मेरा आध्यात्मिक जीवन तब शुरू हुआ जब मैं उस मुकाम पर पहुंच गया था, जहां पर बहार की कोई चीज में मायना नहीं रखती थी। सब कुछ था मेरे पास: पैसा था, अच्छा परिवार था, शोहरत थी, इज्जत…..जो भी इच्छाएं थीं सब पूरी हो चुकी थी। उस वक्त मैंने यह सोचना शुरू कर दिया कि यह जो चेतना है( कांशसनेस) जिसकी सभी गुरु चर्चा करते है। वह क्या है। तो मैं पुस्तकों की दुकानों में खोजा करता था। किसी पुस्तक में मुझे क्या मिलेगा….
यह किस उम्र में आपकी खोज शुरू हुई?
वैसे तो में आठ साल का था तभी से में साधुओं के पास जाया करता था। किसी को हाथ दिखा था , किसी के पास आंखें बंद करके, ध्यान में बैठ जाता था। फिर मेरी पढ़ाई शुरू हुई, कॉलेज गया तो मेरा यह हिस्सा पीछे की और चला गया। मेरे अंदर ख्वाहिश जाग उठी के मैं अभिनेता बनूं। उस दिशा में मेरे कदम चल पड़े। वह कहानी ताक सबको पता है। फिर जब मेरा कैरियर कामयाब हो गया तो बचपन की वो चीजें फिर वापस आई। मैं एक दुकान में गया और मैंने परमहंस योगानंद की वह मशहूर किताब खरीद ली: आटो बाई ग्राफी आफ एक योगी—एक ही रात में उसे पुरी पुस्तक को पढ़ गया। योगानंद जी की फोटो देख कर मुझे लगा मैं इस आदमी को जानता हूं।
फिर मेरी ध्यान की खोज शुरू हुई। डेढ़ दो साल तक मैंने टी. एम. किया। लेकिन उसमें एक जगह जाकर लगा, अब दिवाल आ गई। थोड़ी बहुत शांति आ जाती है लेकिन उसके बाद कुछ नहीं है। उस बीस मिनट के दौरान थोड़े रंग दिखाई देते थे। दृश्य तैरते थे लेकिन आगे क्या? इसे समझाने वाला कोई नहीं था। उन दिनों हमारे क्षेत्र के विजय आनंद ओशो से संन्यास ले चुके थे। महेश भट्ट भी ओशो को सुनते बहुत थे। ये दोनों मेरे अच्छे दोस्त थे। उनके साथ में पूना आया और ओशो की कुछ कैसेट खरीदे। आश्चर्य की बात, उन प्रवचनों में मुझे उन सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए जो मेरे मन में चलते थे।
इस वक्त आपकी उम्र क्या रही होगी? जाने क्यों आत्मा की उड़ान को मैं समय की सीमाओं में बाध रही थी।
विनोद जी न उन दिनों की याद को ताजा करते हुए कहा: कोई पच्चीस-छब्बीस साल। दिसंबर 1974 की बात है। मैं ओशो के शब्दों को तो सुनता रहा लेकिन अस्तित्व चाहता था, यह संबंध सिर्फ दिमागी न रह जाये। उसने मुझे सीधे जिंदगी की जलती हुई सच्चाई का सामना करवा दिया: मौत। मेरे परिवार में छह-सात महीने में चार लोग एक के बाद एक मर गए। उनमें मेरी मां भी थी। मेरी एक बहुत अजीज बहन थी। मेरी जड़ें हिल गई। मैंने सोचा, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा और मैं खुद के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं।
दिसंबर 1975 में एकदम मैंने तय किया कि मुझे ओशो के पास जाना है। मैं दर्शन में गया। ओशो ने मेरे से पूछा: क्या तुम संन्यास के लिए तैयार हो? मैंने कहा: मुझे पता नहीं। लेकिन आपके प्रवचन मुझे बहुत अच्छे लगते है। ओशो ने कहा तुम संन्यास ले लो। तुम तैयार हो। बस, मैंने संन्यास ले लिया।
उन्होंने आपकी कोई पूछताछ नहीं की कौन हो,कहां से हो?
नहीं कुछ नहीं, विनोद ने कहा,यूं लगा कि मैं इन्हें अच्छी तरह जानता हूं। कई जन्मों से हमारी पहचान है। उन्हें देखकर मुझे लार्जार दैन लाइफ का अहसास हुआ। और मैं ठीक जगह आ गया हूं—अपने घर।
इतना बोल कर विनोद होम कमिंग की भाव दशा को पुन: याद कर उसमें खो गये। कमरे में सधन चुप्पी उतर आई। सद्गुरू की बातें करने बैठो तो और क्या होगा। जुवा लड़खडाएगी नही? बहार पेड़ पर पक्षी बोल रहे थे, इस चुप्पी को पैना करने के लिए।
ओशो ने मुझे नाद ब्रह्म ध्यान करने के लिए कहा, विनोद जी स्मृतियों के खजानें को खोलते हुए बोले: अब मुझे लगता है कि शायद उस वक्त में बहुत सक्रिय था। मेरे अंदर शारीरिक ऊर्जा बहुत ज्यादा थी इस वजह से उन्होंने कहा होगा। अब तुम बैठ जाओ। मजे की बात यह है कि मेरा मन इतना सक्रिय नहीं था। मुझे बीच-बीच नि: शब्द अंतराल अनुभव होते थे। लेकिन में सोचता था कि यह अच्छा नहीं है। हमने जो सीखा हुआ है। कि एंप्टी माइंड इज़ डैविल वर्कशाप। वह मेरे दिमाग में घुसा था। इन निर्विचार अंतरालों से मैं घबरा जाता था। फिर जब ध्यान शुरू किया तब और भी डरावने अनुभव होते थे। शरीर में रासायनिक बदलाहट होने लगी। लेकिन मैंने ध्यान का दामन नहीं छोड़ा। मेरे भीतर ध्यान की लौ भभक गई थी।
वह वक्त ऐसा था कि मैं सुबह छह से रात बारह बजे तक काम करता था। शूटिंग पर जाने से पहले घर से ध्यान करके जाता था। रात को आने के बाद करता था और शूटिंग के बीच जब भी समय मिले, मेकअप रूम में जाकर ध्यान करने लगता। बस ओशो के प्रवचन सुनना ओ ध्यान करना। मेरे साथ कितने लोगों ने ओशो को सुना होगा इसका हिसाब नहीं है।
उन दिनों गेरूआ पहनना आग से खेलने जैसा था। ओशो का नाम आग्नेय हो गया था। इसलिए मैंने पूछा: आप संन्यास लेकर बंबई वापस गए होगें तो आपने गेरूऐ कपड़े पहनने शुरू कर दिये होंगे। लोगों पर इसका क्या असर हुआ।
असर क्या होना था, मुझे सब लोग पागल समझने लगे थे। परिवार वालों को बहुत धक्का लगा। उस वक्त ओशो भी बहुत विवादास्पद थे। लेकिन एक बात मैं कहना चाहूंगा। फिल्म इंडस्ट्री ने कभी मुझे अस्वीकृत नहीं किया। वे मेरे से हमदर्दी रखते की इसे शॉक लगा है। इसने संन्यास क्यों लिया होगा। इस तरह की बातें सोचते थे।
धीरे-धीरे क्या हुआ,मैं फिल्म जगत से ऊब रहा था। और मुझे बड़ी कशिश होती थी कि मैं सब कुछ छोड़कर पूना आश्रम में रहूँ। लेकिन जब मैंने ओशो से पूछा तो उन्होंने कहा, अभी तुम तैयार नहीं हो। तुम टोटल समग्र होकर काम नहीं कर रहे हो। जब तक तुम किसी काम को समग्रता से नहीं करते तब तक उससे बाहर नहीं हो सकते। अतिक्रमण तभी होता है। जब तुम समग्र होत हो। उस वक्त उन्होंने मुझे एक कहानी भी सुनाई थी, विनोद जी ने सहज ही उस प्रसंग पर संजीवनी छिड़कते हुए कहा।
कौन सी कहानी थी, याद है कुछ? ओशो की कही हुई कहानियां तो हम सभी जानते है लेकिन किसी शिष्य को विशिष्ट संदर्भ में कही हुई कहानी उसके लिए पथ प्रदर्शक बन जाती है। मानों कहानी न हुई, जीवन के रहस्य की कुंजी ही है।
वो कहानी एक झेन गुरु की…..एक चोर भागता हुआ निकल जाता है। वहां पर एक झेन गुरु ध्यान में बैठा हुआ था। पुलिस आकर इस गुरू को ही चोर समझकर पकड़ ले जाती है। और जेल में बंद कर देती है। गुरु कहता है, जैसी उसकी मर्जी वह यह भी नहीं कहता कि मैंने चोरी नहीं की यह सोचता है उसमे आस्तित्व का कोई राज है। अब जैल में भी गुरु ध्यान में लीन रहने लगा। उसके कारण और कैदी भी ध्यान करने लगे। 3-4 साल बाद असली चोर पकड़ा गया। पुलिस ने झेन गुरु को छोड़ दिया; कहने लगे, हमें माफ कर दें। गुरु ने कहा, नहीं,अभी मुझे मत छोड़ो। मेरा काम पूरा नहीं हुआ है।
यह कहानी सूना कर ओशो ने कहां हम सभी जेल में है। कोठरी में है। हम एक सी सात बाई सात की कोठरी है। चाहे वह जेल के अंदर हो चाहे बाहर हो। जब तक हम समग्रता से अपना काम नहीं करते तब तक कोठरी से बाहर नहीं हो सकते।
यह कहानी मेरे भीतर गहरे प्रवेश कर गई। मैं अपने को और दूसरों को भी कोठरी में बंधा देखने लगा। मुझे यह भी दिखाई दिया कि मैं अभिनय में सब कुछ दांव पर नहीं लगता। मेरा रेजिस्टेंस हुआ करती थी फिल्मी गीतों के प्रति। मुझे भीतर से लगता था, क्या बकवास है। तो पुरी तरह से उनमें उतर नहीं सका। मेरे किरदार हों, मेरी फिल्मों की कहानी हो, डाइरक्शन हो, हर चीज में मेरी नापसंदगी बनी रहती थी।
अब मुझे पहली बार लगा कि हर आदमी की अपनी स्पेस होती है। और मेरी तरह वह भी उससे बंधा हुआ है। इसलिए मुझे हर व्यक्ति का सम्मान करना चाहिए। बस इतना सा फर्क करते ही काम में मुझे इतना आनंद आने लगा कि क्या बताऊ। हर एक के प्रति स्वीकार भाव आ गया। मेरे आनंद लोगों पर भी असर करने लगा। जैसे ही मैं काम से टोटल हुआ,मुझे बहुत मजा आने लगा।
फिर मैंने ओशो को यह अनुभव बताया। तो उन्होंने कहा,अब तुम ग्रुप्स करो। उससे मुझे बहुत फायदा हुआ। मेरी कई ग्रंथियां खुल गई और मेरी उर्जा मस्ती से बहने लगी। मैं संसार में पूरी तरह से था पर संसारी नहीं था।
यदि आपने संसार और संन्यास के बीच मज्झम निकाय खोज लिया था तो आप सब कुछ छोड़ कर आश्रम में क्यों आ गए? एक बात माननी पड़ेगी कि कुछ भी हो जाए आप विनोद भारती को डावा डोल नहीं कर सकते। कोई भी प्रश्न पूछे उनका तराजू स्थिर परिपक्व सम हो गया था वह समाधान के गहरी खाई यों में उतर गया था। शायद समाधि की सुगंध उसके नासापुट के करीब हो।
उन्होंने बिना झुंझलाए जवाब दिया। आश्रम में ओशो के पास रहने की मेरी गहरी तमन्ना थी। यह तो ओशो तो ओशो ने मुझे आज मानें के लिए संसार में भेज दिया था। फिर एक दिन अचानक ओशो ने कहा: अब तुम आश्रम में रहने आ जाओ। मैं दूसरे ही दिन बंबई गया, जोर दार प्रेस कांफ्रेंस ली और अपना संन्यास घोषित कर दिया। उस वक्त मेरा कैरियर शिखर पर था। कई निर्माता मेरी फिल्मों में पैसा लगा चुके थे। मेरे परिवार मेरे दोस्त, सब के लिए यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी। मेरे आस पास एक बवंडर खड़ा हो गया। पत्नी बच्चे बिछुड़ गए। फिल्म जगत के लोग नाराज हो गये। यार-दोस्तों ने मुझे पागल करार दे दिया। जो समय नाम और पैसा कमाने का था उस समय मैं सब छोड़ रहा था। शायद में सही हूं कि ओशो को दुनियां में नहीं तो कम से कम भारत में सबसे ज्यादा बदनाम मैंने किया। ये कालिख तो मैंने अपने गुरु पर लगा ही दी और मैं जानता था वो मुझे क्या दे रहे है और बदले में गुरु को मैं क्या दे रहा हूं। मुझे पैसे का नाम का परिवार का इतना बुरा नहीं लगा ये तो छुटना ही है। नाम कब तक रहेगा। वह तो खोजाना ही है। पर ओशो को जो मैंने दिया…….. इतना कह विनोद गहरे में कहीं खो गये। वह भाव विभोर हो गये। शब्द कुछ देर के मौन हो गये। उनका गला भर आया। कुछ देर केवल गुरु और निशब्द नीरवता छाई रही।
आपको पत्नी बच्चों को लेकर कोई अपराध भाव नहीं हुआ?
नहीं, विनोद जी ने आत्मविश्वास से कहा, एक तो मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा था। गुरु के पास ही जा रहा था। दूसरी बात मैंने उनको साथ लेने की बहुत कोशिश की लेकिन उनकी ओशो में कोई रूचि नहीं थी। तो बात स्पष्ट हो गई कि अब हमारे रास्ते अलग थे। रहा निर्माताओं का सवाल,तो मैंने जो वादे किए थे। सारे पूरे किए, मैं शूटिंग के लिए पूना से बंबई जाया करता था।
मैंने 1978 में संन्यास की घोषणा की थी लेकिन मैं 1981 तक पुरानी फिल्में खत्म करने के लिए पूना से बंबई जाया करता था। सिर्फ दो फिल्में अधूरी थी। वे पूरी नहीं कर सके। फिर ओशो ने कहा, तुमने उन्हें काफी समय दिया है। अब तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।
यदि यह सच है तो पत्रकारों ने आपके खिलाफ इतना तूफान क्यों उठाया कि आपने कितनों के पैसे डुबो दिए, निर्माताओं को मझधार में छोड़ दिया।
विनोद को असंतुलित करना असंभव है। उन्होंने इस स्वर में कहा जैसे बुजुर्ग बच्चे के बारे में कहते हे। फिल्मी पत्रकारों की कौन कहे? उन्हें मिर्च मसाला चाहिए बस। मेरे जीवन की घटनाएं ही ऐसी थी कि उन्हें उछालने का खूब मौका मिला। संन्यास इतनी निजी और आंतरिक घटना है, इसे बाहर से कैसे समझा जा सकता है।
अच्छा अब आपकी आश्रम की दिनचर्या के बारे में कुछ बताएँगे?
आश्रम में मेरा जो जीवन था वह पुराने ढाँचे से हर तरह से उल्टा था। बंबई में मैं निरंतर लोगों के बीच घिरा रहता था। यहां ओशो ने मुझे अपने निजी उद्यान में बागवानी करने के लिए कहा। बाग़ क्या बिलकुल जंगल था। वहां आप कोई पेड़ नहीं कांट सकते। ने पत्ते तोड़ सकते। ग्रीन मुक्ता मेरी बॉस थी। वह मुझे कहां-कहां घुसकर पौधे लगाने के लिए भेजती थी। मेरी छह फुट की देह—मेरे हाथ पांव छिल जाते थे। कांटे चूभ जाते थे। खून निकल आता था। मिट्टी में सन जाता था। पर ये काम था अनूठा और ह्रदय गामी। मेरे अहं कार की जड़ों तक को खोद गया। वरना तो यह बीज घास की तरह है। बरिस हुई नहीं की सुखा रेगिस्तान सा दिखने वाला स्थान भी पल हरा हो जाता है। शायद यही मेरे दोस्त विजय आनंद और महेश के साथ हुआ काश वो बोधिकता से आगे जा ध्यान का समर्पण का रस्सा स्वाद ले लेते। फिर आप मेरा कमरा देखिये वह मेरे नाप का ही थी। पूरे पेर फला ही नहीं सकता था। मुझे पब्लिक टायलेट में जाना पड़ता था। यहीं नहीं मुझ से यह भी कहा गया था की इस कमरे में दो लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मेरे भीतर मौत का गहरा डर जो था। विनोद ने हंस कर कहां।–वहीं खिलते-बिखरते हुए फूल सी हंसी जो हम पर्दे पर देखते हैं।.
यह तो आपके अहंकार पर सब तरफ से सीधी चोट थी। उससे आपके अंदर क्रोध नहीं उठता होगा?
मुझे बहुत मजा आ रहा था, विनोद ने उस स्थिति का जायका लेते हुए कहा। ‘ मैं इतना मस्ती में था कि मुझे ओशो के पास रहने का मौका मिल रहा है। मेरे मन की सारी उथल पुथल शांत हो गई थी। शायद इस फकीरी की ही मुझे तलाश थी। मैं खूब काम करता था ओर खूब ध्यान करता था। समाधि टैंक मुझे बहुत अच्छा लगता था। उसमें मां के गर्भ जैसी स्थिति बनाई जाती है। वहां पर मुझे अपने जन्म का अनुभव भी हुआ।
आश्रम के इतने गहरे अनुभवों के बाद शूटिंग के लिए बंबई जाना भारी नहीं पड़ता था?
नहीं। ओशो ने आश्रम का माहौल कुछ ऐसा बना रखा है कि यहां भरा पूरा संसार है। यह कोई उदास और शांत संन्यास नहीं है। यहां तो हर वक्त चहल-पहल और कुछ न कुछ उपद्रव होता ही रहता है। और कुछ नहीं हुआ तो वे ही कोई चक्कर चला देंगे, है न? तो मैं समझता हूं, ओशो का संन्यास उलटे संसार को और मजबूती से झेल सकता है। आश्रम के बाहर जाना-आना मेरे लिए कोई मुश्किल नहीं था।
विनोद ने ओशो के संन्यास का अनुभव का अनूठापन इत्र की तरह निचोड़ कर रख दिया। बात सच है, ओशो के बुद्ध क्षेत्र की आंधी में जो जी लिया उसने भँवर में साहिल को पा लिया।
रजनीश पुरम में आप रहे थे। उस अनुभव के बारे में आप क्या कहेंगे।
रजनीश पुरम ओशो का बहुत बड़ा प्रयोग था। मनुष्य चेतना को विकसित करने की खातिर। वहां भी मुझे ओशो के बग़ीचे में ही काम दिया गया था। इतना काम करना पड़ता था कि बयान करना मुश्किल है। पूरा शहर बसाना था। ओशो के बग़ीचे में मोर थे, उनका सब कुछ मैं करता था। सफाई, पेड़-पौधे की देखभाल में मुझे बहुत मजा आता था। कभी ओशो मुझे अपने कमरे में बुलवा लेते थे। वो चाहते थे कि मैं बाकी अभिनेता ओर को वहां बूलाऊं। और यहां क्या हो रहा है और क्या मिल रहा है। उन्हें दिखाओं।
खैर, रैंच के आखिरी साल माहौल बदल गया। वहां हर व्यक्ति पर इतना गहरा काम हो रहा था। कि जिसके भीतर जो दबा पडा था वह उभर कर बहार आ रहा था। मेरा देखना यह है कि सद्गुरू के पास रहना हो तो अटूट भरोसा चाहिए। और विरोधाभास यह है कि तुम्हारा भरोसा जैसे-जैसे बढ़ता है तुम्हारी चेतना की गहरी पर्तें उघड़ने लगती है। वहीं मेरे साथ हुआ। रजनीश पुरम बिखरा उससे पहले मेरे अंदर बहुत से भय जाग गये थे। भय अपराध भाव।
विनोद जिस निर्मलता से अपना ह्रदय खोल रहे थे वह घटना दो संन्यासियों के बीच ही घट सकती है। हम सभी एक ही रहा के हम सफर जो है। मन के अंधकार को उलीचने के लिए श्रद्धा की आधारशिला अति आवश्यक है।
यह अपराध भाव किसी खास घटना को लेकर या एक सामान्य भाव की तरह था?
ऐसा कह सकते है ये भाव बादल की तरह मेरे दिल पर छाए रहते थे। जैसे कोई काली छाया आती थी वैसे वे अचानक मुझे घेर लेते थे। उस समय मैं बहुत असहाय हो जाता था। मैं घंटो रोता रहता था। एक तरफ मैं इसे साक्षी भाव से देखता भी था। लेकिन इस संवेग पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं होता था। मैं मेरे ही मन के किसी अज्ञात लोक में प्रवेश कर गया था। वह क्या है, कहां से आता है। मुझे कुछ पता नहीं चल रहा था।
यदि आप इस गहराई में उतर गए थे तो फिर फिल्मों में वापस क्यों चले गए? मैंने बिबूचन में पड़ कर पूछा।
विनोद जी के पास इसकी बहुत स्पष्टता नहीं थी। उन्होंने स्वयं को टटोलते हुए कहा, ‘ एक तो मैं इस स्थिति से पूरी तरह गुजरना चाहता था, बिलकुल अकेले। फिर मुझे बच्चों का ख्याल हुआ कि मेरा उनके प्रति कोई कर्तव्य है। मैंने फिल्मों में वापस जाने की सोची। स्वयं ओशो कर रहे थे। जब मनाली में ओशो से पूछने गया तो उन्होने कहा, तुम वापस उसी दुनिया में जा सकोगे? मैंने कहा: जा सकूंगा।
इधर मैं एक बात बता दूँ कि ओशो से मैं इस कदर जुड़ा हुआ था कि वे मेरे सर्वस्व थे। मेरी हालत बिलकुल छोटे बच्चे की थी। ओशो ने कहा, तुम पूना जाकर वहां का आश्रम संभाल लो। और एशिया का पूरा काम तुम देखो। मैंने कहा,मैं इसके लिए योग्य नहीं हूं। ने तो मुझे राजनीति की समझ है न प्रशासन की। ओशो बोले, वह सब तुम सीख जाओगे। मैंने ओशो से कहा,मैं सोचकर आपको जवाब देता हूं। और मैं बंबई चला आया।
अब मन की इस विडंबना को क्या कहे? उसने कुरू को इनकार कर खुद के लिए ओ बड़ी खाई खोद ली। इस इनकार की कीमत विनोद को चुकानी पड़ी।
बंबई आने के बाद मेरी ग्लानि में एक बात और जुड़ गई, मैंने ओशो को मन क्यों किया। मुझे एक फिल्म गई,मैं शूटिंग पर जाने लगा। वहाँ अजीब घटना घटती। जब तक मैं कैमरे के सामने होता, मैं बिलकुल अच्छी हालत में होता। जैसे ही मेकअप रूम में जाता रौना फूट पड़ता। मेरा अचेतन मेरे उपर हावी हो जाता। एक तरफ मैं केंद्र पर स्थित होता था सारा तूफान चलता रहता था। किसी भी वक्त किसी भी जगह मेरा रोना फूट पड़ता था। दिमाग भंयकर उलझन में था लेकिन दिल में भरोसा था कि मैंने ठीक किया है। उसी दौरान पत्रकारों ने सारी अफवाहें फैलाई कि मैंने ओशो को छोड़ दिया, मैं विक्षिप्त हो गया। संन्यासी भी कहने लगे कि मैं नाटक कर रहा हूं। आखिर अभिनेता जो हूं। ओशो के पास रहना भी मेरा नाटक था, यह भी नाटक है। जब संन्यासी मेरे पर छींटाकशी करने लगे तो पहले तो मुझे बड़ी चोट लगी लेकिन फिर मैंने सोचा कि इन्होंने इस तल का अनुभव नहीं किया होगा। तो वे कैसे समझेंगे? कुछ लोग मुझे मनश्चिकित्सक के पास जाने की सलाह देने लगे। लेकिन जिस के अंदर ओशो बसे हुए है वह किसी वैद्य के पास क्यों जाये? हर पल ओशो मेरे साथ थे। मेरे भीतर उनसे बिछुड़ने का कोई भाव ही नहीं था। इसीलिए बाहर से मैं उनसे दूर रह सका।
आदमी के अचेतन कक्ष में जन्मों-जन्मों का भंडार है। आमतौर से लोग इस बीहड़ में प्रवेश नहीं करते। यह तो किसी दिलेर का ही काम है। इस अज्ञात लोक से गुजरने के बाद विनोद के ध्यान की जड़ें इतनी मजबूती से जम चुकी है कि उनके पास बैठकर मुझे लग रहा था किसी विशाल दरख़्त के साये में बैठी हूं। जिसके सारे नकाब उतर चुके हो ऐसा कोई गुमनाम चेहरा—जो सिर्फ ‘’ है ‘’। जैसे झरना है, पहाड़ है, आकाश है। बस होना मात्र और कुछ नहीं। आदमी को पूर्ण और प्रगाढ़ और सरल और सहज बना देता है।
विनोद जी के साथ मैं भी उस गुफा में हो आई थी। खुली हवा में सांस लेकर मैंने पूछा: फिर इस स्थिति से आप बाहर कैसे आए ?
उन्होंने चुटकी बजाकर कहा: बस यूं ही। एक सुबह वह सारा गायब हो गया। उसके बाद
फिर कोई भाव आवेग लौटकर नहीं आया। फिर तो मन के अंदर एक सन्नाटा छा गया जैसे प्रकृति में भयंकर आंधी तूफान के बाद होता है। सब कुछ धुल गया। बादल बरसे, बिजली चमकी, बड़े-बड़े पेड़ उखड गये, और दूसरे ही क्षण ऐसी धूलि हुई खामोशी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उस खामोशी में बहुत उर्जा पैदा हुई, वह घड़ी ऐसी थी की मैं एकदम सड़क पर आ गया था। न परिवार, न संग, न दोस्तों का साथ। आश्रम और संन्यासियों से भी मैं टुट चुका था। बिलकुल अकेला। लेकिन अंदर कोई अडिग केंद्र था जहां ओशो का सहारा था और था गहन मौन।
उसके बाद मेरी पहली फिल्म प्रदर्शित हुई। इंसाफ। यह फिल्म सुपरहिट हुई। मेरे दर्शक अभी तक मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे भूले नहीं थे। फिर तो एक के बाद एक फिल्म मिलीं और डेढ़ साल में मैंने नया घर खरीदा जो कि पहले घर से ज्यादा शानदार था। मेरा जितना लुट गया था उससे दस गुणा लौटकर आया। यह ओशो का कायदा है। और जब जो मेरे दोस्त है उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग। ओशो के प्रवचनों में ध्यान विधियों में उत्सुक हो गए है। मेरे भीतर जो बदलाहट हुई है उससे उन्हें लगता है कि ओशो की बातों में कुछ दम है।
जिस दिन ओशो ने शरीर छोड़ा उस दिन आप कहां थे? यह आघात आपने कैसे झेला?
उस शाम को मैं घर पर ही था। मुझे ओशो की बड़ी याद आ रही थी। सो मैंने उनकी एक किताब उठा ली और पढ़ने लगा। यह वे क्षण थे जब उन्होंने देह छोड़ी। मेरी बेचैनी कम नहीं हो रही थी इसलिए मैं कुछ देर के लिए बहार गया। घर आया तो पूना से फोन आ चुका का। पहले तो मुझे बड़ा सदमा लगा, फिर मैं अपने कमरे में गया, ध्यान संगीत का टेप चलाया। बड़ी देर तक मैं नाचता रहा और रोता रहा। दोनों चीजें एक साथ हो रही थी।
जैसे ही उन यादों के गुलाब ताजा हुए, उन कांटों ने भी सर उठा लिया। बोलते-बोलते विनोद जी रूक गये। हमने कुछ पल आंसुओं के नाम चढ़ा दिये।
मैंने देखा, इस नए विनोद के ऊपर आंसुओं की बहुत अधिक पकड़ नहीं थी। कुछ ही क्षणों में वे प्रकृतिस्थ हो गए। उनकी भाव दशा की घुप-छांव को देखते हुए मैंने पूछा: इतने गहरे ध्यान से गुजरने के बाद अब आप अभिनय करते है तो उसमें कौन सा बुनियादी फर्क पाते है।
विनोद ने सहज मन से कहा: ‘ अब मेरा साक्षी इतना प्रखर हो गया है कि मैं कुछ भी करू,मेरी सजगता खोती नहीं। अब अभिनय सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। वह पूरे जीवन पर फैल गया है। मेरा जीवन ही मुझे पूरा का पूरा अभिनय जैसा ही लगता है। तो मैं कह सकता हूं की अभिनेता तो आसानी से ध्यान में उतर सकता है। वह इतनी बार रोल बदलता है चेहरे बदलता है कि उसके लिए उसका ओरिजिनल फेस मूल चेहरा खोजना कोई मुश्किल काम नहीं। थोड़ी ही समझ की जरूरत है।
ओशो भी कहते है कि फिल्म जगत के लोगों में ? बहुत संभावना है और वे लोग मेरी बात को ज्यादा समझेंगे। क्या आप भी ऐसा मानते और महसूस करते है?
बिलकुल, विनोद जी ने बहुत दृढ़ता से कहा, मैं तो मानता हूं कि फिल्म जगत के कई लोग ध्यानी हैं ही। फर्क इतना है कि उन्हें यह बात पता नहीं है। कैमरे की पैनी आँख के सामने खड़े होना कोई खेल नहीं है। वह आदमी की आँख से बेहद शक्ति शाली है। आपकी छोटी से छोटी हरकत को बड़ी करके दिखा सकता हे। कैमरे के सामने आपको बहुत होश पूर्णहोना पड़ता है। उसी होश को ध्यान से जोड़ दो गेस्ट लोक बदल जायेगा।
फिर ओशो की स्मृति में भीगे हुए स्वर में विनोद बोले, ‘’ देखो, होश ऐसा तत्व है जो हर किसी चीज की क्वालिटी बदल देता है। एक ही चोट जब गुरु करता है तो हम उसे डिवाइस कहते है, कोई साधारण आदमी करता है तो हम उसे बदला कहते है। तो होश से पूरी बात बदल जाती है। हमारे फिल्मी लोग बड़े प्यो हैं, संवेदनशील है, क्रिएटिव हैं, वे ध्यान में बड़ी जल्दी छलांग लगा सकते है।
यदि विनोद खन्ना जैसे और संन्यासी सितारे फिल्म जगत में पैदा हुए तो सुरा, सुंदरी और धन की चमक-दमक में चुँधियाती ये फिल्मी नगरी। आज उस विराट बुलंदियों और आर्दशों को छू रही होती जिससे सारा समाज, और आधुनिक मानव के आदर्श हीरो कुछ और नया कर रहे होते। और इस वैभव के बीच ध्यान की अपूर्व शांति उसे महान बना देती। उनकी अंदर और बहार का जीवन देखने जैसा होता।
विनोद जी को ओशो ने जो झेन गुरु का उदाहरण दिया था। वह निष्प्रयोजन नहीं था। संन्यास और संसार के परिपक्व संतुलित समन्वय से बने हुए वर्तमान विनोद को देखकर मुझे लगा, कितनी आग से गुजर कर यह रसायन सिद्ध हुआ। सच विनोद ने जो किया कोई करोड़ो में एक कर सकता है। इतने नाम शौहरत को छोड़-छाड़ कर एक अज्ञात जीवन ही नहीं बदनामी और पीड़ा भी सहनी पड़ी। इस दुनियां में धन भी आसानी से छोड़ा जा सकता है। पर नाम और यश की जिस ऊँचाई से विनोद जी ने छलांग लगाई है। वह विरल है। आज उन्हें गहरी ध्यान की सुरम्य घाटियों का अनुभव भी आह्लादित किये रहता है। जितनी ऊँचाई उतनी ही गहराई। पेड़ जितनों उपर जायेगा। जड़ें उतनी गहरी तो होनी ही चाहिए। इसे कोई विरला ही बुझ सकता है।
(ओशो टाइम्स इंटरनेशनल, अप्रैल—1994 अंक में प्रकाशित साक्षात्कार)