आज शुक्रवार काव्य गोष्ठी का दिन……
दोस्तों सारा ब्रम्हांड भी जिस शब्द के लिए छोटा है। जिसमें से होकर गुजरते हैं पेड़ पौधे, जीव जंतु ,फूल फल, पक्षी, कीट पतंगे। कायनात की हर जीवित, मूर्त और अमूर्त वस्तु और वह शब्द है प्रेम। प्रेम जो सिर्फ देता है बदले में कुछ नहीं लेता। विश्व मैत्री मंच पर रायपुर से डॉ. सुधीर शर्मा की अध्यक्षता में रचनाकारों ने प्रेम से भीगी कलम से अपनी रचनाशीलता कई आयामों के साथ प्रस्तुत किया।
– संतोष श्रीवास्तव ने गोष्ठी की संचालक कुशल मंच संचालक, कवयित्री विनीता राहुरिकर का स्वागत किया, इन शब्दों के साथ।
प्यार के फलसफे, प्यार की बातें II
प्यार की खुली किताब है आँखों में II
प्रेम एक अलौकिक अहसास, जिसे जितना भी शब्दों में बाँधा जाये कम है। तभी तो कहते हैं सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो…तो आइये आज इसी अलौकिकता को, भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं।। – विनीता राहुरिकर
प्रेम
समस्त सृष्टि का आधार हैं प्रेम
सहज, स्वस्फूर्त, निर्विकार है प्रेम
देता है ह्रदय को अद्भुत प्रेरणा
मन से अंधकार मिटाता है प्रेम
जीवन का अनोखा अहसास है प्रेम
ह्रदय का ह्रदय से , संवाद है प्रेम
जुबाँ हो जाती है, खामोश मगर
नज़रों से बयाँ हो जाता है प्रेम
आकर्षण है इसका प्रथम आधार
सौंन्दर्य से खिंचा चला आता है प्रेम
सौन्दर्य चाहे सूरतका हो या सीरत का
इसमें आकंठ डूब जाता है प्रेम
अंतर की ज्योतिर्मय राह है प्रेम
सतत् निर्झर निर्मल प्रवाह है प्रेम
यह उन्मुक्त होता है, स्वच्छंद नही
दिल की गहराई यों से होता है प्रेम
प्रेम स्वार्थी तो हो नहीं सकता
विवेकपूर्ण होता है, सात्विक प्रेम
चाहता है बस ये प्रेमी का भला
लेनानहीं केवल देना जानता है प्रेम
ईश्वर की स्वाभाविक कृति है प्रेम
आग्रह नहीं करती वह वृति है प्रेम
सारे कष्टों को झेल कर भी
प्रेमी का साथ चाहता है प्रेम
केवल जिद नहीं साधना है प्रेम
मन को सुवासित कर जाता है प्रेम
इंसानियत को नई राहें दिखाता है
जब सर्वजन सुखाय बन जाता है
प्रेम से बोला गया मीठा एक बोल
मानस पटल पर करता किलोल
प्रेम संवाद करते ह्रदय संतुष्ट
मन जाते मीत, जो हो गए रुष्ट
अहम बोध से ऊपर उठना है अनात्म
अनात्म से आत्मा को जोड़ता है प्रेम
संपूर्ण समग्रता से उदित होता जब
व्यक्ति से समष्टि बन जाता है प्रेम
नानक, महावीर, रहीम हो या राम
ईसा, मूसा, गौतम हो या श्याम
कबीर, सूर, तुलसी हो या मीरा
सदियों से ह्रदय से छलक रहा है प्रेम
– डॉ मंजुला श्रीवास्तव
अंतर की ज्योतिर्मय राह है प्रेम…
सतत् निर्मल, निर्झर प्रवाह है प्रेम…
प्रेम के क्या कहने, सृष्टि के कण कण में अनगिनत रूपों में प्रकट होता है। ईश्वर की सबसे सुंदर भावना। आपने प्रेम के हर पक्ष को बहुत सुंदरता से अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है डॉ मंजुला जी। मानव से लेकर अध्यात्म तक सब प्रेम के ही रूप है।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
हर दिन वो रच देते हैं
एक कविता
मेरे लिये
हर पल वो बुन देते हैं
एक ताना बाना प्यार का
मेरी चाहत में
हर क्षण वो गुनते हैं
लफ्ज़ों की लड़ियाँ
मेरी तारीफ में
हर वक़्त वो भर लाते हैं
प्रेम का आकाश
अपनी बाँहों में
हर रात करते हैं श्रृंगार
मेरे सपनों का
और मैं मुखर,
जाने क्यों
मौन हो जाती हूँ
कह नहीं पाती
मैं भी प्यार करती हूँ तुम्हें
बहती नदी की तरह
समंदर में समर्पण की
चाह लिये।
– अर्चना मिश्र
समन्दर में समर्पण की चाह लिए…
बहुत खूबसूरत और गहरी अभिव्यक्ति अर्चना दीदी। बहुत दिनों बाद आपको पढ़ने का सुखद अनुभव।। मुखर और मौन अभिव्यक्ति प्रेम की। सागर की ही तरह गम्भीर। समर्पण को प्रस्तुत उदात्त प्रेम। – विनीता राहुरिकर
यूँ ही नहीं होता
प्रेम की कोंपले ही
देती है ग़ज़ल को मुकम्मल अलफ़ाज़
कण्ठ को मीठा स्वर ..
क्यूँ कि
यूँ ही नहीं
चमक उठती हरित तृणों पर
ओस की बूँद…..
मोर यूँ ही नही नाचता
गगन में घटाएं देखकर …..
खिलती नही कुमुदनी
चाँद से मिलने बेताब..
यूँ ही नही जान देता लहनासिंह
रेशम से कड़े सालू पर
और मधुलिका यूँ नही मांगती
देशद्रोही के साथ मृत्यु …..
प्रेम लिख जाते है ग़ालिब,
घनानंद और विहारी से ले
आज के कवि तक
और लिखेगें
अनन्त काल तक …
कोई तो सिरा है
कुछ तो है
छुपा छुपा सा
जोड़ता है इस संसार को
तुमको ,हमको
और हम सबको
– मधु सक्सेना
सही है मधु दीदी। लहना सिंह यूँ ही जान नहीं देता, मधुलिका पुरस्कार में यूँ ही मृत्यु की मांग नहीं करती। प्रेम तो अनंत है, असीम है। शब्दों में कहाँ व्यक्त हो पाया है आज तक। तभी तो सदियों से सब अपने तौर पर उसे व्यक्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं लेकिन वह अभी भी अनकहा, अनछुआ है। बहुत ही प्यारी सी कविता आपकी।
– विनीता राहुरिकर
“प्रतीक्षारत ”
जैसे सूरज थककर
रात की बांहों में
जा समाता है
रात उसकी आग को
बुझाती है उस पहर
जब सन्नाटा गहराता है
उसे ओस से नहला
चांद का शीतल
टीका उसके मस्तक
पर सजाकर
उसकी आंखों में
सुरमा लगा
हौले से स्पर्श देती है
हवा के ठंडे झोंको का
फिर अपने काले ,घने ,लम्बे बालों
में ढक लेती है उसको
कभी महसूस करो
उस प्रेम को
जो पृथ्वी के
आदिकाल से चला आ रहा है
और चिरकाल तक चलेगा
सूरज और रात का
अद्भुत मिलन
प्रतीक्षारत हूँ
रात बन ।।
– मीना अरोरा, हल्द्वानी
सूरज और रात का अद्भुत मिलन, प्रतीक्षारत हूँ रात बनकर।। प्रेम का बहुत ही अनूठा, अकल्पित रँग। मीना जी क्या कहने प्रेम के इस शाश्वत रूप और उपमा के।
– विनीता राहुरिकर
सबसे महँगा प्रेम धन,इसका अजब सुभाय
बाँटे से बढ़ता सदा,जोड़े से घट जाय
जुड़ा हुआ है प्रेम से,धरती और आकाश
नक्षत्रों को जोड़ता,आपस का विश्वास
जड़ चेतन से प्रेम ही, जग का मूलाधार
आपस में जुड़क रबढ़े, वसुधा का परिवार,
नाजुक धागा प्रेम का, नाजुक मन से थाम
भला भला ही सोचना, भला मिले परिणाम
वसुधा एक कुटुम्ब है, प्रेम बाँट लें यार
तब आपस में जीत क्या, क्या आपस में हार
विजय राठौर
प्रेम से ही धरती, आकाश, नक्षत्र सब जुड़े हैं। विजय जी कितनी सुंदर बात कही आपने कि प्रेम बाँटने से बढ़ता है जोड़ने से घटता है। बढ़िया दोहे आपके। रहिमन के प्रेम धागे याद आ गए।
– विनीता राहुरिकर
नहीं करेगा कभी शिकायत
गंगासागर
सदा करेगा फकत इबादत
गंगासागर
जीवन की यह डोर तुम्हारे
हाथो में है
तभी तुम्हारी करे जियारत
गंगासागर
– प्रहलाद सागर (गंगासागर )
प्यार के रूप
मेरी बेटी लाखों में एक है कितनी आज्ञाकारी,कितनी सुन्दर !! पिता ने कहा, और बेटी मान गई पिता द्वारा चुने गए व्यक्ति से विवाह के लिए ओह माय गॉड ! हाउ स्वीट यू आर ! आई लव यू जानू ,पति ने कहा और पत्नी ने सौंप दिया अपना तन और मन मेरी बहू कितनी सुशील , कितनी प्यारी ! सास ने कहा, और बहू ने रातदिन हाड़-तोड़ मेहनत की परिवार के लिए।
आई लव यू मम्मा, बच्चों ने कहा, और मम्मी ने रातों की नींद कुर्बान कर दी वी लव यू दादी माँ , आप सबसे प्यारी दादी हो, पोतों ने कहा, और दादी माँ ने अपनी बैंक पासबुक उनके हवाले कर दी अब बहुत दिनों से उसके पास कोई नहीं आता।
– महेश दुबे
महेश जी प्यार के ये रूप भी होते हैं। ये प्यार के दुनियादार रूप हैं। हकीकत में जीवन की यही वास्तविकता हो जाती है शायद। कठोर है लेकिन यथार्थ … प्रेम का यह स्वरुप।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
प्रेम रहने दो, बिन बोले ही
मत मांगों प्रेम मुझसे
मत चाहो प्रेम
कहा था, तुमसे
अगर मुझे तुमसे हो गया
तो बच न पाओगे
मेरे प्रेम के सागर में
डूबते ही जाओगे
शायद इतना पा जाओगे
कि सह न पाओगे
कहा था ….
मेरा प्रेम सागर है
अथाह
जिससे भागोगे
तुम
घबरा से जाओगे ….
तुम्हारी बाहें
बहुत छोटी
समेट न पाओगे
और ढूंढने लगोगे
वो रास्ता जहाँ
सागर की सुनामी से
बच सको…
कहा था
मत छेड़ो मुझे
तुम्हारा निकलना
मुश्किल है
बाँहो के घेरे भी
मेरे हैं, मैंने ही घेर
रखा है….
बस भरम,
तुम्हारा है
बच के निकलना चाहो
तो भी
रास्ता मुझे ही देना होगा
चले जाने के बाद
तरसोगे भी तुम ही
पर मानोगे नही
कि तुम्हारी बाहें
मेरी जलराशि को
समेटने के लिए
छोटी ही हैं
अंततः….
इसलिए
तुम्हारा चले जाना ही
अच्छा है
क्योंकि
मै चाह के भी
संकुचित नही
हो सकती
तुम चाह के भी
विस्तृत हो
नही
सकते…….
– वर्षा रावल
खूबसूरती से प्रेम की गहराई और उथलेपन की तुलनात्मक अभिव्यक्ति करती आपकी कविता वर्षा रावल जी। दो लोगों में एक सागर सा गम्भीर प्रेम करने वाला और एक नदी सा बहने को व्याकुल होता है। मैं चाहकर भी संकुचित नहीं हो सकती, तुम विस्तृत नहीं हो सकते, अत्यंत सुंदर पँक्तियाँ।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम का सच्चा अहसास
ग़ज़ल
तुम्हारी साँसों से साँस लेता
तभी तो पागल बना हुआ हूँ !
कसम तब्बसुम तुम्हारी देखीं
तभी तो इतना फ़िदा हुआ हूँ !!
तुम्हे सजाऊँ बड़े ही मन से
बड़ी वफ़ा से ये ख्वाब देखा !
मगर अधूरा रहा क्यूँ सपना
नयन बुझाकर पड़ा हुआ हूँ !!
मुझे उठाकर धरा से तुम ने
गले लगाकर बड़ा हँसाया !
तराशा मुझको बनाया हीरा
तभी दिलो में जड़ा हुआ हूँ !!
तड़प रहा बन तेरा दिवाना
मुझे तुम्हारी बड़ी जरूरत !
नहीं संभालो कभी मुझे तुम
तभी मनाने अड़ा हुआ हूँ !!
सनम तुम्हारी अदा इबादत
खुदा कहूँ तब गलत नहीं है !
मुझे भुलाकर चली न जाओ
तभी तो दर पे खड़ा हुआ हूँ !!
कई जनम का है प्रेम अपना
न टूट सकता किसी जफ़ा से !
मुझे पता सुन बड़ी तू पावन
तभी तो दिल में बसा हुआ हूँ !!
तुझे कसम से कहा जो गंगा
वफ़ा करे सुन तुम्हारी सागर !
तुम्हारी पावन बड़ी है महिमा
कही न खो दूँ डरा हुआ हूँ !!
– प्रहलाद सागर
तराशा मुझको हीरा बनाया, तभी दिलों में जडा हुआ हूँ। प्रह्लाद सागर जी, सागर सा ही प्रेम का असीम विस्तार समाया है आपकी ग़ज़ल में। प्रेमिका के लिए दीवानगी जहाँ वह खुदा की इबादत बन जाती है वाह
विनीता राहुरिकर
भीम बेटका(बैठका)
भीम बेटका का हर पत्थर
कहता एक कहानी।
उंगली दांतों तले दबाता
आकर हर सैलानी।
●
कुशल हाथ ने सख्त शिला
की यहाँ चीर दी छाती,
प्रहरी बनकर पेड़ खड़े हैं
बचा रहे हैं थाती,
हरी चुनरिया ओढ़े धरती
मन को लगे सुहानी।
●
जन-श्रुति है कि भीम, भाइयों
सहित यहाँ थे ठहरे,
जब अपनों ने अपनों पर ही
लगा रखे थे पहरे,
छद्मभेष में पांडवों ने
ख़ाक यहाँ की छानी।
●
चट्टानों के शापित कच्छप
सबके मन को भाते,
सोचा करते शायद कोई
राम यहाँ पर आते,
काश! अहिल्या की आँखो-सा
हम बरसाते पानी ।
●
कुशल चितेरों ने विकास के
भित्ती चित्र उकेरे,
नाच रहे हैं वह समूह में
बना हाथ के घेरे,
आदि-मानवों ने छोड़ी है
अपनी अमिट निशानी।
●
पाषाणों ने कब सोचा ये
बरगद देंगे छाया,
वट वृक्षोंने अंगद जैसा
अपना पाँव जमाया,
विश्व-धरोहर है ये अपनी
मिलकर हमें बचानी ।
– मनोज जैन ‘मधुर
बहुत मधुर गीत मनोज जी। प्रिय की लाजवंती छवि नयनों में बसी हो तो मीठी सी भूल हो ही जाती है।
– विनीता राहुरिकर
मुहब्बत बहुत ही कबीराना है
ये मुहब्बत बहुत ही कबीराना है न जाने किस तरह तुम ने जिया होगा
मजाजी, हकीकी कई रंग हैं इश्क के जाने कब किस रंग को चुना होगा
जिंदगी जीने का वक्त कम मुख्तसर, जाने वक्त किस तरह दिया होगा
कई तरीके हैं जीने के जमाने में, जाने कब किस तरीके को चुना होगा
बेरंग पानी भी नहीं तो जज्बात को जाने किस तरह बेरंग किया होगा
अपनों में पराये और परायाओं में अपने, जाने कैसे अपना किया होगा
जाने तुम्हें मोह का कौन-सा मंतर कब बाजार ने इस तरह दिया होगा
खुशबू जो हँसी में है जाने उसे किसने कब किस सामान से लिया होगा
दिल देह में रहता था, अब दिल में देह को जाने किस तरह सिया होगा
झूठ हो बेशक इश्क ने हर आँख को यकीनन कभी-न-कभी रुलाया होगा
– प्रफुल्ल कोलख्यान
अपने प्रदेश के क्या कहने मनोज जी उस पर यदि आपके शब्दों में उसका सौंदर्य रचा गया हो तो सोने पर सुहागा। लेकिन आज तो मंच पर प्रेम का रस बरसना है तो कोई प्रेम कविता भेजिए।
– विनीता राहुरिकर
मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ
ना ना, किसी लव गुरु ने नहीं
यह तो कबीर ने सिखलाया है
सभ्यता को कान में बताया है
प्रेम में नाचता हुआ मत्त मन
आत्मन्वेषण और आत्मविस्तार
के कठिन रास्ते पर कदम बढ़ाता है
तब उसका ‘नाच’ चुपके से
आलोचना में बदल जाता है।
जैसे वसंत
चुपके से चुंबन में सिमट जाता है
प्रेम सिर्फ भावना न रहकर
मौसम बन जाता है और
अपनी धुरी पर नाचती हुई धरती
हल्की-सी सिहरन के साथ
चुपके से प्रेमपत्र में बदल जाती है।
पूछो तुलसी से कि कैसे
किसी राम का मन खग-मृग-मधुकर से
छल मृग के दृश्याभास से बिंधे
अपनी सीता के मन का पता पूछता है
कहेंगे रवींद्र कि कैसे पागल हवा में
मन का पाल खुल जाता है
उधियाता हुआ मन मानसरोवर पहुँच जाता है
बतायेंगे नागार्जुन जिन्होंने बादल को घिरते देखा
जिन्होंने हरी दरी पर प्रणय कलह छिड़ते देखा
कालिदास से पूछा पता व्योम प्रवाही गंगाजल का
ना ना, किसी लव गुरु ने नहीं
यह तो जीवन के ताना-बाना ने
पुरखों ने सिखलाया है
कि इस कठकरेज दुनिया में
मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ
हे मेरे जीवन से एक-एक कर विदा हो रहे
रूप-रस-गंध के यौवन
मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ
– प्रफुल्ल कोलख्यान
प्रेम में आत्मान्वेषण और आत्मविस्तार करता हुआ मन। प्रेम का यह विस्तार तो कबीर ही सिखा सकते हैं। धरती का प्रेमपत्र में बदलना, तुलसी, राम, से लेकर रविन्द्र और नागार्जुन के परिपेक्ष्य से प्रेम का विवेचन बहुत ही सधी हुई उत्कृष्ट कविता प्रफुल्ल कोलख्यान जी। रूप रस गंध न भी हो तो प्रेम अपने भाव से ही पहचाना जायेगा। – विनीता राहुरिकर
प्रेम
प्रेम सिखाता है देना
ब्रह्मांड भी जिसके लिए छोटा है
प्रेम बटोर लेता है
छोटे-छोटे पलों से कितना कुछ
जिंदगी के हर मोड़ पर
प्रेम थमा देता है भरी झोली
हम समझ भी नहीं पाते
जिंदगी का सूरज अस्त होने तक
अपनी रिक्त किंतु समृद्ध हथेलियों को
आसमान की तरफ उठा कर
तमाम शिराओं को निस्पंद होते
महसूस कर
हम पुकार उठते हैं
ईश्वर, अल्लाह, जीसस
मैंने प्रेम को जिया
अब प्रेम की आखिरी सांस
मृत्युंजय तुझे समर्पित
– संतोष श्रीवास्तव
मैंने प्रेम को जिया, अब आखरी सांस प्रेम की मृत्युंजय को समर्पित। देह से गुज़रकर आध्यात्मिक चोला पहनता हुआ प्रेम। वैसे भी प्रेम अपनी गहराई में आध्यात्मिक ही तो है। जो पूरे ब्रह्माण्ड से भी विस्तारीत है। संतोष जी एक बार पुनः शानदार कविता आपकी। – विनीता राहुरिकर
सबसे महँगा प्रेम धन, इसका अजब सुभाय
बाँटे से बढ़ता सदा,जोड़े से घट जाय
जुड़ा हुआ है प्रेम से, धरती औ, आकाश
नक्षत्रों को जोड़ता, आपस का विश्वास
जड़ चेतन से प्रेम ही,जग का मूलाधार
आपस में जुड़ करबढ़े,वसुधा का परिवार,
नाजुक धागा प्रेम का,नाजुक मन से थाम
भला भला ही सोचना, भला मिले परिणाम
वसुधा एक कुटुम्ब है, प्रेम बाँट लें यार
तब आपस में जीत क्या, क्या आपस में हार
विजय राठौर
प्रेम….
कहाँ परिभाषित था
मौन में सिमटा सकुचाया सा
बंध जाता है अनायास ही
जिंदगी के पेड़ पर
एक मन्नत का धागा
साँसों की डोर से
चाह कर भी खुल कहाँ पाता
कहते है अँधा होता है प्रेम
मिल जाता है
फूलों की खुशबू में
हवाओं की सरगम में
ओस की नमी में
अचानक ही
सोच समझ कर तो
साजिशें हुआ करती हैं….
– प्रियंका
प्रेम
खामोशियों के सन्नाटे में
लम्हा दर लम्हा
सुलझाता है
कुछ बुनता है
कुछ उधेड़ता है
और बाँध देता है
कुछ धागे
अपनी मन्नतों
और दुआओं के
यूँ ही कभी आ जाओ
तो चुभे न काँटा कोई
यही सोच
आँखों की सहेज नमी
मुस्कुराहटों के कुछ फूल
बिछा दिया करता है
दूर तक फैली
खामोश राहों में
उम्मीद का एक
चराग़ रोज़ ही जल
खुद ही बुझ जाया करता है
मसरूफियत
मिले फुरसत
तो पूछ लेना खुद से
खामोश ऐतबार के
इंतज़ार की
हद क्या है………..!!!!!
– प्रियंका
प्रेम… जिंदगी के पेड़ पर मन्नत का धागा, साँसों की डोर का। स्नेहमयी धारा प्रेम की। प्रियंका जी हवाओं की सरगम में, ओस की नमी में, फूलों में हर ओर प्रेम ही तो है। बहुत सुंदर।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
सौंधी सी मिट्टी
सावन की फुहार
सर्दी की गुनगुनी धूप
मीठा सा झरना
खुला सा आसमान
पंछियों की उड़ान
बहती नदिया
उगता सूरज
जगमग तारे
ऊंघता चाँद
अमराई में कोयल की कूक
हवा में फूलों की महक
अलसाई झपकी
अनछुआ सपना
माँ की गोद
पिता की अँगुली
बच्चों की मुस्कान
दुआ का खजाना
पूजा की थाली
अक्षत चंदन
रेशम डोरी
भजन अजान
गीता कुरआन
मीरा का श्याम
खुसरो का निजाम
तुलसी का राम
घनानन्द सुजान
चारों दिशाएँ
धरा अम्बर
पीर पैगम्बर
ये सभी तो हैं
प्रेम के ढाई आखर
एक मेरा आखर
एक तुम्हारा आखर
आधा उस डोर का
जो है मेरे ओर
तुम्हारे बीच।
आधा इसलिए
क्योंकि प्रेम अधूरा है
वो आधा ही रहे तो
अच्छा है।
पूर्णता समाप्ति है।
-अनिता मण्डा
पूर्णता समाप्ति है। और एक दूसरे में नीर क्षीर घुलमिल जाना भी। प्रेम के ढाई आखर की अत्यंत मनोहारी परिभाषा अनीता मण्डा जी। आपने सृष्टि के कण कण में प्रेम को अभिव्यक्त किया है। हर रिश्ते में।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम नहीं है बंधन
प्रेम नहीं है बंधन,यह है प्यारा सा आलिंगन,
बंध जाओ तुम इसमें,स्वच्छंद होगा जीवन,
आँखों से पढ़ लेना
प्रेम की यह भाषा
इस भाषा को पढ़कर
शेष न बचेगी अभिलाषा
महक उठेगा क्षण-क्षण, जैसे हो चंदन
प्रेम नहीं है बंधन…………………
नहीं रहोगे तुम अधूरे
हो जाओगे पूरे
एक होकर जानोगे
अब तक थे अकेले
मिलन बेला अब है आई, दूर करो ये अनबन,
प्रेम नहीं है बंधन……………………
जब मन आँगन में
प्रीत का दीप जला लोगे
समझो तुम उस दिन
भगवन को पा लोगे
मुख न मोड़ो अब तो, कर लो इसका वंदन,
प्रेम नहीं है बंधन……………………
– ज्योति गजभिये
प्रेम मुक्ति है, स्वतंत्रता है।। इसके बन्धन में ही खुलापन है, विस्तार है। माथे पर लग जाये तो चन्दन सा महकता रहता है। प्रीत का दीप जब प्रज्ज्वलित हो जाता है तो उसकी लौ में ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। ज्योति जी मंच भी उस दिव्य उजास से भर गया।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम की पाती,
प्रिय, हर पल, तुम बिन
इस जीवन का बड़ा कठिन।
नयन बावरे तुमसे मिलकर,
खुद के बैरी बन बैठे हैं,
बेखुदी में ही कर लीन्हा,
अपना जीवन बहुत कठिन।
जियरा व्याकुल सा रहता है,
नहीं किसी की भी सुनता है।
बिछड़ न जाऊँ, सोच सोच के,
सूरत मेरी हुई मलिन।
अधर कांपते कुछ कहने को,
मधुर बोल को तरसें कान,
इत उत भटकें, कहीं न अटके।
प्रिय तुझमें ही बसते प्राण।
विरह की बेला सही न जाये,
छोड़ न जाना, एक भी पल छिन।
दिल में बसा रक्खा है तुझको
सीने में छिपा रखा है तुझको,
मेरे प्रियतम मोबाइल
दिन कटते न रातें तुझ बिन।
छोड़ न जाना मुझको ….
– ईरा पन्त
हृदय में प्रेम की कोपल के प्रस्फुटन के कोमल भाव ईरा जी। जियरा जब व्याकुल रहता है और नयन अपने प्रिय की झलक पाने को बाँवरे से हो जाते हैं। कभी मिलन का सुखस्वप्न तो कभी विरहा की सोच अधीर कर देती है। अधर कहने को आकुल और कान सुनने को। प्रिय में ही अटके प्राण। सोलह बरस की फुहार याद आ गयी।
– विनीता राहुरिकर
आँखों में खुश हो लेना
दिल में थोड़ी-सी उदासी बचाना जरूर
जब कोई ताजा खिला फूल दे –
तुम गहरी मुस्कान से उसे देखना
आँखों में खुश हो लेना
दिल में थोड़ी-सी उदासी के लिए जगह बचाना
हालाँकि यह थोड़ा मुश्किल है, फिर भी
याद कर लेना उस डाली को
जिस पर यह फूल खिला हो
याद कर लेना उस माली को
जिसके बच्चे की खलखिलाहट
उधार लेकर फूल खिला करता है
थोड़ी-सी उदासी के लिए जगह बचाना
थोड़ा-सा आसान हो जायेगा, शायद
–हाँ, अभी तो जरूरत नहीं लेकिन
लंबे सफर में कभी उदासी भी बहुत काम आती है
नमक की तरह, उसे थोड़ा ही सही पर बचाना जरूर
ओ मेरे हमसफर जब कोई ताजा खिला फूल दे
तुम गहरी मुस्कान से उसे देखना
आँखों में खुश हो लेना
दिल में थोड़ी-सी उदासी के लिए जगह बचाना जरूर
– प्रफुल्ल कोलख्यान
पूजा में देवता फूल ग्रहण करना स्वीकार लेते हैं।
प्रेम में देवता फूल बन जाना स्वीकार कर लेते हैं।
सच अपनी ऊँचाइयों-गहराइयों में एक हो लेते हैं।
तू न समझे, चल हम इसको मुनासिब मान लेते हैं।
हाँ मुहब्बत है लाम तो अक्सर कमान काट लेते हैं।
देवता फूल और फूल देवता में खुद को बदल लेते हैं।
हम खुद से निकलते हैं बस जेब में हुनर रख लेते हैं।
वे कब के हवा हुए जो मुश्किल में लाज रख लेते हैं।
हम तो लिखने की मेज पर सिर टिका कर रो लेते हैं।
यही मयस्सर अकेलेपन के अँधेरे में सफर कर लेते हैं।
दिन इतबार का, तुम पर दिल से ऐतबार कर लेते हैं।
जेब खाली है मगर कमाल कि हम बाजार कर लेते हैं।
किसी की आँख में चढ़ना इस तरह कबूल कर लेते हैं।
आँसू के साथ निकलकर बह जाना कबूल कर लेते हैं।
– प्रफुल्ल कोलख्यान
शायरों, कवियों ने बार-बार कहा है
तुम अक्सर किसी उत्ताल नदी के किनारे खड़ी कुछ-कुछ निहारती रहती हो
शायरों, कवियों ने बार-बार कहा है
तुम अक्सर हवा की तरंगों में चढ़कर फूलों की सुरभि को घोलती रहती हो
शायरों, कवियों ने बार-बार कहा है
तुम अक्सर हुलास में जमीन को आसमान की ऊँचाइयों से मिलाती रहती हो
मैं शायर, कवि या वैसा नहीं लेकिन पाया है
असल में तुम जहाँ खड़ी हो जाती हो, एक नदी वहाँ से बहनी शुरू हो जाती है
तुम को छूकर हवा तरंग बन जाती है और अपने अंदर सुरभि को समेट लेती है
तुम जब कभी आसमान से नजर मिलाती हो, आसमान जमीन पर उतर आता है
हाँ, तुम जब कभी मेरे सपनों में आ जाती हो, एक ब्रह्मांड आकार पाने लगता है
तुम्हारी कोख में रहकर मैंने जाना, कि स्त्री होना सृजन का सृष्टि से संवाद होना है
सच है बिल्कुल मैं शायर, कवि या वैसा नहीं लेकिन दुनिया को ऐसा ही पाया है
– प्रफुल्ल कोलख्यान
प्रेम एक खूंख्वार लड़ाई //”सुनो/मेरे तो गिरिधर गोपाल /इतना कहना-भर काफ़ी नहीं होता /’दूसरो न कोई”/यह भी कहना पड़ता है ///प्रेम अधिकार चाहता है। एकाधिकार। “दूसरो न कोई”/कहता है तो /सुनना भी चाहता है। वह दोनों हाथों से। पकड़े रहना चाहता है। स्नेह पात्र। वर्ना झटककर। नीचे गिरा। चकनाचूर भी कर देता है।। प्रेम, आब होता है। नदी को, मोती को, वजूद को/कीमती बनाता है :पर/तेजाब भी बन जाता है। चंडी, मांस, हड्डी /सब झुलसकर देखते देखते। खत्म हो जाते हैं।। प्रेम एक युद्ध है।। महायुद्ध है। चक्रव्यूह रचा जाता है जिस में। सिर्फ अंदर प्रवेश करना। जानता है जो /आखिरी द्वार पर मारा जाता है। निहत्था, पशु की तरह।।। प्रेम, खूंखार होता है। निरीह गाय नहीं। तेज झपट्टा मारता चीता होता है।।। सब कुछ, सब कुछ जायज है। लडाई और मुहब्बत में।।
– राजम पिल्लइ
लड़ाई और प्रेम में सबकुछ जायज होता है…
प्रेम जितना विरोधाभासी भाव शायद दूसरा नही है इस सृष्टि में। जितना कोमल उतना ही कठोर, जितना समर्पित उतना ही आतंकी भी। फूलों की छुअन से तेज़ाबी झुलसन तक प्रेम के कितने रूप। मनोहारी भी, विभत्सकारी भी। कहीं मुक्त करता है तो कहीं एकाधिकार में जकड़ लेता है। कहीं जीवन तो कहीं युद्ध। राजम जी नमन आपकी लेखनी को
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
उन्मुक्त प्रेम जो प्रतिदान नहीं माँगता बलिदान माँगता है।यह सच्चा प्रेम ही है जो अभीष्ट पर कुर्बान होना जानता है।
प्रिय की हर अदा जिसमे प्यारी लगती है।संग मे प्रिय के द्वारा दिया गया दर्द भी अपना सा लगता है।
आखिर प्रिय -प्रिय ही नहीं मेरे खुदा ही हैं
जिनमे हर क्षण हर पल सराबोर जो मनहै।
मन दपॆण मे हर वक्त झाँकू तेरी छवि
निहारकर तूझे सूकूँ पाऊँ मैं अभी।
– गीता भट्टाचार्य
प्रिय का प्रेम भी और दर्द भी अपना सा लगता है, क्यों न हो प्रिय की जगह खुदा के तुल्य भी तो है। तभी तो मन दर्पण में उनकी छवि बसी रहती है। गीता जी प्रेम में सराबोर आपकी कविता।
– विनीता राहुरिकर
हाइकू
फूल गुलाब
प्रेम अनुभूति का
सदा प्रतीक ।
ढाई आखर
प्रेम के बोलो फिर
जीतो संसार ।
प्रेम जीतो
मानवता को सारी
संतों की वाणी।
मिल सखियाँ
डूबे सागर गहरे
प्रेम में खोई ।
प्रेम में डूबा
जब खुद को खोया
तो पाया प्रभु।
– भुपिंदर कौर
प्रेम का प्रतीक लाल गुलाब, प्रेम के मीठे बोलों से संसार जीतना। प्रेम में ही डूबकर ईश्वर की प्राप्ति होती है। भूपिन्दर जी बहुत सुंदर हाइकू आपके।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम…..
वह पूरे चाँद की रात थी
जब तेरे जिस्म की दरिया में डूबकर
मैंने एक बून्द प्रेम
अपने होठों पर रखा था
हव्वा के वर्जित फल की तरह
और चखते ही
दुनिया के लिए एक
संगीन गुनाह हो गयी मैं
क्योंकि मेरे बदन पर
तेरे जिस्म की दरिया का
पानी चढ़ गया था।।
खुदा ने शायद मेरे सर पर
अपना हाथ रखा था
और एक दुआ पढ़ी थी
जो तुम्हारी शक्ल में
इस धरती पर मुझे मिली है
ऊपर से खुदा दुआ बरसाता रहा
नीचे दुनिया मुझपर जलती रही
और तेरे प्रेम के सागर में
मेरी रूह की कश्ती तैरती रही।।
– डॉ विनीता राहुरीकर
प्यार का झरना
उठते भावों से
भीग रहा है तन मन
कभी मैं ख़ुश होती हूँ
धवल तरंगों से
जैसे कोई गीत सुनाए
जंगल की तन्हाई में
उड़ते पंछी इच्छाओं के
यहाँ वहाँ घूम रहे
इन आशाओं के संग-संग
कभी तो फूटेगा
तुम्हारे ह्रदय का झरना
गिरती बूँदों के संग-संग
बहती जाऊँगी साथ तुम्हारे
जीवन के सागर को
पायेंगे हम दोनों
मुझे प्रतीक्षा है केवल
तुम्हारे प्यार के झरने की
प्यार के झरने की।।
– डॉ. प्रीति प्रवीण खरे
प्रकृति के सुन्दरतम रूप में प्रेम की अभिव्यक्ति। प्यार के झरने में भीगता तनमन, जंगल की तन्हाई में संगीत, और प्रिय के संग निर्बाध प्रेम में बहते जाना, प्रीति दी बहुत ही रोमानी कविता आपकी मन आनंदमय हो गया।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम ह्रदय का स्पंदन है,
प्रेम बिना संसार अधूरा
प्रेम ही जीवन दर्शन है
प्रेम हृदय का स्पंदन है।
प्रेम बिना जीवन मरु है
रूप रस स्पर्श गंध हीन
होता यह जग प्रेम बिन
प्रेम बिना सब भाव शून्य
प्रेम ह्रदय का स्पंदन है।
सुख दुखकी पीड़ा नहोती
सुख की परिभाषा नहोती तेरी मेरी पहचान नहोती
गर जीवन में प्रेम न होता
न होता प्रगति सोपान
ईर्ष्या नकोई द्वेष होता
नक्सल आतंकवाद न होता
प्रेम बिना यह जग न होता
– जयश्री शर्मा
प्रेम बिना यह जग ही न होता। सुख दुःख, ईर्ष्या द्वेष, रूप रँग, गन्ध, प्रेम हर भाव में विराजमान है। जयश्री शर्मा जी आपने प्रेम को व्यापक अर्थों में अभिव्यक्त किया है।
– विनीता राहुरिकर
एक हाइकू …
रात तारों में
टिमटिमाती रही
तुम्हारी यादें
– ज्ञानेन्द्र विक्रम सिंह’रवि’
प्रेम
प्रेम तप है
जीवन का
प्रेम ही बल है
सम्बन्धों का
प्रेम सम्बल है जग तीतल का।
प्रेम आचरण है
प्रेम ही जीवन का
सही व्याकरण है।
प्रेम ही जग जीतने का
सुदंर आवरण है।
दिल में
स्थायी बसेरा इसका
यह झांकता
नैनों के कपाटों से ।
तो अधरों में है
ठिकाना इसका।
प्रेम परबस है
प्रेम पर नहीं चलता पहरा
मौन ही इसकी परिभाषा
चंचल नैनों से कहता
अपनी भाषा।
प्रेम ही तो है जिजीविषा ।
प्रेम बरसता जग के
कोने कोने से।
फूलों से, हवाओं से,
ओस की बूंदों से
आचार-विचार और व्यवहार से।
प्रेम बोलता
कोयल की कूक में
चिड़ियों की चहचाहट में
पपीहे की टेर में
चाँद की चांदनी में
प्रेम मिलता
प्रिय के काले खुले केश में
सुरमई आँखों में
सिंदूरी बिंदी में
मेंहदी भरी हथेली में
चूड़ियों की खनक से
प्रेम मिलता है
जिंदगी की राहों में
प्रियतम की बाँहों में।
प्रेम है प्रियतम की
इंतजारी में
व्याकुल मन की बेकरारी में
प्रेम मनुहार में
रूठे प्रियतम की लटों में
प्रेम चादर की सलवटों में
प्रेम धरती में
गगन में
प्रेम है चमन में।
दूध पिलाती माँ में
रंभाती गाय में
जीवन के छोर में
सांसों के अटकी डोर में
प्रेम मन के आंगन में
सावन भादो में
तुलसी के क्यारे में
मेहनत के निवालों में
मदिरा के प्यालों में
प्रेम बसता कवि के ख्यालों में ।
प्रेम से पगा ये तन मन
प्रेम ही है जब जीवन
तो क्यों कोई प्रेम की
अनदेखी कर
करता अप्रेम का आचरण
जबकि प्रेम ही है जीवन का व्याकरण।
– डॉ लता
जग जीतने का आवरण प्रेम, लता जी आप तो जो भी लिखती हैं उम्दा ही लिखती हैं। बहुत सुंदर कविता है ये भी। प्रेम की सुकुमार अभिव्यक्ति, नयनो के कपाटों से झांकना और अधरों पर ठिठकना। मौन से परिभाषित, नयनों से मुखरित सर्वव्यापी प्रेम की उत्तम रचना – विनीता राहुरिकर
प्यार
जिसके सपनों में
थी बेखबर मैं
पलकें मूंदे,
दस्तक दे दी
औचक/उसी ने
मन के द्वार पर.
आँखें खोलीं तो
कहा उसने-
ख़याल नहीं
मैं हकीकत हूँ
तुम्हारी।
सच के दपॆण में
देखो मुझे,
बन्द नहीं
खोल कर रखो
आँखें अपनी।
इतना भी अन्धा
न रहे प्यार
कि आँख खुलने पर
बदल जाये
नफ़रत में…
-डॉ. आशा रावत
मन जिसके सपनोँ में खोया हुआ हो और वही मन पर अनायास दस्तक दे दे तो क्या बात है। लेकिन नफरत क्यों, प्रेम तो प्रेम है शाश्वत सुन्दरतम।। यथार्थ प्रेम को स्वीकारती बहुत अच्छी कविता आशा रावत जी
– विनीता राहुरिकर
“जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए ”
जवानी का प्रेम ….
जब चेहरों को देखकर दिल में प्यार उमड़ने लगता है
प्यार..जब ज़िन्दगी में प्यार का सही मतलब अपने साथ
या तो बहुत ज्यादा खुशियाँ -प्यार का समुंदर
या बहुत ज्यादा दुःख –आसूं का सैलाब
प्रेम का अर्थ -!!
तब डूबना -उतारना बन जाता है
फिर उम्र भर की ताक- झांक से
हमारी खोज एक सच्चे प्रेमी पर खत्म हो ना हो
पर एक सामान्य इन्सान का जीवन
प्यार का मतलब खोजने लगता है
अपने घर -गृहस्थी में ही
कुछ वक्त बाद
शायद — आपके लिए
जीवन साथी का नाम ही प्रेम का मतलब बन जाता
और नया सूरज ,
नयी उम्मीद की किरण
सामने लाती है
एक और नन्ही सी जान के रूप में
जिसने आप से जन्म लिया हो
और जो बन जाती है
ज़िन्दगी में आपके लिए प्यार का सही मतलब ।।
प्रेम हर रूप में बस खुशियाँ बांटने का
और भरोसे का नाम है
हाँ यही तो है प्रेम का सही मतलब
बांटना वो भी बिना किसी शर्त के
“प्यार बांटते चलो ..
(एक सीधी- साधी अभिव्यक्ति) – निरुपमा वर्मा
सीधी साधी प्रेम कहानी सी आपकी कविता डॉ. निरुपमा जी। किशोरावस्था के कच्चे प्रेम से मातृत्व के परिपक्व प्रेम तक का पूरा सफर। प्रेम एक खोज स्वयं की और अपनी पूर्णता की। और प्रेम की मुखर परिभाषा।
– विनीता राहुरिकर
साथ मेरे जो तुम होतीं
साथ मेरे जो तुम होतीं
मंदिर में मूरत आ जाती
जो तुम घर में आ पाती
अपनी मंजिल मैं पा जाता,
मंजिल तुम अपनी पाती ,
साथ मेरे जो तुम होंती
…साथ मेरे जो तुम होंती
खेतों में फसलें लहलाती,
बीज रोपते मिलकर हम
बंज़र सी धरती नहि होती,
चूनर धानी लहरे खम
रोटी मठ्ठा गुड पानी रख,
कमर हिलाती कोई छम
चादर होती आसमान की,
और बिछौना धरती नम
सागर के मन की लहरों में,
कम्पन करती तुम होतीं
साथ मेरे जो तुम होतीं
…साथ मेरे जो तुम होतीं
नीली आँखों के वो सपने,
सब सच होकर सारे खिलते
सागर भी खारा न होता,
भले समुन्दर गम मिलते
तुम जो सुबह सवेरे उठती,
लट उलझी नटखट होती
बिस्तर की करवट सलवट सी,
नम होकर कैसे रोती ,
बन जाता मैं छंद तुम्हारा,
मेरी गजल जो तुम होती
साथ मेरे जो तुम होतीं
…साथ मेरे जो तुम होतीं
नहीं बिलखते शब्द मेरे और
नहीं सिसकती ये रातें
धुंधली यादों में नहीं ढूंढता,
सन्नाटों में आवाजें
मैं पढता आँखों से तेरी,
सांसों से लिख तुम देतीं
जीवन के रुनझुनी व्याकरण,
चलते-चलते कह लेतीं
मानस का कोई दोहा मैं
और तुम चौपाई होतीं
साथ मेरे जो तुम होतीं
…साथ मेरे जो तुम होतीं
राधा बन होती वृन्दावन,
बन कान्हा मैं जी लेता
मीरा सम तुम भजन करो तो,
विष सारा मैं पी लेता
बनी रुक्मिणी ह्रदय बसाती,
रुक्मी से मैं हर लेता
अर्जुन सी तुम धर्मरती यदि,
खुद को गीता मैं कर लेता
मैं तेरा सूरज बन जाता
चाँद मेरा तुम बन रहतीं
साथ मेरे जो तुम होतीं
…साथ मेरे जो तुम होतीं
– सागर सुमन
हरी-भरी खेतीहरि प्रेम की फसल। धरती के नम बिछौने पर आसमान की चादर तले। रोटी मठ्ठा गुड़ पानी लेकर छम छम आती प्रियतम। साथ मिलकर बीज रोपना और धरा को उर्वर बनाना। अप्रतिम कल्पना। नीली आँखों के सुंदर सपने। मधुर भावाभिव्यक्ति प्रेम की अति सुंदर। सागर सुमन जी।
– विनीता राहुरिकर
मौला मैं बस कर सकूं, इतनी सी पहचान।
कण कण में देखूँ तुझे, दूर रहे अभिमान।।
तपते उपवन में भला, कौन सुनेगा कूक ?
क़द्र न हो जज़्बात की,बने रहो तब मूक ।।
काला जादू कर गया ,जाने मुझ पर कौन,
कुछ भी अब भाये नही, अच्छा लगता मौन ।।
मौसम जब से मारकर,गया समय को मूँठ।
खुशियों का जंगल हुआ,रूखा सूखा ठूँठ।।
झीना पर्दा झूठ का,पड़ा हमारे बीच।
ईश्वर की झूठी कसम,खाते आँखे मीच।।
भ्रम के शर करते रहे,ईश्वर पर संधान।
मुठ्ठी में करने चला, सृष्टा को इंसान।।
अनेकान्त की दृष्टि से,देख जगत का चित्र।
ईश्वर बंटा न आज तक,भ्रमित न होना मित्र।।
आपस में मन कर लिए ,हमने मन छत्तीस।
धरती अम्बर छोड़िये,बांट लिया जगदीश।।
किसने मन में बो दिया बंटवारे का बीज।
बांट लिया माँ बाप को ईश्वर है क्या चीज।
सबकी अपनी ढपलियां,सबके अपने राग।
काम क्रोध मद कर रहे ईश्वर के दो भाग।।
सच की बांह मरोड़ कर, झूठ हुआ बलवान।
आँख दिखा संसार को, बांट रहे भगवान।।
स्वार्थसिद्धि का जगत में, साध रहे हैं योग।
कलयुग में भगवान को बांट रहे हैं लोग।।
– मनोज जैन ‘मधुर’
प्रेम
बचपन मे मेरी मां ने बोया था
एक बीज प्रेम का।
जिसमे फल आते थे
बहुत सारे….
प्रेम प्यार. मनुहार रूठना मनाना और भी न जाने क्या क्या।
सदा चहकता रहता था परिवार।
न कहीं कष्ट न क्लेश
हंसते हंसते सब निपट जाता था।
जब मै ससुराल आई
म़ाँ ने दिया था दहेज मे
वह अमूल्य बीज।
शायद उसे भी उसकी माँ ने दिया होगा.
मैने भी उसे बोया
सींचा निदाई गोडाई की
माँ की ही तरह खूब फला फूला..प्रेम प्यार .आदर मनुहार…….
पर उम्र के इस पडाव मे आ कर..नजाने क्या हो गया उस बीज को
जगह जगह उग आई हैं
कंटीली झाडियां
ईर्ष्या .द्वेष घृणा .कहा सुनी की ।
सोलह वर्षों से लगी हूँ
निदाई गोडाई करने मे
न जाने कहाँ दुबक के बैठ गया है वह बीज जो मेरी माँ ने दहेज मे दिया था ।
न जाने क्यों उर्वरा शक्ति कम हो गई है।
क्या फिर से फलेगा फूलेगा
वह बीज जिसे मैने सहेज कर रखा था प्रेम और प्यार का ।
-चंद्रकला
स्वागत है चन्द्रकला जी। प्रेम का बीज। जो हर माँ विरासत में पाती है और अपनी सन्तान को सौंपती है। इसी बीज की कोपलों से हमारा जीवन हराभरा रहता है। इसकी छाँव में ही सुकून से रहता है। प्रेम का बीज सींचते रहिये जरूर फूलेगा फलेगा।
– विनीता राहुरिकर
चल आज तेरे एतबार पर
एतबार करें
आज हम खुदको
तेरी नज़रो से प्रेम करें
खोया-खोया सा है
जो मुझमें कहीं
आज फिर तेरे उस
वजूद को तलाश करें
नहीं मेरा मुझमें
कुछ भी बाक़ी रहें
प्रेम के सफ़र का
कुछ ऐसे आगाज़ करें
कुछ एहसास देकर गुज़रते हैं
जिन्दगी के लम्हे
चलते हर लम्हे में
आज तुझे महसूस करें
चल आज तेरे एतबार पर
एतबार करें
आज हम खुदको
तेरी नज़रो से प्रेम करें
– नीता सक्सेना
खुद को प्रियतम की नज़र से प्रेम करना अर्थात अपनी सम्पूर्णता में प्रेम करना। नीता जी बहुत आत्मिक अभिव्यक्ति आपकी। खुद में खोये हुए प्रिय से अस्तित्व की तलाश। हर लम्हे में प्रिय को जीना, वाह रूमानी प्रेम की मधुर कल्पना
– विनीता राहुरिकर
मोहब्बत का सिला
चलता रहेगा
मोहब्बत का दिया
जलता रहेगा ।
मोहब्बत दो दिलो की
अल्पना है
मोहब्बत ही ईश की
अर्चना है ।
मोहब्बत ताज की ।
बुनियाद है ।
मोहब्बत जायसी की ।याद है ।
मोहब्बत माँ बहन और यार है ।
मोहब्बत ही प्रिया का । प्यार है ।
मोहब्बत हर नजर ।
इक गीत है ।
मोहब्बत हर हृदय का । मीत है
मोहब्बत राम और
रहमान है
मोहब्बत वेद और
कुरान है
मोहब्बत वक्त की
पहचान है
मोहब्बत मान और
सम्मान है
मोहब्बत ही रोटी
और दाल है
मोहब्बत ही जिंदगी
की ढाल है।
– स्नेहलता पाठक
प्रेम
मौत के आगे हर कोई हारता है.. यहाँ
सच तो यही है… जब तक जीवन है तब तक आस
तोड़ नफरत की दिवार आज।
प्रेम को अपनाओ।
छोड़ मै मै को आओ हम हो जाओ।
प्रेम का रस पीकर देखो आज
नफरत का जहर भुल जाओगे
कल तक दुर थे अपनो से
आज उनको करीब अपने पाओगे।
प्रेम हमेशा जोडता है जीवन से बस आज इसी को अपनाओ
आओ मै से बस हम बन जाओ
– सरोज ठाकुर
चुम्बनों के फूल
हो गई है ,
आज हमसे ,
एक
मीठी भूल।
धर दिए ,
हैं दो
अधर ,
पर चुम्बनो के फूल।
मन तुम्हारे
रेशमी
अहसास
ने ही ले लिया था।
एक चितवन
ने तुम्हारी
दिल हमें
दे ही दिया था।
लाजवंती
छवि नयन
में फिर
गई है झूल।
– मनोज जैन ‘मधुर’
माँ, बहन, सखी सबमे प्रेम का रिश्ता है। मीत है। स्नेहलता जी। प्रेम को जीवन के प्रत्येक छोर में देखती आपकी कविता।
प्रेम को अपनाकर मैं से हम हो जाना। प्रेम का मधु पान जो कर लेता है वह फिर नफरत कैसे कर सकता है। सरोज जी प्रेम को अपनाने और एक हो जाने का आव्हान करती आपकी कविता। – – -विनीता राहुरिकर
उसका जाना
प्रेम पर लिखे
सारे शब्दों के
अर्थों का खो जाना
उसका अविश्वास
सारी प्रार्थनाओं का
निष्फल हो जाना
दिसंबर की यह शाम
विवशता के कुहरे में
प्रेम और प्रार्थना में
खिलखिलाते
सारे फूलों की
रंगत धूसर
किये जाती है
पीछे से आती रोशनी
कुहरे की दीवार पर
मेरी परछाई उकेर रही है
– अलका प्रकाश
विरह के कुहरे पर जाते हुए निष्फल प्रेम की धूसर परछाई, जिसमे प्रेम के सारे अर्थ खो जाते हैं। प्रार्थनाओं के विफल होने पर विवशता का बाकि रहना। अल्का जी अच्छी कविता आपकी।
– विनीता राहुरिकर
वो इन दिनों प्रेम मे है
तुम उसे पहचान नहीं सकते
हाँ ये वही है
बोलने में हकलाती
चलने में शरमाती
वो लटके कंधो
झुकी निगाहों
लदर-फदर कपड़ो वाली
जानकी पटेल |
वो जो
अंगुलियों के गुलेल में
सूरज को फंसाकर तान रही है
फुटबाल की तरह
पहाड़ो को पांवो से
उछाल रही है
सितारे तोड़कर
धरती पर दानो की तरह छींट रही है
समुद्र की तरह मचलती
और मलयानलि की तरह
दिक् दिगंत को जगाती
वो जो इधर चली आ रही है
वो वही जानकी पटेल है ..
जानकी पटेल इन दिनों प्रेम में है
और प्रेम बदल देता है
जैसे उसने बदल दिया
जानकी पटेल को…. ||
– हनुमंत किशोर
अलग ही तरह से प्रेम की अभिव्यक्ति करती आपकी कविता हनुमन्त जी। प्रेम इसी तरह व्यक्तित्व को उसकी सम्पूर्णता में ही बदल देता है। जानकी पटेल की तरह। जिसकी ऊर्जा सूरज को भी गुलेल में बाँध लेती है और पहाड़ों को फुटबॉल बना देती है।
– विनीता राहुरिकर
क्षणिकाएँ
फैला है चहुँओर
नफरत का अंधेरा
दिल के दिए में
प्रेम की बाती
जला कर देख
ढाई आखर प्रेम के
जो नहीं समाते थे कभी
तीन लोकों में
अब सिमट कर रह गऐ हैं
तीन शब्दों में
आनन्द बाला शर्मा
बहुत सार्थक क्षणिकाएँ आनंद बाला जी। प्रेम कुछ लोगों के लिए बस तीन शब्द भर रह गया है। इस अँधेरे को दूर करने के लिए प्रेम दीप का जलाना जरुरी है।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
वह प्रेम ही तो है
जिसके छलकते सागर की
एक बूँद की मैं अब भी प्यासी हूँ।
निहार रही हूँ इसी आशा से
शायद छलके और मैं मिटा पाऊँ अपनी प्यास।
अंजुली तो उसी दिन पसार दी थी
जिस दिन तेरी आँखों में भी
दिखा था,
मेरे चेहरे का अक्श
बस फिर नहीं निहारा दर्पण में खुद को
कि कहीं लगा न दूँ नजर खुद की।
भले तुम स्वार्थ ही समझो इसे
पर ले लो अँगड़ाई एक बार
और कर दो सराबोर मुझे
अपने प्रेम से।
इंतजार की भी एक सीमा है
बस उसे बीतने से पहले छलक जाना
मैं नहीं चाहती कोई मेरे प्रेम को
बेमानी कहे।
– जया केतकी
ऐ मुहब्बत
प्रेम प्रीत और तू
सब धोखा है।
सनम मेरे
प्रेम तुझसे करुँ
दिवाना तेरा।
– लता तेजेश्वर
इंतज़ार की सीमा से पहले लौट आना। वरना प्रेम ही बेमानी हो जाता है। प्रेम सागर से छलकी बून्द जो सागर में मिलकर गुम होने को आतुर। जया जी प्रियतम की आँखों में जब अपना अक्स दिख जाये तो प्रेम तो सफल हुआ ही। बहुत खूब
अच्छे हाइकू आपके लता जी।
– विनीता राहुरिकर
प्रेम
प्रेम क्या है?
नैसर्गिक सौन्दर्य
उत्तर होगा हॉ।
परिभाषित आभाषित
मन के द्वार को खटखटाता।
अ्र्थवान सत्ता साम्राज्य करता
मूक शब्द प्रेम,
अप्लावित है, समूची सृष्टि,
ढ़ाई आखर प्रेम की पंडिताई,
मानवता की सीढ़ी,
अच्छाई सच्चाई,
प्रार्थना उपासना,
मुखरित स्वर,
संगीत साधना,
सजीव नसो मे
बहता
सॉसो का स्पदंन
प्रेम।
– डॉ मीता अग्रवाल रायपुर
हाइकु
1. प्रेम की पाती
छुप के लिख रही
सखी दुलारी
2. भूली बिसरी
यादे हो गई ताजा
देख सखी को
3. कैसे बताऊँ
सखी मेरी प्यारी
राज अपने
4. दिल की बातें
दिलदार ही जाने
जग न माने
5: सदियाँ बीती,
बीती ये ज़िंदगानी
प्रीत न बदली
– शीलू लुनिया
प्रेम
लिखीं हर कवि ने
प्रेम पगी कविताएं
अपने प्रारम्भिक दौर में
और बनाये सेतु
उतरने के लिए
महाकाव्य के पार
शब्दों में बंधे भाव
और भावों में गुंथे
प्रेम में
कचियाए अनुभव
उतर आए
पतवार बनकर !
एक – एक चाप से
धर्म सिद्ध हुए
और दमक उठी प्रेमाग्नि
पहाड़ों के पार
नापते हुए
मीलों की यात्रा !
प्रेम में बिराजे
कुछ भगवान बनकर
कुछेक भक्त हुए
और हम खड़े हैं
आज भी
तेरे द्वार
प्रेम में ।
– करुणा सक्सेना – ग्वालियर, मध्यप्रदेश
प्रेम क्या है। जिसमे समस्त सृष्टि आप्लावित है। नैसर्गिक सौंदर्य से सजीव नसों में बहता साँसों का स्पंदन। खूबसूरत रचना डॉ मीता जी – विनीता राहुरिकर
प्रेम
कभी सोचा न था
कि दिल
यूँ भी धड़केगा कभी
नि:शब्द हो जाएंगे मेरे भाव
कांपते होंठों से निकलेगी इक आह और पुकार उठेगी धड़कन
प्रिय …..
कितना रोका था खुद को
तुम्हें ‘जान’ कहने से
पर देखो ना
तुम रौशनी की तरह
इस तरह समा गए
मेरे हृदय में
कि मेरे वजूद का
एक हिस्सा बन गए
तुम्हारी हर अदा पर वारी जाती मैं
तुम्हारी हर बात ‘भालो’ लगती मुझे
यहाँ तक कि
जब मेरे साथ
मेरी भी सलामती की दुआ के लिए
व्रत रखा था तुमने
और अपने हाथों में मेरा हाथ थामे ये गुनगुनाया था–
‘ये वादा करो चाँद के सामने
भुला तो न दोगे मेरे प्यार को’..
तब अनायास ही मेरा दिल पुकार उठा था
प्यार ….
और याद है तुम्हें वो हसीं रात..
जब तुम पूनम का चाँद बन
सितारों के साथ
फूल और खुशबू की मेहँदी लिए
उतरे थे मेरे आँगन में
तब..
चाँदनी की तरह खिल उठी थी मैं
बड़े प्यार से तुमने
निहारा था मुझे
आगोश में ले संवारा था
सजाया था हौले से
अधरों पर अपने
थिरक उठी थी मैं
प्रेम के उस आलाप पर
मदहोशी के आलम में ही
गोरी बँहिया डाल
चूम लिया था कई बार
तुम्हारे माथे को मैंने
और पुकार उठी थी
जान…..
जान… प्यार… प्रिय..
प्रेम के कितने ही संबोधन ..
मांगलिक फेरों में बँधा
प्रेम का यह कैसा अनोखा बंधन..
कैसा अनमोल एहसास
जिसमें सर्वस्व लुटा
हो जाते हैं हम एक दूजे के
और बन जाते हैं
प्रेम के इस संकरी गली के एक राही…
–आरती
वाह शीलू जी बहुत ही बढ़िया हाइकू आपके। दिल के राज़ और सखी का साथ। सखी के साथ अतीत की यादों का ताज़ा होना। प्रेम की कोपल हमेशा मन में सुरक्षित रहती है।
– विनीता राहुरिकर
शायद ही कोई कवि होगा जिसने प्रेम पर कविता नहीं लिखी होगी। और अपने प्रेम अनुभवों को कविता में नहीं उतारा होगा। प्रेम ईश्वर भी है और भक्ति भी। मनभावन प्रस्तुति करुणा जी
– विनीता राहुरिकर
पूनम का चाँद बनकर सितारों के साथ फूल और मेहँदी की खुशबु लिए प्रियतम का आँगन में उतरना, और प्रेम का आलाप।। शुभालाप।। प्रेम के पावन बन्धन में बंधे दो तनमन।। आरती जी। सुखद परिणय बन्धन का माधुर्य है आपकी कविता में। मन आँगन में चाँद उतर आया। – विनीता राहुरिकर
मंच प्रेम के दूसरे रूप प्रेम भक्ति पर मेरी कोशिश
कान्हा ने जबप्रेम धुन मुरली से अपनी सुनाई
गोकुल की ग्वालिनें तब सुध अपनी बिसराई
कान्हा ने जब यमुना तट पर प्रेमराग था गाया
सारा गोकुल ही तब कृष्णप्रेम में था बन्ध गया
बावरी राधा ने जब कर कान्हा का था थामा
मोहन ने तब अमरप्रेम की भाषा को था समझाया
मीरा ने जब हंसकर गरल सुधा को था अपनाया
मोहन ने तब प्रेमपथिक बन प्रेमभक्ति का मार्ग दिखाया
कभी कदम्ब के नीचे कभी यमुना के तीरे तीरे
मस्त मगन कान्हा की मुरली बजती धीरे धीरे
यूँही प्रेम राह के पथिक बन प्रेमभक्ति को अपनाओ
प्रेममय जग कर लो जीवन सफल सार्थक कर लो
– वृंदा पंचभाई
एक कविता – गजनवी –
हजार वर्ष बाद ,
इतिहास के हरे पन्नो से,
उठकर पुनः खड़े है ,
उतबी, अलबरूनी, सुबुक्तगीन ,
पश्चिम से आती आवाज हुई तेज,
दीन दीन दीन ।
डूबते सूरज का बदला रंग,
क्या कहा भगवा ?
नही नही हरा जैसे भंग !
पश्चिम के पथ पर ,
धूल धुंध का गुबार ,
तेल की संड़ाध ,
दुर्निवार दुर्निवार, दुर्निवार ।
क्या कहा अरबी अश्व ?
नही नही मानव पर मानव सवार ,
दूर दजला नदी के उस पार,
रेतीली बंजर भूमि के वे भूप ,
नही जल के तेल के वो कूप ,
उड़ रही मनुष्यता बन भाप ,
धर्म सम्मत कौन सा अभिशाप ?
लड़ेगा, अड़ेगा इनसे कौन ?
ब्राहाम्ण शाही वंश ,
जयपाल , आनंदपाल या त्रिलोचनपाल !
बनाकर विरोधी राजाओं का संघ,
विचार और मन से न अभंग ।
रुकेगा क्या जेहादी गजनवी?
बात यूँ तो कुछ न बनी !
गिरते जायेंगे मंदिरों के शिखर ,
भंज होंगे पूज्य कुछ पत्थर ।
ढहते जायेंगे दुर्ग और प्राचीर ,
देखते रहोगे दूर से अधीर ।
ध्वंस होगा मथुरा ,सोमनाथ ,
रक्षकों की नपुंसकता से अनाथ ।
रिक्त होंगे कोष, वीरान बाजार ,
रक्त से होगा धरा श्रृंगार ।
दो दो टके में बिकेंगी,
दुख्तराने हिन्द गजनी के द्वार ।
तुम्हारे ये प्रवाद और प्रपंच,
प्रभावित करेंगे क्या उन्हें रंच ?
तुम्हारे प्रगतिशील सरोकार,
एकांगी छल यह मानव अधिकार।
भांति भांति की निरपेक्षता,
मार्क्स का द्वन्द,
आइंस्टीन की सापेक्षता ,
यथार्थवादी सोच
प्रगतिशीलता की मजार,
क्या न तब होगी जार जार ?
सोमनाथ के पंडो सी बुद्धिशीलता,
भग्न करा देगी अंततः स्वयम्भू लिंग ।
क्योंकि वहाँ नही कोई अशोक,
न है कोई कलिंग!
बामियान की टूटी बुद्ध मूर्ति की तरह,
व्यर्थ ही रहेगी तुम्हारी जिरह!
व्यर्थ रहेगी अर्थ की गवेषणा,
मार्क्सवादी साम्य की एषणा!
देखो सुनो उनकी गर्जना,
रोकती कब उन्हें कोई वर्जना।
मनुष्यता के कंठ पर प्रहार,
गाजियों की अपावन तलवार ।
नाक में भर रही बारूद,
बोल कुछ अरे मरदूद!
तुम्हारी यह संकुचित दृष्टि,
बन चुकी है युगों का कष्ट,
घूमता इतिहास का यह चक्र ,
बात सीधी नही है यह वक्र।
– दुष्यन्त दीक्षित
प्रेम पर पाती लिखी जाये और कृष्णा का नाम न आये। वे तो साक्षात् प्रेम का ही प्रतिरूप हैं। उनकी मुरली की रहस्यमयी धुन में तो समूचा जगत ही भावविभोर हो बंधा हुआ है। वृन्दा जी भक्तिमय प्रेमाभिव्यक्ति। अति मनोहर, मधुर
– विनीता राहुरिकर
तुम्हारी सहचारिणी
देख रहे हो क्या मुझको
मै वही तुम्हारी राधा हूँ
प्राण – संगिनी ,देह – जीविनी
मै वही तुम्हारी सांसे हूँ
पीडा – वेदना, दुख – दर्द
मै वही तुम्हारी सहन शीलता हूँ
गीत-गज़ल, सुर- संगीत
मै वही तुम्हारी रागनी हूँ
नृत्य-ताल, रास – रंग
मै वही तुम्हारी नृत्यांगना हूँ
ताल-तलैया, नदियां-सागर
मै ही जीवन जलधारा हूँ
सुखा कंठ-रूखा कपोल
मै वही तुम्हारी प्यास हूँ
बाग-बागीचे, फूल-कांटे
मै वही तुम्हारी महक हूँ
गगन-घन, घटा-बिजली
मै प्रीत भरी बदरियां हूँ
उमसता बदन, बैचेन हृदय
मै वही तुम्हारी ठंडी पुरवइयां हूँ
मिलन-जुदाई, संयोग-योग।
मैं वही तुम्हारी तकदीर हूँ
जिस्म-जां,दिल-धडकन
मै वही तुम्हारी प्रीत हूँ
चल-अचल,सुसुप्त-जागृत
मै वही तुम्हारी नियति हूँ
थल – जल, नभ -धरा
मै वही तुम्हारी विशालता हूँ
बसंत -बहार, पतझड-सावन
मै वही तुम्हारी सृष्टि हूँ
प्रारब्थ -अन्त, अन्नत -नवयुग
मै वही तुम्हारी सहचारिणी हूँ
हाँ मै वही तुम्हारी आत्मा हूँ
मै कहाँ कहा नही हूँ
तू जहाँ जहाँ मै वही हूँ
देख रहे हो क्या मुझको ऐसे
मै वही तुम्हारी जान प्रिय राधा हूँ
मै वही तुम्हारी प्रेम पिपासा हूँ
हाँ मैं ही तुम्हारा सर्वस्व हूँ
– प्रियंका सोनी “प्रीत”
अनादिकाल से लेकर समय की अनवरत बहती धारा में प्रेम अपने शाश्वत रूप में स्थायी है, हर राग हर रँग में सराबोर। हर भाव हर गीत में। सहचर है प्रेम। प्रकृति से लेकर मनुष्य तक।। भावपूर्ण, विश्वास से भरी हुई हर कण में उपस्थित, सुंदर कविता डॉ प्रियंका जी। – विनीता राहुरिकर
आप सबकी इतनी खूबसूरत कविताओं से दिन भर मंच गुलजार रहा। प्रेम ही जीवन की सच्चाई है। जिंदगी में प्रेम नही तो जीना बेकार।अब वक्त आ गया है कि हम अपने अध्यक्ष डॉ सुधीर शर्मा को बुलाएं कि वह हमारी कविताओं पर अध्यक्षीय वक्तव्य दें।आइए सुधीर जी स्वागत है।
-संतोष श्रीवास्तव
अध्यक्षीय वक्तव्य –
आज की शुरुआत डॉ मंजुला श्रीवास्तव की प्रेम कविता से हुई
उन्होंने प्रेम को सृष्टि का आधार कहा। यह कविता प्रेम की परिभाषा गढ़ती है और परंपरा का निर्वाह भी करती है।
अर्चना मिश्र जी ने समंदर में समर्पण की चाह लिए अपने अहसास को सुन्दर स्वर दिया।
इस बीच कुछ समीक्षाओं ने इन दोनों कविताओं का श्रृंगार किया।
फिर आती हैं मधु सक्सेना जी । उन्होंने ग़ालिब, घनानंद और बिहारी को लेकर ग़ज़लों के अल्फ़ाज़ की बात कही। मीना सदाना अरोरा जी ने प्रतिक्षा के बहाने प्रणय का सुन्दर संसार रचा। श्री विजय राठौर प्रेम धन लेकर प्रकट होते हैं और वसुधा के संग प्रेम के मूलाधार को समझाते हैं। इस बीच प्रह्लाद जी गंगासागर में डुबकी लगा बैठे।
महेश दुबे जी ने प्यार के पवित्र रूप को बेटी के प्यार से जोड़कर पूरा घर परिवार समेट लिया।
वर्षा रावल जी ने प्रेम के ऐसे रूप को प्रस्तुत किया जहाँ से अलग होना प्रेमी के लिए संभव् नहीं। अथाह प्रेम का सागर उनके साथ है।
प्रहलाद सोनी जी फिर ग़ज़ल लेकर आये जिसमे अदा इबादत और खुदा भी है तो गंगा भी।
इंटरवेल हुआ और भीमबैठका पर एक कविता मनोज जी ने पोस्ट कर दी। अपनी पुरा सम्पदा से प्रेम।
प्रफुल जी कवि अवतार लेकर प्रकट हुए। जो ग़ज़लों की खुशबु बिखेर गयी। यहाँ भी बाजार है और मंतर के साथ। उनकी दूसरी कविता मुझे ज्यादा पसंद आयी। पूरा वसंत चुपके से चुम्बन में सिमट जाता हो और प्रेम मौसम बन जाता ही, वहाँ सभी की आवाजाही है।
हमारी एडमिन संतोष जी तो प्रेम कविता और कहानी की विशेषज्ञ है ही।
सचमुच प्रेम थमा देता है भरी झोली।
प्रियंका जी प्रेम की परिभाषा प्रकृति में पाती हैं
उनकी दूसरी कविता में अद्भुत सौन्दर्य है।
अनीता जी की कविता कहती है प्रेम आधा याने अधूरा ही रहे तो अच्छा
सही है प्यास और चाहत बचे रहेंगे।
ज्योति गजभिये जी ने गीत के जरिये प्यारे से आलिंगन को पवित्र बना दिया।
वीणा पन्त जी की प्रेम पाती ने वियोग का अनुभव करते मोबाइल में हमें ला पटका।
सही है पति को आज मोबाईल प्रिय है।
अमर जी में भी प्रेम का बीज जगा दिया किसी ने बेचारे।
राजम पिल्लई ने प्रेम के महायुद्ध की ऐसी तस्वीर पेश की जिसमे प्रेम का विद्रोह भी है।
गीता जी, और भूपिंदर जी की हाइकू ने रस परिवर्तन किया।
विनीता जी की कविता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। प्रेम की एक बूंद दुनिया के लिए गुनाह हो जाती है। डॉ प्रीती जयश्री शतम और लताजी की उपस्थिति ने रेखांकित किया।
आशा रावत जी ने प्यार के मर्म को अनुभव कराया।निरुपमा जी की सहज अभिव्यक्ति भी असरदार थी।
चंद्रकला जी, नीता जी ने भी प्रेम के अनेक अहसास से हमें अवगत कराया।
स्नेहलता जी के आध्यत्मिक संसार में मोहब्बत दाल रोटी भी है। सरोज जी, अलका जी, हनुमंत जी ने प्रेम को अपने अपने तरीक़े से अनुभव् किया।
अंत में और लोगो ने भी भागीदारी निभायी।
विनीता जी का सञ्चालन जोरदार रहा।
मुझे आज नया ज्ञानोदय का प्रेम विशेषांक याद आ गया
इस मौसम में प्रेम की इन कविताओं ने गर्मी का अहसास कराया तो प्रेम की गहन आध्यात्मिक अनुभूति का सुंदर संसार भी रचा गया।
बधाई सभी कवियों, समीक्षकों और संचालक को
एडमिन को भी
प्रेम मनुष्य में सांस की तरह है
बंद तो जीवन भी ख़त्म
– सुधीर शर्मा
मेरा प्यार हो तुम
मनुहार हो तुम ।
तुम ही मेरा सपना हो
तुम ही मेरा सच ।
तुम ही मेरी राह हो
तुम ही मेरी मंज़िल ।
तुम्हारी हँसी के फूल
महका देते हैं
मेरी हँसी की चांदनी को ।
तुम्हारी आंखों के दीप
चमका देते हैं
मेरे दृष्टि के आकाश को।
तुम्हारी पेशानी की लकीरें
उभर आती हैं
मेरे दिल के कागज़ पर ।
तुम्हारी चाल की सुस्ती
छाने लगती है
मेरी चेतना पर ।
तुम्हारी प्रसन्नता का रंग
रंग देता है
मेरे व्यक्तित्व को।
तुम्हारे विश्वास की आभा
लपेट लेती है मुझे
और तुममय हुई मैं
तन्मय-चिन्मय की भांति
भूल जाती हूँ अपने आपको
अपने अस्तित्व को ।
– डॉ. सुषमा सिंह