स्मृतियों को धरोहर बनाना अगर किसी को सीखना हो तो रीता जैन से सीखे। फिर यह स्मृतियां तो साझी धरोहर हैं। धरोहर बन चली स्मृतियों की इस नदी में छोटी-छोटी लहरें हैं। छोटी-छोटी बातें हैं। छोटे-छोटे रास्ते हैं। छोटे-मोटे दुःख-सुख हैं। दुःख का भंवर है तो सुख की नाव भी उपस्थित है। बोलती-बतियाती इन स्मृतियों में भारतीय मध्यवर्गीय चेतना का स्वर बहुत मुखर है। बहुत प्रबल है। अनथक संघर्ष और प्रेम पाग में सनी ज़िंदगी की स्मृतियां टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत सहेज कर पाठकों के लिए परोसा है रीता जैन ने।
ऐसे जैसे शबरी एक-एक बेर चख-चख कर अतिथि राम को खिला रही हो। नाऊन काकी से जो पन्ना खुलता है तो लगता है जैसे सिनेमा का कोई पर्दा हमारे सामने उपस्थित हो गया हो। घर का आंगन आता है तो बचपन ठुमकने लगता है। रामलीला आती है और मां जैसी बहन भी। अनजाने ही रोज-रोज दूध में सोंठ की जगह खटाई मिला कर देने वाली , टोकने पर , नखरे मत करिए , पी लीजिए , कहने वाली मासूम देवरानी सुचित्रा , यशोदा बुआ जैसे परिवारीजन भी स्मृति की इस नदी की प्रमुख धारा हैं। ऐसे जैसे किसी गीत-संगीत की तरह यह और ऐसे लोग रीता जैन के जीवन में उपस्थित हैं और रीता जैन , उन के जीवन में। नाना-नानी , माता-पिता , सास-श्वसुर बच्चे , संयुक्त परिवार के लोग स्मृतियां में ऐसे आते-जाते रहते हैं गोया कोई रेलगाड़ी हो , स्टेशन आ रहे हों , जा रहे हों। लोग मुसाफ़िर की तरह मिलते-बिछड़ते जा रहे हों।
रीता जैन की स्मृतियां पढ़ते हुए कई बार महादेवी वर्मा याद आईं। महादेवी भी अपने परिजनों के शब्द-चित्र कहिए , रेखा-चित्र लिख गई हैं। स्मृतियां क्या है , समझिए कि रीता जैन की आत्म-कथा है। बस फ़र्क़ इतना सा ही है कि अपनी कथा रीता परिजनों के मार्फ़त कहती मिलती हैं। जहां आप पहुंचे छलांगे लगा कर / वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे जैसी काव्य-पंक्तियां लिखने वाले हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रामदरश मिश्र की आत्म-कथा अपने लोग की भी याद आती है , रीता जैन की स्मृतियां पढ़ते हुए। रामदरश मिश्र भी अपने लोग में अपनी बात कम , अपने लोगों की बात ज़्यादा करते हैं। अपने लोगों के मार्फ़त ही वह अपनी कथा भी कह जाते हैं। इसी तरह स्मृतियां में रीता जैन भी परिवारीजनों की बात कहते-कहते बहुत आहिस्ता से अपनी बात भी कह जाती हैं। यह आहिस्ता ही रीता जैन की स्मृतियां को ख़ास बना देता है। बताइए कि रीता जी को , अरुण नाम के लड़के से प्रेम भी होता है तो यह बात भी हम उन की सहेली के चिढ़ाने से जान पाते हैं। तब जब कि दोनों गहरे प्रेम में डूबे हुए हैं। लेखन में मर्यादा और गरिमा की ऐसी धज मैं ने दूसरी नहीं देखी।
सामाजिक और पारिवारिक मर्यादा की यह इबारत स्मृतियां में बारंबार उपस्थित हैं। कोई अप्रिय बात भी बड़े निरापद और सर्द ढंग से ऐसे कह दी गई है , जैसे कुछ हुआ ही नहीं। संकोच और शिष्टता की सिलवटें भी स्मृतियां की शिनाख़्त हैं। थाती हैं। स्मृतियां पढ़ते हुए मशहूर अंगरेजी लेखक खुशवंत सिंह की आत्मकथा सच , प्यार और थोड़ी सी शरारत की भी याद आई। याद इस लिए आई कि जो थोड़ी बहुत आत्मकथाएं मैं ने पढ़ी हैं , उन में सब से रोमांचक और ईमानदार आत्मकथा खुशवंत सिंह की ही है।
रीता जैन की स्मृतियों की इस नदी की बड़ी ख़ासियत है कि वह जो भी कुछ लिखती हैं , पूरी ईमानदारी से लिखती हैं। कोई घालमेल , कोई मिलावट , कोई झूठ नहीं। कबीर की तरह सब कुछ जस का तस रख देती हैं। जस की तस धर दीनी चदरिया ! चंद्रकिरन सोनरिक्सा की आत्मकथा पिंजरे की मैना जैसा खरापन भी रीता जैन की स्मृतियां में बांचा जा सकता है। अविकल , अविराम।
लेकिन जब एक पहाड़ सा दुःख रीता जैन पर टूटता है , बेटा मोनू [ विश्रुत ] जब अचानक दुनिया छोड़ जाता है , वह दहल जाती हैं। टूट-टूट जाती हैं। बिखर-बिखर जाती हैं। स्मृतियां में इस पहाड़ से भी विकट दुःख का बिरवा अक्षर-अक्षर में धड़कता मिलता है। लेकिन बेटे का यह विराट दुःख रीता जैन को एक ऐसा काम दे जाता है जो उन की ज़िंदगी का एकमात्र ध्येय बन जाता है। बेसहारा , गरीब लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई और उन की ज़िंदगी को संवारने का काम बिरलों को ही नसीब होता है। रीता जैन को नसीब हुआ है , अपने बेटे के कारण। यह बहुत बड़ी बात है। माता-पिता की सेवा के लिए श्रवण कुमार के क़िस्से हम ने बहुत पढ़े और सुने हैं। अब आगे से बेटे के लिए जीने वाले , माता-पिता का जब भी नाम लिया जाएगा , रीता जैन और अरुण कुमार जैन का नाम सर्वदा लिया जाएगा।
बेटे के लोक कल्याण के लिए शुरू किए गए काम को और आगे बढ़ाने के लिए , बल्कि इसी काम को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लेने वालों में बिरले हैं रीता जैन और अरुण कुमार जैन। अरुण कुमार जैन जैसे पति और पिता भी बिरले होते हैं। रीता जैन इस मामले में सौभाग्यशाली हैं।
उम्मीद करता हूं रीता जैन की स्मृतियों की नदी कभी थमेगी नहीं। मंथर-मंथर , कल-कल करती हुई सर्वदा बहती रहेगी। तब तक जब तक वह सागर से न मिल जाए। बहती रहेगी यादों की नदी इन कागज़ों में। हमारे मन में। कुलांचे मारती हुई। मोनू [ विश्रुत ] देखेगा जब अपने नए महल से यह सब तो कितना तो ख़ुश होगा कि ऐसे माता-पिता तो सिर्फ़ अकेले मेरे हैं। किसी और को कहां नसीब होंगे , ऐसे माता-पिता। रीता जैन अकेली ऐसी मां हैं जो अपने बेटे के विदा होने पर मीरा की तरह झूम कर गाती हैं : छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइ के ! बेटे के उपयोग में आने वाले सभी सामान का संग्रहालय बना कर रखना भी एक नदी है , प्रेम नदी ! भागीरथ की तरह गंगा लाना ही है , बेटे के शुरू किए लोक कल्याण के काम को और आगे , और आगे ले जाना। जननी सर्वदा जग से जंग जीतने वाली होती है। और जो वह जननी रीता जैन नाम की हो तो क्या कहने ! तिस पर अरुण कुमार जैन जैसा सुलझा और सशक्त पिता भी साथ हो तो सोने पर सुहागा !
स्मृतियां के लिए ढेर सारी शुभकामना और अशेष मंगलकामना ! रीता जैन की स्मृतियों की सरिता कभी न रीते। लहर-लहर सर्वदा हिलोरें मारती रहे।
[ स्मृतियां की भूमिका ]
स्मृतियां
लेखिका : रीता जैन
योगदान राशि : 251
प्रकाशक : विश्रुत मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट
सत्या हॉस्पिटल
विश्वास खंड -3 , गोमती नगर , लखनऊ – 226010
साभार https://sarokarnama.blogspot.com/ से