अपनी इस दो कौड़ी की जिंदगी और ईश्वर से मुझे बस एक ही शिकायत है कि उसने मुझे सब सब कुछ दिया, सिर्फ ‘कला’ को समझने की बुद्धि नहीं दी. अब तो लगता है, यह तमन्ना दिल में -लिये ही एक दिन कूच कर जाना होगा. वह दिन दोनों में से किसके लिए ज्यादा शुभ होगा, नहीं कह सकती, मेरे लिए या कला के लिए.
ऐसा नहीं कि इस दिशा में कुछ किया नहीं जा सकता था. बेशक किया जा सकता था जैसे, या तो वह मुझे इस लायक बना देता कि मैं ‘कला’ को समझ सकूं या कला को इस लायक बना देता कि उसे समझा जा सके. लेकिन दोनों में से कुछ भी न हो सका, सिवाय इसके कि कला-वीथियों से आर्ट गैलरियों के सैकड़ों चक्कर लगाने के बावजूद अपना-सा मुंह लिये यहां से कोरी-की-कोरी लौट आयी. यानी मेरी बुद्धि की काली कमली पर कला का रंग नहीं चढ़ पाया.
शायर होती तो कहती, ‘बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले.’ सोचती हूं तो हैरत होती है कि इन कलाकारों ने भी क्याअजीबो-गरीब चीज बनायी है- यह ‘कला’ कि भगवान की बनायी सब चीजों के ऊपर हो गयी. यानी भगवान की बनायी सृष्टि की ज्यादातर चीजें सिर में समा जाती हैं, लेकिन आदमी की बनायी कला सिर के ऊपरसे निकल जाती है. इस शर्मिंदगी, इस’कोफ्त को जिन भोगा, तिन जानियां… आगे क्या कहूं, शायर होती तो कहती… एक बार कला-वीथी गयी थी. चित्रकार अमुक जी भी वहीं बैठे थे. मैंने कमर कस के कला को समझने का बीड़ा उठाया औरभगवान का नाम ले कर कला-दीर्घा में प्रवेश कर गयी… जैसे हनुमान जी, सुरसा के मुंह में प्रवेश कर गये थे… अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर गये थे, बिना आगा-पीछा सोचे कि होइहैं सोई जो राम रचि राखा…
संप्रति, कला-वीथी में पहुंची और कलाकार ने जो रचि राखा था, उसे हर एंगिल से, पूरे मनोयोग से समझने की पुरजोर कोशिश में लग गयी. दो-चार चित्रों को देखने के बाद ही कामयाबी कदम चूमती-सी लगी क्योंकि पहला चित्र ही साफ-साफ समझ में आने लगा था. हरे-भरे बैक ग्राउंड में चित्रकार ने पेड़ बनाया था, बस… अच्छा चित्र था, उसे देख कर लगा कि आज तक जो मेरे और कला के बीच बैरन खाई थी, सो पट जायेगी. आज से ही इस पार मैं और उस पार कलावाली बात खत्म, भला हो चित्रकार का, समझ बढ़ी तो आत्मविश्वास बढ़ा. जिज्ञासा बढ़ी, और ज्यादा जानने की. सो अमुक चित्रकार जी के पास पहुंची. आत्मविश्वास से लबालब भरा जाम छलकाते हुए बोली, “अमुक जी, इस चित्र के पेड़ को बनाने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?”
“पेड़? पेड़ कहां है?” उन्होंने हैरानी से मुझे देखते हुए पूछा. “क्यों, यह रहा – यह वाला “वह पेड़ नहीं, औरत है,” अमुक जी घुरघुराये. लीजिए, हो गयी छुट्टी, कला के घर को खाला का घर समझ बैठने की नादानी का फलं भोग रही थी. फिर वही कोफ्त, कुढ़नऔर शर्मिंदगी… शायर होती तो कहती, ‘ये न थी हमारी किस्मत…’ शायर नहीं थी, तो चुपचाप खिसियायी-सी खिसक ली. मनमें रंज था कि अपनी कलात्मकता की कलई जो खुली, सो तो खुली ही, एक आदमी-से दिखते चित्रकार का दिल भी दुखाया. इस पाप का प्रायश्चित किसी प्रकार तो करना ही है. अतः मैं जल्दी-जल्दी दूसरे चित्रों को देखने लगी.
दूसरा चित्र देखा. वह भी एक पेड़ ही था. मैंने मन को समझाया, यानी यह भी एक औरत है. उसके बाद तीसरा चित्र एक औरत का ही था. मैं सोच में पड़ गयी. जो पेड़ दिखता था, वह तो औरत थी, अब यह जो औरत दिख रही है, सो कला के हिसाब से क्या हो सकती है? पेड़… अमुक जी से पूछती हूं. इस पेड़ की … नहीं, इस औरत की… नहीं, इस चित्र की- यही ठीक रहेगा…कला-दीर्घावाली बात है. समझ-समझ कर बोलना है. ‘रे मन समझ-समझ पग धरियो?’… प्रश्न भी… प्रेरणावाला ही ठीक रहेगा. तैयार हो कर फिर से पूछने पहुंची, “इस चित्र की प्रेरणा आपको कहां से मिली?”
“कौन से चित्र की?” “वह औरतवाला.””औरत ! वह तो मिल की चिमनी का चित्र है.”
“अरे अमुक जी! क्या कहते हैं”, मैं चिचियायी, “सोच कर देखिए, कहीं आपसे भूल तो नहीं हो रही… देखिए न, ये औरत केलंबे-लंबे बाल.” मेरी दशा ऐसी हो रही थी, जिस पर काफी मात्रा में तरस खाया जा सके. हृदय मानो-रो-रो कर पुकार रहा थॉ कि कलाकार अमुक जी ! भगवान के लिए इसे औरत कहो, औरत, मिल की चिमनी नहीं.बड़ी उम्मीद से कला-वीथी आयी हूं मैं.
अब मेरी साख, मेरी इज्जत, तुम्हारे हाथ है.’मेरी पत राखो गिरधारीओ गोबरधन, मैं आयी शरण तिहारी…’
“देखिए, ये काले लंबे बाल.””वे बाल नहीं, चिमनी से उड़ता हुआ धुआं है… …दरअसल मैंने महानगरीय प्रदूषण की जीती-जागती तसवीर खींचनी चाही है,” उन्होंने मुझे समझाया.
मुझमें साहस जागा, “लेकिन फिर औरत के रूप में क्यों?” “सामाजिक प्रदूषण का चित्र खींचना था न, इसलिए औरत से ज्यादा जीवंत प्रतीक और कहां मिलता?” “औरत को आपने और किस-किस प्रतीक के माध्यम से चित्रित किया है?” “इस चित्र-श्रृंखला में तो प्रदूषण के सारे पक्षों की प्रतीक औरत ही है. देखिए, बेहिसाब धुआं, कालिख फेंकती ट्रक, जलत्ती अंगीठी, दारू की भट्ठी, प्रदूषण उगलती चिमनी आदि सबको मैंने क्रमशः दौड़ती, हंसती, झूमती, झगड़ती, औरतों के माध्यम से ही चित्रित किया है.”
“आपकी इस लाइन में तो सारे पेड़-ही-पेड़ हैं.””जी हां, यानी औरतें-ही-औरतें.””और जितनी औरत उतने यथार्थ.”
“जी हां, आइए देखिए, मैंने चित्रों में, आज के जीवन का यथार्थ किस प्रकार दिखाया है.” वे फिर से एक वृक्ष के चित्र के पास ले गये. वह खूब मजे का मोटे तनेवाला दमदार वृक्ष था. अमुक जी बोले, “ध्यान से देखिए, आप इसमें जीवन का यथार्थ पायेंगे.” मैंने ध्यान से देखा, जीवन का यथार्थ नहीं दिखा, हां, उस चित्र के कोने के एक दुबला सीकिया-सा शुतुरमुर्ग दिखा. वह चोंच में कुछ बबाये था. थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछा, “यही न?””जी हां, कुछ समझीं आप?” अब तक के अनुभव के आधार पर मैं इतना समझी थी कि यह शुतुरमुर्ग और चाहे जो हो, शुतुरमुर्ग हर्गिज नहीं हो सकता.इसलिए ईमानदारी से कहा, “जी हां, समझी, क्या है यह?” “उस औरत का पति,” उनके स्वर में रोष और क्षोभ था. “किस औरत का?”उन्होंने मोटे दमदार तनेवाले वृक्ष की ओर हिकारत से देख कर कहा, “इस औरत का.” “ओह,” मैं जबरदस्त सस्पेंस की चपेट में थी. “और… और वह चोंच में क्या दबाये हैं?” “क्या दबायेगा… नाश्तेदान ले कर दफ्तर जा रहा है, और क्या?”
मेरा सिर कलामंडियां खा रहा था. लग रहा था मैं कला दीर्घा में नहीं, लखनऊ के बड़े इमामबाड़े में हूं. झिझकते- झिझकते पूछा. “एक बात बताइए, आप लोग पेड़ को पेड़ और औरत को औरत की तरह नहीं बना सकते?”
बना क्यों नहीं सकते?” उन्होंने गर्व से कहा. “फिर.””फिर हमारे और ऐरे-गैरे कमर्शियल आर्टिस्टों में फर्क क्या
रहा?”
“यानी?””यानी कला के धर्म का, उसके प्रति अपने फर्ज का निर्वाह हम कैसे कर पायेंगे?”
“लेकिन, औरत और वृक्षों के प्रति भी तो आपका कुछ फर्ज बनता है.”
उन्होंने मुझे इस तरह क्रोधित दृष्टि से देखा, जैसे कागभुशुंडी को कौआ बनाने से पहले उनके गुरु लोमश मुनि ने देखा होगा, शायर होती तो कहती… ‘वो कत्ल भी क रते हैं, तो चर्चा नहीं होती… हम आह भी करते हैं, तो…’लेकिन शायर नहीं थी, इसलिए फिर से चुपचाप खिसक ली. आते-आते जरा दूर पर एक चित्र दिखा. वह सोलहों आने औरत ही थी, लेकिन पास जा कर देखा, तो उसके नाक, कान, हौंठ सब गायब.
खुदाया ! क्या रहस्य है, अच्छी-भली औरत, सलीकेदार हाथ-पांव, लेकिन नाक- नकशे गायब. अब अमुक चित्रकार जी के पास जाने की हिम्मत नहीं थी, पास खड़े एक सज्जन से पूछा, “क्यों भाई साहब! इस औरत के आंख, नाक, कान वगैरह क्या हो गये?””कला को समर्पित,” उन्होंने संजीदा आवाज में कहा और दूसरे चित्रों की ओर बढ़ गये. मैं एक बार फिर बेआबरू हो करकूचे से निकल आयी… शायर होती, तो भी कुछ न कहती, बस सिर पीटती.
(साभार- साप्ताहिक धर्मयुग १२ फरवरी, १९८४ के अंक से )