Wednesday, November 27, 2024
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बड़े बे आबरु होकर मॉडर्न आर्ट गैलरी से हम निकले…

अपनी इस दो कौड़ी की जिंदगी और ईश्वर से मुझे बस एक ही शिकायत है कि उसने मुझे सब सब कुछ दिया, सिर्फ ‘कला’ को  समझने की बुद्धि नहीं दी। अब तो लगता है, यह तमन्ना दिल में -लिये ही एक दिन कूच कर जाना होगा। वह दिन दोनों में से किसके लिए ज्यादा शुभ होगा, नहीं कह सकती, मेरे लिए या कला के लिए। ऐसा नहीं कि इस दिशा में कुछ किया नहीं जा सकता था। बेशक किया जा सकता था जैसे, या तो वह मुझे इस लायक बना देता कि मैं ‘कला’ को समझ सकूं या कला को इस लायक बना देता कि उसे समझा जा सके। लेकिन दोनों में से कुछ भी न हो सका,  सिवाय इसके कि कला-वीथियों से आर्ट गैलरियों के सैकड़ों चक्कर लगाने के बावजूद अपना-सा मुंह लिये यहां से  कोरी-की-कोरी लौट आयी।

यानी मेरी बुद्धि की काली कमली पर कला का रंग नहीं चढ़ पाया। शायर होती तो कहती, ‘बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।’ सोचती हूं तो हैरत होती है कि इन कलाकारों ने भी क्या अजीबो-गरीब चीज बनायी है- यह ‘कला’ कि भगवान की बनायी सब चीजों के ऊपर हो गयी। यानी भगवान की बनायी सृष्टि की ज्यादातर चीजें सिर में समा जाती हैं, लेकिन आदमी की बनायी कला सिर के ऊपर से निकल जाती है। इस शर्मिंदगी, इस ‘कोफ्त को जिन भोगा, तिन जानियां…आगे क्या कहूं, शायर होती तो कहती… एक बार कला-वीथी गयी थी। चित्रकार अमुक जी भी वहीं बैठे थे। मैंने कमर कस के कला को समझने का बीड़ा उठाया और भगवान का नाम ले कर कला-दीर्घा में प्रवेश कर गयी… जैसे हनुमान जी, सुरसा के मुंह में प्रवेश कर गये थे…अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर गये थे, बिना आगा-पीछा सोचे कि होइहैं सोई जो राम रचि राखा…

संप्रति, कला-वीथी में पहुंची और कलाकार ने जो रचि राखा था, उसे हर एंगिल से, पूरे मनोयोग से समझने की पुरजोर कोशिश में लग गयी। दो-चार चित्रों को देखने के बाद ही कामयाबी कदम चूमती-सी लगी क्योंकि पहला चित्र ही साफ-साफ समझ में आने लगा था। हरे-भरे बैक ग्राउंड में चित्रकार ने पेड़ बनाया था, बस।।। अच्छा चित्र था, उसे देख कर लगा कि आज तक जो मेरे और कला के बीच बैरन खाई थी, सो पट जायेगी। आज से ही इस पार मैं और उस पार कलावाली बात खत्म, भला हो चित्रकार का, समझ बढ़ी तो आत्मविश्वास बढ़ा। जिज्ञासा बढ़ी, और ज्यादा जानने की।

सो अमुक चित्रकार जी के पास पहुंची। आत्मविश्वास से लबालब भरा जाम छलकाते हुए बोली, “अमुक जी, इस चित्र के पेड़ को बनाने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?” “पेड़? पेड़ कहां है?” उन्होंने हैरानी से मुझे देखते हुए पूछा। “क्यों, यह रहा – यह वाला “वह पेड़ नहीं, औरत है,” अमुक जी घुरघुराये। लीजिए, हो गयी छुट्टी, कला के घर को खाला का घर समझ बैठने की नादानी का फलं भोग रही थी। फिर वही कोफ्त, कुढ़न और शर्मिंदगी…शायर होती तो कहती, ‘ये न थी हमारी किस्मत…’ शायर नहीं थी, तो चुपचाप खिसियायी-सी खिसक ली।

मन में रंज था कि अपनी कलात्मकता की कलई जो खुली, सो तो खुली ही, एक आदमी-से दीखते चित्रकार का दिल भी दुखाया। इस पाप का प्रायश्चित किसी प्रकार तो करना ही है। अतः मैं जल्दी-जल्दी दूसरे चित्रों को देखने लगी। दूसरा चित्र देखा। वह भी एक पेड़ ही था। मैंने मन को समझाया, यानी यह भी एक औरत है। उसके बाद तीसरा चित्र एक औरत का ही था। मैं सोच में पड़ गयी। जो पेड़ दिखता था, वह तो औरत थी, अब यह जो औरत दिख रही है, सो कला के हिसाब से क्या हो सकती है? पेड़… अमुक जी से पूछती हूं। इस पेड़ की …नहीं, इस औरत की… नहीं, इस चित्र की- यही ठीक रहेगा… कला-दीर्घावाली बात है। समझ-समझ कर बोलना है। ‘रे मन समझ-समझ पग धरियो?’…प्रश्न भी…प्रेरणावाला ही ठीक रहेगा।

तैयार हो कर फिर से पूछने पहुंची, “इस चित्र की प्रेरणा आपको कहां से मिली?” “कौन से चित्र की?” “वह औरतवाला।” “औरत ! वह तो मिल की चिमनी का चित्र है।” “अरे अमुक जी! क्या कहते हैं”, मैं चिचियायी, “सोच कर देखिए, कहीं आपसे भूल तो नहीं हो रही।।। देखिए न, ये औरत के लंबे-लंबे बाल।” मेरी दशा ऐसी हो रही थी, जिस पर काफी मात्रा में तरस खाया जा सके। हृदय मानो-रो-रो कर पुकार रहा था कि कलाकार अमुक जी ! भगवान के लिए इसे औरत कहो, औरत, मिल की चिमनी नहीं। बड़ी उम्मीद से कला-वीथी आयी हूं मैं। अब मेरी साख, मेरी इज्जत, तुम्हारे हाथ है। ‘मेरी पत राखो गिरधारी ओ गोबरधन, मैं आयी शरण तिहारी…’ “देखिए, ये काले लंबे बाल।” “वे बाल नहीं, चिमनी से उड़ता हुआ धुआं है…दरअसल मैंने महानगरीय प्रदूषण की जीती-जागती तसवीर खींचनी चाही है,” उन्होंने मुझे समझाया।

मुझमें साहस जागा, “लेकिन फिर औरत के रूप में क्यों?” “सामाजिक प्रदूषण का चित्र खींचना था न, इसलिए औरत से ज्यादा जीवंत प्रतीक और कहां मिलता?” “औरत को आपने और किस-किस प्रतीक के माध्यम से चित्रित किया है?” “इस चित्र-श्रृंखला में तो प्रदूषण के सारे पक्षों की प्रतीक औरत ही है। देखिए, बेहिसाब धुआं, कालिख फेंकती ट्रक, जलत्ती अंगीठी, दारू की भट्ठी, प्रदूषण उगलती चिमनी आदि सबको मैंने क्रमशः दौड़ती, हंसती, झूमती, झगड़ती, औरतों के माध्यम से ही चित्रित किया है।” “आपकी इस लाइन में तो सारे पेड़-ही-पेड़ हैं।” “जी हां, यानी औरतें-ही-औरतें।” “और जितनी औरत उतने यथार्थ।” “जी हां, आइए देखिए, मैंने चित्रों में, आज के जीवन का यथार्थ किस प्रकार दिखाया है।”

वे फिर से एक वृक्ष के चित्र के पास ले गये। वह खूब मजे का मोटे तनेवाला दमदार वृक्ष था। अमुक जी बोले, “ध्यान से देखिए, आप इसमें जीवन का यथार्थ पायेंगे।” मैंने ध्यान से देखा, जीवन का यथार्थ नहीं दिखा, हां, उस चित्र के कोने के एक दुबला सीकिया-सा शुतुरमुर्ग दिखा। वह चोंच में कुछ बबाये था। थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछा, “यही न?” “जी हां, कुछ समझीं आप?” अब तक के अनुभव के आधार पर मैं इतना समझी थी कि यह शुतुरमुर्ग और चाहे जो हो, शुतुरमुर्ग हर्गिज नहीं हो सकता। इसलिए ईमानदारी से कहा, “जी हां, समझी, क्या है यह?” “उस औरत का पति,” उनके स्वर में रोष और क्षोभ था। “किस औरत का?” उन्होंने मोटे दमदार तनेवाले वृक्ष की ओर हिकारत से देख कर कहा, “इस औरत का।” “ओह,” मैं जबरदस्त सस्पेंस की चपेट में थी। “और… और वह चोंच में क्या दबाये हैं?” “क्या दबायेगा…नाश्तेदान ले कर दफ्तर जा रहा है, और क्या?”

मेरा सिर कलामंडियां खा रहा था। लग रहा था मैं कला दीर्घा में नहीं, लखनऊ के बड़े इमामबाड़े में हूं। झिझकते- झिझकते पूछा। “एक बात बताइए, आप लोग पेड़ को पेड़ और औरत को औरत की तरह नहीं बना सकते?” “बना क्यों नहीं सकते?” उन्होंने गर्व से कहा। “फिर।” “फिर हमारे और ऐरे-गैरे कमर्शियल आर्टिस्टों में फर्क क्या रहा?” “यानी?” “यानी कला के धर्म का, उसके प्रति अपने फर्ज का निर्वाह हम कैसे कर पायेंगे?” “लेकिन, औरत और वृक्षों के प्रति भी तो आपका कुछ फर्ज बनता है।”

उन्होंने मुझे इस तरह क्रोधित दृष्टि से देखा, जैसे बराबर से सरबर करनेवाले कागभुशुंडी को कौआ बनाने से पहले उनके गुरु लोमश मुनि ने देखा होगा, शायर होती तो कहती… ‘वो कल्ल भी करते हैं, तो चर्चा नहीं होती।।। हम आह भी करते हैं, तो…’ लेकिन शायर नहीं थी, इसलिए फिर से चुपचाप खिसक ली। आते-आते जरा दूर पर एक चित्र दिखा। वह सोलहों आने औरत ही थी, लेकिन पास जा कर देखा, तो उसके नाक, कान, हौंठ सब गायब। खुदाया ! क्या रहस्य है, अच्छी-भली औरत, सलीकेदार हाथ- पांव, लेकिन नाक- नकशे गायब। अब अमुक चित्रकार जी के पास जाने की हिम्मत नहीं थी, पास खड़े एक सज्जन से पूछा, “क्यों भाई साहब! इस औरत के आंख, नाक, कान वगैरह क्या हो गये?” “कलौ को समर्पित,” उन्होंने संजीदा आवाज में कहा और दूसरे चित्रों की ओर बढ़ गये। मैं एक बार फिर बेआबरू हो कर कूचे से निकल आयी।।। शायर होती, तो भी कुछ न कहती, बस सिर पीटती।

साभार- साप्ताहिक  धर्मयुग १२ फरवरी १९८४ के अंक से

(हमने इस व्यंग्य को लेकर एक मजेदार प्रयोग किया चैट जीटीपी पर इस व्यंग्य को पोस्ट किया तो इस व्यंग्य को लेकर हमें जो जवाब मिला वो गंभीर होकर भी कम मजेदार नहीं था….प्रस्तुत है चैट जीटीपी का गंभीर जवाब… आपकी बात में एक गहरी निराशा और हताशा झलक रही है, जो कला को समझने में असमर्थता से उत्पन्न हुई है। कला को समझना एक कठिन और जटिल प्रक्रिया हो सकती है, क्योंकि यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करती है। आपकी पीड़ा का वर्णन बहुत ही सजीव और वास्तविक है। कला के माध्यम से अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का तरीका अलग-अलग होता है और इसे समझने में समय और अभ्यास लगता है।

आपकी जो निराशा है, वह आमतौर पर उस भावना से जुड़ी होती है जो हम सभी कभी न कभी महसूस करते हैं जब हम किसी चीज को पूरी तरह से समझ नहीं पाते। लेकिन इसे एक अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है कि आप अपनी समझ को और बढ़ा सकते हैं। कला की दुनिया में अधिक से अधिक जानने की कोशिश करें, विभिन्न प्रकार की कलाओं को देखें, और कलाकारों से बातचीत करें। इससे आपकी समझ बढ़ेगी और हो सकता है कि आप भी कला के एक नए पहलू को समझ पाएं।

कला का आनंद लेने और उसे समझने के लिए कभी-कभी हमें अपने विचारों और धारणाओं को छोड़ना पड़ता है और बस उस अनुभव में डूब जाना होता है। यदि आप अपनी जिज्ञासा और खुले मन के साथ कला के प्रति अपने दृष्टिकोण को विकसित करेंगे, तो निश्चित रूप से आप कला को समझने और सराहने में सफल होंगे। आपके अनुभव को साझा करने के लिए धन्यवाद। यह बताता है कि कला के प्रति आपकी रुचि कितनी गहरी है और आप इसे समझने के लिए कितना प्रयास कर रहे हैं। यह प्रयास ही आपको आगे बढ़ाएगा और आपको कला की सुंदरता और गहराई को समझने में मदद करेगा।  )

मुंबई के गिरगाँव की वो सुनहरी यादें

हम गिरगांव में नहीं रहते हुए भी गिरगांव का आकर्षण बचपन से था। कहीं ना जाना होता तो गिरगांव चलते। हमारी सत्रपकड जाति एक फूल है भले ही मराठी बस्ती बहुत हो, लेकिन समग्र माहौल हिंदी भाषी था। सारे लेनदेन हिंदी में चलता था। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। और हमें कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि घर वहां था। मुम्बई में सत्रापाकड़ बस्ती की भाषा हिंदी है। घर पर हमारी आवाज मराठी ही वैसे गिरगांव में मराठीवाद का अनुभव हो सकता है। हर जगह मराठी बोलो कानो में आओ लालबाग, परेल, लालबाग, दादर के कानो पर मराठी भाषा ही पड़ती है। गिरगांव जाने के लिए ज्यादा वजहों की जरूरत नहीं है। गिरगांव से ठाकुरद्वार नाक्या तक रविवार या किसी भी छुट्टी की शाम दोस्तों के साथ ग्रांट रोड ओपेरा हाउस के साथ पैदल चलना। मेरी मौसी चाची आदि गिरगांव में रहता था लेकिन वहाँ एक त्योहार हुआ करता था।
गिरगांव दादर की तरह फैला भी नहीं था और इतना अमीर भी नहीं था। गिरगांव का क्षेत्र बहुत कम था उसके कारण खेतवाड़ी से शुरू होकर ठाकुरद्वार तक प्रार्थना सभा समाप्त होने के लिए नवी वाडी धोबिटलाव नवी वाडी में मराठी लोग थे लेकिन कागजी बाजार, शादी के कार्ड की दुकानें बहुत थी। आस-पास ही वैनगार्ड की तरह एक महान, महंगा फोटो स्टूडियो था। जेब वहाँ केवल एक फोटो ले सकता है। यह शादी के बाद की पहली तस्वीर है, फ्रेमिंग फोटो। गंगाराम खत्री सरसापरीला वाडी के सामने सरदार करतारसिंह ठट्टा हुआ करते थे। भयानक गुस्सा। मूल संघ के ब्राह्मण ने यहां राजनीति में सिख धर्म की दीक्षा विचारक के रूप में ली थी। पंजाबी लोग वहाँ भी सोच रहे हैं। कुछ सालो बाद फिर से हिन्दू बन गया पंडित नेहरू से हमेशा दुश्मनी, बस इसी वजह से मशहूर थे। पं. नेहरू मुंबई आना चाहते हैं तो पुलिस गिरफ्तार करेगी…. और खबर इस तरह थी।
भारतीय लंच होम खत्रीवाडी गेट के पास। बहुत बढ़िया भंडारी स्वादिष्ट मांसाहारी जगह। उस उम्र में हमें होटल के खाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। खाना घर पर, लेकिन नाश्ता बाहर नहीं होना चाहिए। और गिरगांव में सभी मराठी शैली और स्वादिष्ट व्यंजन आसानी से खा जाते हैं। खरोंच से पुरणपोली तक। थालीपीठ, पोहे, उपित, उसल, मिसल भी। ठाकुरद्वार के *विनय* का मिश्रण किसी ने नहीं खाया, दुर्लभ मराठी पुरुष है। फडके गणेश मंदिर के सामने की मिसळ अद्भुत है। लस्सी से लड़ने वाला लस्सी वाला लोकप्रिय टाइप है प्रकाशकाद का पीयूष हर जगह मिलना चाहिए।
मैजेस्टिक सिनेमा के बगल में *राजा* में लोकप्रिय हो रहा गर्म रवा डोसा पाएं। और अंत को मीठा करने के लिए एक कसाटा आइसक्रीम। वहाँ से कुछ ही दूरी पर कुलकर्णी की *आलू भाजी* ही खानी चाहिए, पुरी रोटी की जरूरत नहीं है। इनके यहाँ आलू की भाजी भी मस्त है दोपहर के भोजन के लिए अनगिनत स्थान थे। शाकाहारी, मांसाहारी और *शाकाहारी* जगह भी भरपूर है। चार ईरानी, मुस्लिम स्थानों पर भी खिमा-पाव, आमलेट-पाव चोचले सप्लाई करते हैं। अब वहां वीरकर आहार भुवन है, पूर्व वेलणकर थे। उनके आलू स्वादिष्ट थे, चटनी खास थी। स्क्रैच दो जगह मिलता था और *आधुनिक* दिवाली ना होने पर भी अनानास मिलता था बाकी पानीपुरी, पैटीज, भेले की ठेले फुटपाथ पर थी लेकिन रात को कुल्फी, सेम-गंदेरी लोगों को बुला रही थी। जलते हुए चूल्हे पर केतली की कॉफ़ी आधी रात को भी मिलती है। इनके साथ तेल मालिश चंपी वाला है।
मैं अपने पूरे गिरगांव से प्यार करता था क्योंकि मेरे पिता ने पहला काम राजाराम रघुनाथ सामंत की वस्त्र पीढ़ी पर चौदह वर्ष की उम्र में किया था। उन दिनों गिरगांव कपड़े और साड़ी की दुकानों का बड़ा बाजार हुआ करता था। गिरगांव शानदार था बिना ज्यादा चमक के।
आम तौर पर पहली सदी की शुरुआत में ही लोग गिरगांव में रहने के लिए आना शुरू कर देते थे। मालाबार हिल्स गिरगांव, गिरी के पैरों पर स्थित गांव है। ट्रेन के आने के बाद चेरनी रोड स्टेशन अधिक महत्व लाया। उन दिनों अधिकांश सरकारी कचरा, बैंक, किला, बैलार्ड एस्टेट, वीटी, फव्वारा महत्वपूर्ण था। गिरगांव वहां से पैदल दूरी पर। इसलिए वहां जनसंख्या बढ़ती जा रही है। ट्राम, बस सस्ते वाहनों के साथ थी। विक्टोरिया थोड़े पैसे के लिए एक घोड़े की गाड़ी थी। लोगों की जरूरत जान कर छोटे कमरे करतब में आ गए। वहाँ कम पगड़ी रूम मिल रहे थे।
इसी वजह से, एयरवेयर, कपड़े, खाने-पीने की जगह आ गई। इसके साथ ही शराब और जुआ भी आ गया। सबकी जरूरतें पूरी होने लगी हैं। अधिकांश हिन्दू बस्तियों के कारण मंदिर और मठ भी आये। गिरगांव में पांच मिनट पैदल चलें तो कम से कम एक मंदिर आता है। नजर ना आये तो भी पता होना चाहिए सामने वाले ने चप्पल उतार कर हाथ जोड़े तो नहीं। तो भक्त भी धार्मिक उत्सव मनाने लगे। तभी तो सार्वजनिक होने लगा गणपति उत्सव लोकमान्य तिलक के प्रोत्साहन से यह पर्व धूम मचा कर पूरे मुंबई में फैल गया।
गोकुलाष्टमी, गोपालकला, दशहरा, गुढीपाडवा समारोह मनाया गया। गोविंदा के साथ दहीहांडी आई और तभी गिरगांव में पुष्कलशा वाडी से निकली चितरथा, बजने, नाचने, चितरथा की बारात। नवरात्री में नौ दिन तक देवी भी रहती है। गिरगांव सबका था खास कर भक्तो के लिए देवताओं के अनगिनत मंदिर थे। प्रभु के कालाराम ठकुद्वारे में, ज़वबा गोराराम मंदिर। दत्तम मंदिर स्वामी समर्थ का मठ कडेवाडी में इस मठ ने इस वर्ष पूरे किए डेढ़ वर्ष। शिकानगर के पास फडके गणेश मंदिर भी प्रसिद्ध है।
मराठी पत्रिका के लिए गिरगांव किताबों के लिए एकदम सही जगह थी। 50, साठ और सत्तर के दशक में मराठी लेखकों पर जोर दिया गया था। बड़े लेखक बहुत लिखा करते थे। किताबें, पत्रिकाएं छापने के लिए प्रकाशक तैयार हैं। पॉपुलैरिटी, मोज, कॉन्टिनेंटल पब्लिकेशन, मैजेस्टिक पब्लिकेशन जैसी मातृ कंपनियां उस भार को झेलती थीं। वहाँ बहुत सारे अन्य छोटे बड़े प्रिंटिंगर्स थे। दिवाली के आसपास कैलेंडर, डायरी का भी बड़ा कारोबार हुआ करता था। इसीलिए यहाँ के अधिकांश वार्ड छपाई का काम करके छोटे व्यवसाय चलाते थे। गिरगांव में ओवरआल छपाई हो सकती है और काम रेट भी फोर्ट वडाला से कम था। मोटापा देखें तो गिरगांव में हर वार्ड में दो से ज्यादा छपाई का काम चल रहा है। बाइंडर, स्क्रीन प्रिंटिंग, पंचिंग, एम्बेसिंग, पेपर काटना, आदि आदि।
जैसे किताबें और मैगज़ीन छपी थी वैसे ही बेचने को बहुत सारी दुकानें थी। बॉम्बे बुक डिपो, मैजेस्टिक बुक स्टाल, लखानी, स्टूडेंट बुक डिपो जैसी दुकानें थी, लेकिन देवी पोथी पुराण, शास्त्र आदि की दुकानें थी। बलवंत बुक स्टोर उनमें से एक है। फुटपाथ पर भी कई विक्रेता अपनी दुकानों का प्रबंध कर लेते थे। बहुत से विक्रेता नई और पुरानी किताबें खरीदते हैं। स्कूल और कॉलेज की सभी नई किताबें लखानी और छात्र छात्राओं में उपलब्ध हैं। मज़ा तो वो है स्कूल और कॉलेज पुरानी सेकंड हैंड किताबों को खरीदना और खरीदना। फुटपाथ पर जो किताब पढ़ने के लिए ली गई थी उसे वापस दे देना ठीक है। वह समय मराठी पत्रिकाओं की परिपूर्णता का समय था। कई वर्षों से लोग सर्कुलेट लाइब्रेरी चला रहे हैं और घर-घर किताबें और मैगज़ीन सप्लाई कर रहे हैं।
जून महीने में इस लखानी-छात्र की दुकान में बहुत भीड़ होती है। किताबों के लिए वह स्कूल। क्योंकि गिरगांव के तीन किलोमीटर के दायरे में अनगिनत स्कूल और हाई स्कूल हैं। आधुनिक, शिरोळकर, चिकित्सक, सेंट ट्रेसा, हिंद विद्यालय, आर्यन, क्वीन मेरी, विल्सन, चंदारामजी, शारदा सदन, मारवाड़ी विद्यालय, जैसे शिक्षण संस्थान कार्यरत हैं।
यहां के बहुत सारे लोग कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़े हुए थे। एक वार्ड से दूसरे वार्ड तक जाने वाले शॉर्टकट बहुत थे। और जो लोग बचपन में गिरगांव में रहते थे उनके ये शेयर हुआ करते थे। मध्य गिरगांव में भी एक ऐसी ही भूलभुलैया थी।
*गधे का बगीचा। *मैजेस्टिक सिनेमा के सामने बेहिसाब मेहनत थी। गोवा मालवानी वालो के समिश भोजन का सम्मानित होटल आप वीपी रोड पर जल्दी सड़क पर और उससे परे जाते थे, लेकिन यह आसान नहीं था। नए आदमी को गलती से वहां गरजनी चाहिए। इस खोटा के बगीचे में समान संरचनाएं वाले एक पुर्तगाली डिजाइन वाले घर हैं। पतारे प्रभु और ईस्ट इंडियंस की पुरानी बस्ती यहीं थी। चूंकि यह हमेशा बगीचे में सूखा रहता है, इसलिए हमें इंतजार करना चाहिए। आदर्श वेफर्स के पास कहने के लिए एक कारखाना था। यह एक संकेत स्थल था। एक ऐसी ही समकालीन वाडी आज भी बांद्रा पश्चिम और मझगांव के मथरपकड़ी खंड में है।
मनोरंजन के मामले में आगे रहता था। मुख्य रूप से मराठी सिनेमा, नाटक। वो मराठी सिनेमा का दौर था। मराठी सिनेमा घर बड़ी संख्या में बने और मैजेस्टिक, सेंट्रल, और कृष्णा (ड्रीमलैंड) सिनेमाघरों में रह रहे होंगे। ओपेरा हाउस के पास, नाज़ में परदे पर था। भारत का पहला बोलपत गिरगांव में मैजेस्टिक सिनेमा में था। ये गिरगिट का गर्व था। साहित्य संघ मंदिर केलेवाडी में संगीत बजाने के लिए था। गिरगांव में फुटपाथ पर चलना एक आम कार्यक्रम हुआ करता था। युवा लड़के *कुछ* पर्यटन स्थलों के भ्रमण के लिए दुकान के कमरे, फुटपाथ के आइटम बहा रहे हैं।
तारापोरवाला एक्वेरियम, मरीन ड्राइव का क्वींस हार, और गिरगांव चौपाटी। ये आस पास की जगह कभी महत्वपूर्ण हुआ करती थी। दातीवाटी गिरगांव में ये एक सस्ता रंग था अधिकतर एक भेल,पानीपुरी,या चना मूंगफली के पाउडर की कीमत होती है। चौपाटी पर गजरे मिलते थे पर गिरगांव नाका और ठाकुरद्वार ज्यादा फ्रेश कह कर घर के घर का दिल पलट जाता है वाडीवाडी का प्रेमवीर अपने साथी के साथ संभल कर भटकता है लेकिन जब कोई त्यौहार होता है तो यह भीड़ मंदिर के पास मुड़ जाती है।
अब यह बहुत कायाकल्प हो रहा है। बच्चों की उम्र और परिवार बढ़ने के कारण लोग उपनगर में घुस गए। बड़े टावरों वाली इमारत बनने लगी है। अन्य वक्ताओं ने इसे बनाया। मिडिल क्लास मराठी आदमी डोंबिवली कल्याण से आगे ये तो सच है गिरगांव धुंधला होता जा रहा है लेकिन वो यादें आज भी ताजा रहेंगी।
साभार- https://www.facebook.com/Beingmalwani से

कांग्रेस के नेतृत्व में इंडी गठबंधन की जाति राजनीति और बेनकाब होते राहुल गांधी

विगत दो वर्षों से विशेषकर कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सत्ता प्राप्ति और फिर लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीत लेने के बाद राहुल गांधी और इंडी गठबंधन हर समय जाति जाति कर रहा है। संभवतः उन्हें लग रहा है कि जातिगत आरक्षण ही एक ऐसा बड़ा हथियार है जिसके माध्यम से जातियों में विभाजित हिंदू समाज को आपस में लड़ाकर भारतीय जनता पार्टी राजनैतिक रूप से पराजित किया जा सकता है और कांग्रेस के अच्छे दिन वापस लाये जा सकते हैं।

राहुल गांधी अपनी तथाकथित न्याय यात्रा के दौरान हर जनसभा में जाति का मुद्दा उठाते रहे हैं यहां तक कि वो पत्रकार वार्ता में पत्रकारों और उनके मालिकों की जाति पूछते रहे हैं। राहुल गांधी सेना प्रमुखों की जाति पूछ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी जाति के नाम पर अपमान करते रहे हैं। राहुल गांधी बहुत ही भद्दे तरीके से अपनी रैलियों में कहा करते हैं कि प्रधनमंत्री मोदी ओबीसी  समाज से नहीं आते अपितु वह सामान्य वर्ग से आते हैं। जाति का नशा उनके दिमाग को इस तरह खा चुका है कि वो  मर्यादा की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए पीएमओ में कार्यरत अफसरों की जातियां पूछ रहे है, इस बार दो कदम आगे बढ़कर उन्होंने बजट सत्र के दौरान, बजट प्रस्तुत करने के पूर्व होने वाली हलवा सेरेमनी का चित्र दिखाते हुए उस प्रक्रिया में  भाग लेने वाले अफसरो तक की जाति पूछ ली। जातिगत विद्वेष फैलाने में वो इतने आगे निकल गए कि कहने लगे सवर्ण किसी परीक्षा का प्रश्नपत्र बनेंगे तो और कोई पास नहीं हो पाएगा।

सांसदों की संख्या 99 होते ही राहुल गांधी अतिउत्साह में आ गये हैं और हर बात पर यही दोहरा रहे हैं कि वह  जातिगत जनगणना को करा कर ही रहेंगे। राहुल गांधी बहुत ही खतरनाक व विकृत राजनीति कर रहे हैं और वस्तुतः  वामपंथी एजेंडा धारी  के रूप में उभर रहे हैं जिसके अंतर्गत वह हिंदू सनातन प्रतीकों को आधार बनाकर हिंदू धर्म को ही कभी हिंसक बताकर उसका अपमान कर रहे हैं  और कभी अपने आप को शिवजी और अपने सभी सांसदों व सहयोगियों को शिवजी की बारात कहकर भगवान शिव और समस्त हिंदू समाज का अपमान करते हुए जातिगत जनगणना की बात करते हैं। भारत विरोधी ताकतें जो कभी नहीं चाहतीं कि भारत सशक्त होकर उभरे और विकसित राष्ट्रों में स्थान बनाए वो सभी राहुल के इस विषवमन के पीछे हैं। हिंदू समाज को जाति के आधार  पर लड़ाकर देश को कमजोर करने के लिए  ही जाति का मुद्दा हिंसात्मक रूप लेने की कगार तक उछाला जा रहा है जिसका नेतृत्व गांधी परिवार कर रहा है।

बात बात पर जातिगत जनगणना की मांग करने वाले राहुल गांधी के पिता स्वर्गीय राजीव गांधी, दादी इंदिरा गांधी, दादी के पिता जवाहर लाल नेहरू सभी जातिगत जनगणना के प्रबल विरोधी थे। इन सभी का मत था कि जातिगत जनगणना से  भारत खंड- खंड में विभाजित  होकर कमजोर हो जायेगा । अगर जातिगत जनगणना देश के लिए इतनी ही अनिवार्य थी तो 2004 से लेकर 2013 तक जब कांग्रेस की ही सरकार परोक्ष रूप से स्वयं राहुल गांधी की माँ सोनिया गांधी चला रही थीं तब उन्होंने जातिगत जनगणना क्यों नहीं करवाई? वर्तमान में जो कांग्रेस शासित राज्य हैं, वहां के मुख्यमंत्री  जातिगत जनगणना क्यों नहीं करवा पा रहे हैं? कांग्रेस जाति के नाम पर राजनीति करती है और इसीलिए कांग्रेस के जातिगत जनगणना पर विचार भी बदलते रहते हैं। 2010 में यूपीए की सरकार के समय लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे कद्दावर नेताओं ने जातिगत जनगणना का मुददा उठाया था तब के  कांग्रेस के बड़े नेताओं पी चिदम्बरम, आनंद शर्मा और  मुकुल वासनिक ने  इसका पुरजोर विरोध किया था। आनंद शर्मा आज भी जातिगत जनगणना का विरोध कर रहे हैं।

जाति जनगणना कराएंगे पर जाति  नहीं बतायेंगे- राहुल गांधी व संपूर्ण  विपक्ष जाति जाति की रट तो लगा रहा है किंतु कोई उनकी जाति पूछ ले तो आग बबूला हो जाता है। यह लोग जाति जनगणना तो कराना चाह रहे हैं लेकिन अपनी जाति नहीं बता पा रहे है जिससे यह भी प्रतिध्वनि निकलती है कि इनके मन में कितनी खोट है और इनका एकमात्र उद्देश्य  हिंदू समाज को गली -गली में  जातीय दंगों की ज्वाला में झुलसाना है ताकि ये किसी एक जाति के मसीहा बनकर अपना  स्वार्थ सिद्ध कर सकें।

संसद के बजट सत्र में जाति जनगणना का मुद्दा उस समय बहुत गर्म हो गया जब लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष  राहुल गांधी और बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर आपस में भिड़ गये। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने बजट चर्चा के दौरान बोलते हुए कहा कि “जिसकी जाति का पता नहीं वह जाति गणना की बात करता है” उसके बाद राहुल गांधी और अखिलेश यादव बुरी तरह से भड़क गये । राहुल गांधी को यह बात इतनी आपत्तिजनक लगी कि उन्होंने कहा कि  सदन में उनका अपमान किया गया है और आगे जोड़ा कि जो लोग एससी एसटी दलित व पिछड़ो की बात करते हैं उन्हें गालियां खानी ही पड़ती हैं । सपा नेता व सांसद अखिलेश यादव तो इतने उत्तेजित हो गए कि चीखने लगे कि आप किसी से उसकी जाति कैसे पूछ सकते हैं? इस विवाद ने एक ही झटके में राहुल और अखिलेश दोनों को बेनकाब कर दिया है क्योंकि यह दोनों ही सार्वजनिक रूप से सामान्य  लोगों से उनकी जाति पूछकर उनका अपमान करते रहे हैं।

यह लोग न केवल आम पत्रकारों और सरकारी अधिकारियों वरन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी जाति के आधार पर अपमानित करते रहे हैं तब न तो किसी ने इन पर  मुकदमा दर्ज करवाया न ही धरना प्रदर्शन या पुतला फूंक कार्यक्रम हुआ किन्तु इसके विपरीत जब से हिमाचल के सांसद अनुराग ठाकुर ने राहुल  की जाति पूछ ली है तब से ये  लोग अनर्गल आरोप लगा रहे हैं  कि अनुराग ठाकुर ने सदन में इनको गाली दी। सोशल मीडिया तथा टी वी चैनलों पर इनके प्रवक्ता दहाड़ मारकर रो रहे हैं । जब खुद की जाति बताने की बात आई तो अपना अपमान नजर आने लगा, यह वही बात हो गयी है कि गुड़ खाएंगे पर गुलगुले से परहेज करेंगे।

राहुल गांधी और अखिलेश यादव को यदि भारत के सामान्य गरीब व्यक्ति की जाति पूछने का अधिकार है और यह लोग उसके आधार पर कहीं पर किसी को भी अपमान कर सकते है तो जनता को भी ये अधिकार है कि वह इनसे इनकी जाति और धर्म का ब्यौरा ले । आज  भारत की जनता यह पूछना चाह रही है कि आखिर राहुल गांधी  जाति क्यों छिपा रहे हैं? कहीं चोर की दाढ़ी में तिनका तो नहीं है ?

क्या बिना जाति बताये होगी जनगणना?- राहुल गांधी अपनी जाति बताने में सकपका रहे हैं क्योंकि इससे उनके परिवार का इतिहास  बेपर्दा हो जायेगा। वह जाति कैसे बता सकते हैं क्योंकि उनको तो अपना धर्म भी नहीं पता, उनका धर्म  चुनाव दर चुनाव बदलता रहता है, उनके नाना अपने नाम के पीछे  नेहरू और आगे पंडित लगाते थे। दादी ने पारसी से विवाह किया लेकिन पिता राजीव गांधी भी अपने आप को ब्राह्मण ही बताते रहे। माँ कैथोलिक ईसाई है लेकिन राहुल गांधी ने एक बार पुष्कर यात्रा के दौरान वहां पर स्वयं को कश्मीरी कौल ब्राह्मण बताते हुए अपना गोत्र दत्तात्रेय बताया था। पार्टी प्रवक्ता ने मीडिया में आकर कहा राहुल गांधी जनेऊधारी  हिन्दू हैं। अब अगर राहुल गांधी वास्तव में ब्राह्मण हैं तो उन्हें स्वीकार करना चाहिए था लेकिन अगर उनका बप्तिस्मा हो चुका है तो वो भी जनता को बताना चाहिए ।

अब जाति जनगणना की मांग करने वाले राजनीतिक दलों व नेताओं को यह समझना पड़ेगा कि जिस बात को पूछने पर आप अपमानित महसूस करते हैं उस बात को बताये बिन जाति जनगणना संभव नही है। अनुराग ठाकुर के बयान पर राहुल गांधी व फिर कांग्रेस तथा अखिलेश यादव का भड़कना विचारों का द्विधाग्रस्त होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

जाति के नैरेटिव के कारण ही उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भाजपा की सीटें कम हो गईं हैं यही कारण है कि राहुल गांधी एंड कंपनी को लग रहा है कि जाति एक ऐसा मुद्दा है जिसके आधार पर भाजपा को हराया जा सकता है और वो उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं. – 9198571540

शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए शिशु को स्तनपान जरूर कराएँ

विश्व स्तनपान सप्ताह (01-07 अगस्त) पर विशेष 
– जन्म के पहले घंटे में जरूर पिलाएं माँ का पहला पीला गाढ़ा दूध
– माँ के दूध से बच्चों को मिलती है बीमारियों से लड़ने की ताकत
माँ का पहला पीला गाढ़ा दूध नवजात के लिए अमृत समान होता है। इसलिए नवजात को जन्म के पहले घंटे में स्तनपान जरूर कराएँ। यह संक्रामक बीमारियों से सुरक्षित बनाने के साथ ही शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है। निमोनिया, डायरिया व अन्य संक्रामक बीमारियों की जद में आने से बचाने में पूरी तरह से कारगर है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सक्षम माँ के पहले पीले गाढ़े दूध (कोलस्ट्रम) को इसीलिए बच्चे का पहला टीका भी माना जाता है।
स्तनपान शिशु का मौलिक अधिकार भी है। स्तनपान के फायदे के बारे में जानना हर महिला के लिए जरूरी है। इसके प्रति जागरूकता के लिए ही हर साल अगस्त माह के पहले हफ्ते को विश्व स्तनपान सप्ताह (01-07 अगस्त) के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष विश्व स्तनपान सप्ताह की थीम- “अंतर को कम करना, सभी के लिए स्तनपान सहायता” (क्लोजिंग द गैप : ब्रेस्टफीडिंग सपोर्ट फॉर ऑल) तय की गयी है।
शिशु को छह माह तक केवल स्तनपान कराना चाहिए। इस दौरान बाहर की कोई भी चीज नहीं देनी चाहिए, यहाँ तक कि पानी भी नहीं। छह माह तक माँ के दूध के अलावा कुछ भी देने से संक्रमित होने की पूरी संभावना रहती है। अमृत समान माँ के अनमोल दूध में सभी पौष्टिक तत्वों के साथ पानी की मात्रा भी भरपूर होती है। इसीलिए छह माह तक माँ अगर बच्चे को भरपूर स्तनपान कराती है तो ऊपर से पानी देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
बच्चे की खुशहाली और दूध का बहाव अधिक रखने के लिए जरूरी है कि माँ प्रसन्नचित रहें और तनाव व चिंता को करीब भी न आने दें। इसके अलावा बीमारी की स्थिति में भी माँ बच्चे को पूरी सावधानी के साथ स्तनपान जरूर कराएं क्योंकि यह बच्चे को बीमारी से सुरक्षित बनाता है। माँ को यह भी जानना जरूरी है कि केवल स्तनपान कर रहा शिशु 24 घंटे में छह से आठ बार पेशाब कर रहा है तो यह समझना चाहिए कि उसे भरपूर खुराक मिल रही है। इसके साथ ही स्तनपान के बाद बच्चा कम से कम दो घंटे की नींद ले रहा है और बच्चे का वजन हर माह 500 ग्राम बढ़ रहा है तो किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह प्रमाण है कि शिशु को भरपूर मात्रा में माँ का दूध मिल रहा है।
 माँ का दूध शिशु के लिए सर्वोत्तम पोषक तत्व होता है। सर्वोच्च मानसिक विकास में सहायक होता है और संक्रमण जैसे- दस्त-निमोनिया आदि से सुरक्षित बनाता है। इसके अलावा दमा व एलर्जी से भी सुरक्षित बनाता है। शिशु को ठंडा होने से बचाता है और प्रौढ़ व वृद्ध होने पर उम्र के साथ होने वाली बीमारियों से भी सुरक्षा प्रदान करता है ।
नवजात को शीघ्र और नियमित स्तनपान कराने से जन्म के पश्चात रक्तस्राव और एनीमिया से बचाव होता है। इसे एक कारगर गर्भनिरोधक के रूप में भी माना जाता है। मोटापा कम करने और शरीर को सुडौल बनाने में भी यह सहायक होता है। शिशु को स्तनपान  कराने से स्तन और अंडाशय के कैंसर से भी बचाव होता है।
कृत्रिम आहार या बोतल के दूध में पोषक तत्वों की मात्रा न के बराबर होती है। इसलिए यह बच्चे के पाचन तंत्र को प्रभावित करता है। कुपोषित होने के साथ ही संक्रमण का जोखिम भी बना रहता है। बौद्धिक विकास को भी प्रभावित कर सकता है।
 छह माह तक लगातार शिशु को केवल स्तनपान कराने से 11 फीसदी दस्त रोग और 15 प्रतिशत निमोनिया के मामले को कम किया जा सकता है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-5 (2020-21) के अनुसार उत्तर प्रदेश में जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान कराने की दर 23.9 प्रतिशत है। इसी तरह छह माह तक बच्चे को केवल स्तनपान कराने की दर एनएफएचएस-5 के सर्वे में 59.7 फीसद रही जबकि एनएफएचएस-4 के सर्वे में यह 41.6 फीसद थी।
(लेखक पापुलेशन सर्विसेज इंटरनेशनल इंडिया के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं, साथ ही ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ़ इंडिया (बीपीएनआई) के आजीवन सदस्य भी हैं)

पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक मेहदी हसन की जड़ें शेखावटी में थी

फूल यह तूने जो बालों में लगा रखा हैं
एक दिया है जो अंधेरों में जला रखा है ………
यह ग़ज़ल अपनी जवानी के दिनों में हम सभी ने सुनी है और उसमें इश्क़ के बहुत सारे रंग देखे हैं. इस बेहतरीन ग़ज़ल को  गायक मेहदी हसन ने युवाओं का anthem बना दिया था.
आज उनका जन्मदिन है.

भारत और सीमा पार के जिन गायकों ने ग़ज़ल गायकी को बुलंदी पर पहुँचाया उनमें निस्संदेह एक अज़ीम  नाम मेहदी साहब का भी है . उनकी गायी ग़ज़लों में लोग उन्हें इतना गहराई तक डूबा पाये हैं कि उसके शायर की जगह उसे  मेहदी साहब  की ग़ज़ल कहते हैं . जो लोग उन्हें पाकिस्तानी गायक समझते हैं उन्हें शायद ही पता हो कि उनकी जड़ें भारत और ख़ासकर राजस्थान की लोकगायकी में बसी हुई है.

शेखावटी इलाके के  झुंझुनूं ज़िले की  अलसीसर तहसील के एक गाँव लूणा में मुस्लिम गवैयों के कुछ परिवार लंबे समय से रहते आ रहे थे. इलाक़े भर में ध्रुपद गायकी का बड़ा नाम माने जाने वाले उस्ताद अज़ीम खान इसी लूणा की गायकी परंपरा से थे और अक्सर अपने छोटे भाई उस्ताद इस्माइल खान के साथ रईसों की महफ़िलों में गाने जाते थे. शेखावटी के रईसों ने कला और संगीत को हमेशा  संरक्षण दिया था.

18 जुलाई 1927 को इन्हीं अज़ीम खान के घर एक बालक जन्मा जिसे मेहदी हसन नाम दिया गया. मेहदी यानि ऐसा शख्स जिसे सही रास्ते पर चलने के लिए दैवीय रोशनी मिली हुई हो. गाँव के बाकी बच्चों की तरह मेहदी हसन का बचपन भी लूणा की रेतीली गलियों-पगडंडियों के बीच बकरियां चराने और खेल-कूद में बीत जाना था लेकिन वे एक कलावन्त ख़ानदान की नुमाइंदगी करते थे सो चार-पांच साल की आयु में पिता और चाचा ने उनके कान में पहला सुर फूंका. उस पहले सुर की रोशनी में जब इस बच्चे के मुख से पहली बार ‘सा’ फूटा, एक बार को समूची कायनात भी मुस्कराई होगी. आठ साल की उम्र में पड़ोसी प्रांत पंजाब के फाजिल्का में मेहदी हसन ध्रुपद और ख़याल गायकी की अपनी पहली परफॉर्मेंस दी. आगे के  दस-बारह साल जम के रियाज़ किया  और  अपने बुजुर्गों की शागिर्दी करते हुए मेहदी हसन ने ज्यादातर रागों को उनकी जटिलताओं समेत साध होगा.

1947 में  विभाजन के बाद हसन ख़ानदान पाकिस्तान चला गया वहाँ साहीवाल जिले के  चिचावतनी क़स्बे में नई शुरुआत की  , लेकिन पाकिस्तान में सब कुछ हसन परिवार के मन का नहीं हुआ  परिवार की जो भी थोड़ी-बहुत बचत थी वह कुछ ही मुश्किल दिनों का साथ दे सकी. पैसे की लगातार  तंगी के बीच संगीत खो गया.

दो जून की रोटी के लिए मेहदी हसन ने पहले मुग़ल साइकिल हाउस नाम की साइकिल रिपेयरिंग की एक दुकान में नौकरी हासिल की. टायरों के पंचर जोड़ते, हैंडल सीधे करते करते कारों और डीजल-ट्रैक्टरों की मरम्मत का काम भी सीख लिया. जल्दी ही उस  इलाके में मेहदी नामी मिस्त्री के तौर पर जाने जाने लगे और अड़ोस-पड़ोस के गांवों में जाकर इंजनों के अलावा ट्यूबवैल की मरम्मत के काम भी करने लगे.

संगीत के नाम पर एक सेकंड हैंड  रेडियो था. काम से थके-हारे लौटने के बाद वही उनकी तन्हाई का साथी बनता. किसी स्टेशन पर क्लासिकल बज रहा होता तो वे देर तक उसे सुनते. फिर उठ बैठते और तानपूरा निकाल कर घंटों रियाज़ करते रहते.

उस दौर में भी मेहदी हसन ने रियाज़ करना न छोड़ा. इंजन में जलने वाले डीजल के काले धुएं की गंध और मशीनों की खटपट आवाजों के बीच उनकी आत्मा संगीत के सुकूनभरे मैदान पर पसरी रहती. रात के आने का इंतज़ार रहता.
इसी तरह रियाज़ करते हुए दस साल बीत गये  तब कहीं जाकर 1957 में उन्हें रेडियो स्टेशन पर ठुमरी गाने का मौक़ा हासिल हुआ. उसके बाद सालों बाद उन्हें अपनी रुचि के लोगों की सोहबत मिली . पार्टीशन के बाद के पाकिस्तान में इस्लाम के नियम क़ायदे हावी होते जा रहे थे और कला-संगीत को प्रश्रय देने वाले दिखते ही नहीं थे . बड़े गायक और वादक जैसे तैसे अपना समय काट रहे थे. सत्ता की भी उनमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं  थी.

पच्चीस साल लगातार सुर साधना  करने के बाद मेहदी हसन इस नैराश्य को स्वीकार करने वाले नहीं थे. अच्छी बात यह हुई कि इस बीच उन्होंने संगीत के साथ-साथ शहरी में  भी गहरी समझ पैदा कर ली थी. उस्ताद शायरों की सैकड़ों गज़लें उन्हें कंठस्थ थीं , दोस्तों के साथ बातचीत में वे शेरों को कोट किया करते थे.

फिर अचानक  मेहदी हसन ल ने विशुद्ध क्लासिकल छोड़ ग़ज़ल गायकी को अपना अभिव्यक्ति माध्यम बना लिया पाकिस्तानी फ़िल्मों में गाया लेकिन वहाँ की फ़िल्म इंडस्ट्री बहुत छोटी थी , असली शोहरत मंच से मिली और और पूरे भारतीय उप महाद्वीप में उनकी गायकी गूंज उठी. उन्होंने मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे उस्ताद सूत्रों को तो गाया ही और फरहत शहज़ाद, सलीम गिलानी और परवीन शाकिर जैसे अपेक्षाकृत नए शहरों को भी अपनी गायकी में शामिल किया. उनकी प्रस्तुति में दो कला-विधाओं यानी शायरी और गायकी का  चरम  था उन्होंने अपने  सुरों में  ग़ज़लों को अलग ऊँचाई दी और अपनी परफॉरमेंस में रदीफ़-काफ़ियों ने नई नई पोशाकें पहनाईं .
मेहदी हसन के पास बेहद लम्बे और कभी न थकने वाले अभ्यास की मुलायम ताकत थी जिसकी मदद से उन्होंने संगीत की अभेद्य चट्टानों के बीच से रास्ते निकाल दिए. पानी भी यही करता है.

19वीं सदी के महान भारतीय सर्वेक्षकों की गाथा

कुशल प्रशासन, सामरिक युद्ध रणनीति एवं सतत विकास के लिए सटीक मानचित्र का होना परम आवश्यक समझा जाता है इसी सोच के साथ ब्रिटिश सरकारों ने सन 1767 में भारत एवं हिमालयी क्षेत्रों के भौगोलिक भू भाग पर अपना साम्राज्य मजबूत करने के लिए संभवतः भारतीय सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की होगी। राजस्व वसूली से लेकर प्राकृतिक सम्पदा, भूमिगत रत्न इत्यादि की खोज हेतु मानचित्र अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

भारतीय सर्वेक्षण विभाग के ब्रिटिश अधिकारी और उनकी गाथाएँ तो आप सभी ने सुनी होंगी। उत्तराखंड का जार्ज एवरेस्ट हाउस हो अथवा जार्ज एवरेस्ट के नाम पर माउंट एवरेस्ट शिखर हो अथवा एवरेस्ट, लैंबटोन, मकेंजी छात्रावास हो सभी नाम अंग्रेजों के सम्मान में आज अभी भारत के आजादी के बाद भी गर्व से दर्ज हैं । किन्तु कुछ ऐसे महान भारतीय सर्वेक्षकों और खोजकर्ताओं के नाम इतिहास के पन्नों मे दर्ज होकर वहीं दफन कर दिये गए ताकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी बनाई गई नीतियां आजाद भारत में आजाद भारत में काम करती रहें ।

आज मुझे पंडित नैन सिंह, पंडित किशन सिंह, मणिबूढ़ा, कल्याण सिंह, राधानाथ सिकधर जैसे महान खोजकर्ता, भूगोलवेत्ता, सर्वेक्षक और गणितज्ञ जो मूलतः भारत के थे इनके जीवनवृंत, कार्यों और साहसिक यात्राओं के बारे में कुछ लिखने का सौभाग्य मिला है जिसे अपने प्रिय पाठकों तक साझा कर रहा हूँ ।

पंडित नैन सिंह रावlत 

नैन सिंह ( रावत) का जन्म 21 अक्तूबर सन् 1830 मे ग्राम मिलम, ब्लॉक जौहर जिला पिथौरागढ़ (वर्तमान उत्तराखंड राज्य ) में हुआ था। इनके पिता का नाम अमर सिंह और माता का नाम जसुली था। जब ये आठ वर्ष के थे इनकी माता का देहांत हो गया। नैन सिंह के दो सगे भाई नाम सामजंग और मगा था और एक बहन थी।मिलम गाँव कुमाऊँ मण्डल में अल्मोड़ा के बाद दूसरा सबसे बड़ा रिहायशी कस्बा था । यहाँ से बड़ी मात्रा में भारत-तिब्बत व्यापार का मार्ग खुला हुआ था। माता-पिता के देहांत के बाद इनके चचेरे भाई मणि (बूढ़ा ) ने अपने साथ ही व्यापार क्षेत्र में काम करने हेतु प्रेरित किया। फलस्वरूप जुलाई 1851 में वे अपना पैतृक गाँव छोडकर मुंसियारी, दनपुर, बढ़न,हिमनी, जलान, ईरानी, माणा गाँव बद्रीनाथ आ वे लतादेव मारछा के घर इनका विवाह माणा गाँव मारछा की भतीजी उमती रहना इन्हें उचित नहीं सन 1854 में वे अपने गाँव वापस आ गए।

उनको व्यापार में घाटा हुआ और इन्हें नए रोजगार की तलाश थी। उन दिनों ब्रिटिश सरकार की रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी (आर जी एस) ने भारत में कार्यरत ईस्ट इंडिया कंपनी को सुझाव दिया भारत और उसके सीमांत हिमालयी क्षेत्रों का भौगोलिक मानचित्र तैयार किया जाए और इसके लिए सर्वेक्षण कार्य की शुरूआत हुई ।नैनसिंह के जीवन में एक अभूतपूर्व बदलाव उस वक्त आया जब वे फरवरी 1856 में एक काम के सिलसिले में रामनगर (उत्तराखंड) गए थे और उनकी मुलाकात तीन स्लागिंट्वीट जर्मन बंधुओं रॉबर्ट, एडोल्फ और हरमन जो पेशे से वैज्ञानिक और खोजकर्ता थे उनसे होती है। इन बंधुओं को चुम्बकत्व सर्वे हेतु तुर्किस्तान और लद्दाख जाना था, नैन सिंह के चचेरे भाई मणि इन जर्मन वैज्ञानिको के टुकड़ी सहायक थे, इनके आग्रह पर नैन सिंह ने रॉबर्ट के साथ लेह की तरफ कूच किया और सन 1856 में करगिल के रास्ते कश्मीर पहुँचकर कुछ समय वहीं कार्य किया ।

नैन सिंह ने बहुत शीघ्रता से जर्मन बंधुओं से मानचित्र कला, कॅम्पास के द्वारा अक्षांश देशांतर मापन, ऊध्वाधर मापन और बैरोमीटर का समुचित प्रयोग करना सीख लिया था। नैन सिंह के कार्य और व्यवहार से खुश होकर जर्मन बंधु इन्हें अपने साथ इंग्लैंड ले जाना चाहते थे किन्तु नैन सिंह ने इसे बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था । सन 1856 में नैन सिंह पुनः वागेश्वर आ गए और अपने पुराने कारोबार मे लग गए । यहाँ पर पिंडर हिमनद के समीप उनकी मुलाकात एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी कर्नल हेनेरी स्ट्रेशी से हुई। हेनेरी को नैन सिंह की कुशाग्रता और खोज अभियान की पूर्व जानकारी थी अतः उन्होने अपने मित्र कर्नल एडमंड स्मिथ जो अल्मोड़ा के शिक्षा निरीक्षक से अनुरोध किया।  फलस्वरूप नैनसिंह को एक राजकीय विद्यालय में जो मिलम (जौहर ) गाँव मे था सन 1859 में शिक्षक की नौकरी मिल गई ।

उन दिनों स्कूल मास्टर का वेतन बहुत कम होता था । नैन सिंह को अपने घर के खर्चे चलाना मुश्किल हो गया था । अतः कर्नल स्मिथ ने उन्हें और उनके दो भाइयों कल्याण और मणि से कहा की वे सर्वे ऑफ इंडिया कार्यालय, देहरादून जाएँ और कर्नल मोण्ट्री से मिलें। कर्नल मोण्ट्री ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग में इन्हे नियुक्त किया और फरवरी 1863 में पंडित नैन सिंह ने आधिकारिक तौर पर सर्वे उपकरणों का प्रशिक्षण प्राप्त करना आरंभ किया ।

सन 1863 मे कर्नल मोण्ट्री ने पंडित नैन सिंह को आदेश दिया की वे तिब्बत का मानचित्र तैयार करें। जनवरी 1865 में देहरादून से दल रवाना हुआ जो 13 मार्च 1865 में काठमांडू पहुंचा। उस वक्त तिब्बत एक अनजान देश हुआ करता था । नैन सिंह को तिब्बती भाषा बोलने और समझने की क्षमता पहले से थी अतः 6 सितंबर 1865 में वे तिब्बत पहुंच जाते हैं।

रातुंग सिगात्से ज्ञ्नात्से होते हुए 10 जनवरी 1866 में वे तिब्बत के शहर लाह्सा पहुँचते हैं। सर्वे ऑफ इंडिया के किसी भी खोजकर्ता का यह तिब्बत के शहर लाहसा पर कदम रखना पहली घटना थी । लगभग तीन माह तक नैन सिंह ने लामा के भेष में रहकर अपने यंत्रों को पोटली में छिपाकर सर्वे कार्य किया। 21 अप्रैल 1866 मे इनकी वापसी कैलाश-मानसरोवर – नीती – किंग्री बिगरी-ला-लपथल- टोपिधुंगा – उताधुरा दर्रों के रास्ते 29 जून 1866 को मिलम गाँव में होती है। इस दौरान पंडित नैन सिंह ने कुल 2400 किमी दूरी को कुल 18 महीनों में पैदल चलकर तय की थी। इन भयानक पर्वतीय मार्गो की समुद्र की सतह से औसत ऊंचाई करीब 3300-5300 मीटर तक थी। इस साहसिक कार्य हेतु ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी (लंदन) द्वारा स्वर्ण पदक प्रदान किया था ।

पूर्वी हिमालय के पश्चिमी तिब्बत अभियान का मुख्य उद्देश्य वहाँ पर मौजूद सोना, नमक और बोरेक्स की खनन संपदा का पता लगाकर कच्चे माल को लाकर भारत के ब्रिटिश सरकार को सुपुर्द करना था। पंडित नैन सिंह का दूसरा अभियान 14 फरवरी सन 11873 में शुरू हुआ जिसमें बिहार के साहिबगंज से बंगाल के दार्जिलिंग – सिक्किम -ज्ञांगचे से होकर पुनः लाहसा तक पहुँच मार्ग के सर्वे कार्य को पूरा किया ।

 सन 1874 में भारत – तुर्किस्तान का सर्वे कार्य
तुर्किस्तान का सर्वे कार्य (1500 किमी) वाया नजीबाबाद-श्रीनगर जोशीमठ-नीती तोलीग-बोगा-दमचोक–रूडोक–खोटन – के रास्ते तय किया । तिब्बत से सोना, बोरेक्स और नमक को लाने का पता धीरे धीरे जब तिब्बत और लद्दाख के लोगों को चलने लगा तब डाकू और लुटेरे पंडित नैन सिंह की टीम को लूटने और मारने की योजना बनाने लगे। ऐसे में नैन सिंह ने भिक्षु का भेष धारण करके लाहसा से पलायन करने का इरादा किया। वापसी नवंबर 1874 में सांगपो नदी को पार करके असम के ऊपरी हिस्से के रास्ते तवांग होते हुये उसके बाद कलकत्ता होकर 11 मार्च 1875 में वापस देहारादून आ गए। इस अभियान के दौरान कुल 2800 किमी की साहसिक यात्रा पूर्ण की।

लगातार उच्च हिमालयी पर्वत चोटियों, ग्लेशियरों और दर्रों से होकर पैदल रास्ता तय करके पंडित नैन सिंह का स्वास्थ्य खराब होने लगा था। इस प्रकार उन्होंने अब हिमालय की खोज की यात्रा पर जाना बंद कर दिया । पंडित नैन सिंह ने जिस प्रकार हिमालय के जोखिम और अज्ञात मार्गों का पता लगाया वह भारतीय सर्वेक्षण विभाग के इतिहास में अतुलनीय और अद्भुत है।

यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि अंग्रेज हुकूमत ने पंडित नैन सिंह के पश्चिमी हिमालय के चार साहसिक अभियानो को विभागीय दस्तावेज में उतना सम्मान नहीं दिया जितना कि उन्होंने अपने अंग्रेज सर्वेक्षकों के लिए लिखा है । किन्तु उन्हीं ब्रिटिश काल में हेनेरी जैसे ईमानदार इतिहासकर भी थे जिसने रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी लंदन से आग्रह किया परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने पंडित नैन सिंह को विक्टोरिया मेडल से अलंकृत किया था।

पंडित नैन सिंह का देहांत सन 1895 में गोरी नदी के तट पर मदकोट गाँव में हुआ था । स्वतंत्र भारत के भारतीय सर्वेक्षण विभाग में पंडित नैन सिंह का नाम और उनके साहसिक खोज अभियान की घटनाएँ बड़े गर्व से याद की जाती हैं

पंडित किशन सिंह

पंडित किशन सिंह, जिन्हें राय बहादुर किशन सिंह रावत के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध भारतीय सर्वेक्षक और अन्वेषक थे। वे भारत के उत्तराखंड राज्य से थे और उन्हें सर्वे ऑफ इंडिया में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। किशन सिंह ने हिमालय के क्षेत्रों की सर्वेक्षणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके कार्यों में माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई मापना भी शामिल था।

राय बहादुर किशन सिंह रावत का जन्म सन 1850 में ग्राम मिलम जनपद पिथौरागढ़ हुआ था किशन सिंह ने वर्ष 1878-82 के दरम्यान सर्वे आफ इंडिया द्वारा दार्जलिंग- मंगोलिया मार्ग के का सटीक मापन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

नहीं जा सकता है। पंडित सन् 1862 में एक राजकीय के रूप मे नियुक्त हुए । उन्होंने विद्यालय ग्राम मिलम में तथा गर्वयांग राजकीय विद्यालय में अपनी सेवाएं दी थी। सन किशन सिंह का चयन भारतीय देहारादून में प्रशिक्षु सर्वेक्षक के वर्ष के कठिन प्रशिक्षण के वर्ष तक उन्होंने तिब्बत और भौगोलिक क्षेत्रों का सर्वेक्षण मानसरोवर, शिगाचे महत्वपूर्ण अभियान थे ।

दर्जिलिंग – लाहसा मंगोलिया अभियान (1878 – 1882) उनके प्रमुख अभियानो में से एक था। पंडित किशन सिंह ने देहारादून स्थित भारतीय सर्वेक्षण विभाग में बतौर प्रशिक्षक के रूप मे अपनी सेवाएँ दीं। सन 1885 में वे भारतीय सर्वेक्षण विभाग से सेवनिवृत हुए थे। उनके अदम्य साहसिक सर्वे अभियान से प्रसन्न होकर ब्रिटिश भारतीय सरकार ने जनपद सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में जागीर प्रदान की जिसकी सालाना राजस्व रुपया 1850 थी पेरिस जिओग्राफिकल सोसाइटी ने उन्हें स्वर्ण पदक से नवाजा था । इटालियन जिओग्राफिकल सोसाइटी ने भी उन्हें स्वर्ण पदक से अलंकृत किया था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “राय बहादुर” की उपाधि देकर सम्मानित किया था ।

सेवानिवृत होने के बाद पंडित किशन सिंह अपने पैतृक निवास स्थान मिलम (जौहार) आकर ग्रामीण लोगों की सामाजिक और आर्थिक मदद करने में जुट गए और जौहर ग्रामीण विकास कार्यों में सक्रियता से जुड़े रहे। सन 1913 में उन्हें जौहर ‘उपकारिणी’ महासभा का संरक्षक बनाया गया। पंडित किशन सिंह का देहांत फरवरी 1921 में हुआ था । पंडित किशन सिंह के मरणोपरांत भारतीय अन्वेषक और खोजकर्ता का सूरज अस्त हो गया । राधानाथ सिकधर

विश्व की सर्वोच्च शिखर के ऊंचाई के गणनाकर्ता एवं महान गणितज्ञ राधानाथ सिकधर का जन्म अक्तूबर 1813 में कोलकाता के जोरसोको नामक स्थान पर एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम तूतीराम था। राधानाथ की तीन बहनें और दो सगे भाई थे। राधा नाथ जी ने विवाह नहीं किया था । इनकी आरंभिक शिक्षा गाँव के ही राजकीय विद्यालय में हुई थी। बाद में इनका दाखिला सन 1824 में हिन्दू कालेज (वर्तमान में प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय) में हुआ । हिन्दू कालेज में गणित संकाय के मशहूर प्रोफेसर ट्यटेलर के सानिध्य में राधानाथ ने गणित और भौतिकी विषय मे निपुणता हासिल की। न्यूटन के गणितीय–भौतिकी सिद्धांत में राधानाथ का कोई मुकाबला नहीं था। राधा नाथ ने अँग्रेजी, संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषयों में भी ज्ञान प्राप्त किया ।

ग्रीक और लेटिन भाषा की भी उन्हें समान्य जानकारी थी। कर्नल विलियम लंबटन के बाद जार्ज एवरेस्ट ने सन 1830 में जब सर्वेयर जनरल का पद संभाला तभी उन्होंने भारतीय सर्वेक्षण विभाग को दो भागो में विभाजित किया। पहला भाग सर्वेक्षण कार्य और दूसरा था गणना कार्य । प्रेक्षण कार्य साहसिक किन्तु उतना जटिल नहीं था जितना कि गणना के उपरांत सटीक नतीजों की प्राप्ति को परिणाम के तौर पर स्वीकारा इसके लिए जटिल गणितीय सिद्धांत और उच्च स्तर का भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान का विशेष ज्ञान होना जरूरी है ।

सर जार्ज एवरेस्ट ने इसके लिए हिन्दू कालेज को पत्र लिखा और अनुरोध किया कि उनके विभाग को मेधावी छात्र जो गणित और विज्ञान मे योग्यता रखते हों उनके नाम भेजे जाएँ । प्रोफेसर त्यटलर ने कुल आठ नाम भेजे जिसमें राधानाथ सिकदर सबसे उपयुक्त साबित हुए । 19 दिसंबर 1834 में राधानाथ सिकघर ने ग्रेट त्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे आफ इंडिया ( जी टी एस ) कोलकाता मुख्यालय में नौकरी प्राप्त की ।

राधानाथ वे प्रथम भारतीय थे जिन्हें (जी०टी०एस०) शाखा में नौकरी करने का अवसर मिला । सन 1832 में राधानाथ सिकदर ने एवरेस्ट के साथ देहरादून प्रवर्तन कार्यालय में कार्य करना आरंभ किया। राधानाथ की मदद से जार्ज एवरेस्ट ने करीब 1400 किमी भूमि (बिदर से मसूरी) का मापन किया। सन 1851 में राधानाथ सिकधर की मुख्य संगणक (चीफ कम्प्यूटर) पद पर पदोन्नति हुई और उन्हे कोलकाता भेजा गया । कोलकाता जाने के बाद उन्हें मौसम विभाग के अधीक्षक पद पर अतिरिक्त कार्यभार भी सौंपा गया। यह कार्यालय भी सर्वे आफ इंडिया कोलकाता परिसर में हुआ करता था। जीटीएस गणना कार्य के साथ ही उन्होंने अपने वैज्ञानिक शोध के जरिये मौसम विज्ञान के रूख को समझने में महत्वपूर्ण उपकरणों और सिद्धांतों का व्यापक प्रयोग किया जिसके आधार पर मौसम विभाग को नई दिशा मिली।

जार्ज एवरेस्ट के इंग्लैंड चले जाने के बाद कर्नल एंड्रू स्कॉट वौघ ने भारत के महासर्वेक्षक पद का कार्यभार संभाला। एंड्रू एक कूटनीतिज्ञ और अहंकारी स्वभाव का ब्रिटिश महासर्वेक्षक था। वह बाबू राधानाथ सिकधर की विद्वता से ईर्ष्या करता था और चोटी संख्या vx के गणना कार्य से उन्हें हटा कर “जे ओ निकोलस और जॉन हेनेसी ” ( 1845 1850 ) नामक दो अंग्रेज सर्वेक्षकों को उच्च हिमालयी शिखरों के प्रेक्षण कार्य हेतु अपनी अगुवाई में दुबारा भेजा और VX शिखर कि ऊंचाई को मापने कि गणना करने को कहा। निकोलस और हेनेसी को पता था कि दुनियाँ कि सबसे ऊंची शिखर के जटिल वैज्ञानिक गणना एवं विश्लेषण कार्य सिर्फ राधानाथ ही कर सकते हैं अतः उनके अनुरोध पर एंड्र वाग ने राधानाथ सिकधर को आदेश दिया कि वे इस काम को परिणाम तक ले जाएँ।

बाबू राधानाथ ने शिखर की ऊंचाई की सटीक वैज्ञानिक गणना विभिन्न छह सर्वे स्टेशन के प्रेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर की और इसकी ऊंचाई 29000 फिट का सफल आंकलन किया। एंड्रू ने इसे अपना नाम देने के लिए 2 फिट ऊंचाई और जोड़ी और शिखर एक्स.वी. की ऊंचाई 29002 फिट बताई। बंगाल सर्वे के जनरल रिपोर्ट 1851 – 54तक मे राधानाथ सिकधर के नाम का जिक्र नहीं किया गया। जब यह बात राधानाथ सिकधर जी को पता चली तो उन्होंने महासर्वेक्षक एंड्रू वाग को निवेदन पत्र लिखा और अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए उन्हें शिखर की गणना को याद दिलाया किन्तु एंड्रू ने यह कहते हुए राधानाथ के योगदान को नकार दिया कि राधानाथहिमालय चोटी पर कभी प्रेक्षण करने गए ही नहीं उन्होंने सिर्फ ऊंचाई की गणना की थी इसलिए उनको माउंट एवरेस्ट खोज का श्रेय दिया जाना उचित नहीं है।

एंड्रू जैसे अंग्रेज महासर्वेक्षक और शासक ने एक महान भारतीय गणितज्ञ और शोधकर्ता को हतोत्साहित करने का काम किया था। ऐसे और भी भारतीय शोधकर्ता होंगे जिनके नाम और भारतीय विज्ञान में योगदान को खोजने की परम आवश्यकता है। इतना ही नहीं एंड्रू वाग ने विश्व की ऊंची शिखर के नामकरण को लेकर भी नेपाल, तिब्बत भारत और चीन के स्थानीय नामों को अस्वीकार करते हुए शिखर को अपने दलील और पद के बल पर गौरीशिखर अथवा देवधुड़गा नामक चोटी को माउन्ट एवरेस्ट नाम दे दिया। जब यह बात सर जार्ज एवरेस्ट को पता चली तो उन्होंने कहा कि इसका नाम एवरेस्ट न होकर स्थानीय नाम अगर रखा जाता तो उचित होगा। एंड्रू वाग के प्रभाव के सामने किसी की बात नहीं सुनी गई और अंततः विश्व के मानचित्र पर माउन्ट एवरेस्ट को दर्ज कराने में वह सफल रहा ।

राधानाथ सिकधर ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग के अनेक गणितीय गणनाओं पर पुस्तकें और अध्याय लिखे थे जो आज भी प्रासांगिक है। सही अर्थों मे राधानाथ सिकधर आधुनिक भारत के इतिहास में एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे वे जीवन पर्यन्त तक गणित के क्षेत्र में कार्य करते हुये अंत में मात्र 57 वर्ष की आयु मे गोंडलपाड़ा चन्दन नगर (हुगली) पश्चिम बंगाल से इस दुनिया को अलविदा कह गए।

(लेखक देहरादून स्थित सर्वेक्षण संस्थान में महासर्वेक्षक हैं)
https://www.surveyofindia.gov.in/ की पत्रिका सर्वेक्षण दर्पण से साभार

भारतीय ज्ञान परंपरा – भारतीय शिक्षा प्रणाली – नई शिक्षा नीति

इसे युगांतरकारी कदम कहा जाना चाहिये या अपनी भूमि, अपनी मिट्टी से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण व महत्वाकांक्षी प्रयास। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जिस प्रकार से भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्ययन-अध्यापन, लेखन-पठन पर विशेष रूप से केंद्रित किया गया है वह अपने आप में “स्वयं को पहचानने का एक प्रयास है”। हम पिछले दशकों में अंग्रेजों की दी हुई शिक्षा पद्धति में हम स्वयं को ही भूल चुके थे। यूजीसी द्वारा नई युवा, छात्र पीढ़ी को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़ने के अनेक सार्थक व सकारात्मक प्रयास किए जा रहें हैं। विगत दो सौ वर्षों में भारत में चल रही शिक्षा पद्धति ने हमसे हमारा राष्ट्रीय गौरव भाव छीनकर हमें आत्म ग्लानि, व हीनता के भाव से भर दिया था। अब विषय चाहे कोई भी हो, सभी में भारतीयता से जुड़े हुए विषयों का समावेशन आत्म गौरव के भाव को बढ़ाता है।

मैकॉले की शिक्षा पद्धति से हमारी विमति-असहमति दशकों पूर्व से चल रही थी। असहमति के स्वर थे किंतु इस असहमति का निराकरण नहीं हो पा रहा था।गणित, चिकित्सा विज्ञान, योग विद्या, शस्त्र निर्माण, रसायन विज्ञान, वैमानिकी, कृषि विज्ञान, कला, साहित्य, संगीत, वास्तुकला, मूर्तिकला, धातु विज्ञान, वस्त्र निर्माण, न्याय, दर्शन, खगोल विज्ञान, ज्योतिष आदि आदि कई विषयों में हमारी समृद्ध, बलशाली व गौरवशाली विरासत हमें मिली है। हमें हमारी विरासत से सतत वंचित किया गया था। शिक्षाविद् सतत इस बात को कह रहे थे कि वर्तमान शिक्षा पद्धति हमें दीन-हीन स्थिति में ले जा रही है, किंतु उनके स्वर अनसुने ही रह रहे थे। मैकॉले की शिक्षा पद्धति ने हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा को समाप्त करने के संपूर्ण प्रयास किए थे। अंग्रेजों ने ये सब इसलिए किया क्योंकि वे जानते थे कि इस ज्ञान परंपरा के प्रवाह चलते रहने से वे हमें अपना ग़ुलाम नहीं बना पायेंगे। स्वयं के हीनता बोध को समाप्त करने हेतु भी अंग्रेजों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को नष्ट किया।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में जो कार्य सर्वप्रथम होना चाहिये थे वह अब हो रहा है। हमारी “स्व” आधारित शिक्षा पद्धति हमें अब मिल रही है।

शिक्षा क्या है, शिक्षण क्या है और शिक्षकत्व क्या है? विशुद्ध भारतीयता अर्थात् सनातन स्वमेव ही शिक्षण को व्यक्त करता है। शिक्षण में शिक्षा और शिक्षकत्व के सभी तत्त्व समाहित हो ही जाते हैं। तनिक विस्तार से और तथ्यपूर्वक समझने हेतु यजुर्वेद के दूसरे अध्याय के 33 वें मंत्र को समझते हैं –
आधत्त पितरो गर्भ कुमारं पुषकरमस्त्रजम्।
यथेह पुरुषो -सत।।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने इस मंत्र की व्याख्या की है –
“ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान पुरुष और स्त्रियों को चाहिए कि विद्यार्थी कुमार व कुमारी को विद्या देने के लिए गर्भ की भाँति धारण करें जैसे क्रम क्रम से गर्भ के मध्य देह बढ़ती है वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि अच्छी अच्छी शिक्षा से ब्रह्मचारी कुमार व कुमारी को श्रेष्ठ विद्या में वृद्धि करें तथा उनका पालन करें वह विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थ युक्त होकर सदासुखी हो। ऐसा अनुष्ठान सदैव करना चाहिए”।

वैदिक वाङ्गमय में शिक्षक अर्थात् आचार्य शब्द के संदर्भ में व्याख्या है – आचार्य वह जो आचरण की शिक्षा दे, सदाचार दे, दुराचार से दूर रखे। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने शिक्षा शब्द को भी परिभाषित करते हुए कहा है – शिक्षा वह जिससे मनुष्य की आत्मा, धर्मात्मा बने, व्यक्ति जितेन्द्रिय हो। हमारी वैदिक धरोहर यजुर्वेद के छठे अध्याय के 14 वें मंत्र मे वैदिक शिक्षा पद्धति को क्रमानुसार पाठ्यक्रम रूप में रचा गया है –
वाचं ते शुन्धामि।
प्राणं ते शुन्धामि।
चक्षुस ते शुद्धामि।
श्रोत्रम ते शुद्धामि।
नाभि ते शुद्धामि।
मेध्रम ते शुद्धामि।
पायुम ते शुद्धामि।
चरित्राम ते शुद्धामि।
इस मंत्र में आचार्य अपने शिष्य से कहते हैं, मैं नाना प्रकार की शिक्षाओं से तेरी वाणी को शुद्ध करता हूं, तेरे नेत्र को शुद्ध करता हूं, तेरी समस्त इंद्रियों को शुद्ध करता हूं और इस प्रकार मैं तेरे चरित्र को शुद्ध करता हूं तेरे। वस्तुतः शिष्य का जितेन्द्रिय हो जाना ही शिक्षा को आत्मसात् कर लेना ही शिक्षा में भारतीयता है। ऐंद्रिय दृष्टि से जितेन्द्रिय हो जाने को अर्थात् विवेकशील हो जाने व शुचितापूर्ण हो जाने को ही सनातन ने प्रमाणपत्र माना है। भारतीयता सनातन की धुरी पर ही घूमती है।

यहाँ प्रश्न यह उपजता है कि, भारतीयता क्या है?! या जब शिक्षा का भारतीयकरण ही हमारी शैक्षिक व्यवस्था की मूल आवश्यकता है तो ये “शिक्षा का भारतीयकरण” है क्या?! जीवन के विविध, विभिन्न क्षेत्रों में भारतीयता की स्थापना या उनमें देशज तत्व को स्थापित कर देना ही भारतीयता है। इस कार्य में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका के तत्त्व का बना रहना ही “शिक्षा का भारतीयकरण” है। भारतीयता के अनिवार्य व मूल तत्त्व हैं – भूमि, जन, संप्रभुता, भाषा एवं संस्कृति। हमने यहाँ इन पाँच शब्दों के पूर्व भारतीय शब्द का उपयोग नहीं किया है किंतु जीवन के इन तत्वों में भारतीयता का समावेशीकरण और भारतीयता से ही इन शब्दों के सत्व को साधना यही भारतीयकरण है। “हमारी शिक्षा व्यवस्था और भारतीयता” विषय की मूल अवधारणा को अति संक्षेप या सूक्ष्म रूप में इस प्रकार ही समझा जा सकता है। विस्तार करें तो, अंतःकरण की शुचिता, बाह्य शुचिता, सात्विकता का सातत्य बनाये रखना और इनसे आनन्दमय रहना है। देशज भारतीय जीवन मूल्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना और उनकी सतत रक्षा ही सच्ची भारतीयता की कसौटी है। संयम, अनाक्रमण, सहिष्णुता, त्याग, औदार्य, रचनात्मकता, सह-अस्तित्व, बन्धुत्व, सर्व समावेशी, सर्व स्पर्शी, समरसता, आदि आदि प्रमुख भारतीय जीवन मूल्य हैं जो शिक्षा में समाहित हों यह आवश्यक हैं। स्वदेशी का आग्रह रखते हुए हम वैश्वीकरण के न केवल अग्रदूत बनें अपितु वैश्वीकरण करण को अपने स्वभाव में स्थापित किए रहें यह भी भारतीयता या सनातनता है।

वस्तुतः भारतीय शिक्षा पद्धति या वैदिक शिक्षण ही हमें वह वैचारिक आधार देता है जिस आधार पर स्थिर होकर हम देशज के आग्रह के साथ वैश्विक होते भी हैं और विश्व को भारतीयता में ढलने का संदेश भी देते हैं। इस उपक्रम के फलस्वरूप वैदिक धर्म में विश्व का कितना ध्यान आकृष्ट हुआ है यह किसी से छिपा नहीं है। पर अत्यधिक बल देता है। हमारी शिक्षा में विश्वबंधुत्व का भाव समूचे विश्व में हमारी भारतीयता का द्योतक बन हमारा वैचारिक नेतृत्व करता है। विश्वबंधुत्व का यह अविरल, अविचल अद्भुत और उद्भट भाव हमें हमारी आध्यात्मिकता मात्र से मिलता है। तभी तो स्वामी विवेकानंद ने कहा है – ‘‘भारतीयता आध्यात्मिकता की तरंगों से ओत प्रोत रहने वाला और एक अविभाजित रहने वाला तत्त्व है”। तो, यहाँ से हम समझ समझ सकते हैं कि भारतीयता का अनिवार्य तत्त्व आध्यामिकता है। इस आध्यामिकता से ही युगों युगों से हमारी शिक्षा पद्धति सिद्ध रही है और विश्वगुरु के आसन पर एक बड़े ही दीर्घ कालखंड तक विराजित रहे हैं।

वसुधैव कटुम्बकम् की अवधारणा अर्थात् संपूर्ण विश्व को परिवार मानने का व्यापक मानस भारतीयता का और भारतीय शिक्षा का मूल तत्त्व है –
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समूचे विश्व को ही कुटुंब मानने का आचरण स्थिरता से धारण किए रहते हैं। शिक्षण में भारतीयता ही भारतवंशी के मानस में यह विचारतत्त्व स्थापित करती है कि –
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाग्भवेत॥

शिक्षा में भारतीयता ही तो है जो हमें हमें अपने स्थान, ग्राम, जनपद, प्रांत, राष्ट्र से ऊपर उठाकर हमसे “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” का उद्घोष कराती है।

(प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार हैं)

संपर्क 9425002270

डॉ. सिंघल का लेखन-प्रकाशन सहेजने काबिल…….

कोटा में मेरे चार दशक पूरे होने को हैं। इन सालों में 400 से ज्यादा मीडिया कर्मियों, लेखकों,रचनाधर्मियों से मिलने और उनके साथ काफी वक्त बिताने का अवसर मिला । यह संख्या अब और तेजी से बढ़ रही है क्योंकि अब हम डिजिटल युग में जी रहे हैं ।
 यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर में पहले 40 का चुनाव करूँ ,जिनका मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव रहा,जो मेरे लिए अनुकरणीय रहे,दिल और दिमाग के करीब रहे तो उसमें एक नाम  डॉ. प्रभात कुमार सिंघल का भी है । कोटा में भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी के रूप में 1985 से अब तक मेरा निवास है । पत्रकारिता, रचनात्मक लेखन और फोटोग्राफी से मैं व्यक्तिगत और व्यवसायिक रूप से 1975 से जुड़ा हुआ हूं। पत्रकारिता, संवाद कुशलता,लेखन,फोटो इन सबकी परिभाषाओं में अनेकों बदलाव इन पांच दशकों में मैंने देखे,महसूस किए । वक्त के साथ ,वक्त के अनुरूप बनकर अपने आप को ढालना आसान नहीं पर डॉ सिंघल इन सभी कसौटियों पर खरे उतरे हैं।
जनसम्पर्क से जुड़े किसी भी शख्स की अपनी-अपनी पहचान होती है,यह निरंतर चलने वाला सफर है । अगर इन खासियतों को परिभाषित  करने की बात आए तो मेरे विचार में सात सकार हैं। ये हैं सकारात्मक सोच,समन्वित प्रयास,सरलता,
संवेदनशीलता,सतत संवाद, समयबद्धता और सौम्यता। ये सभी गुण मैंने डॉ. सिंघल में पाए। ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूं क्योंकि कई वर्ष हम दोनों ने सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों के प्रचार के कई कार्यक्रम कोटा के शहरी और ग्रामीण इलाकों में न केवल किए बल्कि उन कार्यक्रमों की क्रियान्विति के लिए एक दूसरे के साथ वक्त बिताया ।
डॉ. सिंघल से अक्सर चाय पर मुलाकात होती रही,कभी मेरे कार्यालय में, कभी उनके कार्यालय में तो कभी जे. के. लोन अस्पताल के सामने एक थड़ी पर जहां हम कुछ मीडिया प्रेमी अक्सर मिलते थे। वहीं से जानकारी मिली कि डॉ सिंघल ने आधे से ज्यादा भारत को देखा और समझा है। वहीं चाय की चुस्कियों के साथ गप्पे लगती थी। उनकी कई पुस्तकें मीडिया, इतिहास, पुरातत्व, कला संस्कृति और पर्यटन पर आई हैं। उनका सबसे प्रिय विषय  पर्यटन रहा है । पर्यटन  के विविध पहलुओं पर उनकी 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये सभी प्रकाशन सहेजने के काबिल हैं। लेखन के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान भी मिले हैं ।
मेरा कोटा के मीडिया जगत से लगातार जुड़ाव रहा जिसका काफी श्रेय में डॉ. सिंघल को देना चाहूंगा।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं कि वो स्वस्थ रहें और अपनी संवाद कुशलता से हमें वाकिफ करवाते रहें। एक लेखक के रूप में सोशल और डिजिटल मीडिया पर प्रभाव डालने वाले हँसमुख और प्रतिभाशाली डॉ. सिंघल हम सबके लिए अनुकरणीय हैं ।
( नई बात निकल कर आती है पुस्तक से )

आरपीएफ कर्मियों के लिए सीपीआर कार्यशाला का आयोजन

मुंबई। हार्ट अटैक या कार्डियक अरेस्ट की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं और अप्रत्याशित रूप से यह अब युवाओं के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है, जो हमारे देश के लिए एक चिंताजनक स्थिति है। ऐसी स्थिति में, कार्डियो पल्मोनरी रिससिटेशन (CPR) के बारे में सीखना और जागरूकता पैदा करना सभी के लिए जरूरी हो गया है, खासकर फ्रंटलाइन स्टाफ के लिए। चिकित्सा सहायता उपलब्ध होने से पहले CPR का उचित तरीका जीवन बचा सकता है। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए, हाल ही में पश्चिम रेलवे के जगजीवन राम अस्पताल ने आरपीएफ कर्मियों के लिए CPR करने पर एक कार्यशाला आयोजित की, जो भारतीय रेलवे के फ्रंटलाइन कर्मचारियों में से एक हैं।

पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी श्री विनीत अभिषेक की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार कार्यशाला में लगभग 100 आरपीएफ कर्मियों और 25 अन्य कर्मचारियों ने भाग लिया। कार्यक्रम का उद्देश्य कर्मचारियों को उन्नत सीपीआर की उचित तकनीक, एईडी (ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डिफिब्रिलेटर) के उपयोग और इस महान प्रक्रिया में हुई नई प्रगति के बारे में शिक्षित करना था। जेआरएच के विभागाध्यक्ष और अतिरिक्त मुख्य स्वास्थ्य निदेशक-कार्डियोलॉजी डॉ. शिशिर कुमार राउल ने सीने में दर्द से लेकर दिल के दौरे और कार्डियोरेस्पिरेटरी अरेस्ट विषयों पर व्याख्यान दिया।

अपने व्‍याख्‍यान में उन्होंने दिल के दौरे के विभिन्न लक्षणों के साथ-साथ इसे नज़रअंदाज किये जाने तथा समय से पता न चलने पर होने वाली जटिलताओं पर जोर दिया। उन्होंने दिल के दौरे को रोकने के लिए प्रमुख निवारक कदमों के बारे में भी बताया और कर्मचारियों की समय-समय पर स्वास्थ्य जांच पर जोर दिया। सुश्री सुमैया राघवन के नेतृत्व में होली फैमिली अस्पताल की रिवाइव हार्ट फाउंडेशन की एक टीम ने सीपीआर तकनीक का इस्‍तेमाल करके दिखाया।  डॉ. अविनाश अर्का, वरिष्ठ मंडल चिकित्सा अधिकारी, कार्डियोलॉजी ने अपने अनूठे अंदाज में अपनी कविता के माध्यम से लोगों में जागरूकता पैदा की।

भाग लेने वाले सभी आरपीएफ कर्मचारियों को विभिन्न आपातकालीन स्थितियों में सीपीआर करने के लिए कहा गया और सभी कदम दिशानिर्देशों के अनुसार उठाये गये, जिनकी निगरानी जेआरएच के अच्छी तरह से प्रशिक्षित और प्रमाणित सीपीआर प्रशिक्षकों ने की। कार्यशाला की योजना जेआरएच की चिकित्सा निदेशक डॉ. ममता शर्मा के मार्गदर्शन में बनाई गई थी।

श्री विनीत ने आगे कहा कि फ्रंटलाइन कर्मचारियों के लिए इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन लाभकारी साबित होगा और हृदय रोगों तथा सीपीआर देने के उचित तरीके और इसकी जीवन रक्षक क्षमता के बारे में जागरूकता पैदा होगी।

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मुंबई में प्रो एवी टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा प्रदर्शन 3-5 सितंबर को जियो वर्ल्ड कन्वेंशन सेंटर में होगा

मुंबई। इन्फोकॉम इंडिया, भारत की अग्रणी प्रोफेशनल ऑडियोविज़ुअल (प्रो एवी) प्रदर्शनी, जियो वर्ल्ड कन्वेंशन सेंटर (JWCC) में 3-5 सितंबर 2024 तक मुंबई में फिर से होने जा रही है। इस साल, इन्फोकॉम इंडिया 2024 (जेडब्ल्यूसीसी) में पेवेलियन 1 से 3 से आगे बढ़ रहा है, जिसमें इनोवेटिव समाधानों के और भी बड़े प्रदर्शन के लिए जैस्मीन हॉल (लेवल 3 पर) को शामिल किया गया है। इसमें 10 से अधिक देशों के 250 से अधिक ब्रांडों द्वारा प्रदर्शन किया जाएगा, जिसमें 35 प्रदर्शक पहली बार भाग लेंगे। इन्फोकॉम इंडिया 2024 आयोजित किया जाएगा। पंजीकरण अब उन प्रोफेशनल और बिज़नस के लिए खुला है जो अपनी प्रो एवी विशेषज्ञता को प्रदर्शित करना चाहते हैं।

इन्फोकॉम इंडिया 2024, 3-5 सितंबर 2024, जियो वर्ल्ड कन्वेंशन सेंटर, मुंबई | 50 से अधिक उद्योग विशेषज्ञों के साथ 14 क्षेत्रों के 48 से अधिक निशुल्क सम्मेलन सत्रों में भाग लें

प्रदर्शनी में आने वालो लोग नवीनतम डिजिटल साइनेज से लेकर इंटेलिजेंट वीडियो कॉन्फ्रेंस सिस्टम तक, एलईडी वर्चुअल प्रोडक्शन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) से लेकर खुली आंखों के 3 डी डिस्प्ले, स्मार्ट क्लासरूम सॉल्यूशंस, इंटरैक्टिव इमर्सिव प्रोजेक्शन मैपिंग और शिक्षा, फाइनांस, लाइव इवेंट्स, शहरी विकास और स्मार्ट सिटीज़ जैसे क्षेत्रों की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए समाधानों को देख सकते हैं। प्रदर्शनी में प्रसिद्ध वैश्विक ब्रांडों और उभरते हुई नामी इंडस्ट्रियों के शीर्ष स्तरीय उत्पादों और इनोवेशन का प्रदर्शन किया जाएगा, जिनमें AERO, BENQ, Crestron, Harman, QSYS, Barco, AET, Samsung और PeopleLink के साथ-साथ WACOM, DVSI, Neotouch, Yotech Infocom, Onfinity Technologies और 30 अन्य शामिल हैं जो इन्फोकॉम इंडिया में पहली बार प्रदर्शन कर रहे हैं।

जैस्मीन हॉल में बड़े शो फ्लोर स्पेस के साथ विज़िटर, प्रो एवी एवं तकनीकी स्पेस में और भी अधिक इनोवेटरज़ को देख सकते हैं, जिनमें टोयो, 4 स्क्वायर कॉर्पोरेशन, अल्टेक्स, ब्लैक बॉक्स और वाह ली शामिल हैं। AVIXA भी जैस्मीन हॉल में तीन दिनों के दौरान अपने बूथ पर आयोजित इंटरैक्टिव और ज्ञानवर्धक सेमिनारों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करेगा।

2024 इन्फोकॉम इंडिया समिट 14 विशेष ट्रैक में 48 से अधिक सेमिनारों की निशुल्क भागीदारी पेश करेगा जिसका नेतृत्व 50 से अधिक इंडस्ट्री विशेषज्ञों द्वारा वक्ता के रूप में किया जाएगा। इन कार्यक्रमों की रोचक लाइनअप में डेविड लाबुस्केस, सीटीएस, सीएई, आरसीडीडी, कार्यकारी निदेशक और सीईओ, एवीआईएक्सए, के नेतृत्व में नेविगेटिंग न्यू होराइजन्स: इनसाइट्स एंड इनोवेशन शेपिंग इंडियाज प्रो एवी लैंडस्केप”, शामिल है जो लाइव इवेंट्स के लिए प्रो एवी एप्लिकेशन की उपयोगिता बताता है। साथ ही स्मार्ट शहरों को समर्पित उद्योग-केंद्रित सत्र, हॉस्पिटेलिटी, और शिक्षा क्षेत्र जैसे “लर्निंग स्पेस का भविष्य”, “भविष्य को सुरक्षित करना: साइबर सुरक्षा रणनीतियां, अर्थशास्त्र और जोखिम प्रबंधन”, एआई-युग में डिजिटल साइनेज जो इमर्सिव अनुभवों के लिए एआई, वीआर और डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करके वास्तविक दुनिया की रणनीतियों की तलाश करता है।

इन्फोकॉम इंडिया के कार्यकारी निदेशक जून को ने कहा, “भारत का डिजिटल परिवर्तन वास्तव में प्रेरणादायक है।” उन्होंने कहा, “हम देश भर में इनोवेशन के प्रति ऊर्जा और उत्साह देख रहे हैं। इन्फोकॉम इंडिया 2024 हमारा तरीका है जिससे हम भारत में शानदार प्रतिभा और ऊर्जा से भरपूर दिलों को एक साथ लाकर तकनीक के इस नए युग को आकार दे रहे हैं। हम इन्फोकॉम इंडिया को प्रो एवी कम्यूनिटी के लिए विचारों का आदान-प्रदान करने व साझेदारी को बढ़ावा देने और सामूहिक रूप से उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए प्रमुख माध्यम के रूप में देखते हैं।”

संपर्क स्थापित करना इन्फोकॉम इंडिया 2024 का मुख्य उद्देश्य है। नेटवर्किंग के अवसरों को उपस्थित लोगों को उद्योग के विशेषज्ञों, विचारकों और साथियों से जोड़ने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इनमें 2 और 3 सितंबर को सुबह 9.30 बजे से 10.00 बजे तक ल्यूमिनरी लाउंज (जैस्मीन हॉल) में ब्रेकफास्ट नेटवर्किंग के अलावा; AVIXA बूथ पर फ्लैशट्रैक सेमिनार एवं नेटवर्किंग इवेंट; प्रतिदिन नई तकनीक और उत्पाद फ्लोर टूर एवं बहुत कुछ शामिल है।

प्रदर्शकों, उत्पादों, सम्मेलन के एजेंडा, पंजीकरण और स्पोंसरशिप के अवसरों के बारे में पूरी जानकारी के लिए, www.infocomm-india.com पर विज़िट करें।

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