Wednesday, January 15, 2025
spot_img
Home Blog Page 5

देश के युवाओं को द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के वृहद अध्ययन की जरूरत-श्री कृष्ण कुमार यादव

अहमदाबाद। युवाओं की सशक्त और सजग भागीदारी ही समाज और राष्ट्र को समृद्ध बना सकती है। महान कर्मयोगी भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में इसीलिए कर्म के भाव को ही अपनाने पर जोर दिया। ऐसे में युवाओं की महती जिम्मेदारी है कि वे अपनी इस भूमिका को पहचानें और इस दिशा में सकारात्मक पहल करते हुए नए आयाम रचें। उक्त उद्गार ख़्यात साहित्यकार व ब्लॉगर एवं उत्तर गुजरात परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने यादव सेवा समाज-समग्र भारत‘ के वस्त्रालअहमदाबाद में आयोजित 13वें वार्षिक सम्मेलन व स्नेह मिलन कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि व्यक्त किये। उन्होंने अपने उद्बोधन में युवाओं में शिक्षाकौशल विकास और देश निर्माण में उनकी बढ़ती महती भूमिका की चर्चा करते हुये समाज में उनके नये कर्तव्य निर्माण की ओर भी ध्यान आकर्षित किया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि गुजरात की धरती द्वारकाधीश के लिए जानी जाती है। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नहींएक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआजिनका गीता-ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। आज देश के युवाओं को श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के वृहद अध्ययन की जरूरत है। श्री यादव ने कहा कि श्रीकृष्ण ने कभी कोई निषेध नहीं किया। उन्होंने पूरे जीवन को समग्रता के साथ स्वीकारा है। संसार के बीच रहते हुये भी उससे तटस्थ रहकर वे पूर्ण पुरुष कहलाए। यही कारण है कि उनकी स्तुति लगभग सारी दुनिया में किसी न किसी रूप में की जाती है।

इस अवसर पर गुजरात के विभिन्न जिलों के कक्षा 10 और 12 सहित उच्चतर कक्षाओं में उत्कृष्ट स्थान प्रदान करने वाले यदुवंशी विद्यार्थियोंचिकित्साइंजीनियरिंग और विभिन्न सेवाओं में चयनित प्रतिभाओंसमाज सेवा में तत्पर महानुभावों को स्मृति चिन्ह व प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। नए सदस्यों और आजीवन सदस्यता ग्रहण करने वाले सदस्यों को भी सम्मानित किया गया।  

यादव सेवा समाज-समग्र भारत‘ के गुजरात अध्यक्ष श्री सत्यदेव यादव ने बताया कि देश के विभिन्न राज्यों से व्यवसाय और आजीविका के लिए यदुवंशी लोग गुजरात में आते हैं। उन सभी में समन्वय करते हुए उनमें मिलाप करानाउनकी सेवाओं को सम्मानित करनाहोनहार प्रतिभाओं को पुरस्कृत करनासामाजिक-सांस्कृतिक समारोहवैवाहिक परिचय कार्यक्रम एवं समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपनी समृद्ध भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयोजन से इस वार्षिक सम्मेलन का आयोजन किया गया।

इस दौरान सर्वश्री सत्यदेव यादवशिव मूर्ति यादवमुलायम सिंह यादवएडवोकेट अशोक यादवशिव शंकर यादवसुभाष चंद्र यादवरामाधार यादवमुकेश यादवभीम सिंह यादवराम बक्श यादवजितेंद्र यादव सहित तमाम लोगों ने अपनी सक्रिय भागीदारी से लोगों का हौसला बढ़ाया।

गुरु गोविन्द सिंह जी के प्रकाश उत्सव के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश

मुगल शासनकाल के दौरान बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। चारों और औरंगज़ेब की दमनकारी नीति के कारण हिन्दू जनता त्रस्त थी। सदियों से हिन्दू समाज मुस्लिम आक्रांताओं के झुंडों पर झुंडों का सामना करते हुए अपना आत्म विश्वास खो बैठा था। मगर अत्याचारी थमने का नाम भी नहीं ले रहे थे। जनता पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए सिख पंथ के गुरु गोबिन्द सिंह ने आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में अपनी  संगत को आमंत्रित किया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया।  गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।
गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी शिष्य आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय  दयाराम नामक एक खत्री आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी भी प्यासी है। इस बार धर्मदास नामक जाट आगे आये जो सहारनपुर के जटवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी।
बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय झींवर (पानी भरने वाले) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द दर्जी आगे आए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द नाई सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने लोगों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह केसरिया बाना पहने पांचों  नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। गुरु गोविन्द सिंह के महान संकल्प से खालसा की स्थापना हुई। हिन्दू समाज अत्याचार का सामना करने हेतु संगठित हुआ। इतिहास की यह घटना का मनोवैज्ञानिक पक्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

पञ्च प्यारों में सभी जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका अर्थ यही था कि अत्याचार का सामना करने के लिए हिन्दू समाज को जात-पात मिटाकर संगठित होना होगा। तभी अपने से बलवान शत्रु का सामना किया जा सकेगा। खेद है की हिन्दुओं ने गुरु गोविन्द सिंह के सन्देश पर  अमल नहीं किया। जात-पात के नाम पर बटें हुए हिन्दू समाज में संगठन भावना शुन्य हैं। गुरु गोविन्द सिंह ने स्पष्ट सन्देश दिया कि कायरता भूलकर, स्वबलिदान देना जब तक हम नहीं सीखेंगे तब तक देश, धर्म और जाति की सेवा नहीं कर सकेंगे। अन्धविश्वास में अवतार की प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं होने वाला। अपने आपको समर्थ बनाना ही एक मात्र विकल्प है। धर्मानुकूल व्यवहार, सदाचारी जीवन, अध्यात्मिकता, वेदादि शास्त्रों का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के एकमात्र विकल्प हैं।

1. आज हमारे देश में सेक्युलरता के नाम पर, अल्पसंख्यक के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर अवैध बांग्लादेशियों को बसाया जा रहा हैं।
2. हज सब्सिडी दी जा रही है, मदरसों को अनुदान और मौलवियों को मासिक खर्च दिया जा रहा हैं, आगे आरक्षण देने की तैयारी हैं।
3. वेद, दर्शन, गीता के स्थान पर क़ुरान और बाइबिल को आज के लिए धर्म ग्रन्थ बताया जा रहा हैं।
4. हमारे अनुसरणीय राम-कृष्ण के स्थान पर साईं बाबा, ग़रीब नवाज, मदर टेरेसा को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।
5. ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं के धर्मान्तरण को सही और उसका प्रतिरोध करने वालों को कट्टर बताया जाता रहा हैं।
6. गौरी-ग़जनी को महान और शिवाजी और प्रताप को भगोड़ा बताया जा रहा हैं।
7.1200 वर्षों के भयानक और निर्मम अत्याचारों कि अनदेखी कर बाबरी और गुजरात दंगों को चिल्ला चिल्ला कर भ्रमित किया जा रहा हैं।
8. हिन्दुओं के दाह संस्कार को प्रदुषण और जमीन में गाड़ने को सही ठहराया जा रहा हैं।
9. दीवाली-होली को प्रदुषण और बकर ईद को त्योहार बताया जा रहा हैं।
10. वन्दे मातरम, भारत माता की जय बोलने पर आपत्ति और कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताया जा रहा हैं।
11. विश्व इतिहास में किसी भी देश, पर हमला कर अत्याचार न करने वाली हिन्दू समाज को अत्याचारी और समस्ते विश्व में इस्लाम के नाम पर लड़कियों को गुलाम बनाकर बेचने वालों को शांतिप्रिय बताया जा रहा हैं।
12. संस्कृत भाषा को मृत और उसके स्थान पर उर्दू, अरबी, हिब्रू और जर्मन जैसी भाषाओँ को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।

हमारे देश, हमारी आध्यात्मिकता, हमारी आस्था, हमारी श्रेष्ठता, हमारी विरासत, हमारी महानता, हमारे स्वर्णिम इतिहास सभी को मिटाने के लिए सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा हैं। गुरु गोविन्द सिंह के पावन सन्देश- जातिवाद और कायरता का त्याग करने और संगठित होने मात्र से हिन्दू समाज का हित संभव हैं।

आईये  गुरु गोविन्द सिंह जी के प्रकाश उत्सव के अवसर पर एक बार फिर से देश, धर्म और जाति की रक्षा का संकल्प ले।

गुरु गोविन्द सिंह जी एक महान योद्धा होने के साथ साथ महान विद्वान् भी थे. वह ब्रज भाषा, पंजाबी, संस्कृत और फारसी भी जानते थे. और इन सभी भाषाओँ में कविता भी लिख सकते थे. जब औरंगजेब के अत्याचार सीमा से बढ़ गए तो गुरूजी ने मार्च 1705 को एक पत्र भाई दयाल सिंह के हाथों औरंगजेब को भेजा. इसमे उसे सुधरने की नसीहत दी गयी थी. यह पत्र फारसी भाषा के छंद शेरों के रूप में लिखा गया है. इसमे कुल 134 शेर हैं. इस पत्र को “ज़फरनामा “कहा जाता है.
यद्यपि यह पत्र औरंगजेब के लिए था. लेकिन इसमे जो उपदेश दिए गए है वह आज हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं . इसमे औरंगजेब के आलावा मु सल मानों के बारे में जो लिखा गया है, वह हमारी आँखें खोलने के लिए काफी हैं. इसीलिए ज़फरनामा को धार्मिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करते हुए दशम ग्रन्थ में शामिल किया गया है.
जफरनामासे विषयानुसार कुछ अंश प्रस्तुत किये जा रहे हैं. ताकि लोगों को इस्लाम की हकीकत पता चल सके —
1 – शस्त्रधारी ईश्वर की वंदना —
बनामे खुदावंद तेगो तबर, खुदावंद तीरों सिनानो सिपर.
खुदावंद मर्दाने जंग आजमा, ख़ुदावंदे अस्पाने पा दर हवा. 2 -3.
उस ईश्वर की वंदना करता हूँ, जो तलवार, छुरा, बाण, बरछा और ढाल का स्वामी है. और जो युद्ध में प्रवीण वीर पुरुषों का स्वामी है. जिनके पास पवन वेग से दौड़ने वाले घोड़े हैं.
2 – औरंगजेब के कुकर्म —
तो खाके पिदर रा बकिरादारे जिश्त, खूने बिरादर बिदादी सिरिश्त.
वजा खानए खाम करदी बिना, बराए दरे दौलते खेश रा.
तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गूँधा, और उस खून से सनी मिटटी से अपने राज्य की नींव रखी. और अपना आलीशान महल तैयार किया.
3 – अल्लाह के नाम पर छल —
न दीगर गिरायम बनामे खुदात, कि दीदम खुदाओ व् कलामे खुदात.
ब सौगंदे तो एतबारे न मांद, मिरा जुज ब शमशीर कारे न मांद.
तेरे खु-दा के नाम पर मैं धोखा नहीं खाऊंगा, क्योंकि तेरा खु-दा और उसका कलाम झूठे हैं. मुझे उनपर यकीन नहीं है . इसलिए सिवा तलवार के प्रयोग से कोई उपाय नहीं रहा.
4 – छोटे बच्चों की हत्या —
चि शुद शिगाले ब मकरो रिया, हमीं कुश्त दो बच्चये शेर रा.
चिहा शुद कि चूँ बच्च गां कुश्त चार, कि बाकी बिमादंद पेचीदा मार.
यदि सियार शेर के बच्चों को अकेला पाकर धोखे से मार डाले तो क्या हुआ. अभी बदला लेने वाला उसका पिता कुंडली मारे विषधर की तरह बाकी है. जो तुझ से पूरा बदला चुका लेगा.
5 – मु-सलमानों पर विश्वास नहीं —
मरा एतबारे बरीं हल्फ नेस्त, कि एजद गवाहस्तो यजदां यकेस्त.
न कतरा मरा एतबारे बरूस्त, कि बख्शी ओ दीवां हम कज्ब गोस्त.
कसे कोले कुरआं कुनद ऐतबार, हमा रोजे आखिर शवद खारो जार.
अगर सद ब कुरआं बिखुर्दी कसम, मारा एतबारे न यक जर्रे दम.
मुझे इस बात पर यकीन नहीं कि तेरा खुदा एक है. तेरी किताब (कु-रान) और उसका लाने वाला सभी झूठे हैं. जो भी कु-रान पर विश्वास करेगा, वह आखिर में दुखी और अपमानित होगा. अगर कोई कुरान कि सौ बार भी कसम खाए, तो उस पर यकीन नहीं करना चाहिए.
6 – दुष्टों का अंजाम —
कुजा शाह इस्कंदर ओ शेरशाह, कि यक हम न मांदस्त जिन्दा बजाह.
कुजा शाह तैमूर ओ बाबर कुजास्त, हुमायूं कुजस्त शाह अकबर कुजास्त.
सिकंदर कहाँ है, और शेरशाह कहाँ है, सब जिन्दा नहीं रहे. कोई भी अमर नहीं हैं, तैमूर, बाबर, हुमायूँ और अकबर कहाँ गए. सब का एकसा अंजाम हुआ.

7 – गुरूजी की प्रतिज्ञा —
कि हरगिज अजां चार दीवार शूम, निशानी न मानद बरीं पाक बूम.
चूं शेरे जियां जिन्दा मानद हमें, जी तो इन्ताकामे सीतानद हमें.
चूँ कार अज हमां हीलते दर गुजश्त, हलालस्त बुर्दन ब शमशीर दस्त.
हम तेरे शासन की दीवारों की नींव इस पवित्र देश से उखाड़ देंगे. मेरे शेर जब तक जिन्दा रहेंगे, बदला लेते रहेंगे. जब हरेक उपाय निष्फल हो जाएँ तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है.

8 – ईश्वर सत्य के साथ है —
इके यार बाशद चि दुश्मन कुनद, अगर दुश्मनी रा बसद तन कुनद.
उदू दुश्मनी गर हजार आवरद, न यक मूए ऊरा न जरा आवरद.
यदि ईश्वर मित्र हो, तो दुश्मन क्या क़र सकेगा, चाहे वह सौ शरीर धारण क़र ले. यदि हजारों शत्रु हों, तो भी वह बल बांका नहीं क़र सकते है. सदा ही धर्म की विजय होती है.

गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी इसी प्रकार की ओजस्वी वाणियों से लोगों को इतना निर्भय और महान योद्धा बना दिया कि अब भी शांतिप्रिय — सिखों से उलझाने से कतराते हैं. वह जानते हैं कि सिख अपना बदला लिए बिना नहीं रह सकते . इसलिए उनसे दूर ही रहो.

इस लेख का एकमात्र उद्देश्य है कि आप लोग गुरु गोविन्द साहिब कि वाणी को आदर पूर्वक पढ़ें, और श्री गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह जी के बच्चों के महान बलिदानों को हमेशा स्मरण रखें. और उनको अपना आदर्श मनाकर देश धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो जाएँ. वर्ना यह सेकुलर और जिहा दी एक दिन हिन्दुओं को विलुप्त प्राणी बनाकर मानेंगे.
गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, बढे धर्म हिन्दू सकल भंड भागे

The Zafarnāma ਜ਼ਫ਼ਰਨਾਮਾ, ظفرنامہ‎, > Declaration of Victory was a spiritual victory letter sent by Guru Gobind Singh Ji in 1705 to the Mughal Emperor of India, Aurangzeb after the Battle of Chamkaur. The letter is written in Persian verse.
Share it

Source-Vedic Sikhism.

कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा की युगल रचनाधर्मिता पर केंद्रित ‘सरस्वती सुमन’ का संग्रहणीय विशेषांक

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में आदिकाल से ही तमाम साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किसी कवि, लेखक या साहित्यकार को अगर ऐसा जीवनसाथी मिल जाए जो खुद भी उसी क्षेत्र से जुड़ा हो तो यह सोने पर सुहागा जैसी बात होती है। एक तरीके से देखा जाए तो ऐसे लेखकों या लेखिकाओं को उनके घर में ही पहला श्रोता, प्रशंसक या आलोचक मिल जाता है। इसी कड़ी में देव भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड के देहरादून से प्रकाशित ‘सरस्वती सुमन’ मासिक पत्रिका ने हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय युगल जोड़ी आकांक्षा यादव और कृष्ण कुमार यादव की रचनाधर्मिता पर केंद्रित 80 पेज का शानदार विशेषांक दिसंबर-2024 में प्रकाशित किया है। इसमें दोनों की चयनित कविताओं, लघुकथाओं, कहानियों, लेखों को सात खंडों में शामिल किया गया है, वहीं विभिन्न पन्नों पर उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटती तस्वीरों के माध्यम से इसे और भी रोचक बनाया गया है। कवर पेज पर इस युगल की खूबसरत तस्वीर पहली ही नज़र में आकृष्ट करती है।

अपने प्रकाशन के 23 वर्षों में ‘सरस्वती सुमन’ पत्रिका ने तमाम विषयों और व्यक्तित्वों पर आधारित विशेषांक प्रकाशित किये हैं, परंतु किसी साहित्यकार दंपति के युगल कृतित्व पर आधारित इस पत्रिका का पहला विशेषांक है। इसके लिए पत्रिका के प्रधान संपादक डॉ. आनंद सुमन सिंह और संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव हार्दिक साधुवाद के पात्र हैं। ‘वेद वाणी’ और ‘मेरी बात’ के तहत डॉ. आनंद सुमन सिंह ने साहित्य एवं संस्कृति के सारस्वत अभियान को आगे बढ़ाया है। अपने संपादकीय में डॉ. सिंह ने कृष्ण कुमार और आकांक्षा से अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में परिचय प्रगाढ़ता का भी जिक्र किया है।

सम्प्रति उत्तर गुजरात परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल पद पर कार्यरत, मूलत: उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद निवासी श्री कृष्ण कुमार यादव जहाँ भारतीय डाक सेवा के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं, वहीं उनकी जीवनसंगिनी श्रीमती आकांक्षा यादव एक कॉलेज में प्रवक्ता रही हैं। पर सोने पर सुहागा यह कि दोनों ही जन साहित्य, लेखन और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी समान रूप से प्रवृत्त हैं। देश-विदेश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ ही इंटरनेट पर भी इस युगल की रचनाओं के बखूबी दर्शन होते हैं। विभिन्न विधाओं में श्री कृष्ण कुमार यादव की अब तक कुल 7 पुस्तकें प्रकाशित हैं, वहीं श्रीमती आकांक्षा की 4 पुस्तकें प्रकाशित हैं।

प्रधान संपादक डॉ. आनंद सुमन सिंह ने इस युगल विशेषांक के संबंध में लिखा है, ” यह युगल विगत लगभग 20 वर्षों से सरस्वती सुमन पत्रिका के साथ निरंतर जुड़ा है। इसलिए जब ‘युगल विशेषांक’ निकालने का विचार बना तो सबसे पहले उन्हीं से शुरुआत की जा रही है। अब तो इस युगल की दोनों पुत्रियाँ-अक्षिता और अपूर्वा भी लेखन क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ जुटी हैं और अपनी शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ साहित्य सेवा में भी सक्रिय हैं। ‘युगल विशेषांक’ का उद्देश्य केवल एक साहित्यिक परिवार से साहित्य सेवियों को परिचित करवाना है और उनके लेखन की हर विधा को पाठकों के सम्मुख रखना है। अनुजवत कृष्ण कुमार यादव और उनकी सहधर्मिणी आकांक्षा यादव दोनों ही उच्च कोटि के साहित्यसेवी हैं और उनके विवाह की वर्षगांठ (28 नवंबर, 2024) पर यह अंक साहित्य प्रेमियों के लिए उपयोगी होगा ऐसी हमारी मान्यता है।“

देश-विदेश में तमाम सम्मानों से अलंकृत यादव दंपति पर प्रकाशित यह विशेषांक साहित्य प्रेमियों के लिए एक संग्रहणीय अंक है। साहित्य समाज का दर्पण है। इस दर्पण में पति-पत्नी के साहित्य को समाज के सामने लाकर ‘सरस्वती सुमन’ ने एक नया विमर्श भी खोला है। साहित्य का अनुराग होने के कारण इस तरह का एक प्रयास हमने भी अपने साहित्य लेखन के दौरान ‘सहचर मन’ (काव्य संग्रह, 2010) में कराया था, जिसमें आधी कविताएं मेरी और आधी कविताएं मेरे जीवन साथी प्रोफेसर अखिलेश चंद्र की हैं। आशा की जानी चाहिये कि अन्य पत्रिकाएँ भी इस तरह के युगल विशेषांक प्रकाशित करेंगी।  निश्चितत: इस तरह के प्रयास न केवल साहित्य में बल्कि दांपत्य जीवन में भी रचनात्मकता को और प्रगाढ़ करते हैं।

सांस्कृतिक विरासत और आयोजनों से भारत को दुनिया भर में मिली नई पहचान

आर्थिक क्षेत्र में प्रगति की दृष्टि से भारत की अपनी विशेषताएं हैं, जो अन्य देशों में नहीं दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए भारत में आयोजित होने वाले धार्मिक आयोजनों एवं मेलों आदि में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं द्वारा न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से इन मेलों/कार्यक्रमों में भाग लिया जाता है बल्कि इन श्रद्धालुओं द्वारा इन  स्थानों पर किये जाने वाले खर्च से स्थानीय स्तर पर व्यापार को बढ़ावा देने एवं रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित करने में भी अपना योगदान दिया जाता है। इसी प्रकार, धार्मिक पर्यटन भी केवल भारत की विशेषता है। प्रतिवर्ष करोड़ों परिवार धार्मिक स्थलों पर, विशेष महुरतों पर, पूजा अर्चना करने के लिए इकट्ठा होते है।
 जम्मू में माता वैष्णोदेवी मंदिर, वाराणसी में भगवान भोलेनाथ मंदिर, अयोध्या में प्रभु श्रीराम मंदिर, उज्जैन में बाबा महाकाल मंदिर, दक्षिण में तिरुपति बालाजी मंदिर आदि ऐसे श्रद्धास्थल है जहां पूरे वर्ष भर ही श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। प्रत्येक 3 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने वाले कुम्भ के मेले में भी करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु ईश्वर की पूजा अर्चना हेतु प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक एवं उज्जैन में पहुंचते हैं। शीघ्र ही, 14 जनवरी 2025 से लेकर 26 फरवरी 2025 तक प्रयागराज में महाकुम्भ मेले का आयोजन किया जा रहा है। महाकुम्भ की 44 दिनों की इस इस पूरी अवधि में प्रतिदिन एक करोड़ श्रद्धालुओं के भारत एवं अन्य देशों से प्रयागराज पहुंचने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है, इस प्रकार, कुल मिलाकर लगभग 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुगण उक्त 44 दिनों की अवधि में प्रयागराज पहुंचेंगे। करोड़ों की संख्या में पहुंचने वाले इन श्रद्धालुगणों द्वारा इन तीर्थस्थलों पर अच्छी खासी मात्रा में खर्च भी किया जाता है। जिससे विशेष रूप से स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो बल मिलता ही है, साथ ही करोड़ों की संख्या में देश में रोजगार के नए अवसर भी निर्मित होते हैं एवं होटल उद्योग, यातायात उद्योग, पर्यटन से जुड़े व्यवसाय, स्थानीय स्तर के छोटे छोटे उद्योग एवं विभिन्न उत्पादों के क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यापारियों के व्यवसाय में भी अतुलनीय वृद्धि होती दिखाई देती है।

इसी प्रकार, भारत में विवाहों के मौसम में सम्पन्न होने वाले विवाहों पर किए जाने वाले भारी भरकम खर्च से भी भारतीय अर्थव्यवस्था को बल मिलता है। वर्ष 2024 के, मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर के बीच, भारत में 50 लाख विवाह सम्पन्न हुए हैं। उक्त एक माह की अवधि के दौरान सम्पन्न हुए इन विवाहों पर भारतीय परिवारों द्वारा 7,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि का खर्च किया गया है। जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में सम्पन्न हुए विवाहों पर 5,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि का खर्च किया गया था। उक्त वर्णित 50 लाख विवाहों पर औसतन प्रति विवाह 14,000 डॉलर, अर्थात लगभग 13 लाख रुपए की राशि का खर्च किया गया है एवं 50,000 विवाहों पर तो एक करोड़ रुपए से अधिक की राशि का खर्च किया गया है।

भारत में प्रति विवाह होने वाला औसत खर्च, परिवार की औसत प्रतिवर्ष की कुल आय का तीन गुणा एवं देश में औसत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के 5 गुणा के बराबर रहता है। भारत में विवाहों पर पूरे वर्ष में कुल 13,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का खर्च किया जाता है जो चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। चीन में प्रतिवर्ष विवाहों पर 17,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का खर्च किया जाता है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि आगामी वर्ष में भारत, विवाहों पर किए जाने वाले खर्च की दृष्टि से, चीन को पीछे छोड़कर पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर आ जाएगा। भारत में प्रति वर्ष एक करोड़ विवाह सम्पन्न होते हैं। भारत में सर्दियों के मौसम को विवाहों का मौसम कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं क्योंकि पूरे वर्ष भर में सम्पन्न होने वाले विवाहों में से लगभग 50 प्रतिशत विवाह सर्दियों के मौसम में ही सम्पन्न होते हैं।

भारत में विवाहों पर होने वाले भारी भरकम राशि के कुल खर्च में से प्रीवेडिंग फोटोग्राफी, वेडिंग फोटोग्राफी, पोस्टवेडिंग फोटोग्राफी पर लगभग 10 प्रतिशत की राशि का खर्च किया जाता है। विवाह के स्थान के चयन एवं साज सज्जा पर वर्ष 2023 में 18 प्रतिशत की राशि का खर्च किया गया था, जो वर्ष 2024 में बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया है क्योंकि भारतीय परिवारों द्वारा विवाह अब अन्य शहरों यथा गोवा, पुष्कर, उदयपुर एवं केरला जैसे स्थानों पर सम्पन्न किया जा रहे हैं। खानपान आदि पर कुल खर्च का लगभग 10 प्रतिशत भाग खर्च किया जा रहा है। म्यूजिक आदि पर लगभग 6 प्रतिशत की राशि का खर्च किया जा रहा है। इसी प्रकार, ज्वेलरी, ऑटो बाजार एवं सोशल मीडिया आदि पर भी अच्छी खासी राशि का खर्च  किया जाता है। इससे, उक्त समस्त क्षेत्रों में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित होते हैं। अतः भारत में विवाहों के मौसम में होने वाले भारी भरकम राशि के खर्च से देश के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर को तेज करने में सहायता मिलती है।

हाल ही में सम्पन्न हुए विवाहों के मौसम में भारतीय परिवारों द्वारा किए गए खर्च के चलते अब ऐसी उम्मीद की जा रही है कि वित्तीय वर्ष 2024-25 की तृतीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर को गति मिलेगी जो द्वितीय तिमाही में गिरकर 5.2 प्रतिशत के स्तर पर आ गई थी। विनिर्माण क्षेत्र एवं सेवा क्षेत्र में विकास दर अधिक रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बंग्लादेश में राजनैतिक अस्थिरता के चलते रेडीमेड गार्मेंट्स के क्षेत्र में विनिर्माण इकाईयां बंद हो रही हैं एवं वैश्विक स्तर पर रेडीमेड गर्मेंट्स के क्षेत्र में कार्यरत सप्लाई चैन की इकाईयां बांग्लादेश के स्थान पर अब भारत से निर्यात को प्रोत्साहित कर रही हैं। जिससे भारत में रेडीमेड गर्मेंट्स एवं फूटवीयर उद्योग में कार्यरत इकाईयों को इन उत्पादों को अन्य देशों को निर्यात करने के ऑर्डर लगातार बढ़ रहे हैं।

उक्त कारकों के चलते भारत में परचेसिंग मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स नवम्बर 2024 माह के 58.6 से बढ़कर वर्तमान में 60.7 हो गया है। इस इंडेक्स के ऊपर जाने का आश्य यह है कि विनिर्माण के क्षेत्र में गतिविधियों में गति आ रही है। इसके साथ ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी 6.21 प्रतिशत से घटकर 5.48 प्रतिशत पर नीचे आ गया है, अर्थात, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर भी नियंत्रण में आ रही है। जिससे आगे आने वाले समय में नागरिकों की खर्च करने की क्षमता में वृद्धि होगी। हाल ही के वर्षों में विनिर्माण उद्योग, सेवा क्षेत्र एवं गिग अर्थव्यवस्था में रोजगार के करोड़ों नए अवसर निर्मित हुए हैं और वर्ष 2005 के बाद से इस वर्ष विभिन्न कम्पनियों द्वारा सबसे अधिक नई भर्तियां, रिकार्ड स्तर पर, की गई हैं। इस सबके साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा फरवरी 2025 माह में मोनेटरी पॉलिसी में रेपो दर में कमी किए जाने की प्रबल सम्भावना बनती दिखाई दे रही है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर अब नियंत्रण में आ रही है। इस वर्ष भारत में मानसून का मौसम भी बहुत अच्छा रहा है एवं विभिन्न फसलों की बुआई रिकार्ड स्तर पर हुई है जिससे इन फसलों की पैदावार भी रिकार्ड स्तर पर होने की सम्भावना है। किसानों के हाथों में अधिक पैसा आएगा एवं उनके द्वारा विभिन्न उत्पादों की खरीद पर भी अधिक राशि का खर्च किया जाएगा। कुल मिलाकर, इन समस्त कारकों का सकारात्मक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर होने जा रहा है और वित्तीय वर्ष 2024-25 की तीसरी एवं चोथी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के तेज रहने की प्रबल सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

प्रहलाद सबनानी
सेवानिवृत्त उपमहाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक,
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

लोकमंगल की कामना की भाषा है हिन्दी

10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस विशेष

भाषाएँ परस्पर संवाद और संचार की माध्यम होती हैं, जिनकी व्यापकता इस बात से सिद्ध होती है कि उनमें कितना सृजन लोकमंगल को समर्पित है। वैश्विक रूप से हिन्दी वर्तमान ही नहीं अपितु कालातीत रूप से सुदृढ़, सुस्थापित और सुनियोजित संपदा का बाहुल्य है। वर्षों से हिन्दी को हीनता बोधक दिखाने की यह कुदृष्टि वर्तमान में जाकर कमज़ोर हो रही है, जब अमेरिका या जापान का कोई व्यापारी हिन्दुस्तान में दुनिया का सबसे महँगा फ़ोन बेचना चाहता है तो उसका विज्ञापन हिन्दी में तैयार करवाता है, जब सोशल मीडिया की अलग दुनिया बसाई जाती है तो उसके भी भाषाई तरकश में हिन्दी का तूणीर अनिवार्यत: रखा जाता है।

सिलिकॉन वैली में बैठने वाले इंजीनियर भी हिन्दी भाषा के घटकों को एकत्रित करने के लिए प्रोग्रामिंग करते हैं और गूगल जैसा दुनिया का सबसे तेज़ सर्च इन्जन भी हिन्दी की महत्ता को स्वीकार करता है। यूएन अपनी मौलिक भाषाओं में हिन्दी को भी स्थान देता है ताकि विश्व के सबसे बड़े देश तक अपनी बात आसानी से पहुँचा सके, बीबीसी जैसी सर्वोच्च समाचार एजेंसी भी हिन्दी संस्करण बाज़ार में लाती है ताकि हिन्दुस्तान में जगह बना सके।

सैंकड़ों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, फिर भी हिन्दुस्तानी शैक्षणिक मठाधीशों को कार्यव्यवहार में उसी गुलामी की भाषा अंग्रेज़ी स्वीकार है जिसने भारत को गिरमिटियों और सपेरों का देश साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज जब सरकारें और यूँ कहें कि सारा देश भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव मना कर अमृत काल की ओर बढ़ रहा है, देश से गुलामी के प्रतीकों को हटाया जा रहा है, ऐसे शहरों और स्थानों का नाम बदला जा रहा है जो गुलाम भारत की यादों को ताज़ा करते हैं, उस दौर में गुलामी की भाषा को कण्ठहार बनाना कौन-सी समझदारी है!

बहरहाल, यदि हिन्दी की वैश्विक स्थिति देखी जाए तो गर्व करने के सैंकड़ों अवसर उपलब्ध हैं, जैसे कि वर्तमान में हिन्दी, एशियाई भाषाओं से ज़्यादा एशिया की प्रतिनिधि भाषा है। साथ ही, भारत की राजभाषा होने के साथ-साथ फ़िज़ी की भी राजभाषा है। मॉरिशस, त्रिनिदाद, गुयाना, और सूरीनाम में हिन्दी को क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है।

एथनोलॉग के मुताबिक, हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है और आँकड़ों पर नज़र दौड़ाई जाए तो 140 करोड़ लोगों की भाषा होने के कारण हिन्दी विश्व में अग्रणीय भाषा है। अमेरिका के 80 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई की सुविधा है। हिन्दी का कथा साहित्य, फ़्रेंच, रूसी, और अंग्रेज़ी से अव्वल है।

भारत इस समय विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है, और सबसे बड़े बाज़ार की भाषा सबसे बड़ी होती है, उसके बावजूद भी भारतीय सरकार या कहें तथाकथित गुलामी से प्रेरित लोगों को आज भी अंग्रेज़ी में अपना भविष्य नज़र आता है जबकि अंग्रेज़ी विश्व बाज़ार में पाँचवें स्थान से भी नीचे है।

हिन्दी हेय की नहीं, बल्कि गर्व की भाषा है। समृद्ध साहित्य में वसुधैव कुटुंबकम् जैसी लोकमंगल की कामनाएँ विपुल हैं। किन्तु भारत के कई राज्यों में यहाँ तक कि कई हिन्दी भाषी राज्यों में भी अंग्रेज़ी विद्यालयों में बच्चों को हिन्दी बोल भर देने पर दंडित कर दिया जाता है, यह दुर्भाग्य है।

आज मध्यप्रदेश सहित छत्तीसगढ़ इत्यादि राज्यों में मेडिकल व इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी अब हिन्दी में होने लग गई, लोकाचार की भाषा के रूप में हिन्दी की लोक स्वीकृति है।

समग्रता के झण्डे को थामे चलने वाली एकमात्र जनभाषा हिन्दी होने के बाद भी अपने ही देश में आज हिन्दी के साथ दुर्व्यवहार जारी है। अब जबकि विश्व ने भी भारतीय संस्कृति की पहचान और परिचय के रूप में हिन्दी को स्वीकृति दे ही दी है, फिर हमें क्या आवश्यकता है गुलामी के मुकुट को माथे पर धारण करने की?

अब तो तत्काल हिन्दी को स्वीकार कर भारतीय भाषाओं के वैभव को उन्नत करना चाहिए। अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, मैंडरिन, जर्मनी अथवा अन्य विदेशी भाषाओं को सीखना-सिखाना चाहिए किन्तु उन्हीं भाषाओं को सबकुछ मानकर अपनी जनभाषा से दूरी बनाना न तो तार्किक है और न ही न्यायोचित।

हिन्दी की वैश्विक स्थिति को और अधिक मज़बूत करने के लिए, विधि, विज्ञान, वाणिज्य, और नई तकनीक के क्षेत्र में पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। इसके लिए सभी को मिलकर हिन्दी के विकास में योगदान देना होगा। साथ ही, गुलाम देश की तरह नहीं, बल्कि आज़ाद और विश्व गुरु देश की तरह व्यवहार करते हुए लोकमंगल की भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
पता: 204, अनु अपार्टमेंट, 21-22 शंकर नगर, इंदौर (म.प्र.)
संपर्क: 9893877455 | 9406653005

अणुडाक: arpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियानभाषा समन्वय आदि का संचालन  रहे हैं]

आयुर्वेद की अगली बड़ी छलांग: केंद्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान ने दिल्ली के रोहिणी में नए भवन की आधारशिला रखी

करीब 185 करोड़ रुपए की लागत से नए अत्याधुनिक भवन का निर्माण कराया जायेगा

2.92 एकड़ की सुविधा परंपरा और नवाचार को संयोजित करेगी, समग्र उपचार, विशेष क्लीनिक और कौशल विकास के लिए नए अवसर प्रदान करेगी

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वास्थ्य देखभाल को आगे बढ़ाने और पारंपरिक चिकित्सा को बढ़ावा देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम के रूप में रोहिणी में केंद्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान की आधारशिला रखी और इसे “आयुर्वेद की अगली बड़ी छलांग” करार दिया। समारोह में केंद्रीय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), आयुष मंत्रालय श्री प्रतापराव जाधव और अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य सेवा को गरीब से गरीब व्यक्ति तक पहुंचाने पर सरकार के फोकस पर बल देते हुए कहा कि सरकार आयुष और आयुर्वेद जैसी पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणालियों को भी बढ़ावा दे रही है। उन्होंने कहा कि पिछले एक दशक में आयुष प्रणाली का विस्तार 100 से अधिक देशों में हो चुका है। श्री मोदी ने इस बात की जानकारी दी कि पारंपरिक चिकित्सा से संबंधित विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का पहला संस्थान भारत में स्थापित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कुछ सप्ताह पहले अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान के दूसरे चरण का उद्घाटन किया गया। श्री मोदी ने कहा कि आज केंद्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान की आधारशिला रखी गई है और उन्होंने इस उपलब्धि के लिए दिल्ली के लोगों को विशेष बधाई दी।

प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा, “भारत में दुनिया की स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती की राजधानी बनने की अपार संभावनाएं हैं।” उन्होंने कहा कि वह दिन दूर नहीं जब “मेक इन इंडिया” के साथ-साथ दुनिया भी “हील इन इंडिया” को मंत्र के रूप में अपनाएगी। उन्होंने कहा कि विदेशी नागरिकों को भारत में आयुष उपचार का लाभ उठाने की सुविधा प्रदान करने के लिए विशेष आयुष केंद्र शुरू किया गया है और थोड़े समय में ही सैकड़ों विदेशी नागरिकों को इस सुविधा का लाभ मिला है।

इस कार्यक्रम में, आयुष मंत्रालय के केंद्रीय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्री प्रतापराव जाधव ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा, “यह सुविधा अनुसंधान और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा को आगे बढ़ाएगी, जिससे देश भर में लाखों लोगों के जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ेगा।”

रोहिणी स्थित केन्द्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान में आयोजित कार्यक्रम में उत्तर-पश्चिम दिल्ली के सांसद श्री योगेन्द्र चंदोलिया, आयुष मंत्रालय के सचिव वैद्य राजेश कोटेचा तथा आयुष मंत्रालय और सीसीआरएएस के अधिकारी शामिल हुए।

उत्तर पश्चिमी दिल्ली से सांसद श्री योगेंद्र चंदोलिया आज दिल्ली के रोहिणी सेक्टर 28 में सीएआरआई, नई दिल्ली के नए भवन के भूमि पूजन के अवसर पर उपस्थित हुए। उन्होंने दो प्रमुख विकास कार्यक्रमों – नई मेट्रो लाइन का उद्घाटन और नए CCRAS-CARI भवन के शिलान्‍यास – के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने उपस्थित लोगों से कहा कि ये दोनों मील के पत्थर दिल्ली के लोगों को सरकार की ओर से “उपहार” हैं, जो शहर के निवासियों के लिए नए केंद्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान के दीर्घकालिक लाभों को रेखांकित करते हैं। उन्होंने आयुर्वेद अनुसंधान और स्वास्थ्य सेवा को आगे बढ़ाने में निरंतर प्रयासों के लिए आयुष सचिव वैद्य राजेश कोटेचा, डॉ. आचार्य, डीजी सीसीआरएएस डॉ. भारती, संस्थान के निदेशक और उनकी पूरी टीम के प्रति आभार व्यक्त किया।

आयुष मंत्रालय के सचिव वैद्य राजेश कोटेचा ने नए भवन के महत्व पर बल देते  हुए कहा कि 46 वर्षों के बाद रोहिणी में समर्पित स्थान प्राप्त करना बड़ी उपलब्धि है, जो भविष्य के प्रयासों के लिए मानक स्थापित करता है। उन्होंने कहा कि “यह भविष्योन्मुखी भवन समाज को उच्च-गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करने, पारंपरिक चिकित्सा के बारे में जागरूकता और पहुँच बढ़ाने के लिए तैयार है।” आयुष सचिव ने कहा कि हम इस कार्यक्रम का हिस्सा बनकर गौरवान्वित हैं, जो आयुर्वेदिक अनुसंधान और स्वास्थ्य सेवा को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले जाने की हमारी यात्रा में नया अध्याय जोड़ रहा है।”

187 करोड़ रुपये के निवेश से 2.92 एकड़ में फैली इस नई सुविधा में 100 बिस्तरों वाला अनुसंधान अस्पताल होगा जो आयुर्वेद अनुसंधान को आगे बढ़ाने और समुदाय को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए समर्पित होगा।

संस्थान का परिचय
1979 में स्थापित केंद्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान आयुर्वेद में नैदानिक अनुसंधान में अग्रणी रहा है, यह विशेष रूप से निवारक हृदय रोग और गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) पर ध्यान केंद्रित करता है। यह संस्थान कई वर्षों से नई दिल्ली के पंजाबी बाग में किराए के परिसर से संचालित हो रहा है। हालाँकि, सरकार ने अब सीएआरआई को अपनी खुद की अत्याधुनिक सुविधा प्रदान करके बड़ी छलांग लगाई है। 187.15 करोड़ रुपए के निवेश से यह नया 2.92 एकड़ का परिसर अत्याधुनिक अनुसंधान, उपचार और कौशल विकास का केंद्र बन जाएगा। यह परियोजना 30 महीनों के भीतर पूरी होने वाली है, जो पारंपरिक चिकित्सा में भारत के नेतृत्व को और मजबूत करेगी।

नई सुविधा में चार मुख्य ब्लॉक होंगे: प्रशासनिक ब्लॉक, आउटपेशेंट डिपार्टमेंट (ओपीडी) ब्लॉक, इनपेशेंट डिपार्टमेंट (आईपीडी) ब्लॉक, और समर्पित उपचार ब्लॉक, जो निर्बाध और व्यापक स्वास्थ्य सेवा अनुभव सुनिश्चित करेगा। यह संस्थान जेरियाट्रिक्स, बाल रोग, कान-नाक-गला (ईएनटी), गठिया, निवारक कार्डियोलॉजी और नेत्र देखभाल के साथ-साथ पंचकर्म, क्षार सूत्र (क्षार सूत्र औषधीय धागा चिकित्सा) और जलौकावचारण (जोंक थेरेपी) जैसे पारंपरिक उपचारों के साथ आधुनिक नैदानिक और चिकित्सीय तकनीकों के संयोजन में विशेष क्लीनिक प्रदान करेगा। इस उन्नत बुनियादी ढांचे से आयुर्वेद में अनुसंधान और रोगी देखभाल में क्रांतिकारी बदलाव आने की उम्मीद है, जो सीएआरआई को पारंपरिक और आधुनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रथाओं के एकीकरण में वैश्विक अग्रणी केंद्र के रूप में स्थापित करेगा।

गुणवत्ता के प्रति सीएआरआई की प्रतिबद्धता इसके प्रतिष्ठित नेशनल एक्रीडिटेशन बोर्ड फॉर हॉस्पिटल्स (एनएबीएच) और नेशनल एक्रीडिटेशन बोर्ड फॉर टेस्टिंग एंड कैलिब्रेशन लेबोरेटरीज (एनएबीएल) प्रमाणन के माध्यम से प्रदर्शित होती है। हेल्थकेयर सेक्टर स्किल काउंसिल ऑफ इंडिया से संबद्ध संस्थान के पंचकर्म तकनीशियन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का उद्देश्य आयुर्वेद में मूल्यवान कौशल के साथ युवाओं को सशक्त बनाना है, जिससे इस क्षेत्र के विकास और क्षमता निर्माण में योगदान मिल सके

कुंभ स्नान के आकर्षण नागा साधुओं का गौरवशाली इतिहास

कुंभ स्नान आरम्भ होने वाला है कुंभ की महत्ता तो लगभग सभी सनातनियों को पता है इस कुंभ में संत महंत साधु साध्वी अखाड़े राजनेता समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति से लकर सामान्य व्यक्ति तक सभी शाही स्नान करने आते हैं ओर इनही में से एक है नागा साधु आज  नागा साधुओ  के बारे में जानना बेहद जरूरी है।सनातन धर्म हजारों साल से भारत भूमि पर ऐसे ही अक्षुण्ण नहीं है. इसके लिए बड़े बलिदान दिए गए हैं. जिसमें सबसे आगे रहे हैं नागा साधु और संन्यासी. जिनके योगदान के बारे में हम जानते ही नहीं. क्योंकि वामपंथी और विदेशी मानसिकता के इतिहासकारों ने उनकी गौरव गाथा को छिपा दिया.

8 वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू सेना के रूप में नागाओं का गठन किया, तो एक नई सैन्य परंपरा का जन्म हुआ। जो शक्ति और भक्ति के पर्याय है  सभी हिंदू अखाड़ों में से ऐसे नागा सबसे अधिक सैन्य रूप से सुसज्जित और उग्र थे, और उनके आश्रय स्थलों को आज भी ‘छावनी’ कहा जाता है। उन्हें सभी वैदिक विरोधी आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया था। वे तलवार, भाला त्रिशूल  धनुष और कृपाण के साथ शरीर पर एक लंगोटी के साथ भस्म और चंदन का लेप लाये रहते थे।

शंकराचार्य जी का जन्म केरल के कलाडी में हुआ था और कहा जाता है कि उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही घर छोड़ दिया था। उन्होंने ज्ञान और शस्त्र दोनों की आवश्यकता को समझते हुए शास्त्र को आचार्यों का क्षेत्र और अस्त्र को नागाओं का ‘आभूषण’ बनाया।  धर्म विरोधीयो से हिंदू धर्म को ‘वापस जीतना’ काफी हद तक इन आक्रामक नागाओं द्वारा ही संभव हुआ था। दशनाम संन्यास आश्रम गिरी (पहाड़ी संप्रदाय), पुरी (कस्बों से), सरस्वती (पुजारी), वन-आरण्यक (जंगल के साधु) और सागर (समुद्र तटीय संप्रदाय) से बने हैं।

वैसे तो आरम्भ से लेकर वर्तमान तक इनका इतिहास बहुत से धर्म युद्धो से भरा है पर आज हम विशेष राजस्थान और इसके आस पास के क्षैत्रो से संबंधित इनके योगदान को जानने का प्रयास करेगे ।

संत दादूदयाल के शिष्यों की नागा सेना ने ढूंढाड़ को बचाने के लिए लगातार दो सौ साल तक 33 युद्धों में भाग लेकर त्यागमयी सेवा और कुर्बानी दी। वर्ष 1779 में बादशाह शाह आलम द्वितीय के सूबेदार मुर्तजा अली खां भड़ेच करीब पचास हजार सैनिकों के साथ शेखावाटी होते हुए जयपुर पर हमला करने आया था। श्रीमाधोपुर को लूटने के बाद वह खाटू श्यामजी मंदिर को तोडऩे के लिए बढऩे लगा। तब दादू संत मंगलदास के नेतृत्व में नागा साधुओं ने शुरू में नाथावत व शेखावतों के साथ मिलकर मुगल सेना से मोर्चा लिया।

जयपुर से कछवाहा सेना के पहुंच जाने पर सभी ने मिलकर मुगलों से घोर संग्राम किया। युद्ध में दादू संत मंगलदास महाराज तो सिर कटने के बाद भी झुंझार बन लड़ते रहे।  इन शूरवीरो के लिए ही कहा गया है “सर कर रीया ओर धड़ लड़ रीया आ शान है राजस्थान री सगली दुनिया बोल रही आ धरती है बलिदान री “ डूंगरी के चूहड़ सिंह नाथावत भी अपने दो पुत्रों के साथ युद्ध में शहीद हुए। सेवा के दलेल सिंह, दूजोद के सलेदी सिंह शेखावत, बलारा के हनुवंत सिंह, बखतसिंह खूड़ व सूरजमल ने सेना के हरावल में रह लड़ते हुए कुर्बानी दी।

युद्ध में कायमखानी मिश्री खां, कायस्थ अर्जुन व भीम के अलावा स्वरुप बड़वा, महादान चारण, मौजी राणा ने भी श्याम मंदिर को बचाने के लिए प्राण न्योछावर किए। इन सब वीरों ने मुर्तजा खां भड़ेच को उसके हाथी सहित मार दिया और मुगल सेना को भगा दिया। कुर्बानी देने वाले संत मंगलदास की आज भी पूजा होती है। इस युद्ध में देवी सिंह सीकर, सूरजमल बिसाऊ, नृसिंहदास नवलगढ़ और अमर सिंह दांता ने भी सेना सहित हिस्सा लिया। दादू पंथियों की सात बटालियनें थी।

एक वस्त्र में लंगोट व पांच शस्त्रों में तलवार, ढाल, तीर, भाला और कटार जैसे पौराणिक हथियारों से युद्ध करते थे। सबसे पहले कामां की तरफ से जयपुर पर होने वाले हमले में नागा संतों ने बहादुरी दिखाई। लुहारु की तरफ से जयपुर पर हमला रोकने के लिए दांतारामगढ़ व उदयपुर वाटी में नागा सेना भेजी गई। टोंक नवाब से अनबन हुई तब निवाई में नागा सेना भेजी गई। वर्तमान सचिवालय की बैरक्स में नागा पलटनें रहती थी।

नागा सेना ने खाटूश्यामजी के अलावा जोधपुर,खंडेला,फतेहपुर,करौली, ग्वालियर, मंडावा, नवलगढ़ सहित करीब 33 युद्धों में वीरता दिखाई। जयपुर के घाट दरवाजे की सुरक्षा का भार नागा सेना के पास रहा। और इनकी विशेषता के कारण ही जयपुर दरबार मे इनका विशेष स्थान रहा है।

कुंभ मेलों व संतों की सुरक्षा के लिए नागा संत हथियारों के साथ जाते रहे।  क्योकि दादूपंथी शूरवीर व विद्वान महात्मा हुए, इनको शुरू से ही शास्त्र व शस्त्रों का अभ्यास कराया जाता रहा।

नागा साधुओं ने भारत की गुलामी के दिनों में भारी संघर्ष किया है और अपने प्राणों का बलिदान दिया है. लेकिन आजादी प्राप्त होने के बाद देश को सुरक्षित हाथों में जानकर उन्होंने अपनी सैन्य क्षमता को समेट लिया है. अब नागा साधु आध्यात्मिक उन्नति की साधना में ही लीन होते हैं. इन संन्यासियों को संसार से कुछ भी नहीं चाहिए.

लेकिन धर्म को  बचाए रखने के लिए इन नागा साधुओं के संघर्ष को जानना सभी भारतीयों के लिए बेहद आवश्यक है. क्योंकि उनकी बलिदान का गाथाएं हमें  धर्म संरक्षण हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।

शिखा अग्रवाल का सम्मान और “फैशन एन इंस्टिंक्ट ” पुस्तक विमोचन

हिंदी साहित्य में अपनी मातृभाषा के उपयोग से परहेज़ नहीं हो – किशन प्रणय
कोटा / साहित्यकार को हिंदी साहित्य में अपनी मातृभाषा के उपयोग से परहेज़ नहीं करना चाहिए। फणीश्वर नाथ रेणु की पहचान उनकी मातृ बोली के साहित्य के कारण ही हुई है। यह विचार व्यक्त करते हुए मुख्य अतिथि युवा साहित्यकार किशन प्रणय ने कहा है कि अंग्रेजी भाषा में श्रृंगार जैसे विषय को समेटना आसान नहीं है ,लेखिका शिखा अग्रवाल ने यह कर दिखाया है। वे बुधवार को  समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत , गांधीनगर, गुजरात की कोटा इकाई द्वारा दादाबाड़ी कोटा में भीलवाड़ा की लेखिका शिखा अग्रवाल की आंग्ल भाषा में सृजित कृति ” फैशन एन इंस्टिंक्ट” के लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित कर रहे थे।
  उन्होंने कहा कि फैशन इंसान की उस मूल प्रवृत्ति का परिणाम है, जिसमें वह सुंदरता, रचनात्मकता, और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए निरंतर प्रयास करता है। दस अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक बताती है कि फैशन वैश्विक या किसी भी आंचलिक स्तर पर केवल कपड़ों या बाहरी दिखावे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इंसानी व्यक्तित्व, भावनाओं, और समाज में अपने स्थान को अभिव्यक्त करती है।
समारोह के मुख्य वक्ता कथाकार और समीक्षक विजय जोशी ने कहा कि यह कृति प्राचीन, आधुनिक और पाश्चात्य श्रंगार पक्ष का सार है। लेखिका ने अधिक से अधिक जानकारी  समेटने की कोशिश करते हुए इसे उपादेय बनाया है। उन्होंने कहां रचनाकार ने शृंगार की प्राचीन परंपरा से वर्तमान आधुनिक परंपरा को जोड़ते हुए युवाओं के लिए बॉलीवुड फैशन पर भी लिख कर कृति को युवाओं से जोड़ने का अनुपम प्रयास किया है।
आशीर्वचन में वरिष्ठ साहित्यकार जितेंद्र निर्मोही ने कहा कि आदिकाल से ढोला मारू, क्रिसन रुक्मिणी वेली,हंसाऊली, आदि में श्रृंगार सामग्री अद्भुत है। खासतौर पर आजादी के बाद श्रृंगार साहित्य में गीतों ने विशेष स्थान पाया है। श्रृंगार के क्रम में मेरी कृति ” राजस्थानी काव्य में सिणगार”में आदिकाल से लेकर आज़ तक का श्रृंगार समकालीन काव्य और रचनाकारों को समेटने की कोशिश रही है। यह कृति श्रृंगार को लेकर विशेष सामग्री समेटे हुए है। युवाओं में शिखा अग्रवाल और किशन प्रणय प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। एक दिन इनका देश में बड़ा नाम होगा।
आशीर्वचन में वरिष्ठ साहित्यकार रामेश्वर शर्मा रामू भैया ने कहा कि लेखिका ने आंग्ल साहित्य में शृंगार जैसे सरस विषय को जिस प्रकार क्रमबद्ध तरीके से रोचकता के साथ लिपिबद्ध किया है वह इनके साहित्यिक कौशल को बताता है। उन्होंने इसका अनुवाद हिंदी में करने का सुझाव दिया।
समरस संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष और समारोह अध्यक्ष डॉ. शशि जैन ने कहा कि संस्थान ऐसे उभरते रचनाकारों को निरंतर प्रोत्साहन देता है। गांधीनगर गुजरात में कतिपय साहित्यकारों से शुरू किया गया यह संस्थान आज वट वृक्ष बन गया है और देश के विभिन्न राज्यों में इसके 80 हज़ार सदस्य हैं। संस्थान की कोटा इकाई के अध्यक्ष राजेंद्र कुमार जैन ने सभी का स्वागत किया।
लेखिका शिखा अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि यह  पुस्तक फैशन का इतिहास, प्राचीन भारत में फैशन, आभूषणों, सोलह सिंगार, आंचलिक और जनजातीय लोकाचार के साथ – साथ बॉलीवुड में किए गए फैशन के प्रयोगात्मक तथ्यों को पाठक के सामने लाती हैं। पुस्तक की सामग्री उपलब्ध कराने में दिए गए सहयोग के लिए कोटा कथाकार और समीक्षक विजय जोशी तथा झालावाड़ के इतिहासकार ललित शर्मा  का आभार जताया।
उन्होंने किए गए सम्मान के प्रति सभीसंस्थाओं और साहित्यकारों का आभार व्यक्त करते हुए बताया कि इस कृति का शृंगार पर अन्य विविध जानकारियां सम्मिलित करते हुए हिंदी में संपादित संस्करण निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। इस वर्ष में हिंदी की पुस्तक सामने लाने का प्रयास है।
लेखिका का सम्मान :
*****************
समरस संस्थान गांधी नगर की ओर से लेखिका शिखा अग्रवाल का सम्मान पत्र भेंट कर ,शाल ओढ़ा कर एवं प्रतीक चिन्ह से सम्मानित किया गया। आर्यन लेखिका मंच से रेखा पंचोली, डॉ अपर्णा पाण्डेय, श्यामा शर्मा,  रंगितीका साहित्य संस्था कोटा से स्नेहलता शर्मा, रीता गुप्ता, डॉ वैदेही गौतम, रेणु सिंह राधे और केसर काव्य मंच की अध्यक्ष डा. प्रीति मीणा सहित विजय शर्मा एवं विजय महेश्वरी ने लेखिका शिखा अग्रवाल का माल्यार्पण और शाल ओढ़ा कर, प्रतीक चिन्ह भेंट कर सम्मान किया।
समारोह का प्रारंभ अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन किया गया और डॉ. वैदेही गौतम और शशि जैन ने संयुक्त रूप से सरस्वती वंदना से हुआ। कार्यक्रम का संचालन समरस संस्थान के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने किया।

आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर भारत की अंतरिक्ष में लंबी छलांग

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेतृत्व में अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत लगातार प्रगति के पथ पर बढ़ते हुए आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो)  की ऐतिहासिक यात्रा 1962 में  डा.विक्रम साराभाई  के नेतृत्व में गठित भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति की स्थापना के साथ आरम्भ हुई। भारत के पहले साउंडिंग रॉकेट का प्रक्षेपण 1963 में केरल के थुंबा से हुआ था। इसरो के वर्तमान स्वरूप  की स्थापना 15 अगस्त 1969 को हुई और इसरो का प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट 1975 में यूएसएसआर से प्रक्षेपित किया गया। इसरो का प्रथम स्वदेशी उपग्रह एसएलवी -3 था जिसने 1980 में रोहिणी उपग्रह को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। इसरो अपनी सफलता की यात्रा में अब तक 99 लांचिंग कर चुका है और कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं। योजनानुसार आगे बढ़ते हुए इसरो वर्ष 2025 तथा आगे आने वाले वर्ष में वह करिश्मा करने जा रहा है  जिससे पूरा भारत एक बार फिर गर्व का अनुभव करेगा।

आरंभिक दिनों में धनी तथा वैज्ञानिक दृष्टि से आगे माने जाने वाले देशों द्वारा उपहास बनाए जाने, साईकिल व बैल गाड़ी पर लादकर रॉकेट के पुर्जे ले जाने, गरीबी के कारण अंतरिक्ष अनुसंधान पर खर्च को लेकर सवाल उठने के बाद भी भारतीय वैज्ञानिक कभी निराश नहीं हुए वह कठिन दौर अब बहुत पीछे छूट चुका है, आज चन्द्रमा पर शिव शक्ति बिंदु के रूप में तिरंगा फहरा रहा है । इसरो के वैज्ञानिकों की अडिग प्रतिबद्धता और दृढ़ता कभी डिगी नहीं, नवाचार, परिश्रम और राष्ट्र सेवा के प्रति समर्पण से उन्होंने संघर्षों को सफलता की गाथा में बदल दिया।

भारत के वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि संकल्प और दृष्टि के, साहसिक सपने साकार किए जा सकते हैं।  इसरो ने वर्ष 2014 में प्रथम प्रयास में, सबसे कम लागत में मंगलयान मिशन को सफलतापूर्वक लांच किया। चंद्रयान -1 ने चन्द्रमा पर जल अणुओं की खोज की और वर्ष 2023 में चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक लैंडिंग की जिसे पूरे विश्व ने टीवी पर लाइव देखा, आज लैंडिंग का यह बिंदु शिव शक्ति बिंदु के नाम से जाना जाता है ।

इसरो ने 2024 के आरम्भ में सूर्य का अध्ययन करने के लिए आदित्य एल- 1 का  सफलतातपूर्वक प्रक्षेपण किया तथा अंत में स्पैडैक्स मिशन के साथ श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से 44.5 मीटर लंबे ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएल वी – सी 60) रॉकेट ने दो छोटे अंतरिक्ष यानों चेजर और टारगेट के साथ सफलतापूर्वक छोड़ा है। अब चेजर और टारगेट को 475 किमीटर की वृत्ताकार कक्षा में स्थापित कर दिया गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार आगामी 7 जनवरी तक डॉकिंग प्रक्रिया पूर्ण हो जायेगी।  स्पैडेक्स मिशन के साथ ही अब भारत डॉकिंग और अनडॉकिंग क्षमता प्रदर्शित करने वाला चौथा देश बनेगा। इस समय दुनिया के मात्र तीन देश अमेरिका , चीन और रूस के पास अंतरिक्ष यान को अंतरिक्ष में डॉक करने की क्षमता है।अंतरिक्ष यान से दूसरे अंतरिक्ष यान के जुड़ने को डॉकिंग और अंतरिक्ष यानों के अलग होने को अनडॉकिंग कहते हैं।

स्पैडेक्स मिशन भारत के लिए कई दृष्टियों से बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भविष्य के मानव अंतरिक्ष उड़ान के लिए महत्वपूर्ण तकनीक है।यह अतंरिक्ष में डॉकिंग के लिए बहुत ही किफायती प्रौद्योगिकी मिशन है। इसकी सफलता चंद्रमा पर मानव को भेजने व नमूने लाने के लिए जरूरी है।इसकी सफलता से भविष्य में भारत के वैज्ञानिक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन के निर्माण और संचालन में भी आत्मनिर्भर होंगे क्योकि इसरो की 2035 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की योजना है। वही एक से अधिक रॉकेट लांच करने के लिए भी  इस तकनीक की जरूरत है।

 

यह अंतरिक्षयान दो वर्षों  तक पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे।दोनों अंतरिक्ष यानों का वजन 220 किग्रा है।इस मिशन की सफलता से अंतरिक्ष कचरे की समस्या से निपटने में भी सफलता मिलेगी। पीओईएम इसरो का प्रायोगिक मिशन है इसके तहत कक्षीय प्लेटफार्म के रूप में  पीएस 4 चरण का उपयोग करके कक्षा में वैज्ञानिक प्रयोग किया जाता है।पीएसलवी -चार चरणों वाला रॉकेट है इसके पहले तीन चरण प्रयोग होने के बाद समुद्र में गिर जाते हैं  और अंतिम चरण उपग्रह को कक्षा में प्रक्षेपित करने के बाद अतंरिक्ष में कबाड़ बन जाता है। पीओईएम के तहत रॉकेट के इसी चौथे चरण का इस्तेमाल वैज्ञानिक प्रयोग करने में किया जायेगा।

वर्ष 2025 में और कमाल करेगा इसरो – अंतरिक्ष क्षेत्र के विशेषज्ञों का मत है कि अभी तक भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने जो कुछ किया है वह तो ट्रेलर मात्र है आगामी कुछ वर्षों में इसरो के वैज्ञानिक और भी कमाल करने की तैयारी कर रहे हैं और जिसके बाद भारत का अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो जायेगा। इस वर्ष इसरो की 36 से उपग्रहों का प्रक्षेपण करने की योजना तो है ही साथ ही रूस और अमेरिका के साथ मिलकर अंतरिक्ष यात्री भेजने की तैयारी भी है। लो अर्थ ऑर्बिट में कुल 36 सेटेलाइट लांच होने जा रहे हैं। जो देश के कई सेक्टरों को लाभान्वित करेंगे।इससे कृषि, संचार और परिवहन जैसे क्षेत्रों का सुविधा मिलेगी और आम जनजीवन में सुधार होगा।

नये वर्ष में अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत की तैयारियों में प्रमुख है कि इसरो ने निजी कंपनियों को प्रक्षेपण यान के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरित करने का निर्णय लिया है। इससे भारत में प्रक्षेपण यान का एक बड़ा बाजार तैयार होने जा रहा है। इसमें एएसएलवी एक नई शक्ति के रूप में स्थापित होगा। चंद्रयान-3  और आदित्य एल -1 के बाद स्पैडेक्स मिशन की सफलता पर केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि भारत अब स्वदेशी डॉकिंग सिस्टम विकसित करने वाला विश्व का चौथा देश बन गया है। इसरो का यह मिशन अंतरिक्ष के क्षेत्र में  एक नये युग का आरम्भ है। स्पैंडेक्स मिशन छोटे अंतरिक्ष यानों के साथ पहला ऐसा मिशन है। हम इसे बड़े अंतरिक्ष यानों के साथ आगे बढ़ायेंगे। मंत्री का कहना है कि  नये साल में इसरो नासा सिथेंटिक एपर्चर रडार उपग्रह लांच करने के लिए तैयार है। भारत के पहले मानव अंतरिक्ष मिशन गगनयान के तहत व्योममित्र रोबोट को भी इस वर्ष लांच करने की तैयारी की है। मार्च से पहले गगनयान मिशन के लिए क्रू एस्केप सिस्टम के परीक्षण की भी योजना है। 2025 के मध्य या 2026 के प्रारम्भ में ही हमारी मानव अंतरिक्ष उड़ान -गगनयान को लांच किया जायेगा। गगनयान मिशन के तहत अंतरिक्ष यात्रियों को 400 किमी कक्षा में भेजा जायेगा और उन्हें भारतीय समुद्री क्षेत्र में उतारा जायेगा। जनवरी 2025 में ही पीएसएलवी मिशन के साथ 100वीं लांचिंग भी होने जा रही है।

कुल मिला कर आने वाला समय भारत के सूर्य के अंतरिक्ष में उदय होने का है।

मृत्युंजय दीक्षित
प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं- 9198571540

साँची का स्तूप: एक रोमांचक गाथा

साँची का स्तूप भारत के सबसे अच्छी तरह से संरक्षित और अध्ययनित बौद्ध स्थलों में से एक है। यह मध्य प्रदेश के साँची नामक शहर में एक पहाड़ी पर स्थित है। पूर्व से पश्चिम में यह सत्रह मील के क्षेत्र में और उत्तर से दक्षिण में लगभग दस मील में फैला हुआ है। इस स्थल पर कई स्तूप हैं, जिनमें से साँची के स्तूप को सबसे प्रमुख माना जाता है। इस महान स्तूप का निर्माण अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में करवाया था। यहाँ बुद्ध और उनके सबसे श्रद्धेय शिष्यों के धार्मिक अवशेष या निशानियाँ प्रतिष्ठापित हैं।

स्तूप का टीला अशोक के समय में बनाया गया। अगली तेरह शताब्दियों तक, स्तूप का विस्तार होता रहा। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में, शुंग काल के दौरान, मूल ईंट संरचना को उसके आकार से दोगुना बड़ा किया गया और टीले को बलुआ पत्थर की सिल्लियों से ढक दिया गया।

स्तूप के चारों ओर एक परिधि-पथ का निर्माण किया गया जो एक पत्थर के रेलिंग से घिरा था जिसे वेदिका भी कहा जाता है। परिक्रमा या प्रदक्षिणा बौद्ध धर्म में अनुष्ठानों और भक्ति प्रथाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके अतिरिक्त, स्तूप में एक हर्मिका (एक चौकोर संरचना) भी जोड़ी गई थी। हर्मिका को स्तूप के शीर्ष पर रखा गया है और इसमें त्रि-स्तरीय छतरी या छत्रावली है जो बौद्ध धर्म के तीन रत्नों – बुद्ध, धर्म (बुद्ध की शिक्षाएँ) और संघ (बौद्ध धर्म वर्ग) का प्रतिनिधित्व करती है।

स्तूप में सबसे विस्तृत परिवर्धन सातवाहन काल के दौरान ईसा पूर्व पहली शताब्दी से दूसरी शताब्दी ईस्वी तक हुए थे। स्तूप में चार प्रस्तर-द्वार (तोरण) चार प्रमुख दिशाओं में जोड़े गए। इन तोरणो में दो प्रस्तर स्तंभ शामिल हैं जिनके ऊपर स्तंभ शिखर (खंभे का सबसे ऊपरी हिस्सा) बने हुए हैं । स्तंभ स्वयं, शिखर कुंडलित छोरों (आयनिक स्तंभ में पाया जाने वाला घूँघर जैसा अलंकरण) वाले तीन प्रस्तरपादों (सरदल या शहतीर जो एक स्तंभ से दूसरे स्तंभ तक फैली हुई है और उनके स्तंभ शिखरों पर टिकी हुई है) को सहारा देते हैं। इन प्रस्तरपादों में बुद्ध के जीवन की घटनाएँ और जातक (बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियाँ) बड़े पैमाने पर उकेरे गए हैं।

चार द्वारों के कालानुक्रमिक क्रम निम्नानुसार हैं: दक्षिणी, उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी। ये सभी प्रवेश द्वार धर्मनिष्ठ लोगों द्वारा दान किए गए थे और उनके नाम इनके स्तंभों पर अंकित थे। ये समृद्ध नक्काशीदार स्तंभ उन पर बनी उद्भृत आकृतियों के कारण महत्वपूर्ण माने जाते हैं जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व की तीसरी तिमाही में लोगों के जीवन की एक झलक पेश करते हैं।

गुप्त काल के दौरान साँची में और परिवर्धन किए गए। इनमें एक बौद्ध मंदिर और एक सिंह स्तंभ शामिल हैं। इस महान स्तूप के कटघरे पर चौथी शताब्दी ईस्वी का चंद्रगुप्त द्वितीय का विजय शिलालेख उत्कीर्णित है। कहा जाता है कि यह स्थल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी तक एक संपन्न धार्मिक केंद्र रहा है। एक प्रमुख धार्मिक स्थल के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में इसका पतन बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही हुआ।

________________________________

१८८० में अंग्रेज़ों ने साँची स्थल की पुनर्खोज की। इस पुनर्खोज का श्रेय बंगाल कैवेलरी के जनरल हेनरी टेलर को दिया जाता है। साँची में महान स्तूप की लगभग अक्षुण्ण स्थिति ने ऐसे खोजकर्ताओं और शौकिया पुरातत्वविदों की बढ़ती नस्ल के बीच दिल्चस्पी पैदा की, जो अधिकतर सेना के अधिकारी और यात्रा करने वाले पुरावशेष विशेषज्ञ थे।

स्तूप की पहली वैज्ञानिक खुदाई १८५१ में मेजर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम की देखरेख में हुई। उन्होंने अपने सहयोगी लेफ्टिनेंट-कर्नल एफ.सी. मेसी के साथ स्थल के चित्र बनाए। बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों के अवशेष सतधारा (साँची के साढ़े छह मील पश्चिम) में स्तूप नंबर ३ के खंडहर में पाए गए, जिसका व्यास लगभग चालीस फ़ीट मापा गया और जो महान स्तूप से छोटा था।

साँची स्थल के अलावा, उन्होंने साँची से छः और बारह मील की दूरी पर स्थित सोनारी, सतधारा, भोजपुर और अंधेर के आसपास के स्तूपों में भी खुदाई की। यहाँ अनेक अनमोल खोजें की गई। अन्वेषण में प्राप्त प्राचीन वस्तुएँ कनिंघम और मेसी ने आपस में बाँट लीं और लगभग सभी पुरावशेष इंग्लैंड भेज दिए गए।

२३ नवंबर १८५३ को इंदौर में ब्रिटिश रेज़िडेंट, सर रॉबर्ट नॉर्थ कोली हैमिल्टन ने भारत के गवर्नर जनरल (परिषद् सहित) को भोपाल की बेगम, सिकंदर बेगम द्वारा साँची काना खेड़ी के टोप के दो प्रवेश-द्वारों (उत्तरी और पूर्वी) के नक्काशीदार पत्थरों को महारानी विक्टोरिया को भेंट करने के प्रस्ताव के बारे में सूचना भेजी।

लंदन भेजे जाने के लिए दोनों प्रवेश-द्वारों के समृद्ध रूप से नक्काशीदार पत्थरों को हटाने के लिए तैयारियाँ कर ली गई थीं। फिर भी, जटिल नक्काशियों को नुकसान पहुँचाए बिना संरचना को विघटित करने में लगने वाले खर्च और देखभाल के कारण उन्हें हटाने की योजनाओं में विलंब हुआ। बंबई में परिवहन के उचित साधनों की कमी के कारण इनके स्थानांतरण को रोक दिया गया। इन प्रवेश-द्वारों को हटाने और स्थानांतरित करने की भव्य व्यवस्था को भी एक झटका लगा क्योंकि १८५७ के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार और भोपाल दरबार को अत्यधिक तनावपूर्ण राजनीतिक स्थिति में पहुंचा दिया था।

१८६८ में, भोपाल की बेगम ने ब्रिटिश संग्रहालय में प्रवेश द्वार भेजने के अपने प्रस्ताव को नवीनीकृत किया। हालाँकि इस बार औपनिवेशिक प्राधिकरण द्वारा बेगम की पेशकश को अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि वे यथास्थिति परिरक्षण और स्मारकों के संरक्षण की रणनीति के पालन के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके बजाय, १८६९ में रॉयल इंजीनियर्स के लेफ्टिनेंट हेनरी एच. कोल की देखरेख में पूर्वी गेटवे का प्लास्टर कास्ट लंदन के साउथ केंसिंग्टन संग्रहालय में भेजे जाने के लिए तैयार किया गया। यह एक विस्तृत कवायद थी जिसमें रॉयल इंजीनियर्स में कर्मियों की भर्ती और जिलेटिन, पृथक ढाँचों से सांचे बनाने, और मिट्टी को दबा कर साँचे बनाने का प्रशिक्षण शामिल थे।

साँची में परिरक्षण और संरक्षण के प्रयासों के लिए १८६९ में वहाँ एच.एच. कोल का आगमन एक महत्वपूर्ण अग्रदूत था। यह वही समय था जब संरचना की पुनर्स्थापना के साथ-साथ साँची स्मारकों की नकल, तस्वीरें खींचने और उनकी प्रतिकृति बनाने की एक बड़ी परियोजना कार्यान्वयित हुई। साँची के प्राचीन स्थल को संरक्षित करने के लिए १८८० के दशक से भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा संगठित प्रयास किए गए।

स्थल पर संरक्षण का यह पहला चरण ब्रिटिश अधिकारियों की ओर से एक स्वागत योग्य कदम था। हालांकि, यह प्रयास मुख्य स्तूप के आसपास के कई ऐसे छोटे स्तूपों के लिए विनाशकारी साबित हुआ, जो मुख्य स्मारक तक जाने वाली सड़क के निर्माण को समायोजित करने के लिए विस्थापित किए गए थे। पुनर्स्थापित दक्षिणी प्रवेश द्वार के सरदलों को आगे से पीछे की ओर रखा गया था। इन संरचनाओं को और नुकसान नहीं पहुँचाने के डर से इन ग़लतियों को कभी भी प्रतिवर्तित नहीं किया गया।

१९०४ में भोपाल में राज्य अभियंता श्री कुक की देखरेख में इस तरह के सदाशयी लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण संरक्षण का दूसरा चरण शुरू किया गया। पुनरुद्धार कार्य के दौरान महान साँची स्तूप के चारों ओर मुख्य कटघरे के खंभों और मुंडेर के पत्थरों को तोड़कर नष्ट कर दिया गया या उन्हें दानदाताओं के नाम के शिलालेख सहित हटा दिया गया। संरचनाओं को पहुंची इस तरह की अपूरणीय क्षति के कारण पुरातात्विक और प्रशासनिक हलकों में तीव्र रोष पैदा हुआ। भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने सुविदित रूप से इन उपायों को “अपवित्रता के अभिषेक” के रूप में वर्णित किया।

साँची स्तूपों का संरक्षण और देखभाल ब्रिटिश सरकार के लिए एक विशेष चिंता का विषय बन गया था। लॉर्ड कर्ज़न ने जब से १८९९ में उस जगह का दौरा किया था, तभी से वे विशेष रूप से साँची के संरक्षण में लगे हुए थे। नवंबर १९०५ में भोपाल से गुज़रते समय उन्होंने यह सुझाव दिया कि स्तूपों को भारत सरकार को सौंप दिया जाए। हालाँकि, भोपाल की बेगम सुल्तान जहाँ ने पुरातात्विक अभिरुचि के स्मारक के रूप में बौद्ध व्यवस्था के संरक्षण के लिए भोपाल राज्य की मंशा बताते हुए इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया। उन्होंने साँची के संरक्षण और पुनरुद्धार की व्यवस्था की।

भोपाल राज्य ने १९१२ और १९१९ के बीच भारत में पुरातत्व के महानिदेशक जॉन मार्शल द्वारा शुरू की गई साँची स्थल की पुनरुद्धार परियोजना के अगले चरण में धन निवेशित किया। उन्होंने यह समय उन भयानक नुकसानों को मिटाने में बिताया जिनके कारण उस स्थान पर अधिकांश स्तूप गिर कर बस मलबा बन कर रह गये थे। पहाड़ी के तल पर मार्शल द्वारा एक छोटा सा संग्रहालय स्थापित किया गया । यह स्थल के चारों ओर बिखरी हुई प्राचीन वस्तुओं की देखभाल और संरक्षण के लिए समर्पित किया गया। भोपाल दरबार ने इस मामले में पूर्ण समर्थन दिया क्योंकि इस संग्रहालय के निर्माण को भोपाल की बेगम ने को पूरी तरह से वित्तपोषित किया ।

१९२० में भोपाल के राजनैतिक अभिकर्ता, लेफ्टिनेंट कर्नल सी.ई. लुआर्ड को भोपाल के दरबार के वारिस नवाबज़ादा हमीदुल्ला खान का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने कुछ अवशेष मंजूषाओं और अन्य वस्तुओं के बारे में बताया, जिन्हें अलेक्ज़ेंडर कनिंघम द्वारा साँची से ब्रिटिश संग्रहालय में ले जाया गया था। उन्होंने इस तथ्य के मद्देनज़र उनकी वापसी के लिए अनुरोध किया कि चूंकि अब कि साँची का अपना संग्रहालय है, तो इन मूल्यवान वस्तुओं पर उनके दावे की प्रधानता होनी चाहिये। पत्र के साथ उन्होंने जॉन मार्शल द्वारा १९१९ में तैयार की गई साँची की सत्रह वस्तुओं की एक सूची संलग्न की थी जो वर्तमान में ब्रिटिश संग्रहालय में रखी गई है।

जब साँची पुरावशेषों के पुनरुद्धार का यह मामला लुआर्ड द्वारा मार्शल को भेजा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि ब्रिटिश संग्रहालय साँची की मूल पुरावशेषों को वापस करने के लिए एक क्षण के लिए भी विचार नहीं करेगा, और उन्होंने राजनैतिक अभिकर्ता को उक्त बात छोड़ देने का आग्रह करते हुये चेतावनी दी कि, “अगर ऐसी मिसाल कायम की जाती है तो ब्रिटिश संग्रहालय जल्द ही अपने आधे खज़ाने से हाथ धो बैठेगा, जिसकी ग्रीस, मिस्र और इटली और दूसरे दर्जनों देश वापस माँग करने लगेंगे।”

यह मामला तब तक थमा रहा जब तक कि १९४० में साँची के पुरावशेषों की वापसी की माँग नहीं की गई। प्रेस में यह बताया गया कि सारिपुत्र और मोगलाना (बुद्ध के प्रमुख शिष्यों) के अवशेषों को विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय द्वारा महाबोधि सोसाइटी को नई दिल्ली में बौद्ध मंदिर में स्थापित करने के लिये सौंप दिया जाएगा। १९३८ में महाबोधि सोसाइटी ऑफ बॉम्बे ने भारत सरकार से विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन से सारिपुत्र और मोगलगाना के अवशेष वापस लाने के लिए अनुरोध किया । १९३९ में संग्रहालय ने भारत के राज्य सचिव के हस्तक्षेप के माध्यम से महाबोधि सोसायटी को अवशेष लौटाने का फैसला किया। हालाँकि, द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ जाने के कारण अवशेषों का स्थानांतरण स्थगित करना पड़ा।

________________________________

युद्ध का हस्तक्षेप भोपाल दरबार के लिए समयानुकूल साबित हुआ। पुरावशेषों के लिए भोपाल दरबार की मांग को बहाल करने वाला एक पत्र भोपाल में राजनैतिक अभिकर्ता एल.जी. वालिस को भेजा गया, जिसमें यह कहा गया था कि भोपाल सरकार अवशेषों की मालिक थी और उन्हें साँची संग्रहालय में बहाल किया जाना था जो उनके लिए सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था। उन्होंने साँची के अवशेषों की वापसी के लिए अथक प्रयास किया। वे बौद्ध तीर्थयात्रियों की धार्मिक आवश्यकताओं के अनुसार अवशेषों के लिए उपयुक्त व्यवस्था करने के लिए तैयार थे। भोपाल सरकार से अनुरोध किया गया कि वह भारत सरकार द्वारा साँची में अवशेषों को प्रतिष्ठापित करने के लिए महाबोधि सोसाइटी को राज़ी करे।

तदनुसार, १९४६ में भोपाल सरकार और महाबोधि सोसायटी के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि अवशेषों को अंततः साँची में एक नव-निर्मित विहार में प्रतिष्ठापित किया जाएगा। अंत में, ३० नवंबर १९५२ को साँची में नई चेतियागिरि विहार में उनकी मूल मंजूषाओं में अवशेषों को प्रतिष्ठापित किया गया। एक भव्य और उपयुक्त समारोह में जिसमें बर्मा, कंबोडिया और श्रीलंका के विश्व और बौद्ध नेताओं और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाग लिया, राष्ट्रीय स्मारक के रूप में साँची के आधुनिक जीवन का उद्घाटन किया गया।