और चांदीवली के नहर अमृत शक्ति में विशाल जैन मंदिरों का निर्माण करवाया है। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।  जैन इंटरनेशनल ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (जीतो) के 2 वर्ष तक सुखराज नाहर एपेक्स प्रेसिडेंट रहे हैं और उससे पहले 4 वर्ष तक जीतो मुंबई जोन के अध्यक्ष के रूप में भी उल्लेखनीय सेवाएं दी है। वर्तमान में सुखराज नाहर एमसीएचआई के मुंबई जोन के प्रेसिडेंट के रूप में भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
राष्ट्रसंत आचार्य चन्द्रानन सागर सूरीश्वर महाराज द्वारा स्थापित नाकोड़ा दर्शन धाम एक प्रमुख जैन तीर्थ स्थल है। यह तीर्थ स्थल नाकोड़ा भैरव देव को समर्पित है, जो हर साल लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। यहां विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम भी आयोजित होते रहे हैं। सुखराज नाहर को जिस नाकोड़ा दर्शन धाम का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, वह न केवल जैन धर्म के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इस इलाके के आदिवासियों के जीवन के विकास में भी बड़ा सहायक संस्थान रहा हैं। नाकोड़ा दर्शन धाम में हर दिन सैकड़ों जैन धर्मावलंबी भैरव देव की पूजा एवं दर्शन के लिए पहुंचते है।
जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और परंपरा के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित नाकोड़ा दर्शन धाम जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस तीर्थ के नए अध्यक्ष के रूप में सुखराज नाहर की नियुक्ति एक महत्वपूर्ण कदम है। नाहर ग्रुप के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक के रूप में उन्होंने अपने करियर में कई सफल परियोजनाएं विकसित की हैं एवं मंदिरों के निर्माण एवं विकास का भी उन्हें  बड़ा अनुभव है, उनकी नियुक्ति नाकोड़ा दर्शन धाम के विकास और विस्तार में एक नई दिशा प्रदान कर सकती है। सुखराज नाहर की नियुक्ति के साथ, नाकोड़ा दर्शन धाम के विकास और विस्तार की नई संभावनाएं खुल सकती हैं। नाहर ग्रुप की उनकी विशेषज्ञता और अनुभव के साथ, नाकोड़ा दर्शन धाम को और भी आकर्षक और सुविधाजनक बनाया जा सकता है, जिससे जैन धर्म के अनुयायियों और दर्शनार्थियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण स्थल बन सके। सुखराज नाहर की नियुक्ति नाकोड़ा दर्शन धाम के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।

ह्रितिक रोशन के आते ही निरमा बाजार से गायब हो गया

एक ग़लती से सबकी पसंद से नापसंद बन गया वाशिंग पाउडर निरमा, डूब गया जमा – जमाया कारोबार आजकल के समय में तो सर्फ के नाम पर कई तरह के पाउडर सामने आ गए हैं, लेकिन एक समय ऐसा था जब सिर्फ निरमा का जादू हर घर में चला करता था। सिर्फ निरमा की धुलाई ही नहीं बल्कि गाना भी काफी मशहूर था।

निरमा के विज्ञापन में एक छोटी सी बच्ची सफेद फ्रॉक पहने दिखती थी, जिसकी तस्वीर निरमा के पैकेट पर भी छपी रहती थी। बता दें कि निरमा वाशिंग पाउडर के फाउंडर करसन भाई पटेल (Karsan Bhai Patel) थे, जिन्होंने देश की सबसे बड़ी एफएमसीजी (FMCG) कंपनी को भी टक्कर दी थी।करसन भाई पटेल ने अपने जीवन में काफी संघर्ष किया। उन्होंने साइकिल पर जाकर प्रोडक्ट बेचने का काम शुरू किया था और 17 हजार करोड़ का कारोबार खड़ा कर दिया परंतु आखिर ऐसा क्या हो गया कि कंपनी की पहचान माना जाने वाला प्रोडक्ट निरमा वाशिंग पाउडर अब कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। अब नए उत्पादों ने वाशिंग पाउडर निरमा की जगह ले ली है। अब यह प्रोडक्ट सिमटकर 6% पर आ गया है, जो कभी बाजार के 60 फीसदी पर कब्जा बनाए रखता था।

करसन भाई पटेल गुजरात के मेहसाणा जिले में एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते थे। वह अपने जीवन में शुरुआत से ही कुछ करना चाहते थे। जब उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो वह अहमदाबाद में लैब टेक्नीशियन की नौकरी करने लगे और बहुत ही जल्द उन्हें गुजरात सरकार के खनन एवं भूविज्ञान विभाग में सरकारी नौकरी भी मिल गई थी परंतु सरकारी नौकरी होने के बावजूद भी उनके मन में कुछ अलग करने का जज्बा था। लेकिन उनके जीवन में भूचाल आ गया।

दरअसल, करसन भाई पटेल की एक छोटी सी बेटी थी, जिसका नाम निरुपमा था। वह निरुपमा को जान से भी ज्यादा चाहते थे। उनकी यह इच्छा थी कि उनकी बेटी एक दिन पूरी दुनिया में नाम कमाए। परंतु उनकी बेटी निरुपमा की अचानक ही एक हादसे में जान चली गई। अचानक से हुए इस हादसे ने करसन भाई पटेल को अंदर से पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया। करसन भाई पटेल को धक्का तो लगा लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बिटिया के नाम से ही डिटर्जेंट प्रोडक्‍ट बनाना शुरू कर दिया।

वैसे करसन भाई ने निरमा के नाम से प्रोडक्ट बनाना तो शुरू कर दिया था लेकिन उनके सामने यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि बाजार में मौजूद HUL जैसी बड़ी कंपनियों का मुकाबला कैसे करें। लेकिन इसके बावजूद भी करसन भाई पीछे नहीं हटे। उन्होंने नई-नई स्‍ट्रैटजी अपनानी शुरू की। करसन भाई पटेल ने हर पैकेट पर लिखना शुरू किया कि ‘कपड़े साफ नहीं हो तो पैसे वापस।’

बस फिर क्या था, करसन भाई पटेल की यह तरकीब काम कर गई और लोगों ने उनका प्रोडक्ट खरीदना शुरू कर दिया। करसन भाई पटेल के प्रोडक्ट की मांग देखते ही देखते काफी ज्यादा बढ़ गई। जब करसन भाई पटेल ने यह देखा कि उनका कारोबार बढ़ रहा है तो उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर पूरा ध्यान बाजार पर लगा दिया।

करसन भाई पटेल अजब-गजब आइडिया निकालते रहते थे जिससे उनका प्रोडक्ट लोगों तक पहुंचे। करसन भाई पटेल ने तो अपने फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मियों को भी यह कह दिया था कि उनकी पत्नियां दुकानों पर जाकर रोजाना निरमा वाशिंग पाउडर ही मांगे और उनका यह आइडिया काम भी आया।

जब दुकानदारों के पास इस प्रोडक्ट की मांग बढ़ी तो निरमा प्रोडक्ट की बिक्री में भी इजाफा हुआ। सबकी पसंद निरमा… जैसे विज्ञापनों को घर-घर में पसंद किया जाने लगा। निरमा गर्ल ने भी इस प्रोडक्‍ट को काफी फेमस कराया। बता दें कि निरमा की मार्केट हिस्सेदारी साल 2010 में करीब 60% तक पहुंच गई थी।

निरमा की मांग बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ रही थी, जैसे ही निरमा बाजार में आता था वह तुरंत बिक जाता था। धीरे-धीरे निरमा ने दूसरे ब्रांड को भी पछाड़ दिया। साल 2005 तक आते-आते निरमा एक ब्रांड कंपनी बन चुकी थी। इतना ही नहीं बल्कि शेयर बाजार में भी लिस्टेड हो गई थी। कंपनी ने वॉशिंग पाउडर फील्ड में प्रतिस्पर्धा बढ़ती हुई देखी तो अन्य क्षेत्रों में भी निवेश शुरू किया।

सीमेंट कंपनी बनाई, जो देश के पांचवें नंबर पर है। निरमा यूनिवर्सिटी और केमिकल का कारोबार भी शुरू किया। ऐसे में पारंपरिक प्रोडक्ट वाशिंग पाउडर से ध्यान हटता चला गया। प्रोडक्ट में इनोवेशन ना होने के कारण से मार्केट में आने वाले प्रोडक्ट का सामना ना कर पाई।

वही कंपनी से एक गलती विज्ञापन में भी हुई। खासकर महिलाओं को टारगेट कर कंपनी विज्ञापन दिखाती थी परंतु ना जाने क्या कंपनी को सुझा कि इनोवेशन के नाम पर महिला की जगह पुरुष से कपड़े धुलवाने शुरू कर दिए। कभी हेमा मालिनी सहित बॉलीवुड की चार मशहूर अभिनेत्रियों से कंपनी ने विज्ञापन करवाया लेकिन निरमा कंपनी ने इस बार बॉलीवुड एक्टर ऋतिक रोशन को अपना ब्रांड एंबेसडर बना दिया।

बस गलती यही पर हो गई कि उनका प्रोडक्ट महिलाओं से कनेक्ट ना हो सका और निरमा का बाजार आउट हो गया। कभी डिटर्जेंट पाउडर बाजार के 60 फीसदी पर कब्जा रखने वाला प्रोडक्ट अब सिमटकर 6% पर आ गया है। परंतु निरमा आज भी एक कंपनी के तौर पर मूल्यवान ब्रांड है।

 साभार – Mr Rathore (@Raathore_) / X से