ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना के प्रथम दो मन्त्रों की व्याख्या के पश्चात् हम परमपिता परमात्मा की निकटता पाने की आवश्यकता को अनुभव करने लगे हैं | इसे तृतीय मन्त्र को समझने से हमें और भी बल मिलता है | यह मन्त्र यजुर्वेद के २५ वें अध्याय के अंतर्गत आया है | मन्त्र अवलोकनीय है :-
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: | यस्य
च्छायाSSSƧमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम || यजु. २५.१३ ||
इस मन्त्र का अर्थ स्वामी दयानंद जी के शब्दों में इस प्रकार किया गया है यथा” जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा जिसकी सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं, और जिसका प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं ,जिसका आश्रय ही मोक्ष सुख का दायक है | जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दु:ख का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप ,सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अंत:करण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
स्वामी जी द्वारा मन्त्र के किये गए भाव के आलोक में हम मन्त्र को विशाल रूप में इस प्रकार समझ सकते हैं :-
१ . आत्मज्ञान का दाता :- इस संसार का प्रत्येक प्राणी ईश्वर की सहायता के बिना अपने आप को समझ नहीं पाता | अत: स्वयं को समझने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है | यह आत्मज्ञान हम तब ही पा सकते हैं , जब हम ईश्वर के निकट अपना आसन लगा कर , उसकी स्तुति रूप प्रार्थना करते हैं |
२ . शरीर ,आत्मा और समाज के बल का देनेहारा :- परमपिता परमात्मा ने ही माता के गर्भ में हमारे शरीर की रचना की है और इस में आत्मा का आघान किया है | इतना ही नहीं उस प्रभु ने ही हमारे उपभोग के लिए सुगन्धित , रोगनाशक और बलवर्धक वनस्पतियों और मेवों का निर्माण किया है | इनका उपभोग करके हम बलवान् होते हैं और एक समूह का निर्माण करते हैं , जिसे समाज कहते हैं | इस कारण ही हम नित्य उसकी प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं |
३ . जिसके सब विद्वान् लोग उपासक :- इस आत्मज्ञान को देने वाले प्रभु को जनसाधारण तो स्मरण करता ही है किन्तु विद्वान् विशेष रूप से उसकी निकटता को पाने के लिए सदा ही उसकी प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं |
४ . जिसकी शिक्षा को मानते हैं :- केवल उसकी स्तुति ही नहीं करते अपितु उस परमपिता की उन सब शिक्षाओं को भी मानते हैं , जो परमपिता ने अपने आदि ज्ञान अर्थात् वेद में दे रखी हैं | इन वेदों का वह स्वाध्याय करते हैं और इन शिक्षाओं पर मनन चिंतन करके अपने जीवन का भाग बनाते हैं |
५ . जिसका आश्रय ही मोक्ष सुख का दायक :- इस प्रकार परमपिता परमात्मा की शिक्षाओं को पालन करने के लिए हम उस प्रभु के आश्रय में जाते हैं | उस का यह आश्रय ही हमारे लिए मोक्ष रूपि सुखों को देने वाला होता हैं | इस लिए हम उस प्रभु की प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं |
६ . भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दु:ख का हेतु :- ऊपर बताया गया है कि प्रभु स्मरण से ही मोक्ष रूपि सुख मिलता है | यहाँ इसके उलट बताया है कि जो लोग उस परमपिता का स्मरण नहीं करते वह शीघ्र ही मृत्यु अथवा मृत्यु जैसे घोर दु:खों को पाते हैं | इन दु:खों से बचने के लिए ही हम नित्य प्रति नियम पूर्वक उस प्रभु की प्रार्थना रूप उपासना करते हैं |
७ . सुखस्वरूप :- परमपिता परमात्मा सुखस्वरूप होने के कारण सदा सुखों को बांटता रहता है किन्तु देता उसी को है जो सच्चे मन से उसको स्मरण करता है | बस इन सुखों को पाने के लिए हम नित्य प्रति उस प्रभु की प्रार्थना रूप उपासना करते हैं |
८ . सकल ज्ञान का देनेहारा :- परमपिता परमात्मा का दिया ज्ञान वेद के नाम से जाना जाता है | अत: इस ईश्वरीय ज्ञान का स्रोत हमारा प्रभु ही है | इस ज्ञान को पाने के लिए हम नित्य स्वाध्याय करते हैं और अपने जीवन को सफल बनाने का नित्य यत्न करते हैं | इस प्रकार के सकल ज्ञान को देने वाले प्रभु की हम नित्य प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं |
९ . आत्मा और अंत:करण से उसकी आज्ञा पालन करें :- इस प्रकार जो प्रभु हमें सब प्रकार के सुखों को , शिक्षाओं को , धनों को देने वाला है | उसका धन्यवाद करना हमारा कर्त्तव्य हो जाता है | इस कारण ही हम नित्य प्रति उस प्रभु के चरणों में बैठकर उसकी प्रार्थना रूप स्तुति करते हैं |
डॉ.अशोक आर्य
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