वर्ष 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जापान, जर्मनी एवं ब्रिटेन अपनी अर्थव्यवस्थाओं को नए सिरे से खड़ा करना शुरू किया, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इन तीनों देशों की अर्थव्यस्थाएं पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गई थीं। उक्त तीनों देशों के साथ ही इजराइल ने भी अपनी भूमि वापिस प्राप्त कर एक नए देश के रूप में विकास की यात्रा प्रारम्भ की थी। भारत ने भी वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, नए सिरे से विकास की राह पकड़ी थी। परंतु, आज लगभग 75 वर्षों बाद जब हम जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, इजराईल एवं भारत के आर्थिक विकास की आपस में तुलना करते हैं तो ऐसा आभास होता है कि भारत, आर्थिक विकास के क्षेत्र में शेष चारों देशों से बहुत पीछे छूट गया है। जापान, जर्मनी, ब्रिटेन एवं इजराईल आर्थिक विकास की दौड़ में भारत से बहुत आगे निकल गए हैं। ये चारों देश आज विकसित अर्थव्यस्थाओं की श्रेणी में शामिल हैं, जबकि भारत अभी भी केवल विकासशील देशों की श्रेणी में ही अपने आप को शामिल कर पाया है।
उक्त वर्णित चारों देशों एवं भारत के आर्थिक विकास में इस भारी अंतर के पीछे कुछ मुख्य कारणों में देश के नागरिकों में राष्ट्रवाद की भावना जगा पाना अथवा नहीं जगा पाना भी एक कारण के रूप में शामिल है। इजराईल एवं जापान के नागरिकों में देशप्रेम की भावना कुछ इस हद्द तक विकसित हुई है कि वे अपने देश के आर्थिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए अन्य किसी विकसित देश की प्रतिस्पर्धा में खड़े हो जाते हैं और उस देश को इस आर्थिक प्रतिस्पर्धा में पीछे भी छोड़ देते हैं। जैसे जापान ने ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में अपने आप को सिद्ध किया है एवं इजराईल ने हथियारों के निर्माण के क्षेत्र में अपने आप को सिद्ध किया है। उक्त क्षेत्र केवल उदाहरण के रूप में दिए जा रहे हैं अन्यथा इन दोनों देशों ने अन्य कई क्षेत्रों में भी सिद्धता हासिल की है। जर्मनी एवं ब्रिटेन ने तो अपनी अपनी भाषाओं पर गर्व करते हुए इसके माध्यम से अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जगाने में सफलता पाई है। इस प्रकार इन चारों देशों ने वैश्विक स्तर पर आर्थिक विकास के क्षेत्र में अपना परचम लहराया है।
दुर्भाग्य से भारत, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जगाने में असफल रहा है क्योंकि भारत में जिस प्रकार की नीतियों को लागू किया गया उससे देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना बलवती नहीं हो पाई एवं “स्व” का भाव विकसित ही नहीं हो पाया। अंग्रेजों एवं विदेशी आक्रांताओं ने अपने अपने शासनकाल में भारत की सांस्कृतिक विरासत पर जो आक्रमण किया था, उसका प्रभाव वर्ष 1947 के बाद भी जारी रहा। जबकि आजादी प्राप्त करने के बाद देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना विकसित कर “स्व” का भाव जगाया जाना चाहिए था क्योंकि भारत की महान संस्कृति के चलते ही भारत का आर्थिक इतिहास बहुत ही वैभवशाली रहा है। भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता रहा है। ग्रामों में हर नागरिक के पास रोजगार उपलब्ध रहता था एवं वे बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव करते हुए ग्रामों में निवास करते थे।
वर्ष 1947 में जब इजराईल को एक नए देश के रूप में मान्यता प्रदान करने की चर्चाएं चल रही थीं उस समय पर ब्रिटिश सत्ता ने इजराईल के नेताओं के सामने एक प्रस्ताव रखा कि चूंकि नए बन रहे इजराईल देश की सीमाएं चारों ओर से आपके दुश्मन देशों (इराक, लेबनान, जॉर्डन, सीरिया, ईजिप्ट) से घिरी रहेंगी ऐसे में अगर वहां आप जाएंगे तो इजराईल के साथ इन देशों का खूनी संघर्ष होगा और खून की नदियां बहेंगी। इस खूनी संघर्ष से बचने का एक तरीका यह निकाला जा सकता है कि आपको इजराईल देश विकसित करने के लिए जितनी भूमि की आवश्यकता है, वह आपको अफ्रीका के क्षेत्र में उपलब्ध करा देते हैं, जहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। चूंकि उस समय पर अफ्रीकी क्षेत्र भी ब्रिटिश सत्ता का ही हिस्सा था अतः यह प्रस्ताव इजराईल के नेताओं के सामने रखा गया था। परंतु, इजराईल के उस समय के नेताओं ने उस प्रस्ताव को नहीं मानते हुए कहा था कि भले ही हमारी वर्तमान जमीन पर रेगिस्तान है परंतु वह हमारे लिए महज जमीन का एक टुकड़ा नहीं है बल्कि हमारे लिए वह मां के समान है हम उसी बंजर भूमि को विकसित करेंगे चाहे भले ही हमारे दुश्मनों द्वारा हमें लगातार परेशान किया जाता रहे। यहूदियों को इजराईल से अलग नहीं किया जा सकता अतः हमें तो हमारी अपनी मातृभूमि ही वापिस चाहिए। इतिहास गवाह है आज इजराईल विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा है, उसके नागरिकों ने सभी प्रकार की परेशानियों का सफलतापूर्वक सामना करते हुए अपने देश को विश्व में अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है। यह सब इजराईल के नागरिकों में देशप्रेम की भावना को विकसित करने के कारण ही सम्भव हो पाया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में भी कुछ इसी प्रकार के प्रयास किए जाने चाहिए थे। देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना विकसित कर आर्थिक विकास को गति देने के प्रयास यदि उसी समय पर किए जाते तो आज भारत विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो चुका होता। आज जब भारतीय, अमेरिका एवं अन्य देशों में वहां की वैश्विक स्तर की सबसे बड़ी कम्पनियों के मुख्य कार्यपालन अधिकारी के पदों तक पहुंचकर भारत का नाम रोशन कर रहे हैं और विश्व के कई देशों को विकसित देशों की श्रेणी में लाने में अपना सफल योगदान दे रहे हैं तो यही देशप्रेम की भावना यदि भारत में ही नागरिकों में पैदा की जाय तो हमारे नागरिक भी भारत को आर्थिक दृष्टि से विश्व में एक आर्थिक ताकत के रूप में स्थापित कर सकते हैं।
हालांकि अब वर्ष 2014 के बाद से भारत में केंद्र में श्री नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद से इस ओर प्रयास प्रारम्भ कर दिए गए हैं और उसी समय से भारत के आर्थिक विकास में कुछ गति भी आई है और अब तो पूरा विश्व ही भारत की ओर बहुत ही आशावादी नजरों से देखने लगा है क्योंकि विकसित देशों में भी उनके द्वारा आर्थिक विकास के लिए अपनाए गए पूंजीवादी मॉडल में जो समस्याएं (मुद्रा स्फीति, नागरिकों के बीच लगातार बढ़ रही आय की असमानता, बेरोजगारी एवं लगातार बढ़ रहा बजटीय घाटा, आदि) उग्र रूप धारण करती जा रही हैं एवं उनका कोई भी हल इन देशों को दिखाई नहीं दे रहा है। अतः अब ये देश भी भारत की ओर इसका हल निकालने के लिए आशावादी नजरों से देख रहे हैं।
लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक भारत आर्थिक रूप से एक समृद्धिशाली देश था और भारतीय नागरिकों को जीने के लिए चिंता नहीं थी एवं इन्हें आपस में कभी भी स्पर्धा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। देश में भरपूर मात्रा में संसाधन उपलब्ध थे, प्रकृति समस्त जीवों को भरपूर खाना उपलब्ध कराती थी अतः छल-कपट, चोरी-चकारी जैसी समस्याएं प्राचीन भारत में दिखाई ही नहीं देती थीं। उस समय समाज में यह भी मान्यता थी कि हमारा जन्म उपभोग के लिए नहीं बल्कि तपस्या का लिए हुआ है। अतः प्रकृति से जितना जरूरी है केवल उतना ही लेना है एवं उत्पादों का उपभोग संयम पूर्वक किया जाता था। न केवल मानव बल्कि पशु एवं पक्षियों के जीने की भी चिंता भारतीय दर्शन में की जाती रही है। अतः आज केवल भारत ही “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना को साथ लेकर आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है, इसी कारण से पूरा विश्व ही आज भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है।
प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
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