एक ज़माना था जब किसी की रईसियत पर तंज़ कसना होता था तो कहते, ‘तू कौन सा टाटा-बिड़ला है?’ आज हम उसी बिड़ला की बात कर रहे हैं जिसे दुनिया घनश्यामदास बिड़ला (जीडी बाबू) के नाम से जानती है. बिड़ला मारवाड़ी समाज के बनिए होते हैं. गुरचरण दास ने अपनी क़िताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखा है, ‘मारवाडी जिस इज्ज़त के हक़दार हैं, इस देश ने उन्हें उतनी इज्ज़त नहीं बख्शी.’ बावजूद इसके हिन्दुस्तान के व्यापार पर इनका कब्ज़ा होने की कहानी बहुत ही ज़बरदस्त है.
‘मारवाड़’ शब्द ‘मारू’ और ‘वाडा’ के संयोग से बना है. ‘मारवाड़’ का मतलब है ‘मौत की ज़मीन’. यूं तो मारवाड़ राजस्थान के जोधपुर संभाग को कहते हैं पर मारवाड़ी दरअसल राजस्थान के शेखावाटी इलाके से ताल्लुक रखते हैं. मारवाड़ियों के सफल व्यापारी होने पर कई रिसर्च की गयी हैं. थॉमस टिमबर्ग ने तो मारवाड़ियों पर डॉक्टरी की है. उनकी सफलता के कई कारण बताये जाते हैं – जैसे मज़बूत पारिवारिक संगठन, जोख़िम लेने की हिम्मत, पैसे की समझ आदि.
ये सारी बातें सही हैं, पर ज़ोखिम लेना और पैसे की समझ उन्हें कैसे आई? तो इसके पीछे तर्क यह है कि शेखावाटी में जीवन बहुत कठिन है. हर संसाधन की कमी है और सबसे बड़ा संसाधन पानी और भी कम है. मारवाड़ियों ने पानी का संचयन किया और सही तरीक़े से इस्तेमाल किया. संसाधनों को सहज कर रखने की सोच पीढ़ी दर पीढ़ी इनके अंदर रच-बस गयी. इसी सोच से इन्होंने पैसे को सहेजा और सही जगह इस्तेमाल किया.
घनश्याम दास बिड़ला का जन्म पिलानी में हुआ था. उनका खानदानी पेशा पैसा ब्याज पर देना था. शेखावाटी के मारवाड़ी जयपुर रियासत जैसी बड़ी और कई छोटी-मोटी रियासतों के राजाओं को ब्याज़ पर पैसा देते थे. एसएन तिवारी ने अपनी किताब ‘फ्रीडम स्ट्रगल एंड रोल ऑफ़ कम्युनिटीज’ में मारवाड़ियों पर लिखा है कि जब राजाओं को युद्ध लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत होती थी तो शेखावाटी के मारवाड़ी ब्याज़ पर पैसा देते थे. बाद में जब यहां के राजाओं और ठाकुरों ने अंग्रेजों की सरपरस्ती कुबूल कर ली और लड़ाइयां बंद हो गयीं तब मारवाड़ी उठकर उन जगहों पर जा बसे जहां व्यापार की संभावनाएं होती थीं.
बड़े शहर जाकर व्यापार सीखने की मारवाड़ियों की रवायत को घनश्याम दास ने भी निभाया और पिलानी से कोलकाता चले आये. यहां वे नाथूराम सराफ के बनाये हुए हॉस्टल में रहने लगे. उस हॉस्टल में कई और मारवाड़ी बच्चे थे. सब एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा करते और सीखते. 16 साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने अपनी ट्रेडिंग फॉर्म खोल ली और पटसन (जूट) की दलाली में लग गए. पहले विश्व युद्ध में पटसन और कपास की भारी मांग के चलते जीडी बाबू ने खूब मुनाफा कमाया. अंग्रेज़ व्यापारी बिड़ला से नफरत करते थे. उन्होंने पटसन के व्यापार पर एकतरफ़ा कब्ज़ा कर लिया था और यूरोप के कारखानों को ऊंचे दामों पर पटसन बेचते थे. इससे बचने के लिए अंग्रजों ने मुद्रा के विनिमयन को अपने हक में कर लिया तब बिड़ला ने ‘हिंदुस्तान के सोने और स्टर्लिंग की लूट’ की बात कहकर पूरे देश में हंगामा खड़ा कर दिया था. कई बार अंग्रेज कारोबारियों ने उनके व्यापार को बंद करवाने की कोशिशें की पर हर बार नाकाम रहे.
होंसले से लबरेज़ बिड़ला ने तब मैन्युफैक्चरिंग में कदम रखा और 1917 में कोलकाता में ‘बिड़ला ब्रदर्स’ के नाम से पहली पटसन मिल की स्थापना की. 1939 के आते आते ये फैक्ट्री देश की तेहरवीं सबसे बड़ी निजी फैक्ट्री बन चुकी थी. इसी समय जेआरडी टाटा भी हिंदुस्तान के नक़्शे पर उभर रहे थे. एक अनुमान के हिसाब से 1939 से 1969 तक टाटा की संपत्ति 62.42 करोड़ से बढ़कर 505.56 करोड़ (करीब आठ गुना) हो गई थी. उधर घनश्याम दास बिड़ला की संपत्ति 4.85 करोड़ से बढ़कर 456.40 करोड़ यानी करीब 94 गुना हो गयी थी. दोनों ही संपत्ति बना रहे थे पर बिड़ला का मामला दीगर था. उनके साथ न तो कोई पुराना इतिहास था और न ही कोई विरासत. जिस तरह पटसन की दलाली में उन्हें अंग्रेजों से झूझना पड़ा ठीक उसी तरह जब उन्होंने 1958 में हिंडाल्को की स्थापना की तब भी उन्हें अफसरशाही से लड़ना पड़ा.
गुरचरण दास ने लिखा है, ‘…लोगों को लगता कि बिड़ला ने सरकार की बांहें मरोड़कर व्यापार स्थापित किया है. ये लोग ‘हज़ारी कमेटी’ की रिपोर्ट का हवाला देते है जिसमें लिखा है कि 1957 से लेकर 1962 तक बिड़ला ने सरकार द्वारा दिए गए कुल लाइसेंसों में से 20 फ़ीसदी पर कब्ज़ा करके व्यापार में एकाधिकार करने की कोशिश की’. गुरचरण आगे लिखते हैं, ‘ये ग़लत बात है क्यूंकि 1945 में उनके पास 20 कारोबारी कंपनियां थी और 1962 तक बिना किसी सरकारी मदद से उन्होंने 150 कंपनियां बना ली थीं. क्या ये एकाधिकार नहीं था?…’ उस दौर में वे एक से एक बड़ी फैक्ट्री स्थापित करते जा रहे थे और ऐसा कहा जाता हैं कि उन्ही के डर से लाइसेंस राज और एमआरटीपी जैसे एक्ट लगाये गए थे. वह समाजवाद का दौर था जब किसी पूंजीवादी को ज़्यादा उत्पादन करने से रोका जाता था.
बहुत लोगों को लगता है कि उन्हें कांग्रेस सरकार से नज़दीकी का फ़ायदा मिला. हकीक़त यह है कि नेहरु-गांधी परिवार से उनके ताल्लुकात कुछ ज़्यादा अच्छे नहीं थे. 20 अप्रैल, 1953 को उन्होंने नेहरु को एख पत्र लिखा था जिसके कुछ अंश इस तरह हैं – ‘…मेरी कंपनी को कुछ विदेशी प्रस्ताव मिले हैं जिनमे इंग्लैंड की सरकार के साथ ज्वलनशील पदार्थ की फैक्ट्री लगाना और जर्मनी की सरकार के साथ स्टील प्लांट की स्थापना मुख्य है. मेरी उम्र 60 की हो चुकी है. मुझे पैसा कमाने की अब कोई चाह नहीं है. बस इतना चाहता हूं कि उत्पादन बढ़े जिससे देश को फायदा हो. मैं ये जानना चाहता हूं कि क्या हम इन प्रस्तावों पर आगे बढ़ सकते हैं? मुझे सरकार से किसी प्रकार की मदद नहीं चाहिए बस इतना बता दीजिये कि आपकी सरकार इस बाबत क्या सोचती है.’
उन्हें सरकार से कोई जवाब नहीं मिला. जीडी बाबू की गांधीजी, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, लाला लाजपत राय और लाल बहादुर शास्त्री से काफ़ी नज़दीकी रही. नेहरु बिड़ला को संशय की नज़र से देखते थे इसलिए ही नहीं कि वे सरदार पटेल के क़रीब थे पर इसलिए भी कि वे विलायत से पढ़कर आये थे और समाजवाद से प्रेरित थे और जीडी ठेठ देशज और पूंजीवाद के समर्थक. व्यापार के साथ-साथ उन्होंने राजनीति में भी दिलचस्पी थी और 1915 में वे गांधीजी के साथ जुड़ गये थे.
आज़ादी के आंदोलन में जीडी की तीनतरफ़ा भूमिका थी. पहला, उन्होंने पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास के साथ मिलकर ‘फ़िक्की’ की स्थापना की. दूसरा, आज़ादी की जंग में उनसे ज़्यादा धन किसी ने नहीं लगाया. और तीसरा, 1926 में मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय की पार्टी की तरफ से सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में गोरखपुर की सीट से चुने गए थे. गांधीजी ने एक जगह लिखा है – ‘मेरे कई गुरु रहे और उनमे से एक जीडी भी हैं…’ 14 मार्च, 1932 को बिड़ला के लार्ड टेंपलवुड को लिखे पत्र का मज़मून कुछ इस प्रकार है, ‘…सर , मैं आपको भरोसे का व्यक्ति मानता हूं लिहाज़ा मेरा फ़र्ज़ है कि आप मेरे बारे में जाने. मैं गांधीजी का अनुयायी हूं और एक तरह से उनका ‘प्रिय’ भी हूं. मैंने उनके आंदोलनों में आर्थिक सहायता की है. हालांकि मैंने कभी ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन में सक्रिय भाग नहीं लिया पर सरकार की नीतियों का घोर आलोचक हूं और इसलिए सरकारी तंत्र में मुझे पसंद नहीं किया जाता…’
बावजूद इसके, 1940 में जब ब्रिटेन की महारानी मैरी हिंदुस्तान आयीं तब लार्ड वावेल देश के कुछ नामचीन लोगों से उन्हें मिलवाना चाहते थे. नेहरु ने टाटा का नाम सुझाया था. हालांकि वावेल मारवाड़ियों से ज़्यादा प्रभावित नहीं थे, पर उनकी नज़र में रानी मैरी को बिड़ला ज़्यादा दिलचस्प लगने वाले थे. वावेल लिखते हैं, ‘…मैं समझता हूं कि रानी को टाटा की बनिस्पत बिड़ला ज़्यादा दिलचस्प लगेंगे. इनके पास काफ़ी कुछ कहने को हैं. आप चाहे मारवाड़ियों के तौर-तरीकों के बारे में कुछ भी कहे पर भोजन पर रानी के साथ बिड़ला की बातचीत रानी को पसंद आएगी…’
मेधा कुदसिया ने जीडी बाबू की जीवनी लिखी है. इसमे उन्होंने शास्त्री और बिड़ला के संबंधों का ज़िक्र किया है कि शास्त्री चाहते थे कि बिड़ला देश में औद्योगिक क्रांति लेकर आयें. शास्त्री चाहते थे कि सरकार का चेहरा तो समाजवाद का ही रहे पर भीतर ही भीतर आर्थिक सुधार की प्रकिया भी शुरू हो. गुरचरण दास लिखते हैं कि जो सुधार 1991 में लाये गए थे वे अगर 1965 में लागू हो जाते तो देश का चेहरा कैसा होता! आप को जानकार हैरत होगी कि बिड़ला दुर्गापुर में स्टील प्लांट की स्थापना करना चाह रहे थे और वहां पैसा भी काफी लगा दिया था. फिर न जाने क्या हुआ कि नेहरु ने उनसे यह छीन ले लिया और सरकार ने उस प्लांट की स्थापना की. जीडी बाबू ने इस बात पर कभी नेहरु को माफ़ नहीं किया.
जीडी बाबू अपने बारे में कम ही बात किया करते. पर जब कभी कुछ अपने बारे में कहना होता तो अप्रत्याशित बात करने से नहीं चूकते थे. मसलन 80 के दशक में एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे ख़ुद को एक व्यापारी नहीं मानते. जब उनसे पूछा गया कि क्या हिन्दुस्तान में साम्यवाद पनप सकता है तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया. और जब यह पूछा गया कि उन्हें जीवन में सबसे ज़्यादा किसने प्रभावित किया है तो उनका कहना था – ‘गांधीजी और विंस्टन चर्चिल.’
साभार- https://satyagrah.scroll.in से