एक पत्रकार से एक संपादक हो जाना बहुत कठिन नहीं है लेकिन एक संपादक से किसी महनीय विश्वविद्यालय का कुलपति हो जाना मुश्किल सा था। और इस मुश्किल को बड़ी ही सहजता से जिसने पाया उसका नाम है जगदीश उपासने। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति बनाये जाने पर मध्यप्रदेश स्वयं को जितना गौरवांवित महसूस करता है, उतना ही गर्व छत्तीसगढ़ को है। यह होना लाजिमी है क्योंकि 15 बरस पहले छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब दो राज्यों का कोई भेद नहीं था। इस नाते पत्रकारिता के वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादक जगदीश उपासने सबके हैं और सब उनके हैं। जगदीश उपासने का जगदीश उपासने बने रहना सरल क्यों नहीं है, इस पर कुछ विमर्श किया जा सकता है।
आज दोनों राज्यों के पास अपने अपने पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय है। ऐसे में यह सवाल जायज है कि छत्तीसगढ़ के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी उपासनेजी को क्यों नहीं दी गई? जिन दिनों सच्चिदानंद जोशी कुलपति पद से भारमुक्त हो रहे थे तब उपासनेजी से बेहतर चयन कोई दूसरा नहीं हो सकता था। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात की भनक है कि इसके पहले ही उन्हें एमसीयू के कुलपति बनाने की चर्चा चली थी, जब पूर्व कुलपति बी.के. कुठियाला अपना पहला कार्यकाल पूरा कर चुके थे लेकिन स्वयं उपासने जी की इच्छा नहीं थी सो कुठियालाजी यथावत बने रहे। जोशी के कुलपति पद से भारमुक्त होने के बाद उन्होंने स्वयं ही छत्तीसगढ़ जाने से मना कर दिया था। उपासने जी को जो लोग व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, वह यह भी जानते हैं कि वे हमेशा एक पत्रकार के रूप में रहे हैं और इसी रूप में वे अपनी सक्रियता बनाये रखना चाहते हैं।
यह ठीक है कि उनकी पृष्ठभूमि संघ की है लेकिन इस पृष्ठभूमि को उनकी पत्रकारिता से घालमेल नहीं किया जा सकता है। जनसत्ता और इंडिया टुडे जैसे प्रकाशनों में उनकी जिम्मेदार भूमिका किसी खास विचारधारा को पोषित नहीं करती है और ना ही उन्हें अवसर देती है। वे निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकार के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन करते रहे हैं। कुलपति के रूप में उपासनेजी को यह दायित्व इसलिए नहीं मिला कि वे एक खास विचारधारा के हैं अपितु उनकी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा एवं समर्पण ने उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त समझा। हां, वर्तमान में वे ऑर्गनाइजर ग्रुप के संपादक थे और संघ के प्रति उनकी व्यक्तिगत सोच भी उनके कुलपति बन जाने में सहायक हो सकता है लेकिन पत्रकारिता में उनका योगदान ही उनके चयन का आधार बना।
इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि 25 वर्ष पुराने एमसीयू बीते वर्षों में विवादों से कारण-अकारण घिरा रहा। इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन जो छवि एमसीयू की थी, उसे धक्का लगा। इस बात से इनकार करना मुश्किल है। इस बात को लेकर संघ और सरकार में भी विमर्श हो रहा होगा और उन्हें अपने बीच से लेकिन पत्रकारिता के लिए प्रतिबद्ध चेहरे के रूप में चयन का अवसर मिला तो उपासनेजी से बेहतर कोई नहीं हो सकता था। 8 वर्ष पहले देश के एक अन्य ख्यातनाम पत्रकार एवं संपादक अच्युतानंद मिश्र को जब एमसीयू की जिम्मेदारी सौंपी गई तो देशभर के पत्रकार जगत में स्वागत हुआ था और आज जब उपासनेजी को यह दायित्व मिला है तो एक बार फिर वैसा ही उत्साह है। इस बात को याद रखना चाहिए कि श्री मिश्र ने जब एमसीयू की जवाबदारी सम्हाली तो वे महानिदेशक बनकर आए क्योंकि तब एमसीयू संस्थान था और जब वे पद से मुक्त हुए तो कुलपति के रूप में क्योंकि तब माखनलाल पत्रकारिता संस्थान से माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का स्वरूप ग्रहण कर चुका था। उपासनेजी ने स्पष्ट कर दिया है कि एमसीयू पत्रकारिता एवं संचार का विश्वविद्यालय है और यहां पर इसी दृष्टि से अध्ययन-अध्यापन को बढ़ावा दिया जाएगा। वे किसी पर विचारधारा सौंपने के खिलाफ हैं। यह सोच एक पत्रकार की हो सकती है और इस सोच में वे सबसे अलग और आगे दिखते हैं।
सहजता और सरलता उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है। आडम्बरों से परे रहने वाले उपासने जी से मेरा अग्रज और अनुज का रिश्ता है। मेरे द्वारा आरंभ किया गया रिसर्च जर्नल ‘समागम’ के प्रति उनका आरंभ से अनुराग रहा है। जब-जब उनसे आग्रह किया और उन्होंने अपनी व्यस्तताओं के बीच समय निकालकर लिखा। यह हिस्सा इसलिए लिख रहा हूं कि वे पत्रकारिता के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं, यह जान लें। 2012 की बात होगी। चुनाव के संदर्भ में ‘समागम’ का अंक संयोजित कर रहा था। मेरे आग्रह पर पेड न्यूज के बारे में उन्होंने बेबाकी से आलेख के स्थान पर रिपोर्टिंग की तर्ज पर लिखा। साथ में उन्होंने कहा कि लगे तो छापना, नहीं तो बिलकुल नहीं। गुरु जैसे मेरे अग्रज के लिखे को ना छापूं, यह दुस्साहस तो मैं नहीं कर सकता था। अंक प्रकाशित हुआ और इसकी प्रति सुपरिचित कवि एवं राजनेता श्री बालकवि बैरागी को प्रेषित किया। अंक मिलते ही उनका फोन आया-‘ॠकमाल करते हो यार, इतने वर्षों से पत्रिका निकाल रहे हो और मुझे भेजा भी नहीं। कितने साहस रखते हो भाई। जगदीश उपासने ने जो लिखा, उसे आपने छाप दिया। बधाई। उनका मोबाइल नंबर देना, मैं बात करता हूं।’ शायद तत्काल उन्होंने उपासनेजी को फोन घुमा दिया और वही बातें उनसे की होंगी। बाद में उपासनेजी से बात होने पर उन्होंने बैरागीजी से हुई चर्चा के बारे में बताया था।
कुलपति बन जाने के बाद जब मैं उपासनेजी से सौजन्य भेंट करने पहुंचा तो वही बात निकल आयी। कहने लगे- ‘बैरागी चाहे जिस विचारधारा के हों, बचपन से हम उन्हें पढ़ते और सुनते आए हैं। अब उस पीढ़ी के चंद लोग बच गए हैं जो बेबाकी से अपनी बात कहते हैं।’ यह एक और मिसाल है कि उनकी पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्ध रहने की। सरलता, सहजता उनका व्यक्तित्व है लेकिन अब सामने जो संकट है वह है पत्रकारिता जगत का बड़ी उम्मीदें जग जाना। पर्दे के पीछे कुछ सक्रिय भी होंगे और कुछ साथ खड़े भी होंगे क्योंकि एक वर्ग को तो इस बात का इल्म ही नहीं था कि वे पत्रकारिता के किस कद-काठी के व्यक्तित्व हैं। उनका कद तो इस बात से आंका जा रहा था कि उनकी पृष्ठभूमि क्या है? हां, यह बात सुनिश्चित है कि समूचा पत्रकारिता जगत उनके साथ होगा और यही साथ माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सपनों को सच करने में सहायक होगा।
(लेखक हिंदी शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं)
साभार- http://samachar4media.com/ से