Thursday, April 10, 2025
spot_img
Home Blog Page 9

राजभवन भुवनेश्वर में पहली बार मनाया गया बिहार दिवस

संस्था के अध्यक्ष राजकुमार के अनुसार आयोजन बिहार-ओड़िशा की सांस्कृतिक और लोक पारंपरिक एकता को बढ़ावा देने की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुआ

भुवनेश्वर। बिस्वास,भुवनेश्वर के सौजन्य से राजभवन भुवनेश्वर में पहली बार 22 मार्च को अपराह्न बेला में सांस्कृतिक आदान-प्रदान (नृत्य-गायन ) के द्वारा बिहार दिवस मनाया गया।अवसर पर स्वागत की औपचारिकता वखूबी निभाए बिस्वास भुवनेश्वर के अध्यक्ष राजकुमार ने। उन्होंने अपने संबोधन में बताया कि ओड़िशा के महामहिम राज्यपाल डॉ.हरिबाबू कंभमपति के प्रति वे हृदय से आभारी हैं जिन्होंने भारत के माननीय प्रधानमंत्री के संदेशः एक भारतःश्रेष्ठ भारत के तहत यह आयोजन राजभवन,भुवनेश्वर में आयोजित कराया जिसमें एक तरफ बिहार की लोकसंस्कृति का शानदार प्रदर्शन हुआ वहीं ओड़िशा की लोकसंस्कृति का भी।
ओड़िशा के लोकसम्पर्क विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी संजय सिंह ने बताया कि ओड़िया और बिहारी भाषाओं को बोलने में कोई दिक्कत नहीं है। दोनों में काफी समानता है। साथ ही साथ दोनों प्रदेशों के खान-पान में भी काफी समानता है। गौरतलब है कि ओड़िया और बिहारी हिन्दी अर्द्धमागधी भाषा परिवार की भाषाएं हैं जिनमें मैथिली,भोजपुरी,ओड़िया आदि भाषाएं आतीं हैं। अवसर पर अनेक बिहारी वक्ताओं ने अपनी-अपनी बिहारी-ओड़िया एकता की अनुभूति व्यक्त की। अवसर पर बिहार से पधारे बिहार के आईटी मंत्री ने बिहार की जनता की ओर से ओड़िशा के महाहमिम राज्यपाल के प्रति इस आयोजन के लिए आभार व्यक्त किया।साथ ही साथ बिहार के वर्तमान राज्यपाल का संदेश भी बिहार दिवस के अवसर पर पढ़ा गया।
समारोह के मुख्य अतिथि ओड़िशा के महामहिम राज्यपाल डॉ हरिबाबू कंभमपति ने बताया कि आज सम्पूर्ण भारत को सांस्कृतिक आदान-प्रदान के द्वारा जोड़ने की आवश्यकता है जिसका संदेश भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी अपनी संकल्पनाः एक भारतःश्रेष्ठ भारत के तहत व्यक्त की है।आयोजन के अंत में बिस्वास भुवनेश्वर के अध्यक्ष राजकुमार,उपाध्यक्ष अजय बहादुर सिंह तथा सचिव अशोक भगत ने राज्यपाल आदि को स्मृतिचिह्न,बिहार की मधुबनी शॉल तथा पौधा भेंटकर उन्हें सम्मानित किया।संस्था के अध्यक्ष राजकुमार के अनुसार आयोजन बिहार-ओड़िशा की सांस्कृतिक और पारंपरिक एकता को बढ़ावा देने की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हुआ।

रीता गुप्ता की कहानी कृति “वामिका” का लोकार्पण

कोटा / कोटा की साहित्यकार रीता गुप्ता के कहानी कृति वामिका का रविवार को कोटा जंक्शन क्षेत्र में समारोहपूर्वक लोकार्पण किया गया। मुख्य अतिथि जितेंद्र निर्मोही ने वर्तमान समय को अंचल की लेखिकाओं के लिए गौरव काल बताते हुए कहा कि जन सरोकारों से जुड़े साहित्य लिखने की महती आवश्यकता है। उन्होंने कहा आसपास के परिवेश में ही कहानियां छुपी है, केवल दृष्टि की जरूरत है। मुख्य वक्ता सुमनलता शर्मा ने विस्तार से कृति की कहानियों, उनकी विषय वस्तु और महत्व पर जानकारी दी। विशिष्ठ अतिथि नागेंद्र कुमावत में कहा जितना अधिक स्वाध्याय और चिंतन होगा लेखन उतना ही मौलिक होगा। साहित्यकारों में भी पढ़ने के प्रति रुचि का अभाव है,यह मौलिक लेखन के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।

विशिष्ठ अतिथि सूचना एवं जन संपर्क विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक और लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने कहा कि लेखिका की छोटी – छोटी 41 कहानियां विभिन्न विषयों पर महिला विमर्श पर आधारित हैं और महिलाओं को जागरूक होने का संदेश देती हैं। कहानियों के कथानक हमारे आसपास के परिवेश और संदर्भों के इर्दगिर्द नजर आते हैं। विशिष्ठ अतिथि नवीन गौतम ने कहानी के प्राचीन और वर्तमान परिपेक्ष्य की विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि इस अंचल में समकालीन कहानी ‌का वो तेवर दिखाई नहीं देता जैसा होना चाहिए, बाजार ने बहुत बदलाव किया है। आज कहानियों के विषय बदल गए हैं, नए दृष्टिकोण से सोचने की आवश्यकता है।
कृति की लेखिका रीता गुप्ता “रश्मि” ने कहा कि मेरे पात्र मेरे आस-पास के ही‌‌ है। समाज में आज भी नारी उत्पीड़न की स्थिति में है । कहानियां ऐसी उत्पीड़ित महिलाओं को हिम्मत से परिस्थितियों का मुकाबला करने का संदेश देती हैं। बेटी भूमिका का पुस्तक में बड़ा योगदान रहा।

अध्यक्षता करते हुए रंगीतिका संस्था की संस्थापक स्नेहलता शर्मा ने अपने विचार रखते हुए कहा आज उन्हें भी कहानी लिखने की प्रेरणा मिली हैं। संचालन अर्चना शर्मा ने किया। अतिथियों ने मां सरस्वती को माल्यार्पण और दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। महेश पंचोली ने मंचासिन अतिथियों का परिचय प्रस्तुत किया। समारोह में लेखिका रीता गुप्ता का विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मान किया गया। श्यामा शर्मा, रेणु सिंह राधे, गरिमा गौतम, डॉ. सुशीला जोशी, डॉ. शशि जैन, साधना गुप्ता, हेमराज सिंह हेम सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार और लेखिका के परिजन उपस्थित थे।

न ऐसे गीत हैं न गीतकार हैं न संगीतकार हैं

1956 की फिल्म पटरानी के निर्माता थे शंकर भाई भट्ट और निर्देशक थे विजय भट्ट।वैजयन्तीमाला,प्रदीप कुमार,ओम प्रकाश,शशि कला, दुर्गा खोते,डेविड,जीवन आदि कलाकार इस फिल्म में थे।संगीत से सजाया था शंकर जयकिशन ने। इस फिल्म में एक खूबी यह थी की इसमे एक भी पुरुष गीत नहीं था,लता मंगेशकर,उषा मंगेशकर और मीना मंगेशकर और साथी इस फिल्म की गायिकाएँ थी।सभी 10 गीतों में मुख्य स्वर लतामंगेशकर का था।इस फिल्म में चार कोरस थे.
1,रंग रंगीली पगियाँ बांधे आये ऋतू राज…..लतामंगेशकर व साथी
2,पावन गंगा सर पर सोहे…..लतामंगेशकर व साथी
3,राजा प्यारे मत करो प्यार का मोल…….लतामंगेशकर,उषामंगेशकरऔर साथी
4,अरे कोईजाओ ऱी पिया को बुलाओ री….लतामंगेशकर,उषामंगेशकर, मीना मंगेशकर ओर साथी
इस फिल्म में एक कोरस गीत और था…दुल्हन गोरी घूँघट में मुस्काये देखो जी कही उनसे भी शरमाये, यद्यपि यह गीत फिल्म में रखा गया था जिसे डिस्क पर रिलीज नहीं किया गया।यदि इस गीत को भी शुमार कर लिया जाय तो इस फिल्म में कुल 11 गाने थे। आज का गीत बेहद बेहद खूबसूरत है जिसे महान शैलेंद्र ने लिखा और लतामंगेशकर ने गाया था,यह गीत संगीत का अनुपम पुष्प है। ” चन्द्रमा मद भरा क्यों झूमे है बादर में,वो ख़ुशी कहाँ मुझ विरहन के घर में,चंद्रमा ” पटरानी फिल्म आज लगभग 62 वर्ष का समय गुजर जाने के बाद भी अगर आज भी याद की जाती है तो सिर्फ महान शंकर जयकिशन के मनमोहक संगीत के कारण,इसके गीत अत्यन्त लोकप्रिय और सफल रहे थे।यह खेद का विषय है कि कुछ शंकरजयकिशन प्रेमियों को छोड़कर अधिकांश शंकरजयकिशन को चाहने वाले इस फ़िल्म को प्रायः स्मरण में नही रखते! कभी तो आ सपनो में आके जाने वाले और अरे कोई आओ ऱी सपनो में बुलाओ ऱी…जैसे गीत क्या भुलाये जा सकते है?
इन गीतों को सुनने के बाद यह स्थापित हो जाता है कि तथाकथित संगीतकार अपनी कर्कश तबले की थाप और समय की मांग के नाम पर अपनी कमजोरी अथवा मुहँ छिपाते फिरते है,आज का असभ्य संगीत,गंदे गीत,बच्चो का जीवन बिगाड़ने वाले गीत,कान फाडू संगीत,अजीब सी भद्दी आवाजे सुनकर भगवान् नटराज भी शायद संगीत युग से पलायन कर गए है। महान शंकर जयकिशन के इसलिए प्यारे लगते है क्योंकि उसमे संगीत की आत्मा का निवास होता है।
व्यथा से भरी नारी चंद्रमा से कह रही है…. चन्द्रमा मद भरा क्यों झूमे है बादर में वो ख़ुशी अब कहाँ मुझ विरहन के घर मे.. एक पीड़ा नारी की शैलेन्द्र के शब्दों में अभिव्यक्त हो रही है। मद भरा चंद्रमा आकाश में झूम रहा है, पर उस नारी के लिये निरर्थक, जिसके घर में खुशियों का अकाल है.कोई रूठा जो है? जब से बलम रूठे है,उसके भाग ही रूठ गए,दिल को रोग लग गया है जब से रूठे बलम हमारे रूठे तबसे भाग हमारे मच गया रोग जिगर में चन्द्रमा…!
जब सब कुछ सामान्य होता है तभी यह पर्वत,आसमान,पहाड़,नदियाँ,चन्द्रमा ,सितारे,सूरज,प्राकृतिक सौंदर्य सब अच्छे लगते है,परिवारों में भी यही होता है ढेरो खाद्य सामग्री डायनिंग टेबल पर सजी होती है पर यदि पारिवारिक विवाद हो,विषाद हो,नाराजगी हो,असफलता हो तो यह खाद्य सामग्री जहर समान लगती है किंतु यदि जीवन में सच्ची मस्ती हो तो पत्थरो पर बैठकर भी सुखी रोटी प्याज और लहसुन की चटनी के साथ भी जायकेदार और अच्छी लगती है जीवन और जिंदगी सुख का अहसास कराते है।
लतामंगेशकर की बेहतरीन आवाज,शैलेन्द्र के अर्थ भरे पीड़ायुक्त शब्द और शंकर जयकिशन का कर्ण प्रिय संगीत इस गीत को चार चांद लगाते है, यह एक अत्यंत नायाब गीत है जिसको सुनने का एक अलग ही आनंद है।हमारा दुर्भाग्य रहा कि शंकरजयकिशन की कई रचनाओं को पर्दे पर साकार होने का अवसर ही नही मिला,जबकि यह अत्यंत कर्ण प्रिय रचनाएं थी,चंद्रमा मदभरा क्यो झूमे।बादर में..को फ़िल्म में निर्माता निर्देशक ने प्रस्तुत ही नही होने दिया जबकि यह गीत अत्यन्त प्रिय मेलोडी गीत था।
इसी प्रकार शारदा का खूबसूरत गीत जो फ़िल्म गुमनाम का था—– आएगा कौन यहाँ किसको सदाये देता है दिल अपना है कौन यहाँ …!! को भी फ़िल्म में स्थान नही मिला।ऐसी ही गलती फ़िल्म निर्माता,निर्देशक कनक मिश्रा भी करने जा रहे थे!जैसा की सूत्र बताते है कि वह फ़िल्म नैना से शारदा का गाया गीत “अलबेले सनम तू लाया है कहाँ”को फ़िल्म में रखने के पक्षधर नही थे किंतु शंकर जी के दृढ़ विश्वास के कारण इस गीत को फ़िल्म में रखना पड़ा जो कि फ़िल्म नैना का विशेष आकर्षण बना। शंकरजयकिशन का नाम करोड़ो भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए अमृत का वह अगाध स्रोत है,जो क्षणभर में महिमामय कर्ण प्रिय संगीत रस से तन मन को आप्लावित कर देता है।
पटरानी फ़िल्म की याद भी केवल शंकरजयकिशन के श्रवणीय मधुर संगीत के कारण आती है,जिसके सभी गीत अत्यन्त लोकप्रिय हुए और जिस गीत ” चंद्रमा मद भरा क्यो झूमे बादर में” को फ़िल्म में नही रखा गया था वही सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ ओर यज़ भी इस गीत की मांग रहती है। इस गीत को सुनने के बाद शंकरजयकिशन के बाद आये तथाकथित संगीतकारो की लुहारोवाली तबले की थाप तथा समय की मांग के नाम पर अपनी कमजोरी छिपाने की दुर्बलता का पता चल जाता है।इन्ही संगीतकारो के कारण हिंदी फिल्म संगीत का पतन हो गया।शंकरजयकिशन की शास्त्रीय रागों पर आधारितं धुनों में फ़िल्म पटरानी के “चंद्रमा मद भरा” गीत की धुन अत्यन्त सुंदर है।चातक को वर्षा के लिये,चकोर को चंद्रमा के लिए,सीपो को स्वाति बूंदों के लिए मौसम की राह देखनी पड़ती है किन्तु संगीत रसको को शंकरजयकिशन की धुनों रूपी सुधा के लिए कभी तरसना नही पडा, वह तो निरंतर संगीत की अमृत वर्षा करते रहे,तभी तो आज उनके करोड़ो प्रशंसक है जो सिर्फ शंकरजयकिशन के संगीत को ही पसंद करते है।फ़िल्म पटरानी का यह गीत कालजयी है,एक बार ध्यान से सुनिए ।

बलूचिस्तान का संघर्ष पाकिस्तान का भविष्य तय करेगा

बलुचों का पहला संघर्ष १९५५ तक चला. बाद में १९५८ – १९५९ में दूसरी बार बलूच लोगों ने विद्रोह किया. तीसरा संघर्ष साठ के दशक में हुआ. पाकिस्तान के दो टुकड़े होने के बाद चौथा संघर्ष १९७३ – १९७७ के बीच हुआ.

इन सभी संघर्षों में कोई एक व्यक्ति सामने आता था, बलूच लोगों को संगठित करता था और पाकिस्तान सरकार से संघर्ष करता था. यही स्वरूप कमोबेश सभी संघर्षों का रहा.  किन्तु इक्कसवी शताब्दी के प्रारंभ में यह चित्र बदला. बलुचों ने अपना एक संगठन बनाया, जो सरकार से लड़ सके. और उसके बाद तो इतिहास बदल गया….

सन १९७३ – ७४ के पाकिस्तानी सेना और बलूच गुरिल्लों के बीच हुए भीषण संघर्ष ने अनेक समीकरण बदल दिये. इसी संघर्ष के परिणामस्वरूप, बलूच लोगों का आतंकवादी संगठन – बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी खड़ा हुआ. वर्तमान में पाकिस्तान, ब्रिटन और अमेरिका ने इस संगठन को ‘आतंकवादी संगठन’ घोषित किया हैं.

वैसे आधिकारिक रूप से यह संगठन सन २००० में अस्तित्व में आया. किन्तु इसका अनौपचारिक गठन, १९७३ से प्रारंभ हुए बलूचिस्तान के सशस्त्र स्वातंत्र्य युध्द के समय ही हो गया था. ऐसा माना जाता हैं की सोवियत रशिया की जासूसी एजेंसी के दो जासूसों ने, इस संगठन को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसलिए प्रारंभ में बी एल ए (बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी) का झुकाव मार्क्सवाद की ओर था. इनके कुछ अधिकारियों को रशिया ने मॉस्को में प्रशिक्षण भी दिया था. किन्तु कालांतर में इन लड़ाकुओं के दिमाग से साम्यवाद का भूत जाता रहा. मुख्यतः बुगती और मर्री, इन दो प्रमुख समुदायों में से ही बी एल ए (बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी) का नेतृत्व उभरा हैं.

चीन के वन बेल्ट – वन रोड परियोजना प्रारंभ होने के कुछ वर्ष पहले, पाकिस्तान ने ग्वादर बंदरगाह को विकसित करने की योजना बनाई. अर्थात इस योजना के पीछे चीन था.  आर्थिक रूप से और सामरिक रूप से भी. ग्वादर बंदरगाह चीन को ही विकसित करना था.  इसलिए उसने बड़ी संख्या में चीनी मजदूर ग्वादर में भेजे. सन २००४ में बी एल ए ने इन चीनी मजदूरों पर जबरदस्त आक्रमण किया. चीन के दवाब मे, पाकिस्तान को यहाँ पर बीस हजार अतिरिक्त जवान तैनात करने पड़े.

दिनों दिन बी एल ए, अस्त्र – शस्त्रों के मामले में शक्तिशाली हो रही थी. अभी भी पाकिस्तान में इस संगठन पर प्रतिबंध नहीं था. लेकिन १५ दिसंबर २००५ की उस आतंकवादी घटना ने सारे समीकरण बदल दिये. उस दिन जनरल मुशर्रफ, बलूचिस्तान के दौरे पर थे. वह कोहलू एजेंसी इलाके में स्थानीय वनवासियों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे. तभी, भरी सभा में रॉकेट गिरने लगे. मुशर्रफ बाल बाल बचे. अनेक लोगों की मौत हुई. घटना के दो घंटे बाद, क्वेट्टा के प्रेस क्लब में ‘मिराक बलूच’ का फोन आया. उसने कहा की ‘वह बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी का प्रवक्ता हैं, और कोहलू में उन्होने ही रॉकेट दागे हैं. ‘

इस घटना ने पाकिस्तानी सेना को विचलित कर दिया. उन्होने बलूचिस्तान में कड़े कदम उठाए. अनेक बलूचियों को बी एल ए की संबंधता के संदेह पर सीधे मार डाला. अनेकों को कैद में डाला. ७ अप्रैल, २००६ को पाकिस्तान ने बी एल ए पर प्रतिबंध लगाया. इसी को देखकर ब्रिटेन ने १७ जुलाई, २००६ को बी एल ए को प्रतिबंधित किया. हालांकि ब्रिटेन ने बी एल ए के नेता हर्बीयार मर्री को शरणार्थी के रूप में राजनीतिक शरण दी हैं. लेकिन पाकिस्तान के सबसे निकट के मित्र अमेरिका ने काफी विलब के बाद, २ जुलाई २०१९ में बी एल ए पर पाबंदी लगाई.

लेकिन प्रतिबंध के बाद, बी एल ए की हिंसक गतिविधियों में जबरदस्त वृध्दी हुई –
• १४ जून २०१९ को उन्होने कलात के एक स्कूल टीचर को गोली से उड़ा दिया.  उसने बलूच राष्ट्रगीत गाने से मना किया, और यही उसके मौत का कारण बना.
• इस घटना के डेढ़ महीने बाद, बी एल ए की लड़ाकुओं ने १७ पाकिस्तानी पुलिस कर्मियों  को अगवा कर लिया. यह करते समय एक पुलिस कर्मी को वही मार गिराया. तीन सप्ताह बाद, बी एल ए के लड़ाकुओं ने उन १५ पुलिस कर्मचारियों को मार गिराया और सोलहवे को यह दर्दनाक दास्तां सुनाने छोड़ दिया.
– ११ मार्च, २०२५ को, क्वेटा से पेशावर जा रही जाफर एक्सप्रेस का बीएलए के सैनिकों ने अपहरण कर लिया. इस घटना मे पाकिस्तान सुरक्षा बलों के सैनिकों सहित अनेक यात्री भी मारे गए.
– इसके ठीक ५ दिन बाद, १६ मार्च को, बीएलए की मजीद ब्रिगेड ने पाकिस्तानी सेना के काफिले पर भयंकर आक्रमण किया. 90 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए.
• ऐसी अनेक आतंकवादी घटनाएं हैं, जिसे बी एल ए ने अंजाम दिया हैं.

विशेषतः बी एल ए के हमले चीनी अधिकारियों, मजदूरों और पाकिस्तानी सेना / पुलिस पर ही होते हैं. बलूच लोगों में पाकिस्तानियों के प्रति इतनी ज्यादा नफरत हैं, की बी एल ए के हमलावरों ने १५ जून २०१३ को बलूचिस्तान के झियारत में स्थित ‘कायदे आझम रेसिडेंसी’ (जिसे ‘झियारत रेसिडेंसी’ भी कहा जाता हैं), को रॉकेट के सहारे तबाह कर दिया. इस स्थान पर पाकिस्तान के संस्थापक, कायदे – आझम जीना, उनके जीवन के अंतिम क्षणों में रुके थे.

(हालांकि नवाज शरीफ के मुख्यमंत्री रहते, अगले एक वर्ष में ही, इस झियारत रेसिडेंसी को पुनः पहले के स्वरूप में बांधा गया. )

इन बीस वर्षों के प्रवास में बी एल ए में अनेक उतार – चढ़ाव आए. टूट फूट भी हुई. किन्तु फिर भी, आज भी बी एल ए, बलूचिस्तान को स्वतंत्र कराने, हिंसक रूप से संघर्षरत हैं.

बी एल ए के अलावा ‘बलोच लिबरेशन फ्रंट’ भी बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं. किसी जमाने में ताकतवर रहा यह लड़ाकू संगठन, डॉ. जुम्मा खान मर्री ने सन १९६४ में बनाया. तब वे दमास्कस (सीरिया) में थे. इसलिए इसका मुख्यालय दमास्कस ही था. बाद में अफगानिस्तान और रशिया की मदद से, बी एल एफ का मुख्यालय अफगानिस्तान बना.

लेकिन बाद में डॉ. जुम्मा खान के साथ पाकिस्तानी अधिकारियों ने सब ठीक से जमा लिया.  इसलिए बी एल एफ के अनेक लड़ाकू सैनिक, बी एल ए में शामिल हो गए, और जुम्मा खान को पाकिस्तानी सेना ने भारत के विरोध में बोलने के लिए बाध्य किया.

अर्थात यह बात जरूर हैं की बलूचिस्तान के लोगों में पाकिस्तान के प्रति समर्पण की भावना न पहले कभी थी, न अब हैं. आज भी बलूच नागरिक विविध माध्यमों से अपने स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर रहा हैं. किन्तु यह अब कठिन हो चला हैं. बलूचिस्तान के एक बड़े भूभाग पर चीन का अप्रत्यक्ष कब्जा हैं. ग्वादर बन्दरगाह तो उनका हैं ही, साथ में चीन – पाकिस्तान का जो आर्थिक कॉरिडोर बन रहा हैं, उसका बहुत बड़ा हिस्सा, बलूचिस्तान से गुजरता हैं. बलूचिस्तानके चौथे बडे शहर, हब में चीन १३२० मेगा वॉट का पॉवर प्लांट लगा रहा हैं, जिसकी लागत ९७० मिलियन यू एस डॉलर्स हैं. ग्वादर में भी उसने ३३० मेगा वॉट का पावर प्लांट लगाया हैं. ग्वादर बंदरगाह तक बन रहे एक्सप्रेस वे का पूरा खर्चा चीन उठा रहा हैं. अपने इस निवेश को सुरक्षित रखने के लिए, चीन की पुरजोर कोशिश हैं, की बलूचिस्तान में अलगाववादी तत्वों का खात्मा हो.

इसलिए अभी बलूचिस्तान की स्वतंत्रता चाहने वालों को केवल पाकिस्तान से नहीं लड़ना हैं.  चीन से भी उनको दो – दो हाथ करने पड़ेंगे…!

(लेखक ऐतिहासिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषयों पर खोजपूर्ण  लेख व पुस्तकें लिखते हैं)

प्राचीन काल में भारत में गणित के रोचक सवाल और उनके जवाब

प्राचीन काल में भारत में गणित के सवाल बहुत रोचक और व्यावहारिक होते थे। ये सवाल अक्सर दैनिक जीवन, व्यापार, ज्योतिष, या वास्तुकला से जुड़े होते थे और इन्हें आमतौर पर काव्यात्मक या पहेली (श्लोक) के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय गणितज्ञों जैसे आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि ने इन सवालों को अपने ग्रंथों में शामिल किया। आइए कुछ उदाहरण देखते हैं:

आर्यभटीय (आर्यभट्ट, 5वीं शताब्दी)
आर्यभट्ट ने अपने ग्रंथ “आर्यभटीय” में गणितीय और खगोलीय सवालों को श्लोकों में लिखा। एक उदाहरण:
– “10 पुरुष और 10 महिलाएं एक काम को 10 दिन में पूरा करते हैं। यदि 5 पुरुष और 5 महिलाएं हों, तो वही काम कितने दिनों में पूरा होगा?”
इस तरह के सवाल अनुपात और समय-कार्य की गणना पर आधारित होते थे।

लीलावती (भास्कराचार्य, 12वीं शताब्दी)
भास्कराचार्य की “लीलावती” में गणित को कहानियों और पहेलियों के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक प्रसिद्ध सवाल:
– “एक बंदर एक पेड़ पर चढ़ता है। वह दिन में 3 फीट चढ़ता है, लेकिन रात में 2 फीट नीचे खिसक जाता है। यदि पेड़ 10 फीट ऊंचा है, तो बंदर को शीर्ष पर पहुंचने में कितने दिन लगेंगे?”
(जवाब: 7 दिन, क्योंकि 6वें दिन वह 9 फीट पर होता है और 7वें दिन 3 फीट चढ़कर 10 फीट पर पहुंच जाता है।)

व्यावहारिक सवाल
प्राचीन भारत में व्यापार और भूमि मापन से जुड़े सवाल भी आम थे। जैसे:
– “एक व्यापारी के पास 100 रुपये हैं। वह 5 रुपये में 2 किलो चावल और 3 रुपये में 1 किलो दाल खरीदता है। यदि वह सारा पैसा खर्च कर दे, तो वह कितना चावल और कितनी दाल खरीद सकता है?”
इस तरह के सवाल रैखिक समीकरणों को हल करने की प्रक्रिया को दर्शाते थे।

ज्यामिति और क्षेत्रफल
वैदिक काल में यज्ञ वेदियों के निर्माण के लिए ज्यामिति के सवाल होते थे। “शुल्ब सूत्र” में ऐसा एक सवाल:
– “एक वर्गाकार वेदी का क्षेत्रफल 16 वर्ग हस्त है। उसकी भुजा की लंबाई कितनी होगी?”
(जवाब: 4 हस्त, क्योंकि √16 = 4।)

प्राचीन भारतीय गणित का इतिहास बहुत समृद्ध है और यह संस्कृत श्लोकों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। ये श्लोक वेदों, सूत्रग्रंथों, और गणितीय ग्रंथों जैसे *आर्यभटीयम्*, *लीलावती*, और *सुल्बसूत्र* से लिए गए हैं। नीचे कुछ प्रसिद्ध श्लोक दिए गए हैं, उनके मूल संस्कृत रूप में, साथ ही उनका हिंदी में अर्थ और गणितीय महत्व:

शुल्बसूत्र (वेदिक काल) – पाइथागोरस प्रमेय का उल्लेख
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यग्मानी च यत् पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।
“एक आयताकार क्षेत्र की विकर्ण रज्जु (रस्सी) जो पार्श्वमानी (लंबाई) और तिर्यग्मानी (चौड़ाई) को अलग-अलग मापती है, वह दोनों को मिलाकर बनाती है।”
यह श्लोक पाइथागोरस प्रमेय (a² + b² = c²) का प्राचीन भारतीय संस्करण है, जो वेदिक यज्ञ वेदियों के निर्माण में प्रयोग होता था। यह दर्शाता है कि प्राचीन भारतीयों को ज्यामिति का गहरा ज्ञान था।
आर्यभट (आर्यभटीयम्, गणितपाद) – वृत्त की परिधि

चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
“100 में 4 जोड़ें, उसे 8 से गुणा करें, फिर 62,000 जोड़ें। यह 20,000 के व्यास वाले वृत्त की परिधि का निकटतम मान है।”
यहाँ आर्यभट ने π (पाई) का मान लगभग 3.1416 बताया, जो आधुनिक मान (3.14159) के बहुत करीब है। गणना है:
(100 + 4) × 8 + 62,000 = 62,832।
परिधि = 62,832 / 20,000 ≈ 3.1416। यह प्राचीन गणित में सटीकता का उदाहरण है।

भास्कराचार्य (लीलावती) – शून्य का महत्व
खहरात् परं न च परं न च संख्याविशेषः।
तस्मात् खमेव परमं परमं च तदेव॥
“शून्य से बड़ा कुछ नहीं है, न ही कोई विशेष संख्या है। इसलिए शून्य ही सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा है।”
भास्कराचार्य ने शून्य को न केवल एक placeholder के रूप में, बल्कि गणितीय संचालन में एक महत्वपूर्ण संख्या के रूप में स्थापित किया। यह भारतीय गणित की दशमलव प्रणाली और शून्य की खोज का आधार है।


ब्रह्मगुप्त (ब्राह्मस्फुटसिद्धांत) – ऋणात्मक संख्याएँ**
धनं ऋणेन संनादति ऋणं धनेन संनादति च यथा।
धनं धनेन संनादति ऋणं ऋणेन संनादति च॥
“धन और ऋण का योग शून्य देता है, जैसे ऋण और धन का योग शून्य देता है। धन और धन का योग धन होता है, और ऋण और ऋण का योग ऋण होता है।”

यह श्लोक ऋणात्मक संख्याओं के नियमों को दर्शाता है। ब्रह्मगुप्त पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने ऋण संख्याओं को औपचारिक रूप से परिभाषित किया, जैसे: (+a) + (-a) = 0, (-a) + (-a) = -2a।
लीलावती (भास्कराचार्य) – समांतर श्रेणी**
आदिमान्त्यविषमसंख्यया विभागार्धेन संनादति।
आद्यन्तफलयोगेन च गुणितं संनादति च॥
“पहले और अंतिम पद की संख्या को जोड़कर, उसे विषम संख्याओं की संख्या से भाग देने के आधे से, या पहले और अंतिम फल को जोड़कर उसे संख्या से गुणा करने से (योग) प्राप्त होता है।”
**गणितीय महत्व:**
यह समांतर श्रेणी के योग का सूत्र है:
S = n/2 × (a + l) या S = (a + l) × n/2,
जहाँ n = पदों की संख्या, a = पहला पद, l = अंतिम पद। यह व्यावहारिक गणनाओं में प्रयोग होता था।

इन श्लोकों से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय गणितज्ञों ने ज्यामिति, बीजगणित, त्रिकोणमिति, और संख्याओं के सिद्धांत में महत्वपूर्ण योगदान दिया। संस्कृत में लिखे गए ये ग्रंथ काव्यात्मक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी थे, जो उन्हें याद रखने और सिखाने में सहायक थे।

सुनीता विलियम्स के अंतरिक्ष में जाने, रहने और लौटने की रोचक कहानी

भारतीय मूल की प्रसिद्ध अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री, सुनीता विलियम्स, ने अपने अंतरिक्ष मिशनों के दौरान अद्भुत अनुभव प्राप्त किए। उनकी सबसे हालिया यात्रा जून 2024 में शुरू हुई, जब वह और उनके सहयोगी बुच विल्मोर बोइंग स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान के पहले मानवयुक्त परीक्षण मिशन पर अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) के लिए रवाना हुए। यह मिशन मूल रूप से 8 दिनों का था, लेकिन तकनीकी समस्याओं (थ्रस्टर में खराबी और हीलियम रिसाव) के कारण यह 286 दिनों तक खिंच गया। आखिरकार, मार्च 2025 में वह स्पेसएक्स के क्रू ड्रैगन यान से पृथ्वी पर लौटीं।

सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर 5 जून, 2024 को स्टारलाइनर से आईएसएस के लिए रवाना हुए। मिशन का उद्देश्य बोइंग के नए अंतरिक्ष यान की क्षमता का परीक्षण करना था। हालांकि, स्टारलाइनर में तकनीकी खराबी के कारण उनकी वापसी संभव नहीं हुई। नासा ने अंततः स्पेसएक्स की मदद ली, और क्रू-9 मिशन के तहत एक अंतरिक्ष यान सितंबर 2024 में आईएसएस भेजा गया, जिसमें सुनीता और बुच के लिए दो सीटें खाली रखी गई थीं। 19-20 मार्च, 2025 को वह सफलतापूर्वक फ्लोरिडा के तट पर उतरे। इस दौरान सुनीता ने अंतरिक्ष में कुल 608 दिन बिताए, जो उनके पिछले रिकॉर्ड्स को जोड़कर एक ऐतिहासिक उपलब्धि बन गई।

इतने दिनों तक क्या खाया?
अंतरिक्ष में भोजन प्री-पैकेज्ड और विशेष रूप से तैयार किया जाता है, ताकि यह माइक्रोग्रैविटी में खाया जा सके। सुनीता और अन्य अंतरिक्ष यात्रियों ने निम्नलिखित चीजें खाईं:

ताजे फल और सब्जियां**: ये हर तीन महीने में सप्लाई के साथ आते हैं, लेकिन जल्दी खत्म हो जाते हैं।
*विशेष भोजन**: अंतरिक्ष यात्रियों के परिवार उनके पसंदीदा व्यंजन भेज सकते हैं। सुनीता ने पहले मिशनों में भारतीय खाना, जैसे समोसे, ले जाने की बात कही थी।
पानी**: पानी की आपूर्ति सीमित होती है, इसलिए उनके मूत्र को रिसाइकल करके शुद्ध पानी बनाया जाता है। यह तकनीक आईएसएस पर आम है और सुरक्षित मानी जाती है।

आईएसएस पर प्रति अंतरिक्ष यात्री प्रतिदिन लगभग 3.8 पाउंड भोजन उपलब्ध होता है, और अप्रत्याशित देरी के लिए अतिरिक्त स्टॉक भी रखा जाता है। उनकी सेहत पर नजर रखी गई, और वजन में कमी माइक्रोग्रैविटी के प्रभाव के कारण हुई, न कि भोजन की कमी से।

आराम कैसे किया?
आईएसएस पर आराम करना पृथ्वी से बहुत अलग है क्योंकि वहां गुरुत्वाकर्षण नहीं होता। सुनीता ने निम्नलिखित तरीके अपनाए:
स्लीपिंग बैग: वह “हार्मनी” मॉड्यूल में फोन-बूथ जैसे स्लीपिंग क्वार्टर में सोती थीं। ये स्लीपिंग बैग दीवार से जुड़े होते हैं, और माइक्रोग्रैविटी में शरीर हवा में तैरता रहता है। पूर्व अंतरिक्ष यात्री निकोल स्टॉट ने इन्हें “दुनिया के सबसे बेहतरीन स्लीपिंग बैग” कहा था।
शांत वातावरण: आईएसएस बड़ा और शांत होता है, जिससे नींद लेना आसान हो जाता है। सुनीता सुबह 6:30 बजे (जीएमटी) जागती थीं और दिनभर के काम के बाद रात को सोती थीं।

दिन और रात का पता कैसे लगाया?
अंतरिक्ष में दिन और रात का चक्र पृथ्वी जैसा नहीं होता। आईएसएस हर 90 मिनट में पृथ्वी का चक्कर लगाता है, जिससे हर 45 मिनट में सूर्योदय और सूर्यास्त होता है। सुनीता ने इसका पता लगाने के लिए:
– **शेड्यूल का पालन**: अंतरिक्ष यात्रियों का समय जीएमटी (ग्रीनविच मीन टाइम) के अनुसार तय होता है। सुबह 6:30 बजे उठना और रात को सोना उनके शेड्यूल का हिस्सा था।
प्रकाश का उपयोग**: सूरज की रोशनी से दिन का अंदाजा लगता था। सुनीता ने बताया कि पहली बार हैच खोलने पर रात थी, लेकिन सूरज निकलते ही पृथ्वी का नजारा देखकर वह हैरान रह गई थीं।
कृत्रिम रोशनी**: आईएसएस में रोशनी को नियंत्रित करके दिन-रात का अनुकरण किया जाता है।

सुनीता विलियम्स के अंतरिक्ष मिशन के दौरान तापमान के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए हमें कई स्तरों पर जानकारी को देखना होगा—आईएसएस के अंदर का तापमान, उनके अंतरिक्ष यान का तापमान, अंतरिक्ष का बाहरी तापमान, और पृथ्वी पर वापसी के दौरान का तापमान। नीचे इन सभी का विवरण दिया गया है:

 1. सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में किस तापमान में रही?
सुनीता विलियम्स अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर रहीं, जहां का आंतरिक तापमान मानव जीवन के लिए आरामदायक बनाया जाता है। आईएसएस के अंदर तापमान आमतौर पर 20°C से 25°C (68°F से 77°F)** के बीच नियंत्रित रहता है। यह पृथ्वी पर सामान्य कमरे के तापमान के समान है और अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत व उपकरणों की कार्यक्षमता के लिए उपयुक्त रखा जाता है। इसके लिए स्टेशन में उन्नत थर्मल नियंत्रण प्रणाली होती है, जो बाहरी极端 तापमान से सुरक्षा प्रदान करती है। सुनीता ने अपने 286 दिनों के मिशन के दौरान इसी तापमान में समय बिताया।

सुनीता विलियम्स दो अलग-अलग यानों से जुड़ी थीं: बोइंग स्टारलाइनर (जाने के लिए):** यह यान उन्हें जून 2024 में आईएसएस तक ले गया। इसके अंदर का तापमान भी मानव के लिए उपयुक्त, यानी **20°C से 25°C** के आसपास रखा गया था। हालांकि, बाहरी सतह का तापमान अंतरिक्ष में सूर्य की ओर होने पर **120°C तक** और छाया में **-150°C तक** हो सकता है, लेकिन हीट शील्ड और इंसुलेशन इसे अंदर स्थिर रखते हैं।

स्पेसएक्स क्रू ड्रैगन (वापसी के लिए):** यह यान उन्हें मार्च 2025 में पृथ्वी पर लाया। अंदर का तापमान भी **20°C से 25°C** के बीच रहा। हालांकि, वायुमंडल में पुनः प्रवेश के दौरान बाहरी तापमान **1650°C से 1926°C (3000°F से 3500°F)** तक पहुंच गया। यह गर्मी प्लाज्मा निर्माण के कारण होती है, लेकिन हीट शील्ड के कारण अंदर के यात्रियों को कोई नुकसान नहीं हुआ।

आईएसएस पृथ्वी से लगभग 400 किलोमीटर ऊपर निचली कक्षा में चक्कर लगाता है। अंतरिक्ष का तापमान स्थान और सूर्य के प्रकाश पर निर्भर करता है:
*सूर्य की ओर:** सूर्य के प्रकाश में तापमान **120°C (248°F)** तक जा सकता है।
छाया में:** सूर्य की रोशनी न होने पर तापमान **-150°C से -270°C (-238°F से -454°F)** तक गिर सकता है, जो पूर्ण वैक्यूम के कारण होता है।

आईएसएस पर सुनीता के बाहर निकलने (स्पेसवॉक) के दौरान उनका स्पेससूट तापमान को नियंत्रित करता था, जिसका आंतरिक तापमान **15°C से 25°C** के बीच रहता है, जबकि बाहरी सतह इन चरम तापमानों का सामना करती थी।

18 मार्च, 2025 को जब सुनीता विलियम्स क्रू ड्रैगन से आईएसएस से रवाना हुईं, तब अंतरिक्ष का बाहरी तापमान वही था जो ऊपर बताया गया—सूर्य की ओर **120°C** और छाया में **-150°C से -270°C**। यान के अंदर का तापमान **20°C से 25°C** रहा। आईएसएस से अलग होने के बाद यान ने पृथ्वी की ओर उड़ान भरी, और यह तापमान तब तक स्थिर रहा जब तक वह वायुमंडल में प्रवेश नहीं किया।

19 मार्च, 2025 को सुनीता विलियम्स का क्रू ड्रैगन फ्लोरिडा के तट पर समुद्र में उतरा। इस दौरान:
– **वायुमंडल में पुनः प्रवेश:** यान की बाहरी सतह का तापमान **1650°C से 1926°C** तक पहुंचा, जैसा कि नासा और स्पेसएक्स के अनुसार सामान्य है। यह उच्च तापमान घर्षण और प्लाज्मा के कारण होता है, जिसके चलते 7 मिनट तक संचार ब्लैकआउट भी रहा। अंदर का तापमान हीट शील्ड के कारण **20°C से 25°C** ही रहा।

समुद्र में उतरने पर:** लैंडिंग के बाद यान का बाहरी तापमान धीरे-धीरे कम हुआ। फ्लोरिडा के तट पर उस समय का मौसमी तापमान मार्च के लिए सामान्य था—लगभग **20°C से 25°C** (रात के समय, भारतीय समयानुसार सुबह 3:27 बजे लैंडिंग हुई)। समुद्र के पानी का तापमान भी लगभग **22°C से 24°C** रहा होगा। यान के अंदर का तापमान तब तक स्थिर रहा, और बाहर निकलते ही सुनीता ने पृथ्वी का सामान्य तापमान महसूस किया।
निष्कर्ष
– **आईएसएस पर:** 20°C से 25°C (अंदर), -150°C से 120°C (बाहर)।
– **यान के अंदर:** 20°C से 25°C (पूरे मिशन में)।
– **यान के बाहर (अंतरिक्ष में):** -150°C से 120°C।
– **वायुमंडल में वापसी:** 1650°C से 1926°C (बाहर), 20°C से 25°C (अंदर)।
– **लैंडिंग पर:** 20°C से 25°C (फ्लोरिडा का मौसम और यान के अंदर)।

यह जानकारी उनके मिशन की तकनीकी और पर्यावरणीय परिस्थितियों पर आधारित है, जो नासा और स्पेसएक्स के डेटा से मेल खाती है।

मनोरंजन के साथ बच्चों की तर्क शक्ति भी विकसित करती हैं बाल पहेलियां

पहेलियां सदियों से न केवल बच्चों का वरन बड़ों का भी मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम रहा है। पहले पहली बूझ कर उत्तर न मिलने पर बच्चों के चेहरे खुशी से नाच उठते थे। पूछने वाला कहता था अच्छा कुछ अता पता बताओ या हिंट दो, तब बच्चों के होठों की मुस्कान देखते ही बनती थी। उत्तर मिलने पर वे तारीफ के पुल बांध देते थे। सबसे ज्यादा खुशी उत्तर नहीं मिलने पर होती थी। आज इसका रूप बदल कर पत्र – पत्रिकाओं में वर्ग पहली का हो गया है,जिसे भरने में बच्चें क्या बड़े बड़े भी मशक्कत करते नजर आते हैं। पहेलियों ने साहित्य में भी अपना स्थान बना लिया है। पहेली साहित्य, पहेली का प्रचलन, इसका महत्व आदि पर मैंने बाल साहित्य में डॉक्टरेट करने वाली साहित्यकार डॉ. कृष्णा कुमारी से साक्षात्कार के रूप में लम्बी चर्चा की। चर्चा से जो प्रमुख बिंदु उभार कर आए उन्हें यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
 साक्षात्कार की शुरुआत करते हुए कहती हैं
एक लोक प्रचलित पहेली देखिए जो मक्का के भुट्टे को लेकर बनाई गईं है…..
 “हरा था मन भरा था , हजार मोती जड़ा था
 राजाजी के बाग़ में, दुशाला ओढ़े खड़ा  था।”
 पहेली साहित्य पर इस पहली से अपनी चर्चा शुरू करते हुए साहित्यकार डॉ . कृष्णा कुमारी बताती हैं   पहेलियां  अन्यान्यं विधाओं की तरह ही  अत्यंत  प्राचीन विधा है, जो रोचकता ,ज्ञान , जिज्ञासा और स्वस्थ मनोरंजन से भरपूर होने के कारण आदिकाल से  लोक जीवन  का अभिन्न अंग रही हैं । पहेलियाँ लोक व्यवहार में मनोरंजन के संदर्भ में अहम् भूमिका निभाती हैं, चाहे शादी –ब्याह हो ,तीज – त्योहारों हो या इसी प्रकार का अन्य समारोह । बिटिया को जंवाई राजा और ससुराल वाले लिवाने आते हैं, तब रात को महिलाएं पहले उन में मीठी – मीठी गालियां गाती हैं तत्पश्च्चात उन से पहेलियाँ पूछती हैं  और सही उत्तर नहीं देने पर मीठी सी धमकी भी दी जाती है | यह दौर आधी–आधी  रात तक चलता रहता है । यह हमारी  परम्परा रही है । इसी बहाने जंवाई सा की बुद्धि का परिक्षण भी जाया करता है  । विदेशों  में भी  यह कला पाई गई है ।
कृष्णा जी डॉ देवसरे का संदर्भ देते हुए बताती हैं उन्होंने लिखा है, ” पहेली बूझने की कला को यदि ज्ञानवृद्धि का एक माध्यम या सामान्य ज्ञान को बालोपयोगी परीक्षा कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी । वास्तव में यह ऐसा खेल कि इसमें बच्चों को आनंद भी आता है और ज्ञान वर्द्धन भी होता है’।”
बच्चों के लिए पहेली का क्या महत्व है के उत्तर में वे कहती हैं पहेली साहित्य की ऐसी विधा है जो बालकों को चीजों की विशेषताओं के संदर्भ में जानकारी देती है एवं  खेल–खेल में आनंद और  ज्ञान भी प्रदान करती हैं ।पहेलियाँ  जीवन में रस  ही नहीं घोलती हैं अपितु  चिंतन–मनन  के अनंत द्वार भी खोलती हैं |  ये हास्य- विनोद  और जिज्ञासा का से भरपूर   होती हैं , इसीलिए बालकों  की सब से प्रिय विधा है। पहेलियाँ  जहाँ जिज्ञासा जाग्रत करती हैं वहीँ बुझा देने पर परम संतुष्टि की अनुभूति भी करवातीं हैं, एक बार ये सिलसिला प्रारम्भ होने के बाद निरंतर चलता रहता है क्योंकि पहेलियों का अपना अलग ही महत्त्व है। पहेलियाँ बच्चों और बड़ों को  परम आनंद प्रदान करती हैं,  लेकिन बालकों को तो उल्लास से भर देती हैं । बालकों की दुनिया कल्पना लोक में विचरती है , जहाँ रोमांच , रहस्य , रोचकता ,मनोरंजन नृत्य करते हैं |शायद इसी लिए उन्हें सब से जियादा   आनंद पहेलियाँ बुझाने में आता है । पहेली होती ही ऐसी है जब तक न बुझे बालक उसे नहीं छोड़ पाते । चाहे जितनी  भी माथापच्ची करनी पड़े  और उत्तर मिलते ही , ख़ुशी से नाच उठते हैं | किलकारियां भरने लगते हैं |
अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई वह कहती हैं कहानी और कविता के बाद पहेलियाँ बच्चों की प्रिय विधा है , कुछ पहेलियाँ तो जैसे जीवन का हिस्सा ही बन गई हैं जैसे – ‘ उल्टा सीधा एक समान तीन अक्षर का मेरा नाम ‘ , इस पहेली  के कई–कई  उत्तर हैं ।  इसी प्रकार  एक पहेली पर आधारित  एक  प्रचलित फ़िल्मी गीत  –‘ तीतर के दो आगे तीतर , तीतर के दो पीछे तीतर ,  आगे तीतर , पीछे तीतर , बोलो कितने तीतर ‘ | ( तीन )                     इसीलिए पं .रामनरेश त्रिपाठी ने पहेलियों को ‘ बुद्धि का खेल’ बताया है – ” न जाने किस युग से चली आ रही ज्ञान की घुमावदार नदी को अभी तक लोग आगे ही बहाए लिए जा रहे हैं , उसे उन्होंने सूखने नहीं दिया है।”
साहित्य की दृष्टि से आप पहेली के अर्थ को कैसे देखती हैं के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि ‘पहेली’ शब्द का ‘शिक्षार्थी हिंदी शब्दकोश’ सम्मत अर्थ है –
1 – प्रश्नात्मक उक्ति जिसमें बात का लक्षण बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बताओ वह कौन सी बात है ।
२ –कोई गूढ़ बात जिसका निराकरण सहजपूर्ण हो ।
उपर्युक्त संदर्भ के अनुसार पहेली एक ऐसी उक्ति है जिस में  प्रश्नात्मक भाव निहित होता है एवं  बात के लक्षण बताते हुए इस प्रकार  घुमा–फिरा  कर प्रस्तुत किया जाता है कि लोग आसानी से उत्तर नहीं दे  सकें। इस के लिए उन्हें मानसिक श्रम करना पड़ता है , और कई बार तो बात को इतनी गूढ़ता के रखा जाता है कि सामने वाला निरुत्तर हो जाता है और वह प्रश्न कर्ता से उत्तर बताने के लिए खुशामद करता है क्योंकि उत्तर जानने की उस की जिज्ञासा बहुत बलवती हो उठती है ।जिज्ञासा उत्पन्न करना पहेली की अति  विशिष्टता मानी गई है ।
 पहेलियों को लेकर कई मुहावरे भी लोक जीवन में प्रचलित हैं – ‘पहेलियाँ मत बुझाओं’, ‘जीवन एक पहेली है’ आदि । पहेलियाँ गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनों प्रकार की होती हैं और यह लक्षणा शब्द शक्ति से ओतप्रोत होती हैं।| पहेलियाँ आकार –प्रकार , रंग – रूप , स्वभाव , गुण- धर्म , गणित , समान धर्म वाले शब्दों के आधार पर कई प्रकार की हो सकती हैं । पहेली का विषय कुछ भी हो सकता है यथा –प्रकृति,घरेलू चीजें , खाने – पीने की चीजें, शिक्षा – ज्ञान ,शारीर के अंग आदि – आदि । पहेली गढ़ना बच्चों का खेल नहीं है इस के लिए बहुत श्रम करना होता है, क्योंकि इसे गढ़ने में उचित भाषा और सशक्त प्रस्तुतीकरण जरुरी है। हाँ , इनका उत्तर निश्चित होता है।
पहेलियों के उदय के के बारे में कुछ बताएं ये कब से प्रचलन में आई पर  वे कहती हैं,  सुनिश्चित, पहेलियों का जन्म भी मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव के साथ साथ ही हुआ होगा। खेल ही खेल में  इन का सृजन  हुआ होगा । किसी एक ने दूसरे व्यक्ति के ज्ञान का  परिक्षण करने के भाव से बात को घुमा – फिरा कर या गूढ़ बना कर पूछा  होगा , उत्तर  मिलने पर  भी और नहीं  मिलने पर भी , दोनों   व्यक्ति  अन्य  लोगों से आनंद लेने  के लिए पूछते गए होंगे और यह  क्रम बनता गया होगा , जिस  का आधुनिक स्वरुप आज  हमारे समक्ष है । डॉ.नागेश पांडेय ‘संजय’ के अनुसार – ” विभिन्न  पत्र –पत्रिकाओं में बाल पहेलियाँ प्राय  देखने को मिल जाती हैं ।  कहना अनुचित न होगा कि पहेलियाँ किसी सफल बाल पत्रिका का महत्वपूर्ण घटक हैं । कहानी और कविता के बाद बच्चों का रुझान पहेलियों की ओर ही अग्रसर होता होता  है । यह भी संभव है कि वे सब कुछ छोड़कर सर्वप्रथम पहेलियों पर ही अपना ध्यान केंद्रित  करें और अपनी घ्यान स्थिति का परिक्षण करके आल्हादित हों । “
   आगे बताती हैं वर्गीकरण की दृष्टि से राधेश्याम प्रगल्भ ने पहेलियों को पांच प्रकार से विभक्त किया है –
1-जिन का उत्तर पहेलियों में ही छिपा हो ।
२-जिन का उत्तर सरलता से पकड में आ जाये ।
3-गणितीय शिक्षा में सहायक ।
4-शब्द के आदि , मध्य और अंत के लोप पर आधारित पहेलियाँ ।
5-दो प्रश्नों के एक उत्तर वाली पहेलियाँ ।
अन्य विधाओं की भाति पहेलियों का जन्म भी संस्कृत भाषा से  हुआ है । संस्कृत में इन्हें प्रहेलिका कहा जाता है । आदि ग्रन्थ  ऋग्वेद , ब्राह्मण  ग्रन्थ , उपनिषदों तथा अन्य ग्रंथों में भी इन का उल्लेख मिलता है । विदेशों  में भी यह कला पाई गई है । देवसरे जी ने इस संदर्भ में लिखा है – ‘’ मिश्र में इस का बहुत प्रचलन था । अरब और फारस में भी काफी पुरानी  पहेलियाँ मिलती हैं। फांस में अठारहवीं शताब्दी में एक ऐसा संग्रह मिला है जिसमें डेढ़ हजार पहेलियाँ संग्रहीत हैं ।
पहेली पर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है,  लगभग  सभी विद्वानों और विचारकों ने अमीर खुसरो  को हिंदी में पहेलियों का जन्मदाता   माना है । बाल साहित्य के आदि समीक्षक निरंकार देव सेवक ने तो अमीर खुसरो को हिंदी में बच्चों का पहला कवि माना है । आज भी अमीर खुसरों की पहेलियाँ समाज  में सर्वाधिक प्रचलित और  लोक प्रिय  हैं ।सामान्यतया किसी भी व्यक्ति से खुसरो की पहेलियों को सुनी और पूछजा सकती हैं । अमीर खुसरो की पहेलियों का महत्व  साहित्यिक दृष्टि से भी है , भाव , भाषा और प्रस्तुतिकरण उत्तम है । इन की सब से अधिक प्रचलित पहेलियों में से कुछ दृष्टव्य है —
‘ एक थाल मोती  से भरा ,सब के सर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे’      ( उत्तर आकाश)
एक अत्यंत लोक प्रिय ‘कह मुकरनी’ जो पहेली का ही रूप है  —
  वो आये तो शादी होय , उन बिन दूजा और न कोय
  मीठे लागें उन के बोल , क्यों सखि सजन, ना सखि ढ़ोल ‘
       डॉ. भोला नाथ तिवारी ने अमीर खुसरो के पहेलियों  के निम्न  रूप निर्धारित किये  हैं –
  1–  इन का उत्तर पहेली में हो।
 २ – जिन  का उत्तर पहेली में न हो ।
 रोचकता , मनोरंजन , जिज्ञासा  और आनंद से भरपूर  ये पहेलियाँ  बाल साहित्य की अनमोल थाती  हैं।  बाल पहेलियों की उपयोगिता के संदर्भ मे पद्मश्री लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने दीन दयाल शर्मा की कृति  ‘इक्कावन बाल पहेलियाँ’ की भूमिका में  लिखा है –  ” पहेलियाँ केवल बच्चों का मनोरंजन ही नहीं करती वरन उन में जिज्ञासा भी जगाती हैं । पहेलियाँ बच्चों की स्मरण शक्ति बढाती है।|ज्ञान बढाती है ।अपने परिवेश को सीखने –समझने का अवसर प्रदान करती है। बौद्धिक क्षमता बढाती है तथा बच्चों को तर्कशील बनाती हैं । इसलिए ये विधा बालोपयोगी मानी जाती है ।”
वे कहती हैं कि इस प्रकार अमीर खुसरो से प्रारंभ होकर पहेलियों की यात्रा  अनेक रंग –  रूपों  में  आज अनवरत  जारी है । खुसरो के बाद भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने पहेलियों  की परम्परा को आगे बदाया । इन्होनें  ‘कह मुकरनियाँ’ (पहेलियों का ही एक रूप ) लिखीं  जिन्हें बालकों ने खूब पसंद किया |  ऐसी एक कह मुकरनी प्रस्तुत है –
  ‘ सतएं  – अठएं मा घर आवे , तरह – तरह की बात सुनावै
   घर बैठे ही जोड़े तार , क्यों सखि सज्जन, नहिं अखबार ‘
इसी श्रृखंला  में  घासीराम , खागीनियां , पंडित ने भी पहेलियों की विधा को खूब समृद्ध किया । प्रस्तुत है घासीराम की कौतुहल  जाग्रत करने वाली अत्यंत लोकप्रिय एक  पहेली —-
     ‘कारो है पर कौआ नाहिं, रुख चढ़े पर बंदर नाहिं
     मुहं को मोटो बिडवा नाहिं , कमर को पतलो  चीता नाहिं ‘।   (चींटा )
     पत्रिकाओं के उद्धरण देते हुए अपनी बात को पुष्ट करते हुए बताती हैं, स्वाधीनता के पूर्व प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं ने जैसे – ‘ शिशु’(1915) , ‘बालसखा’ ( 1917) ,  ‘वानर’ ( 1931)‘बालक’ (1926 ) , किशोर’ (1938) , बाल बोध’ (1947), आदि ने भी पहेलियों को स्थान देकर इस विधा को बहुत समृद्ध किया ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्च्चात बाल पहेलियों के विकास ने और  गति पकड़ी और  अन्य विधाओं की पहेलियों  में  भाति- भाति के  नए–नए विषयों का समावेश हुआ । ज्ञान – विज्ञानं , भूगोल , सामाजिक    संदर्भ , धर्म , गणितीय , वर्णनात्मक  , पर्यावरण , तकनीक , इंटरनेट , कम्प्यूटर से सम्बंधित   पहेलियाँ लिखीं जाने लगीं  | मूर्धन्य बाल साहित्यकारों ने  नए–नए विषयों पर पहेलियां लिख कर बाल साहित्य को परिपुष्ट किया । डॉ. श्री प्रसाद , जय प्रकाश भारती , रामेश्वर दयाल दुबे , गोपीचंद श्रीनागर ,घमंडीलाल अग्रवाल , कुलभूषण माखीजा , जगदीश तोमर , महेश सक्सेना , अजय शर्मा ,राम वचन सिंह  ‘आनंद’ , डॉ अजय जनमेजय , शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी  , बाबूलाल शर्मा ‘प्रेम’ , ममता , संकेत , मौ  फहीन , डॉ गणेश दत्त सारस्वत, दीनदयाल शर्मा , चाँद मोहम्मद घोसी(वर्ग पहेलियाँ , शब्द ज्ञान पहेलियाँ ) ( आदि ने बाल पहेलियों के संदर्भ में  उल्लेखनीय योगदान  किया , जो अनवरत जारी है  । वर्तमान में कथा पहेलियां और कविता पहेलियाँ भी लिखी जा रही हैं ।
कुछ दैनिक समाचार–पत्रों में ‘शब्द ज्ञान पहेली’ शीर्षक से प्रतिदिन पहेली का  प्रकाशन किया जा रहा है जिसे   पाठक –गण पूरे मनोयोग से हल करते देखे जा सकते हैं । डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल की कम्प्यूटर के माउस पर लिखी एक पहेली प्रस्तुत है –
 ‘ कम्प्यूटर भी मुझ से चलता , चाहे मुझे गणेश
 मैं हूँ नन्हा किन्तु काम का , बोले पूरा देश ‘
  ( उत्तर  माउस )
पंजाब सौरभ में प्रकाशित अनिल कुमार की कुछ पहेलियाँ –
तीन अक्षर का मेरा नाम’
आता हूँ लिखने के काम ।
आदि कटे  हाथी बन जाऊँ,
अंत कटे कौआ कहलाऊँ।  ( उत्तर कागज )
बालहंस में प्रकाशित एक पहेली जो बालकों को ‘अंगूर खट्टे हैं’ मुहावरे से भी परिचित करवाती है –
गोल – गोल से छोटे फल हम ,
जो भी खाए वो जाने ।
खाने लगो, ढेर से खा जाओ ,
स्वाद बस लोमड़ी जाने ।’       (उत्तर अंगूर)
 पहेली के साथ वर्तमान काल में कह मुकरनियाँ भी लिखीं जा रही हैं, प्रस्तुत है डॉ शशि गोयल की एक  कह मुकरनी –
     नैन चलावे नाच दिखावे
     नए रूप धर मोहे रिझावे
      बैठे रूप निहारे बीवी
      क्यों सखि साजन , ना सखि टी. वी.
 वे बताती हैं बाल साहित्य की लुप्त होती इस विधा को श्री दीनदयाल शर्मा ने ‘इक्कावन बाल पहेलियाँ’ के माध्यम से पुन जीवित करने का सार्थक प्रयास किया है राष्ट्र नायकों, घरेलु चीजों , पशु – पक्षियों , जीव–जंतुओं पर अनेक सुन्दर पहेलियों का सृजन किया है । प्रस्तुत हैं एक पहेली  –
माँ स्वरुप रानी थी जिनकी,
पिता थे मोतीलाल ।
फूल गुलाब का जिन्हें प्रिय था,
प्यारे बाल गोपाल ।।   ( जवाहरलाल नेहरू )
पहेलियां हमारी संस्कृति , लोक जीवन , साहित्य का अहम् हिस्सा रही हैं, जो आनंद , मनोरंजन देने के साथ साथ बुद्धि  का परिक्षण करते हुए ज्ञान के वातायन खोलती हैं ।
संपर्क
  डॉ. कृष्णा कुमारी
  सी- 368 तलवंडी
 कोटा(राज )324 005
 मोबा- 98295 49947

गीता प्रेस के संस्थापक – हनुमान प्रसाद पोद्दार जी

सनातन धर्म सम्बन्धी पुस्तकों की बात करें तो जो सबसे पहला नाम ध्यान में आता है वो गीता प्रेस का होता है। गीता प्रेस के नाम के साथ ही जिस महामानव का नाम धयन में आता है वे हैं गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी। हनुमान प्रसाद जी का जन्म ही संभवतः इस युग में सनातन साहित्य का हनुमान बनने के लिए हुआ था ।

राजस्थान के रतनगढ़ की माता रिखी बाई के पुत्र लाला भीमराज अग्रवाल अपनी माता की तरह ही हनुमान भक्त थे तो जब उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी तो उन्होंने उसका नामकरण हनुमान प्रसाद किया। हनुमान प्रसाद जी मात्र दो वर्ष के ही थे जब इनकी माता का स्वर्गवास हो गया अतः स्वाभाविक रूप से इनका पालन पोषण अपनी हनुमान भक्त दादी के संरक्षण में हुआ। दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण, वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियां पढ़ने – सुनने को मिलीं। इन धार्मिक संस्कारों का बालक हनुमान पर गहरा प्रभाव हुआ। बाल्यावस्था से ही इन्हें “हनुमान कवच“ का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक हनुमान को दीक्षा दी।

भारतीय संस्कृति की सेवा करते हुए भारत के समृद्ध ग्रंथों एवं परंपराओं की व्याख्या कर  गीताप्रेस के माध्यम से उनको जन -जन तक पहुंचाने का कार्य करने वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार जी, जीवन के कुछ समय तक  क्रांतिकारी भी रहे और अंग्रेजों के विरुद्ध सशत्र संघर्ष का हिस्सा रहे । पोद्दार जी ने मात्र 13 वर्ष की अवस्था में ही बंग भंग आंदोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत ले लिया था। 1914 में महामना मदन मोहन मालवीय के साथ संपर्क में आने के बाद पोद्दार जी हिंदू महासभा में सक्रिय हो गये। पारिवारिक व्यवसाय के कारण हनुमान प्रसाद अपने पिताजी के साथ कोलकाता में रहे और वहां अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास,पंडित झाबर लाल शर्मा  जैसे महान क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। वीर सावरकर के द्वारा लिखी गई पुस्तक 1857 का स्वातंत्र्य  समर ग्रंथ से वे बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वीर सावरकर से मिलने मुंबई चले गये। उनके विचारों से प्रभावित पोद्दार जी ने भारतीय संस्कृति साहित्य, पुराणों और आध्यात्मिक ज्ञान को संरक्षित करने में महती भूमिका निभाई।

पोद्दार जी में देशभक्ति की भावना बहुत प्रबल थी। एक बार की बात है कि वह कलेक्टर कार्यालय में अंग्रेज गवर्नर का आदेश पत्र पढ़  रहे थे। कलेक्टर ने उन्हें एक कागज पर हस्ताक्षर करने का आदेश देते हुए कहा  अपको इस इकरार नामे पर हस्ताक्षर करने होंगे कि आप आजीवन राजनीति में भाग नहीं लेंगे।“  तब हनुमान प्रसाद जी ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहाकि ,“मैं इस इकरारनामे पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता हूं”। बाहर आकर उन्होंने अपने सहयोगी भाई हरिबख्श जी से कहा कि, “मैं राजनीति में भाग लूं या नहीं,यह निर्णय लेने का अधिकार मेरा होना चाहिए न कि विदेशी सरकार का अतः मैंने उस आदेश पर हस्ताक्षर नहीं किए।“

हिंदू धर्मग्रंथों में त्रुटियों को देखकर उन्हें बहुत कष्ट होता था।उन्होंने तुलसीकृत श्री रामचरित मानस की जितनी हस्तलिखित प्रतियां मिल सकीं एकत्र की और विद्वानों को बिठाकर मानस पीयूष नामक उनका शुद्ध पाठ भावार्थ एवं टीकाएं तैयार करायीं। श्रीमद्भागवत गीता के अनन्य भक्त व प्रचारक जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने 1923 में गीता प्रेस की स्थापना की। गीताप्रेस की स्थापना के साथ ही उन्होंने वंचितों की सेवा के लिए “दरिद्र नारायण सेवा संघ” और ”गीता प्रेस सेवा संघ“ का गठन भी किया।

गीता प्रेस से ही सन1927 में मासिक पत्रिका कल्याण का प्रकाशन आरम्भ हुआ जिसके संपादक के रूप में पोद्दार जी का पत्रकारिता के क्षेत्र में विषिष्ट स्थान है। ”कल्याण“ के संपादक के रूप में उन्हें विश्व भर में प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। हनुमान प्रसाद पोद्दार ने आध्यात्मिक विषयों पर ही लेखन किया। उन्होंने निबंधों एवं लेखों के अलावा विभिन्न टीका साहित्य का भी सृजन किया। उन्होंने रामचरित मानस ,विनयपत्रिका,दोहावली की विषद टीका प्रस्तुत की। कल्याण के लिए हनुमान जी ने जो नीति बनाई उसमें विज्ञापनों के लिए कोई स्थान नहीं था।गीता प्रेस से ही आगे चलकर कल्याण, कल्पतरु एवं महाभारत मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन 1955 से लेकर 1966 तक चलता रहा।हनुमान जी की पत्रकारिता भारत की महान सनातन संस्कृति के यशोगान को समर्पित थी। गीता प्रेस से आज भी कल्याण मासिक पत्रिका का प्रकाशन उन्हीं नियमों के अनुरूप चल रहा है।

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने गोपी प्रेम ,तुलसी दल, दाम्पत्य जीवन का आदर्श, दुख क्यों होते हैं, दुख में भगवत्कृपा, नारी शिक्षा ,प्रेम दर्शन, भगवच्चर्या, भगवतप्राप्ति एवं हिंदू संस्कृति, लोक परलोक सुधार,शान्ति कैसे  मिले, श्री भगवन्नाम चिंतन ,श्री राधा- माधव चिंतन, सत्संग के बिखरे मोती ,सुख शान्ति का मार्ग जैसी पुस्तकों के लेखन के साथ ही “सुखी बनो “ जैसी पुस्तक लिखकर कई संदेहों व संशयों को दूर करने का सफल प्रयास किया है।

हनुमान प्रसाद जी के पास बहुत सी चमत्कारिक शक्तियां भी थीं जिसके माध्यम से उन्होंने कई बार अनेक लोगों को चमत्कृत भी किया। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अपने किसी भक्त की मृत्यु के समय व दिन तक की आश्चर्यचकित करने वाली भविष्यवाणी तक कर दी थी। यही नहीं उन्होंने राम नाम जप के माध्यम से भी कई चमत्कार किये। कहा जाता है कि 16 दिसंबर 1927 को जसीडीह में 15लोगों की उपस्थिति में पोद्दार जी को भगवान शिव ने साक्षात दर्शन दिये थे।1936 में गीता वाटिका गोरखपुर में देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा ने भी उन्हें दर्शन  दिये थे। हनुमान प्रसाद जी ईश्वर के अनन्य भक्त थे अतः उन्हें भगवान की लीलाओं के दर्शन  होते रहते थे। कभी -कभी वह भोजन करने के लिए बैठते थे और उनका ध्यान लग जाता था तो वह घंटों बैठे रह जाते थे । कल्याण पत्रिका  संपादन के समय जब उन्हें कोई समस्या होती थी तब वह जिस देवता का ध्यान करते थे वो  दर्शन देकर उनकी सभी समस्याओं का समाधान करते थे। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी  प्रवचन भी देते थे जिसे सुनने के लिए काफी श्रद्धालु उपस्थित होते थे।

 पोद्दार जी ने घर- घर तक रामायण, महाभारत व अन्य समस्त हिंदू धर्म साहित्य को बहुत ही कम मूल्य पर घर -घर तक पहुंचाकर भारतीय जनमानस को पश्चिमी संस्कृति के विचारों का गुलाम बनाने से रोका तथा  आध्यात्मिक ज्ञान को जीवित रखा। भारतीय सनातन संस्कृति की पताका पूरे विश्व में फहराने वाले पोद्दार जी ने  22 मार्च 1971 को नश्वर शरीर त्याग कर परलोक गमन किया।

पाकिस्तान का टूटता तारा – बलूचिस्तान

बलूचिस्तान. पाकिस्तान का, फैलाव की दृष्टि से, या क्षेत्रफल की दृष्टि से, सबसे बड़ा राज्य. पाकिस्तानी जमीन का ४४% हिस्सा समेटने वाला. लेकिन सघन बसाहट नहीं. इसलिए जनसंख्या के मामले में पिछडा हुआ. सवा करोड़ के लगभग आबादी. समंदर को छूता हुआ किनारा. कुछ हिस्सा ईरान से जुड़ा हुआ, तो कुछ अफगानिस्तान से.

आज कुछ उजड़ा हुआ सा लगने वाला यह प्रदेश किसी जमाने में अत्यंत संपन्न था. विश्व में खेती करने के सबसे प्राचीन प्रमाण, इसी क्षेत्र में मिले हैं.

बलूचिस्तान का इतिहास काफी पुराना हैं. कुछ हजार वर्ष पुराना. पहले यह पूरा क्षेत्र हिन्दू था. संस्कृत के श्लोक, वेदों के मंत्र, उपनिषदों की ऋचाएँ यहाँ के दर्रे में गूँजती थी. इसी प्रदेश के मकरान क्षेत्र में, हिंगोल नदी के पास, अत्यंत दुर्गम पहाड़ी पर देवी भगवती के ५१ शक्तिपीठों में से एक, ‘हिंगलाज माता का मंदिर’ हैं. अरबी समुद्र से यह मंदिर मात्र २० किलोमीटर दूरी पर हैं. चूंकि यह क्षेत्र रेगिस्तानी भाग में आता हैं, इसलिए इसे ‘मरुतीर्थ हिंगलाज’ भी कहा जाता हैं. इसी रास्ते से सिकंदर भारत पर आक्रमण करने आया था. ऐसा माना जाता हैं, की इस स्थान पर प्रभु श्रीराम, जमदग्नि ऋषि, गुरु गोरखनाथ और गुरु नानक देव जी भी आ चुके हैं.

हिंगलाज माता को चारणों की कुलदेवता माना जाता हैं. ये चारण लोग, बाद में बालूच कहलाएं. महाभारत काल में यह स्थान गांधार महाजनपद का हिस्सा था. महाभारत के यूध्द में इस पूरे महाजनपद ने कौरवों की तरफ से युध्द में भाग लिया था.

इसी बलूचिस्तान मे, बालाकोट के पास, मेहरगढ़ क्षेत्र में जो उत्खनन हुआ, उसमे हड़प्पा से भी पुरानी सभ्यता के अवशेष मिले. इस प्रदेश में बोलन नदी के किनारे कुछ हजार वर्ष पूर्व एक विकसित सभ्यता थी, यह सिध्द हुआ हैं.

सन ७११ मे, जब मुहम्मद – बिन – कासम ने इस क्षेत्र पर हमले प्रारंभ किए, तब हिन्दू – बौध्द रहा यह पूरा इलाका, धीरे धीरे मुस्लिम होता गया. अकबर के शासन काल में, बलूचिस्तान मुगल साम्राज्य के आधीन था. लेकिन सन १६३८ में मुगलों ने पार्सिया (अर्थात ईरान) को यह इलाका सौंप दिया. लेकिन बाद में कलात के मीर नासीर खान ने १७५८ में अफगान शासन की आधीनता मान्य की.

प्रथम अफगान युध्द के बाद (अर्थात १८४२ के बाद), इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. अंग्रेजों ने इसे चार रियासतों में बाँट दिया – कलात, मकरान, लस बेला और खारत. लेकिन बीसवी सदी के प्रारंभ से बलुचों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया. १९४१ में (जब द्वितीय विश्व युध्द अपने चरम पर था) बलूचिस्तान की आजादी के लिए ‘अंजुमन – ए – इत्तेहाद – ए – बलूचिस्तान’ का गठन हुआ. सन १९४४ मे, अंग्रेज़ जनरल मनी ने बलूचिस्तान की स्वतन्त्रता की दिशा में स्पष्ट संकेत दिये.

मजेदार बात यह, की रहमत अली ने पाकिस्तान की कल्पना करते हुए, इस मुस्लिम राष्ट्र के नाम में जो ‘स्तान’ जोड़ा था, वह बलूचिस्तान से ही लिया था. लेकिन जिस दिन पाकिस्तान स्वतंत्र हुआ, उस दिन उसके नक्शे में बलूचिस्तान नहीं था..! जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, या जिसका ‘पाकिस्तान’ इस प्रस्तावित नाम में भी उल्लेख नहीं था, ऐसा पूर्व बंगाल पाकिस्तान में था. लेकिन बलूचिस्तान नहीं आ सका.

वह तो पाकिस्तान को आजादी मिलने के, अर्थात १४ अगस्त, १९४७ से तीन दिन पहले ही आजाद हो गया था.

कलात…. बलूचिस्तान के प्रमुख शहरों में से एक. क्वेटा से केवल नब्बे मील दूरी पर स्थित सघन जनसंख्या वाला यह शहर है. मजबूत दीवारों के भीतर बसे हुए इस शहर का इतिहास दो-ढाई हजार वर्ष पुराना है. कुजदर, गंदावा, नुश्की, क्वेटा जैसे शहरों में जाना हो तो कलात शहर को पार करके ही जाना पड़ता था. इसीलिए इस शहर का एक विशिष्ट सामरिक महत्त्व भी था. बड़ी-बड़ी दीवारों के अंदर बसे इस शहर के मध्यभाग में एक बड़ी सी हवेली थी. इस हवेली के, (गढी के) जो खान थे, उनका ‘राजभवन’ यह बलूचिस्तान की राजनीति का प्रमुख केन्द्र था. इस राजभवन में मुस्लिम लीग, ब्रिटिश सरकार के रेजिडेंट  और कलात के मीर अहमद यार खान की एक बैठक हुई. इनके बीच एक संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसके माध्यम से ११ अगस्त १९४७ से, कलात एक स्वतन्त्र देश के रूप में काम करने लगा.

ब्रिटिश राज्य व्यवस्था में बलूचिस्तान के कलात का एक विशेष स्थान पहले से ही था. सारी ५६० रियासतों और रजवाड़ों को अंग्रेजों ‘अ’ श्रेणी में रखा है, जबकि सिक्किम, भूटान, और कलात को उन्होंने ‘ब’ श्रेणी की रियासत का दर्जा दिया हुआ था. अंततः ११ अगस्त को, दोपहर एक बजे संधिपत्र पर तीनों के हस्ताक्षर हुए. इस संधि के द्वारा यह घोषित किया गया कि कलात अब भारत का राज्य नहीं रहा, बल्कि यह एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया. मीर अहमद यार खान इस देश के पहले राष्ट्रप्रमुख बने.

कलात के साथ ही मीर अहमद यार खान साहब का पूर्ण वर्चस्व इस इलाके के पड़ोस में स्थित लास बेला, मकरान और खारान क्षेत्रों पर भी था. इसलिए भारत की स्वतंत्रता और पाकिस्तान का निर्माण होने से पहले ही, इन सभी भागों को मिलाकर, मीर अहमद यार खान के नेतृत्व में बलूचिस्तान राष्ट्र का निर्माण  हो गया…!

बलूचिस्तान के बलोच लोगों ने न तो पहले कभी पाकिस्तान में जाने के बारे में सोचा था, न ही आज भी उनकी वैसी मानसिकता हैं. बलूचिस्तान स्वतंत्र देश बनना चाहता था, और वह बना भी.

किन्तु बलूचिस्तान की यह स्वतन्त्रता पाकिस्तान को फूंटी आँख नहीं सुहा रही थी. आखिरकार, सात महीने और सोलह दिन की बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद, दिनांक २७ मार्च, १९४८ को पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल अकबर खान ने इस छोटे से देश पर बलात कब्जा कर लिया. पिछले साढ़े सात महीनों में, यह छोटासा देश अपने सेना की जमावट भी ठीक से नहीं कर सका था. इसलिए प्रतिकार ज्यादा हुआ नहीं और पाकिस्तान के कब्जे में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह प्रदेश आ गया.

पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर कब्जा तो कर लिया, किन्तु शासन करना कठिन था. मकरान, खारन और लस बेला तो पूर्णतः पाकिस्तान में शामिल हो गए. किन्तु कलात रियासत ने शामिल होने के बाद भी अपना अस्तित्व कायम रखा. आखिरकार, सन १९५५ में कलात रियासत भी पाकिस्तान में पूर्णतः विलीन हो गई.

मार्च १९४८ में बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का कब्जा होते ही विरोध के स्वर बुलंद होने लगे. कलात के अहमद यार खान ने तो पाकिस्तानी कब्जे का ज्यादा विरोध नहीं किया. परंतु उनके भाई राजकुमार अब्दुल करीम ने, जुलाई १९४८ में पाकिस्तान के इस बलात कब्जे के विरोध में विद्रोह कर दिया. अपने अनुयाइयों के साथ वह अफगानिस्तान चला गया. तत्कालीन अफगान सरकार, बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग कर के, उसे अपने कब्जे में लाना चाहती थी. क्यूंकी उन्हे समुद्री बन्दरगाह (सी पोर्ट) नसीब नही था और बलूचिस्तान के पास समंदर था.

लेकिन राजकुमार अब्दुल करीम को अफगान सरकार से वांछित समर्थन नहीं मिल पाया. अंततः लगभग एक वर्ष के बाद, राजकुमार करीम ने पाकिस्तानी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.

बलूचिस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन में एक जबरदस्त नाम उभरा – नवाब नौरोज़ खान. १९५५ में जब कलात रियासत को समाप्त कर, उसका पूर्णतः पाकिस्तान मे, ‘वन यूनिट’ पॉलिसी के अंतर्गत विलय किया गया, तो नवाब नौरोज़ खान ने पाकिस्तान का प्रखर विरोध किया. १९५८ में उन्होने पाकिस्तानी सरकार के विरोध में गुरिल्ला युध्द छेड़ दिया. वे नहीं चाहते थे की अन्य राज्यों की तरह बलूचिस्तान पर भी पाकिस्तान का नियंत्रण हो.

किन्तु कुछ ही महीनों के बाद, अर्थात १५ मई १९५९ को, नवाब नौरोज़ खान, पाकिस्तान सरकार के सामने आत्मसमर्पण को मजबूर हुए. पाकिस्तानी सरकार ने उन्हे और उनके सभी साथियों को माफी का आश्वासन दिया था. लेकिन फितरत के मुताबिक, पाकिस्तान सरकार ने अपना ही वचन तोड़ दिया. नवाब के रिश्तेदार और १५० वफादार सैनिकों को पाक सरकार ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया. आखिरकार १५ जुलाई को इस विद्रोह के पांच नेताओं को फांसी पर लटकाकर मारा गया. नवाब नौरोज़ खान की उम्र हो चली थी, इसलिए उन्हे बख्शा गया. लेकिन पांच साल बाद, १९६४ मे, नवाब साहब कोहलू के जेल में चल बसे.

इस विद्रोह की चिंगारी भी इसी के साथ समाप्त हो जायेगी ऐसा पाकिस्तान सरकार को लगा. किन्तु ऐसा हुआ नहीं.

पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान की स्थिति देखते हुए, वहां संवेदनशील इलाकों में सैनिकी अड्डे तयार करवाने का काम शुरू किया. इससे स्वतंत्र बलूचिस्तान समर्थक खौल उठे. उनके नेता शेर मोहम्मद बिजरानी ने, ७२ हजार किलोमीटर के क्षेत्र में अपने गुरिल्ला लड़कों के अड्डे खड़े किए. बलूचिस्तान में गॅस के अनेक भांडार हैं. ये विद्रोही नेता चाहते थे की पाकिस्तान सरकार इन गॅस भांडारों से मिलने वाली कुछ आमदनी इन कबाईली नेताओं से भी साझा करे. यह लड़ाई छह साल चली. किन्तु अंत में बलूचिस्तान की स्वतंत्रता चाहने वाले विद्रोही सैनिक थक गए और राष्ट्रपति यांह्या खान के साथ युध्दविराम को राजी हो गए.

युध्दविराम होने के कुछ ही महीनों बाद, १९७० के दिसंबर में पाकिस्तान में पहले आम चुनाव हुए, यह आम चुनाव पाकिस्तान की किस्मत बदलने वाले थे. पाकिस्तान का इतिहास और भूगोल इन्ही चुनावों ने बदला.

१९७० के इन चुनावों में जहां पूर्व पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग प्रचंड बहुमत से विजयी रही. तो यहाँ पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फ़ीकार भुट्टो के पी पी पी की लगभग सभी प्रान्तों में जीत हुई – सिवाय बलूचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ़्रोंटियल प्रोविन्स (NWFP) के. बलूचिस्तान में नेशनल अवामी पार्टी जीती, जो की स्वतंत्रता वादी बलुचों की पार्टी थी. राष्ट्रीय असेंब्ली की ३०० में से शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग ने जीती १६७ सीटे, तो भुट्टो की पार्टी को मिली मात्र ८१.

१९७१ यह वर्ष पाकिस्तान के इतिहास में भारी उथल पुथल वाला रहा. इस वर्ष के समाप्त होने के पहले, पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और ‘बांग्ला देश’ के रूप में नए राष्ट्र का उदय हुआ, जो पहले ‘पूर्व पाकिस्तान’ था.

अब बचे खुचे पाकिस्तान मे, जनरल यांह्या खान को बलूचिस्तान में ‘नेशनल अवामी पार्टी’ की जीत बहुत अखर रही थी. उसे लग रहा था की, ‘ये बलूच लोग, ईरान के साथ मिलकर एक बड़ा संघर्ष खड़ा करने वाले हैं’.

इसलिए, १९७१ के युध्द से थोड़े उबरते ही, पाकिस्तान ने १९७३ के प्रारंभ में बलूचिस्तान के प्रादेशिक सरकार को बर्खास्त किया और वहां पर ८० हजार पाकिस्तानी फौज उतार दी.

बंगला देश की गलती से सबक न सीखने वाले पाकिस्तान ने, बलूचिस्तान में भी वही किया. भीषण अत्याचार…! बलूचिस्तान की तरफ जाने आले सभी रास्ते बंद कर दिये गए. बलूचिस्तान के कुछ क्षेत्रों में, जहां पाकिस्तानी सेना को, बलूची विद्रोहियों के अड्डे होने की आशंका थी, वहां पर हवाई हमले भी किए. अनेक स्थानों पर बलूच विद्रोही और पाकिस्तानी सेना में जबरदस्त संघर्ष भी हुआ. हजारों की संख्या में दोनों तरफ के लोग मारे गए. अनेक विद्रोही बलूच नेता, अफगानिस्तान पहुंचने में सफल रहे.

इस भयानक अत्याचार, दमन और संघर्ष के बाद, बलूच स्वतंत्रता आंदोलन में एक छोटासा ठहराव आया….

लेकिन इस ठहराव से एक सृजन हुआ – संगठित सशस्त्र आंदोलन का. बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी का…!

बलूचिस्तान – सतत संघर्ष / २
–   प्रशांत पोळ

बलूचिस्तान को प्रकृति ने बहुत कुछ दिया हैं.  विस्तीर्ण भू प्रदेश हैं, जिसमे रेगिस्तान हैं, जंगल हैं, दर्रे हैं, समंदर हैं, बर्फ हैं…! सब कुछ हैं, इस प्रदेश में.  पाकिस्तान का आधे से थोड़ा कम हिस्सा याने बलूचिस्तान. लेकिन जनसंख्या के मामले में मात्र बहुत कम.  पाकिस्तान का हर पांचवा आदमी बलूचिस्तान से होता हैं.

राजधानी क्वेट्टा, बेहद खूबसूरत शहर हैं.  यह फलों का शहर हैं.  शहर के चारों ओर फलों के बगीचे.  भरपूर फल, सूखे मेवों से सजे बाजार और शाम की ठंडी हवाएं.  किसी समय क्वेट्टा ‘छोटा पेरिस’ कहलाता था.  लेकिन आज नाही.  आज क्वेट्टा, बमों के धमाकों से पहचाना जाता हैं.

पाकिस्तान को जो ९९० किलोमीटर का सागर किनारा मिला हुआ हैं, वह दो राज्यों के पास हैं – सिंध (२७० किलोमीटर) और बलूचिस्तान (मकरान ७२० किलोमीटर).  सिंध के पास कराची जैसा विशाल बंदरगाह हैं, तो बलूचिस्तान के पास, अभी – अभी चीन का बनाया हुआ अत्याधुनिक ग्वादर बंदरगाह हैं.

कराची से ईरान की तरफ यदि हम अरेबियन समुद्र के किनारे से, ओमान की खाड़ी में बढ़ते जाते हैं, तो बलूचिस्तान राज्य के सोनमियानी, ओरमारा, कालमत, पासनी ऐसे बंदरगाह आते हैं. लेकिन ईरान की सीमा के पास, ओमान के सामने बना ग्वादर बंदरगाह भव्यतम हैं.  यह बंदरगाह याने बलूचिस्तान की आजादी के रास्ते में खड़ी एक दीवार हैं…! चूंकि ग्वादर बंदरगाह का विकास चीन ने किया हैं, इसलिए इस बंदरगाह की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी चीन ने ली हैं। अगले चालीस वर्षों का ग्वादर का स्वामित्व (लीज) चीन के पास हैं। इसलिए चीन वहाँ अपनी नौसेना का अड्डा बना रहा हैं। इसी संदर्भ में दो महीने पहले, पाकिस्तान के नौसेना प्रमुख, अमजद खान नियाजी और चीन के रक्षा मंत्री ली शांगफ़ू के बीच रक्षा सहयोग पर सहमति बनी हैं। इसका अर्थ स्पष्ट हैं – ग्वादर और उसके आस पास के समुद्री इलाके में चीनी फौजों की संख्या बढ़ने जा रही हैं। बलोचिस्तान के लोगों को यह सब पसंद नहीं हैं। गुलामी की जंजीरे जकड़ती जा रही हैं, ऐसा उन्हे लगता हैं।

ग्वादर बंदरगाह यह चीन की महत्वाकांक्षी सी पी ई सी (China Pakistan Economic Corridor) परियोजना का हिस्सा हैं। ग्वादर को चीन के शिंजियांग प्रांत से जोड़ने के लिए चीन, २४४२ किलोमीटर का आधुनिक रास्ता, पाकिस्तान में बना रहा हैं। चीन को लगने वाला तेल (पेट्रोलियम पदार्थ) और मछली, चीन ग्वादर से, सड़क मार्ग से, अपने देश तक लेकर जाना चाहता हैं। किन्तु बलोच लोगों के विरोध से, और पाकिस्तानी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से यह रास्ता पूरा नहीं बन पाया हैं। बलोचिस्तान के नागरिक इस परियोजना का और चीनी नागरिकों का पुरजोर विरोध कर रहे हैं।

बलूचिस्तान किसी जमाने में विशाल भारत का हिस्सा था. इससे पहले हमने देखा हैं की समूचा बलूचिस्तान, उन दिनों गांधार महाजनपद का हिस्सा था. किन्तु बलूचिस्तान के आज भी भारत से काफी निकट के संबंध हैं, रिश्ते हैं. एक संबंध, हजारो वर्ष पुराने रिश्तों की कड़ीयाँ जोड़ता हैं. बलूचिस्तान के कलात में जो ब्राहुई भाषा बोली जाती हैं, वह अपने दक्षिण भारत की द्रविडियन भाषा का ही एक प्रकार हैं. तमिल, कन्नड और तेलगु से बहुत कुछ मिलती – जुलती हैं. इस भाषा के अनेक शब्द तामिल, कन्नड भाषाओं से लिए गए हैं. त्रिचनापल्ली के एक मित्र ने बताया की उसने जब यह ब्राहुई भाषा की यू-ट्यूब चैनल देखी, तो उसे बहुत कुछ समझ में आया. कुछ समान शब्द –
तुम (You) – नी
आंखे (Eye) – कन
थूकना (Spit) – थुप्पू
पुत्र – लड़का (Son) – मखम यार

रोबर्ट कॉलवेल्ड (१८१४ – १८९१) ने इन दोनों भाषाओं की समानता पर बहुत अध्ययन किया हैं. उन्होने यह प्रमाणित किया हैं की ब्राहुई भाषा में तामिल एवं कन्नड के अनेक शब्द हैं.  साथ ही दोनों भाषाओं की शैली भी एक जैसी हैं. किन्तु कालांतर से ब्राहुई भाषा, फारसी लिपि में लिखी जाने लगी हैं.

बलूचिस्तान से भारत का दूसरा रिश्ता पिछले ढाई सौ – पौने तीन सौ वर्ष पुराना हैं. पानीपत के तीसरे युध्द में अहमद शाह अब्दाली के हाथों पराजित होने के बाद, मराठा सेना के लगभग बीस – पच्चीस हजार सैनिकों और महिलाओं को अब्दाली अपने साथ ले गया. रास्ते में पंजाब में सीख सेनानियों ने कुछ महिलाओं को तो छुड़वा लिया, किन्तु बाकी मराठों को बंदी बनाकर ले कर जाने में वह सफल रहा. अब्दाली का रास्ता बलूचिस्तान होकर जाता था.  पानीपत के युध्द में, लूट और खजाना मिलने की आशा में, उसे बलूच सरदारों ने काफी सहयोग दिया था. इस पानीपत के युद्ध में मराठे हारे तो अवश्य, किन्तु उन्होंने इतना जबरदस्त संघर्ष किया, की अब्दाली के हाथ कुछ ज्यादा न लग सका. इसलिए अब्दाली ने खजाने के बदले, सभी बीस – पच्चीस हजार मराठे, गुलाम के रूप में, बलूच सरदारों को दे दिये. वस्तुतः पानीपत के युध्द में अब्दाली की हालत बहुत खराब हो गई थी. वो जीत जरूर गया था, लेकिन उसकी कमर टूट गई थी. (इसीलिए, अब्दाली के बाद, किसी ने भी खैबर के दर्रे से भारत पर आक्रमण की हिम्मत नहीं की). अब्दाली को इन बीस – पच्चीस हजार मराठा कैदियों को ढो कर अफगानिस्तान ले जाना संभव ही नहीं था.

वे बीस – पच्चीस हजार मराठा सैनिक वही बस गए. पहले बुगती और मर्री समुदाय के नौकर के रूप में रहने वाले मराठा सैनिक, बाद में अपने बलबूते पर उन्ही समुदायों के हिस्सा बन गए.

आज लगभग २५ लाख मराठा, बुगती और मर्री समुदाय में हैं. ये सब मुस्लिम हो गए हैं, लेकिन अपने मूलाधार भूले नहीं. ये सब अपने नाम के आगे ‘मराठा’ लिखते हैं. उनके बहुत से रीति रिवाज, विवाह पध्दती, महाराष्ट्र की परंपरा से मिलते जुलते हैं. उनका एक संगठन हैं – ‘मरहट्टा कौमी इत्तेहाद ऑफ बलोचिस्तान’ (Marhtta Qaumii Ittehad of Balochistan). इस समुदाय के प्रमुख व्यक्ति हैं – वडेरा दीन मुहम्मद मराठा (जमींदार दीन मुहम्मद मराठा). डेरा बुगती और सुई हिन्दू समुदाय, इन वडेरा दीन मुहम्मद साहब को इज्जत और सम्मान देता हैं.

इन सब की स्वाभाविक कड़ी, पाकिस्तान के साथ नहीं जुड़ती हैं. बहुत पहले से बलूचिस्तान अलग था. और इसीलिए आज भी इनको पाकिस्तान के साथ रहना नहीं हैं.

और भी कारण हैं.

बलूचिस्तान में प्राकृतिक संसाधनों का भंडार हैं. विशेषतः प्राकृतिक गॅस बड़े पैमाने पर निकलती हैं, जो पाकिस्तान सरकार के आमदनी का बड़ा हिस्सा हैं. लेकिन जहां से यह गॅस निकलता हैं, उस बलूचिस्तान के पास उस आमदनी का अत्यंत नगण्य ऐसा, छोटा सा हिस्सा आता हैं. इस कारण बलूचिस्तान प्रांत में विकास का चित्र कही दिखता नहीं हैं. अभी कुछ वर्षों में ग्वादर बंदरगाह पर जानेवाला जो एक्सप्रेस-वे चीन ने बनाया हैं, उसे छोड़ा दिया जाय, तो बलूचिस्तान में आज भी आधारभूत संरचना (इनफ्रास्ट्रक्चर) की भारी कमी हैं.

और इसीलिए बलूच लोगों ने, २७ मार्च १९४८ को, जब पाकिस्तान ने उसे बलात अपने कब्जे में लिया, तब से पाकिस्तान के विरोध में विद्रोह का स्वर बुलंद किया हैं.

(क्रमशः)
–   प्रशांत पोळ

कौन है जामिया से पढ़ने वाला बद्र खान, आतंकी संगठन हमास से क्या हैं रिश्ते, अमेरिका ने क्यों रद्द किया वीजा

बद्र खान सूरी अमेरिका के जार्जटाउन विश्वविद्यालय में रिसर्चर है। वह यहाँ पढ़ाता भी था। उसने एक अमेरिकी महिला से निकाह किया है। वह यहाँ के अल वलीद बिन तलाल मुस्लिम-ईसाई सेंटर में शोधार्थी था। वह इससे पहले जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ चुका है।

अमेरिका में पढ़ने वाले एक भारतीय छात्र बद्र खान सूरी का वीजा खत्म कर दिया गया है। उस पर इस्लामी आतंकी संगठन हमास से जुड़े होने का आरोप है। उसे गिरफ्तार भी किया गया है। अब ट्रम्प सरकार उसके ऊपर आगे की कार्रवाई की तैयारी में है। इस बीच उसके वकील उसे बचाने में लग गए हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सूरी को वर्जिनिया राज्य में सोमवार (17 मार्च, 2025) को हिरासत में लिया गया। उसके घर के बाहर एजेंसियाँ पहुँची और अपने साथ ले गईं। उसे वर्तमान में एक डिटेंशन सेंटर में रखा गया है।

सूरी का अमेरिकी वीजा भी सरकार ने खत्म कर दिया है। बद्र खान सूरी ने सरकार से खुद को छोड़े जाने की याचिका भी लगाई थी। हालाँकि, ट्रम्प सरकार इस मामले में सख्त है और उसने एक विशेष कानून का इस्तेमाल करके उसे निर्वासित किए जाने का आदेश जारी किया है।

बद्र खान सूरी अमेरिका के जार्जटाउन विश्वविद्यालय में रिसर्चर है। वह यहाँ पढ़ाता भी था। उसने एक अमेरिकी महिला से निकाह किया है। वह यहाँ के अल वलीद बिन तलाल मुस्लिम-ईसाई सेंटर में शोधार्थी था। अमेरिका में वीजा, पासपोर्ट और आंतरिक सुरक्षा देखने वाले डिपार्टमेंट ऑफ़ होमलैंड सिक्युरिटी (DHS) ने बद्र खान पर कार्रवाई चालू की है।

DHS ने अपने बयान में कहा, “बद्र खान सूरी जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय में एक छात्र था जो हमास का प्रचार कर रहा था और सोशल मीडिया पर यहूदी विरोधी भावना को बढ़ा रहा था। सूरी के हमास के एक आतंकी से संबंध हैं, यह आतंकी हमास में सलाहकार है।”

DHS ने बताया, “विदेश मंत्री ने 15 मार्च, 2025 को एक निर्णय जारी किया है कि सूरी की अमेरिका में हरकतों के चलते उसे INA धारा 237(a)(4) के तहत निर्वासित किया जा सकता है।” बद्र खान सूरी के विषय में उसके जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय ने भी एक बयान जारी किया है। विश्वविद्यालय ने कहा कि उन्हें सूरी पर लगे आरोपों की जानकारी नहीं है।

सूरी के विषय में और भी जानकारी निकली है। पता चला है कि वह 2020 तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली में पढ़ता था। सूरी हमास के समर्थन के चलते अमेरिका की कार्रवाई का सामने करने वाला दूसरा भारतीय छात्र है।

इससे कुछ ही दिन पहले भारतीय छात्रा रंजनी श्रीनिवासन पर भी यही आरोप लगे थे। हालाँकि, उसे गिरफ्तार नहीं किया गया था। रंजनी श्रीनिवासन इसके बाद चुपके से खुद ही अमेरिका से निकल कर चली गई थी। उसने DHS के एक एप का इस्तेमाल करके खुद को निर्वासित किया था। इसके बाद वह कनाडा गई थी।

रंजनी श्रीनिवासन कोलंबिया विश्वविद्यालय में शहरी नियोजन में डॉक्टरेट की छात्रा के रूप में F-1 छात्र वीज़ा पर अमेरिका गई थी। उसके ऐसे कुछ निबन्ध सामने आए थे जहाँ वह कथित ब्राम्हणवादी मानसिकता को कोस रही है। रंजनी श्रीवास्तव अमेरिका जाने से पहले भारत में अहमदबाद के भीतर CEPT विश्वविद्यालय में पढ़ती थी।