Tuesday, December 24, 2024
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भय बिनु होय न प्रीत ….?

भारतीय संस्कृति में अक्षर ब्रह्म स्वरूप माने जाते हैं। इसलिये साहित्य कालजयी तथा चिरंजीवी होता है। लेकिन यह भी सत्य है कि समय के साथ – साथ कई कारणों से इसका स्वरूप परिवर्तित होता जाता है। कहते हैं कि एक बात चार्- पाँच व्यक्तियों तक पहॅुंचते – पहॅुंचते पूरी तरह बदल जाती है।

ज़ाहिर है कालान्तर में साहित्य का मूल स्वरूप बहुत कुछ परिवर्तित हो जाता होगा । इस बदलाव के कई कारण हो सकते हैं , यथा – प्रकाशन में त्रृटि, शब्द के अनेकार्थ, समालोचकों द्वारा परिवर्तन, समयानुसार परिवर्तन । ऐसी स्थिति में किसी भी रचना के अर्थ ग्रहण में संदेह होने पर रचनाकार द्वारा लिखित मूल प्रति ही उस संदेह का निराकरण कर सकती हैं। ऐसा नहीं होने पर लोक में अनेक भ्रांतियॉं जन्म ले सकती है , दोषी रचनाकार ही ठहरता है। कई बार तो एक शब्द के अनेकार्थ होने पर भी भ्रांतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

इस संदर्भ में महान् मनीषी,प्रकाण्ड विद्वान गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित सर्वाधिक लोकप्रिय. लोकप्रचलित महान् महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ को लेकर कई संदेह जनमानस में उत्पन्न हो रहे हैं .एकाध उदाहरण से अपनी बात की पुष्टि संभव है।
“ढोल,गँवार, शूद्र, पशु नारी.
सकल ताड़ना के अधिकारी”
प्रस्तुत चौपाई सर्वाधिक विवाद का विषय बन चुकी है। बड़ी – बड़ी सभाओं में विद्वत- जन इसके विपक्ष में अपने मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं एवं तुलसीदास जी को नारी शक्ति का विरोधी घोषित करने में कोई क़सर नहीं छोड़ते। इसी प्रकार ‘सुन्दरकाण्ड’ में सागर – संतरण के प्रसंग में श्रीराम रत्नाकर से लंका गमन हेतु रास्ता देने के लिये तीन दिन तक अनुनय – विनय करते हैं। मगर इसका उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। स्थिति यथावत बनी रहती है। तब श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं—
“विनय न मानत जलधि जड़ , गये तीन दिन बीति
बोले राम सकोप तब , भय बिन होय न प्रीति”

अब हम उपरोक्त चौपाई एवं दोहे ही के संदर्भ में निष्पक्षता से विवेचना करें तो संदेह होना स्वाभाविक है। जहाँ तक भय से प्रीत की उत्पत्ति का सवाल है. बात पूरी तरह गले नहीं उतरती । इस धृष्टता के लिये क्षमा चाहते हुये इतना ज़रूर है कि कहीं न कहीं कोई चूक ज़रूर हो रही है। तुलसीदास जी की प्रस्तुत पंक्ति को श्रीराम के मुखारबिंद से कहलवाने की पृष्ठभूमि में क्या भाव रहा होगा यह पूर्णतः ज्ञात नहीं. लेकिन इतना ज़रूर है कि ‘भय’ से प्रीत की निष्पत्ति होने मे संशय की गुंजाइश अवश्य है । हमारी अल्प बुद्धि को यह बात क़तई स्वीकार नही हो रही।

भला यह बात कैसे गले उतरे कि भय से प्रेम की निष्पति हो सकती है। साहित्य की दृष्टि से भी दोनों विपरीत भाव हैं। एक सकारात्मक़ दूसरा नकारात्मक । मानव मन के दृष्टिकोण से भी यह अनुचित ठहरता है। भय से दुनिया के वे सारे कार्य करवाये जा सकते हैं .जो सम्भवतः प्रेम से असंभव हों। साम ,,दाम, दण्र्ड, भेद से भी शायद न करवायें जा सकें।

बेशक़ भय बहुत बुरी बला है. इतनी बुरी कि इसके मारे भूत भी भागते हैं, फिर आदमी की क्या मजाल कि डर के मारे न भागे । भय तो वह ख़तरनाक भाव है जिसके मारे बर्डे- बडे सूरमाओं तक की कँपकंपी छूटने लगती है। डर के कारण आदमी की बुद्धि तक जड़ हो जाती है। वह कुछ करने की स्थिति में नहीं रहता। ऐसी भयंकर शय से भगवान बचाये। स्थिति स्पष्ट है कि भय से प्रेम का आविर्भाव कैसे संभव है।

प्रेम तो वह सात्विक , दिव्य भावधारा है जो निर्मल हृदय से स्वतः प्रवाहित होती है। प्रेम वह जज़्बा है जो अनायास आविर्भूत होता है, न कि सोच समझ कर किया जाता है। कब, कहॉं, किससे, कैसे, क्यों हो जाता है प्यार ,यह तो ख़ुद प्रेमी मन भी नहीं जान पाता । किसी के भी जीवन में यह क्षण कभी भी आ सकता है और उसके अन्तः स्थल से प्रेम के अनंत प्रकाश पुंज प्रस्फुटित हो सकते हैं और उसका पोर – पोर आलोकित हो उठता है। ऐसा चमत्कारी, अदभुत, क्रांतिकारी भाव है प्रेम| जाहिर है कि जो प्रेम सोच – समझ कर, जान -बूझ कर नहीं किया जा सकता है।फिर भला, डरा धमका कर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है।

महाकवि तुलसीदास जी की इस पंक्ति पर बार-बार विश्वास करने को जी चाहता है मगर अगले ही पल मन नहीं मानता। किसी भी बात को भय दिखा कर अमुक इंसान से बडे से बड़ा काम करवाना मुम्किन है। मगर प्रेम …… प्रेम ही क्या प्रेम का नाटक भी एक बार तो मुश्किल हो सकता है। फिर भी एक दिखावा, छलावा, आडंबर किया जा सकता है। कितनी ही बार किन्ही विवशताओं के वशीभूत होकर आदमी को यह सब तमाम उम्र भी करना पड़ सकता है। हाँ. कभी कभी एक लम्बे अरसे तक बरबस साथ रहने वाले व्यक्तियों मे अनायास,. सहानुभूति, लगाव आदि पैदा हो जाता है लेकिन उसे प्रेम की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कुछ मुआमलों में संगति से स्वतः प्रेम हो भी सकता है मगर यहाँ भय की कोई बात नहीं होती। ऐसे में डर से प्रेम की उत्पत्ति पर प्रश्र्नचिन्ह संभव है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि किसी के दिल में किसी के प्रति थोड़ा बहुत प्रेम हो और उसे किसी बात पर बार बार धमकाया जाये तो प्रेम समाप्त भी हो सकता है। और यदि समाप्त न भी हो तो, कम से कम अप्रकट तो रहेगा ही रहेगा।

रामचरितमानस के प्रसंग में ही इस उक्ति की विवेचना करके देखने से भी यही जाहिर होता है कि श्रीराम के अग्निबाण साधने पर ‘सागर’ भयभीत होकर ही ब्राह्यण का रूप धारण करके भगवान के समक्ष प्रकट होता है। इसके पूर्व तीन दिन तक जगत् नियन्ता श्रीराम समुद्र से करबद्ध होकर श्रीलंका तक मार्ग देने के लिये विनय करते हैं | लेकिन श्रीराम की अनुनय- विनय का उस पर कोई असर नहीं होता। लेकिन अग्निबाण चढ़ाते ही वह श्रीराम के सामने प्रकट होता है। स्पष्ट है कि वह डर के कारण आता है न कि प्रेम के वशीभूत होकर। उसे डर लगता है स्वयं के सूख जाने का. इस से भी ज़ियादा उसके भीतर पलने वाले करोड़ों जीव – जन्तुओं के विनाश का. जिनके पाप का भागीदार वह बनता।

प्रस्तुत चौपाई में ‘जड़’ शब्द का प्रयोग भी उल्लेखनीय है ‘जलधि’ ‘जड़’ है ‘चेतन’ नहीं इसलिये उस पर प्रेम का. विनय का प्रभाव असम्भव है, यह बात गले उतरती है , क्योंकि जड़ होने के कारण विनय का असर नहीं होता है तो भय का प्रभाव भी असम्भव है। साथ ही प्रेम या अन्य कोई भी भाव चेतनशील जीव ही अनुभूत कर सकते हैं |जड- जगत् का इससे कोई वास्ता नहीं है। इसी के साथ अगर हम सागर का लाक्षणिक अर्थ ग्रहण करके उसे ‘जल -देवता’ के रूप में स्वीकार करें तब भी बात स्पष्ट नहीं होती। देवगण भगवान् के आदेश की अवहेलना करने का भी दुस्साहस नहीं करते तो विनय अस्वीकार करने का तो सवाल ही नहीं उठता।

इस प्रसंग में मैंने एक समाचार पत्र में डॉ विजय अग्रवाल का ‘ ‘प्रीत’ का डर से सम्बन्ध” शीर्षक लेख पढ़ा तो चकित रह गई और आश्वस्त भी हुई कि मैंने महाकवि तुलसीदास की इस उक्ति के विपरीत लिखने का जो दुस्साहस किया है वो सही है ……इस से मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ा…..पढिये उन्हीं की जुबानी …….
‘ ……श्री राम के साथ भी वही हुआ ,लंका पहुँचना है | रावण से युद्ध करने के लिए| राम और रावण के बीच लगभग साढ़े बारह सौ किलोमीटर का समुद्र फैला हुआ है | श्री राम ने समुद्र से प्रार्थना की कि रास्ता दे दो|और समुद्र भूल गया कि श्री राम ने उस से कुछ कहा है ……………..कहाँ श्री राम के लिए एक –एक पल कीमती था ……..बस आ गया श्री राम को गुस्सा ……….और अपने धनुष पर अग्निबाण चढ़ाया उन्होंने कि अब मैं इस समुद्र को सुखा ही डालता हूँ । यह देखते ही समुद्र डर गया और हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगते हुए राम की बात मन ली ।….यहाँ रामचरितमानस में एक सिद्धान्त वाक्य आया है ‘भय बिनु होय न प्रीत ‘समुद्र चुपचाप पड़ा था ।श्री राम ने भय दिखाया तब वह लाइन पर आया ।
……….
कहना यहाँ ये है कि जब हम ऐसे वाक्यों को उस के पूरे सन्दर्भ से काटकर इकलौती पंक्ति के रूप में देखते हैं तो उस वाक्य के अर्थ के साथ कभी न्याय नहीं कर पाते। दरअस्ल यहाँ ‘प्रीत ‘का भावार्थ प्रेम से न होकर आज्ञापालन से है । यहाँ जीवन में उपजने वाले प्रेम की बात नहीं हो रही है ।…उस प्रेम की बात हो रही है जिसकी जरुरत प्रशासन में होती है एडमिनिस्ट्रेशन में होती है | इस में कोई दो राय नहीं कि वहां थोडा डर दिखाना ही पड़ता है ।साथ ही इस में भी कोई दो राय नहीं रखनी चाहिए कि जहाँ भय होगा ,वहां सच्ची प्रीत कभी नहीं हो सकती । वाल्मीकि ने इस स्थान पर ‘आदर ‘शब्द का प्रयोग किया है ।

भय से प्रीत का अविर्भाव संभव है. हमारी समझ के तो बाहर है। हाँ, तुलसीदास जी ने लक्षणा द्वारा कुछ अन्य ही तात्पर्य में प्रस्तुत उक्ति को प्रयुक्त किया हो सो अलग बात है। संभव है प्रतीकात्मक भाव रहा हो।

इसी प्रकार “ढौल, गँवार , शुद्र, पशु, नारी चौपाई“ पर भी निरंतर विवाद बना हुआ है। कोई विद्वान ताड़ना को ‘तारना’ मान कर सभी को स्वतः ‘तारने’ यानी संसार सागर – से ‘तर’ जाना, मोक्ष प्राप्ति हो जाना मानते हैं । उनका मानना है कि ताडना की जगह “तारना’ शब्द रहा होगा। कालांतर में प्रकाशन में त्रुटि सम्भव है ।अधिकतर आलोचक तुलसीदास जी को नारी विरोधी सिद्ध कह चुके है। इस चौपाई में अर्थ भंग क्यों हो रहा है, समझ में नहीं आता। हमारे एक मित्र को उनके पिताश्री ने इस चौपाई की व्याख्या करते हुये बताया था कि नारी ‘चड़स’ को खींचने वाली रस्सी को कहते हैं । जब चड़स कुए के ऊपर तक आ जाता है तब उसका पानी बाहर निकालने के लिये उस रस्सी को चड़स चलाने वाले व्यक्ति द्वारा जोर से झटका देना पड़ता है। यानी ‘नारी’ को झटकना पडता है। सम्भव है उपरोक्त चौपाई में ‘नारी’ शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुई हो।

तुलसीदास जी नारी विरोधी हो सकते हैं, यह बात भी मन स्वीकार नहीं करता क्योंकि उन्होंने मानस में सभी नारी पात्रों का पूरे सम्मान एवं प्रतिष्ठा के साथ चित्रण किया है। शबरी भीलनी को श्रीराम के द्वारा इतना प्रेम एवं प्रदान करवाने वाले रचनाकार नारी विरोधी नहीं हो सकते।

अतः ऐसे प्रसंगों पर टिप्पणी करने से पूर्व समालोचकों को मूल ग्रंथ का अवलोकन ज़रूर करना चाहिये। क्योंकि साहित्य के क्षेत्र में ज़रा भी लापरवाही अर्थ का अनर्थ कर सकती हैं जो गम्भीर बात है। यदि कहीं गलत हो रहा है तो सच बात पाठकों के सामने लाना समालोचकों या रचनाकारों का उत्तरदायित्व है ताकि लेखक एवं पाठकों के साथ न्याय हो सके।

“रामचरितमानस तुलनात्मक अध्ययन” नामक पुस्तक पढने का हमे सुअवसर मिला है। इस में अध्यात्म रामायण, पदमचरित , कदम्बरामायण, वाल्मिकि रामायण सहित देश के विभिन्न राज्यों की भाषा में लिखी गई रामायणो का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया। इस अध्ययन में रामकथा की घटनाओं चरित्त्र – चित्रण आदि में इतना विरोधाभास मिला कि हैरान रह गये| असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। कहने का तात्पर्य यही है कि सभी क्षेत्र रचनाकारों, टीकाकारों एवं समीक्षकों के द्वारा पौराणिक आख्यानों में बहुत परिवर्तन हो जाता है।

इसी संदर्भ में एक और विचारणीय बिन्दु है कि ‘भय’ से प्रीत उत्पन्न नहीं होती लेकिन प्रीत होने पर भय जरूर उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि जो हमारा होता है. हमें प्रिय होता है उसे हम हमेशा अपने पास रखना चाहते हैं।इसलिये उसके खोने का. अलग हो जाने का भय हर पल हमें सताता रहता है। संयोग के साथ वियोग संसार का शाश्वत सत्य है। यही सत्य भय की उत्पत्ति का कारण बनता है। साथ ही भय की मात्रा प्रियता की सघनता से जुड़ी होती है। जो वस्तु जितनी प्यारी होगी उसके विलग होने का डर उतना ही अधिक होगा। जाहिर है कि आलम्बन या प्रियतम तो हमे जान से भी अधिक प्रिय होता है. फिर भला प्रेम से अधिक प्यारा तो कुछ हो भी नहीं सकता। अतः प्रीत से भय की निष्पत्ति स्वाभाविक है।

समग्रत , भय से प्रीत का अविर्भाव होता है या प्रीत से भय का जन्म होता है हर प्रसंग की भॉति इस प्रसंग में भी सबका अपना-अपना द्वष्टिकोण , मत , चिंतन – मनन का होना सहज बात है।फिर भी यह बिन्दु गहन विचारणीय है।
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संपर्क
डॉ.कृष्णा कुमारी
चिर उत्सव, सी -368, तलवंडी
कोटा (राज.)- 324005

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