दिल्ली चुनाव देश में एक बड़ा मुद्दा बन गया है |दिल्ली की सत्ता का स्वाद भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के अलावा आप भी चख चुकी है| अब तीनों ही दल किसी तरह दिल्ली की सत्ता हासिल करना चाहते हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल हिन्दू-मुसलमान की राष्ट्र तोड़ने की बहसों में जनता को उलझाए रखना चाहते हैं, लेकिन वे वायु-जल प्रदूषण जैसी समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, समाधान की कोई रोशनी नहीं दिखा रहे हैं। अब आम जनता भी इन बहसों से ऊब चुकी है और इस चुनाव में अपने असली जीवन रक्षक मुद्दों पर बात करना चाहती है।चुनाव में वायु एवं जल प्रदूषण ही जीत-हार का माध्यम बनना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से एक है। हालांकि वायु प्रदूषण पूरी दुनिया, खासकर तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक बड़ी समस्या बन गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की वायु प्रदूषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 93 प्रतिशत बच्चे प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं। पांच साल से कम उम्र के 10 बच्चों की मौत में से एक बच्चे की मौत प्रदूषित हवा की वजह से हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वायु प्रदूषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर जारी इस रिपोर्ट के अनुसार 2016 में, वायु प्रदूषण से होने वाले श्वसन संबंधी बीमारियों की वजह से दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 5.4 लाख बच्चों की मौत हुई है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में बीमारियों को बढ़ावा देने और असमय मौतों के लिए वायु प्रदूषण को तंबाकू उपभोग से भी अधिक जिम्मेदार पाया गया है। विश्व की 18 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है, जिसमें से 26 प्रतिशत लोग वायु प्रदूषण के कारण विभिन्न बीमारियों और मौत का असमय शिकार बन रहे हैं।
कैसा विचित्र राजनीतिक चरित्र निर्मित हो रहा है कि इस ज्वलंत एवं जानलेवा समस्या पर भी राजनीतिक दल एक दूसरे पर इसका दोष मढ़ने के प्रयास कर रहे हैं, समस्या की जड़ को पकड़ने की बजाय इस तरह के अतिश्योक्तिपूर्ण आरोपों को किसी भी रूप में तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सबसे दुखद यह है कि प्रदूषण जैसे मुद्दे को भी राजनीतिक रंग दिया जा रहा है और इसी पर वोटों के राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने की कोशिशें की जा रही हैं। असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण एवं प्रकृति को हो रहे नुकसान का मूल कारण सरकारों की गलत नीतियां हैं। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी है। लोगों ने दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनीं, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम व्यवस्था। यह विडम्बना ही है कि खेती की जमीनों का अधिग्रहण कर-करके बड़े शहर आबाद किये जाते हैं और इनके आबाद हो जाने के बाद उसे ही असभ्य कह कर दुत्कार दिया जाता है।
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