असम के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों से अंग्रेजों ने कहा था कि यदि तुम्हें विवाह करना है तो ईसाई बनना पड़ेगा। पर ये लोग अंग्रेजों के सामने नहीं झुके और बिना विवाह आपसी सहमति से पति-पत्नी के रूप में रहने लगे। अब कुछ संगठनों ने इन लोगों का विवाह करवाना शुरू किया है।
आज उन्हें (सत्यप्रकाश मंगल को) उस महिला का नाम याद नहीं है, लेकिन घटना पूरी तरह से याद है। लगभग तीन साल बाद भी वे उसके बारे में बताते हुए पूरी तरह से रोमांचित हो उठते हैं। उनकी आंखों में चमक आ जाती है और वे उस दु:खद घटना में छिपी सुखद अनुभूति को छिपा नहीं पाते। वे बताते हैं, ”असम के ही एक जिले की घटना है। हमारे कार्यकर्ताओं को सूचना मिली कि 70 साल की एक बुजुर्ग महिला के पति का देहांत हो गया है। वे लोग सांत्वना देने उनके घर चले गए। उन लोगों ने उस बुजुर्ग महिला को सांत्वना दी तो उसे कुछ अटपटा-सा लगा। वह दु:खी तो थी लेकिन उसके चेहरे पर एक प्रकार का संतोष भी था। जब कार्यकर्ता दु:ख प्रकट करने लगे तो उसने रोकते हुए कहा, ”बेटा जिनको जाना था वे चले गए। मर तो हम पहले भी रहे थे लेकिन वह मौत मनुष्यों की तरह नहीं थी। हम मरते भी थे तो भेड़-बकरियों की तरह। लेकिन आज मुझे इस बात का संतोष है कि मैं उनके साथ कुछ दिन ही सही, सुहागिन की तरह रही। अब मैं उनकी विधवा हूं, यही मेरे लिए संतोष की बात है।”
विधवा होना किसी के लिए संतोष की बात कैसे हो सकती है? लेकिन उस बुजुर्ग महिला के लिए यह संतोष की बात थी। अपने जीवन के 70 साल में उसने अधिकांश समय जिसके साथ बिताया वह उनकी विधवा भी नहीं हो पाती, अगर सालभर पहले उसकी शादी न हो जाती। लेकिन उसे इस बात का संतोष है कि अब वह अपने पति की आधिकारिक विधवा है। उसके माथे का सिन्दूर भले ही मिट गया, लेकिन सौभाग्य का वह सिन्दूर उसके माथे पर सौभाग्य की निशानी जरूर छोड़ गया है।
असम के करीब 10 जिलों में सौभाग्य का यही सिन्दूर अब हजारों माथों पर चमक रहा है। शेष भारत के लिए भले ही यह बहुत अटपटा-सा लगे, लेकिन असम में ही करीब 60,00,000 लोगों का ऐसा समुदाय है जो कि दो साल पहले तक विवाह नहीं करता था। ऐसा नहीं था कि ये लोग विवाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन बहुत पहले, करीब 200 साल पहले जब उन्हें उत्तर भारत के अलग-अलग राज्यों से बांधकर चाय के बागानों में काम करने के लिए असम लाया गया था, तब अंग्रेज शासकों ने उनके सामने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी थी। विवाह करना है तो ईसाई बन जाओ, वरना हम तुम्हारे विवाह को मान्यता नहीं देंगे। शेष भारत में ऐसा होता तो शायद बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि विवाह सरकारी कार्य नहीं, बल्कि सामाजिक संबंध है। लेकिन असम में उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान आदि राज्यों से मजदूर बनाकर लाए गए लोगों के लिए यह अविवाहित रहने का आदेश साबित हुआ। इन लोगों ने अविवाहित रहना स्वीकार किया, लेकिन ईसाई नहीं बने।
ऐसे में करीब 200 साल पहले उस समाज में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की शुरुआत हुई। लोग एक-दूसरे के साथ रहना शुरू कर देते और बस हो गई शादी। उस शादी को आज भी कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है, क्योंकि इसके किसी प्रकार का सामाजिक व्यवहार संपन्न नहीं होता था और ये लोग अदालत जाकर शादी नहीं करते। ऐसे में एक दिन दिल्ली में रहने वाले सी.ए. सत्यप्रकाश मंगल वहां पहुंच गए। और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक अभियान, सेवा भारती और सत्यप्रकाश मंगल की संस्था ‘सेवायन’ ने मिलकर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रह रहे इन लोगों का विवाह अभियान शुरू करवाया। 2016 में शुरू हुआ यह अभियान अब हर साल संपन्न होता है और एक ही मंडप में सैकड़ों लोग परिणय सूत्र में बंधते हैं और अपने संबंधों को सामाजिक मान्यता प्रदान करते हैं। इसमें दादा-दादी की उम्र के लोग और कभी-कभी तो पोते-पोती तक एक ही मंडप में परिणय सूत्र में बंधते हैं।
सत्यप्रकाश बताते हैं कि इसकी शुरुआत बड़े चमत्कारिक ढंग से हुई। उनके दो बेटे हैं, कोई बेटी नहीं है। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे भी कन्यादान करें। एक दिन उन्होंने वृन्दावन में एक संत विद्यापावन जी महाराज से अपनी इच्छा प्रकट की। विद्यापावन जी महाराज ने उनसे कहा, ”अरे! तुम्हें तो 16,100 कन्यादान करने हैं, कहां एक कन्यादान के लिए परेशान हो रहे हो।” मंगल बताते हैं कि महाराज जी की बात सुनी तो जरूर लेकिन भरोसा नहीं हुआ। उन्हें लगा कि महाराज ने उनकी बात टाल दी। लेकिन इस घटना के करीब पांच साल बाद असम के होजाई में संघ शिक्षा वर्ग लगा था। वहां सत्यप्रकाश भी मौजूद थे। वर्ग में आए सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने बातचीत में उनसे वही बात कही जो पांच साल पहले विद्यापावन जी महाराज ने कही थी। श्री भागवत ने उनसे कहा कि मंगल जी आपको तो 16,100 कन्यादान करना है। अब मंगल को लगा कि कोई तो संकेत है जो बार-बार उन्हें प्राप्त हो रहा है। फिर वहीं पर उनके सामने इन 60,00,000 अविवाहित लोगों की बात आई।
मंगल बताते हैं कि इसके एक साल बाद फरवरी, 2016 से यह मंगल कार्य प्रारंभ हो गया जो अनवरत जारी है। सत्यप्रकाश और उनकी पत्नी दोनों ही अब 18-20 साल के नौजवानों से लेकर साठ साल की बूढ़ी महिला के कन्यादान का कार्य संपन्न करते हैं और अपने आपको धन्य समझते हैं। 8 फरवरी, 2016 को असम के गोलाघाट जिले में उन्होंने पहला आयोजन किया था जिसमें वे ब्रज से स्वामी अमृतानंद को लेकर गए थे। वहां सिर्फ यह घोषणा करवाई गई थी कि ब्रज से कोई संत आ रहे हैं और बड़ी संख्या में लोग उन्हें देखने-सुनने के लिए आए और यह सौभाग्यदान कार्यक्रम शुरू हुआ।
उनके इस कार्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने कदम-कदम पर प्रेरित किया और मार्गदर्शन करने के साथ-साथ में आने वाली बाधाओं को दूर करने का कार्य किया। आज न सिर्फ असम के 10 जिलों में चाय के बागानों में काम करने वाले इन अविवाहित लोगों के विवाह का इंतजाम संघ परिवार की तरफ से किया जाता है, बल्कि विवाह के वक्त उनको सौभाग्य मंजूषा भी प्रदान की जाती है जिसमें वस्त्र और घरेलू सामान होता है। इसके साथ ही विवाह के कुछ महीनों बाद भंडारे और भजन का आयोजन होता है, जिसमें विवाहित जोड़ों को सामाजिक मान्यता दिलाई जाती है।
सत्यप्रकाश बताते हैं कि जब समाज ने यह पहल की तो अब सरकार भी आगे आई है। राज्य सरकार ने चाय बागान में काम करने वाले इन लोगों के लिए 300 विद्यालय खोलने का प्रस्ताव तैयार किया है। वे बताते हैं कि अभी तक क्योंकि आधिकारिक रूप से पिता का नाम ही नहीं मिलता था इसलिए सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधा भी प्रदान नहीं कर पाती थी। लेकिन अब विद्यालय के प्रस्ताव के साथ-साथ महिलाओं की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देने की योजना बन गई है।
आज भले ही यह अटपटा लग रहा हो कि एक ही विवाह मंडप में मां अपने बच्चे को गोद में लेकर सौभाग्य का सिन्दूर धारण करती है, लेकिन अगले कुछ वर्षों में यह सब सामान्य हो जाएगा। तब ये अविवाहित जोड़े समाज में शायद कोई भी बिना विवाह के ‘लिव इन रिलेशन’ में रहने को अभिशप्त नहीं होंगे। इस अभियान की तारीफ हर कोई कर रहा है।
(लेखक विस्फोट डॉट कॉम के संपादक हैं)
साभार https://www.panchjanya.com// से