जब मैं छोटा था तब स्कूल में एक व्यक्ति ने धूम्रपान पर भाषण दिया था। वह भाषण इतना जबरदस्त था कि बाद में कई वर्ष तक मैं यही सोचता था कि दुनिया की सभी समस्याओं की जड़ धूम्रपान ही है। मेरा मानना था कि जिस दिन धूम्रपान समाप्त होगा, संसार स्वर्ग हो जाएगा। यद्यपि वह मेरा एकांग और अधूरा निष्कर्ष था। भारत के अभ्युदय के लिए अनेक विचार मैदान में तैर रहे हैं।
जैसे-एक कहता है कि देश में यदि भागवत कथा की स्थापना हो जाये तो परम् वैभव आएगा। दूसरा कहता है जिस दिन मूर्तिपूजा समाप्त होगी, सब ठीक हो जाएगा। तीसरा कहता है जिस दिन शासन-प्रशासन शंकराचार्य जी को पूछकर काम करेगा, सब ठीक हो जाएगा। चौथा कहता है जिस दिन हमारी जाति को मुख्य दायित्व मिलेगा, देश के सभी संकटों की मुक्ति होगी। ऐसे अनेक प्रवाद हैं। और सबको लगता है कि हमारी बात नहीं चलती, संघ की बात चलती है। इसलिए यदि हमारा निष्कर्ष, हमारी बात, जो कि सच्ची है, संघ अपना ले तो देश का जल्दी से जल्दी कल्याण होगा। संघ परिवार बहुत बड़ा हो चुका है। बड़ा और प्रभावशाली भी।
यहाँ तक का मार्ग उसने किसी शॉर्टकट या सस्ती लोकप्रियता से तय नहीं किया है, तप और सहनशीलता के साथ आगे बढ़ा है। 1925 में कोई व्यक्ति स्वयं को हिन्दू कहने तो क्या मानने में भी शर्म महसूस करता था। वहाँ से लेकर आज जबरदस्त आक्रामक पुनर्जागरण के समय तक पहुंचने में बहुत धैर्य, संयम, साथ लेकर चलने की अद्भुत कसरत की आवश्यकता थी। संघ इस पर खरा उतरा और आज उसका काफी नाम है। भारत जैसे देश में, जहां विचार के नाम पर सगे भाई भी आजीवन मुँह फेर कर बैठे रहते हैं, जहां वेश, खान पान, परम्परा, मान्यता, आस्था और जीवनशैली के इतने रंग है कि एकात्मकता का सोचने मात्र से ही व्यक्ति को बीपी सुगर हो जाये, संघ ने इस भागीरथ चुनौती को अपने हाथ में लिया।
संघ के लक्ष्य को जानकर उसे “अच्छा” लेकिन “असम्भव” मानने वालों में महात्मा गांधी, डॉ आंबेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर और वल्लभ भाई पटेल शामिल हैं। अपने शैशव काल से ही संघ को दुर्जनों की प्रताड़ना तो सहनी ही पड़ी, सज्जनों की भी उपेक्षा, व्यंग्य, प्रहसन और ईर्ष्या का सामना करना पड़ा है। संघ ने बदले में अपने हिन्दू समाज या देशवासियों से कभी शिकायत नहीं की। चार कपड़े, रूखा सूखा भोजन और भूतहा खंडहरों में #संघकार्यालय के बल पर उन्होंने देश के चारों कोनों में, सभी समाजों में, सभी वर्गों में अपनी बात पहुंचा ही दी। उसने अपने कैशोर्य में ही भयंकर दमन, प्रतिबंध, झूठे इल्जाम और “ये कौन है!” के अभिजात्य व्यंग्यबाणों को सहा है। जिस समय संघ के कार्यकर्ता सूखी रोटी पर पानी छिड़क कर चबाते हुए मस्ती से कबड्डी खेल रहे थे, कांग्रेस की तूती बोलती थी।
आज उस कांग्रेस के क्या हाल है? जिस समय उसकी शाखा पर एक अधेड़ के साथ दस बारह किशोर बालक किसी मैदान में दक्ष-आरम के उबाऊ और अपरिचित एक्शन कर रहे थे, उससे पहले आरम्भ हुए आर्य समाज, हिन्दू महासभा, धार्मिक महापीठ, बड़े राजघराने, ऊंचे धार्मिक प्रतिष्ठान इतने समर्थ और शक्तिशाली थे कि वे चाहते तो देश की धारा को आराम से मोड़ सकते थे लेकिन वे सभी राजनीति या अन्य भौतिक कलहों में निस्तेज होते रहे।
संघ के यौवनकाल में, आज से 40-50 बरस पहले भी स्थिति यह थी कि एक जिले में उसकी दो से पांच शाखाएं थीं और पन्द्रह बीस कार्यकर्ताओं की टोली। आप उस समय की आज से तुलना कीजिए। हिन्दू समाज यह मानने को ही तैयार नहीं था कि उसके साथ कोई छल हुआ है। 1990 में, जब मैं एक शाखा का कार्यवाह था और एक जिला स्तर के शिक्षा अधिकारी के पास इसलिए गया कि वे रक्षाबंधन कार्यक्रम में अध्यक्षता करें, उनसे निवेदन किया। उन्होंने मेरी आयु देखी जो 15 वर्ष रही होगी। फिर उन्होंने मुझे बहुत मीठे शब्दों में एक घण्टा तक यह भाषण दिया कि तुम्हें इन फालतू चीजों से दूर रहना चाहिए और अपनी पढ़ाई पर ध्यान देकर विधवा माँ की सेवा करनी चाहिए।
उन्होंने प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा के नायक के पिता, वृद्ध मुंशी की तरह मुझे अनेक प्रलोभन दिखाए और दुनियादारी की बहुत सारी #कीमती_नसीहतें दीं। और अंत में कार्यक्रम में नहीं आने का तो ऐसे कहा जैसे मैं कोई जेल से छूटा अपराधी हूँ और उन्हें डकैती के लिए कहने आया हूँ। आप कल्पना कर सकते हैं कि स्थिति कैसी थी? आज उन शिक्षा अधिकारी का पोता धड़ाधड़ मेरी पोस्ट शेयर करता है। उसे बहुत सारी बातें बिना बताए ही समझ आ गई है। जिन बातों को संघ कहता था और जिन्हें पूरा सभ्य समाज “निरी हवा हवाई बातें” कहता था, आज उन बातों को संघ से भी ज्यादा गैर संघी उठाते समझाते देखे जा रहे हैं। 2005 में लव जिहाद जैसी चीज को सबने नकार दिया था, आज हर व्यक्ति इस षड्यंत्र से परिचित हो चुका है। दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ के मरने का कष्ट कम खुशी ज्यादा मनाई गई।
संघ, अर्थात आरएसएस एक सोपान पूरा होते ही रुका नहीं, अगले सोपान पर काम शुरू कर दिया। आज समाज प्रबोधन के विषय लगभग सारा हिन्दू समाज समझ चुका है। अनेक स्वयंसेवक सरकार में उच्च स्थानों पर पहुंच चुके हैं। लोगों की अपेक्षा भी बढ़ गई है। संघ कभी भी अपनी तरफ से कुछ नहीं थोपता। वह #अपनी_चलाने में विश्वास नहीं करता। किसी संगठन, व्यक्ति या समूह की मनमानी नहीं चलेगी। मनमानी चलेगी तो केवल और केवल हिन्दू समाज की। इस मामले में संघ की लाइन बिल्कुल स्पष्ट है। समाज ही ईश्वर है। हिन्दू समाज की समष्टि ही ब्रम्ह है।
संघ ने गत दस वर्षों में एक ऐसे निर्भय वातावरण की सृष्टि कर दी है कि आप अपनी बात सच्चाई से रख सकें। एक कोई इंदुमती काटदडे हैं, उन्होंने भारतीय शिक्षा पर अत्यंत प्रभावी कार्य किया है। सबकुछ अपने बलबूते।
सोशल मीडिया पर ही डॉ त्रिभुवन सिंह ने जातिवाद समझने पर बहुत अद्भुत काम किया है।
युट्यूबर श्री नीरज अत्रि ने इस्लाम समझने में अभूतपूर्व कार्य किया है।
स्वर्गीय राजीव दीक्षित स्वदेशी पर बहुत कुछ देकर गए हैं।
स्वामी रामदेव ने व्यवसायों के भारतीयकरण पर एक उदाहरण पेश किया है।
पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने हिन्दू केंद्रित राजनीति पर अद्भुत चिंतन दिया है।
शंकर शरण ने शत्रु बोध और आत्मरक्षा में अलौकिक उपदेश दिया है।
बहुत सारे काम, निष्कर्ष, उपक्रम मौन भाव से सतत चल रहे हैं।
इन सबका लाभ हिन्दू समाज को मिलेगा।
वातावरण देना, बहुत बड़ी बात है। क्या सही क्या गलत, यह समाज और उसके बुद्धिजीवी ही तय करें। विचार विमर्श करें। आलोड़न विलोड़न करें। राष्ट्र हित का विचार करते हुए और अपने क्षणिक स्वार्थों से ऊपर उठकर विचार करें। जो अमृत निकलेगा वही स्थापित होगा। जो समाज तय करेगा वही होगा। निश्चिंत रहिये, होगा वही जो हिन्दू चाहेगा।
होइहे सोई जो राम रचि राखा।। अपने चिंतन राम को समर्पित कर दीजिए, अवश्य कल्याण होगा।
यह तय है कि हम बिल्कुल किनारे पर पहुंचने वाले हैं।